एसएमएस में पहली जनवरी
दो धर्म: दो आयोजन: दो अनुभव
कोई धर्म अपने अनुयायियों के आचरण से कैसे पहचाना जाता है, इसके दो अनुभव मुझे अभी-अभी एक साथ, मेरे मुहल्ले में ही हुए। दोनों ही अनुभव इतने सुस्पष्ट है कि वे किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं रहने देते।
इसलिए ‘इन्हें’ नींद नहीं आती
मेरा ‘बच्चा साधु’
ब्लॉगवाणी: मेरा अभाग्य है यह शोकान्तिका
उसी रात मैंने उत्तर दिया -
नमस्कार,
मुझे लगता है कि सबको ऐसा महसूस हो रहा है कि ब्लागवाणी को बंद करने का कारण यह है कि किसी कुछ कहा.
ऐसा नहीं है... ब्लागवाणी न जारी रखने का कारण कोई विवाद नहीं है बल्कि निजी समस्यायें हैं. अगर हमारे लिये संभव होता इसको जारी रखना तो जरूर हम ऐसा करते. लेकिन इस समय यह संभव नहीं है.
आप लोगों के पत्र पढ़कर शर्मिंदगी होती है कि हम आपकी अपेक्षाओं पर पूरे नहीं उतर सके. इस असफलता के लिये कृपया हमें क्षमा करिये. हमारी क्षमतायें इस विशाल ब्लागजगत को नहीं समेट सकीं. इसके लिये बेहतर उपक्रम की आव्यशकता है.
सब दोस्तों से गुजारिश है कि कृपया इस मुद्दे को विराम दें क्योंकि इस पर जारी संवाद बार-बार असुविधाजनक एहसास कराता है.
आपके सहयोग के लिये ह्रदय से धन्यवाद.
आपका दोस्त
सिरिल
सो, मित्रों! मैं सखेद सूचित कर रहा हूँ कि मैं आपकी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाया। असफल रहा। किन्तु विश्वास कीजिएगा, अपनी ओर से मैंने कोई कसर नहीं रखी। अमानवीयता तक बरत गया।
यह मेरा अभाग्य ही है कि ब्लॉगवाणी का यह ‘शोकान्तिका-पाठ’ मेरे हिस्से में आया।
यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें। यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें। मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.
आना समझ में, बरसों बाद कोई बात
यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें। यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें। मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.
छुटकू का क्या दोष?
बरहवीं उत्तीर्ण कर, बी. कॉम. और उसके साथ ही साथ सी ए करने के लिए यह अपने कस्बे के पासवाले, महानगर होने को कुलबुला रहे बड़े नगर में गया था। लेकिन जल्दी ही इसका मन उचट गया। सी ए करने का इरादा छोड़ दिया है। व्यक्तिगत परीक्षार्थी (प्रायवेट स्टूडेण्ट) के रूप में बी. कॉम. की तैयारी अभी भी कर रहा है। किन्तु मुख्यतः अपने पारिवारिक व्यापार में हाथ बँटा रहा है। पढ़ाई बीच में छोड़ने के अपने निर्णय पर इसे और इसके परिवार को रंच मात्र भी कष्ट नहीं है। सब इस बात पर प्रसन्न हैं कि इसने सब कुछ जल्दी ही समझ लिया और ‘समय धन’ बचा लिया।
अपने काम से इसके संस्थान् पर गया तो उस दिन सेठ की कुर्सी पर यही बैठा हुआ था। मैं अपनी बात कहता उससे पहले ही कूरीयर सेवा का आदमी आया और पत्रों का ढेर और पावती के लिए हस्ताक्षर करनेवाला कागज इसके सामने रख दिया। इसे अंग्रेजी में हस्ताक्षर करता देख मैंने टोका - ‘छुटकू! तू हिन्दी में हस्ताक्षर क्यों नहीं करता?’ वह चौंका भी और घबराया भी। तनिक सहम कर बोला - ‘अंकल! हिन्दी में सिगनेचर? बुरा मत मानना, हिन्दी में सिगनेचर करना तो दूर, मैं हिन्दी में छुटकू का छ नहीं लिख पाऊँगा।’ मुझे सदमा लगा। ऐसे उत्तर की तो कल्पना भी नहीं की थी मैंने! पूछा - ‘क्यों भला?’ जवाब मिला - ‘आज से पहले इस बारे में न तो किसी ने कहा न ही मैंने कभी सोचा। अब तो यह पॉसीबल ही नहीं।’
जवाब भले ही मेरे लिए आघात से कम नहीं था किन्तु छुटकू ने कोई बहाना नहीं बनाया। दो-टूक सच कह दिया। उससे ज्यादा पूछताछ करना उसके साथ अत्याचार ही होता। मैं विचार में पड़ गया।
छुटकू के परिवार की पृष्ठभूमि में अंग्रेजी कहीं नहीं है। घर में भी हिन्दी कम और मालवी अधिक बोली जाती है। अंग्रेजी में कोई सम्वाद, कोई व्यवहार नहीं होता। इसके परिवर के प्रायः समस्त पुरुष सदस्य, हिन्दी में ही हस्ताक्षर करते हैं। इसकी माँ एक सरकारी माध्यमिक विद्यालय में, बरसों से प्रधानाध्यापिका है और पिता ठेठ मालवी।
फिर वह क्या कारण रहा होगा कि छुटकू ने ऐसा जवाब दिया? शायद किसी ने, कभी भी इस ओर ध्यान नहीं दिया होगा। ध्यान देना तो दूर की बात रही होगी, इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता भी अनुभव नहीं की होगी। बच्चा पढ़ रहा है और परीक्षाओं में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो रहा है - इतना ही पर्याप्त रहा होगा। लेकिन भाषा के भी संस्कार होते हैं, इस बारे में किसी ने, कभी नहीं सोचा होगा।
निश्चय ही, घर-घर का यही किस्सा होगा। होगा क्या, है ही। हम अपने बच्चों की पढ़ाई की चिन्ता करते हैं और उसी पर सारा ध्यान केन्द्रित करते हैं। किन्तु परीक्षाएँ उत्तीर्ण करने के अतिरिक्त भी तो उसका जीवन है! उसके सामाजिक व्यवहार, भाषिक संस्कार आदि के बारे में हम कभी नहीं सोचते। मान कर चलते हैं कि इन बातों पर सोचनेे की आवश्यकता ही नहीं। ये बातें तो या तो बच्चा खुद-ब-खुद सीख-समझ जाएगा या फिर इन बातों को सीखने-समझने की जरुरत ही क्या?
मुझे लग रहा है कि हिन्दी के नाम पर स्यापा करनेवाले और आत्म धिक्कार में जीनेवाले हम तमाम लोगों को अपने-अपने घर में ही सबसे पहले देखना चाहिए। हम तब चिन्तित होते हैं जब सुधार की सम्भावनाएँ लगभग धूमिल हो जाती हैं। बच्चे जब कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं तभी हमने इन सन्दर्भों में उनकी तरफ देखना चाहिए। लेकिन तब हमें फुरसत नहीं होती। हमें फुरसत मिलती है तब तक वे हाँडे पक चुके होते हैं और उनमें मिट्टी न लगा पाने की अपनी अक्षमता को हम हिन्दी की अस्मिता का सवाल बना कर प्रलाप शुरु कर देते हैं।
दोष तो हमारा ही है। छुटकू का क्या दोष?
आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।
यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें। यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें। मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.
एक मन्दिर: धार्मिकतावाला
उत्तर भारत के मन्दिरों के बारे में बनी मेरी धारणा टूटने की मुझे बहुत खुशी है। यह अलग बात है कि यह धारणा मध्य भारत में टूटी। यह भी अलग बात है कि मुझे यह खुशी देने में हमारे पारम्परिक सनातनी (जिसे हम आदतन ‘हिन्दू’ कहते हैं) समाज का कोई योगदान नहीं है।
उत्तर भारत के जितने भी मन्दिरों में मुझे जाने का अवसर मिला है, उनमें से एक की भी व्यवस्था से मैं ‘मुदित मन’ नहीं लौटा। रखरखाव हो या पण्डों-सेवकों का व्यवहार, वहाँ अव्यवस्था ही व्यवस्था है और दर्शनार्थियों/भक्तों/पर्यटकों के साथ मनमानी ही धर्मिकता है। इसके सर्वथा विपरीत, दक्षिण भारत के मन्दिरों ने मुझे सदैव प्रभावित भी किया और दूसरी बार आने के लिए आकर्षित भी।
लेकिन उज्जैन के इस्कान मन्दिर ने मेरी धारणा बदली। इस मन्दिर को मैं परम्परागत सनातनी समाज का मन्दिर नहीं मानता।
मेरे मामिया ससुरजी की बरसी-प्रसंग पर गए दिनों उज्जैन जाना हुआ। हम लोग समय से बहुत अधिक पहले पहुँच गए। इतने पहले कि वहाँ आए सारे रिश्तेदारों से भली प्रकार मिल लेने, उनके साथ नाश्ता और भरपूर गप्प गोष्ठी करने के बाद चर्चाओं के लिए मौसम के अतिरिक्त कोई विषय नहीं बचा फिर भी कार्यक्रम शुरु होने में घण्टों बाकी थे। मिलने और गपियाने के उत्साह का उफान उतर जाने से उपजे खालीपन ने ही मेरी उत्तमार्द्ध (जीवनसंगिनी) को इस्कान मन्दिर जाने की प्रेरणा दी। मैं उनके साथ चला तो किन्तु बिलकुल ही बेमन से। एक तो मन्दिरों के बारे में मेरे अपने पूर्वाग्रह उस पर मन्दिर इस्कान का! इस्कान के बारे में मेरी धारणा यही है कि वहाँ सब कुछ विदेशी है। भारतीय और भारतीयता वहाँ दूसरे क्रम पर आती है। मेरे मन में इस्कान मन्दिर की छवि में विदेशी भक्तों/भक्तिनों की प्रचुर उपस्थिति, प्राधान्य और देसी समाज के प्रति उपेक्षाभरा बर्ताव ही बन हुआ रहा।
सुबह लगभग साढ़े नौ बजे हम मन्दिर पहुँचे तो वहाँ ऐसा कुछ भी नहीं पाया जैसा मैं मन में लेकर गया था। पूरा मण्डप खाली था। दस-बारह स्त्री-पुरुष भक्त मौजूद थे। कोई साष्टांग दण्डवत मुद्रा में था, कोई सुमरिनी में माला जप रहा तो कोई ध्यान मग्न था। कोई भी आपस में बतिया नहीं रहा था। सब अपने में और अपने काम में मगन। ‘विदेशी’ के नाम कुल जमा एक महिला थी जिसे बहुत ध्यान से देखने पर ही मालूम हो पा रहा था कि वह विदेशी है। गेरुआ वस्त्रों में कुछ पण्डित किस्म के नौजवान और अधेड़ इधर-उधर आते-जाते दिखे। सब किसी न किसी काम में व्यस्त। फुरसत में बैठा कोई नहीं मिला।
जिस बात ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया वह थी वहाँ की ध्वनि व्यवस्था। विशाल मण्डप में, आमने-सामने की दीवारों पर कुल-जमा आठ स्पीकर लगे हुए थे - प्रत्येक दीवाल पर चार-चार। बंगाली संगीत प्रभाववाले, ‘हरे रामा, हरे कृष्णा’ की पहचान जतानेवाले भजन बज तो रहे थे किन्तु आवाज इतनी मद्धिम कि भजनों के बोल सुनने-समझने के लिए शरीर के रोम-रोम को कान बनाना पड़ जाए। इतनी धीमी और मन्द ध्वनि मानो कोसों दूर, किसी गाँव मे हो रहे जलसे की रेकार्डिंग की आवाज आ रही हो। मुझे भजन का एक भी शब्द समझ नहीं आ रहा था किन्तु इससे रचा वातावरण जो शान्ति, जो आनन्दानुभूति दे रहा था वह मेरे लिए किसी स्वर्गीय सुख से कम नहीं थी। भजनों की रेकार्डिंग इतनी सुखदायी और मन को ठण्डक देनेवाली भी हो सकती है, यह मुझे पहली बार ही अनुभव हुआ।
इस व्यवस्था से उपजी मेरी प्रसन्नता का अनुमान आप इसी से लगा सकते हैं कि यहाँ मैं देव-मूर्तियों की, उनकी दिव्यता-भव्यता की, उनके समृद्ध श्रृंगार की, मन्दिर की भव्यता-सुन्दरता, किसी की भी चर्चा नहीं कर पा रहा हूँ। मुझे सचमुच में बड़ी खुशी है कि उत्तर भारत के मन्दिरों को लेकर मेरी धारणा टूटी।
मन्दिरों को लेकर मेरी चिढ़ से भली प्रकार परिचित मेरी उत्तमार्द्ध ने थोड़ी ही देर में कहा - ‘चलिए। घर चलें।’ मेरे जवाब ने उन्हें चौंका दिया। मैंने कहा - ‘थोड़ी देर और बैठते हैं। अच्छा लग रहा है।’ वे खुश हो गईं। मुझमें आए इस परिवर्तन को उन्होंने निश्चय ही ‘प्रभु की देन’ समझा होगा और मन ही मन कहा होगा - ‘चलो! आखिरकार भगवान ने इस आदमी को कुछ तो अकल दे दी।’ मेरा जवाब सुनकर उन्होंने दुगुने भक्ति-भाव से मूर्तियों को प्रणाम किया।
काश! मन्दिरों के रख-रखाव और व्यवस्थाओं के बारे में हमारा पारम्परिक सनातनी समाज, इस्कान मन्दिरों से कोई सबक ले।
मैं इस मन्दिर में फिर जाना चाहूँगा।
-----
आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे airagivishnu@gmail.comपर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।
यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें। यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें। मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.भ्रष्टाचार: परछाई पर प्रहार
मेरे कस्बे के पास करमदी नामका एक गाँव है। अखबारों के अनुसार यहाँ ‘करमदी विकास समिति’ के नामसे एक समिति काम कर रही है। समिति की विशेषता यह है कि इसमें जितने लोग करमदी के हैं उनसे यदि ज्यादा नहीं तो कम भी नहीं, करमदी से बाहर के लोग सदस्य हैं। शायद करमदी के लोगों में इतनी सूझ-समझ-क्षमता नहीं रही होगी कि वे अपने गाँव के विकास के बारे में समुचित रूप से सोच-विचार सकें, काम कर सकें। इसीलिए बाहर के लोगों की आवश्यकता अनुभव हुई होगी।लेकिन इस समिति के काम को इसके नाम से जोड़ कर वैसी ही शुभ धारणा बनाना तनिक जल्दीबाजी होगी। शायद अविवेक भी। इस समिति ने मेरे कस्बे में (याने अपने गाँव से कुछ किलो मीटर दूर आने का विकट परिश्रम कर) 16 दिसम्बर से, ‘बड़े घोटालों के विरुद्ध, भ्रष्टाचार विरोधी मुहीम’ छेड़ी है। इसके तहत, जन सामान्य से, राष्ट्रपति को एक हजार पोस्ट कार्ड भिजवाए जाएँगे जिनमें यह जन भावना राष्ट्रपति तक पहुँचाई जएगी कि भ्रष्टाचार के इतने बड़े मामले सामने आने के बाद भी प्रधान मन्त्री द्वारा कोई कार्रवाई न करने से आम जनता त्रस्त है। यह रोचक और ध्यानाकर्षित करनेवाला संयोग है कि समिति के सारे के सारे सदस्य संघ और/या भाजपा से जुड़े हैं। जाहिर है कि समिति का यह अभियान ‘भ्रष्टाचार के विरुद्ध’ न होकर ‘केन्द्र की कांग्रेस नीत सरकार के भ्रष्टाचार’ के विरुद्ध है। यही इस देश का संकट है और इसी कारण मैं कह पा रहा हूँ कि भ्रष्टाचार से दुखी इस देश मे कोई भी भ्रष्टाचार समाप्त करने को उत्सुक नहीं है।
यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें। यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें। मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.
मास्टरों! दुर्दशा तो अभी बाकी है
आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे airagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।
यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें। यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें। मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.
जरूर आना मेरी शोक सभा में
यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।
यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें। यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें। मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.
कंचन को कसौटी से भय ?
कर्मचारियों की कमी का तर्क समझा और स्वीकारा भी जा सकता है। किन्तु इसे योग्यता से कैसे जोड़ा जा सकता है ? कर्मचारियों की कमी दूर करने के लिए आन्दोलन किया जा सकता है किन्तु उसका स्वरूप ऐसा हो कि आम लोगों को सजा न भुगतना पड़े। अभी हो यह रहा है कि कर्मचारियों को शिकायत तो होती है अधिकारियों से किन्तु इसकी सजा वे उस आम आदमी को देते हैं जो कर्मचारियों के वेतन का भुगतान करता है।
भ्रष्टाचार से अब किसी को परहेज नहीं रह गया है। यह तो अब ‘संस्था’ हो गया है। इसइिए कर्मचारियों की रिश्वतखोरी पर किसी को न तो शिकायत होती है और न ही अचरज। ये तो वैसे भी बहुत-बहुत छोटी मछलियाँ हैं। भारतीय मगरमच्छों के करिश्मे सारी दुनिया देख रही है। किन्तु जिस ‘आम आदमी’ के लिए आप बैठाए गए हैं वही आम आदमी आपके लिए प्रतीक्षा करे, आपके लिए चक्कर काटे, भिखारी की तरह आपके सामने गिड़गिड़ाए यह सब न तो शोभनीय है, न स्वीकार्य और न ही क्षम्य।
यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें। यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें। मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.