वसन्त की गुमशुदगी

सवेरे-सवेरे कोई पाँच-सात किलोमीटर हो आया हूँ। नहीं। पैदल नहीं। मोटर सायकिल पर।

कहीं कुछ असामान्य और विशेष नहीं है। रेल्वे स्टेशन पर टिकिट खिड़िकियों के सामने लम्बी कतारें, प्री-पेड बूथ पर पर्चियाँ बनवाते लोग, ‘प्लेटफार्म पर नहीं छोड़ूँगा, गाड़ी में आपको बैठाकर, आपके पास आपका सामान रख कर आऊँगा‘ जैसी बातें कह कर अपना पारिश्रमिक तय करने के लिए जद्दोजहद करते कुली, अपने-अपने मुकाम के ‘रूट’ वाले टेम्पो को तलाश में लगभग बदहवास लोग।

तीन स्कूलों के सामने से जानबूझकर निकला। किन्तु वहाँ भी सब कुछ प्रतिदिन जैसा। आटो रिक्शा से उतरते बच्चे, अपने बच्चों को छोड़कर घर लौटने को उतावले पिता, बच्चों से पहले स्कूल में पहुँचने के लिए लगभग दौड़ कर आ रही अध्यापिकाएँ, गेट पर खड़ा, निर्विकार भाव से सब-कुछ देखते हुए खड़ा चैकीदार। औत्सुक्य भाव लिए कहीं कुछ अनूठा नहीं।

घर से बाहर जाते समय भी और लौटते समय भी वे ही और वैसी की वैसी ही सड़कें, झाड़ू लगाती, कचरे के ढेर बना कर उन ढेरों में चिंगारी सुलगाती सफाई कर्मचारी, दो बत्ती पर और राम मन्दिर के सामने, अपने पसीने के खरीददार की प्रतीक्षा के लिए ‘मण्डी’ बनने के लिए पहुँचते मजदूर, चाय का पहला कप धरती को अर्पित कर रहा होटल मालिक और उस चाय को आँखों से पी जाने की कोशिश कर रहा भिखारी। सब कुछ ऐसा मानो समूची सृष्‍िट, यन्त्र हो गई हो।

वांछित की असफल तलाश से लस्त-पस्त हो मैं घर लौटा हूँ। यहाँ भी सब कुछ ‘वही का वही’ है। गेट के पास पड़े अखबार, चाय बनाकर प्रतीक्षा कर रही पत्नी, पड़ौसी को आवाज लगा रहा दूधवाला, भोपाल पेसेंजर पकड़ने के उपक्रम में अपने आसपास को भी भूल जाने वाले जैन साहब।

मैं ‘उदास सा’ होने से बचने के लिए अपना अतीत खँगालने लगता हूँ। आज के दिन पिताजी सवेरे जल्दी उठा देते थे-लगभग ‘हाँक’ लगा कर। मैं भागकर, पास के गाँव ‘पुरोहित पीपल्या’ के बाहर खड़े आम के वृक्ष से कुछ ‘बौर’ तोड़ता और भाग कर ही घर लौटता। स्नान कर तैयार होता उससे पहले ही माँ ‘तरबेणे’ (सम्भवतः ‘त्रिवेणी’ का अपभ्रंश पुल्लिंग, ताँबे का बना तसला, जिसमें ठाकुरजी को स्नान कराया जाता था) में गुलाल रख कर ले आती। मैं, आम के ‘बौर’ को उस तरबेणे में रखता और बीच रास्ते खड़ा हो जाता। आते-जाते लोगों के माथे पर गुलाल लगाता। वे प्रसन्न होकर आशीष देते। उनमें से कुछ, 'तरबेणे' में छोद वाला ताँबे का एक पैसा, अधन्ना (आधा आना) डाल देते। मुझे अच्छा लगता। खुश हो जाता और अपेक्षा करता कि वे सब, जिनके माथे पर मैं गुलाल लगा रहा हूँ, कुछ न कुछ ‘तरबेणे‘ में जरूर डालें। लेकिन ऐसा नहीं होता। मैं शिकायत भरी नजरों से पिताजी की ओर देखता। वे हँस कर कहते - ‘अपन साधु हैं। अपने को अपने पास कुछ भी नहीं रखना है। अपने को तो देना ही देना है। आज बसन्त पंचमी है। लोगों को तो अपने काम से ही फुरसत नहीं होती। उन्हें कौन याद दिलाए कि आज बसन्त पंचमी है। आज से ऋतु बदल रही है। आम के बौर के ‘दर्शन’ करा कर तू उन सबको इस बदलाव की याद दिला रहा है। इससे उन्हें खुशी होगी। तू गुलाल नहीं लगा रहा है, उन्हें खुशियाँ बाँट रहा है। उनके मन में जो आनन्द पैदा होता है उसका कोई मोल नहीं है। पैसों का क्या है? पैसा तो हाथ का मैल है। परवाह मत कर। प्रसन्न मन से गुलाल लगा।’ आज सोच-सोच कर हैरत में पड़ रहा हूँ कि भिक्षा वृत्ति पर आश्रित परिवार का मुखिया पैसे को हाथ का मैल कैसे कह पा रहा होगा? वह भी हँसते-हँसते? शायद यह भी वसन्त-आगमन से उपजे उल्लास का ही प्रभाव होता होगा कि भिखारी भी पैसे को हाथ का मैल कह दे।

जब थोड़ा बड़ा हुआ तो, सेवेर गुलाल लगाने की ‘ड्यूटी’ पूरी करने के बाद स्कूल पहुँचता तो स्कूल पूरा का पूरा बदला हुआ नजर आता। मुख्य द्वारा पर आम के पत्तों की बन्दनवारें सजी होतीं। प्रधानाध्यापकजी और सारे गुरुजी किसी न किसी उपक्रम में व्यस्त होते। स्कूल के अन्दर वाले खुले मैदान के एक कोने में टेबल के ऊपर कुर्सी रख कर उसे रंगीन पकड़े से ढक दिया गया होता था और उस पर विद्या की देवी, माँ सरस्वती की तस्वीर रखी होती थी। सीनीयर बच्चे ‘बेटी के बाप’ की तरह व्यवस्थाएँ कर रहे होते। घण्टी बजती। प्रार्थना होती और उसके ठीक बाद सरस्वती पूजा का आयोजन शुरु हो जाता। हम छोटे बच्चों को जो भी कुछ ‘गीत-कविता’ याद होती, प्रस्तुत करते। मेरी माँ के पास लोकगीतों का खजाना था और कोयल का कण्ठ। उसी के खजाने से मैं कुछ ‘बधावे‘ गाता और वाहवाही पाता। बड़े बच्चे पाठ्य पुस्तकों की कविताएँ प्रस्तुत करते। हिन्दी वाले ‘सर‘ घनानन्द के छन्दों का पाठ करते जो हमारी समझ में नहीं आता। संस्कृत वाले 'शास्त्री सर' अत्यन्त गर्वपूर्वक ‘जाने क्या-क्या’ उच्चारते। बरसों बाद समझ आया कि वे सरस्वती स्तुति करते थे। सबसे अन्त में हमारे प्रधानाध्यापकजी का भाषण होता। कार्यक्रम का समापन जलेबी से होता। हम लोग उस पूरे दिन सरस्वती पूजन और जलेबी की बातें करते।

आज सेवेर से मैं वही सब कुछ तलाश करने निकला था। लेकिन खाली हाथ लौटा हूँ। मुझे न तो ‘वसन्त’ मिला और न ही उसके आने की ‘पदचाप’ ही सुनाई दी है। अखबार के मुख पृष्ठ पर जरूर वसन्त है किन्तु त्यौहार की तरह नहीं, ‘इवेण्ट’ के रूप में।

सोच रहा हूँ, नहा-धो कर आज किसी से बीमा की बात करने के बजाय पहले पुलिस स्टेशन जाऊँ और दरोगाजी से गुहार लगाऊँ-'मेरी मदद कीजिए। मेरा वसन्त खो गया है। ढूँढ दीजिए।'

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बीमा: लायसेंस किसी और का बीमा करे कोई और


22 जनवरी की, बीमा एजेण्ट की आचरण संहिता शीर्षक मेरी पोस्ट पर श्री Smart Indian - स्मार्ट इंडियन ने अत्यन्त आधारभूत और महत्वपूर्ण बात कही/पूछी है -‘‘हमें तो यह भी पता नहीं था की बीमा-एजेंट का लाइसेंस भी माँगा जा सकता है. उस स्थिति में अपनी पत्नी, या भाई आदि के लाइसेंस के नाम पर कार्यस्थान पर ख़ुद पालिसी बेचने का व्यवसाय कर रहे लोगों के बारे में क्या निर्देश हैं? साथ ही कुछ एजेंट पहली किस्त में से कुछ रकम पालिसी धारक को वापस दे देते हैं, क्या इसके बारे में भी कोई आधिकारिक नियम है? जो एजेंट ऐसा वादा करके पालिसी बेच-बेचकर फ़िर उसे कभी पूरा नहीं करते, क्या उनके ख़िलाफ़ कुछ कारवाई होनी चाहिए?’’

आपके माँगने पर एजेण्ट जैसे ही अपना लायसेंस आपको बताता है, आपको उसकी वास्तविकता मालूम हो जाती है। यदि वह ‘वास्तविक एजेण्ट’ है तब तो कोई बात ही नहीं। किन्तु यदि वह (अपने किसी परिजन अथवा और किसी के नाम पर काम कर रहा) ‘छाया एजेण्ट’ (डमी एजेण्ट) है तो यह आप पर निर्भर है कि आप उससे बात करें अथवा नहीं।

मेरा मत तो यही है कि ऐसे लोगों को निरुत्साहित ही किया जाना चाहिए। ‘छाया एजेण्ट’ की आजीविका चूँकि बीमा एजेन्सी नहीं होती इसलिए वह इसके प्रति न तो गम्भीर होता है और न ही अपने ग्राहकों को अपेक्षित समय और, विक्रयोपारान्त ग्राहक सेवा दे पाता है। आपके आसपास आपको ऐसे अनेक बीमाधारक मिल जाएँगे जिनका बीमा करने वाले एजेण्ट ने पलटकर नहीं देखा होगा। या तो वे पालिसी बेचने के बाद अपना काम समाप्त मान लेते हैं या फिर वे काम करना ही छोड़ देते हैं। ऐसे एजेण्टों के बीमाधारकों को, बीमा क्षेत्र में ‘अनाथ पालिसीधारक’ (आरफन पालिसीहोल्डर्स) के रूप में जाना जाता है। ऐसा पालिसीधारक यदि गम्भीर हुआ तो अपना बीमा जीवित रखने के लिए वह बार-बार बीमा कम्पनी के कार्यालय के चक्कर काटने को विवश होता है। अगम्भीर पालिसीधारक झुंझलाकर अपनी पालिसी बन्द कर देता है। असन्तुष्‍ट पालिसीधारकों (अथवा भूतपूर्व पालिसीधारकों) में 99 प्रतिशत पालिसीधारक ऐसे ही ‘छाया एजेण्टों’ के शिकार होते हैं।

मेरा अनुभव है कि ऐसे ‘छाया एजेण्ट’ सबके लिए गम्भीर समस्या होते हैं। यदि ये नहीं रहें तो असन्तुष्‍ट पालिसीधारकों की संख्या, अनुपात और प्रतिशत में उल्लेखनीय कमी आ सकती है। अधिकाधिक व्यवसाय प्राप्त करने के लालच में ‘छाया एजेण्ट’ बना दिए जाते हैं और अपवादों को यदि छोड़ दें तो ये सबके सब अन्ततः समस्या ही साबित होते हैं। लायसेंस देखते ही यदि ग्राहक इनसे बात करने से इंकार कर दें तो इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है।

पहली किश्‍त में छूट देने का चलन इस व्यवसाय का ही नहीं, समूचे बीमा उद्योग का नासूर बना हुआ है। इसकी शुरुआत, बीमा करने वालों में से ही किसी न किसी ने की होगी क्यों कि सम्भावित ग्राहकों को तो इस बारे में जानकारी शायद ही रही होगी। यह ऐसी शुरुआत हुई है जो अब चाहने पर बन्द होती नजर नहीं आती।

ग्राहक को अपना कमीशन लौटाना ऐसा गम्भीर अपराध है जिसके साबित हो जाने पर एजेण्ट को न केवल अपनी एजेन्सी से हाथ धोना पड़ सकता है अपितु उसे, अपने किए गए सम्पूर्ण व्यवसाय पर भविष्‍य में मिलने वाले कमीशन से भी हाथ धोना पड़ सकता है।

बीमा अधिनियम 1938 की धारा 41 के अन्तर्गत, कमीशन के इस लेन-देन को अनुचित घोषित किया गया है और इस शर्त का उल्लंघन करने वाले (ग्राहक और एजेण्ट) को 500 रुपयों तक का जुर्माना किए जाने का प्रावधान है। इस धारा का उल्लेख (अन्य बीमा कम्पनियों के बारे में तो मुझे नहीं पता किन्तु, भारतीय जीवन बीमा निगम के) बीमा प्रस्ताव प्रपत्र में स्पष्‍ट रूप से किया गया है। किन्तु अधिकांश (प्रायः समस्त) ग्राहक न तो बीमा प्रस्ताव पत्र देख पाते हैं और न ही खुद भरते हैं। बीमा एजेण्ट, अलग कागज पर सम्भावित ग्राहक के (बीमा प्रस्ताव में भरे जाने वाले) समस्त ब्यौरे लिख लेते हैं और सम्भावित ग्राहक से कोरे प्रस्ताव पत्र पर हस्ताक्षर करा लेते हैं। यह अत्यन्त सामान्य व्यवहार हो गया है किन्तु प्रसन्नता तथा सन्तोष की बात है कि इसका दुरुपयोग होने अथवा इस व्यवहार के कारण ग्राहक को नुकसान होने का कोई प्रकरण अब तक सामने नहीं आया है।

मेरा अनुभव है कि इन दिनों, सम्भावित बीमा ग्राहक, बीमा पर बात की शुरुआत ही इस ‘कमीशन वापसी’ से करते हैं। मैं उन्हें इस व्यवहार के लिए हतोत्साहित करता हूँ क्योंकि यदि एजेण्ट को कमीशन ही नहीं मिलेगा तो वह आपमें रुचि क्यों लेगा? उसके हिस्से का कमीशन अपनी जेब में रखकर आप उससे उत्कृष्‍ट ग्राहक सेवा की अपेक्षा क्यों और कैसे कर सकते हैं? बीमा करने के बाद ग्राहक की ओर पलट कर न देखने के पीछे, यह भी एक बडा और महत्‍वपूर्ण कारण हो सकता है।

पूरे न किए जान सकने वाले वादे करने के लिए किसी एजेण्ट पर कार्रवाई करना अथवा करा पाना मुझे प्रथम दृष्‍टया असम्भवप्रायः ही अनुभव होता है क्यों कि ऐसे वादे न तो लिखित में किए जाते हैं और ऐसे वादों का, सामान्यतः कोई गवाह भी नहीं होता। मेरी, अब तक की एजेन्सी अवधि में ऐसा एक भी प्रकरण सामने नहीं आया है।

ऐसे समस्त मामलों में एक तकनीकी तथ्य यह सदैव याद रखा जाना चाहिए कि बीमा एजेण्ट, कम्पनी का कर्मचारी नहीं होता। इसलिए भी एजेण्ट पर कार्रवाई करना और करा पाना मुझे तनिक श्रमसाध्य और अत्यधिक दुरुह अनुभव होता है।

मुझे प्रसन्नता होगी यदि कोई और जिज्ञासा यहाँ प्रस्तुत की जाए। इसका सर्वाधिक लाभ मुझे ही मिलेगा।
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शुध्‍द बधाइयाँ, क्यों कि ये मेरी नहीं हैं

अभी सवेरे के आठ ही बजे होंगे। माघ अमावस्या की यह सुबह पर्याप्त ठण्डी है। लेकिन मैं अव्यक्त ऊष्‍मा की गुनगुनी शाल से लिपटा अनुभव कर रहा हूँ अपने आप को।
श्रीमतीजी को छोड़ कर अभी ही लौटा हूँ। वे शासकीय विद्यालय में अध्यापक हैं। उन्हें स्कूल छोड़ना मेरी दिनचर्या का अंग है। उन्हें आज जल्दी पहुँचना था। स्कूल में ध्वजारोहण समय पर हो जाना चाहिए।

आज सूरज भी अधिक खुश लगा। बादलों की कैद से मुक्त जो था। स्कूल की धुली ड्रेस पहन कर उल्लास से उछलते हुए, स्कूल जा रहे, किसी गरीब माँ के बेटे की तरह खुश लग रहा था। उसके बस्ते में आज ढेर सारी किरणें थीं : नरम-नरम और ठण्ड को हड़काती हुई।

सड़कों पर आवाजाही रोज सवेरे के मुकाबले तनिक अधिक थी लेकिन अधिकांश स्कूली बच्चे ही थे। सबके सब खुश। लगा, आज वे सब एक साथ स्कूल पहुँचना चाह रहे थे और इसीलिए एक-के-पीछे-एक पंक्तिबध्द होने के बजाय, हाथ में हाथ डाले चल रहे थे, पूरी सड़क पर फैलकर। मानो, न तो कोई आगे रहना चाह रहा हो और न ही किसी को पीछे रहने देना चाह रहा हो। सबके सब, सरपट भागते, एक-दूसरे का नाम जोर-जोर से लेकर पुकारते और साइकिलों पर पीछे से आकर उन्हें पीछे छोड़ते बच्चों की परवाह किए बगैर।

ऐसा नहीं कि सड़कों पर बच्चों के सिवाय और कोई नहीं था। सयाने लोग भी थे लेकिन असहज और शायद तनावग्रस्त। सरकारी कर्मचारी होंगे। समय पर मुकाम पर पहुँचने का तनाव उनक चेहरों पर चिपका हुआ था। वे बच्चों की तरह न तो उल्लसित थे और न ही तरोताजा। दिन शुरु होने से पहले ही थकने की तैयारी में हों मानो।

लौटते में सड़कों पर आवाजाही तो उतनी ही थी किन्तु गति सबकी तनिक तेज थी। दो बार टकराते-टकराते बचा। दोनों ही बार सामने से सायकलों पर आ रहे बच्चे थे। मुझे कोई जल्दी नहीं थी लेकिन बच्चों को तो थी। पहले वाला बच्चा तो मुझे देखकर, मुस्कुरा कर अपनी सायकल पर सवार हो गया किन्तु दूसरा वाले ने ऐसा नहीं किया। ‘सारी अंकल! हेप्पी रिपब्लिक डे अंकल!’ कह कर तेजी से पैडल मारते हुए तेजी से बढ़ चला।

उसने जिस प्रसन्नता, उल्लास, उत्साह और निश्‍छल आत्मीयता से मुझे ‘विश’ (मुझे नहीं पता कि यहाँ 'विश' लिख्ना चाहिए या ‘ग्रीट’) किया उसके सामने दुनिया के सारे गुलाब शर्मा गए, चिडियाएं चहकना भूल गईं, सूरज की चमक कम हो गई, हवाएँ ठिठक गईं मानो, इस प्रतीक्षा में कि वह बच्चा उन्हें भी ‘हेप्पी रिपब्लिक डे’ कहे।

उस बच्चे ने मुझे निहाल कर दिया। लौटकर दरवाजे का ताला खोलकर घर में प्रवेश किया तो लगा कि उस अपरिचित बच्चे का निष्‍कुलश मन और खिलखिलाता, झरने की तरह कल-कल करता लाड़-प्यार भी मेरे साथ चला आया है।

मैं सिस्टम खोल कर यह पोस्ट लिख रहा हूँ। अंगुलियाँ बार-बार अटक रही हैं, मन भटक रहा है। स्क्रीन धुंधला रहा है। टाइपिंग की गति बाधित हो रही है।

बरसों बाद ऐसा उल्लास भरा, जगर-मगर करता, उजला-उजला गणतन्त्र दिवस अनुभव हुआ है मुझे। उस अबोध बच्चे ने मुझे जिस अयाचित अकूत सम्पत्ति से मालामाल कर दिया है, वह सबकी सब मैं आप सबको अर्पित करता हूँ।

अपनी भावनाएँ मिला दूँगा तो बधाई दूषित हो जाएंगी। सो, इस गणतन्त्र दिवस पर आप सबको, मेरे जरिए उस अपरिचित, अबोध बच्चे की, बिना मिलावटवाली, शुध्द बधाइयाँ।

बहुत-बहुत बधाइयाँ।

हार्दिक अभिनन्दन।

जैसा त्यौहार मेरा हुआ, वैसा आप सबका भी हो।

अमर रहे गणतन्त्र हमारा।

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बागी हो जाने का मंगल मुहूर्त

'प्रसंग-लेखन' मुझे आपवादिक ही भाता है। यह मुझे रस्म अदायगी या कि खानापूर्ति लगता है। कर्मकाण्ड की तरह। पुरोहित मन्त्रोच्चार कर रहा है, मन्त्र का अर्थ किसी को समझ नहीं पड़ रहा है और लोग पुरोहित के कहे अनुसार क्रियाएँ सम्पादित कर रहे हों। ठीक वैसे ही जैसे कि पाणिग्रहण संस्कार में वर-वधु कर रहे होते हैं।

इसलिए मैंने तय किया था कि ‘गणतन्त्र दिवस’ को विषय बना कर मैं कुछ नहीं लिखूँगा। फिर ध्यान आया कि इस बार का गणतन्त्र दिवस तनिक विशेषता और अनूठापन लिए हुए है। इसलिए, अपने निश्‍चय से हट रहा हूँ।

मुम्बई पर हुए, पाकिस्तान-पोषित/संरक्षित आतंकी आक्रमण के बाद का यह ठीक पहला गणतन्त्र दिवस है। उस आक्रमण ने पूरे देश को उद्वेलित, आक्रोशित, उत्तेजित और विचलित कर दिया था। सारा देश आड़ोलित हो उठा था। इस आक्रमण में हुए शहीदों के प्रति सम्मान जताने, आक्रमण का विरोध करने और देश के प्रति अपना प्रेम, समर्पण प्रकट करने के लिए लोगों ने अपने-अपने तरीके से आयोजन किए थे, शपथ ली थी, मानव श्रृंखलाएँ बनाई थीं, मोमबत्तियाँ जलाने के विराट् आयोजन किए थे। मुम्बई में तो बिना किसी निमन्त्रण के, मात्र परस्पर ‘एसएमएसीय सम्वाद’ से लाखों लोग सड़कों पर उतर आए थे। सब अपने नेताओं को बोरे में बाँध कर समुद्र में फेंक देने की बातें कर रहे थे। पाकिस्तान पर आक्रमण न करने के लिए अधिसंख्य नागरिक अपनी ही सरकार के पुंसत्व पर, सार्वजनिक रुप से सन्देह व्यक्त कर रहे थे और लगने लगा था कि सरकार यदि इसी तरह चुपचाप, हाथों पर हाथ धरे बैठे रही तो नागरिक खुद ही चल कर पाकिस्तान पहुँच जाएँगे।

वह सब देखना, उसके बारे में पढ़ना-जानना मुझे तब अच्छा तो लग रहा था किन्तु मुझे वह ‘श्‍मशान वैराग्य’ ही लग रहा था-किसी की भी नियत पर सन्देह किए बिना। आचरण की माँग करने वाले प्रसंगों को हम लोग उत्सवों में बदलकर, बड़ी ही कुशलता से, अपने-आप से झूठ बोल लेते हैं, आँख चुरा लेते हैं-सीनाजोर की तरह।


आज, जबकि बवण्डर की धूल बैठ चुकी है, (सरकार की ‘रणनीतिक सफलता’ के चलते) पाकिस्तान पर अन्तरराष्‍ट्रीय दबाव बढ़ने लगा है, वह अकेला पड़ कर अपने संरक्षक बदलने लगा है तब मुझे यह देखकर सचमुच में मर्मान्तक पीड़ा हो रही है कि मेरा सोचना सच साबित हुआ। ‘वह सब’ हमारा श्‍मशान वैराग्य ही था।

आज अपने आस-पास देखें तो सब कुछ वही का वही और वैसे का वैसा ही है जैसा कि 26 नवम्बर से पहले था। बड़ी-बड़ी बातें न करें, अपने ही गली-मुहल्ले की छोटी-छोटी बातें देखें। दैनिक भास्कर ने, शासकीय कर्मचारियों के, देर से कार्यालय पहुँचने और कामकाजी समय पर कार्यालयों से कर्मचारियों की अनुपस्थिति को लेकर एक समाचार कथा प्रकाशित की। खाली टेबलों-कुर्सियों के चित्र छापे। कलेक्टर को भी इसी से मालूम हुआ कि उनके अधीनस्थ ‘कामचोरी’ कर रहे हैं। उन्होंने कार्रवाई करने की घोषणा की रस्म अदायगी कर दी। हर कोई जानता है कि होना-जाना कुछ नहीं है। ‘फिर वही रतार बेढंगी’ वाली स्थिति अगले ही दिन लौट आएगी, इस पर सबको भरोसा था। वही हुआ भी।

‘मुम्बई-आक्रमण’ से ‘प्रभावित’ होकर कर्मचारियों के संगठनों ने कलेक्टोरेट में एक आयोजन किया था जिसमें अधिकांश कर्मचारियों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया था। शहीदों को भाव-भीनी श्रध्दांजलि दी थी और राष्‍ट्र के प्रति समर्पण की शपथ ली थी। वह शपथ ‘दो कौड़ी’ की साबित कर दी गई। समय पर कार्यालय पहुँचना और कार्यालय पहुँच कर अपनी कुर्सी पर बने रहकर काम करना शायद राष्‍ट्र-सेवा नहीं, कुछ और होता होगा!

इन्दौर यातायात पुलिस ने इन दिनों अपना पूरा अमला नगर के चार-पाँच क्षेत्रों में तैनात कर रखा है। इन क्षेत्रो को ‘इन्फोर्समेण्ट झोन’ घोषित कर, वहाँ लोगों का यातायात के साधारण नियमों का ज्ञान कराया जा रहा है और उनका पालन करवाया जा रहा है। लोग इससे असुविधा अनुभव कर रहे हैं। वे पुलिसकर्मियों के सामने ही नियमों का उल्लंघन कर रहे हैं। ताजा खबर है कि इस ‘पुलिसिया अत्याचार’ से बचने के लिए लोगों ने मुख्य सड़कों पर चलना बन्द कर दिया है और अब वे गलियों में होकर अपने गन्तव्य पर पहुँच रहे हैं। यातायात नियमों का ईमानदारी से पालन करना भी राष्‍ट्र-प्रेम नहीं होता!

विधिक विवादों के चलते, आजाद चौक उपेक्षा और अव्यवस्था का शिकार बना हुआ है। वहाँ अशोक स्तम्भ भी स्थापित है। अखबारों में खबर है कि ‘आजाद क्लब’ ने नगर निगम से माँग की है कि वहाँ व्यापक पैमाने पर सफाई और समुचित प्रकाश व्यवस्था करवा कर मंच और माइक की वैकल्पिक व्यवस्था की जाए (ताकि ‘आजाद क्लब’ वहाँ ‘गणतन्त्र दिवस समारोह’ सम्पन्न करा सके)। ‘अपना काम’ कराने के लिए हम हजारों रुपयों की रिश्‍वत दे देंगे, मांगलिक प्रसंगों के आयोजनों पर मूर्खतापूर्ण और अनावश्‍यक मदों पर हजारों रुपये खर्च कर देंगे, नेता के प्रति निष्‍ठा प्रदर्शित करने के लिए हजार-हजार पटाखों वाली बीसियों लड़ियाँ ‘छोड़’ देंगे। किन्तु गणतन्त्र दिवस जैसे ‘राष्‍ट्रीय त्यौहार’ पर अपनी ही झाँकी जमाने के लिए हम नगर निगम से व्यवस्थाओं की माँग करेंगे। हम देश के लिए खून देने की बातें तो करते हैं लेकिन हमारा आचरण बार-बार (और अत्यधिक निर्लज्जता से) साबित करता है कि हमारे खून में देश तो कहीं है ही नहीं!


ऐसे में, अपनी उनसठवीं वर्ष गाँठ के इन क्षणों में हमारा (साठवाँ) गणतन्त्र दिवस हमारे सामने आत्म-परीक्षण की कसौटी बन कर खड़ा है। निस्सन्देह हम समारोह करें, उत्सव मनाएँ किन्तु अपने आप से सवाल करने का साहस भी करें। मुमकिन है, हमारा जवाब हमें ही शर्मिन्दा करने वाला हो। लेकिन ‘जवाब’ और ‘जवाबदेही’ से बचते रहकर हम और सब कुछ हो सकते हैं, बस! राष्‍ट्र-भक्त नहीं होंगे। आजादी केवल अधिकार नहीं होती। अधिकार से पहले वह जवाबदारी होती है। अधिकार और जवाबदारी-आजादी के सिक्के के दो पहलू हैं। एक भी पहलू की अनुपस्थिति में सिक्का अपना मूल्य खो देता है। बात कड़वी है किन्तु क्या किया जाए-सच है कि हम अपनी आजादी को खोटे सिक्के में बदलने का राष्‍ट्रीय-अपराध (इसे राष्‍ट्र-द्रोह क्यों न कहा जाए?) कर रहे हैं।

देश प्रेम का अर्थ केवल, युध्द काल में सीमाओं पर प्राण दे देना नहीं होता। किसी भी कौम के राष्‍ट्र-प्रेम या कि देश-भक्ति की असली परीक्षा तो सदैव शान्ति काल में ही होती है। शान्ति काल में यदि हम अनुशासनहीन हैं, अपने ही देश के कानूनों का निर्लज्ज उल्लंघन कर रहे हैं, व्यवस्थाओं को भंग कर रहे हैं तो किसी को कितना ही बुरा क्यों न लगे, इसका एक ही मतलब है कि हम अपने देश से गद्दारी कर रहे हैं और गद्दारी के सिवाय और कुछ भी नहीं कर रहे हैं।


मेरी बातों की खिल्ली उड़ाई जा सकती है और हँस कर खारिज किया जा सकता है किन्तु यह सच है कि जिन छोटी-छोटी बातों को हम महत्वहीन मानते हैं वे ही बड़े मायने रखती हैं। मेरे हिसाब से तो यातायात के नियमों का पालन करना भी देश के प्रति वफादारी निभाना है।


सो, इस पावन प्रसंग पर यदि हम सचमुच में कुछ करना चाहते हैं तो बस इतना ही करें कि खुद से ईमानदारी बरतते हुए खुद से वादा करें कि हम अपने आचरण में देश को उतारेंगे और ऐसा करते हुए लोग हम पर कितना ही हँसे, हम अपने वादे से मुकरेंगे बिलकुल ही नहीं। वादा केवल वादा होता है, छोटा या बड़ा नहीं होता। कम से कम एक वादा हम खुद से करें और उसे पूरी ईमानदारी से इस तरह निभाएँ कि खुद से शर्मिन्दा न होना पड़े।

अपने प्रिय कवि-मित्र विजय वाते का एक शेर एक बार फिर प्रस्तुत कर रहा हूं जो हमारी असलियत (या कि बेशर्मी) को बड़ी ही बेबाकी से उघाड़ता है -

चाहते हैं सब के बदले ये अंधेरों का निजाम

पर हमारे घर किसी बागी की पैदाइश न हो

लेकिन अब तो पानी सर से ऊपर बह रहा है। अपने घर में बागी पैदा करने जितना वक्त भी नहीं है। अब तो खुद बागी बन जाने का वक्त आ गया है-फौरन।

आईए। अपने वतन के लिए बागी बन जाएँ।

(मेरी यह पोस्‍ट, रतलाम से प्रकाशित हो रहे, 'साप्‍ताहिक उपग्रह' के 'गणतन्‍त्र दिवस विशेषांक' के लिए लिखी गई है जो कल प्रकाशित होगा। इसे यहां देने का लोभ संवरण नहीं कर पाया।)
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लड़कियाँ अच्छी लगती हैं मुझे

पता नहीं, पण्डित जसराज ने, किस सन्दर्भ और प्रसंग में ‘मुझे लड़कियाँ अच्छी लगती हैं’ कहा होगा। किन्तु वे विवादास्पद तो हो ही गए। मेरा इरादा विवादास्पद होने का बिलकुल ही नहीं है फिर भी स्वीकार करता हूँ - हाँ, मुझे लड़कियाँ अच्छी लगती हैं। मैं लड़कियों को सतत् देखते रहना चाहता हूँ। चाहता हूँ कि अपने अन्तिम क्षण तक उन्हें, आँखों से पीता रहूँ। वे एक क्षण भी मेरी आँखों से ओझल न हों।


हम दोनों भाइयों को दो-दो बेटे हैं। बेटी एक भी नहीं। पिताजी को हम दोनों भाइयों ने पता नहीं कोई सुख दिया या नहीं किन्तु एक दुख से हम उन्हें आजीवन मुक्त नहीं कर पाए-‘पोती का दादा न बनने का दुख।’ जब भी कोई प्रसंग आता, वे गहरी निःश्‍वास छोड़ते हुए, हम दोनों भाइयों को दयनीय दृष्‍िट से देखते हुए कहते-‘अवश्‍य ही तुम दोनों ने ईश्‍वर के प्रति कोई अक्षम्य अपराध किया होगा, इसीलिए भगवान ने तुम दोनों को बेटी नहीं दी। तुम अभागे हो।’
वे जन्मना अपंग थे फिर भी यथासम्भव अधिकाधिक कर्मकाण्डी और रूढ़ी-प्रिय थे। किन्तु हमारे यहाँ बेटी न जन्मने को लेकर उन्होंने कभी भी कोई रूढ़ीवादी अथवा पारम्परिक उलाहना नहीं दिया। न ही कभी ‘जिन कन्या-धन को दान कियो, तिन और को दान कियो न कियो’ कह कर हमें धिक्कारा। उन्होंने ‘बेटी के होने’ को सदैव ही व्यक्ति के सामाजिक आचरण और बोलचाल (अर्थात् भाषा) के संस्कारों से जोड़ा।

उनकी कही बातें मुझे पल-पल याद आती हैं। घर में एक बेटी हो तो पूरे परिवार की भाषा शालीन और सुघड़ हो जाती है। आदमी, पर-पीड़ा तनिक अधिक सम्वेदनशीलता से अनुभव कर सकता है। उसके मुँहफट (साफ-साफ कहूँ कि ‘अशिष्‍ट’) होने की आशंका कम रहती है। महिलाओं के प्रति उसके दृष्‍िटकोण, सोच और व्यवहार में अनायास ही सम्मान-भाव आता ही है।

पिताजी की प्रत्येक बात मुझे खुद पर खरी होती अनुभव होती है। मुझे बेटी होती तो मैं सम्भवतः इतना शुष्‍क, इतना अव्यावहारिक, सामनेवाले की भावनाओं की चिन्ता किए बगैर ‘पत्थर-मार’ (जिसे हम मालवी में ‘भाटा-फेंक’ कहते हैं) बोलनेवाला न होता। मुझे दूसरों के कष्‍टों का तनिक अधिक अनुमान होता।

जब हमारा छोटा बेटा तथागत गर्भस्थ था तब हम पति-पत्नी ने कौन-कौन सी मनौतियाँ नहीं लीं? खूब देवी-देवता याद किए। मन्दिर-देवल पर माथा टेका। किन्तु सचमुच में मेरा अपराध ऐसा गम्भीर रहा होगा और कि ‘करुणा सागर’ भी नहीं द्रवित नहीं हुए और मैं ‘बेटी का बाप’ नहीं बन सका।

पत्नी के दोनों प्रसव चूँकि ‘सीजेरियन’ हुए थे, डाक्टरों ने ‘दो-टूक’ चेतावनी दे दी थी-‘तीसरा प्रसव आपकी पत्नी के लिए प्राणलेवा होगा।’ अन्यथा, ‘जनसंख्या नियन्त्रण’ में अटूट आस्था रखने के बाद भी मैं ‘बेटी की आस’ में तीसरी सन्तान अवश्‍य चाहता।
बड़े बेटे का विवाह हुआ तो हमने बहू में बेटी को देखना चाहा। किन्तु लगभग एक वर्ष पूरा होने वाला है, हमारी चाहत पूरी होती नहीं दीख रही।

एक चुटकुला मेरी सहायता करेगा। पति-पत्नी मन्दिर गए। दोनों ने मौन प्रार्थना की। लौटते में पति ने पत्नी से पूछा-‘मैं ने तो भगवान से धन-दौलत माँगी। तुमने क्या माँगा?’ पत्नी ने कहा-‘सद्बुद्धि।’ पति ने सरोष पूछा-‘क्यों, धन क्यों नहीं माँगा?’ पत्नी ने कहा-‘जिसके पास जो नहीं होता, भगवान से वही माँगता है।’

मेरी भी यही दशा है। मेरे घर में कोई ‘लड़की’ नहीं है। इसीलिए मैं लड़कियाँ देखता रहता हूँ। उन्हें अपनी आँखों से पी लेना चाहता हूँ। लड़कियाँ : गोद में, पालने में किलकारियाँ मारती लड़कियाँ, आँगन में फुदकतीं, छोटे भाइयों के मुकाबले उपेक्षित/प्रताड़ित होती, पैदल, सायकिल, रिक्‍शे में स्कूल जाती लड़कियाँ, किताबें छाती से चिपटाए, झुकी-झुकी नजरों को चपलता से घुमाते-फिराते अपने आस-पास के खतरों को भाँपती लड़कियाँ, सारी दुनिया की वर्जनाओं को ठेंगा दिखाकर, बेलौस, आकाश-फाड़ हँसी हँसती लड़कियाँ। बस, लड़कियाँ ही लड़कियाँ।

मेरी अपनी कोई लड़की नहीं है सो मैं लड़कियों से सम्पर्क बनाने का कोई मौका नहीं छोड़ता। किन्तु उनसे सम्पर्क बनाए रखते हुए लगातार डरता भी रहता हूँ कि कहीं नाराज होकर वह मुझसे सम्पर्क न तोड़ ले।

मैं भूल जाना चाहता हूँ कि मेरे घर में कोई लड़की नहीं है। मैं अपने घर के इस (कभी न भरे जाने वाले) अधूरेपन को बार-बार भूल जाना चाहता हूँ। इस तरह कि फिर कभी याद न आए। लेकिन बार-बार भूलने की कोशिश ही प्रमाण है कि मैं यह बात अब तक, एक बार भी भूल नहीं पाया हूँ।

आज तो मेरे पास भूलने का कोई बहाना भी नहीं रहा। अखबारों के पन्ने आज -‘राष्‍ट्रीय बालिका दिवस’ के नाम पर लड़कियों पर केन्द्रित विज्ञापनों और समाचारों से अटे पड़े हैं।
जो लड़की ‘न होकर’ भी मेरी आत्मा पर चैबीसों घण्टे ‘हुई होकर’ बनी रहती है उसी लड़की को मैं रोज की तरह आज भी दिन भर देखने की कोशिश करता रहूँगा : आती-जाती लड़कियो को देखते रह कर, निर्निमेष और अपलक नेत्रों से।

मेरे घर में, अखबारों में छपी लड़की है। लेकिन कागजी लड़की की अपनी सीमाएँ हैं। मुझे ऐसी लड़की चाहिए जो मेरे कान उमेठे, जिद करे, रूठ कर खाना खाने से इंकार करे और मैं उसे मनाऊँ, जिसे बड़ा होते देख कर मेरी नींद हराम हो जाए, जिसकी शादी की चिन्ता मुझे दुबला बना दे, जिसकी खिन्नता मुझे डराती रहे, जिसमें मैं अपनी माँ प्राप्त कर सकूँ ।

इसीलिए, मुझे लड़कियाँ अच्छी लगती हैं। मैं लड़कियों को अतृप्त नजरों से लगातार देखते रहना चाहता हूँ। तब तक, जब तक कि मेरे प्राण न निकल जाएँ।
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दुनिया की सबसे सुरक्षित जगह


रतलाम से इन्दौर रेल-यात्रा के दौरान मुझे यह चित्र मिला था, कोई तीन माह पहले। तबसे लेकर अब तक इस चित्र को कई बार देखा। बार-बार देखा और हर बार यह चित्र मुझे अनूठा तथा और अधिक सुन्दर लगा।


नहीं, इसमें न तो फोटोग्राफिक-ब्यूटी है और न ही पिक्टोरियल ब्यूटी। और जहाँ तक मेरा सवाल है, मुझमें तो फोटो लेने का ढंग भी नहीं है। माँ की गोद में निश्‍िचन्तता से सो रहा बच्चा-यही इस चित्र की सुन्दरता मुझे लगी।


रतलाम-इन्दौर रेल खण्ड के एक भाग में रेल खूब उछलती है। यात्री ऊँचे-नीचे होने लगते हैं, दचके लगते हैं। बैठे यात्री असहज हो जाते हैं और साये हुओं की निन्द्रा भंग हो जाती है। तब भी ये बच्चे गहरी नींद में ही थे।


दुनिया की सबसे सुरक्षित जगह, माँ की गोद ही तो होती है! मनुष्‍य किलकारी मारे या क्रन्दन करे-उसके स्वरों में 'माँ' ही होती है। मनुष्‍य के जन्म से लेकर मृत्यु तक की यात्रा अन्ततः 'माँ से माँ तक की यात्रा' ही होती है।


माँ : कहने, देखने, सुनने को मात्र एक शब्द। वह भी मात्र एक अक्षर का। किन्तु जिसमें सारी दुनिया समा जाए और जगह फिर भी बची रहे। इतनी कि कई-कई सृष्‍िटयाँ समा जाए।


माँ : कितना कुछ लिखा गया माँ पर? किन्तु सबका सब अधूरा और अपर्याप्त!


माँ : जिसके लिए कहा गया कि ईश्‍वर तो सबके साथ हो नहीं सकता इसलिए ईश्‍वर ने माँ बना दी।


माँ : जो कभी नहीं मरती। हमारी धमनियों में अनवरत बहती रहती है। रक्त में बनकर।


माँ : जिसे भले ही ईश्‍वर ने बनाया किन्तु जिसकी आवश्‍यकता खुद ईश्‍वर को रहती है।


बस! इस ‘माँ’ और ‘माँ की गोद’ के कारण ही मुझे यह चित्र सुन्दर लगा।


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बीमा एजेण्ट की आचरण संहिता

बीमा एजेण्टों को तो सब कोई जानते हैं किन्तु बीमा एजेण्टों के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। और उनके काम-काज के बारे में? शायद और भी बहुत कम लोग जानते होंगे। इसका बड़ा कारण सम्भवतः यही है कि बीमा एजेण्ट जब भी मिलता है तो वह या तो अपनी बात कहता है या फिर आपसे, आपके बारे में पूछताछ करता है। बीमा एजेण्ट की सामान्य छवि ‘माथा खाऊ’ या फिर ‘चिपकू‘ की बनी हुई है।


आज आप जानिए कि आप भी बीमा एजेण्ट से काफी कुछ पूछ सकते हैं। इस ‘पूछ-ताछ’ का अधिकार आपको दिया है - बीमा विनियामक एवम् विकास प्राधिकरण ने जिसे 'आईआरडीए' के नाम से जाना-पहचाना जाने लगा है। किन्तु पूछताछ का यह अधिकार इस तरह दिया गया है कि जनसामान्य को इसकी जानकारी नहीं हो पाई है। यह अधिकार, एजेण्टों के लिए निर्धारित की गई, सत्रह सूत्री आचरण संहिता के अन्तर्गत दिया गया है। चूँकि यह आचरण संहिता केवल एजेण्टों के तक ही सीमित ही है, सो इसकी जानकारी जन सामान्य को न तो हुई है और न ही हो सकेगी।


आपकी जानकारी के लिए मैं इसे प्रस्तुत कर रहा हूँ।


1- सम्भावित ग्राहक को अपनी कम्पनी का परिचय देना।


2-सम्भावित ग्राहक के माँगने पर, अपना लायसेन्स दिखाना।


3-अपनी कम्पनी की बीमा योजनाओं की विस्तृत और पूरी जानकारी देना।


4-सम्भावित ग्राहक की आवश्‍यकताओं को जानकर, उन्हें अनुभव कर, तदनुरूप उचित बीमा योजना बताना। (अर्थात् अपने कमीशन की कम और ग्राहक की चिन्‍ता ज्‍यादा करना तथा सबसे पहले करना।)


5-सम्भावित ग्राहक के पूछने पर उसे (एजेण्ट को) मिलने वाले कमीशन की दरें बताना।


6-प्रस्ताव-पत्र में माँगी गई जानकारियों की प्रकृति एवम् महत्व बताना।


7-सम्भावित ग्राहक को समझाना कि वह (सम्भावित ग्राहक) कोई जानकारी छिपाए नहीं।


8-'सम्भावित ग्राहक' के 'बीमा ग्राहक' बन जाने की दशा में, बीमा ग्राहक के बारे में, सभी प्रकार की जाँच पड़ताल करना। अर्थात्-बीमा ग्राहक ने जो सूचनाएँ दी हैं, उनकी वास्तविकता जानने की कोशिश करना।


9- बीमा ग्राहक को उन महत्वपूर्ण तथ्यों (जिनमें बीमा ग्राहक की आदतें भी शामिल हैं) की जानकारी देना जिनका प्रतिकूल प्रभाव, बीमांकन सम्बन्धी निर्णय पर हो सकता है।

10-बीमा ग्राहक के बीमा प्रस्ताव के निपटान (स्वीकृत/अस्वीकृत होने) की सूचना बीमा ग्राहक को देना।


11-बीमा कम्पनी यदि अनुभव करे कि कुछ आवश्‍यकताओं का पालन करने के लिए, किसी एजेण्ट को पालिसीधारकों/दावाकर्ताओं की यथोचित सहायता करनी चाहिए तो बीमा कम्पनी के कहने पर ऐसी सहायता करना। अर्थात्, बीमा कम्पनी के कहने पर, उन पालिसीधारकों/दावाकर्ताओं की भी सहायता करना जिनका बीमा उसने नहीं किया है।


12-बीमा ग्राहक से आग्रह करना कि बीमा प्रस्ताव में नामांकन अवश्‍य कराए।


13-यथा सम्भव प्रयास करते हुए सुनिश्‍िचत करना कि (उसके द्वारा बेची गई पालिसियों के) पालिसीधारकों ने, देय प्रीमीयम, निर्धारित समयावधि में जमा करा दी है। इस हेतु अपने पालिसीधारकों को लिखित/मौखिक सूचना देना। {सामान्य अनुभव है कि पालिसी बेचने के बाद बीमा एजेण्ट पलट कर नहीं देखता। जबकि मेरा मानना है (और जैसा कि मैं अपने सम्भावित बीमा ग्राहकों को कहता भी हूँ) कि पालिसी बेचने के अगले ही क्षण से बीमा एजेण्ट का वास्तविक काम शुरू होता है। मेरा सुनिश्‍िचत मत है कि जिस समयावधि की पालिसी बेची गई है, उस समयावधि तक के लिए बीमा ऐजण्ट का सम्बन्ध, अपने बीमाधारक से शुरू होता है।}


14-गलत जानकारी देने के लिए सम्भावित बीमा ग्राहक को प्रोत्साहित नहीं करना।


15-दूसरे बीमा एजेण्टों द्वारा लाए गए बीमा प्रस्तावों में हस्तक्षेप नहीं करना।


16-पालिसीधारकों को बीमा कम्पनी से मिलने वाले भुगतान/लाभांश में न तो हिस्सा माँगना और न ही (पालिसीधारक द्वारा स्वैच्छिक रूप से दिए जाने पर भी) स्वीकार करना।


17-सम्भावित बीमा ग्राहक से नया बीमा प्राप्त करने के लिए (सम्भावित बीमा ग्राहक की) कोई चालू पालिसी बन्द/निरस्त नहीं कराना।


यहाँ मैं ने, आईआरडीए द्वारा प्रसारित आचरण संहिता को शब्दश: प्रस्तुत करने के स्थान पर उसे सामान्य भाषा में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। मूल भाषा/शब्दावली मुझे तनिक क्लिष्‍ट अनुभव हुई सो मैं ने अपने स्तर पर यह कोशश की है। अतः, यहाँ प्रस्तुत बातें, आईआरडीए द्वारा प्रसारित आचरण संहिता का सरलीकृत रूप है, आधिकारिक रूप नहीं।


अब जरा याद कीजिए कि आपसे किसी बीमा एजेण्ट ने जब मुलाकात की थी तब उसने, इस आचरण संहिता के किसी निर्देश का उल्लंघन तो नहीं किया था?


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हाय! रे चुनाव, हाय! रे वोट


मेरा कस्बा यूँ तो जिला मुख्यालय है किन्तु लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र के हिसाब से, झाबुआ संसदीय क्षेत्र का हिस्सा है। नए परिसीमन के बाद अब इसका नाम ‘झाबुआ संसदीय क्षेत्र’ से बदल कर ‘रतलाम संसदीय क्षेत्र’ अवश्‍य हो गया है किन्तु इसकी संचरचना यथावत् है। अर्थात्, पूरा झाबुआ जिला और रतलाम जिले के तीन विधान सभा क्षेत्र (रतलाम नगर, रतलाम ग्रामीण और सैलाना)। अन्तर केवल यह हुआ है कि नामांकन प्रस्तुत करने, नामांकनों की जाँच जैसे जो काम पहले झाबुआ जिला मुख्यालय पर हुआ करते थे, वे सब अब रतलाम जिला मुख्यालय पर होंगे। स्पष्‍ट है कि इस सबमें केवल अधिकारियों की सुख-सुविधा की चिन्ता के अतिरिक्त और कोई कारण नहीं है।


कान्तिलाल भूरिया, लोकसभा में हमारे प्रतिनिधि हैं। वे केन्द्रीय मन्त्रि-मण्डल में कृषि राज्य मन्त्री भी हैं। लोकसभा के अगले चुनावों में उनकी उम्मीदवारी सौ टका पक्की है।


अभी-अभी हुए विधान सभा चुनावों में रतलाम नगर विधान सभा क्षेत्र में कांग्रेस की जमानत जप्त हो गई। हर कोई कहता मिल रहा है कि कान्तिलाल भूरिया ने अपने प्रिय पात्र को उम्मीदवारी दिलवाई थी किन्तु उसे जितवाना तो दूर रहा, उसकी जमानत बचाने में भी वे सफल नहीं रह पाए।


विधान सभा चुनावों में कांग्रेसियों द्वारा कांग्रेस को हराने की बात चैड़े-धाले जाहिर हुई। कांग्रेस को इस मुकाम पर लाने वालों को कान्तिलाल भूरिया और उनका प्रिय पात्र ही नहीं, सारा शहर भली प्रकार जानता है। एक ‘संगठन’ के नाते होना तो यह चाहिए था कि भीतरघात करनेवालों पर तत्काल कड़ी कार्रवाई होती। किन्तु लोकसभा चुनावों के मद्देनजर ऐसा करना अत्यन्त घातक होता।


सो, अभी-अभी (दो दिन पूर्व) कान्तिलाल भूरिया ने रतलाम में कांग्रेस कार्यकर्ताओं की बैठक में और बाद में पत्रकार वार्ता में घोषणा की कि लोकसभा चुनावों में जिस वार्ड में कांग्रेस हारेगी वहाँ के वार्ड पार्षद को, नगर निगम के चुनावों में कांग्रेस का उम्मीदवार नहीं बनाया जाएगा। यह विचार करने की आवश्‍यकता बिलकुल ही नहीं है कि भूरिया की यह घोषणा, घोषणा नहीं, चेतावनी है या फिर राजनीतिक ब्लेक मेलिंग है। यदि इनमें से कुछ नहीं है तो फिर यह या तो लालच है या फिर याचना।


हमारे राजनेताओं का असली चेहरा यही है। यदि संगठन की चिन्ता होती तो भूरिया को चाहिए था कि विधान सभा चुनावों में कांग्रेस की दुर्गत करनेवालों को आज ही सबक सिखा देते। किन्तु ऐसा करने के लिए राजनीतिक साहस चाहिए जो आज हमारे राजनेताओं में विलुप्त होता जा रहा है।


मजे की बात यह है कि जब पत्रकारों ने, विधान सभा चुनावों में भीतरघात करनेवाले कांग्रेसियों पर की जाने वाली कार्रवाई की बाबत पूछा तो भूरिया ने कहा कि मामला हाईकमान के सामने लम्बित है। किन्तु यही भूरिया, अपनी जीत सुनिश्‍िचत करने के लिए अभी से चेतावनी (जिसे जैसा कि ऊपर कहा गया है, धमकी, लालच या फिर याचना) का सहारा ले रहे हैं। कार्रवाई न करने के लिए एक ओर हाईकमान के नाम का बहाना और दूसरी ओर सुनिश्‍िचत कार्रवाई करने की पूर्व घोषणा।


भूरिया अकेले नहीं जो ऐसा कर रहे हैं। वे तो ऐसा करने वालों की भीड़ के सामान्य प्रतिनिधि मात्र हैं।


हाय! रे चुनाव, हाय! रे वोट।
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बोलने की कीमत


इस चित्र में सबसे बांये है राकेश, मध्‍य में अविनाश और सबसे दाहिने है अशोक सिंह। प्रदेश के मूलत: भिण्ड निवासी, अशोक सिंह, स्‍टेट बैंक आफ इन्‍दौर में परिवीक्षाधीन अधिकारी के पद पर कार्यरत है। अविवाहित है (अभी-अभी सगाई हुई है) और घर से सैंकड़ो किलोमीटर दूर, ‘परदेस’ में नौकरी कर रहा है।


अशोक के बीमा प्रस्ताव के लिए लिपिडोग्राम परीक्षण कराना था। एजेण्ट की जिम्मेदारी होती है कि प्रस्तावक को साथ ले जाए, उसकी पहचान की पुष्टि करे। हम दोनों सवेरे-सवेरे ही पैथालाजी लेब गए। कर्मचारी ने अशोक के रक्त का नमूना लिया। परीक्षण शुल्क का भुगतान अग्रिम करना था। कर्मचारी को पाँच सौ रुपयों का नोट दिया। हम सम्भवतः पहले ही ग्राहक थे। उसके पास छुट्टे नहीं थे। सो वह लेब-स्वामी के पास गया। उसकी वापसी तक हम दोनों फुर्सत में थे। हम दोनों की नजर, लेब के पारदर्शी दरवाजे पर चिपके उस पोस्टर पर गई जिसका चित्र यहाँ दिया गया है।



हमने चारों ‘सुभाषित’ परामर्शों पर मन्थन शुरु कर दिया और जल्दी ही इन निष्‍‍कर्षों पर पहुँच गए - ‘न बोलना तो असम्भव प्रायः है ही, कम बोलना भी कम कठिन नहीं।’ और ‘आदमी को बोलने की कीमत चुकानी पड़ती है।’ छुट्टे लेकर कर्मचारी लौटा। अपनी बकाया रकम लेकर हम लोग लौट आए।



अशोक का निवास रास्ते में ही था। मैंने अपनी मोटर सायकिल धीमी की। अशोक ने उतरने की तैयारी करते हुए कहा-‘सर! आधा-आधा कप चाय हो जाए।’ सुनकर, इससे पहले कि अशोक उतर पाता, मैंने तत्क्षण ही गाड़ी बढ़ा ली। मैंने विचार किया कि अकेला आदमी कहाँ चाय बनाने का खटकरम करेगा? मैं भले ही बैरागी हूँ किन्तु हूँ तो 'बाल-बच्चेदार, गृहस्थ बैरागी'! पत्नी फटाफट चाय बना देगी। अशोक व्यर्थ के परिश्रम से बच जाएगा और चाय भी मिल जाएगी।



जैसे ही मैंने गाड़ी बढ़ाई, अशोक ने कहा-‘अरे! सर। माँ ने खाना बना लिया होगा। अभी चाय पी लूँगा तो खाना खराब हो जाएगा।’ मैं तो अशोक को रतलाम में ‘फक्कड़’ ही मान रहा था। लेकिन मालूम हुआ कि उसकी माँ साथ ही है। किन्तु माँ के साथ होने की सूचना से अधिक मुझे अशोक के तर्क पर अचरज हुआ।



मैंने गाड़ी धीमी कर पूछा - ‘यह क्या बात हुई? यदि तुम्हारे घर चाय पीते तो तुम्हारा खाना खराब नहीं होता। और तुम्हारी चिन्ता कर मैं तुम्हारे लिए मेरे घर चाय बनवाऊँगा तो (चाय पीने से) तुम्हारा खाना खराब हो जाएगा?’



अशोक कोई जवाब देता उससे पहले ही मेरा घर आ गया। हम दोनों उतरे। अशोक का एक परम मित्र अविनाश मेरे ही मकान मे रह रहा है। वह भी उसी बैक में परीविक्षाधीन अधिकारी है और पटना से हजारों किलोमीटर दूर, अशोक की ही तरह ‘परदेस’ में नौकरी कर रहा है। मैंने अशोक से कहा कि अविनाश को भी बुला लाए। तीनों साथ-साथ चाय पीएँगे।



मैंने मेरी श्रीमतीजी को चाय बनाने को कहा। वे दोनों आए और हमारी बातें शुरु हो गईं। बात फिर ‘न बालने’ और ‘कम बोलने’ पर आ गई। मैंने एक लोक कथा सुनाई जिसमें, एक चेला अपने गुरु की अनुपस्थिति में एक राजा को (राजा पर अपना प्रभाव जताने की नीयत से) ‘पुत्रवान भवः’ का आशीर्वाद दे देता है, यह जानते हुए भी कि राजा को पुत्र योग नहीं है। लौटने पर गुरु को चेले की करनी मालूम होती है तो वे कहते हैं कि अपना आशीर्वाद फलित करने के लिए चेले को प्राण त्याग कर राजा के यहाँ जन्म लेना पड़ेगा। अर्थात् चेले को बोलने की कीमत चुकानी पड़ेगी। इस कथा में, बोलने के कारण एक हिरण को अपनी जान से हाथ धोने पड़ते हैं और बोलने के कारण ही राजा के महामन्त्री की जान पर बन आती है।
लोक कथा सुन कर अशोक और अविनाश खूब हँसे। कहानी कहने-सुनने में हमारी चाय हो चुकी थी। दोनों को नौकरी पर जाना था और मुझे भी अपने काम-धन्धे से लगना था। सो मैंने दोनों को विदा किया।



चाय के लिए धन्यवाद देकर, विदा-नमस्कार करते हुए अशोक ने सस्मित कहा-‘सर! कहाँ तो मैं चाहता था कि आप मेरे निवास पर चाय पीएँ। लेकिन मैंने खाना खराब होने की बात बोली तो मुझे आपके यहाँ चाय पीनी पड़ी। आपका मेजबान बनने के बजाय मैं आपका मेहमान बन गया। आपके साथ चाय तो पी ली किन्तु मेरी भावना धरी रह गई और मेरी भूमिका बदल गई। वाकई में बोलने की कीमत चुकानी पड़ती है।’



अशोक ने अत्यन्त प्रभावशीलता से सन्दर्भ को जोड़ते हुए जिस परिहासपूर्ण शैली में यह सब कहा उससे हम तीनों ही, दरवाजे पर खड़े रह कर देर तक हँसते रहे।



हम सब, एक लोक कथा को साकार होने के साक्षी बन गए थे।
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आगत की आहट

दो दिनों से मैं हतप्रभ और चकित हूँ। हम हमारी राजनीति को किस दिशा में ले जा रहे हैं और कहाँ पहुँचाना चाहते हैं?

संजय दत्त को चुनाव लड़ाने की घोषणा न केवल सहजता से अपितु अतिरिक्त आत्म विश्‍वास से ऐसे गर्वपूर्वक की जा रही है मानो दे”ा पर ‘महत् उपकार’ किया जा रहा हो। और संजय के चुनाव न लड़ने की दशा में नम्रता को चुनाव लड़ाने का भरोसा ऐसे दिया जा रहा है मानो किसी बड़ी-गम्भीर हानि से बचा लिए जाने की सूचना दी जा रही हो।

उधर अम्बानी और मित्तल परामर्श दे रहे हैं-मोदी को प्रधान मन्त्री बनाया जाए। मोदी को प्रधान मन्त्री बनाए जाने पर किसी को ऐतराज नहीं हो सकता किन्तु परामर्श देने वालों के दुस्साहस भरे आत्म-विश्‍वास पर आक्रोश आता है।

हमने लोकतान्त्रिक संसदीय शासन पध्दति स्वीकार की हुई है। नाम से ही स्पष्‍ट है कि हमारी शासन पध्दति 'लोक आधारित, लोक केन्द्रित और लोक लक्ष्यित' है। इसका क्रमिक सत्य यही है कि हमारे राजनेताओं (शासकों) को ‘लोक’ की रग-रग की जानकारी होनी चाहिए। इसीलिए हमारी अलिखित परम्परा रही है कि निर्वाचित जन-प्रतिनिधि ही हमारा प्रधान मन्त्री हो। इस परम्परा का खण्डन मनमोहनसिंह के प्रधान मन्त्री बनने से प्रारम्भ हुआ अवयय है किन्तु लगता नहीं कि ‘यह खण्डन’ परम्परा बन पाएगा।

संजय दत्त, अम्बानी, मित्तल और इनके जैसे लोग ‘लोक’ का मर्म और महत्व क्या जानें? 'ओस' का नाम सुनकर जिन्हें जुकाम हो जाए, वे लोग शासक बनेंगे तो देश की दुर्दशा भी अकल्पनीय होगी। जिस देश की 34 प्रतिशत जनसंख्या घोषित रूप से गरीबी रेखा के नीचे जी रही हो और 80 प्रतिशत लोग 20 रुपये प्रतिदिन पर गुजारा कर रहे हों वहाँ अम्बानी-मित्तल की सिफारिश पर कुर्सियों पर बैठने वाले और संजय दत्त जैसे, अवास्तविक जीवन जीने वाले लोगों से ‘गरीब के पैर में फटी बिवाई’ की बात करने और सुनने की कल्पना ही बेमानी होगी।

बम्बईया अभिनेताओं की अब तक की राजनीतिक भूमिका सर्वथा निराश करने वाली ही रही है। अमिताभ बच्चन से लेकर गोविन्दा तक का कोई योगदान अनुभव नहीं होता। दक्षिण भारतीय अभिनेताओं के सामने ये अभिनेता ‘पिद्दी और पिद्दी का शोरबा’ भी नहीं हैं। एन.टी.रामाराव से उनके एक प्रशंसंक ने पूछा था कि उनके अभिनय से उसे (प्रशंसक) क्या हासिल है? उत्तर में एनटीआर ने तेलुगुदेशम बना कर सफल राजनीतिक पारी खेली। मुम्बईया अभिनेताओं के पास इस बात को कोई जवाब नहीं है कि वे राजनीति में किस उद्देश्‍य से आए हैं।

पहले ‘गरीबी हटाओ’ का नारा लगा था जो ‘गरीब हटाओ’ में बदलता अनुभव होने लगा था। अब तो लग रहा है कि ‘गरीब को मारो‘ वाली दिशा में हमारी राजनीति अग्रसर हो रही है।
संजय गाँधी के जमाने में कांग्रेस में ‘छाताधारी उम्मीदवार’ (कमलनाथ इस ‘हरावल दस्ते’ के सबसे पहले और सबसे आगे वाले ‘सिपाही’ थे) उतरने की शुरुआत आज ‘समाजवादी पार्टी’ पर अमरसिंह जैसे दलाल के कब्जे तक पहुँच गई है।

आसार अच्छे नहीं हैं।

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चिट्ठाकारों की बोध-कथा


कल कोई आधी रात, ज्ञानजी की पोस्ट थोक कट-पेस्टीय लेखन पढ़ी और उस पर टिप्पणी भी की। किन्तु उसके बाद देर रात तकयह पोस्ट मन में बनी रही।

यह पोस्ट और कुछ नहीं, मनुष्‍य मन की नाना-प्रकृतियों का ही दर्शन कराती है। मनुष्‍‍य परिश्रमी भी होता है और आलसी भी। ‘बिड़ला’ भी होता है और ‘बैरागी’ भी। ‘यशानुगामी’ भी होता है और ‘यश-विमुख’ भी।

इस पोस्ट ने मुझे वह कहानी याद दिला दी जो कभी, स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी, (स्वर्गीय) श्रीलहरसिंहजी भाटी ने ‘बतरस’ के चलते एक बार मुझे सुनाई थी। यह कहानी याद आ जाने के बाद ज्ञानजी की पोस्ट का मर्म समझ पड़ा और नींद आ गई।

कहानी आप भी पढ़ें।

एक किसान ईश्‍‍वर से अप्रसन्न हो गया। ईश्‍‍वर चिन्तित हुए। भक्त ने ही पूछ-परख बन्द कर दी तो नास्तिकों की तो दीवाली हो जाएगी! वे किसान के पास पहुँचे और अप्रसन्नता का कारण पूछा। किसान ने कहा कि ईश्‍‍वर उसकी ओर देखता ही नहीं, उसकी चिन्ता बिलकुल ही नहीं करता, मनमानी, अनदेखी और अत्याचार करता है। किसान अपने समूचे परिवार के साथ दिन-रात खेतों में मेहनत करता है और ईश्‍‍वर है कि कभी सूखा लाकर, कभी अतिवृष्‍िट लाकर, कभी अन्धड़ चला कर तो कभी पाला लाकर उसकी फसल नष्‍ट कर देता है और किसान को सपरिवार भूखों मरना पड़ता है। इसलिए वह अब ईश्‍वर को नहीं मानेगा।

ईश्‍‍वर घबरा गए। पूछा कि वे क्या करें जिससे किसान की अप्रसन्नता समाप्त हो जाए। किसान ने कहा कि यदि मौसम के मामले में ईश्‍‍वर वही करे जैसा किसान कहे तो किसान मान सकता है। ईश्‍‍वर ने मान लिया।

किसान ने गेहूँ की फसल बोई। उसने ईश्‍‍वर से कहा-बरसात कर दो। ईश्‍वर ने बरसात कर दी। किसान ने कहा-धूप निकाल दो। ईश्‍‍वर ने कहा मान लिया। किसान ने कहा-तेज हवा मत चलने दो। ईश्‍‍वर ने हवा को नियन्त्रित कर लिया। अर्थात् ईश्‍‍वर ने आँखें मूँद कर किसान का कहा माना।

परिणाम अच्छा दिखाई देने लगा। गेहूँ के पौधे सामान्य से तनिक अधिक ऊँचाई के हो गए, लम्बी-लम्बी हृष्ट-पुष्‍‍ट बालियाँ। किसान फसल को देख-देख कर प्रसन्न हो वर्ष भर की आर्थिक योजनाएँ बनाने लगा।

फसल कटाई का दिन आया। ईश्‍‍वर को धन्यवाद देता हुआ किसान अपने परिजनों और श्रमिकों के साथ खेत में पहुँचा। कटाई शुरु करने से पहले उसने बालियों को सहलाया तो चैंक पड़ा। यह क्या? बालियों में दाने तो थे ही नहीं! किसान पहले तो हैरान हुआ, फिर व्यग्र और अन्ततः क्रोधित-कुपित। उसने आवाज लगा-लगा कर ईश्‍वर को कोसना शुरु कर दिया।

ईश्‍‍वर भाग कर आए और पूछा कि अब क्यों उन्हें कोसा जा रहा है? उन्होंने तो अपनी इच्छाओं को उत्सर्जित कर, किसान की राई-रत्ती बात मानी थी। किसान ने वास्तविकता बताई और शिकायत की कि उसका समूचा परिश्रम एक बार फिर व्यर्थ कर दिया गया।

तब ईश्‍‍वर हँस कर बोले कि फसल को सब चाहिए। गर्मी भी, बरसात भी, धूप भी, छाँव भी, पाला भी, लू भी, तेज हवा के थपेड़े भी और धीमे-धीमे बहती मन्द बयार भी। ईश्‍‍वर ने कहा कि ‘प्राण’ के लिए 'निश्चितता'जितनी आवश्‍यक है उतनी ही आवश्यक 'अनिश्च्तिता' भी है। ‘संघर्ष और प्रयत्न’ जीवन के वे अपरिहार्य अंग हैं जो जीवन को सार्थक बनाते हैं। अनुकूलताएँ और प्रतिकूलताएँ, सुविधाएँ और असुविधाएँ, अभाव और समृध्दि आदि भाव और स्थितियाँ ही जीवन को सार्थकता देती हैं।

ईश्‍‍वर ने कहा - संघर्ष और प्रयत्नों के बिना न तो 'सत्' आता है और न ही ‘स्वत्व’।

मुझे लगता है कि ज्ञानजी ने अपने अन्दाज में यही कथा प्रस्तुत कर दी है। ईश्‍‍वर को अपनी सुविधानुसार चलाने वाले अन्ततः बिना दानों वाली बालियों से लहलहाती फसल के स्वामी होते हैं और संघर्ष तथा प्रयत्न करने वाले अनूप शुक्ल होते हैं।

मुझे तो बस, यही सब याद आया।

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साक्षर, शिक्षित और समझदार

सन् 1981 की जनगणना में मेरे कस्बे रतलाम को मध्य प्रदेश का ‘सर्वाधिक साक्षर नगर’ घोषित किया गया था। इस घोषणा को लोगों ने ‘पुरुस्कार अथवा आभूषण’ मान कर ‘जय घोष’ से आकाश छोटा कर दिया था। सम्बन्धित विभागों के कुछ अधिकारियों ने अघोषित तथा अनौपचारिक समारोह भी कर लिए थे। मेरे कस्बे के पेशेवर वक्‍ता और पत्रकार अभी भी कभी-कभार यह झुनझुना बजा कर खुश हो लेते हैं।


इस सब से आश्‍चर्यचकित हो मैं कस्बे में ‘समझदारी’ खोज रहा था। पग-पग पर अक्रिमण, गन्दगी का साम्राज्य, बैकों से लिए ऋण वापस न लौटाने के प्रकरण, नगर निगम की ‘बकाया कर राशि के आँकडों का पहाड़’, ‘जन’ से पीठ फेर कर बैठे जनप्रतिनिधि और इस पर ‘जन’ का चुप रहना जैसे कारक मुझे असहज कर रहे थे।


साक्षर होने, शिक्षित होने और समझदार होने में कोई अन्तर्सम्बन्ध मुझे न तब दृष्‍िटगोचर हो रहा था न, 28 वर्षों के बाद अब। मन्त्री पद की शपथ ले रही, शपथ पत्र पढ़ पाने में सर्वथा असमर्थ, निरक्षर गोलमा देवी की आवाज ‘मैं गोलमा देवी बोल री हूँ’ ने चेतना पर कब्जा कर रखा है।


ऐसे में, मध्य प्रदेश के एक जिला मुख्यालय स्थित, भारत शासन के एक प्रतिष्‍िठत उपक्रम के कार्यालय के ‘सुविधा स्थल’ पर प्रदर्शित इस निर्देश ने पता नहीं क्यों मुझे आत्मीय सुख दिया।निरक्षरों को साक्षर और साक्षरों को शिक्षित बनाने में भले ही हम कीर्तिमान स्थापित कर लें किन्तु निरक्षरों, साक्षरों और शिक्षितों को समझदार बनाने का भी कोई अभियान चलाया जाना चाहिए?


या, यह सब, मूक बन कर देखते रहने में ही समझदारी है?


‘सबसे भली चुप’ ही समझदारी का स्थायी भाव है?
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‘खोजी पत्रकारिता का यू-टर्न’ अर्थात् चिट्ठाकारों को प्रमाण-पत्र


(पहले यह आलेख पढिए और इसके अन्‍त में पढिए, इसे यो प्रस्‍तुत करने की कथा)

खोजी पत्रकारिता का यू-टर्न

दिनांक 2 जनवरी 09 को दैनिक भास्कर, भोपाल के खोजी पत्रकारिता परिशिष्ट, डी बी स्टार ने, भीमसिंह मीणा की एक रपट ‘‘ब्लेक एण्ड व्हाईट’’ प्रकाशित हुई। इस कहानी को डी बी स्टार ने स्टार एक्सपोज का दर्जा देते हुए शीर्षक दिया हैं ‘‘एक व्यक्ति दो रूप’’

लगभग तीन पृष्ठों की इस रपट में अखबार ने कतिपय दस्तावेज भी प्रकाशित किये हैं, जिनसे यह साबित होता है कि किस तरह भोपाल की नरेला विधानसभा सीट के विधायक ने, लघु वनोपज संघ का अध्यक्ष बनने के लिए, खुद को, तेन्दूपत्ता तोडकर जीवन यापन करने वाला वनोपज संग्राहक होना प्रदर्शित किया हैं, जबकि वे करोड़ों की सम्पत्ति के मालिक हैं । अखबार के मुताबिक यह सब सालाना 600 करोड़ रुपये के बजट से लाभ लेने के लिए किया गया।

अगले 48 घण्टों में कुछ ऐसा घटित हुआ, कि दैनिक भास्कर ने, यू टर्न लेते हुए, पुनः एक रिर्पोट प्रकाशित की, लिखा कि सारंग पर झूठे दस्तावेजों के आधार पर आरोप लगाये गये थे। और यह भी लिखा कि डी बी स्टार ‘सच के सबूत’’ सामने ला रहा है।

48 घण्टों के भीतर छपी ये दो परस्पर विरोधी रिपोर्टें दैनिक भास्कर समाचार पत्र समूह के पाठक वर्ग को यह सोचने पर विवश करती हैं कि वे 2 जनवरी की रिर्पोट पर विश्वास करें या पश्चातवर्ती 4 जनवरी की रिपोर्ट पर? यदि पश्चातवर्ती रिर्पोट तथ्यपरक है तो 2 जनवरी को, एक लोकप्रिय विधायक की उजली छवि को, धूमिल करने की जिम्मेदारी किसकी हैं? नरेला विधानसभा क्षेत्र के विधायक समर्थकों की भावनाएँ, दिनांक 2 जनवरी को दैनिक भास्कर ने आहत की हैं। क्या इस प्रकार भास्कर न केवल विधायक की चरित्र हत्या करने का अपितु भोपाल की जनता को झूठी सूचनाएँ देने का अपराधी नहीं हैं? क्या दैनिक भास्कर को अपने इस अपराध के लिए भोपाल की जनता एवं नरेला के विधायक से सार्वजनिक माफी नहीं माँगनी चाहिए?

4 जनवरी की रिपोर्ट में प्रकाशित किया गया है कि ‘‘सारंग पर झूठे दस्तावेज के आधार पर आरोप लगाये गये है,’’ और ''डी बी स्टार सच के सबूत सामने ला रहा हैं''। तब क्या अखबार यह कहना चाह रहा है कि झूठे दस्तावेजों के आधार पर सारंग पर दैनिक भास्कर ने नहीं अपितु किसी और समाचार पत्र में झूठे आरोप लगाये गये हैं और अब, वह, सच के सबूत सामने ला रहा हैं? यदि ऐसा नहीं है तो डी बी स्टार ने पूरी पड़ताल किये बिना दो जनवरी की रिपोर्ट प्रकाशित ही क्यों की?

अब जरा दोनों रिर्पोटों में प्रकाशित दस्तावेजी साक्ष्य को सिलसिले से देख लें -

दिनांक 2/1/09 को प्रकाशित किया गया दस्तावेज क्रमांक-1, प्राथमिक वनोपज संस्था, मुडियाखेडा उप नियमों की फोटो प्रति है, जिसके अनुसार:-

अ. किसी भी प्राथमिक वनोपज संस्था का सदस्य वही बन सकता है जो समिति के कार्यक्षेत्र का निवासी हो। एवम्

ब. जो स्वयं जीवीकोपार्जन हेतु लघु वनोपज के संग्रहण का कार्य भी करता हो।

2. दूसरा दस्तावेज शासकीय भूमि से तेन्दूपत्ता संग्रहण विवरण के साप्ताहिक संग्रहण पुस्तिका के पृष्ठ क्रमांक 5,4 अस्पष्ट 233 की फोटोप्रति है जिसमें क्रमांक-74 पर विश्वास सारंग के नाम के आगे 600 गड्डी एकत्र करने के साथ साथ एक अगूँठा का निशान भी लगाना दर्शाया गया हैं। डी बी स्टार ने लिखा है कि विश्वास सारंग ने मई माह की 21 से 27 तारीखों में तेन्दूपत्ता तोडने का पारिश्रामिक 270/-रुपये लिए। इस आरोप के साथ इस राशि को लेने के लिए उनके नाम के सामने अंगूठा लगाया गया हैं जबकि उस समय वे न तो वहाँ के स्थाई निवासी थे, न ही मुडियाखेडा क्षेत्र में उनकी कोई जमीन थी।

3. तीसरे दस्तावेज के रूप में वर्ष 2007 की सामूहिक जीवन बीमा के हितग्राहियों की सूची की फोटोकापी प्रकाशित की गई हैं, जिसके अनुसार सारंग परिवार ने वर्ष 2007 में 600 गड्डी पत्ता तोडा हैं। इस प्रकार यह दस्तावेज प्रमाणित करता है कि वर्ष 2007 एवं 2008 में विश्वास सारंग ने ग्राम पंचायत मुडियाखेडा के फडसाकंल में तेन्दूपत्ता तोडने वाले संग्राहक की हैसियत से कार्य कर रहे थे जिसके परिणाम स्वरूप तेन्दूपत्ता संग्राहकों के लिए लागू सामूहिक जीवन बीमा योजना के वह सदस्य थे एवं इसी जीवन बीमा योजना में उनकी पत्नी और उनके पिता भी शामिल हैं। वर्ष 2008 की जीवन बीमा हितग्राही सूची में सारंग परिवार द्वारा 1205 गड्डी तेन्दूपत्ता संग्रहण किया जाना बताया गया हैं।

4. 2 जनवरी 09 में प्रकाशित स्टोरी में घनश्याम पुत्र टीकाराम निवासी साँकल जाति आदिवासी द्वारा माननीय व्यवहार न्यायालय प्रथम श्रेणी गैरतगंज में प्रस्तुत शपथ पत्र की फोटोप्रति प्रकाशित की गई है, जिसमें स्वयं घनश्याम ने अपने आपको आदिवासी होना बताया हैं। इसके साथ ही श्री विश्वास सारंग द्वारा माह फरवरी-08 में ग्राम साँकल में क्रय की गई जमीन की रजिस्ट्री के उस पृष्ठ की प्रतिलिपि भी प्रकाशित की गई है, जिसमें घनश्याम ने अन्य विक्रेताओं के साथ अपने आपको घनश्याम पुत्र टीकाराम माहेश्वरी बताया गया हैं। इस प्रकार दिनांक 2 जनवरी 09 की रिर्पोट में यह बताया गया है कि रजिस्ट्री में चाहे विक्रेता की जाति माहेश्वरी लिखी हो, परन्तु विक्रेता ने स्वयं के द्वारा माननीय न्यायालय में प्रस्तुत किये गये शपथ पत्र में अपने आपको आदिवासी होना बताया है। उपरोक्त आरोपों की सफाई में डी बी स्टार द्वारा दिनांक 4/1/09 को यू टर्न लेते हुए कहा है कि ‘‘सारंग पर लगाये गये आरोप झूठे थे’’ और अब सच के सबूत पेश किये जा रहे हैं। सच के सबूत के तौर पर जो 4 दस्तावेज पेश किये गये हैं वह ‘‘सबूत जो सामने आये’’ शीर्षक के अन्तर्गत प्रकाशित किये गये हैं। इनमें से एक तो वह पत्र हैं जो गृह सचिव, म0प्र0 ने प्रमुख सचिव, मछली पालन विभाग को लिखा है और जिसमें यह लिखा है कि ‘‘आर. के. महाले, जो उन पर आरोप लगा रहे हैं, के खिलाफ पुलिस में कई प्रकरण दर्ज है और वह जनता के भड़काने की कार्यवाही करते रहते हैं।’’ उक्त दस्तावेज से श्री विश्वास सारंग पर लगाये गये आरोपों का खण्डन तो कतई नहीं होता। दूसरा दस्तावेज जो प्रस्तुत किया गया है वह लघु वनोपज संग्रहण पारिश्रामिक कार्ड क्र0 16326 है, जिसमें संग्रहणकर्ता परिवार के मुखिया के रूप में श्री विश्वास सारंग एवं उनकी पत्नी रूमा बाई एवं उनके पिता श्री कैलाश सारंग के नाम क्रमांक-56 पर दर्ज हैं। यह संग्रहण कार्ड लघु वनोपज संग्रहण और उसके पारिश्रामिक का विवरण देता हैं जो दिनांक 2/1/09 को श्री सारंग पर लगाये गये आरोपों की पुष्टि ही करता हैं, उनका खण्डन नहीं करता। तीसरा दस्तावेज जो मुडियाखेडा के घनश्याम पुत्र टीकाराम से खरीदी गई जमीन की रजिस्ट्री है, जिसे घनश्याम को सामान्य जाति का साबित करने के लिए प्रकाशित किया गया हैं। उल्लेखनीय है कि 2 जनवरी 09 को भी यही रजिस्ट्री प्रकाशित की गई है, किन्तु 2 जनवरी को इस रजिस्ट्री के साथ घनश्याम का वह शपथ पत्र भी प्रकाशित किया गया है जिसमें उसने स्वयं को आदिवासी होना बताया है।

सबूत के तौर पर जो चौथा दस्तावेज प्रकाशित किया गया है वह तेन्दूपत्ता अधिनियम 1964 की धारा-2 डी के भाग-बी पर प्रकाश डालता हैं जिसमें यह कहा गया है कि तेन्दूपत्ता उगाने वाले से तात्पर्य किसी इकाई के अन्तर्गत आने वाले ऐसे खाते के यथास्थिति भू-धारक या भाडे़दार या शासकीय पट्टाधारी या ऐसी शासकीय भूमि के धारक से है जिसमें तेन्दूपत्ता के पौधे उगते हैं। अब लोकनीय है कि उपरोक्त प्रावधान तेन्दूपत्ता उत्पादक के लिए है, न कि तेन्दूपत्ता संग्राहक के लिए।

अब जरा दिनांक 2/1/09 एवं 4/1/09 की कहानियों को साथ-साथ देखें।

दिनांक 2/1/09 को प्रकाशित पहले दस्तावेज, मुडियाखेडा समिति के उप नियमों के सम्बन्ध में बाद वाली स्टोरी ( दि0 4/1/09) पूरी तरह मौन हैं, क्योंकि इसमें सन्देह की गुंजाईश ही नहीं है कि श्री विश्वास सारंग प्राथमिक वनोपज संस्था समिति के कार्यक्षेत्र के निवासी नहीं हैं। दि0 2/1/09 को प्रकाशित उप नियमों के अनुसार - सदस्य को जीवीकोपार्जन के लिए तेन्दूपत्ता संग्रहण का कार्य करना चाहिए परन्तु 4/1/09 की रिर्पोट में लेख है श्री विश्वास सारंग तेन्दूपत्ता के उत्पादक हैं और निजी उत्पादकों से निजी वनोपज कार्य कराना सोसायटी का उद्देश्य हैं, अतः वह सदस्य बनने के पात्र हैं। जबकि सोसायटी के उप नियमों में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जिससे किसी तेन्दूपत्ता उत्पादक को प्राथमिक वनोपज सहकारी संस्था के सदस्य बनने की अर्हता प्राप्त होती हो। यह उल्लेखनीय है कि जो रजिस्ट्री फरवरी-08 में की गई है उसके अनुसार भी भूमि में तेन्दूपत्ता के मात्र 05 पेड़ हैं। इन 05 पेड़ों से दो वर्षो में 1800 गड्डी पत्ता तोडा जाना बताया गया है जो कतई सम्भव नहीं हैं। तथापि इस सम्भावना को भी सत्य मान लिया जाये कि श्री विश्वास सारंग अपने पेड़ों में ऐसी खाद देते थे जिससे पत्ते का उत्पादन 4 गुना हो जाता हैं तो भी उन्हें दो वर्षो में 1800 गड्डियों का 55/- रूपये के मान से 99,000/- आय होती है। माननीय विधायक महोदय द्वारा चुनाव में दिये गये अपने शपथ पत्र के मुताबिक वे करोड़ों की सम्पत्ति के स्वामी हैं। इसके बावजूद वह रोजाना 200 किलो मीटर की यात्रा कर तेन्दूपत्ते का उत्पादन कर, इतनी राशि भी कमा लेते हैं कि उनका एवं उनके परिवार का जीवीकोपार्जन हो सके।

प्राथमिक समिति के उपनियमों में तेन्दूपत्ता उत्पादक की सदस्यता का कोई प्रावधान नहीं हैं। मात्र वनोपज संग्राहक, जो स्वयं वनोपज संग्रहण करता है एवं जैसा करना श्री सारंग ने कागजों में बताया है, वह संग्राहक ही वनोपज संघ की सदस्यता की अर्हता रखता है। एक विरोधाभास यह भी है कि तेन्दूपत्ता संग्रहण की अवधि में उनका भोपाल नगर में रहना ही समाचार पत्रों में प्रकाशित इनके चित्रों एवं खबरों से प्रमाणित होता है। इन कतरनों को दिनांक 2 जनवरी की रिपोर्ट में प्रकाशित भी किया गया हैं। इस प्रकार श्री सारंग ने पत्ते का संग्रहण तो किया ही नहीं हैं, अपितु पत्तों का संग्रहण करना असत्य रूप से दर्शाया भी हैं। इस प्रकार जहां एक ओर वे सदस्यता के पात्र नहीं हैं, वहीं दूसरी ओर वह कार्य नहीं करने के बावजूद संघ से पारिश्रामिक प्राप्त कर, अवैध लाभ प्राप्त करने के उत्तरदायी हैं। दिनांक 4/1/09 की स्टोरी में यह लेख किया है कि श्री विश्वास सारंग के पिता और पत्नी वनोपज संघ के सदस्य नहीं अपितु बीमाधारी हैं। तथ्य यह है कि तेन्दूपत्ता संग्रहण कर, पत्ता जमा करने के बाद ही वनोपज संघ, संग्राहक एवं उसके परिवार का बीमा करता हैं। श्री कैलाश सारंग और श्रीमती रूमा सांरग के नाम इन बीमाधारकों की सूची में दर्ज हैं। केन्द्र शासन की जनश्री जीवन बीमा योजना, जिसमें वन संग्राहकों को सामूहिक जीवन बीमा का प्रीमीयम केन्द्र एवं राज्य शासन द्वारा प्रतिवर्ष जीवन बीमा निगम को अदा किया जाता हैं, की बीमा सूची में नाम होने का उद्देश्य भी यही है कि गरीब वनोपज संग्राहक को दुघर्टना एवं आकस्मिक मृत्यु की दशा में, कुछ आर्थिक भरपाई की जा सके। इसी कारण किसी करोड़पति उत्पादक को सामूहिक जीवन बीमा योजना में शामिल नहीं किया जाता।

अन्त में दि0 4/1/09 की कहानी में यह लेख किया गया है कि जो अंगूठे का निशान विश्वास सारंग का बताया गया है वह उनका नहीं है बल्कि उनके अधिकृत मदनलाल का हैं। इसी के चलते पंजी पर उनके नाम के आगे किसी अन्य व्यक्ति के अंगूठे का निशान है। मस्टर रोल नियमों के तहत किसी भी विभाग में, कोई अन्य व्यक्ति, किसी से अधिकार प्राप्त कर, अपने हस्ताक्षर अथवा अंगूठा लगाकर राशि प्राप्त नहीं कर सकता। नियमों के अनुसार पारिश्रामिक प्राप्त करने वाला व्यक्ति यदि पारिश्रामिक प्राप्त करने नहीं आता है तो उसे अगले भुगतान के लिए रोक लिया जाता हैं। वनोपज संघ द्वारा जारी किया गया कार्ड, जो इसी रिर्पोट के साथ प्रकाशित किया गया है, के बिन्दु क्रमांक-4 के अनुसार सप्ताह के अन्त में संग्रहण का योग निकालकर भुगतान यथासम्भव मुखिया की पत्नी को ही दिये जाने के निर्देश हैं। अतः श्री सारंग का यह कहना कि उनके द्वारा अधिकृत व्यक्ति ने अंगूठा लगाकर भुगतान प्राप्त किया हैं, न तो शासन के भुगतान सम्बन्धी नियमों के अनुरूप है न ही मध्यप्रदेश वनोपज संघ के नियमों के अनुरूप। अपितु इसके विपरीत उनका यह कथन यही सिद्ध करता है कि उन्होंने मदनलाल को अधिकृत कर 600 गड्डी का भुगतान केवल 270/- रुपये प्राप्त किया है, जिससे उनकी जीवीकोपार्जन में उन्हें अत्यन्त सुविधा हुई हैं।

अब निर्णय पाठक को लेना है।


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यह आलेख यहां देने की कथा

यह समूची ब्लाग विधा से अपेक्षा का ही नहीं, ब्लाग विधा की प्रभावोत्पादकता और इसकी सामाजिक उपयोगिता के प्रति जन-विश्‍वास का भी प्रमाण-पत्र है।

यह आलेख मुझे परसों, शनिवार को डाक से मिला था। पहली नजर में तो मैं समझ नहीं पाया कि यह मुझे क्यों भेजा गया है। किन्तु अगले ही क्षण पूरी बात ‘फ्लेश बेक’ की तरह मेरी आँखों के सामने से गुजर गई।

दिनांक 8 नवम्‍बर 2008को मैंने समाचार न छपने का समाचार शीर्षक वाली पोस्ट लिखी थी। जिसे सरिता अरगरे ने 9 नवम्‍बर को 'करोडपति बीडी मजदूर का राजनीतिक सफर' (http://sareetha.blogspot.com/2008/11/blog-post_09.html) शीर्षक पोस्ट से सहारा दिया था। उसक बाद मैं तो इस मामले को भूल ही गया था क्योंकि इसे याद रखने का कोई कारण मेरे पास नहीं था।

किन्तु अचानक ही दो जनवरी को मेरे गुरु श्री रवि रतलामी ने ई-मेल सन्देश दिया कि भोपाल से प्रकाशित हो रहे ‘डीबी स्टार’ ने अनेक अभिलेखों और तथ्यों सहित, विश्‍वास सारंग पर केन्द्रित समाचार को 'मुखपृष्‍ठ कथा' के रूप में छापा है जिसमें मेरी पोस्ट के कई तथ्य समावेशित किए गए हैं। सूचना मेरे लिए उत्साहवर्ध्‍दक और रोमांचक थी। मैं ने रविजी से फोन पर बात की। वे प्रसन्न थे और मेरी पोस्ट को समाचार की भूमिका के रूप में लेकर मुझे बधाइयाँ दे रहे थे।किन्तु आठ जनवरी को सरिता अरगरे की पोस्‍ट 'या इलाही ये माजरा क्‍या है........'(http://sareetha.blogspot.com/2009/01/blog-post_08.html)ने चौंका दिया। पोस्ट पढ़कर तय कर पाना मुश्‍िकल हो रहा था कि इसे पत्रकारिता की विवशता माना जाए या विफलता माना जाए या फिर व्यावसायिकता के समक्ष पत्रकारिता का समर्पण?

और परसों मुझे यह आलेख मिला। पूरा पढ़ने के बाद जी किया कि इसे अपने ब्लाग पर ही दूँ। किन्तु 'विवेक' ने चेताया कि इस पर पहला नैतिक अधिकार सरिताजी का बनता है। सो, ई-मेल के जरिए उन्हें भेजा। उनका उत्तर मिला कि तकनीकी कारणों से वे उसे पढ़ ही नहीं पा रही हैं। यह स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि उनके इस उत्तर से मुझे प्रसन्नता ही हुई - अब इसे मैं अपने ब्लाग पर दे सकूँगा।


सो, मुझे प्राप्त लेख अविकल रूप से यहाँ प्रस्तुत है। मुझे इसकी विषय वस्तु से कोई सरोकार नहीं है। यह सच है अथवा नहीं, यह चिन्ता भी मैं नहीं कर रहा हूँ। मैं तो मात्र इस भावना के अधीन इसे यहाँ दे रहा हूँ कि मीडीया से निराश लोग अब ‘ब्लाग जगत’ को आशा, अपेक्षा और विश्‍वास की नजरों से देखने लगे हैं। उन्हें लगने लगा है कि ‘ब्लाग जगत’ उनकी ‘अनसुनी’ को जगजाहिर करने मे उनकी सहायता कर सकता है।


आलेख से तीन बातें मुझे साफ-साफ अनुभव हो रही हैं। पहली तो यह कि इसका लेखक न केवल कुशल पत्रकार है अपितु इस समाचार कथा से सम्बन्धित तमाम तथ्य और अभिलेख उसके पास हैं। दूसरी बात यह कि मुझे भेजने से पहले यह आलेख डीबी स्टार को अवश्‍य ही पहुँचाया गया होगा और वहाँ से समुचित कार्रवाई नहीं हुई होगी। और तीसरी तथा अन्तिम बात यह कि यह आलेख और लोगों को भी भेजा गया होगा क्योंकि मुझे इसकी फोटो प्रति मिली है।


यहाँ प्रस्तुत आलेख को आप पढ़ें या न पढें, उससे सहमत हों या असहमत, इस सबके परे जाकर, सबसे पहले समूचे ब्लाग जगत को मेरी ओर से बधाइयाँ-ब्लाग जगत अब ‘जनापेक्षा’ का माध्यम बनने की दिशा में चल पड़ा है।


हाँ, आप सबको यह जानकर अच्छा लगेगा कि यह आलेख मैं कल ही डीबी स्टार, भोपाल के सम्पादकजी को ई-मेल से भेज कर सूचित कर चुका हूँ मैं इसे अपने ब्लाग पर दे रहा हूँ।
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डाक्‍टरों का निठल्‍ला चिन्‍तन



एक निजी चिकित्सालय के प्रतीक्षालय में लगे सूचना फलक का यह चित्र लेकर मैं चिकित्सालय के संचालक डाक्टर से मिलने उनके कक्ष में पहुँचा। वहाँ दो डाक्टर और बैठे थे। डाक्टरों के बीच शीत ऋतु, ‘हेल्दी सीजन’ के नाम से ‘कुख्यात’ है। इस ऋतु में लोग, अपेक्षया कम बीमार होते हैं सो डाक्टरों को सैर-सपाटे करने का सैर सपाटे पर न जाने की दशा में घर पर रहकर गपियाने का भरपूर समय और अवसर मिल जाता है।


कक्ष में एकत्रित तीनों डाक्टर इसी ‘अवसर’ का लाभ ले रहे थे।


मैंने, अपने कैमरे के पर्दे पर डाक्टरों को चित्र दिखाया और कहा कि निर्देश अधूरा है जिसे मैं अपने ब्लाग पर पूरा करूँगा। वे बोल कि निर्देश तो अपने आप में पूरा है। इसमें अधूरापन कहाँ? मैंने कहा-‘‘मैंने तो वही पढ़ा है जो आप ‘कृपया साथ में बच्चे न लाएँ’ के बाद लिखना भूल गए।’’ वे चकराए। बोले-क्या मतलब? मैंने कहा-‘‘मुझे लगता है कि ‘कृपया साथ में बच्चे न लाएँ’ के बाद आप ‘यहीं से दिए जाएँगे’ लिखना भूल गए हैं।’’ सुन कर तीनों डाक्टर, मेरे ‘सेंस आफ ह्यूमर’ की प्रशंसा करते हुए, ठहाका लगा कर हँस पड़े।


लेकिन हँसी थमने के बाद उन्होंने इस पर ‘निठल्ला चिन्तन’ शुरु कर दिया।


उनके सम्वाद कुछ इस प्रकार रहे -

-‘यार! सच में ही अस्पताल से ही बच्चे देने की सुविधा मिल जाए तो मजा आ जाए।’

-‘क्या मजा आ जाएगा? क्या कर लेगा?’

-‘तब मनचाहे जीन्सवाले बच्चे दूँगा।’

-‘मनचाहे जीन्स से क्या मतलब?’

-‘मतलब ये कि हम हिन्दुस्तानी जेनेटिकली ही पोंगू हैं। देख नहीं रहा? पाकिस्तानी हमारे घर में घुस कर हमारी पुंगी बजा रहे हैं और हम दुनिया के सामने चिल्ला रहे हैं।’

-‘तो तू क्या करेगा?’

-‘मैं बच्चों में मरने-मारने के जीन्स डालूँगा।’

-‘लेकिन पोंगू जीन्स तो फिर भी रहेंगे ही रहेंगे!’

-‘कैसे रहेंगे? पहले मैं बच्चों को ‘पोंगू जीन्सलेस’ करूँगा और मरने-मारने के जीन्स डालूँगा।’

वे लोग अपने ‘नेक इरादे’ सार्वजनिक कर रहे थे। बीच-बीच में चिकित्सकीय शब्दावली प्रचुरता से प्रयुक्त कर रहे थे जो मुझे वहाँ ‘पोंगू’ बना रही थी।

मुझे ऊब होने लगी।

मेरी दशा पर उन तीन में से एक को दया आ गई। बोला-‘स्साले! मालूम है कि यह हो नहीं सकता फिर भी हवा में लट्ठ घुमाए जा रहे हो। अकल-वकल है कि नहीं? तुम्हारी ये हरकतें देख कर मैं एक ही काम करता।’

-‘कौन सा?’ सुनने वाले दोनों डाक्टरों ने एक साथ पूछा।

-‘यही कि ऐसी फालतू बातें न करने वाले जीन्स बच्चों में जरूर डाल देता।’

इसके बाद किसी के पास कहने-सुनने को कुछ भी नहीं बचा था।

मैं चला आया।



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सत्य की चोरी


‘सत्यम घपले’ की जानकारी होने के बाद मेरे मन मे सबसे पहला विचार यही आया था कि यदि इस कम्पनी के आडिटर ईमानदारी से अपना काम करते तो देश को और औसत-मझले निवेशकों को यह दिन न देखना पड़ता। किन्तु आर्थिक मामलों की और इनकी प्रक्रिया की जानकारी न होने से मैं कुछ कहने की स्थिति में नहीं था। ऐसे में, सान्ध्य दैनिक प्रभातकिरण (इन्‍दौर) के, 8 जनवरी 2008 के सम्पादकीय पर आज नजर पड़ी तो लगा कि इसमें वही सब कुछ कहा गया है जो मैं सोच रहा था। मुमकिन है कि और लोग भी ऐसा ही सोच रहे हों। ‘बात मेरी थी, तुमने कही, अच्छा लगा’ की तर्ज पर, प्रभातकिरण का यह सम्पादकीय अविकल रूप में प्रस्तुत है।

सत्य की चोरी

चौकीदार ही यदि चोरी करें तो चिन्ता स्वाभाविक है। सरकारी घोटालों और भ्रष्‍टाचार से डरे निवेशक का भरोसा यदि सत्यम कम्प्यूटर जैसी देश की बड़ी आईटी कम्पनी की कारगुजारी से टूट जाए और शेयर बाजार हिल जाए तो गलत कुछ भी नहीं। सत्यम के असत्य में बड़ा दोष कम्पनी के बेईमान और चोर संचालकों से ज्यादा आडिटर कम्पनी और चार्टर्ड अकाउण्टेण्ट का है जिसने कम्पनी को चोरी करने की छूट दी और उसके झूठ को सच बताया।

यदि ये दोनों ईमानदार और देशभक्त होते तो शायद मन्दी के खतरनाक दौर से उबरने की कोशिश कर रहे देश को यह बड़ा झटका सहन नहीं करना पड़ता। कम्पनी घोटाला कर ही इसलिए सकी कि इन दोनों ने देश और निवेशक दोनों को धोखा दिया। कम्पनी से बड़ा अपराध तो इनका है जिन पर यह जिम्मेदारी थी कि कम्पनी अपने निवेशकों से बेईमानी न कर पाए। यदि आज तिरेपन हजार लोगों की रोजी रोटी खतरे में है, लाखों शेयरधारकों के आठ हजार करोड़ रुपये डूब गए हैं और करोड़ों भारतीयों का निजी तन्त्र से भरोसा उठ गया है तो जिम्मेदार ये आडिटर और सीए ही हैं, जिन्होंने यह सब होने दिया और न केवल होने दिया बल्कि इन्होंने झूठे और फ्राड हिसाब- किताब पर सच होने की मुहर लगाई। इनका अपराध कम्पनी संचालकों से भी बड़ा और अक्षम्य है।

हर्षद मेहता शेयर घोटाले के समय ही लोगों को आशंका हो गई थी कि देश के कम्पनी कानून की खामियों और रिसन का लाभ चालाक लोग उठा रहे हैं और जनता का निवेश चुनिन्दा जेबों में जा रहा है, जिसमें नेताओं और नौकरशाहों का संरक्षण शामिल है। गुजरात की सहकारी बैंकों के हजार करोड़ रुपये डूबने की नौबत इसी साँठगाँठ का नतीजा थी और तब से कम्पनी कानून सख्त बनाने और कम्पनियों पर नियन्त्रण करनेवाली संस्थाओं की जिम्मेदारी तय करने की माँग उठती आ रही है, जिस पर ध्यान इसलिए नहीं दिया जा रहा कि नेताओं और अफसरों की शाही चाकरी सत्यम जैसी घोटालेबाज कम्पनियाँ जी-जान से करती आ रही हैं।

अब भी समय है कि सरकार इस घोटाले पर सख्त रुख अपनाए, सभी जरूरी कदम उठाए जिससे निवेशकों का भरोसा निजी तन्त्र पर कायम हो सके। सरकारी तन्त्र से उठा भरोसा यदि निजी तन्त्र से भी पूरी तरह से उठ गया तो देश की अर्थ व्यवस्था बनाए रखना कठिन हो जाएगा और आर्थिक अराजकता आ जाने की आशंका रहेगी। बेहतर हो कि सरकार समय रहते सबक ले ले। सत्यम घोटाले में यदि कठोर कार्रवाई नहीं हुई, तो यह सिलसिला थमनेवाला नहीं है। सत्यम के झूठ और उसकी सजा पर सच्चाई से अमल होना अनिवार्य है।
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रोग से कम, दवाई से अधिक परेशान


क्या कोई ईलाज ऐसा हो सकता है जो बीमारी से अधिक झुंझलाहट पैदा कर दे? सामान्यतः नहीं। किन्तु अपवाद कहाँ नहीं होते? ऐसे ही एक रोचक अपवाद से अभी-अभी मेरा सामना हुआ है।

भगवानलालजी पुरोहित इस समय लगभग 70 वर्ष के हो चुके हैं। वे हायर सेकेण्डरी स्कूल के प्राचार्य के रूप में सेवा निवृत्त हुए। मालवा का ‘लोक’ उनका प्रिय विषय है। इसीलिए मालवी लोक कथाओं, मुहावरों/लोकोक्तियों और मालवा के (भित्ती तथा धरातल के) माँडनों का अच्छा-खासा संग्रह उनके पास है। मालवी बोली में छुटपुट अतुकान्त कविताएँ भी लिखते हैं। ज्योतिष उनका दूसरा सर्वाधिक प्रिय विषय है। वे साप्ताहिक ‘उपग्रह’ में नियमिति रूप से ‘साप्ताहिक राशिफल’ (भविष्‍यफल नहीं) लिखते हैं जिसके नीचे ‘ज्योतिष अनुमान’ लिखना नहीं भूलते। उनकी मालवी कविताएँ और ज्योतिष से सम्बन्धित लेख ‘नईदुनिया’ सहित अखबारों में कभी-कभार छपते रहते हैं।

गए कुछ दिनों से वे आँखों में पीड़ा और चुभन से परेशान हैं। स्थानीय चिकित्सकों से सन्तुष्‍ट नहीं हुए तो रेल में 'भेड बकरियों की तरह ठुंस कर' कोई एक सौ तीस किलोमीटर की 'प्राणलेवा कष्‍टदायक रेल यात्रा' कर, नीमच (म.प्र.) जाकर वहाँ के ‘गोमाबाई नेत्रालय’ के चिकित्सकों को ‘आँखें दिखा’ आए। डाक्टर ने पूछा-‘दवाई 15 दिनों की दूँ या एक कहीने की?’ पुरोहितजी ने सोचा कि कौन 15 दिनों में चक्कर लगाए? सो कहा-‘एक महीने की।’ डाक्टर ने कहा मान लिया।

अब पुरोहितजी को चार दवाइयाँ आँखों में डालनी हैं - दो दवाइयाँ दो-दो घण्टों के अन्तराल से, एक दवाई चार-चार घण्टों के अन्तराल से और एक दवाई छः-छः घण्टों के अन्तराल से। लेकिन शर्त यह है कि चारों दवाइयाँ एक साथ नहीं डाल सकते। चारों में थोड़ा-थोड़ा अन्तराल रखना है। बस, यह अन्तराल पुरोहितजी के जी का जंजाल बन गया है।

वे सवेरे सात बजे से दवाई डालने का क्रम शुरु करते हैं जो रात नौ बजे तक चलता है। लेकिन लिखना जितना आसान है, करना उससे कई गुना अधिक कठिन। इन चैदह घण्टों में उन्हें बाईस बार दवाई डालनी पड़ती है। सवेरे सात बजे, साढ़े सात बजे, आठ बजे, साढ़े आठ बजे, नौ बजे, साढ़े नौ बजे, पूर्वाह्न ग्यारह बजे, साढ़े ग्यारह बजे, मध्याह्न बारह बजे, एक बजे, डेड़ बजे, अपराह्न ढाई बजे, तीन बजे, साढ़े तीन बजे, चार बजे, शाम पाँच बजे, साढ़े पाँच बजे, सात बजे, याढ़े सात बजे, रात्रि आठ बजे, साढ़े आठ बजे और नौ बजे।

यह सब याद रख पाना किसी के लिए सम्भव नहीं। सो, पुरोहितजी ने पूरा चार्ट बना रखा है - बिलकुल रेल्वे समय सारिणी की तरह।

लोक कथाएँ और मुहावरे/लोकोक्तियाँ मुझे सदैव से आकर्षित करती रही हैं। सो ‘कुछ न कुछ नया मिल जाने के लालच’ में मैं महीने-पन्द्रह दिनों में उनसे मिलने जाता रहात हूँ। लोकाचार निभाने के लिए वे भी दो-तीन महीनों में मेरे मुहल्ले का चक्कर लगा लेते हैं।

इस बार उन्हें आए तनिक अधिक समय हो गया है। सो जब उनसे मिलने गया तो सहज भाव से पूछ लिया कि वे कब आ रहे हैं? मेरे प्रश्‍न ने जैसे बिच्छू के डंक सा प्रभाव किया। विचित्र स्वर और उससे भी अधिक मुख-मुद्रा और अटपटी तिलमिलाहट में मानों वे फट पड़े। चार्ट मुझे दिखाते हुए बोले-‘अब बताओ! मैं कैसे, कहाँ जाऊँ? हर आधे घण्टे में तो मुझे दवाई डालनी पड़ती है। कैसा लगेगा कि मैं आपके यहाँ आऊँ और आते ही पूछूँ कि बिस्तर कहाँ है? मुझे लेटना है। आप आने की कह रहे हो! अरे! इन दवाइयों के पीछे तो मेरा भोजन करना भी मुश्‍िकल हो गया है।’

मेरे पास उनकी बातों का कोई उत्तर नहीं था किन्तु उनकी झुंझलाहट, उनकी खीझ, उनकी विवशता, उनकी दयनीयता-सब मिला कर जो चित्र प्रस्तुत कर रही थी उसे ‘हँसते-हँसते रोना’ और ‘रोते-रोते हँसना’ वाली स्थिति की कल्पना करके ही समझा सकता था जो मेरे बूते के बाहर की बात थी।

फिलहाल पुरोहितजी को इन दवाइयों से आराम हो रहा है। वे नीमच के डाक्टरों को दुआएँ दे रहे हैं। आँखों की पीड़ा और चुभन कम होने से बहुत खुश भी हैं किन्तु जैसे ही आधा घण्टा बीतता है, दवाइयों का आतंक उन पर छा जाता है और वे भूल जाते हैं कि एक क्षण पहले तक वे खूब खुश थे।

इस दशा में पुरोहितजी मुझे ‘विचित्र किन्तु सत्य’ लगते रहे। अपनी इस दशा पर वे खुद ही ‘हो! हो!’ कर जोर-जोर से हँसे तो वे मुझे और बड़ा अजूबा लगे। बाईस जनवरी को उनकी दवाइयों का एक महीना पूरा होगा। उनका बस चले तो आज ही बाईस जनवरी ले आएँ। किन्तु केलेण्डर उनकी पकड़ से बाहर है।

सो, बाईस जनवरी तक वे बीमारी से कम और दवाइयों से ज्यादा परेशान होते रहने को विवश हैं। स्वैच्छिक रूप से ग्रहण की गई यह ऐसी विवशता है जिससे वे मुक्त हो जाएँ तो और अधिक परेशान हो जाएँ।


कैसी रोचक विसंगति है?

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मेरा निर्धारण आप करें


भारतीय जीवन बीमा निगम की नवीनतम पालिसी 'जीवन आस्था' पर केन्द्रित, 16 दिसम्बर 2008 वाली मेरी पोस्ट ‘आस्था’ बिक रही है, तत्काल खरीद लें में मैं ने यह पालिसी तुरन्त खरीद लेने की अनुशंसा की थी। मैंने कहा था कि मैं केवल अनुशंसा नहीं कर रहा हूँ अपितु अपने बेटे के लिए यह पालिसी खरीद रहा हूँ। मैंने कहा था -'आपको उसी खरीदी की सलाह दे रहा हूँ जो खरीदी मैं खुद कर रहा हूँ।'


अत्यधिक विचलित और विगलित मनःस्थिति में सूचना दे रहा हूँ कि मैं यह खरीदी नहीं कर पाया और इस पालिसी की बिक्री के अन्तिम दिनांक, 21 जनवरी 2009 तक भी नहीं खरीद सकूँगा। इसका कारण मैं सार्वजनिक कर आप सबसे जानना चाह रहा हूँ कि मैं खुद को क्या समझूँ?


मैं इस समय आयु के 62वें वर्ष में चल रहा हूँ और यह पालिसी 60 वर्ष तक की आयु वालों के लिए है। मेरी जीवनसंगिनी 53वाँ वर्ष पूरा करने वाली है। इस आयु वालों के लिए यह पालिसी मुझे कम लाभदायक लगती है इसीलिए अपनी उपरोल्लेखित पोस्ट में मैं ने इसे 13 से 40 वर्ष के आयु वर्ग वालों के लिए इसकी अनुशंसा की थी। मेरा बड़ा बेटा, हैदराबाद में, एक विदेशी कम्पनी में कार्यरत है और आय-कर-नियोजन की दृष्‍िट से वह यथेष्‍ठ निवेश कर चुका है। ऐसे में मेरा छोटा बेटा ही बचा जिसके नाम पर मैं यह पालिसी ले सकता था। वह इस अगस्त में 19 वर्ष पूरे करेगा-सो उसकी प्रीमीयम भी तनिक कम होती।


वह इस समय इन्दौर के एक निजी कालेज में, बी.ई. के दूसरे वर्ष (तीसरे सेमेस्टर) में पढ़ रहा है। उसके हस्ताक्षर के लिए मैंने फार्म भेजा तो उसने फोन पर इसका प्रयोजन जानना चाहा। जानकारी देने पर उसने तनिक हिचकिचाहट से अनुरोध किया कि मैं उसके नाम पर यह पालिसी न लूँ। पैसे-कौड़ी के मामले में ऐसा उसने पहली बार किया। इससे पहले दो बार, जब उसके लिए पालिसी लेने के लिए उससे हस्ताक्षर करने को कहा तो उसने तत्काल ही हस्ताक्षर कर दिए थे। तब वह रतलाम में ही पढ़ रहा था।


सो, उसका नकारना मुझे न केवल अटपटा लगा अपितु मुझे आहत भी कर गया। मुझे लगा, वह मेरी अवज्ञा और अवहेलना कर रहा है। मैंने तनिक आवेश में उससे पूछा कि वह ऐसा क्यों कर रहा है? उसके उत्तर ने मुझे चुप कर दिया।


उसने रुक-रुक कर बोलते हुए (मानो या तो वह हकला हो गया हो या फिर अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा कर उसे बोलना पड़ रहा हो) कहा कि हम लोग उसकी पढ़ाई पर और घर से बाहर रहने के कारण पहले ही प्रति वर्ष अच्छी-खासी रकम खर्च कर रहे हैं। फिर, उसके नाम पर यह पालिसी मैं अपने ‘टैक्स प्लानिंग‘ के लिए भी नहीं ले रहा हूँ। केवल, पालिसी लेने के लिए पालिसी ले रहा हूँ। यह उसे अच्छा नहीं लग रहा है।


उसने लगभग ऐसा कुछ कहा-‘पापा! आप लोग मुझे कैसे पढ़ा रहे हैं यह मैं जानता हूँ। आप मेरे लिए यह पालिसी मत लीजिए। ये रुपये आप एक साल के लिए एफडी कर दीजिए। अगले साल मेरी फीस चुकाने के काम आएँगे। मैं आपकी कोई मदद तो नहीं कर सकता लेकिन आपको इस खर्चे से तो बचा ही सकता हूँ। आपसे यह कहने के लिए मुझे बहुत हिम्मत जुटानी पड़ रही है। लेकिन प्लीज! आप मेरे नाम पर यह खर्चा मत कीजिए।’


उसकी ऐसी बातें सुनकर मेरी वाणी रुँध गई। मैं तो उसे छोटा बच्चा ही मान रहा हूँ और वह है कि बड़ों की तरह मुझे समझा रहा है! मेरी ओर से कोई जवाब न पाकर उसने दो-तीन बार 'हेलो! हेलो!' कहा। मुझसे बोला नहीं जा रहा था। उसे मेरी इस दशा का अनुमान सम्भवतः हो गया था सो उसने फोन बन्द कर दिया।


और इस तरह मैं अपनी कही बात पर अमल नहीं कर पाया। कर भी नहीं सकूँगा। मुझसे मत पूछिए कि मुझ पर क्या बीती और इस ‘आप बीती’ को लिखते हुए इस समय क्या बीत रही है।


आप ही तय करें कि मैं क्या हूँ - भाग्यशाली पिता या असफल, अभागा (और झूठा) बीमा एजेण्ट?

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दो एसएमएस


एसएमएस मुझे सदैव परेशान ही करते हैं। एसएमएस की अपेक्षा पत्र लिखना मुझे अधिक सरल अनुभव होता है। पत्र लेखन प्रिय तो है ही। स्थिति यह है कि एसएमसए का उत्तर भी मैं प्रायः ही पत्र से देता हूँ। पत्र पाने वाले मित्रों की प्रतिक्रया विचित्र होती है। एक ओर तो वे, एसएमएस न लिख पाने के लिए मेरा उपहास करते हैं तो दूसरी ओर, मेरा पत्र पाकर प्रसन्न भी होते हैं। सच में, मनुष्य मन की थाह पाना कठिन ही है।

किन्तु समय एसएमएस का है। मैं भले ही न लिखूँ, किसी को लिखने से तो रोक नहीं सकता। सो, इस वर्ष भी पहली जनवरी को एसएमएस की जोरदार बारिश हुई।

कभी एलआईसी में शाखा प्रबन्धक रहे अतुल प्रताप सिंह साहित्यिक अभिरुचिवाले हैं। मुझे सदैव लगता रहा (और अभी भी लग रहा है) कि वे नौकरी में ‘मिस फिट’ हैं। किन्तु नौकरी में सफलता के कीर्तिमान स्थापित कर वे मुझे और मेरी धारणा को ध्वस्त और निरस्त करते रहे हैं। इन दिनों वे वाराणसी में, बिरला सन लाइफ इंश्‍‍योरेंस कम्पनी में बहुत बड़े अधिकारी हैं। ‘क्या यह रचना उनकी है?’ वाला, मेरा प्रश्‍‍न पूरा होने से पहले ही वे (ऐसे छिटककर मानो ‘लिखने के दुष्‍‍कृत्य’ की जिम्मेदारी से पल्ला झाड रहे हों) बोले कि ‘यह सब’ उन्होंने नहीं लिखा है। उनके किसी मिलने वाले ने उन्हें यह एसएमस भेजा था जो उन्होंने मुझे ‘फारवर्ड’ कर दिया।


सो, ‘अतुल प्रताप सिंह का न लिखा’ यह एसमएस आप भी पढ़िए। मुझे पूरा विश्‍वास है कि ये पंक्तियाँ आपको भी अच्छी लगेंगी -

शिखर पर पहुँचने की स्‍पर्ध्‍दा में

शायद भूल गया था

मैं उस ऊँचाई पर

होने वाले अकेलेपन

के अहसास को।

विध्वंस के आतंक से आहत

पर डरा नहीं है

हक माँगने वाली

इस नई पीढ़ी का उतावलापन!

नव युग के सृजन का उत्साह लिए

यह नन्हा सा बच्चा

फिर से सिखा गया मुझे कि

हमारे ‘हम’ से परे भी

बहुत कुछ अभी

शेष है इस जीवन में।

दूसरा एसएमएस मुझे गए साल मिला था, 8 जनवरी 2008 को जो मैं ने अब तक सहेज रखा है। हमारे दैनन्दिन जीवन में आ रही कृत्रिमता और खोखलेपन पर करारी चोट करने वाला यह एसएमएस, एलआईसी रतलाम में कार्यरत मणीन्द्र तिवारी ने भेजा था -


‘हेप्पी न्यू ईयर, लोहड़ी, सक्रान्ती, होली, वैशाखी, दीवाली, दशहरा, शिवरात्रि, क्रिसमस, जन्माष्‍ठमी, राखी, सारे तीज त्यौहार की बधाइयाँ, हेप्पी गणतन्त्र तथा स्वाधीनता दिवस, हेप्पी वेलेण्टाइन्स डे, फ्रेण्डशिप, मदर्स, बुआ’स, फूफा’स, दादा’स, दादी’स, नाना’स, नानी’स, मौसा’स, मौसी’स, पति’स, पत्नी’स, मम्मी’स, चिल्ड्रन्स डे एण्ड हेप्पी बर्थ डे, गुड लक फार एक्जाम्स, 365 गुड मार्निंग, नून एण्ड नाइट । हाँ यार! अब पूरे साल मत कहना कि विश नहीं किया।’

आपको जो एसएमएस अच्छा लगे, वह किसी अपने वाले को फारवर्ड कर दीजिएगा।

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उनकी वंश-बेल आप बढ़ाएँ


मनोरोगी की विशेषता यही होती है कि वह खुद को रोगी नहीं मानत। खुद को रोगी न मानने के इस 'जूनून' में वह अपने सिवाय सबको रोगी मानता है। यह अलग बात है कि उसकी यह हरकत उसकी बीमारी को और अधिक शिद्दत से उजागर करती है। इसीलिए उसका उपचार असम्भव नहीं तो असम्भवप्रायः तो होता ही है। इस ‘असम्भवप्रायः’ को सम्भव बनने के अन्तर्गत, उसे दी गई दवाइयँ भी या तो प्रभावी नहीं होतीं और होती भी हैं तो अत्यल्प और अत्यधिक विलम्ब से।


श्रीमान् अननीमस द्वारा,शीला दीक्षित और मुरली मनोहर जोशी को टोकिए शीर्षक मेरी पोस्ट पर, पूरे सोलह दिन और बारह घण्टों बाद की गई टिप्पणी पढ़ कर मेरे मन में ये ही बातें आईं। मुझे क्रोध नहीं आया। सहानुभूति भी नहीं उपजी उनके लिए। दया आई। उन्हें तो पता ही नहीं कि वे क्या कर रहे हैं। बीमार आदमी (?) पर क्या तो गुस्सा और क्या शिकायत?


हम सबने एक कहानी, अपने जीवन काल में कम से कम एक बार तो सुनी ही है। एक चोर को, राजा ने चौराहे पर सूली चढ़ाने का दण्ड दिया। चोर से उसकी अन्तिम इच्छ पूछी गई। चोर ने कहा कि वह उसकी माँ के कान में अपनी बात कहना चाहता है। चोर की माँ को लाया गया। चोर ने, माँ के कान में कुछ कहने के बजाय माँ का कान काट खाया। माँ चिल्लाई। राजा ने चोर से इस हरकत का कारण जानना चाहा। चोर ने कहा कि उसकी (चोर की) पहली ही चोरी पर यदि उसकी माँ टोक देती, प्रतिकार कर देती तो आज चोर को इस तरह चौराहे पर, सूली पर नहीं चढ़ना पड़ता।


लेकिन श्रीमान् अननीमस तो उस चोर को कोसों पीछे छोड़ कर, अपनी माँ को ‘चोर की माँ की माँ’ अर्थात् 'चोर की नानी' बना रहे हैं।


मैं ने बहुत ही सहज भाव से शीला दीक्षित और मुरली मनोहर जोशी की ‘अलोकतान्त्रिक हरकतों’ पर अंगुली उठाई थी और कहा था कि अपना घर सुधारने की जिम्मेदरी खुद घर वालों को ही उठानी पड़ेगी। इसलिए कांग्रेसियों को चाहिए कि वे मुकुट धारण कर रही शीला दीक्षित को टोकें और भाजपाइयों को चाहिए कि वंशवाद की तरफदारी कर रहे जोशीजी को टोकें।


लेकिन श्रीमान् अनानीमस को मुरली मनोहर जोशी की अलोकतान्त्रिक हरकत के पीछे भी कांग्रेस ही नजर आई। उन्होंने जो भी लिखा उसीसे उनकी बीमार मनःस्थिति का आकलन भली प्रकार किय जा सकता है। होना तो यह चाहिए था कि कांग्रेस की गलतियों (और मूर्खताओं) से दूसरी पार्टियां सबक लेतीं और खुद को कांग्रेस से अलग तथा बेहतर सबित करतीं। लेकिन सत्ता पर कब्जा करने के कांग्रेसी शार्ट-कट तमाम पर्टियों को ऐसे रास आने लगे कि वे कांग्रेस से अलग और बेहतर बनने के बजाय कांग्रेस की निकृष्‍ट संस्करण बन गईं। सब देख रहे है कि इस काम मे भाजपा 'सबसे आगे और सबसे पहले' बनी हुई है।
मेरी निश्‍चत मान्यता है कि भारत के सारे कांग्रसी मिल कर भाजपा को नहीं सुधार सकते और देश के तमाम भाजपाई मिल कर कांग्रेस को नहीं सुधार सकते। कांग्रेस को सुधारने के लिए कांग्रेसियों को और भाजपा को सुधारने के लिए भाजपाइयों को ही श्रम करना पड़ेगा।
मेरी यह भी सुनिश्‍िचत धारणा है कि कांग्रेस और भाजपा ही वे राजनीतिक दल हैं जो देश की राजनीतिक आवश्‍यकताएँ पूरी कर सकते हैं। इसीलिए दोनों का शक्तिशाली और साफ-सुथरा बने रहना आवयक ही नहीं, अनिवार्य है।


सामने वले की गलती का उदहरण देकर अपनी गलती का औचित्य प्रतिपादित करना सिवाय 'सीनाजोरी' के और कुछ नहीं है। खेदजनक बात यही है कि दोनों पर्टियाँ यह 'सीनाजोरी' बरतती हैं जो अपने आप में अनुचित है।


कांग्रेस ने गाँधी पर कब्जा कर रखा है लेकिन भाजपा को भी यह बात समझ आ गई है कि गाँधी का नाम लिए बिना उसका भी काम नहीं चलने वला । सो, वह भी ‘गाँधी-जाप’ में शामिल हो गई है। लेकिन दोनों पार्टियाँ भूल रही हैं कि गाँधी ने सदैव खुद को देखा। 'आत्म निरीक्षण, आत्म परीक्षण और आत्म शोधन' की प्रक्रिया गाँधी के सम्पूर्ण जीवन में अनवरत बनी रही। उन्होंने किसी पर अंगुली नहीं उठाई अपितु अपनी ओर उठी तीन अंगुलियों को देखा।


श्रीमान् अनानीमस भाजपा के ‘अन्धानुयायी’ बने रहें या कोई भी किसी भी पार्टी का अनुयायी बन रहे, इस पर भला किसी को आपत्ति क्यों होने लगी? वे ऐसे ही बने रहें किन्तु भाजपा में आए विकारों, विकृतियों के लिए दूसरों को दोषी न मानें। और यदि मानें तो उन विकारों, विकृतियों को दूर करने का जिम्मा तो दूसरों पर न छोड़ें।


किन्तु लगता है कि श्रीमान् अनानीमस खुद कुछ नहीं करना चाहते। अपनी अक्षमता और अकर्मण्यता से वे सम्भवतः भली-भांति परिचित हैं। जिम्मेदार तो वे पहले से ही नहीं हैं। होते तो बेचारे अपना नाम छुपाने का शिखण्डीपन नहीं बरतते।


श्रीमान् अनानीमस के तर्क को आधार बनाया जाए तो मानना पड़ेग कि उनका वंश चलाने के लिए किया जने वाला ‘श्रम’ और भोगी जाने वाली ‘पीड़ा’ उनके बूते की बत नहीं है। ये दोनों जिम्मेदारियां उनके पड़ौसियों को ही निभानी पड़ेंगी।


श्रीमान् अनानीमस सचमुच में दया के पात्र हैं। ऐसा गैर जिम्मेदार, इतना दयनीय, इतना अक्षम, ऐसा 'कापुरुष' जिस पार्टी का अन्धनुयायी हो उस पार्टी को शत्रुओं की क्या आवश्‍यकता?

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