इन दिनों फेस बुक पर मेरी खूब पिटाई हो रही है। कारण है - जातिगत आरक्षण को लेकर की जा रही मेरी प्रस्तुतियाँ। देश भर में, देहातों में, जातिगत कारणों से अछूतों, अस्पृश्यों पर सवर्णों, अगड़ों द्वारा प्रायः प्रतिदिन ही किए जा रहे अत्याचारों को लेकर छपनेवाले, समाचारों की कतरनें मैं इन दिनों फेस बुक पर, ‘जातिगत आरक्षण का विरोध करनेवालों को सस्नेह अर्पित’ लिख कर लगा रहा हूँ। आरक्षण के समर्थक तो प्रायः ‘लाइक’ तक ही सीमित रहते हैं किन्तु विरोधियों की तिलमिलाहट शब्दों में आ ही जाती है। प्रायः सबके सब इसे केवल और केवल मोदी-विरोध मानते हैं और ‘राजा के प्रति खुद राजा से अधिक वफादार’ की भूमिका और मुद्रा में पूछते हैं-‘यह सब दो सालों में ही हो रहा है? इसके पहले साठ सालों तक कुछ नहीं होता था?’ मेरी हँसी चल जाती है। मुझे ‘मूर्ख मित्र से समझदार दुश्मन बेहतर’ वाली कहावत याद आ जाती है। मैं पूछता हूँ-‘मैंने ऐसा कहा? मेरे लिखे को पूरे ध्यान से फिर पढ़ें और बताएँ-मैंने ऐसा कहा? यदि नहीं तो जाहिर है कि आप अपना अपराध-बोध ही उजागर कर रहे हैं।’ इसके बाद कोई जवाब नहीं आता।
लेकिन बात केवल परिहास की नहीं है। इसे परिहास में उड़ा देना या सिरे से खारिज कर देना अत्यधिक घातक है। अन्ध समर्थक और अन्ध विरोधी समान रूप से घातक हैं। हमें तथ्यों और वास्तविकताओं से सामना करना पड़ेगा।
मैं आरक्षण का समर्थक नहीं हूँ। किन्तु यह आधी बात है। इसके विरोध में जाने से पहले मुझे अपनी जिम्मेदारी भी निभानी पड़ेगी। यह जिम्मेदारी है-जिस समाज में मैं बैठा हूँ वह ऐसा बने कि किसी को आरक्षण की आवश्यकता ही न हो। यह जिम्मेदारी सफलतापूर्वक निभाए बिना आरक्षण का विरोध करना याने जंगल के कानून का समर्थन करना।
जाति प्रथा हमारा बहुत ही कुरूप और कड़वा सच है। यह अमानवीय और ईश्वर विरोधी कुप्रथा हमने ही बनाई है। मेरी पृष्ठभूमि देहाती है। मैंने देखा है कि जाति के कारण अनगिनत बच्चे स्कूल तक भी नहीं पहुँच पाते। पहुँच भी गए तो उपेक्षा, अवमानना, व्यंग्योक्तियों के दंश सहते हैं। रोटी-पानी से भी दूर रखा जाता है। कई बार शिक्षक भी इस सबमें कभी सक्रियता से तो कभी चुप रहकर शामिल हो जाते हैं। वातावरण और स्थितियाँ ऐसी बना दी जाती हैं कि छोटी जातियों के बच्चे खुद ही स्कूल आना बन्द कर दें। ऐसे कुत्सित प्रयासों से अनेक प्रतिभावान बच्चों से देश वंचित हो जाता है। जाति और वर्ण व्यवस्था के चलते इस देश ने वह दौर भी देखा है जिसमें शूद्रों को शिक्षा प्राप्त करना तो दूर रहा, शिक्षा के स्वरों से भी वंचित रखा गया था और उनके कानों में वेद वाक्यों के स्थान पर गरम-गरम सीसा उँडेल देने के निर्देश दिए गए थे। हजारों बरसों से चल रही इस व्यवस्था पर आजादी के बाद रोक तो लगी किन्तु स्थितियाँ ऐसी नहीं हो पाई कि निश्चिन्त या सन्तुष्ट हुआ जाए। देहातों में तो यह सब अभी भी प्रचुरता से प्रभावी है। इन्हीं कारणों से हमारे सम्विधान निर्माताओं ने जातिगत आरक्षण का प्रावधान किया था। उन्होंने हम पर भरोसा किया था कि हम उनकी भावनाओं को समझ कर पन्द्रह बरसों में जातिविहीन समाज बना देंगे। किन्तु हम अपनी भूमिका निभाने में न केवल असफल हुए बल्कि जातिवाद को बनाए रखने में और अधिक तेजी से जुट गए। जाहिर है, जब तक जाति प्रथा बनी रहेगी तब तक जाति आधारित आरक्षण भी बना रहेगा। इसलिए, जातिगत आरक्षण समाप्त करने की माँग तब ही की जा सकेगी जब जाति प्रथा समाप्त हो जाए।
यहीं से समाज की जिम्मेदारी शुरु होती है। खास कर उन लोगों की जो जातिगत आरक्षण समाप्त करने में प्राण-पण से जुटे हैं। वे चाहें, न चाहें, उन्हें यह जिम्मेदारी निभानी ही पड़ेगी। जब समाज यह जिम्मेदारी निभाने में असफल हो जाता है तो ‘राज्य’ को यह जिम्मेदारी लेनी पड़ती है।
ऐसी जिम्मेदारी सफलतापूर्वक निभाने के अनेक उदाहरण हमें हमारे आसपास ही मिल जाएँगे। अधिक जाने-माने नामवाला उदाहरण है बड़ौदा के राजा सयाजीराव गायकवाड़। जिस जमाने में अस्पृश्यों की छाया से भी दूर रहा जाता था उस जमाने में उन्होंने ऐसे अस्पृश्यों को न केवल बराबरी की जगह दी बल्कि उन्हें प्रेरित, प्रोत्साहित, संरक्षित भी किया। स्त्री शिक्षा का अलख जगाने में ‘हरावल’ बने, महाराष्ट्र के ज्योति फुले आज किसी पहचान के मोहताज नहीं। छोटी जातियों के प्रति व्याप्त सामाजिक भेदभाव को दूर करने के प्रयासों पर झेले गए उनके प्रतिरोध को सम्मानित करते हुए सयाजीराव ने ही उन्हें ‘महात्मा’ कह कर सम्बोधित किया और ज्योतिबा फुले के मरणोपरान्त उनकी पत्नी और बेटे के लिए बड़ौदा राज्य से आर्थिक सहायता की व्यवस्था की। महर्षि शिन्दे के नाम से ख्यात हुए श्री विट्ठलराव शिन्दे को मेनचेस्टर (इंगलैण्ड) में उच्च शिक्षा हेतु छात्रवृत्ति दी। आज अम्बेडकर के नाम का डंका बज रहा है। लेकिन यदि सयाजीराव गायकवाड़ नहीं हुए होते तो दुनिया को अम्बेडकर शायद ही मिले होते। डॉक्टरेट हेतु प्रस्तुत उनका शोध-पत्र जब ‘द इवोल्यूशन ऑफ प्राविंशियल फायनेन्स इन ब्रिटिश इण्डिया’ शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ तो अम्बेडकर ने वह सयाजीराव को ही अर्पित किया। अम्बेडकर आजीवन खुद को सयाजीराव का ऋणी मानते रहे। 19 मार्च 1918 को मुम्बई में हुई, ‘आल इण्डिया कौंसिल ऑफ? फॉर रेमेडी ऑफ अनटचेबिलीटी’ की अध्यक्षता करते हुए इन्हीं सयाजीराव ने कहा था - ‘अस्पृश्यता ईश्वर ने नहीं बनाई। यह तो अज्ञान और जातिगत अहम् से ग्रस्त मनुष्य ने ही बनाई है।’
सामाजिक स्तर पर अपनी जिम्मेदारी निभानेवालों में अपने आसपास मुझे, स्वाधीनता सेनानी माणक भाई अग्रवाल नजर आते हैं। मन्दसौर जिले के (अनुसूचित जातियों हेतु आरक्षित) सुवासरा विधान सभा क्षेत्र से दो बार विधायक रहे श्री रामगोपाल भारतीय को माणक भाई ने ही ‘पोषित और विकसित’ किया। यदि माणक भाई नहीं होते तो भारतीयजी भी यह मुकाम शायद ही हासिल कर पाते।
कोई प्रतिभावान है या नहीं यह तब ही तय किया जा सकता है जब सबको समान अवसर, समान वातावरण, समान स्थितियाँ और समान जीवन स्तर मिले। यह सब न मिलने के बाद भी कुछ लोग अपनी दृढ़ इच्छा-शक्ति और संकल्प-शक्ति के बूते, पूर्वाग्रहों से ग्रस्त, आलोचकों की आँखों में अंगुलियाँ गड़ाकर अपनी उपस्थिति जता देते हैं। ऐसे लोगों में मुझे डॉक्टर अशोक कुमार भार्गव सदैव याद आते हैं। वे आरक्षित वर्ग से रहे किन्तु उन्होंने सामान्य वर्ग के उम्मीदवार के रुप में, 1986 की राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षा के सफल उम्मीदवारों की सम्पूर्ण सूची में पहला स्थान पाया। ऐसा पहली बार (और अब तक आखिर बार भी) हुआ कि आरक्षित वर्ग के किसी उम्मीदवार ने, सामान्य वर्ग के उम्मीदवार के रूप में शामिल हो कर सम्पूर्ण सूची में पहला स्थान पाया। इस उल्लेख सहित तत्कालीन मुख्य मन्त्री श्री मोतीलाल वोरा ने उन्हें विशेष रूप से सराहना-पत्र प्रदान किया। ऐसा सराहना-पत्र न उससे पहले किसी को मिला न अब तक किसी को मिल पाया। डॉक्टर भार्गव आज भारतीय प्रशासकीय सेवाओं के सदस्य हैं और भोपाल में ही, अपर सचिव के पद पर पदस्थ हैं।
जातिगत आरक्षण में विसंगतियाँ हो सकती हैं। इस व्यवस्था में समयानुसार बदलाव आवश्यक अनुभव किया जा सकता है। किन्तु हमें यह याद रखना पड़ेगा कि जातिगत आरक्षण उपलब्ध करवा कर हम अपनी गलतियाँ ही सुधार रहे हैं। यदि पूर्वजों का गौरव हमारा भी गौरव है तो पूर्वजों की गलतियाँ, हमारी भी गलतियाँ हैं। दादा के रोपे आम के पौधे के फल यदि पोता खाता है तो दादा की चूकों का परिष्कार भी पोते को ही करना पड़ेगा। हमें यदि आज लग रहा है कि जातिगत आरक्षण से हमें अवसरों से वंचित किया जा रहा है तो हमें यह याद करना पड़ेगा कि हमारे पूर्वजों ने कितने हजार बरसों तक, समाज के कितने बड़े वर्ग के लोगों की कितनी पीढ़ियों को अवसरों से वंचित किया है।
लिहाजा, मैं खुद भी किसी भी प्रकार के आरक्षण का समर्थक न होकर भी जातिगत आरक्षण का विरोध नहीं कर पाता। यह आरक्षण, वृक्ष की फुनगियों की तरह जरूर नजर आ रहा है किन्तु फुनगियों की छँटाई समस्या का निदान नहीं है। जड़ें काटे बिना हमारा उद्धार नहीं।
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लेकिन बात केवल परिहास की नहीं है। इसे परिहास में उड़ा देना या सिरे से खारिज कर देना अत्यधिक घातक है। अन्ध समर्थक और अन्ध विरोधी समान रूप से घातक हैं। हमें तथ्यों और वास्तविकताओं से सामना करना पड़ेगा।
मैं आरक्षण का समर्थक नहीं हूँ। किन्तु यह आधी बात है। इसके विरोध में जाने से पहले मुझे अपनी जिम्मेदारी भी निभानी पड़ेगी। यह जिम्मेदारी है-जिस समाज में मैं बैठा हूँ वह ऐसा बने कि किसी को आरक्षण की आवश्यकता ही न हो। यह जिम्मेदारी सफलतापूर्वक निभाए बिना आरक्षण का विरोध करना याने जंगल के कानून का समर्थन करना।
जाति प्रथा हमारा बहुत ही कुरूप और कड़वा सच है। यह अमानवीय और ईश्वर विरोधी कुप्रथा हमने ही बनाई है। मेरी पृष्ठभूमि देहाती है। मैंने देखा है कि जाति के कारण अनगिनत बच्चे स्कूल तक भी नहीं पहुँच पाते। पहुँच भी गए तो उपेक्षा, अवमानना, व्यंग्योक्तियों के दंश सहते हैं। रोटी-पानी से भी दूर रखा जाता है। कई बार शिक्षक भी इस सबमें कभी सक्रियता से तो कभी चुप रहकर शामिल हो जाते हैं। वातावरण और स्थितियाँ ऐसी बना दी जाती हैं कि छोटी जातियों के बच्चे खुद ही स्कूल आना बन्द कर दें। ऐसे कुत्सित प्रयासों से अनेक प्रतिभावान बच्चों से देश वंचित हो जाता है। जाति और वर्ण व्यवस्था के चलते इस देश ने वह दौर भी देखा है जिसमें शूद्रों को शिक्षा प्राप्त करना तो दूर रहा, शिक्षा के स्वरों से भी वंचित रखा गया था और उनके कानों में वेद वाक्यों के स्थान पर गरम-गरम सीसा उँडेल देने के निर्देश दिए गए थे। हजारों बरसों से चल रही इस व्यवस्था पर आजादी के बाद रोक तो लगी किन्तु स्थितियाँ ऐसी नहीं हो पाई कि निश्चिन्त या सन्तुष्ट हुआ जाए। देहातों में तो यह सब अभी भी प्रचुरता से प्रभावी है। इन्हीं कारणों से हमारे सम्विधान निर्माताओं ने जातिगत आरक्षण का प्रावधान किया था। उन्होंने हम पर भरोसा किया था कि हम उनकी भावनाओं को समझ कर पन्द्रह बरसों में जातिविहीन समाज बना देंगे। किन्तु हम अपनी भूमिका निभाने में न केवल असफल हुए बल्कि जातिवाद को बनाए रखने में और अधिक तेजी से जुट गए। जाहिर है, जब तक जाति प्रथा बनी रहेगी तब तक जाति आधारित आरक्षण भी बना रहेगा। इसलिए, जातिगत आरक्षण समाप्त करने की माँग तब ही की जा सकेगी जब जाति प्रथा समाप्त हो जाए।
यहीं से समाज की जिम्मेदारी शुरु होती है। खास कर उन लोगों की जो जातिगत आरक्षण समाप्त करने में प्राण-पण से जुटे हैं। वे चाहें, न चाहें, उन्हें यह जिम्मेदारी निभानी ही पड़ेगी। जब समाज यह जिम्मेदारी निभाने में असफल हो जाता है तो ‘राज्य’ को यह जिम्मेदारी लेनी पड़ती है।
ऐसी जिम्मेदारी सफलतापूर्वक निभाने के अनेक उदाहरण हमें हमारे आसपास ही मिल जाएँगे। अधिक जाने-माने नामवाला उदाहरण है बड़ौदा के राजा सयाजीराव गायकवाड़। जिस जमाने में अस्पृश्यों की छाया से भी दूर रहा जाता था उस जमाने में उन्होंने ऐसे अस्पृश्यों को न केवल बराबरी की जगह दी बल्कि उन्हें प्रेरित, प्रोत्साहित, संरक्षित भी किया। स्त्री शिक्षा का अलख जगाने में ‘हरावल’ बने, महाराष्ट्र के ज्योति फुले आज किसी पहचान के मोहताज नहीं। छोटी जातियों के प्रति व्याप्त सामाजिक भेदभाव को दूर करने के प्रयासों पर झेले गए उनके प्रतिरोध को सम्मानित करते हुए सयाजीराव ने ही उन्हें ‘महात्मा’ कह कर सम्बोधित किया और ज्योतिबा फुले के मरणोपरान्त उनकी पत्नी और बेटे के लिए बड़ौदा राज्य से आर्थिक सहायता की व्यवस्था की। महर्षि शिन्दे के नाम से ख्यात हुए श्री विट्ठलराव शिन्दे को मेनचेस्टर (इंगलैण्ड) में उच्च शिक्षा हेतु छात्रवृत्ति दी। आज अम्बेडकर के नाम का डंका बज रहा है। लेकिन यदि सयाजीराव गायकवाड़ नहीं हुए होते तो दुनिया को अम्बेडकर शायद ही मिले होते। डॉक्टरेट हेतु प्रस्तुत उनका शोध-पत्र जब ‘द इवोल्यूशन ऑफ प्राविंशियल फायनेन्स इन ब्रिटिश इण्डिया’ शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ तो अम्बेडकर ने वह सयाजीराव को ही अर्पित किया। अम्बेडकर आजीवन खुद को सयाजीराव का ऋणी मानते रहे। 19 मार्च 1918 को मुम्बई में हुई, ‘आल इण्डिया कौंसिल ऑफ? फॉर रेमेडी ऑफ अनटचेबिलीटी’ की अध्यक्षता करते हुए इन्हीं सयाजीराव ने कहा था - ‘अस्पृश्यता ईश्वर ने नहीं बनाई। यह तो अज्ञान और जातिगत अहम् से ग्रस्त मनुष्य ने ही बनाई है।’
सामाजिक स्तर पर अपनी जिम्मेदारी निभानेवालों में अपने आसपास मुझे, स्वाधीनता सेनानी माणक भाई अग्रवाल नजर आते हैं। मन्दसौर जिले के (अनुसूचित जातियों हेतु आरक्षित) सुवासरा विधान सभा क्षेत्र से दो बार विधायक रहे श्री रामगोपाल भारतीय को माणक भाई ने ही ‘पोषित और विकसित’ किया। यदि माणक भाई नहीं होते तो भारतीयजी भी यह मुकाम शायद ही हासिल कर पाते।
कोई प्रतिभावान है या नहीं यह तब ही तय किया जा सकता है जब सबको समान अवसर, समान वातावरण, समान स्थितियाँ और समान जीवन स्तर मिले। यह सब न मिलने के बाद भी कुछ लोग अपनी दृढ़ इच्छा-शक्ति और संकल्प-शक्ति के बूते, पूर्वाग्रहों से ग्रस्त, आलोचकों की आँखों में अंगुलियाँ गड़ाकर अपनी उपस्थिति जता देते हैं। ऐसे लोगों में मुझे डॉक्टर अशोक कुमार भार्गव सदैव याद आते हैं। वे आरक्षित वर्ग से रहे किन्तु उन्होंने सामान्य वर्ग के उम्मीदवार के रुप में, 1986 की राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षा के सफल उम्मीदवारों की सम्पूर्ण सूची में पहला स्थान पाया। ऐसा पहली बार (और अब तक आखिर बार भी) हुआ कि आरक्षित वर्ग के किसी उम्मीदवार ने, सामान्य वर्ग के उम्मीदवार के रूप में शामिल हो कर सम्पूर्ण सूची में पहला स्थान पाया। इस उल्लेख सहित तत्कालीन मुख्य मन्त्री श्री मोतीलाल वोरा ने उन्हें विशेष रूप से सराहना-पत्र प्रदान किया। ऐसा सराहना-पत्र न उससे पहले किसी को मिला न अब तक किसी को मिल पाया। डॉक्टर भार्गव आज भारतीय प्रशासकीय सेवाओं के सदस्य हैं और भोपाल में ही, अपर सचिव के पद पर पदस्थ हैं।
जातिगत आरक्षण में विसंगतियाँ हो सकती हैं। इस व्यवस्था में समयानुसार बदलाव आवश्यक अनुभव किया जा सकता है। किन्तु हमें यह याद रखना पड़ेगा कि जातिगत आरक्षण उपलब्ध करवा कर हम अपनी गलतियाँ ही सुधार रहे हैं। यदि पूर्वजों का गौरव हमारा भी गौरव है तो पूर्वजों की गलतियाँ, हमारी भी गलतियाँ हैं। दादा के रोपे आम के पौधे के फल यदि पोता खाता है तो दादा की चूकों का परिष्कार भी पोते को ही करना पड़ेगा। हमें यदि आज लग रहा है कि जातिगत आरक्षण से हमें अवसरों से वंचित किया जा रहा है तो हमें यह याद करना पड़ेगा कि हमारे पूर्वजों ने कितने हजार बरसों तक, समाज के कितने बड़े वर्ग के लोगों की कितनी पीढ़ियों को अवसरों से वंचित किया है।
लिहाजा, मैं खुद भी किसी भी प्रकार के आरक्षण का समर्थक न होकर भी जातिगत आरक्षण का विरोध नहीं कर पाता। यह आरक्षण, वृक्ष की फुनगियों की तरह जरूर नजर आ रहा है किन्तु फुनगियों की छँटाई समस्या का निदान नहीं है। जड़ें काटे बिना हमारा उद्धार नहीं।
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(मेरी यह पोस्ट आज ही, भोपाल से प्रकाशित दैनिक 'सुबह सवेरे' में प्रकाशित हुई है।)