दुर्जनों का सम्मान


मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि अन्ततः हम लोग चाहते क्या हैं? हम सोचते कुछ हैं, बोलते कुछ हैं और करते कुछ और हैं। हमारे संकटों का कारण कहीं हमारी अस्थिरचित्तता तो नहीं?

मेरे कस्बे से प्रकाशित हो रहे साप्ताहिक ‘उपग्रह’ में मैं मेरा स्तम्भ ‘बिना विचारे’ नियमितप्रायः है। कभी ‘उपग्रह’ के लिए जो लिखता हूँ उसे अपने ब्लॉग पर पोस्ट बना लेता हूँ तो कभी अपनी किसी पोस्ट को अपने स्तम्भ का लेख। इसी क्रम में, वरुण के बच जाने से उपजी खुशी शीर्षकवाली मेरी पोस्ट ‘उपग्रह’ में छपी। लगभग बीस लोगों ने फोन पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की। ऐसी प्रत्येक प्रतिक्रिया की शुरुआत प्रसन्नता से और समाप्ति खिन्नता से हुई। एक, दो नहीं, पूरे अठारह लोगों ने रीमा के प्रति न केवल सहानुभूति व्यक्त की अपितु उसकी वास्तविकता उजागर करने के लिए मुझे उलाहने दिए। अल्पाधिक सबका कहना यही रहा कि मैंने उसकी फजीहत कर दी। वह बेचारी तो अब मुँह दिखाने काबिल भी नहीं रही। बेचारी एक औरत जैसे-तैसे अपनी नौकरी कर रही है और मैं हूँ कि चौराहे पर उसकी बेइज्जती कर दी। एक बात और प्रायः प्रत्येक ने कही कि कामचोरी, आलस्य और बेशर्मी कौन नहीं कर रहा? दिल्ली से लेकर देहात तक चारों ओर यही दशा है। ऐसे में रीमा की वास्तविकता उजागर कर मैंने ‘बेचारी एक औरत’ पर अत्याचार ही किया।

कुल दो लोगों (मनासा से अर्जुन पंजाबी और बृजमोहन समदानी) ने रीमा का पक्ष नहीं लिया। दोनों ने आश्चर्य व्यक्त किया कि कोई कर्मचारी ऐसा भी हो सकता है? मैंने दोनों को रतलाम आने का न्यौता दिया और कहा - ‘जब जी चाहे, बिना पूर्व सूचना दिए रतलाम आ जाओ। रीमा के साथ चाय पीलेना और मेरे लिखे की हकीकत उसी से पूछ लेना।’ दोनों को अविश्वासभरा दुख हुआ।

रीमा का बचाव करनेवाले सब लोगों से मैंने कहा कि आचरण का बखान शब्दशः सच है किन्तु रीमा और वरुण की वास्तविक पहचान छुपा ली गई है। दोनों के नाम और विभाग बदल दिए गए हैं। मुझे यदि रीमा की फजीहत करनी होती तो मैं ऐसा नहीं करता। मेरी भावना और कोशिश यही रहती है कि मैं यदि किसी का सम्मान बढ़ा नहीं सकूँ तो मेरे कारण उसके सम्मान में कमी भी न हो। मैं तो वैसे भी ‘सद्भावनाकांक्षी’ हूँ। रीमा के समस्त समर्थकों ने मेरी इस सूचना पर राहत भरी साँस ली और मुझे साधुवाद दिया।

ऐसे प्रत्येक व्यक्ति से मैंने पूछा कि वरुण के बारे में उसकी क्या राय है? उत्तर में प्रत्येक ने मुक्त कण्ठ से वरुण की प्रशंसा की और कहा कि वे समस्त शासकीय कार्यालयों की प्रत्येक कुर्सी पर वरुण को बैठे देखना चाहेंगे। मैंने पूछा - ‘किन्तु आपने तो वरुण की बात ही नहीं की। उसके बारे में तब ही कुछ कह रहे हैं जब मैंने आपसे पूछा।’ अधिकांश लोग मौन रहे किन्तु दो-एक ने विचित्र उत्तर दिया। कहा - ‘तो इसमें कौन सी अनोखी बात है? ईमानदारी से काम करना तो उसकी आधारभूत जिम्मेदारी है। फिर, वह अपनी मर्जी से ईमानदारी बरत रहा है, किसी के कहने से नहीं।’ मैंने पूछा - ‘और ईमानदारी निभाना रीमा की आधारभूत जिम्मेदारी नहीं? वरुण को तो कोई नहीं कह रहा किन्तु रीमा को तो उसके अधिकारी, सहकर्मी बराबर टोकते रहते हैं फिर भी वह कामचोरी, मक्कारी, बेशर्मी अपनाए हुए है?’ उत्तर में बचते हुए ऐसे लोगों ने कहा -‘आप तो पीछे पड़ जाते हो। किन्तु बेचारी औरत जात के साथ आपने अच्छा नहीं किया।’

ये सारी बातें मैं भूल जाना चाहता हूँ किन्तु भूल नहीं पा रहा। कामचोरों, बेईमानों से हम सब दुखी और सन्तप्त हैं। उनसे मुक्ति चाहते हैं। चाहते हैं कि उन्हें कामचोरी का दण्ड मिले। किन्तु अवसर आने पर कामचोरों की हिमायत करने में बिना देर किए जुट जाते हैं। प्रथमतः तो किसी कामचोर, बेईमान की पहचान हो नहीं पाती। और यदि होती है तो इस तरह उसका बचाव करने लगते हैं। वह भी सज्जनों की उपेक्षा करते हुए!

सयानों से सुनता आया हूँ कि जो समाज सज्जनों का सम्मान और दुर्जनों का धिक्कार नहीं करता, वह कभी उन्नति नहीं कर सकता।

हम क्या कर रहे हैं?

दुर्जनों का सम्मान?
-----

आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

एक बार फिर बिना शर्त क्षमा याचना


पावती सहित पंजीकृत डाक से

24 मई 2010, सोमवार
द्वितीय वैशाख शुक्ल एकादशी, 2067

प्रति,
श्रीयुत हरीशजी बी. त्रिपाठी,
उच्च न्यायालय वकील,
63/1 सुमित अपार्टमेण्ट,
स्नेहलतागंत,
इन्दौर

महोदय,

आपकी पक्षकार सुश्री गायत्री शर्मा पिता श्रीयुत लक्ष्मीनारायणजी शर्मा निवासी 195, सुखदेव नगर एक्स.-1, एरोड्रम रोड़, इन्दौर के प्रतिबोधन एवम् निर्देशानुसार आपके द्वारा भेजा गया सूचना पत्र दिनांक 17-05-2010 प्राप्त हुआ।

इसके उत्तर में मैं, श्रीमती साधना पति श्रीयुत लक्ष्मीनारायणजी शर्मा, निवासी 8, राजस्व कॉलोनी, रतलाम के प्रतिबोधन एवम् निर्देशानुसार, वकील श्रीयुत जय प्रकाशजी भट्ट, 19 जाटों का वास, रतलाम द्वारा मुझे भेजे गए सूचना पत्र दिनांक 11.5.2010 के उत्तर में, मेरे द्वारा उन्हें भेजे गए मेरे पत्र दिनांक 18.05.2010 की प्रतिलिपि संलग्न कर रहा हूँ।

आपके और श्रीयुत भट्ट के सूचना पत्रों की अधिकांश बातें समान हैं, इसलिए आप श्रीयुत भट्ट को भेजे मेरे संलग्न पत्र को ही, अपने सूचना पत्र का उत्तर मान लें।

उस पत्र में वर्णित बातों के अतिरिक्त मुझे निम्नानुसार कुछ बातें और कहनी हैं -

पहली बात तो यही कि समूचे विवाद का आधारभूत और प्राथमिक कारण, आपकी पक्षकार सुश्री गायत्री शर्मा की वह प्रस्तुति है जो दिनांक 03 मई 2010 को नईदुनिया में प्रकाशित हुई है। सुश्री गायत्री शर्मा को लिखा, दिनांक 03 मई 2010 वाला मेरा पत्र इस विवाद का कारण बिलकुल ही नहीं है।

दूसरी बात यह कि मैंने जो कुछ भी किया, वह किसी प्रतिद्वन्द्विता अथवा बैर भाव से नहीं किया क्योंकि मैं तो आपकी पक्षकार से सर्वथा अपरिचित हूँ।

तीसरी बात यह कि (जैसा कि मैंने श्रीयुत जय प्रकाशजी भट्ट को लिखे मेरे, दिनांक 18 मई 2010 वाले पत्र में कहा है) मेरा ‘आशय’ (मंशा) क्षणांश को भी खराब नहीं रहा। इसका प्रमाण यही है कि आपकी पक्षकार सुश्री गायत्री शर्मा और उनकी माताजी श्रीमती साधना के कहने/चाहने से पहले ही मैं, अपने ब्लॉग पर इस प्रकरण में अपनी शर्मिन्दगी और आत्म सन्ताप प्रकट कर चुका था जिसे आपके अनुसार देश-विदेश के लाखों, करोड़ों इण्टरनेट उपयोगकर्ता, मेरी बिना शर्त क्षमा याचना से पहले ही पढ़ चुके थे। मुझसे पहले और मुझसे बेहतर आप खुद जानते हैं कि किसी भी मामले में ‘आशय’ (मंशा) ही प्राथमिक, आधारभूत और सर्वोपरि निर्णायक कारक होता है।

निम्नांकित कुछ बातों पर भी मैं आपका ध्यानाकर्षण कर रहा हूँ जो मेरे ‘आशय’ को और अधिक स्पष्ट करती हैं।

किसी व्यक्ति पर किए गए अत्याचार/अनाचार का और उससे उपजी पीड़ा का प्रकटीकरण, सम्बन्धित व्यक्ति स्वयम् कर लेता है। किन्तु राष्ट्रीय अस्मिता और भावनाओं से जुड़े अमूर्त विषयों के साथ हुए अनाचार/अत्याचार का, उससे उपजी पीड़ा का प्रकटीकरण वे विषय खुद नहीं कर सकते क्योंकि वे ‘व्यक्ति’ नहीं, अमूर्त, अशरीरी होते हैं। उस दशा में उन विषयों से जुड़े वे लोग बोलते हैं जो ऐसे अनाचारों/अत्याचारों से भावना के स्तर पर आहत और पीड़ित होते हैं। धार्मिक प्रकरणों से जुड़े ऐसे विषय आए दिनों सामने आते रहते हैं। जिस धर्म के साथ अनाचार/अत्याचार होता है, उस धर्म के अनुयायी, उसमें विश्वास करनेवाले लोग ही बोलते हैं। राष्ट्रीय ध्वज की अवमानना से जुड़े अनेक प्रकरण मिल जाएँगे जिनमें, राष्ट्र ध्वज की अवमानना से भावनाओं के स्तर पर आहत लोगों ने न्यायालयों के दरवाजे खटखटाए।

हिन्दी के साथ किए जानेवाले/ किए जा रहे अत्याचार/अनाचार का मामला बिलकुल ऐसा ही है। ‘हिन्दी’ कोई ‘व्यक्ति’ नहीं जो अपने पर हुए अनाचार/अत्याचार का और उससे उपजी पीड़ा का वर्णन कर सके। वह सब तो हिन्दी प्रेमी ही करेंगे।

‘हिन्दी’ ‘एक भाषा मात्र’ नहीं है। भारतीय सन्दर्भों में वह ‘राष्ट्र भाषा’ है जो सीधे-सीधे ‘राष्ट्रीय अस्मिता’ और ‘राष्ट्रीय स्वाभिमान’ से जुड़ी हुई है। इसीलिए, राष्ट्र ध्वज में ‘थेगला’ लगाना और हिन्दी में अकारण, बलात् अंग्रेजी शब्दों का घालमेल करना, हिन्दी का अंग्रेजीकरण करना, हिन्दी को हिंग्लिश बनाना, एक समान है। यह राष्ट्रीय दुर्भाग्य ही है कि ‘बोलचाल की हिन्दी’ की कोई सुस्पष्ट (और विशेषतः विधि सम्मत) परिभाषा उपलब्ध नहीं होने की सुविधा का लाभ वे समस्त लोग उठा रहे हैं जो हिन्दी को हिंग्लिश बना रहे हैं और वे समस्त लोग निशाने पर लिए जा रहे हैं जो इस प्रवृत्ति का प्रतिकार करने का ‘मूर्खतापूर्ण दुस्साहस’ कर रहे हैं।

यह एक और ‘राष्ट्रीय दुर्भाग्य’ है कि ‘हिन्दी’ आज तक ‘वोट’ से नहीं जुड़ पाई। यदि ऐसा हो जाता तो हिन्दी के साथ छेड़छाड़ करनेवालों की भी वही दशा होती जो धार्मिक विषयों पर छेड़छाड़ करनेवालों की होती है क्योंकि हमारे देश में धार्मिक मुद्दे ‘वोट’ से जुड़ गए हैं। अन्तर केवल एक ही है कि धार्मिक मुद्दों के साथ छेड़छाड़ होते ही वे तमाम लोग मैदान में उतर आते हैं जिनकी दुकानदारी धर्म से चलती है। इसके विपरीत, हिन्दी के साथ छेड़छाड़ होने पर भी वे तमाम लोग अपने मुँह और आँखें बन्द कर लेते हैं जो हिन्दी से अर्थ-यश-लाभ प्राप्त करते हैं और कर रहे हैं।

यहाँ तमिलनाडु की चर्चा समीचीन होगी। तमिलनाडु में ‘हिन्दी-विरोध’ आज भी ‘वोट’ दिलाता है। इसीलिए वहाँ जैसे ही कोई हिन्दी के पक्ष की बात करता है तो हिन्दी-विरोधी सड़कों पर उतर आते हैं। हिन्दी की अस्मिता-रक्षा का जैसा, जितना आग्रह मैं यहाँ कर रहा हूँ, उसका सहस्‍त्रांश भी मैं, तमिलाडु में, सार्वजनिक रूप से कर दूँ तो मुझे आकण्ठ विश्वास है कि मैं वहाँ से जीवित नहीं लौट पाऊँ। हिन्दी थोपे जाने के विचार मात्र से तमिलनाडु में जान पर बन आती है। यह रोचक और त्रासद विडम्बना ही है कि यहाँ, हिन्दी क्षेत्र में, हिन्दी को हिंग्लिश बनाने को गौरवपूर्ण कारनामा माना जाता है और इस प्रवृत्ति का विरोध करनेवाले प्रताड़ित होते हैं और वे तमाम लोग टुकुर-टुकुर देखते रहते हैं जो हिन्दी के कारण ही पहचान, प्रतिष्ठा, आर्थिक सम्पन्नता और विलासिता के स्तर की सुख सुविधाएँ प्राप्त कर रहे हैं।

अपने सूचना पत्र के चरण-7 में आपने समूचे विषय को ‘रूढ़ स्वरूप’ देने की चेष्टा की है। मैं आपकी इन बातों से असहमत हूँ और अस्वीकार करता हूँ।

किसी व्यक्ति द्वारा कही गई बातों को ‘जस का तस’ प्रस्तुत करने के तर्क के सहारे हिन्दी में, बलात् तथा अकारण अंग्रेजी शब्दों के उपयोग का कोई औचित्य नहीं है। वह तब ही सम्भव है जबकि सम्बन्धित व्यक्ति की कही बातों को ‘उत्तम पुरुष, एक वचन’ में (अर्थात् इनवरटेड कॉमा में) प्रस्तुत किया जाए। ऐसा न होने का एक ही अर्थ होता है कि प्रस्तोता ने कहनेवाले की बातों को अपनी भाषा में प्रस्तुत किया है।

आए दिनों ऐसा होता है कि विदेशी (यथा रुसी, जर्मनी, आस्ट्रेलियाई) राष्ट्राध्यक्ष अथवा समान स्तर के अतिथि हमारे देश में आते हैं। पत्रकारों की बातों का उत्तर वे अपनी मातृ भाषा में देते हैं। किन्तु देश के सारे अखबार उन बातों को, अपनी-अपनी भाषा में ही प्रकाशित करते हैं, अतिथि की मातृभाषा में नहीं।

जैसा कि संलग्न पत्र में मैंने विस्तार से कहा है, आपकी पक्षकार सुश्री गायत्री शर्मा ने, श्रीयुत हिंगे की बातों को इनवरटेड कॉमा में प्रस्तुत किया होता तो मैं उन्हें (सुश्री गायत्री शर्मा को) ‘वह पत्र’ लिखता ही नहीं।

जैसा कि मैंने अपने संलग्न पत्र में कहा है, सुश्री गायत्री शर्मा की प्रस्तुति ‘मूल क्रिया’ थी और मेरा पत्र ‘प्रतिक्रिया।’ ‘मूल क्रिया’ (अर्थात् हिन्दी के साथ किए गए अनाचार/अत्याचार) से मुझे हुई पीड़ा की ‘समानानुभति’ कराने की मंशा से ‘प्रतिक्रिया’ व्यक्त की गई, किसी दुराशय अथवा दुर्भावना से बिलकुल ही नहीं। यदि ‘मूल क्रिया’ ही नहीं होती तो भला ‘प्रतिक्रिया’ क्योंकर होती?

इन सारी बातों के परिप्रेक्ष्य में, यह जानते हुए कि मैंने दुराशयतापूर्वक कोई अपराध नहीं किया है, अपने पत्र दिनांक 03.05.2010 की भाषा और शब्दावली के लिए मैं एक बार फिर न केवल आपकी पक्षकार सुश्री गायत्री शर्मा से अपितु विश्व के समूचे स्त्री समुदाय से, मेरे समस्त परिजनों, परिचितों, मित्रों, हित चिन्तकों, समस्त ब्लॉगर बन्धुओं से, अपने अन्तर्मन से बिना शर्त खेद प्रकट करता हूँ और क्षमा याचना करता हूँ।

किसी को आहत करना मेरा लक्ष्य कभी नहीं रहा है। यदि मैं किसी को दुखी करुँगा तो भला मैं कैसे सुखी रह सकूँगा? मैं जैसा बोऊँगा, वैसा ही काटूँगा। इन समस्त भारतीय अवधारणाओं में मेरा आकण्ठ विश्वास है।

आपके चाहे अनुसार, यह पत्र भी मैं अपने ब्लॉग ‘एकोऽहम्’ पर प्रकाशित कर रहा हूँ। प्रसंगवश सूचित कर रहा हूँ कि, श्रीयुत जय प्रकाशजी भट्ट को प्रेषित, दिनांक 18.05.2010 वाला मेरा संलग्न पत्र, मेरे ब्लॉग पर ‘मैं बिना शर्त क्षमा याचना करता हूँ’ शीर्षक से, दिनांक 20.05.2010 को प्रकाशित किया जा चुका है जिसे http:/akoham.blogspot.com/2010/05/blogpost_20.html लॉग-ऑन कर पढ़ा जा सकता है। यह पत्र आप तक पहुँचेगा तब तक यह पत्र भी वहाँ प्रकाशित हो चुका होगा और जैसा कि आपने लिखा है, देश, विदेश के लाखों, करोड़ों इण्टरनेट उपयोगर्ता इसे पढ़ चुके होंगे।

इसके अतिरिक्त मैं दिनांक 18.05.2010 वाले अपने पत्र में किया गया अपना प्रस्ताव दोहरा रहा हूँ कि आपकी पक्षकार सुश्री गायत्री शर्मा चाहें तो अपना पक्ष मुझे ई-मेल कर दें। मैं उसे अपने ब्लॉग पर, अविकल स्वरूप में प्रकाशित कर दूँगा।

इस पत्र की प्रतिलिपि उन समस्त महानुभावों भी भेज रहा हूँ जिन्हें पूर्व पत्रों की प्रतिलिपियाँ भेजी थीं।

आपके सूचना पत्र के चरण-9 में तथा सूचना पत्र के अन्त में चाहे अनुसार कोई भी रकम देने का न तो कोई कारण बनता है और न ही मेरे लिए वह सम्भव है।

इस प्रकरण को मैं अपनी ओर से समाप्त कर रहा हूँ और आपसे भी ऐसा ही करने का अनुरोध, आग्रह तथा अपेक्षा करता हूँ। इसके बाद भी यदि आप कोई कार्रवाई करना चाहें तो उसके लिए तो आप स्वतन्त्र हैं ही। उस दशा में वह सब, आप अपने उत्तरदायित्व पर ही करेंगे।

एक बार पुनः समस्त सम्बन्धितों से क्षमा याचना सहित।

भवदीय,

(विष्णु बैरागी)

संलग्न-उपरोक्तानुसार।

प्रतिलिपि -

- श्रीयुत डॉक्टर जयकुमारजी जलज, 30 इन्दिरा नगर, रतलाम-457001 को व्यक्तिगत सन्देशवाहक द्वारा,

- श्रीयुत प्राफेसर सरोजकुमार, ‘मनोरम्’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर,

- श्रीयुत जयदीप कर्णिक, द्वारा-नईदुनिया, 60/61, बाबू लाभचन्द छजलानी मार्ग, इन्दौर-452009

को, डाक प्रमाणीकरण द्वारा प्रेषित।

मेरे दिनांक 18.05.2010 वाले पत्र की प्रतिलिपि मैं आप सबको पहले ही भेज चुका हूँ, इसलिए वह प्रतिलिपि संलग्न नहीं कर रहा हूँ।

(विष्णु बैरागी)

हाट में सरस्वती


‘सात लाख?’ सुनकर मैं मानो धड़ाम् से गिरा। लगा, फोन के चोंगे में ज्वालामुखी फूट गया है और लावा बह कर मेरे कानों में समाए जा रहा है। मैं बहरा हो गया हूँ। कानों से बहता हुआ लावा मेरे मुँह में आ पहुँचा है। मेरी जबान जल गई है। मैं बहरा ही नहीं, गूँगा भी हो गया हूँ।

फोन के दूसरे छोर पर बैठे संजय ने निश्चय ही मेरी दशा भाँप ली थी। ‘हलो, हलो, भाई साहब! आप तो परेशान हो गए। यह तो सामान्य बात है। आजकल दस-बारह लाख तो सामान्य बात हो गई है। अपन तो सस्ते में निपट रहे हैं।’

मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था। संजय की बात सुनकर लगा या तो मैं अपने समय में ही ठहरा हुआ था, जड़वत्। या फिर कदम ताल कर रहा था और जमाने के साथ-साथ चलने का भ्रम पाले हुए था। संजय को मेरे घर आना था। अपनी उत्तमार्द्ध के साथ मैं उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। पूरा दिन बाट जोहते निकल गया तो शाम को उसे फोन किया। जवाब में जो कुछ उसने कहा, उसी ने मेरी यह गत बना दी।

बात संजय के बेटे की थी। उसे पूना के एक निजी शिक्षण संस्थान में, एम.बी.ए. में प्रवेश मिल गया था। संजय को यह यह सूचना ई-मेल से मिली थी। उसे और उसके पूरे परिवार को प्रसन्न होना चाहिए था किन्तु सूचना के उत्तरार्द्ध ने संजय को गड़बड़ा दिया था। कहा गया था कि शिक्षण शुल्क के ढाई लाख रुपये और छात्रावास का शुल्क छप्पन हजार रुपये के ड्राट, बाईस तारीख तक पहुँचाने अनिवार्य हैं। संजय को यह सूचना इक्कीस तारीख को मिली, जिस दिन उसे मेरे यहाँ आना था और जिस दिन हम दोनों उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। प्रथमतः तो इतनी बड़ी रकम एक मध्यमवर्गीय नौकरीपेशा आदमी की जेब में होती नहीं और हो भी और ताबड़तोड़ ड्राट भी बन जाए तो भी चैबीस घण्टों में रतलाम से पूना कैसे पहुँचाए जाएँ? संजय इसी सब में उलझ गया। इसीलिए नहीं आ पाया। यही सब बताते हुए संजय ने कहा - ‘दो वर्ष के एम. बी. ए. पाठ्यक्रम का कुल शुल्क सात लाख रुपये है। छात्रावास शुल्क अलग।’ यह रकम सुनकर ही मैं बहरा-गूँगा हो गया था और संजय मुझे इससे उबारने में लगा हुआ था।

मुझे क्या कुछ याद नहीं आया? यह चार साल पहले की ही तो बात है। सन् 2006 में मेरे बड़े बेटे वल्कल ने एम. बी. ए. किया था। तब, दो वर्ष का सकल शिक्षण शुल्क एक लाख रुपये था। तब हम लोगों को यह रकम कितनी बड़ी, कितनी भारी लगी थी? कैसे हम लोग यह रकम जुटा पाएँगे - हमारे इस सवाल का जवाब किसी भी दिशा में नहीं मिल रहा था। दसों दिशाएँ मानो नीरव हो गई थीं। वल्कल हमारी यह दशा जानता ही था। उसने ही ‘उच्च शिक्षा ऋण’ के लिए भाग दौड़ की। कागज-पत्तर जुटाए। कहा - ‘पापा! आप केवल बैंक में मेरे साथ खड़े रहिएगा और जहाँ कहें, वहाँ दस्तखत कर दीजिएगा। सब हो जाएगा।’ और सचमुच में सब हो गया। ऋण मिल गया, वल्कल ने एम. बी. ए. कर लिया, उसे नौकरी मिल गई और उसीने ब्याज सहित ऋण भी चुका दिया-निर्धारित समय से पहले ही।

किन्तु चार वर्षों में शिक्षण शुल्क में इतनी बढ़ोतरी? सवा-डेड़ रुपये वार्षिक चक्रवृद्धि ब्याज दर भी हो तो भी रकम पाँच साल में दुगुनी होती है। यहाँ तो चार साल ही हुए हैं और रकम सात गुनी हो गई है? इस आँकड़े तक पहुँचनेवाली ब्याज दर निकालने की हिम्मत ही नहीं हुई।

याद आ गई वे लोकोक्तियाँ जिनमें लक्ष्मी और सरस्वती का बैर बताया जाता था। कहा जाता था कि दोनों एक स्थान पर अपवादस्वरुप ही मिलती हैं-बड़े भाग्यवान को। अन्याथ, लक्ष्मी है तो सरस्वती नहीं और सरस्वती है तो लक्ष्मी नहीं। याद आई वे लोक कथाएँ जिनके नायक सरस्वती के दम पर लक्ष्मी लूट लाते थे। एक पोथी लेकर निकलते और किसी राजा के दरबार में अपनी विद्वत्ता प्रमाणित कर अशर्फियों और मोहरों की पोटलियाँ कन्धों पर लादे लौटते थे। अपने अध्यापकों से सुने वे प्रेरक प्रसंग याद आए जिनमें धनपतियों को निर्धन विद्वानों के चरणों में नत मस्तक होते बताया जाता था। कहा जाता था - सरस्वती से लक्ष्मी जुटाई जा सकती है किन्तु लक्ष्मी से सरस्वती नहीं क्यों कि सरस्वती तो भाग्यवानों को ही मिलती है।

संजय की बातें सुनकर ये सारी लोकोक्तियाँ, सारे किस्से, सारी बातें प्रश्न चिह्न का रुप धर, मेरे सामने आ खड़े हुए। आज तो सरस्वती का हाट लगा हुआ है। खरीदनेवाला चाहिए। जिसकी अण्टी में रोकड़ा हो, आए और मनमाफिक डिग्री हासिल करने का मौका पाए। रोकड़ा नहीं तो मौका नहीं। लक्ष्मी नहीं तो सरस्वती नहीं।

बातें यहीं नहीं रुकीं। इतनी मँहगी कीमत चुकाकर डिग्रियाँ लेनेवाले बच्चे ‘मानवीय’ बने रह सकेंगे? वे कैसे भूल पाएँगे कि उनके माँ-बाप ने कितनी कठिनाई से उनके लिए यह रकम जुटाई है? डिग्रियाँ लेकर जब वे नौकरियों पर जाएँगे तो उनके मन में कौन सी बात सबसे पहले उठेगी? यही कि उन्हें जल्दी से जल्दी यह रकम जुटानी है। या तो पिता का कर्जा चुकाना है या फिर बैंक का। देश, मानवीयता, सम्वेदनाएँ - ये सब उनके लिए कोई अर्थ और महत्व रख पाएँगे? वे ‘उच्च शिक्षित, हाड़-माँसवाले, आत्मकेन्द्रित रोबोट’ बन कर न रह जाएँगे?

जानता हूँ कि इन सवालों के जवाब मेरे पास भी हैं और इन बच्चों के पास भी। किन्तु हमारे जवाब अलग-अलग हैं। एक दूसरे से सर्वथा विपरीत।

कितना अच्छा होता कि यही बात मैं नहीं जानता होता?
-----

आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

परम नहीं, ईश्वर आया मेरे घर



‘काकू! देखो, फोन बन्द मत करना। मेरी पूरी बात सुनना। तीस सालों से आप मुझसे कन्नी काट रहे हो। मुझे टाल रहे हो। मेरे खिलाफ भले ही कुछ नहीं कहते हो किन्तु मेरा नाम सुनना, मेरी बात करना पसन्द नहीं करते हो। लेकिन आज मैं बिलकुल वैसा हो गया हूँ जैसा आपने तीस साल पहले सोचा और चाहा था। मुझे देखेंगे और सुनेंगे तो ही मेरी बात समझ सकेंगे। मुझे आपसे मिलना ही है। मैं आपसे, जल्दी से जल्दी मिलना चाहता हूँ।’ उसने अपना नाम नहीं बताया किन्तु मुझे ‘काकू’ कहनेवाला वह एक ही है - परम। अत्यन्त विनम्रता, आदर और अधिकारभाव से कही गई दो-टूक बात सुनने के बाद इंकार करने का साहस मुझमें रह ही नहीं सकता था। उत्तर दिया - ‘ऐसी तो कोई बात नहीं है। तुम्हारा ही घर है। जब जी चाहे, आ जाना।’

फोन रखने से पहले ही मन तीस बरस पहले की यादों में गुम हो चुका था। यह शायद 1980 की बात होगी। रतलाम आए मुझे तीन साल हुए होंगे। उसके पिताजी से हुआ परिचय आशा से तनिक अधिक जल्दी प्रगाढ़ता और पारिवारिकता में बदल गया। तब वह पन्द्रहवें-सोलहवें साल में चल रहा था। शायद नवमीं या दसवीं का छात्र रहा होगा।

उसके पिताजी भारत सरकार के एक उपक्रम में सेवारत थे। पुरुषार्थ और कर्मठता में विश्वास रखनेवाले निर्धन परिवार की पृष्ठभूमि से आए वे, अत्यन्त सज्जन, ईश्वरभीरु, धार्मिक प्रवृत्तिवाले, कर्मनिष्ठ, ईमानदार और आचरण को सर्वाधिक महत्व देनेवाले व्यक्ति थे। उनकी इन्हीं ‘खराबियों’ के कारण उनके परिवार को ‘सूखी तनख्वाह’ पर गुजारा करना पड़ता था। पत्नी और दोनों बच्चे उनसे असन्तुष्ट ही रहते थे। उनका छोटा भाई राज्य शासन के उपक्रम में अधिकारी था। वह केवल रक्त सम्बन्धों में ही छोटा भाई था, आचरण और जीवन मूल्यों में उनके सर्वथा विपरीत। बड़े भाई से बाद में नौकरी पर लगा था किन्तु धन सम्पत्ति के मामलों में ‘बड़ा आदमी’ बन गया था। जब-जब भी बड़े भाई के घर आता, उसकी सम्पन्नता का आतंक साथ-साथ चला आता। दो-चार दिन रह कर वह तो चला जाता किन्तु उसकी सम्पन्नता का आतंक कुछ दिनों तक इनके घर में ही बना रहता। पत्नी और दोनों बच्चे, चाचा को समझदार, दुनियादार और इन्हें मूर्ख मानते और अपने इस मानने का आभास भी कराते। ये बुरा नहीं मानते और ‘जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये’ कह कर, मुस्कुराते रहते।

उनके यहाँ मेरा आना-जाना बना रहता था। उनकी पत्नी और दोनों बच्चे मुझे बिलकुल ही पसन्द नहीं करते थे। तीनों ही मानते थे कि मैं भी उन्हें बिगड़ने में प्रोत्साहन दे रहा हूँ। कुछ ऐसे ही वातावारण में एक बार उनके ‘इस’ बेटे से, रिश्वतखोरी पर बात चल निकली। उसने अविलम्ब कहा - ‘काकू! मुझे मौका मिला तो मैं तो दोनों हाथो से रिश्वत बटोरुँगा। पापा को तो कुछ दिखता नहीं कि अपने दोस्तों के बीच हमें कितनी बातें सुननी पड़ती हैं।’ सुनकर मैं भौंचक रह गया था। पन्द्रह-सोलह की उम्र और ऐसी बातें! मुझे विश्वास ही नहीं हुआ। मैं इतना ही कह पाया - ‘परम बेटे! तू नहीं जानता कि तू क्या कह रहा है। किन्तु तू जो भी कह रहा है, वह हमारी पीढ़ी की असफलता का प्रमाण-पत्र है।’ इस सम्वाद के बाद से ही मैं उससे कन्नी काटने लगा था। परम जब भी सामने आता, मुझे उलझन होने लगती, अपने आप पर झुंझलाहट और गुस्सा आने लगता।

कोई दो साल बाद ही उसके पिता का स्थानान्तर हो गया। उसके पिता से तो जीवन्त सम्पर्क आज तक यथावत् बना हुआ है किन्तु परम के बारे में कभी, कुछ पूछने की न तो इच्छा हुई और न ही साहस। किन्तु उसके पिता से उसके समाचार मिलते रहते थे। मालूम हुआ कि स्नातक उपाधि पाते ही, अपने चाचा की सहायता से उसे राज्य सरकार के एक अन्य ‘कमाऊ उपक्रम’ में नौकरी मिल गई है और जैसा कि उसने घोषित किया था, दोनों हाथों से माल बटोर रहा है। उसकी माँ प्रसन्न थी। किन्तु पिता को ऐसी बातें बताने में पीड़ा होती थी। सो, हम दोनों सावधानी बरतते थे कि परम का सन्दर्भ न आए। यही कारण रहा कि परम के बारे में मेरी जानकारी शून्यवत हो गयी। इतना भर पता था कि वह महाकौशल अंचल में कहीं पदस्थ है।

फोन इसी परम का था। मैं वर्तमान में लौटा और अपने काम में लग गया। इतनी दूर से आने में उसे कम से कम चैबीस घण्टे तो लगेंगे ही। आएगा, तब जान लूँगा कि क्या बात है।

लेकिन चैबीस मिनिट भी नहीं बीते होंगे कि परम दरवाजे पर खड़ा था। उसे पहचानने में तनिक कठिनाई ही हुई। गोल-मटोल परम को देखा था मैंने तो! यह तो इकहरे शरीरवाला, पैंतालीस बरस का अधेड़ सामने था! मेरे पाँव छूते हुए बोला - ‘क्या काकू! माना कि घर मेरा है पर अन्दर आने की भी नहीं कहोगे?’ मुझे सम्पट नहीं पड़ी। हड़बड़ाकर, जैसे-तैसे उसे अन्दर आने को कहा। वह आया अवश्य किन्तु उसकी चाल में उत्साह, चपलता बिलकुल नहीं थी। ऐसे चल कर आया मानो कोसों पैदल चल कर आया हो, थक कर टूट रहा हो।

वह सोफे पर पसर गया, आँखें मूँद कर, गहरी साँसें लेकर सामान्य होने की कोशिश करता हुआ। मैं कुछ पूछताछ करता उससे पहले ही वह खुद ही शुरु हो गया। वह बोलता रहा, मैं जड़वत् सुनता रहा। उसकी बातें सुनकर मेरी उलझन बढ़ती ही गई - खुश होऊँ या दुखी? रिश्वतखोरी में आकण्ठ डूबा परम, ईश्वर को भी भूल गया। घर में समृद्धि के संकेत अनचाहे ही नजर आने लगे। कुटुम्ब में उसकी पूछ परख बढ़ गई। नाते-रिश्तेदारी में भी उसने अपने पिता का जाना बन्द करवा दिया। खुद ही जाता और अपनी इस बेहतरी को ‘माता-पिता का पुण्य प्रताप’ बताता।

सब कुछ ठीक चल रहा था कि परम की चाची बीमार हो गई। मालूम हुआ, केन्सर है। परिवार मे अफरा तफरी मच गई। मुम्बई में चिकित्सा करानी पड़ी। दो-चार नहीं, पूरे उन्नीस लाख रुपये खर्च हुए। चाचा के पास इतनी रकम एक मुश्त नहीं थी। सो, परिजनों से सहायता लेनी पड़ी। सहायता करनेवालों में परम भी शामिल था। परम ने मदद तो पूरी उदारता से की किन्तु उसे लगा, ईश्वर उसे कोई संकेत दे रहा है। अपने जीवन के आदर्श, चाचा पर आए इस अप्रत्याशित संकट ने परम को झकझोर दिया। परम को अचानक ही कर्म-फल की याद आने लगी। उसे घबराहट होने लगी। किन्तु बुद्धि ने ढाढस बँधाया, तर्क जुटा दिए और परम का भ्रम बना रहा।

कोई दो वर्ष भी नहीं बीते होंगे कि परम खुद बीमार हो गया। लगभग एक वर्ष तक बीमारी ही पकड़ में नहीं आई। जब पकड़ में आई तब तक काफी कुछ कर गुजरी। परम ने कहा - ‘काकू! बीमारी क्या थी, इससे अब कोई फर्क नहीं पड़ता। बस, इतना समझ लो कि मेरा पुनर्जन्म हो गया। मुझे भी बम्बई, चैन्नई के चक्कर काटने पड़े। कोई नौ-दस लाख रुपये खर्च हो गए। पूरे कुटुम्ब के प्राण कण्ठ में आ गए। भ्रष्टाचार तो इससे कहीं अधिक किया था किन्तु सारा का सारा पैसा तो अपने पास नहीं रहता! वह तो नीचे से ऊपर तक बँटता है। सो, जो इकट्ठा किया था, सब खर्च हो गया। कोई नौ-दस लाख रुपये लग गए। आज जब मैं आपके सामने बैठा हूँ तो चाय भी नहीं पी सकता। बिना घी की चपाती और बिना बघारी हुई मूँग की दाल या लौकी की सब्जी ही मेरा भोजन हो गया है। मैं मिर्ची, घी, अधिक नमक नहीं खा सकता। खा लूँ तो मर जाऊँ। पीने के नाम पर केवल मट्ठा, वह भी बिना नमक का। घरवाले ध्यान रखते हैं, मेरी गैरहजारी में ही अपना भोजन करते हैं ताकि उनका चटपटा भोजन देख कर मैं आत्मघाती लालच के चक्कर में न पड़ जाऊँ।

‘इस बीच पापा ने खुद को भी सम्हाला और मुझे भरोसा बँधाते रहे। उन्होंने केवल ईश्वर का सहारा लिया। वे मेरे साथ मुम्बई, चैन्नई कहीं नहीं आए। घर ही रहे और मेरे लिए पूजा-प्रार्थना ही करते रहे। वे मेरा हौसला बँधाते और कहते - परम। हमें अपने कर्मों के फल भोगने ही पड़ते हैं। भरोसा रख, तू अच्छा हो जाएगा। ईश्वर बड़ा कृपालु है। तुझे जो भी कहना-सुनना हो, उसी से कह-सुन। अपनी बीमारी के कारण और ईलाज बाहर नहीं, अपने अन्दर ही तलाश।’

‘और काकू! जब मैं आखिरी बार अस्पताल से बाहर आया तो कसम लेकर कि अब रिश्वत नहीं लूँगा। कोई मेरे बिना माँगे देगा तो भी नहीं लूँगा। मैंने अपने आप को पूरी तरह, ऊपरवाले के हवाले कर दिया है। इस बात को दस महीने हो गए हैं। सब कुछ बढ़िया चल रहा है-नौकरी भी और घर-बार भी।

‘घर आने के बाद से आप रोज याद आते रहे। रोज सोचता, आपसे बात करुँ। पापा से कहा तो उन्होंने कहा कि वे मेरी ओर से आपसे बात नहीं करेंगे। उन्होंने कहा - खुद बात करो। किन्तु हिम्मत नहीं होती थी। जी कड़ा कर, कल रात रतलाम पहुँचा। अब मैं आपके सामने हूँ और विश्वास कीजिए कि जैसा तीस बरस पहले आपने चाहा था बिलकुल वैसा ही हूँ।’

हम दोनों रो रहे थे, सचमुच में धार-धार। बोल नहीं फूट रहे थे। उसे जो कहना था, कह चुका था। मैंने कहा - ‘परम। ईश्वर की कृपा है कि तुम हमारे सामने हो। किन्तु मेरी चाहत के अनुरूप बनने के लिए तुमने बहुत बड़ी कीमत चुकाई।’

खुद को संयत कर परम बोला - ‘काकू! इस भाव में भी यह जिन्दगी बहुत सस्ती मिली। आप कहते हो ना कि हम अतीत की मरम्मत नहीं कर सकते? सो, जो हो गया सो हो गया। मैं अपने वर्तमान को जीऊँगा और ईश्वर को धन्यवाद देते हुए, प्रसन्नतापूर्वक जीऊँगा। आप मुझे आशीर्वाद दीजिएगा और मेरी ओर से निश्चिन्त रहिएगा।’

मुझे लग रहा था, परम नहीं, स्वयम् ईश्वर मुझे अपना सन्देश दे रहा है।
-----

आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

हम सब, निहालसिंह


इन दिनों निहालसिंह चर्चा में हैं। शायद ही कोई अखबार और समाचार चेनल बचा हो जिसने निहालसिंह की चर्चा न की हो। किसी ने कम, किसी ने अधिक, किन्तु चर्चा की सबने। एक समाचार चैनल ने निहालसिंह पर आधे घण्टे का विशेष कार्यक्रम प्रस्तुत किया और थोड़े-थोड़े अन्तराल से, लगभग पूरे दिन प्रसारित किया।

लोग निहालसिंह के घर जा रहे हैं किन्तु उनसे मिलने नहीं। निहालसिंह में किसी की रुचि नहीं है। जो भी जा रहा है, उनकी कार देखने जा रहा है। एक प्रसिद्ध कम्पनी की इस कार का मूल्य बीस लाख रुपये अवश्य है किन्तु ऐसी कार देश में कई लोगों के पास है। इसलिए, मूल्य की दृष्टि से निहालसिंह की कार अनूठी और इकलौती नहीं है। अनूठा है इसका पंजीयन नम्बर - 0001। यह नम्बर प्राप्त करने के लिए निहालसिंह ने पूरे दस लाख रुपये खर्च किए। याने कार के मूल्य की आधी रकम। अपनी कार के लिए यह नम्बर प्राप्त करने क लिए निहालसिंह को नीलामी में उतरकर बोली लगानी पड़ी। खबर है कि इस नम्बर के लिए सात लाख रुपये तक की बोली तक तो कई लोग आए किन्तु उसके बाद दो ही रह गए और अन्ततः निहालसिंह के दस लाख के आँकड़े के सामने कोई नहीं टिका और निहालसिंह की कार एक नम्बरी हो गई। अब निहालसिंह जब भी अपने परिवार के साथ घर से बाहर कार में निकलते हैं तो कार चलाते समय सड़क पर कम और आसपास, उनकी कार को देखनेवालों को ज्यादा देखते हैं, फिल्मी गीत की पंक्ति को साकार करते हुए - हम उधर देखनेवालों की नजर देख रहे हैं।

मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। पहले हुआ करता था। अब बातें कुछ-कुछ समझ आने लगी हैं। अपने से बेहतर लोगों से मिलने-जुलने का यही लाभ हुआ मुझे। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि जीने का आनन्द कम हो जाता है। ऐसी बातों का जितना आनन्द दूसरे लेते हैं, उतना आप नहीं ले पाते। जीवन का आनन्द लेने के लिए न्यूनतम अज्ञानी और मूर्ख होना आवश्यक शर्त होती है। आप जैसे ही समझदार हुए कि गए काम से। सब लोग जिस बात पर ठहाके लगा रहे होते हैं तब आप मूर्खों की तरह चुपचाप बैठे रहते हैं। अज्ञान के अपने सुख होते हैं। अबोध बच्चों को हमारे साथ तब तक ही मजा आता है जब तक कि हम जानबूझकर अज्ञानी और नासमझ बने रहते हैं। गोया, अपने आनन्द के लिए ही नहीं, दूसरो के आनन्द के लिए भी अज्ञानी होना बड़ा सहायक तत्व होता है।

मानव मनोविज्ञान के अनुसार हम सब ‘पहचान की भूख’ के रोगी हैं। हममें से कोई भी भीड़ का हिस्सा बन कर नहीं जीना चाहता। चाहता है कि भीड़ में रहकर भी वह भीड़ से अलग दिखाई दे। यह 'सहज प्रवृत्ति' चैबीसों घण्टे हमें नियन्त्रित किए रहती है। तब भी, जब हम सोए रहते हैं। इसी के अधीन हम सब कोई न कोई सनक या पागलपन पाले रहते हैं जिसका भान हमें तो नहीं होता किन्तु हमारे आसपासवाले इसे खूब अच्छी तरह जानते हैं और इसके बहाने कभी हमारे मजे लेते रहते हैं तो कभी-कभी कोई जिज्ञासा और कौतूहल की विषय वस्तु बना रहता है।

हमारा एक कंजूस मित्र था। उससे चाय पी लेना चुनौतीभरा काम होता था। हम उसे घेर कर ले जाते, वह चाय का आर्डर देता। चाय पीकर हम उसे, भुगतान के लिए, पीछे छोड़कर निकलने लगते तब वह काउण्टर से आवाज लगा कर हमें बुलाता। उसके पास सदैव सौ रुपयों का नोट होता जिसकी शेष रकम का छुट्टा दुकानदार के पास नहीं होता। उसे गालियाँ देते हुए हममें से कोई भुगतान करता। किन्तु चौबीस घण्टे से पहले ही वह हमें भुगतान कर देता। हम पूछते - ‘होटल में क्यों नहीं किया?’ वह कहता - ‘मुझसे चाय पीने के लिए तुम सब जो कुछ करते हो, मेरे भुगतान न करने पर कुढ़ते हो, गालियाँ देते हो, इस सबमें मुझे मजा आता है।’ हम कुछ नहीं कहते। अब समझ आ रहा है कि हम सबके सब उल्लू के पट्ठे थे। हम समझते थे कि हम सब उसके मजे ले रहे हैं जबकि वास्तव में वह हमारे मजे लेता था। तय कर पाना मुश्किल हो रहा है कि हममें से कौन सनकी था - वह अकेला या हम सब?

सबसे अलग दिखने के लिए हम सब अपनी-अपनी क्षमता, समझ और सुविधानुसार उपक्रम करते हैं। अपने लिए पेण्ट-शर्ट का कपड़ा खरीदते समय और उनकी सिलवाई कराते समय भी यह सहज प्रवृत्ति हमें नियन्त्रित करती रहती है। हममे से प्रत्येक चाहता है कि जो कपड़ा वह पसन्द कर रहा है, उस कपड़ेवाली पेण्ट-शर्ट किसी और के पास न हो और यदि हो तो सिलाई के मामले में तो वह सबसे अलग हो ही।

परिजन की हैसियत पा चुका हमारा एक परिचित था - राम प्रकाश सिंह। बहुत ही सरल, सहज, निश्छल, निष्कलुष। हम सबके आनन्द के लिए खुद को परिहास की विषय वस्तु तक बना लेता। खूब चुलबुला और मीठा बोलनेवाला। किन्तु किसी समारोह, आयोजन में जाने के लिए वह जैसे ही कपड़े बदलता, बोलना बन्द कर देता। उसका तर्क होता था - ‘मेरे कपड़े तब तक ही बोलेंगे, तब तक ही मेरा साथ देंगे, जब तक मैं चुप रहूँगा और मैं कपड़ों की कीमत कम नहीं करना चाहता।’

दादा के एक बम्बइया मित्र थे - बद्रीलालजी जोशी। अब स्वर्गीय हैं। वे फिल्मों से जुड़े हुए थे। उनकी पुत्री रतलाम में ही है - स्नेहलता तिवारी या स्वर्णलता तिवारी। वे पार्षद भी रह चुकी हैं। जोशीजी की अपनी पहचान थी। वे पायजामा और बुशर्ट पहनते थे। न तो कभी पेण्ट-बुशर्ट पहना और न ही कभी पायजामा-कुर्ता। सदैव ही पायजामा-बुशर्ट में मिलते। पूरी फिल्मी दुनिया में उन्हें ‘पायजामेवाला जोशी’ के नाम से ही पुकारा, पहचाना जाता।

रतलाम में ही एक डॉक्टर साहब हैं जो ऊपर से नीचे तक सफेद में ही रहते हैं- बालों को छोड़कर। जूते, मौजे, कमरपट्टा, पेण्ट, शर्ट - सब कुछ सफेद। उनकी कार का रंग भी सफेद। उनसे मेरा परिचय नहीं, उनका नाम तक नहीं जानता किन्तु फिर भी मैं उन्हें जानता हूँ। एक हैं मनु भाई चह्वाण। एलआईसी के भूतपूर्व कर्मचारी। नाखून से कागज पर कलाकृतियाँ और शब्द उकेरने में निष्णात्। व्यावहारिकता निभाने के मामले में अद्भुत। किन्तु कभी सीधे मुँह बात नहीं करते। आड़ी-तिरछी बात करने का मेरा एकाधिकार उन्हीं ने नष्ट किया। उनके सामने मैं सदैव ही परास्त-मुद्रा में रहता हूँ। मैं उन्हें ‘मनु भाई एबला’ कहता हूँ। अभिवादन के उत्तर में वे पूछते हैं - ‘कहो भई एबला नम्बर दो?’ हम दोनों जब मिलते हैं तो थोड़ी देर के लिए ही सही, आसपास के लोग हमें देखते रहते हैं। मुझे लगता है, यह सब देखकर हम दोनों का अहम् तुष्ट होता होगा - हम दोनों को सब लोग देख रहे हैं।

ऐसे पचासों लोग, पचासों बातें हमारे आसपास प्रतिदिन ही उपथित रहती हैं किन्तु हम अपने आप में ही इतने खोए रहते हैं कि उनका संज्ञान (याने कि उन सबका आनन्द) लेने की सूझ ही नहीं पड़ती। हम सब अपने आप को सबसे अलग दिखाने की जुगत में ही भिड़े रहते हैं।

‘तीन आस्था घोष’ शीर्षकवाली दादा की एक कविता की पंक्ति है - ‘मैं असाधारण रूप से साधारण हूँ।’ मुझे लगता है कि ऐसा ‘असाधारण’ बनने की कोशिश में हम प्रायः ही ‘असामान्य’ बन जाते हैं। मित्र मण्डली में मैं परिहासपूर्व कहता रहता हूँ - ‘हम जो नहीं हैं, खुद को वही साबित करने के चक्‍कर में हम वह भी नहीं रह पाते जो हम हैं।’ किन्तु इस सन्दर्भ में मुझे जलजजी की बात बराबर याद आती रहती है। हम सब ‘अहम्’ के मारे हुए हैं। जलजजी कहते हैं - ‘कई लोगों को इस बात का अहम् होता है कि उन्हें कोई अहम् नहीं है।’

गोया, हम सब निहालसिंह ही हैं। जब भी मौका मिलता है, निहालसिंह बन जाते हैं - पैसा हुआ तो पैसे से, अकल हुई तो अकल से, प्रतिभा हुई तो प्रतिभा से, शारीरिक शक्ति हुई तो उससे। यदि नहीं बन पाते हैं तो ‘निहालसिंहपन’ तो बता ही देते हैं।
बस, मौका मिलना चाहिए।
-----

आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

मैं बिना शर्त क्षमा याचना करता हूँ



पावती सहित पंजीकृत डाक से

18 मई 2010, मंगलवार
वैशाख शुक्ल पंचमी, 2067

प्रति,
श्रीयुत जय प्रकाशजी भट्ट, बी. एससी., एल.एल.बी,
अभिभाषक,
19, जाटों का वास,
रतलाम - 457001

महोदय,
आपकी पक्षकार श्रीमती साधना पति श्रीयुत् लक्ष्मीनारायणजी शर्मा निवासी 8 राजस्व कॉलोनी, रतलाम के प्रतिबोधन एवम् निर्देशानुसार मुझे भेजे गए आपके सूचना पत्र दिनांक 11.05.2010 के उत्तर में मैं यह पत्र बिना किसी पूर्वाग्रह और अपनी सम्पूर्ण सदाशयता से आपको प्रेषित कर रहा हूँ।

अपनी बात कहूँ उससे पहले कुछ बातें स्पष्ट करना आवश्यक हैं।

सबसे पहली बात यह कि आपके द्वारा सूचना पत्र दिए जाने का मूलभूत कारण, सुश्री गायत्री शर्मा को लिखा मेरा, दिनांक 03.05.10 वाला पत्र नहीं, सुश्री गायत्री शर्मा की वह प्रस्तुति है जिसका उल्लेख आपने अपने सूचना पत्र के चरण-1 में किया है।

दूसरी बात यह कि आपकी पक्षकार श्रीमती साधना और उनकी पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा से सामाजिक, व्यावसायिक तथा अन्य किसी भी प्रकार से मेरा कोई निजी बैर और/अथवा प्रतिद्वन्द्विता नहीं है। मैं लेखक भी नहीं हूँ इसलिए लेखकीय प्रतिद्वन्द्विता का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता।

तीसरी बात यह कि हिन्दी को मैं अपनी माँ मानता हूँ क्योंकि हिन्दी न केवल मेरी मातृ भाषा है अपितु हिन्दी के कारण ही मैं अपना जीविकोपार्जन कर पा रहा हूँ। हिन्दी मेरा ही नहीं, समूचे राष्ट्र का सम्मान है। इसीलिए हिन्दी और हिन्दी के सम्मान को लेकर मैं चिन्तित और यथासम्भव सतर्क तथा सक्रिय भी रहता हूँ।

किन्तु मैं ‘दुराग्रही शुद्धतावादी’ भी नहीं हूँ। हिन्दी थिसारस ‘समांतर कोश’ के रचयिता श्री अरविन्द कुमार सहित असंख्य विद्वानों की इस बात को मानता हूँ कि कोई भी भाषा ‘बहता नीर’ होती है जिसमें अन्य भाषाओं के शब्द चले आते हैं। मैं यह भी जानता हूँ कि भारत अंग्रेजों का गुलाम रहा और अंग्रेजों के जाने के बाद भी हमारे राज-काज की भाषा पर अंग्रेजी का प्राधान्य बना रहा इसलिए अंग्रेजी के कई शब्द हिन्दी में आकर ऐसे रच-बस गए हैं कि वे हिन्दी शब्द ही बन गए हैं। इसीलिए मैं रेल, कार, बस, ट्राम, टिकिट, प्लेटफार्म, स्कूल, कॉलेज, माचिस, सिगरेट, पासपोर्ट, प्रीमीयम, पॉलिसी, कम्प्यूटर, लेटर हेड, विजिटिंग कार्ड, एजेण्ट, सिनेमा, फिल्म जैसे अनेक अंग्रेजी शब्दों को इनके इन्हीं रुपों में ही प्रयुक्त करता हूँ। ‘हिन्दी’ के नाम पर इनके क्लिष्ट और असहज आनुवादिक शब्दों के उपयोग का आग्रह नहीं करता क्योंकि ऐसा करना हिन्दी के विरुद्ध ही होगा। ‘शुद्धता’ के नाम पर असहज और कृत्रिम हिन्दी का पक्षधर मैं बिलकुल नहीं हूँ।

किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि हिन्दी के लोक प्रचलित सहज शब्दों के स्थान पर अंग्रेजी शब्दों का अकारण और बलात् उपयोग किया जाना चाहिए। लोक व्यवहृत सहज हिन्दी शब्दों के स्थान पर अंग्रेजी शब्दों के अकारण, बलात् उपयोग से मैं न केवल असहमत हूँ अपितु इस प्रवृत्ति को मैं हिन्दी के साथ ‘बलात्कार’ के अतिरिक्त और कुछ नहीं कह पाता। इसीलिए ‘भारत’ के स्थान पर ‘इण्डिया’, ‘छात्र/छात्रों’ के स्थान पर ‘स्टूडेण्ट/स्टूडेण्ट्स’, ‘पालक’ के स्थान पर ‘गार्जीयन’, ‘अन्तरराष्ट्रीय’ के स्थान पर ‘इण्टरनेशनल’, ‘प्रतियोगिता’ के स्थान पर ‘काम्पीटिशन’ जैसे उपयोगों को अनुचित, आपत्तिजनक तथा हिन्दी के साथ अत्याचार मानता हूँ।
मैं यह भी मानता हूँ कि हममें से प्रत्येक हिन्दी भाषी को अपनी मातृ भाषा ‘हिन्दी’ पर न केवल गर्व होना चाहिए अपितु प्रति पल इसके सम्मान की रक्षा के लिए सतर्क, सक्रिय भी रहना चाहिए और ऐसे प्रत्येक प्रयास का प्रतिकार अपने सम्पूर्ण आत्म बल से करना चाहिए जो हिन्दी को भ्रष्ट करता हो।

मेरी सुनिश्चित धारणा है कि हिन्दी लिखते/बोलते हुए, हिन्दी के लोक प्रचलित और लोक व्यवहृत हिन्दी के सहज शब्दों के स्थान पर, अंग्रेजी शब्दों का अकारण और बलात् उपयोग करनेवाले हिन्दी मातृ भाषी लोगों के माता-पिता में से कोई एक निश्चय ही अंग्रेज रहा होगा या फिर वे किसी अंग्रेज की अवैध सन्तान होंगे। इसके अतिरिक्त मुझे और कोई कारण नजर नहीं आता कि लोग हिन्दी के साथ यह दुष्कर्म करें।

और केवल ‘शब्द’ ही क्यों? मैं तो अंग्रेजी में हस्ताक्षर करने वाले हिन्दी मातृभाषियों को भी इसी श्रेणी में रखता हूँ। हिन्दी हमारी मातृ भाषा ही नहीं, हमारा स्वाभिमान भी है और हमारी पहचान भी। यदि हम ही हिन्दी में हस्ताक्षर नहीं करेंगे तो क्या बिल गेट्स, जार्ज बुश, टोनी ब्लेयर, बराक ओबामा हिन्दी में हस्ताक्षर करेंगे?

मेरी इस मानसिकता/मनःस्थिति को मेरी सनक, मेरा पागलपन या कोई मनोरोग भी कहा जा सकता है किन्तु ऐसा सोचना अपराध तो नहीं ही है।

मैं एक बीमा एजेण्ट हूँ और अपने पॉलिसीधारकों के लिए प्रति वर्ष ‘केलेण्डर’ छपवाता हूँ। वर्ष 2009 के मेरे केलेण्डर के सितम्बर महीने वाले पन्ने की फोटो प्रति आपके तत्काल सन्दर्भ के लिए संलग्न है। इस पन्ने के तले में ‘अंग्रेजों की अवैध सन्तान’ शीर्षक से छपी पंक्तियाँ इस प्रकार हैं - ‘हम अंग्रेजी में हस्ताक्षर करते हैं। हमारी माँ अंग्रेज होगी। नहीं? तो फिर जरुर हमारे पिता अंग्रेज होंगे। ऐसा भी नहीं है? यदि हमारी माँ अंग्रेज नहीं है, हमारे पिता भी अंग्रेज नहीं हैं तो फिर हम अंग्रेजी मे हस्ताक्षर क्यों करते हैं? कहीं हम किसी अंग्रेज की अवैध सन्तान तो नहीं?’ कृपया इस तथ्य पर ध्यान दें कि मेरी धारणा सार्वजनिक रुप से प्रकट करनेवाला यह केलेण्डर, इस विवाद के प्रारम्भ होने से, लगभग सत्रह माह पहले ही छप चुका था। वर्ष 2009 में मैंने इस केलेण्डर की 800 प्रतियाँ छपवाई थीं जिनमें से मेरे पास एक भी नहीं बची। इसकी एक प्रति प्राप्त करने के लिए मुझे मेरे कुछ पॉलिसीधारकों से सम्पर्क करना पड़ा।

मेरे पॉलिसीधारक, मेरे परिजन, मेरे मित्र-परिचित मेरा केलेण्डर न केवल प्रसन्नतापूर्वक अपने घरों में लगाते हैं अपितु नव वर्षारम्भ से पहले से ही इसकी माँग शुरु कर देते हैं। अपने घर में मेरा केलेण्डर टाँगनेवाले मेरे परिजनों सहित इनमें से अधिसंख्य लोग अंग्रेजी में ही हस्ताक्षर करते हैं और अपनी धारणा के अनुसार मैं इन सबको किसी अंग्रेज की अवैध सन्तान ही मानता हूँ। वैसे भी, अपने दैनन्दिन व्यवहार में, अकारण और बलात् अंग्रेजी शब्द प्रयुक्त करनेवाले को को लोक व्यवहार में ‘बड़ा आया, अंग्रेज की औलाद’ कह कर ही तो उलाहना दिया जाता है!

आपका कहना है कि आपकी पक्षकार श्रीमती साधना की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा की विवादास्पद प्रस्तुति में प्रयुक्त अंग्रेजी शब्द श्रीयुत दिलीप हिंगे द्वारा कहे गए थे। आपकी बात मानने का कोई तार्किक कारण और आधार मुझे नजर नहीं आता।

आपने सूचित किया है कि आपकी पक्षकार श्रीमती साधना की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा, ‘नईदुनिया’ के सम्पादकीय विभाग में उप सम्पादक के पद पर कार्यरत है। यह सूचित करते समय आपने सम्भवतः यह याद नहीं रखा कि ‘नईदुनिया’ वह अखबार है जो न केवल ‘पत्रकारिता का स्कूल’ के रुप में अपितु ‘अच्छी हिन्दी सीखने का उपयुक्त माध्यम’ के रुप में भी पहचाना जाता रहा है। यह अखबार हिन्दी के ‘की’ तथा ‘कि’, ‘है’ और ‘हैं’ और ‘वो’ तथा ‘वह’ जैसे शब्दों के सूक्ष्म अन्तर के प्रभाव और महत्व का ध्यान रखने के लिए भी पहचाना जाता रहा है। मैनें भले ही ‘नईदुनिया’ खरीदना बन्द कर दिया है किन्तु इससे इंकार नहीं कर सकता कि हिन्दी भाषा और व्याकरण के सन्दर्भ में ‘नईदुनिया’ अपने आप में ‘प्राधिकार’ की स्थिति में रहा है।

यदि सुश्री गायत्री शर्मा सचमुच में ‘नईदुनिया’ में उप सम्पादक के पद पर कार्यरत हैं तो मैं विश्वास करता हूँ कि उन्हें हिन्दी भाषा और इसके वैयाकरणिक अनुशासन का यथेष्ठ ज्ञान होगा और वे भली भाँति जानती होंगी कि जब किसी व्यक्ति के कथन को ‘ज्यों का त्यों’ (मेरे अल्प ज्ञान के अनुसार, व्याकरण की भाषा में ‘उत्तम पुरुष, एक वचन’ में) प्रस्तुत किया जाता है तो वह समूचा कथन इनवरटेड कॉमा (‘‘ ’’) में प्रस्तुत किया जाता है। यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो असंदिग्ध रुप से यही माना जाता है कि कहनेवाले की बात को प्रस्तोता अपनी भाषा में प्रस्तुत कर रहा है जिसकी भाषा और शब्दावली, प्रस्तोता की अपनी है जिसे (मेरे अल्प ज्ञान के अनुसार) व्याकरण की भाषा में ‘तृतीय/अन्य पुरुष, एक वचन’ प्रस्तुति कहा जाता है। ऐसी प्रस्तुतियों में होता यह है कि प्रस्तोता, कहनेवाले की बात को प्रस्तुत करते समय उसकी भाषागत और वाक्य रचनागत त्रुटियाँ, अनगढ़ता दूर कर देता है। नेताओं के भाषणों के समाचार मेरी इस बात का श्रेष्ठ उदाहरण हो सकते हैं। अपने उद्बोधनों में नेतागण अपनी बात जिस अनगढ़ ढंग और भाषा में कहते हैं, समाचारों में वह कहीं नजर नहीं आता क्योंकि सम्वाददाता उस अनगढ़ता को दूर कर देते हैं।

मेरा आपसे अनुरोध है कि कृपया आपके सूचना पत्र के चरण-1 में उल्लेखित, सुश्री गायत्री शर्मा की प्रस्तुति का अवलोकन कम से कम एक बार अत्यन्त सावधानीपूर्वक करें। आप पाएँगे कि आपकी पक्षकार श्रीमती साधना की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा ने श्रीयुत हिंगे के कथन को कहीं भी इनवरटेड कॉमा में (उत्तम पुरुष, एक वचन के रुप में) प्रस्तुत नहीं किया है। स्पष्ट है कि आपकी पक्षकार श्रीमती साधना की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा की प्रस्तुति में प्रयुक्त शब्दावली और भाषा श्रीयुत हिंगे की नहीं, आपकी पक्षकार श्रीमती साधना की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा की है। आपकी पक्षकार श्रीमती साधना की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा यदि श्रीयुत हिंगे के कथन को इनवरटेड कॉमा में (उत्तम पुरुष, एक वचन के रुप में) प्रस्तुत करतीं तो मुझे उन्हें वह पत्र लिखने का कोई कारण ही पैदा नहीं होता। स्पष्ट है कि समूचे विवाद का कारण आपकी पक्षकार की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा द्वारा अपनी प्रस्तुति में बरती गई वैयाकरणिक चूक है। न वे यह चूक करतीं, न मैं ‘वह पत्र’ लिखता।
स्पष्ट है कि आपकी पक्षकार श्रीमती साधना की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा की प्रस्तुति ‘मूल क्रिया’ है और मेरा पत्र ‘प्रतिक्रिया’ मात्र। आप मूल क्रिया की अनदेखी कर, प्रतिक्रिया को ही मूल क्रिया कहना चाह रहे हैं। मूल क्रिया की अस्पष्टता, उसमें बरती गई वैयाकरणिक चूक ही समूचे विवाद का कारण है, मेरा ‘वह पत्र’ नहीं।

आपकी पक्षकार श्रीमती साधना की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा को लिखा अपना पत्र मुझे विवशतावश ही अपने ब्‍लॉग पर प्रकाशित करना पड़ा। मैंने वही किया जो आपकी पक्षकार श्रीमती साधना की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा ने किया। वस्तुतः ऐसा करने की प्रेरणा मुझे उन्हीं से मिली। उन्होंने अपनी प्रस्तुति, अपने प्रभाववाले एक प्रतिष्ठित, व्यापक प्रसारवाले अखबार में सार्वजनिक की, मैंने, अपने प्रभाववाले, अत्यन्त सीमित पठनीयतावाले अपने ब्लॉग पर। उनके पास अखबार था, मेरे पास ब्लॉग।

मुझे यह जानकर अच्छा लगा कि मेरा पत्र देश-विदेश में लाखों लोगों ने पढ़ा। अब तक मैं यही मान रहा था कि आपकी पक्षकार की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा सहित गिनती के उन आठ-दस लोगों ने वह पत्र पढ़ा जिन्होंने अपनी टिप्पणियाँ वहाँ अंकित की।

आपको यह जानकर सचमुच में प्रसन्नता होगी कि आपकी पक्षकार श्रीमती साधना की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा ने भी अपनी भावनाएँ (कानूनी भाषा में ‘अपना पक्ष’) वहाँ सुस्पष्टता और उन्मुक्तता से, बिना किसी रोक-टोक, बिना किसी हस्तक्षेप के, पूरी स्वतन्त्रता, उन्मुक्तता से अंकित की। (यहाँ प्रसंगवश सूचित कर रहा हूँ कि शनिवार दिनांक 15.05.10 की शाम को मुझे ‘नईदुनिया’ के श्रीयुत जयदीप कर्णिक का पत्र मिला, जिसमें उन्होंने कहा कि मैं अपना वह पत्र अपने ब्लॉग से हटा लूँ। मेरा लेपटॉप गए कुछ दिनों से खराब था। वह शनिवार की रात को ठीक होकर आया और रविवार को प्रातः, लगभग सात-सवा सात बजे मैंने, श्रीयुत कर्णिक का कहा मानते हुए अपना पत्र अपने ब्लॉग से हटा लिया है।) आपकी पक्षकार श्रीमती साधना की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा की निर्बन्ध टिप्पणी (कानूनी भाषा में ‘उनका पक्ष’) इस प्रकार है -

‘‘आदरणीय बैरागी जी,
आपका पत्र मिला। आपके पत्र की असंगत भाषा से ही आपकी मानसिकता का परिचय मिलता है कि आप किसी स्त्री के बारे में कैसी सोच रखते हैं व उसके लिए किस तरह के हल्के शब्दों का प्रयोग करते हैं। हो सकता है यह आपकी बौखलाहट का नतीजा हो पर फिर भी मैं ईश्वर से यही कामना करती हूँ कि ईश्वर आपको सद्बुद्धि दे। आपके निवास पर आपसे हुई पहली मुलाकात के बाद मुझे लगा था कि मुझे आपसे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा पर दुर्भाग्य से आपके बारे में मेरा यह भ्रम शीघ्र ही टूट गया। आपकी प्रकाण्डता का प्रदर्शन तो आपने इस पत्र में बखूबी किया है। आपकी तरह किसी को अपमानित करके सुर्खियाँ पाने का शॉर्टकट मैंने तो अब तक नहीं सीखा है।
हमारे शब्द कही न कही हमारे व्यक्तित्व के भी परिचायक होते हैं। आपके जैसी उच्चस्तरीय भाषा (मैं नहीं जानता कि तुम किस अंग्रेज की अवैध संतान हो, मुझे नहीं पता कि तुम्हारे साथ या तुम्हारी माताजी के साथ कभी कोई बलात्कार हुआ है या नहीं ...) सीखने में तो शायद मेरी पूरी उम्र ही बीत जाएगी।
डॉ. जयकुमार जलज जी मेरे गुरू रहे हैं। मेरे दिल में उनके लिए बहुत सम्मान है। मुझे पूरा विश्वास है कि ऐसी असंयत भाषा का प्रयोग वह कभी नहीं करेंगे। आपने उनके नाम का उल्लेख किया इसलिए मैंने उनसे टेलीफोन पर चर्चा की। वह स्वयं भी आपके शब्दों के चयन से आहत है। आपने उनकी पीड़ा मुझे बताई पर मैं उनका दर्द आपको बताना चाहूँगी। आपने उनके नाम का सहारा लेकर जिन अनुचित शब्दों का प्रयोग किया है उससे मैं या जलज जी क्या, हर वो व्यक्ति आहत हुआ है, जो किसी लड़की का पालक है और जिसकी संतान को अवैध कहने की हिमाकत आपने की ही। उस माता-पिता की पीड़ा को शायद आप नहीं समझ पाएँगे। हो सकता है आप मेरी इस टिप्पणी को तुरंत अपने ब्लॉग से हटा दे पर मैं सच कहने में यकीन करती हूँ। क्षमा चाहती हूँ कि मैंने आपके लिए इतने सयंत शब्दों का प्रयोग किया है।
- गायत्री शर्मा’’
मई 8, 2010 2.32 पीएम

आपको यह जानकर भी प्रसन्नता होगी कि लेखकीय नैतिकता (यद्यपि मैं लेखक नहीं हूँ, जैसा कि मैं शुरु में ही कह चुका हूँ) का आदरपूर्वक पालन करते हुए मैंने आपकी पक्षकार श्रीमती साधना की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा की यह टिप्पणी अपने ब्लॉग पर यथावत् बनी रहने दी। यह टिप्पणी उन्होंने, 08 मई 2010 को दोपहर में 2 बज कर 32 मिनिट पर की थी।

उनकी टिप्पणी मिलने पर मैंने अपने ई-मेल सन्देश में उन्हें, यथा सम्भव तत्काल उत्तर दिया -

‘‘निश्चिन्त रहना। अपनी टिप्पणी को तुम मेरी पोस्ट पर यथावत् पाओगी।’’

इसके कुछ ही क्षणों के बाद (लगभग अविलम्ब ही) मैंने उन्हें अगला ई-मेल किया -

‘‘और हाँ, अपने मन में मेरे लिए चरम घृणा बनाए रखते हुए यह भी याद रखना कि मेरे पत्र का कारण क्या था और कोशिश करना कि भविष्य में ‘मेरी माँ’ के साथ फिर बलात्कार न करो।’’

उपरोक्त दोनों सन्देश मेरे कम्प्यूटर पर सुरक्षित हैं।

कानूनी खानापूर्ति का हवाला देते हुए मैं आसानी से कह सकता हूँ कि आपकी पक्षकार श्रीमती साधना की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा ने अपना पक्ष सुविचारित रुप से, बिना किसी प्रतिबन्ध और हस्तक्षेप के, जितना और जैसा जरुरी समझा और चाहा उतना और वैसा, मेरे ब्लॉग पर प्रस्तुत कर दिया जिसे (आपके मतानुसार) देश-विदेश के वे लाखों लोग पढ़ चुके जिन्होंने मेरे पत्र को पढ़ा।

किन्तु मेरे लिए बात केवल कानूनी खानापूर्ति की नहीं है। मैं इससे पहले और इसके आगे ‘आशय’ (मंशा) को महत्व देता हूँ।

इसीलिए उल्लेख है कि आपकी पक्षकार श्रीमती साधना की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा द्वारा मेरे ब्लॉग पर टिप्पणी करने से पहले, दिनांक 07 मई 2010 को, प्रातः 9 बज कर 32 मिनिट पर किन्हीं ‘अनानीमसजी’ ने टिप्पणी की -

‘‘भाषा तो ठीक है भैया, लेकिन एक स्त्री को लेकर इतनी घटिया टिप्पणी मैंने कहीं नहीं पढ़ी। पहले अपनी भाषा सुधारो भाईसाहब....संस्कारों के साथ बलात्कार खुद कर रहे हो....बात भाषा की करते हो।’’

उत्तर में मैंने उन्हें ई-मेल सन्देश दिया -

‘‘अनानीमसजी,
आपने न केवल बिलकुल ठीक कहा है अपितु आवश्यकता/अपेक्षा से कम ही कहा है। यह सब लिख कर मुझे तनिक भी प्रसन्नता नहीं हुई है और अब तक अपने आप पर शर्मिन्दा हूँ। किन्तु मेरा अनुभव यह रहा है कि शालीनता से कही गई बात का नोटिस कभी नहीं लिया गया। तब हताश होकर, अपने संस्कारों से स्खलित होकर मैंने एक-दो बार जब घटियापन प्रयुक्त किया तो उसका नोटिस लिया गया और न केवल मुझे जवाब मिला बल्कि अपेक्षित कार्रवाई/सुधार भी हुआ।
मुझे एक स्त्री ने ही जन्म दिया है एक स्त्री ने ही पिता होने का गौरव और सुख दिया है। यह सब जानते हुए भी जब मैंने यह सब लिखा है तो जाहिर है, प्रसन्नतापूर्वक तो नहीं ही लिखा है।’’

इसके उत्तर में दिनांक 08 मई 2010 की प्रातः 9 बजकर 10 मिनिट पर ‘अनानीमसजी’ ने रोमन लिपि में टिप्पणी की -

‘‘बहुत गन्दा लेकिन बहुत जरूरी।’’

इस टिप्पणी के उत्तर में मैंने उन्हें ई-मेल किया -

‘‘अनानीमसजी,
अन्ततः मुझसे सहमत होने के लिए धन्यवाद। किन्तु इससे मेरा आत्म सन्ताप कम नहीं होता। मैंने भले ही इसे जरुरी मान कर लिखा किन्तु आधारभूत बात तो यही है कि मैंने ऐसा नहीं ही लिखना चाहिए था।
सुभाषित न सुने जाएँ और गालियां न केवल सुनी जाएँ बल्कि उन पर अपेक्षित कार्रवाई भी हो तो ऐसा ही होता है।
फिर भी मैं शर्मिन्दा तो हूँ ही।’’

बाद में मैंने, दो खण्डोंवाली अपनी यह टिप्पणी भी अपने ब्लॉग पर प्रकाशित की।

यदि आप ध्यानपूर्वक देखेंगे तो पाएँगे कि यहाँ दी गई समस्त टिप्पणियाँ, सम्बन्धित व्यक्तियों के कथनों को ‘ज्यों का त्यों’ (अर्थात्, उत्तम पुरुष, एक वचन रुप में अर्थात् इनवरटेड कॉमा में) प्रस्तुत किए गए हैं। अर्थात् इन कथनों में मैंने अपनी ओर से न तो कुछ मिलाया है न ही कुछ कम किया है।

कृपया इस महत्वपूर्ण तथ्य पर भी ध्यान दें कि अपने ‘आत्म सन्ताप’ और ‘शर्मिन्दगी’ का यह स्वीकार मैंने स्वेच्छा से किया और आपकी पक्षकार श्रीमती साधना और उनकी पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा के कहे बिना किया। यह सब और कुछ नहीं, केवल मेरे ‘आशय’ (मंशा) का प्रमाण है।

यद्यपि आपकी पक्षकार श्रीमती साधना की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा अपना प्रतिवाद मेरे ब्लॉग पर प्रकट कर चुकी हैं और मैं अपने पत्र की भाषा को लेकर शर्मिन्दगी और आत्म सन्ताप, आपकी पक्षकार श्रीमती साधना और उनकी पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा के कहे बिना ही, उनके कुछ भी कहने से पहले ही अपने ब्लॉग पर प्रकट कर चुका हूँ फिर भी यदि आपकी पक्षकार श्रीमती साधना और उनकी पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा चाहें तो अपनी भावनाएँ ई-मेल द्वारा मुझे पहुँचा दें। मैं उनकी भावनाएँ, अविकल रुप में, एक बार फिर अपने ब्लॉग पर स्वतन्त्र रुप से प्रकाशित कर दूँगा।

आपने चाहा है कि मैं आपकी पक्षकार श्रीमती साधना से लिखित में, बिना शर्त क्षमा-याचना प्रस्तुत करुँ। आपने इस विषय को केवल एक व्यक्ति तक सीमित कर दिया। आपके चाहने और आपकी कल्पना, अनुमानों से कहीं आगे बढ़कर मैं इसे व्यापक कर रहा हूँ।

मैं भली भाँति जानता हूँ कि -
- एक स्त्री ने ही मुझे जन्म दिया है।
- एक स्त्री ने ही मुझे पिता होने का सुख और गौरव दिया है।
- एक स्त्री ने ही मुझे उस पितृ-ऋण (अपने पिता का वंश बढ़ाने के ऋण) से मुक्त किया है जो प्रत्येक सनातनी के जीवन की अभिलाषा होती है।
- एक स्त्री ने ही मेरे जीवन को पूर्णता प्रदान की है।
- एक स्त्री के कारण ही मुझे सामाजिक स्वीकार्य मिल पाया है।
- किसी का (वह भी किसी स्त्री का?) असम्मान कर मैं अपना सम्मान कभी नहीं बढ़ा सकता।

इसलिए, यह जानते हुए भी कि समूचा विवाद आपकी पक्षकार श्रीमती साधना की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा की चूक के कारण उपजा, मेरे पत्र के कारण नहीं, मैं अपने, दिनांक 03.05.10 में प्रयुक्त भाषा और शब्दावली के लिए केवल आपकी पक्षकार श्रीमती साधना और उनकी पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा से ही नहीं, दुनिया के सम्पूर्ण स्त्री समुदाय से और मेरे पत्र से आहत मेरे समस्त परिजनों, परिचितों, मित्रों, हित चिन्तकों, समस्त ब्लॉगर बन्धुओं से, अपने अन्तर्मन से, बिना किसी शर्त के खेद प्रकट करता हूँ और क्षमा याचना करता हूँ।

किसी की अवमानना और चरित्र हनन करना मेरा लक्ष्य क्षणांश को भी, कभी भी नहीं रहा। इस प्रकरण के सन्दर्भ में मेरी इस बात को खारिज किया जा सकता है और पाखण्ड समझा जा सकता है किन्तु यह सच है कि यह मेरे संस्कारों में नहीं है। किन्तु हुआ यह कि मेरी माँ के साथ बलात्कार कर, बलात्कारी उसे नग्न दशा में चैराहे पर छोड़ गए। मुझे खबर लगी। मैं वहाँ पहुँचा। मैंने अपनी धोती खोल कर अपनी नग्न माँ को ढँका। लोगों ने केवल मेरा धोती खोलना देखा और उसके बाद जो कुछ हुआ वह सामने है।

यह पत्र, डाक घर को सौंपने के अगले दिन मैं अपने ब्लॉग http://akoham.blogspot.com पर प्रकाशित कर रहा हूँ और उन समस्त महानुभावों को भी इसकी प्रतिलिपि भेज रहा हूँ जिन्हें पूर्व पत्र की प्रतिलिपि भेजी थी। आप यह माँग नहीं करते तो भी मुझे तो अपने ईश्वर के लिए यह सब करना ही था।

जैसा कि मैं शुरु में ही कह चुका हूँ, आपकी पक्षकार श्रीमती साधना और उनकी पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा से मेरा किसी भी सन्दर्भ, प्रसंग और पक्ष में कोई बैर और प्रतिद्वन्द्विता नहीं है। वे दोनों ही मेरे लिए सर्वथा अपरिचित, अनजान हैं। अपनी टिप्पणी में सुश्री गायत्री शर्मा ने कहा है कि वे मेरे घर आईं थीं किन्तु उनका मेरे घर आना मुझे इस क्षण तक याद नहीं आ पा रहा है।

मेरा साग्रह अनुरोध आपकी पक्षकार श्रीमती साधना की पुत्री सुश्री गायत्री शर्मा तक अवश्य पहुँचाइएगा। वे हिन्दी में लिखती हैं, हिन्दी के कारण ही पहचान और प्रतिष्ठा प्राप्त कर पा रही हैं। उन तक मेरी करबद्ध प्रार्थना पहुँचाइएगा कि वे अपने दैनन्दिन व्यवहार और लेखन में हिन्दी के सहज लोक प्रचलित शब्दों के स्थान पर अंगे्रजी शब्दों को अकारण और बलात् उपयोग न करें। यदि उन्हें अपने नियोक्ता द्वारा ऐसा करने को निर्देशित किया जाए तो कम से कम एक बार तो अवश्य ही प्रतिकार करें। हिन्दी हमारी माँ है, हमारा स्वाभिमान है, हमारी पहचान है, हमारी रोजी-रोटी है और हमारी जिम्मेदारी है। अपने 03.05.10 वाले पत्र में उनके प्रति व्यक्त अपनी शुभ-कामनाएँ दोहरा रहा हूँ - वे हिन्दी में लिखें, खूब लिखें, इतना और ऐसा लिखें कि वे हिन्दी की पहचान बनें और हिन्दी उन पर गर्व करे।

आपकी पक्षकार श्रीमती साधना के प्रति मैं अपनी हार्दिक शुभ-कामनाएँ व्यक्त करता हूँ। उन्हें आहत करना मेरा लक्ष्य कभी नहीं रहा। इसके लिए कोई कारण ही नहीं है। मेरे पत्र से उन्हें उपजी पीड़ा के लिए मैं अलग से उनसे क्षमा माँगता हूँ। ईश्वर उन्हें पूर्ण स्वस्थ बनाए रखें और दीर्घायु प्रदान करें।

आपके चाहे अनुसार कोई राशि देने का न तो कोई कारण है और न ही वह मेरे लिए सम्भव है।

यह प्रकरण मैं अपनी ओर से समाप्त कर रहा हूँ और ऐसा ही करने का अनुरोध/अपेक्षा आपसे भी करता हूँ। इसके बाद भी यदि आप कोई कार्रवाई करना चाहें तो उसके लिए आप स्वतन्त्र हैं ही। उस दशा में आप, वह सब अपने उत्तरदायित्व पर ही करेंगे।

एक बार फिर समस्त सम्बन्धितों से क्षमा याचना और हार्दिक शुभ-कामनाएँ।

धन्यवाद।
भवदीय,
विष्णु बैरागी

संलग्न-उपरोक्तानुसार।

प्रतिलिपि -
- श्रीयुत डॉक्टर जयकुमारजी जलज, 30 इन्दिरा नगर, रतलाम-457001 को व्यक्तिगत सन्देशवाहक द्वारा,
- श्रीयुत प्राफेसर सरोजकुमार, ‘मनोरम्’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर,
- श्रीयुत जयदीप कर्णिक, द्वारा-नईदुनिया, 60/61, बाबू लाभचन्द छजलानी मार्ग, इन्दौर-452009
को, डाक प्रमाणीकरण द्वारा प्रेषित।

पत्र में उल्लेखित, केलेण्डर के पन्ने की फोटो प्रति, तीनों प्रतिलिपियों में संलग्न हैं।

विष्णु बैरागी


-----

आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

वरुण के बच जाने से उपजी खुशी


रीमा और वरुण मुझे चमत्कृत किए जा रहे हैं। मेरी कुछ धारणाओं को झुठलाए जा रहे हैं। कोई तीन-साढ़े तीन वर्षों से दोनों को ध्यान से देख रहा हूँ। प्रतिदिन उनके साथ कुछ समय गुजारना पड़ रहा है। कभी आधा घण्टा तो कभी एक घण्टा तो कभी इससे भी अधिक। जब भी उनके पास से उठकर आता हूँ, हर बार पहले से अधिक चमत्कृत होकर लौटता हूँ।


यह तो मैं भली भाँति जानता समझता हूँ कि पति-पत्नी असंख्य असहमतियों के साथ एक छत के नीचे प्रसन्नतापूर्वक आजीवन रह लेते हैं। किन्तु यह कैसे सम्भव है कि उनकी आदतों और स्वभाव का प्रभाव एक दूसरे पर नहीं पड़े? कहा भी गया है - संसर्ग जा दोष गुणा भवन्ति। अर्थात्, संगति का असर तो होता ही है। रीमा और वरुण मुझे इसी मुद्दे पर चमत्कृत किए जा रहे हैं।


दोनों ही शासकीय सेवक हैं। वरुण राजस्व विभाग में लिपिक है तो रीमा सहायक शिक्षक। नौकरी तो दोनों कर रहे हैं किन्तु दोनों के तरीके और तेवर एकदम अलग-अलग हैं। बिलकुल पूरब-पश्चिम की तरह। रंच मात्र भी साम्य नहीं।


वरुण की पहचान है - समयबद्धता, नियमितता, काम के प्रति निष्ठा, रोज का काम रोज निपटाना, गलत काम न तो स्वेच्छा से करना और न ही नियन्त्रक अधिकारी के मौखिक आदेश से। अधिकारी यदि अनुचित आदेश लिखित में जारी कर दे तो भी उसे करने से यथा सम्भव बचना। हाथ का साफ और बात का पक्का। लगभग बीस वर्षों की नौकरी हो गई है किन्तु एक छींटा भी नहीं है उसके दामन पर। ‘कामचोरी’ और ‘मक्कारी’, ये दोनों शब्द उसके शब्दकोश से निर्वासन भोग रहे हैं। उसकी ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा, स्पष्टवादिता और विनम्रतापूर्ण दृढ़ता के आगे उसके नियन्त्रक अधिकारी भी न केवल उससे अनुचित बात करने से परहेज करते हैं अपितु उसे अतिरिक्त आदर भी देते हैं।


और रीमा? वह वरुण की विलोम प्रति है। पूरे विभाग में उसे कामचोर, मक्कार, आलसी और झूठे बहाने बनानेवाली के रूप में ही पहचाना जाता है। समय पर कभी नहीं आना और प्रति दिन समय से पहले चले जाना उसका स्थायी चरित्र बना हुआ है। उसने अपनी पाठशाला को कभी भी बन्द नहीं पाया। वह जब भी अपनी पाठशाला पहुँची, उसने अपनी पाठशाला को सदैव खुली और अपनी प्रधानाध्यापक तथा सहकर्मिणी को सदैव ही काम करते पाया और लौटी तब भी उन्हें काम करता हुआ छोड़कर। आलसी इतनी कि उसका बस चले तो अपनी उपस्थिति के हस्ताक्षर भी किसी और से करवा ले।


गए दिनों अध्यापकों को एक सर्वेक्षण करना था। सहयोगी अध्यापक के साथ रीमा की भी ड्यूटी लगी। ड्यूटी क्या लगी मानो साक्षात यमराज सामने आ खड़े हो गए! अपने उच्च रक्तचाप की, मधुमेह की दुहाई दी किन्तु किसी ने नहीं सुना। ‘आँ, ऊँ’ कर, ड्यूटी से बचने की एक भी कोशिश कामयाब नहीं हुई। हारकर बेशर्मी और ढिठाई से बोली - ‘लिखने-पढ़ने का काम मुझसे नहीं होता। मैं तो बस साथ चली चलूँगी।’ बेचारी सहकर्मिणी परिश्रमी और सबको साथ लेकर चलनेवाली थी। सो रीमा का सारा काम उसीने किया। सर्वेक्षण के, सौ-सौ पन्नों वाले तीन कट्टे सहकर्मिणी ने ही भरे।


तय हुआ था कि इस सर्वेक्षण की रिपोर्ट का दूसरा भाग दो दिनों बाद, पाठशाला में ही तैयार कर लिया जाएगा। किन्तु अगले ही दिन एक जाँच दल आ गया और दूसरा भाग उसी दिन तैयार करना जरूरी बताया। रीमा को दस्तें लग गईं। उसने अपने मोबाइल से कोई नम्बर घुमाया, किसी से बात की और बात समाप्त करते ही बोली - ‘मेरे ननदोई की तबीयत अचानक बहुत खराब हो गई है। अस्पताल में भर्ती कराया है। मुझे फौरन जाना पड़ेगा।’ और कह कर, किसी की कुछ भी सुने बिना रीमा यह जा, वह जा। बेचारी सहकर्मिणी ने घण्टों खट कर रिपोर्ट का दूसरा भाग तैयार किया।


रीमा है तो अध्यापक किन्तु बच्चों को पढ़ाने में उसकी रुचि कभी नहीं रही। आज भी नहीं है। उसके पढ़ाए बच्चे पहली कक्षा से शुरु होकर चौथी कक्षा तक आ गए हैं किन्तु उन्हें अक्षर ज्ञान भी नहीं है। रीमा को इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। इतनी कामचोरी, इतना आलस, इतनी मक्कारी! क्या उसके अफसरों को कुछ भी पता नहीं? कैसे धक रही है नौकरी में वह? ऐसे सवालों के जवाब में रीमा बेशर्मी से ठठाकर हँस पड़ती है। कहती है - ‘कामचोर, मक्कार और आलसी लोग ही तो मिल कर मुझे निभा रहे हैं! केवल जन शिक्षक ही है जो पाठशाला में प्रायः ही आता रहता है। उसकी खुशामद कर लेती हूँ और महीने में दो-एक बार उसकी तगड़ी चाय-पानी कर देती हूँ। बस। सब सेट हो जाता है।’ अपनी इस दशा पर उसे शर्म नहीं आती? रीमा का जवाब होता है - ‘शर्म तो आनी-जानी है। बन्दा ढीठ होना चाहिए।’


वरुण और रीमा कम से कम बीस-बाईस बरसों से साथ रह रहे हैं। सोचता हूँ, वरुण के ‘सत्संग’ का असर रीमा पर क्यों कर नहीं हुआ? सवाल का कोई जवाब मन में उभरे उससे पहले ही मानो कोई चेतावनी गूँज उठी - रीमा पर वरुण का कोई प्रभाव नहीं हुआ वो तो अपनी जगह। किन्तु यदि वरुण पर रीमा का प्रभाव हो गया होता तो?


मैं घबरा जाता हूँ। रीमा की कामचोरी, मक्कारी, बेशर्मी मुझे अब कम तकलीफ दे रही है। लोकोक्ति के सच साबित न होने पर मैं अब खुश हूँ।

-----


आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.