पावती सहित पंजीकृत डाक से
18 मई 2010, मंगलवार
वैशाख शुक्ल पंचमी, 2067
प्रति,
श्रीयुत जय प्रकाशजी भट्ट, बी. एससी., एल.एल.बी,
अभिभाषक,
19, जाटों का वास,
रतलाम - 457001
महोदय,
आपकी पक्षकार श्रीमती साधना पति श्रीयुत् लक्ष्मीनारायणजी शर्मा निवासी 8 राजस्व कॉलोनी, रतलाम के प्रतिबोधन एवम् निर्देशानुसार मुझे भेजे गए आपके सूचना पत्र दिनांक 11.05.2010 के उत्तर में मैं यह पत्र बिना किसी पूर्वाग्रह और अपनी सम्पूर्ण सदाशयता से आपको प्रेषित कर रहा हूँ।
अपनी बात कहूँ उससे पहले कुछ बातें स्पष्ट करना आवश्यक हैं।
सबसे पहली बात यह कि आपके द्वारा सूचना पत्र दिए जाने का मूलभूत कारण, सुश्री गायत्री शर्मा को लिखा मेरा, दिनांक 03.05.10 वाला पत्र नहीं, सुश्री गायत्री शर्मा की वह प्रस्तुति है जिसका उल्लेख आपने अपने सूचना पत्र के चरण-1 में किया है।
दूसरी बात यह कि आपकी पक्षकार श्रीमती साधना और उनकी पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा से सामाजिक, व्यावसायिक तथा अन्य किसी भी प्रकार से मेरा कोई निजी बैर और/अथवा प्रतिद्वन्द्विता नहीं है। मैं लेखक भी नहीं हूँ इसलिए लेखकीय प्रतिद्वन्द्विता का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता।
तीसरी बात यह कि हिन्दी को मैं अपनी माँ मानता हूँ क्योंकि हिन्दी न केवल मेरी मातृ भाषा है अपितु हिन्दी के कारण ही मैं अपना जीविकोपार्जन कर पा रहा हूँ। हिन्दी मेरा ही नहीं, समूचे राष्ट्र का सम्मान है। इसीलिए हिन्दी और हिन्दी के सम्मान को लेकर मैं चिन्तित और यथासम्भव सतर्क तथा सक्रिय भी रहता हूँ।
किन्तु मैं ‘दुराग्रही शुद्धतावादी’ भी नहीं हूँ। हिन्दी थिसारस ‘समांतर कोश’ के रचयिता श्री अरविन्द कुमार सहित असंख्य विद्वानों की इस बात को मानता हूँ कि कोई भी भाषा ‘बहता नीर’ होती है जिसमें अन्य भाषाओं के शब्द चले आते हैं। मैं यह भी जानता हूँ कि भारत अंग्रेजों का गुलाम रहा और अंग्रेजों के जाने के बाद भी हमारे राज-काज की भाषा पर अंग्रेजी का प्राधान्य बना रहा इसलिए अंग्रेजी के कई शब्द हिन्दी में आकर ऐसे रच-बस गए हैं कि वे हिन्दी शब्द ही बन गए हैं। इसीलिए मैं रेल, कार, बस, ट्राम, टिकिट, प्लेटफार्म, स्कूल, कॉलेज, माचिस, सिगरेट, पासपोर्ट, प्रीमीयम, पॉलिसी, कम्प्यूटर, लेटर हेड, विजिटिंग कार्ड, एजेण्ट, सिनेमा, फिल्म जैसे अनेक अंग्रेजी शब्दों को इनके इन्हीं रुपों में ही प्रयुक्त करता हूँ। ‘हिन्दी’ के नाम पर इनके क्लिष्ट और असहज आनुवादिक शब्दों के उपयोग का आग्रह नहीं करता क्योंकि ऐसा करना हिन्दी के विरुद्ध ही होगा। ‘शुद्धता’ के नाम पर असहज और कृत्रिम हिन्दी का पक्षधर मैं बिलकुल नहीं हूँ।
किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि हिन्दी के लोक प्रचलित सहज शब्दों के स्थान पर अंग्रेजी शब्दों का अकारण और बलात् उपयोग किया जाना चाहिए। लोक व्यवहृत सहज हिन्दी शब्दों के स्थान पर अंग्रेजी शब्दों के अकारण, बलात् उपयोग से मैं न केवल असहमत हूँ अपितु इस प्रवृत्ति को मैं हिन्दी के साथ ‘बलात्कार’ के अतिरिक्त और कुछ नहीं कह पाता। इसीलिए ‘भारत’ के स्थान पर ‘इण्डिया’, ‘छात्र/छात्रों’ के स्थान पर ‘स्टूडेण्ट/स्टूडेण्ट्स’, ‘पालक’ के स्थान पर ‘गार्जीयन’, ‘अन्तरराष्ट्रीय’ के स्थान पर ‘इण्टरनेशनल’, ‘प्रतियोगिता’ के स्थान पर ‘काम्पीटिशन’ जैसे उपयोगों को अनुचित, आपत्तिजनक तथा हिन्दी के साथ अत्याचार मानता हूँ।
मैं यह भी मानता हूँ कि हममें से प्रत्येक हिन्दी भाषी को अपनी मातृ भाषा ‘हिन्दी’ पर न केवल गर्व होना चाहिए अपितु प्रति पल इसके सम्मान की रक्षा के लिए सतर्क, सक्रिय भी रहना चाहिए और ऐसे प्रत्येक प्रयास का प्रतिकार अपने सम्पूर्ण आत्म बल से करना चाहिए जो हिन्दी को भ्रष्ट करता हो।
मेरी सुनिश्चित धारणा है कि हिन्दी लिखते/बोलते हुए, हिन्दी के लोक प्रचलित और लोक व्यवहृत हिन्दी के सहज शब्दों के स्थान पर, अंग्रेजी शब्दों का अकारण और बलात् उपयोग करनेवाले हिन्दी मातृ भाषी लोगों के माता-पिता में से कोई एक निश्चय ही अंग्रेज रहा होगा या फिर वे किसी अंग्रेज की अवैध सन्तान होंगे। इसके अतिरिक्त मुझे और कोई कारण नजर नहीं आता कि लोग हिन्दी के साथ यह दुष्कर्म करें।
और केवल ‘शब्द’ ही क्यों? मैं तो अंग्रेजी में हस्ताक्षर करने वाले हिन्दी मातृभाषियों को भी इसी श्रेणी में रखता हूँ। हिन्दी हमारी मातृ भाषा ही नहीं, हमारा स्वाभिमान भी है और हमारी पहचान भी। यदि हम ही हिन्दी में हस्ताक्षर नहीं करेंगे तो क्या बिल गेट्स, जार्ज बुश, टोनी ब्लेयर, बराक ओबामा हिन्दी में हस्ताक्षर करेंगे?
मेरी इस मानसिकता/मनःस्थिति को मेरी सनक, मेरा पागलपन या कोई मनोरोग भी कहा जा सकता है किन्तु ऐसा सोचना अपराध तो नहीं ही है।
मैं एक बीमा एजेण्ट हूँ और अपने पॉलिसीधारकों के लिए प्रति वर्ष ‘केलेण्डर’ छपवाता हूँ। वर्ष 2009 के मेरे केलेण्डर के सितम्बर महीने वाले पन्ने की फोटो प्रति आपके तत्काल सन्दर्भ के लिए संलग्न है। इस पन्ने के तले में ‘अंग्रेजों की अवैध सन्तान’ शीर्षक से छपी पंक्तियाँ इस प्रकार हैं - ‘हम अंग्रेजी में हस्ताक्षर करते हैं। हमारी माँ अंग्रेज होगी। नहीं? तो फिर जरुर हमारे पिता अंग्रेज होंगे। ऐसा भी नहीं है? यदि हमारी माँ अंग्रेज नहीं है, हमारे पिता भी अंग्रेज नहीं हैं तो फिर हम अंग्रेजी मे हस्ताक्षर क्यों करते हैं? कहीं हम किसी अंग्रेज की अवैध सन्तान तो नहीं?’ कृपया इस तथ्य पर ध्यान दें कि मेरी धारणा सार्वजनिक रुप से प्रकट करनेवाला यह केलेण्डर, इस विवाद के प्रारम्भ होने से, लगभग सत्रह माह पहले ही छप चुका था। वर्ष 2009 में मैंने इस केलेण्डर की 800 प्रतियाँ छपवाई थीं जिनमें से मेरे पास एक भी नहीं बची। इसकी एक प्रति प्राप्त करने के लिए मुझे मेरे कुछ पॉलिसीधारकों से सम्पर्क करना पड़ा।
मेरे पॉलिसीधारक, मेरे परिजन, मेरे मित्र-परिचित मेरा केलेण्डर न केवल प्रसन्नतापूर्वक अपने घरों में लगाते हैं अपितु नव वर्षारम्भ से पहले से ही इसकी माँग शुरु कर देते हैं। अपने घर में मेरा केलेण्डर टाँगनेवाले मेरे परिजनों सहित इनमें से अधिसंख्य लोग अंग्रेजी में ही हस्ताक्षर करते हैं और अपनी धारणा के अनुसार मैं इन सबको किसी अंग्रेज की अवैध सन्तान ही मानता हूँ। वैसे भी, अपने दैनन्दिन व्यवहार में, अकारण और बलात् अंग्रेजी शब्द प्रयुक्त करनेवाले को को लोक व्यवहार में ‘बड़ा आया, अंग्रेज की औलाद’ कह कर ही तो उलाहना दिया जाता है!
आपका कहना है कि आपकी पक्षकार श्रीमती साधना की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा की विवादास्पद प्रस्तुति में प्रयुक्त अंग्रेजी शब्द श्रीयुत दिलीप हिंगे द्वारा कहे गए थे। आपकी बात मानने का कोई तार्किक कारण और आधार मुझे नजर नहीं आता।
आपने सूचित किया है कि आपकी पक्षकार श्रीमती साधना की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा, ‘नईदुनिया’ के सम्पादकीय विभाग में उप सम्पादक के पद पर कार्यरत है। यह सूचित करते समय आपने सम्भवतः यह याद नहीं रखा कि ‘नईदुनिया’ वह अखबार है जो न केवल ‘पत्रकारिता का स्कूल’ के रुप में अपितु ‘अच्छी हिन्दी सीखने का उपयुक्त माध्यम’ के रुप में भी पहचाना जाता रहा है। यह अखबार हिन्दी के ‘की’ तथा ‘कि’, ‘है’ और ‘हैं’ और ‘वो’ तथा ‘वह’ जैसे शब्दों के सूक्ष्म अन्तर के प्रभाव और महत्व का ध्यान रखने के लिए भी पहचाना जाता रहा है। मैनें भले ही ‘नईदुनिया’ खरीदना बन्द कर दिया है किन्तु इससे इंकार नहीं कर सकता कि हिन्दी भाषा और व्याकरण के सन्दर्भ में ‘नईदुनिया’ अपने आप में ‘प्राधिकार’ की स्थिति में रहा है।
यदि सुश्री गायत्री शर्मा सचमुच में ‘नईदुनिया’ में उप सम्पादक के पद पर कार्यरत हैं तो मैं विश्वास करता हूँ कि उन्हें हिन्दी भाषा और इसके वैयाकरणिक अनुशासन का यथेष्ठ ज्ञान होगा और वे भली भाँति जानती होंगी कि जब किसी व्यक्ति के कथन को ‘ज्यों का त्यों’ (मेरे अल्प ज्ञान के अनुसार, व्याकरण की भाषा में ‘उत्तम पुरुष, एक वचन’ में) प्रस्तुत किया जाता है तो वह समूचा कथन इनवरटेड कॉमा (‘‘ ’’) में प्रस्तुत किया जाता है। यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो असंदिग्ध रुप से यही माना जाता है कि कहनेवाले की बात को प्रस्तोता अपनी भाषा में प्रस्तुत कर रहा है जिसकी भाषा और शब्दावली, प्रस्तोता की अपनी है जिसे (मेरे अल्प ज्ञान के अनुसार) व्याकरण की भाषा में ‘तृतीय/अन्य पुरुष, एक वचन’ प्रस्तुति कहा जाता है। ऐसी प्रस्तुतियों में होता यह है कि प्रस्तोता, कहनेवाले की बात को प्रस्तुत करते समय उसकी भाषागत और वाक्य रचनागत त्रुटियाँ, अनगढ़ता दूर कर देता है। नेताओं के भाषणों के समाचार मेरी इस बात का श्रेष्ठ उदाहरण हो सकते हैं। अपने उद्बोधनों में नेतागण अपनी बात जिस अनगढ़ ढंग और भाषा में कहते हैं, समाचारों में वह कहीं नजर नहीं आता क्योंकि सम्वाददाता उस अनगढ़ता को दूर कर देते हैं।
मेरा आपसे अनुरोध है कि कृपया आपके सूचना पत्र के चरण-1 में उल्लेखित, सुश्री गायत्री शर्मा की प्रस्तुति का अवलोकन कम से कम एक बार अत्यन्त सावधानीपूर्वक करें। आप पाएँगे कि आपकी पक्षकार श्रीमती साधना की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा ने श्रीयुत हिंगे के कथन को कहीं भी इनवरटेड कॉमा में (उत्तम पुरुष, एक वचन के रुप में) प्रस्तुत नहीं किया है। स्पष्ट है कि आपकी पक्षकार श्रीमती साधना की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा की प्रस्तुति में प्रयुक्त शब्दावली और भाषा श्रीयुत हिंगे की नहीं, आपकी पक्षकार श्रीमती साधना की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा की है। आपकी पक्षकार श्रीमती साधना की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा यदि श्रीयुत हिंगे के कथन को इनवरटेड कॉमा में (उत्तम पुरुष, एक वचन के रुप में) प्रस्तुत करतीं तो मुझे उन्हें वह पत्र लिखने का कोई कारण ही पैदा नहीं होता। स्पष्ट है कि समूचे विवाद का कारण आपकी पक्षकार की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा द्वारा अपनी प्रस्तुति में बरती गई वैयाकरणिक चूक है। न वे यह चूक करतीं, न मैं ‘वह पत्र’ लिखता।
स्पष्ट है कि आपकी पक्षकार श्रीमती साधना की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा की प्रस्तुति ‘मूल क्रिया’ है और मेरा पत्र ‘प्रतिक्रिया’ मात्र। आप मूल क्रिया की अनदेखी कर, प्रतिक्रिया को ही मूल क्रिया कहना चाह रहे हैं। मूल क्रिया की अस्पष्टता, उसमें बरती गई वैयाकरणिक चूक ही समूचे विवाद का कारण है, मेरा ‘वह पत्र’ नहीं।
आपकी पक्षकार श्रीमती साधना की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा को लिखा अपना पत्र मुझे विवशतावश ही अपने ब्लॉग पर प्रकाशित करना पड़ा। मैंने वही किया जो आपकी पक्षकार श्रीमती साधना की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा ने किया। वस्तुतः ऐसा करने की प्रेरणा मुझे उन्हीं से मिली। उन्होंने अपनी प्रस्तुति, अपने प्रभाववाले एक प्रतिष्ठित, व्यापक प्रसारवाले अखबार में सार्वजनिक की, मैंने, अपने प्रभाववाले, अत्यन्त सीमित पठनीयतावाले अपने ब्लॉग पर। उनके पास अखबार था, मेरे पास ब्लॉग।
मुझे यह जानकर अच्छा लगा कि मेरा पत्र देश-विदेश में लाखों लोगों ने पढ़ा। अब तक मैं यही मान रहा था कि आपकी पक्षकार की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा सहित गिनती के उन आठ-दस लोगों ने वह पत्र पढ़ा जिन्होंने अपनी टिप्पणियाँ वहाँ अंकित की।
आपको यह जानकर सचमुच में प्रसन्नता होगी कि आपकी पक्षकार श्रीमती साधना की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा ने भी अपनी भावनाएँ (कानूनी भाषा में ‘अपना पक्ष’) वहाँ सुस्पष्टता और उन्मुक्तता से, बिना किसी रोक-टोक, बिना किसी हस्तक्षेप के, पूरी स्वतन्त्रता, उन्मुक्तता से अंकित की। (यहाँ प्रसंगवश सूचित कर रहा हूँ कि शनिवार दिनांक 15.05.10 की शाम को मुझे ‘नईदुनिया’ के श्रीयुत जयदीप कर्णिक का पत्र मिला, जिसमें उन्होंने कहा कि मैं अपना वह पत्र अपने ब्लॉग से हटा लूँ। मेरा लेपटॉप गए कुछ दिनों से खराब था। वह शनिवार की रात को ठीक होकर आया और रविवार को प्रातः, लगभग सात-सवा सात बजे मैंने, श्रीयुत कर्णिक का कहा मानते हुए अपना पत्र अपने ब्लॉग से हटा लिया है।) आपकी पक्षकार श्रीमती साधना की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा की निर्बन्ध टिप्पणी (कानूनी भाषा में ‘उनका पक्ष’) इस प्रकार है -
‘‘आदरणीय बैरागी जी,
आपका पत्र मिला। आपके पत्र की असंगत भाषा से ही आपकी मानसिकता का परिचय मिलता है कि आप किसी स्त्री के बारे में कैसी सोच रखते हैं व उसके लिए किस तरह के हल्के शब्दों का प्रयोग करते हैं। हो सकता है यह आपकी बौखलाहट का नतीजा हो पर फिर भी मैं ईश्वर से यही कामना करती हूँ कि ईश्वर आपको सद्बुद्धि दे। आपके निवास पर आपसे हुई पहली मुलाकात के बाद मुझे लगा था कि मुझे आपसे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा पर दुर्भाग्य से आपके बारे में मेरा यह भ्रम शीघ्र ही टूट गया। आपकी प्रकाण्डता का प्रदर्शन तो आपने इस पत्र में बखूबी किया है। आपकी तरह किसी को अपमानित करके सुर्खियाँ पाने का शॉर्टकट मैंने तो अब तक नहीं सीखा है।
हमारे शब्द कही न कही हमारे व्यक्तित्व के भी परिचायक होते हैं। आपके जैसी उच्चस्तरीय भाषा (मैं नहीं जानता कि तुम किस अंग्रेज की अवैध संतान हो, मुझे नहीं पता कि तुम्हारे साथ या तुम्हारी माताजी के साथ कभी कोई बलात्कार हुआ है या नहीं ...) सीखने में तो शायद मेरी पूरी उम्र ही बीत जाएगी।
डॉ. जयकुमार जलज जी मेरे गुरू रहे हैं। मेरे दिल में उनके लिए बहुत सम्मान है। मुझे पूरा विश्वास है कि ऐसी असंयत भाषा का प्रयोग वह कभी नहीं करेंगे। आपने उनके नाम का उल्लेख किया इसलिए मैंने उनसे टेलीफोन पर चर्चा की। वह स्वयं भी आपके शब्दों के चयन से आहत है। आपने उनकी पीड़ा मुझे बताई पर मैं उनका दर्द आपको बताना चाहूँगी। आपने उनके नाम का सहारा लेकर जिन अनुचित शब्दों का प्रयोग किया है उससे मैं या जलज जी क्या, हर वो व्यक्ति आहत हुआ है, जो किसी लड़की का पालक है और जिसकी संतान को अवैध कहने की हिमाकत आपने की ही। उस माता-पिता की पीड़ा को शायद आप नहीं समझ पाएँगे। हो सकता है आप मेरी इस टिप्पणी को तुरंत अपने ब्लॉग से हटा दे पर मैं सच कहने में यकीन करती हूँ। क्षमा चाहती हूँ कि मैंने आपके लिए इतने सयंत शब्दों का प्रयोग किया है।
- गायत्री शर्मा’’
मई 8, 2010 2.32 पीएम
आपको यह जानकर भी प्रसन्नता होगी कि लेखकीय नैतिकता (यद्यपि मैं लेखक नहीं हूँ, जैसा कि मैं शुरु में ही कह चुका हूँ) का आदरपूर्वक पालन करते हुए मैंने आपकी पक्षकार श्रीमती साधना की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा की यह टिप्पणी अपने ब्लॉग पर यथावत् बनी रहने दी। यह टिप्पणी उन्होंने, 08 मई 2010 को दोपहर में 2 बज कर 32 मिनिट पर की थी।
उनकी टिप्पणी मिलने पर मैंने अपने ई-मेल सन्देश में उन्हें, यथा सम्भव तत्काल उत्तर दिया -
‘‘निश्चिन्त रहना। अपनी टिप्पणी को तुम मेरी पोस्ट पर यथावत् पाओगी।’’
इसके कुछ ही क्षणों के बाद (लगभग अविलम्ब ही) मैंने उन्हें अगला ई-मेल किया -
‘‘और हाँ, अपने मन में मेरे लिए चरम घृणा बनाए रखते हुए यह भी याद रखना कि मेरे पत्र का कारण क्या था और कोशिश करना कि भविष्य में ‘मेरी माँ’ के साथ फिर बलात्कार न करो।’’
उपरोक्त दोनों सन्देश मेरे कम्प्यूटर पर सुरक्षित हैं।
कानूनी खानापूर्ति का हवाला देते हुए मैं आसानी से कह सकता हूँ कि आपकी पक्षकार श्रीमती साधना की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा ने अपना पक्ष सुविचारित रुप से, बिना किसी प्रतिबन्ध और हस्तक्षेप के, जितना और जैसा जरुरी समझा और चाहा उतना और वैसा, मेरे ब्लॉग पर प्रस्तुत कर दिया जिसे (आपके मतानुसार) देश-विदेश के वे लाखों लोग पढ़ चुके जिन्होंने मेरे पत्र को पढ़ा।
किन्तु मेरे लिए बात केवल कानूनी खानापूर्ति की नहीं है। मैं इससे पहले और इसके आगे ‘आशय’ (मंशा) को महत्व देता हूँ।
इसीलिए उल्लेख है कि आपकी पक्षकार श्रीमती साधना की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा द्वारा मेरे ब्लॉग पर टिप्पणी करने से पहले, दिनांक 07 मई 2010 को, प्रातः 9 बज कर 32 मिनिट पर किन्हीं ‘अनानीमसजी’ ने टिप्पणी की -
‘‘भाषा तो ठीक है भैया, लेकिन एक स्त्री को लेकर इतनी घटिया टिप्पणी मैंने कहीं नहीं पढ़ी। पहले अपनी भाषा सुधारो भाईसाहब....संस्कारों के साथ बलात्कार खुद कर रहे हो....बात भाषा की करते हो।’’
उत्तर में मैंने उन्हें ई-मेल सन्देश दिया -
‘‘अनानीमसजी,
आपने न केवल बिलकुल ठीक कहा है अपितु आवश्यकता/अपेक्षा से कम ही कहा है। यह सब लिख कर मुझे तनिक भी प्रसन्नता नहीं हुई है और अब तक अपने आप पर शर्मिन्दा हूँ। किन्तु मेरा अनुभव यह रहा है कि शालीनता से कही गई बात का नोटिस कभी नहीं लिया गया। तब हताश होकर, अपने संस्कारों से स्खलित होकर मैंने एक-दो बार जब घटियापन प्रयुक्त किया तो उसका नोटिस लिया गया और न केवल मुझे जवाब मिला बल्कि अपेक्षित कार्रवाई/सुधार भी हुआ।
मुझे एक स्त्री ने ही जन्म दिया है एक स्त्री ने ही पिता होने का गौरव और सुख दिया है। यह सब जानते हुए भी जब मैंने यह सब लिखा है तो जाहिर है, प्रसन्नतापूर्वक तो नहीं ही लिखा है।’’
इसके उत्तर में दिनांक 08 मई 2010 की प्रातः 9 बजकर 10 मिनिट पर ‘अनानीमसजी’ ने रोमन लिपि में टिप्पणी की -
‘‘बहुत गन्दा लेकिन बहुत जरूरी।’’
इस टिप्पणी के उत्तर में मैंने उन्हें ई-मेल किया -
‘‘अनानीमसजी,
अन्ततः मुझसे सहमत होने के लिए धन्यवाद। किन्तु इससे मेरा आत्म सन्ताप कम नहीं होता। मैंने भले ही इसे जरुरी मान कर लिखा किन्तु आधारभूत बात तो यही है कि मैंने ऐसा नहीं ही लिखना चाहिए था।
सुभाषित न सुने जाएँ और गालियां न केवल सुनी जाएँ बल्कि उन पर अपेक्षित कार्रवाई भी हो तो ऐसा ही होता है।
फिर भी मैं शर्मिन्दा तो हूँ ही।’’
बाद में मैंने, दो खण्डोंवाली अपनी यह टिप्पणी भी अपने ब्लॉग पर प्रकाशित की।
यदि आप ध्यानपूर्वक देखेंगे तो पाएँगे कि यहाँ दी गई समस्त टिप्पणियाँ, सम्बन्धित व्यक्तियों के कथनों को ‘ज्यों का त्यों’ (अर्थात्, उत्तम पुरुष, एक वचन रुप में अर्थात् इनवरटेड कॉमा में) प्रस्तुत किए गए हैं। अर्थात् इन कथनों में मैंने अपनी ओर से न तो कुछ मिलाया है न ही कुछ कम किया है।
कृपया इस महत्वपूर्ण तथ्य पर भी ध्यान दें कि अपने ‘आत्म सन्ताप’ और ‘शर्मिन्दगी’ का यह स्वीकार मैंने स्वेच्छा से किया और आपकी पक्षकार श्रीमती साधना और उनकी पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा के कहे बिना किया। यह सब और कुछ नहीं, केवल मेरे ‘आशय’ (मंशा) का प्रमाण है।
यद्यपि आपकी पक्षकार श्रीमती साधना की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा अपना प्रतिवाद मेरे ब्लॉग पर प्रकट कर चुकी हैं और मैं अपने पत्र की भाषा को लेकर शर्मिन्दगी और आत्म सन्ताप, आपकी पक्षकार श्रीमती साधना और उनकी पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा के कहे बिना ही, उनके कुछ भी कहने से पहले ही अपने ब्लॉग पर प्रकट कर चुका हूँ फिर भी यदि आपकी पक्षकार श्रीमती साधना और उनकी पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा चाहें तो अपनी भावनाएँ ई-मेल द्वारा मुझे पहुँचा दें। मैं उनकी भावनाएँ, अविकल रुप में, एक बार फिर अपने ब्लॉग पर स्वतन्त्र रुप से प्रकाशित कर दूँगा।
आपने चाहा है कि मैं आपकी पक्षकार श्रीमती साधना से लिखित में, बिना शर्त क्षमा-याचना प्रस्तुत करुँ। आपने इस विषय को केवल एक व्यक्ति तक सीमित कर दिया। आपके चाहने और आपकी कल्पना, अनुमानों से कहीं आगे बढ़कर मैं इसे व्यापक कर रहा हूँ।
मैं भली भाँति जानता हूँ कि -
- एक स्त्री ने ही मुझे जन्म दिया है।
- एक स्त्री ने ही मुझे पिता होने का सुख और गौरव दिया है।
- एक स्त्री ने ही मुझे उस पितृ-ऋण (अपने पिता का वंश बढ़ाने के ऋण) से मुक्त किया है जो प्रत्येक सनातनी के जीवन की अभिलाषा होती है।
- एक स्त्री ने ही मेरे जीवन को पूर्णता प्रदान की है।
- एक स्त्री के कारण ही मुझे सामाजिक स्वीकार्य मिल पाया है।
- किसी का (वह भी किसी स्त्री का?) असम्मान कर मैं अपना सम्मान कभी नहीं बढ़ा सकता।
इसलिए, यह जानते हुए भी कि समूचा विवाद आपकी पक्षकार श्रीमती साधना की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा की चूक के कारण उपजा, मेरे पत्र के कारण नहीं, मैं अपने, दिनांक 03.05.10 में प्रयुक्त भाषा और शब्दावली के लिए केवल आपकी पक्षकार श्रीमती साधना और उनकी पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा से ही नहीं, दुनिया के सम्पूर्ण स्त्री समुदाय से और मेरे पत्र से आहत मेरे समस्त परिजनों, परिचितों, मित्रों, हित चिन्तकों, समस्त ब्लॉगर बन्धुओं से, अपने अन्तर्मन से, बिना किसी शर्त के खेद प्रकट करता हूँ और क्षमा याचना करता हूँ।
किसी की अवमानना और चरित्र हनन करना मेरा लक्ष्य क्षणांश को भी, कभी भी नहीं रहा। इस प्रकरण के सन्दर्भ में मेरी इस बात को खारिज किया जा सकता है और पाखण्ड समझा जा सकता है किन्तु यह सच है कि यह मेरे संस्कारों में नहीं है। किन्तु हुआ यह कि मेरी माँ के साथ बलात्कार कर, बलात्कारी उसे नग्न दशा में चैराहे पर छोड़ गए। मुझे खबर लगी। मैं वहाँ पहुँचा। मैंने अपनी धोती खोल कर अपनी नग्न माँ को ढँका। लोगों ने केवल मेरा धोती खोलना देखा और उसके बाद जो कुछ हुआ वह सामने है।
यह पत्र, डाक घर को सौंपने के अगले दिन मैं अपने ब्लॉग http://akoham.blogspot.com पर प्रकाशित कर रहा हूँ और उन समस्त महानुभावों को भी इसकी प्रतिलिपि भेज रहा हूँ जिन्हें पूर्व पत्र की प्रतिलिपि भेजी थी। आप यह माँग नहीं करते तो भी मुझे तो अपने ईश्वर के लिए यह सब करना ही था।
जैसा कि मैं शुरु में ही कह चुका हूँ, आपकी पक्षकार श्रीमती साधना और उनकी पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा से मेरा किसी भी सन्दर्भ, प्रसंग और पक्ष में कोई बैर और प्रतिद्वन्द्विता नहीं है। वे दोनों ही मेरे लिए सर्वथा अपरिचित, अनजान हैं। अपनी टिप्पणी में सुश्री गायत्री शर्मा ने कहा है कि वे मेरे घर आईं थीं किन्तु उनका मेरे घर आना मुझे इस क्षण तक याद नहीं आ पा रहा है।
मेरा साग्रह अनुरोध आपकी पक्षकार श्रीमती साधना की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा तक अवश्य पहुँचाइएगा। वे हिन्दी में लिखती हैं, हिन्दी के कारण ही पहचान और प्रतिष्ठा प्राप्त कर पा रही हैं। उन तक मेरी करबद्ध प्रार्थना पहुँचाइएगा कि वे अपने दैनन्दिन व्यवहार और लेखन में हिन्दी के सहज लोक प्रचलित शब्दों के स्थान पर अंगे्रजी शब्दों को अकारण और बलात् उपयोग न करें। यदि उन्हें अपने नियोक्ता द्वारा ऐसा करने को निर्देशित किया जाए तो कम से कम एक बार तो अवश्य ही प्रतिकार करें। हिन्दी हमारी माँ है, हमारा स्वाभिमान है, हमारी पहचान है, हमारी रोजी-रोटी है और हमारी जिम्मेदारी है। अपने 03.05.10 वाले पत्र में उनके प्रति व्यक्त अपनी शुभ-कामनाएँ दोहरा रहा हूँ - वे हिन्दी में लिखें, खूब लिखें, इतना और ऐसा लिखें कि वे हिन्दी की पहचान बनें और हिन्दी उन पर गर्व करे।
आपकी पक्षकार श्रीमती साधना के प्रति मैं अपनी हार्दिक शुभ-कामनाएँ व्यक्त करता हूँ। उन्हें आहत करना मेरा लक्ष्य कभी नहीं रहा। इसके लिए कोई कारण ही नहीं है। मेरे पत्र से उन्हें उपजी पीड़ा के लिए मैं अलग से उनसे क्षमा माँगता हूँ। ईश्वर उन्हें पूर्ण स्वस्थ बनाए रखें और दीर्घायु प्रदान करें।
आपके चाहे अनुसार कोई राशि देने का न तो कोई कारण है और न ही वह मेरे लिए सम्भव है।
यह प्रकरण मैं अपनी ओर से समाप्त कर रहा हूँ और ऐसा ही करने का अनुरोध/अपेक्षा आपसे भी करता हूँ। इसके बाद भी यदि आप कोई कार्रवाई करना चाहें तो उसके लिए आप स्वतन्त्र हैं ही। उस दशा में आप, वह सब अपने उत्तरदायित्व पर ही करेंगे।
एक बार फिर समस्त सम्बन्धितों से क्षमा याचना और हार्दिक शुभ-कामनाएँ।
धन्यवाद।
भवदीय,
विष्णु बैरागी
संलग्न-उपरोक्तानुसार।
प्रतिलिपि -
- श्रीयुत डॉक्टर जयकुमारजी जलज, 30 इन्दिरा नगर, रतलाम-457001 को व्यक्तिगत सन्देशवाहक द्वारा,
- श्रीयुत प्राफेसर सरोजकुमार, ‘मनोरम्’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर,
- श्रीयुत जयदीप कर्णिक, द्वारा-नईदुनिया, 60/61, बाबू लाभचन्द छजलानी मार्ग, इन्दौर-452009
को, डाक प्रमाणीकरण द्वारा प्रेषित।
पत्र में उल्लेखित, केलेण्डर के पन्ने की फोटो प्रति, तीनों प्रतिलिपियों में संलग्न हैं।
विष्णु बैरागी
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।
यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.