परम नहीं, ईश्वर आया मेरे घर



‘काकू! देखो, फोन बन्द मत करना। मेरी पूरी बात सुनना। तीस सालों से आप मुझसे कन्नी काट रहे हो। मुझे टाल रहे हो। मेरे खिलाफ भले ही कुछ नहीं कहते हो किन्तु मेरा नाम सुनना, मेरी बात करना पसन्द नहीं करते हो। लेकिन आज मैं बिलकुल वैसा हो गया हूँ जैसा आपने तीस साल पहले सोचा और चाहा था। मुझे देखेंगे और सुनेंगे तो ही मेरी बात समझ सकेंगे। मुझे आपसे मिलना ही है। मैं आपसे, जल्दी से जल्दी मिलना चाहता हूँ।’ उसने अपना नाम नहीं बताया किन्तु मुझे ‘काकू’ कहनेवाला वह एक ही है - परम। अत्यन्त विनम्रता, आदर और अधिकारभाव से कही गई दो-टूक बात सुनने के बाद इंकार करने का साहस मुझमें रह ही नहीं सकता था। उत्तर दिया - ‘ऐसी तो कोई बात नहीं है। तुम्हारा ही घर है। जब जी चाहे, आ जाना।’

फोन रखने से पहले ही मन तीस बरस पहले की यादों में गुम हो चुका था। यह शायद 1980 की बात होगी। रतलाम आए मुझे तीन साल हुए होंगे। उसके पिताजी से हुआ परिचय आशा से तनिक अधिक जल्दी प्रगाढ़ता और पारिवारिकता में बदल गया। तब वह पन्द्रहवें-सोलहवें साल में चल रहा था। शायद नवमीं या दसवीं का छात्र रहा होगा।

उसके पिताजी भारत सरकार के एक उपक्रम में सेवारत थे। पुरुषार्थ और कर्मठता में विश्वास रखनेवाले निर्धन परिवार की पृष्ठभूमि से आए वे, अत्यन्त सज्जन, ईश्वरभीरु, धार्मिक प्रवृत्तिवाले, कर्मनिष्ठ, ईमानदार और आचरण को सर्वाधिक महत्व देनेवाले व्यक्ति थे। उनकी इन्हीं ‘खराबियों’ के कारण उनके परिवार को ‘सूखी तनख्वाह’ पर गुजारा करना पड़ता था। पत्नी और दोनों बच्चे उनसे असन्तुष्ट ही रहते थे। उनका छोटा भाई राज्य शासन के उपक्रम में अधिकारी था। वह केवल रक्त सम्बन्धों में ही छोटा भाई था, आचरण और जीवन मूल्यों में उनके सर्वथा विपरीत। बड़े भाई से बाद में नौकरी पर लगा था किन्तु धन सम्पत्ति के मामलों में ‘बड़ा आदमी’ बन गया था। जब-जब भी बड़े भाई के घर आता, उसकी सम्पन्नता का आतंक साथ-साथ चला आता। दो-चार दिन रह कर वह तो चला जाता किन्तु उसकी सम्पन्नता का आतंक कुछ दिनों तक इनके घर में ही बना रहता। पत्नी और दोनों बच्चे, चाचा को समझदार, दुनियादार और इन्हें मूर्ख मानते और अपने इस मानने का आभास भी कराते। ये बुरा नहीं मानते और ‘जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये’ कह कर, मुस्कुराते रहते।

उनके यहाँ मेरा आना-जाना बना रहता था। उनकी पत्नी और दोनों बच्चे मुझे बिलकुल ही पसन्द नहीं करते थे। तीनों ही मानते थे कि मैं भी उन्हें बिगड़ने में प्रोत्साहन दे रहा हूँ। कुछ ऐसे ही वातावारण में एक बार उनके ‘इस’ बेटे से, रिश्वतखोरी पर बात चल निकली। उसने अविलम्ब कहा - ‘काकू! मुझे मौका मिला तो मैं तो दोनों हाथो से रिश्वत बटोरुँगा। पापा को तो कुछ दिखता नहीं कि अपने दोस्तों के बीच हमें कितनी बातें सुननी पड़ती हैं।’ सुनकर मैं भौंचक रह गया था। पन्द्रह-सोलह की उम्र और ऐसी बातें! मुझे विश्वास ही नहीं हुआ। मैं इतना ही कह पाया - ‘परम बेटे! तू नहीं जानता कि तू क्या कह रहा है। किन्तु तू जो भी कह रहा है, वह हमारी पीढ़ी की असफलता का प्रमाण-पत्र है।’ इस सम्वाद के बाद से ही मैं उससे कन्नी काटने लगा था। परम जब भी सामने आता, मुझे उलझन होने लगती, अपने आप पर झुंझलाहट और गुस्सा आने लगता।

कोई दो साल बाद ही उसके पिता का स्थानान्तर हो गया। उसके पिता से तो जीवन्त सम्पर्क आज तक यथावत् बना हुआ है किन्तु परम के बारे में कभी, कुछ पूछने की न तो इच्छा हुई और न ही साहस। किन्तु उसके पिता से उसके समाचार मिलते रहते थे। मालूम हुआ कि स्नातक उपाधि पाते ही, अपने चाचा की सहायता से उसे राज्य सरकार के एक अन्य ‘कमाऊ उपक्रम’ में नौकरी मिल गई है और जैसा कि उसने घोषित किया था, दोनों हाथों से माल बटोर रहा है। उसकी माँ प्रसन्न थी। किन्तु पिता को ऐसी बातें बताने में पीड़ा होती थी। सो, हम दोनों सावधानी बरतते थे कि परम का सन्दर्भ न आए। यही कारण रहा कि परम के बारे में मेरी जानकारी शून्यवत हो गयी। इतना भर पता था कि वह महाकौशल अंचल में कहीं पदस्थ है।

फोन इसी परम का था। मैं वर्तमान में लौटा और अपने काम में लग गया। इतनी दूर से आने में उसे कम से कम चैबीस घण्टे तो लगेंगे ही। आएगा, तब जान लूँगा कि क्या बात है।

लेकिन चैबीस मिनिट भी नहीं बीते होंगे कि परम दरवाजे पर खड़ा था। उसे पहचानने में तनिक कठिनाई ही हुई। गोल-मटोल परम को देखा था मैंने तो! यह तो इकहरे शरीरवाला, पैंतालीस बरस का अधेड़ सामने था! मेरे पाँव छूते हुए बोला - ‘क्या काकू! माना कि घर मेरा है पर अन्दर आने की भी नहीं कहोगे?’ मुझे सम्पट नहीं पड़ी। हड़बड़ाकर, जैसे-तैसे उसे अन्दर आने को कहा। वह आया अवश्य किन्तु उसकी चाल में उत्साह, चपलता बिलकुल नहीं थी। ऐसे चल कर आया मानो कोसों पैदल चल कर आया हो, थक कर टूट रहा हो।

वह सोफे पर पसर गया, आँखें मूँद कर, गहरी साँसें लेकर सामान्य होने की कोशिश करता हुआ। मैं कुछ पूछताछ करता उससे पहले ही वह खुद ही शुरु हो गया। वह बोलता रहा, मैं जड़वत् सुनता रहा। उसकी बातें सुनकर मेरी उलझन बढ़ती ही गई - खुश होऊँ या दुखी? रिश्वतखोरी में आकण्ठ डूबा परम, ईश्वर को भी भूल गया। घर में समृद्धि के संकेत अनचाहे ही नजर आने लगे। कुटुम्ब में उसकी पूछ परख बढ़ गई। नाते-रिश्तेदारी में भी उसने अपने पिता का जाना बन्द करवा दिया। खुद ही जाता और अपनी इस बेहतरी को ‘माता-पिता का पुण्य प्रताप’ बताता।

सब कुछ ठीक चल रहा था कि परम की चाची बीमार हो गई। मालूम हुआ, केन्सर है। परिवार मे अफरा तफरी मच गई। मुम्बई में चिकित्सा करानी पड़ी। दो-चार नहीं, पूरे उन्नीस लाख रुपये खर्च हुए। चाचा के पास इतनी रकम एक मुश्त नहीं थी। सो, परिजनों से सहायता लेनी पड़ी। सहायता करनेवालों में परम भी शामिल था। परम ने मदद तो पूरी उदारता से की किन्तु उसे लगा, ईश्वर उसे कोई संकेत दे रहा है। अपने जीवन के आदर्श, चाचा पर आए इस अप्रत्याशित संकट ने परम को झकझोर दिया। परम को अचानक ही कर्म-फल की याद आने लगी। उसे घबराहट होने लगी। किन्तु बुद्धि ने ढाढस बँधाया, तर्क जुटा दिए और परम का भ्रम बना रहा।

कोई दो वर्ष भी नहीं बीते होंगे कि परम खुद बीमार हो गया। लगभग एक वर्ष तक बीमारी ही पकड़ में नहीं आई। जब पकड़ में आई तब तक काफी कुछ कर गुजरी। परम ने कहा - ‘काकू! बीमारी क्या थी, इससे अब कोई फर्क नहीं पड़ता। बस, इतना समझ लो कि मेरा पुनर्जन्म हो गया। मुझे भी बम्बई, चैन्नई के चक्कर काटने पड़े। कोई नौ-दस लाख रुपये खर्च हो गए। पूरे कुटुम्ब के प्राण कण्ठ में आ गए। भ्रष्टाचार तो इससे कहीं अधिक किया था किन्तु सारा का सारा पैसा तो अपने पास नहीं रहता! वह तो नीचे से ऊपर तक बँटता है। सो, जो इकट्ठा किया था, सब खर्च हो गया। कोई नौ-दस लाख रुपये लग गए। आज जब मैं आपके सामने बैठा हूँ तो चाय भी नहीं पी सकता। बिना घी की चपाती और बिना बघारी हुई मूँग की दाल या लौकी की सब्जी ही मेरा भोजन हो गया है। मैं मिर्ची, घी, अधिक नमक नहीं खा सकता। खा लूँ तो मर जाऊँ। पीने के नाम पर केवल मट्ठा, वह भी बिना नमक का। घरवाले ध्यान रखते हैं, मेरी गैरहजारी में ही अपना भोजन करते हैं ताकि उनका चटपटा भोजन देख कर मैं आत्मघाती लालच के चक्कर में न पड़ जाऊँ।

‘इस बीच पापा ने खुद को भी सम्हाला और मुझे भरोसा बँधाते रहे। उन्होंने केवल ईश्वर का सहारा लिया। वे मेरे साथ मुम्बई, चैन्नई कहीं नहीं आए। घर ही रहे और मेरे लिए पूजा-प्रार्थना ही करते रहे। वे मेरा हौसला बँधाते और कहते - परम। हमें अपने कर्मों के फल भोगने ही पड़ते हैं। भरोसा रख, तू अच्छा हो जाएगा। ईश्वर बड़ा कृपालु है। तुझे जो भी कहना-सुनना हो, उसी से कह-सुन। अपनी बीमारी के कारण और ईलाज बाहर नहीं, अपने अन्दर ही तलाश।’

‘और काकू! जब मैं आखिरी बार अस्पताल से बाहर आया तो कसम लेकर कि अब रिश्वत नहीं लूँगा। कोई मेरे बिना माँगे देगा तो भी नहीं लूँगा। मैंने अपने आप को पूरी तरह, ऊपरवाले के हवाले कर दिया है। इस बात को दस महीने हो गए हैं। सब कुछ बढ़िया चल रहा है-नौकरी भी और घर-बार भी।

‘घर आने के बाद से आप रोज याद आते रहे। रोज सोचता, आपसे बात करुँ। पापा से कहा तो उन्होंने कहा कि वे मेरी ओर से आपसे बात नहीं करेंगे। उन्होंने कहा - खुद बात करो। किन्तु हिम्मत नहीं होती थी। जी कड़ा कर, कल रात रतलाम पहुँचा। अब मैं आपके सामने हूँ और विश्वास कीजिए कि जैसा तीस बरस पहले आपने चाहा था बिलकुल वैसा ही हूँ।’

हम दोनों रो रहे थे, सचमुच में धार-धार। बोल नहीं फूट रहे थे। उसे जो कहना था, कह चुका था। मैंने कहा - ‘परम। ईश्वर की कृपा है कि तुम हमारे सामने हो। किन्तु मेरी चाहत के अनुरूप बनने के लिए तुमने बहुत बड़ी कीमत चुकाई।’

खुद को संयत कर परम बोला - ‘काकू! इस भाव में भी यह जिन्दगी बहुत सस्ती मिली। आप कहते हो ना कि हम अतीत की मरम्मत नहीं कर सकते? सो, जो हो गया सो हो गया। मैं अपने वर्तमान को जीऊँगा और ईश्वर को धन्यवाद देते हुए, प्रसन्नतापूर्वक जीऊँगा। आप मुझे आशीर्वाद दीजिएगा और मेरी ओर से निश्चिन्त रहिएगा।’

मुझे लग रहा था, परम नहीं, स्वयम् ईश्वर मुझे अपना सन्देश दे रहा है।
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4 comments:

  1. सुंदर व सकारात्मक दृष्टिकोण. आभार

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  2. आप खुद भी रोते हैं और पढने वालों की आंखो को भी नम करा देते हैं, ये अच्छी बात नहीं :)
    खैर, परम का कायाकल्प हो गया बहुत अच्छा हुआ। अपने छोटे से जीवन में मैने ये अनुभव किया है। बडी व्यक्तिगत बात है लेकिन कह रहा हूँ। मेरे ५वीं से १२ वीं की पढाई तक घर में विकट आर्थिक समस्या थी लेकिन उस समस्या के दौर में परिवार ने एक इकाई के रूप में काम करके जैसे तैसे उस समय को पार किया और उसके फ़ल भी अच्छे ही निकले।
    अभी कुछ दिनों पहले अपनी बडी बहन से बात करते करते मेरे मुंह से निकल गया, हम उन दिनों अमीर थे जब हम गरीब थे। खैर, अब आगे क्या कहूँ।

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  3. Namaste Uncle
    Very Nicely Written ... As always ..

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