या तो अस्पताल में भर्ती रहना या अस्पतालों और पेथालॉजी प्रयोगशालाओं के चक्कर लगाना, कोई तीन महीनों से यही क्रम बना हुआ है। रतलाम-बड़ौदा की यात्राओं ने ऊब पैदा कर दी। बाहर आना-जाना प्रतिबन्धित। घर में या तो बिस्तर पर रहो या फिर चहल कदमी कर लो। चिढ़ और झुंझलाहट का गोदाम बन गया है मन। न कुछ पढ़ने की इच्छा हो रही न कुछ लिखने की। अपने मन से मेरे मन की बात को अनुभव करनेवाले मित्र ईश्वर की तरह मदद कर रहे हैं। लगता है, सबने तय कर लिया है कि कौन, कब आएगा। जो भी आता है, पठन-पाठन की कुछ न कुछ सामग्री लेकर आता है। मैं पढ़ने से इंकार कर देता हूँ। वे पढ़कर सुनाने लगते हैं। मैं चिढ़ जाता हूँ। कहता हूँ - ‘पढ़कर नहीं, किसी किस्से की तरह, किसी बात की तरह सुनाओ-कहो।’ दुनिया से अलूफ रहना चाहता हूँ। वे मुझे दुनियादार बनाकर लौटते हैं।
इसी क्रम में एक मित्र ने किसी अखबार के रविवारी परिशिष्ट में छपा, अल्लामा आरजू और ए. हमीद का किस्सा सुनाया। आरजू साहब, भाषा के निष्णात् विद्धान थे और हमीद साहब उर्दू के जाने-माने लेखक। आरजू साहब ने फिल्म निदेशक नितिन बोस के लिए एक गीत लिखा था। हमीद साहब ने कहा कि उस गीत में एक शब्द गलत प्रयुक्त हुआ है। सुनकर आरजू साहब ने विस्फारित नेत्रों से देखा। उस शब्द को रेखांकित कर बोले कि वे उस शब्द का बेहतर पर्यायी/वैकल्पिक शब्द सोचेंगे।
हमीद साहब चले तो आए किन्तु आरजू साहब की भेदती नजर ने उनका आत्मविश्वास हिला दिया। शाम को घर पहुँच कर दीवान-ए-गालिब देखा तो पाया कि गालिब ने वही शब्द ठीक उसी तरह प्रयुक्त किया था जिस तरह आरजू साहब ने किया था। हमीद साहब को अपने ज्ञान के सतहीपन अनुभव हुआ और खुद पर शर्म हो आई। वे बेकल हो गए। घर पर रुकना कठिन हो गया। वे तीन ट्रामें बदल कर देर रात आरजू साहब के घर पहुँचे। हमीद साहब को बेवक्त अपने दरवाजे पर देख कर आरजू साहब को हैरत हुई। आने का सबब पूछा। हमीद साहब ने अपने अल्प ज्ञान आधारित दुस्साहसी अपराध के लिए क्षमा माँगी। आरजू साहब कुछ भी नहीं बोले और ईश्वर को धन्यवाद देने के लिए नमाज पढ़ने बैठ गए।
किस्सा सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए। कुछ क्षणों के लिए अपनी बीमारी भूल गया। हमीद साहब की भाषाई चिन्ता, सावधानी और अपनी गलती को तत्क्षण स्वीकार कर, क्षमा याचना करनेे के साहस के प्रति मन में आदर का समन्दर उमड़ पड़ा तो आरजू साहब के बड़प्पन और भाषाई उत्तरदायी-भाव ने एक पल में ही आरजू साहब को बीसियों बार प्रणाम करवा दिया।
किन्तु भाषा के प्रति यह सतर्कता भाव अब नजर नहीं आता। कम से कम हिन्दी में तो नहीं। यदि कोई ऐसी चिन्ता करता भी है तो या तो उसकी अनदेखी कर दी जाती है या उसे उपहास झेलना पड़ता है। इस किस्से ने मुझे कुछ किस्से याद दिला दिए।
कविता के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने के लिए जी-जान झोंके हुए एक युवा ने मुझसे सैलाब का अर्थ पूछा। मैंने कहा कि इसका सामान्य अर्थ तो बाढ़ होता है किन्तु यदि वह प्रयुक्त करने का सन्दर्भ, प्रसंग बता दे मैं शायद कुछ अधिक सहायता कर सकूँ। उसने उत्तर दिया कि अपनी कविता में वह सैलाब को प्रयुक्त तो कर चुका। मैं तो बस, उसका अर्थ भर बता दूँ। मेरी बोलती बन्द हो गई। मेरे एक मित्र का पचीस वर्षीय बेटा, कोई दो बरस पहले अचानक ही फेस बुक पर प्रकट हुआ। उसने अपनी कविताएँ, एक के बाद एक, धड़ाधड़ कुछ इस तरह भेजी मानो कोई फैक्टरी खुल गई हो। उसने अपनी कविताओं पर मेरी राय पूछी। सारी कविताएँ पढ़ पाना मेरे लिए सम्भव नहीं था। पाँच-सात कविताएँ पढ़ कर मैंने कहा कि कविताओं में विचार तो अच्छा है किन्तु वर्तनी की अशुद्धियाँ सब कुछ मटियामेट कर रही हैं। उसने पूछा - ‘अंकल! ये वर्तनी क्या होता है?’ मैं एक बार फिर अवाक् हो गया।
यह गए बरस की ही बात है। एक शाम, मेरे एक और मित्र का, तीस वर्षीय बेटा, तीन डायरियाँ लेकर मेरे घर आया। तीनों डायरियाँ अच्छी-खासी मोटी और मँहगी जिल्द वाली थीं। उसने कहा कि अपनी शायरी से उसने ये तीनों ही डायरियाँ भर दी हैं। मैं देख लूँ। मैंने गालिब, फैज से लेकर मौजूदा वक्त के कुछ शायरों के नाम लेकर पूछा कि उसने अब तक कितना, क्या पढ़ा है। जवाब में उसने तनिक हैरत से पूछा कि ये सब कौन हैं और इन्हें क्यों पढ़ा जाना चाहिए? उसने कहा कि उसने पढ़ा-वढ़ा कुछ नहीं। सीधा लिखना शुरु कर दिया। उसके यार-दोस्तों को उसकी शायरी खूब पसन्द आ रही है और उसने फिल्मों में जाने की कोशिशें शुरु कर दी हैं। मैंने कहा कि वह यहाँ अपना वक्त खराब नहीं करे। फौरन मुम्बई पहुँचे। मुम्बई खुद ही सब कुछ दुरुस्त कर देगी।
जलजजी भाषा विज्ञान के प्राधिकार हैं। मैं उनके यहाँ जाने का कोई मौका नहीं छोड़ता। जब भी जाता हूँ, समृद्ध होकर ही लौटता हूँ। ऐसी ही एक बैठक के दौरान एक नौजवान आया और चुपचाप बैठ गया। हम लोग हिन्दी और इसके व्याकरण के साथ हो रही छेड़छाड़ पर बात कर रहे थे। अनुस्वार के उपयोग में बरती जा रही उच्छृंखलता हमारा विषय थी। अचानक ही नौजवान बोल उठा - ‘सर! यह बिन्दु कहीं भी लगा दो। क्या फर्क पड़ता है?’ जलजजी निश्चय ही उसके बारे में विस्तार से जानते थे। उन्होंने एक कागज उसके सामने सरकाया और बोले-‘लिखो! मेरी साँस से बदबू बाती है।’ उसने लिख दिया। जलजजी बोले-‘ अब इसमें साँस के ऊपरवाला बिन्दु हटा दो और जोर से पढ़ो।’ नौजवान ने आज्ञापालन किया। जलजजी ने कहा-‘कोई अन्तर लगा? अब बिना बिन्दुवाला यही वाक्य, दस लोगों के बीच, अपनी पत्नी की मौजूदगी में जोर से पढ़ना और फिर आकर मुझे बताना कि क्या हुआ?’ नौजवान को पसीना आ गया। घबरा कर बोला-‘अरे! सर! बड़ी गड़बड़ हो जाएगी। मेरा तो घर टूट जाएगा!’ जलजजी हँस कर बोले-‘यह होता है बिन्दु के साथ मनमानी करने से। यह घर बना भी देता है और तोड़ भी देता है।’
यह तो अभी-अभी की ही बात है। एक अखबार के दफ्तर में बैठा था। एक अतिमहत्वाकांक्षी और उत्साही नेता आया। सहायक सम्पादक को अपनी प्रेस विज्ञप्ति थमाते हुए बोला-‘जरा ढंग-ढांग से छाप देना। झाँकी जम जाएगी।’ सहायक सम्पादक ने प्रेस विज्ञप्ति पढ़कर मेरी ओर सरका दी। नेता ने खुद के लिए एक स्थान पर ‘नेताद्वय’ प्रयुक्त किया था। सहायक सम्पादक ने दूसरे नेता का नाम पूछा। नेता बोला कि अपने समाचार में वह किसी और का नाम भला क्यों देगा? सहायक सम्पादक ने पूछा-‘तो फिर नेताद्वय क्यों लिखा?’ नेता बोला कि अच्छा शब्द है। इससे नेता और समाचार दोनों का वजन बढ़ जाएगा।
लोग बिना सोचे-विचारे बोलते ही नहीं, लिखते भी हैं। आशीर्वाद लिखो तो प्रेस वाला सुधार कर आर्शीवाद कर देता है। किसी संस्थान के दो-तीन वर्ष पूरे होने पर पूरे पृष्ठ के विज्ञापन में बड़े गर्वपूर्वक ‘सफलतम दो वर्ष’ लिखा जाता है। इसका अर्थ न तो विज्ञापन लिखनेवाला जानता है और संस्थान का मालिक। अनजाने में ही घोषणा की जा रही होती है कि संस्थान को जितनी सफलता मिलनी थी, मिल चुकी।
जानता हूँ कि शुद्धता सदैव संकुचित करती है। सोने की सिल्लियाँ या बिस्किट लॉकर में ही हैं रखे जाते हैं। आभूषण में बदलने के लिए सोने में न्यूनतम मिलावट अपरिहार्य होती है। मिलावट सदैव विस्तार देती है। भाषाई सन्दर्भों में संस्कृत इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। व्यापक शब्द सम्पदा और क्रियाओंवाली यह देव-भाषा यदि संकुचित हुई है तो उसका एक बड़ा कारण उसकी शुद्धता भी है। इसी शुद्धता के चलते हम अब तक दूसरा गाँधी नहीं पा सके हैं।
विस्तार के लिए मिलावट अपरिहार्य है। किन्तु इसकी आवश्यकता, मात्रा और प्रतिशत का ध्यान नहीं रखा जाए तो विस्तार के बजाय विनाश होने की आशंका बलवती हो जाती है। कम से कम समय में अधिकाधिक आर्थिक लाभ प्राप्त करने के लक्ष्य से बोलचाल की भाषा के नाम पर हिन्दी शब्दों का जानबूझकर, सायास किया जा रहा विस्थापन इस अनुपात का अनुशासन भंग कर रहा है। मिलावट यदि सहज और प्राकृतिक न हो तो वह न केवल बाजार से बल्कि चलन से ही बाहर कर देती है।
----