23 मार्च की शाम मुझे एक असहज अनुभव हुआ।
शहीद-ए-आजम भगतसिंह के बलिदान दिवस पर आयोजित एक छोटे से समारोह में शामिल होने का अवसर मिला। श्रोताओं की अधिकतम संख्या एक सौ रही होगी। इनमें भी बूढ़े अधिक थे। युवा कम। बूढ़े लोग खुद से तथा अपने अतीत से मोहग्रस्त और आत्म-मुग्ध थे तो युवा लगभग निस्पृह या कि तटस्थ मुख-मुद्रा में।
मैं पहुँचा तब तक कार्यक्रम प्रारम्भ हो चुका था। स्थानीय विधायकजी का उद्बोधन चल रहा था। वे पहली बार विधायक बने हैं किन्तु वे पहले से ही ‘वाक् पटु और व्याख्यान निष्णात’ हैं, यह पूरा कस्बा जानता है। अब तो वे विधायक हो गए हैं! सो, लोगों को लगता है कि अब तो उन्हें प्रत्येक विषय पर अधिकारपूर्वक बोलने की सुविधा भी प्राप्त हो गई है जबकि मैं इसे निर्वाचित जन प्रतिनिधियों की अपरिहार्य और कभी व्यक्त न की जा सकने वाली विवशता मानता हूँ। वे लाख कहें कि विषय से उनका कभी साबका नहीं पड़ा किन्तु लोग उन्हें जबरन ठेल ले जाते हैं और बेचारों को कुछ इस तरह बोलना पड़ता है जो उनके अज्ञान को भली प्रकार ढका रहने दे।
‘लेट कमर आल्वेज सफर्स’ वाली बात मुझ पर शब्दशः लागू हुई और मुझे सबसे पीछे वाली पंक्ति में जगह मिल पाई, वह भी एक कृपालु के सौजन्य से। लाउडस्पीकर की व्यवस्था नहीं थी। किन्तु चारों ओर ऊँची दीवारों वाली चैहद्दी के कारण उद्बोधन को सुनने मे कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए थी, फिर भी हो रही थी। क्यों हो रही थी? यह आगे स्पष्ट हो सकेगा।
हमारे विधायकजी ने भगतसिंह के असेम्बली में बम फेंकने के पराक्रम सहित कुछ कामों को भारतीयता की आधारभूत अवधारणाओं से जुड़ा और उसी से प्ररित प्रतिपादित किया। श्रोताओं ने इस पर तालियाँ बजाईं।
विधायकजी के बाद वे सज्जन बोले जिनके साथ मैं गया था और जिन्हें मैं मुख्य अतिथि मानने की भूल कर बैठा था। वे प्रखर समाजवादी हैं और उन्होंने गाँधी, भगतसिंह और लोहिया के बीच तादात्म्य स्थापित करने की सराहनीय कोशिश की तथा वर्तमान स्थितियों में इन तीनों की प्रासंगिकता तथा आवश्यकता जताई।
इस बीच, मंचासीन एक वयोवृध्द समाजसेवी ने भी सम्बोधित किया जो मुझे सुनाई नहीं पड़ा। हमारी महापौर ने अपने अध्यक्षीय भाषण में भगतसिंह पर कुछ कहने के बजाय, ‘ऐसे महापुरुषों की जयन्तियाँ’ (आयोजन भगतसिंह की जयन्ती का नहीं, उनकी शहादत को याद करने का था) मनाए जाने पर जोर दिया। उनका भाषण तीसरी-चौथी कक्षा के स्कूली छात्र जैसा था।
मैंने प्रत्येक वक्ता को यथासम्भव सम्पूर्ण सतर्कता से सुनने का प्रयास किया किन्तु पूरी तरह सफल नहीं हो पाया। कारण? वही, जो आजकल प्रत्येक अयोजन में सबसे बड़ा व्यवधान बन कर उभरता है - मोबाइल फोन। जब शहीद-ए-आजम के पराक्रम का बखान किया जा रहा था, उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जा रही थी तब, प्रत्येक वक्ता के भाषण के दौरान किसी न किसी के मोबाइल की घण्टी बराबर बजती रही। घण्टी भी सामान्य घण्टी जैसी नहीं, अलग-अलग फूहड़ फिल्मी गानों वाली घण्टी। कभी ‘इश्क की गलियों में नो एण्ट्री’ वाली तो कभी, न समझ में आने वाले किसी अंग्रेजी गीत की धुन बजी।
लेकिन इससे अधिक क्षोभजनक और आश्चर्यजनक बात यह रही कि जब भी घण्टी बजी तब प्रत्येक बार मोबाइलधारी सज्जन ने न केवल सहजतापूर्व अपितु अधिकारपूर्वक, मुक्त कण्ठ, मुक्त स्वरों में सामने वाले से बात की। एक ने भी अपने आसपास बैठे लोंगों की न तो चिन्ता की और न ही उनकी नजरों में कोई खेद-भाव नजर आया। घण्टी बजी, उन्होंने मोबाइल जेब से निकाला, कुछ देर तक ‘कालिंग नम्बर’ देखा, सामनेवाले को पहचानलेने की खातरी होने के बाद बात की और उतनी ही सहजता से मोबाइल जेब में रख लिया। एक सज्जन कुछ आँकड़े बोल रहे थे। वास्तविकता क्या रही होगी यह तो वे दोनों बात करने वाले और ईश्वर ही जाने किन्तु मुझे लगा कि वे किसी खाईवाल को सट्टे के अंक लिखवा रहे थे। किन्तु केवल श्रोता ही क्यों? आयोजकों में से एक सज्जन खुद भी, चहलकदमी करते हुए, अत्यन्त सहजभाव से और पूरी तन्मयता से मोबाइल पर बात कर रहे थे।
भगतसिंह, उनकी शहादत और देश प्रेम की बात छोड़ भी दें तो भी सार्वजनिक शिष्टाचार निभाने की आवश्यकता किसी एक ने भी अनुभव नहीं की। अनुभव करते भी कैसे? इसके लिए जो ‘नागर संस्कार’ या कि ‘नागरिकता बोध’ चाहिए, उसका तो अर्थ भी किसी को मालूम नहीं होगा।
इन्हीं सारी बातों ने मुझे असहज किया। ऐसे क्षणों में मैं बहुत ही जल्दी आपे से बाहर हो जाता हूँ किन्तु उस समय मैं चुप ही रहा। कैसे और क्यों रह पाया? इस क्षण तक नहीं समझ पा रहा हूँ। शायद इसलिए कि आयोजक न केवल मेरे अग्रजवत थे अपितु वे सब मेरे प्रति अत्यधिक कृपाभाव और आत्मीयता रखते हैं, मेरी चिन्ता करते हैं और एक अभिनन्दन पत्र देने के उपक्रम में उन्होंने मुझे भी शरीक कर, मेरा मान बढ़ाया।
भगतसिंह, उनकी शहादत, देश प्रेम, देश के लिए मर मिटना जैसी बातें अब केवल कहने-सुनने तक ही रह गई हैं। हर कोई भगतसिंह की प्रश्ंासा कर रहा था, उनके होने पर खुद को गर्वित अनुभव कर रहा था और उनके जज्बे की आवश्यकता तीव्रता से अनुभव कर रहा था किन्तु वक्ताओं और श्रोताओं में से एक भी ऐसा नहीं था जो भगतसिंह को अपने आचरण में उतारने को तैयार हो। हममें से प्रत्येक चाह रहा था कि उसका पड़ौसी भगतसिंह बन जाए। पड़ौसी का पड़ौसी भी यही चाह रहा था। हम सब अपने आसपास भगतसिंह की तलाश कर रहे थे किन्तु अपने अन्दर झाँकने को कोई भी तैयार नहीं था। झाँकते तो खुद से ही शर्मिन्दा होना पड़ता।
इस समय जब मैं यह सब लिख रहा हूँ, 25 मार्च की सवेरे के पांच बजने वाले हैं। याने, आयोजन से लौटे मुझे कोई बयालीस घण्टे हो रहे हैं। इस समय मुझे बहुत ही अच्छा लग रहा है कि भारत के स्वतन्त्र होने से पहले ही भगतसिंह ने फाँसी का फन्दा चूम लिया। अन्यथा, वे इस समारोह में (या ऐसे ही किसी समारोह में) होते और अपनी यह दुर्दशा देखते तो इस बार वे अवश्य ही ऐसा बम विस्फोट करते जिसमें सारे के सारे श्रोता/वक्ता घटनास्थल पर ही मारे जाते। उन्होंने तो अपनी मौत को भी देश के युवाओं को प्रेरित करने वाली घटना माना था। किन्तु उनकी मौत की तो बात छोड़िए, आज के युवाओं को तो भगतसिंह के नाम पर या तो मनोज कुमार याद आते हैं या सनी देओल या फिर ‘रंग दे बसन्ती’ का कोई अभिनेता।
ऐसे में भगतसिंह का नाम और उनके पराक्रम का बखान यदि, फिल्मों के फूहड़ गानों वाली रिंग टोनों के बीच गुम हो रहा हो तो आश्चर्य और दुख क्यों?
किन्तु मैं फिर भी असहज बना हुआ हूँ। अब तक भी।
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