बालकवि बैरागी
(भारत-गर्व, प्रातःस्मरणीय श्रद्धेय पण्डित सूर्यनारायणजी व्यास के सुपुत्र हैं श्री राजशेखर व्यास।
‘प्रेम पत्र का साधारीकरण’ पढ़कर शेखर भाई ने, दादा श्री बालकवि बैरागी का यह आलेख मुझे भेजा। इसके साथ दिए जा रहे सारे चित्र भी उन्हीं ने भेजे हैं। यह एक अनूठा लेख है। इसे पढ़कर ही इसके अनूठेपन को अनुभव किया जा सकता है। इसमें, शिखर-व्यक्तित्वों के अज्ञात संकट-संघर्ष, उनकी जिजीविषा उजागर होती है, इन संकटों-संघर्षों से मिलनेवाला अमूल्य जीवन-पाथेय मिलता है, अपने श्रद्धेय के प्रति श्रद्धालु की महकती, छलछलाती आत्मीयता और माटी के एक कवि की, उपमाओं-अलंकारों से अटाटूट, मनमोहक भाषा की भेंट मिलती है।दादा श्री बालकवि बैरागी का, 16 जून 1991 को लिखा यह लेख, श्री राजशेखर व्यास द्वारा, अपने पिता पण्डित सूर्यनारायणजी व्यास पर केन्द्रित/सम्पादित पुस्तक ‘स्वाभिमान के सूर्य’ में संग्रहित है और (शेखर भाई के कहे अनुसार) अनेक अख़बारों में प्रकाशित हो चुका है।)
समाचार पत्र कह रहे हैं कि अवन्तिका-उज्जयिनी के लोक प्रसिद्ध हरसिद्धि मन्दिर के सिद्ध-तन्त्र को समय और वर्षा ने धुँधला कर दिया है। अब उसकी तन्त्र भाषा पढ़ने में नहीं आती है। काल के क्रूर थपेड़ों से उस महायन्त्र को बचाने की किसी को चिन्ता नहीं है। तन्त्र और मन्त्र के जानकार इस स्थिति पर चिन्ता व्यक्त कर रहे हैं। चिन्ता यहाँ तक है कि इस स्थिति का असर हरसिद्धि के उपासकों की श्रद्धा पर बहुत विषम पड़ेगा और मन्दिर पर अपनी तन्त्र साधना करने वालों को झटका लगेगा। अवन्तिका का हरसिद्धि मन्दिर देश का सुपरिचित और लोकमान्य तन्त्र साधना का सिद्धपीठ है।
इस समाचार को आज से एक युग पहले मैं पढ़ लेता तो आश्वस्त होकर केवल एक पोस्ट कार्ड लिख देता या अधिकाधिक एक फोन कर देता और सारी चिन्ताएँ दूर हो जातीं। पर आज वैसा नहीं हो सकता है। उस छोर पर वह वाचस्पति व्यंितव ही अनुपस्थित है जिसे हम लोग अपनी चिन्ताएँ सौंप कर निश्चिन्त हो सकते थे।
इस एक युग ने उज्जयिनी से कितना कुछ छीन लिया है? विचित्र है रत्नगर्भा का यह चरित्र! पहले वह रत्नों को प्रस्तुत करती है फिर अपनी गोद में सदा-सदा के लिए सुला भी लेती है। कितना प्राणलेवा है उसका यह लेन-देन! भगवान जाने, पहले वह देती है कि लेती है? प्रचलित मुहावरा है लेन-देन हो न हो, पहले वह लेती होगी फिर देती होगी। भारतीय दर्शन का पुनर्जन्म सिद्धान्त अपने चक्र को कहाँ से शुरु करता है यह आज तक किसी की समझ में नहीं आया।
इसी चक्र ने हमसे वापस ले लिया है भारती भवन का भुवन भास्कर व्यंितव पं. सूर्यनारायण जी व्यास जैसा महाप्राण व्यक्ति। यदि मैं संस्मरणों पर जाऊँगा तो पृष्ठ दर पृष्ठ फैलते चले जाएँगे। हम लोग सम्मान के साथ उन्हें ‘दा साहब’ के सम्बोधन से सम्बोधित करते थे। बात हमसे वे चाहे एक पल ही करते थे या कि एक घण्टे, बोलते ‘मालवी’ में ही थे। मुझे खूब अच्छी तरह याद पड़ती है एक विशेष बात, मेरे आसपास कुल मिलाकर केवल चार, मात्र चार ही महानुभाव ऐसे हुए जिन्होंने अपने पतों में कभी अपने शहर के आगे अपने प्रदेश का नाम ‘मध्य प्रदेश’ या ‘राजस्थान’ नहीं लिखा। आपकी जानकारी के लिए इन चारों नामों को देना मैं
अपना विनम्र कर्तव्य मानता हूँ। एक तो हैं पं. सूर्यनारायण जी व्यास, सदैव के ‘उज्जयिनी’ के आगे सदैव ‘मालवा’ ही लिखते थे। दूसरे हुए पं. श्री गणेश दत्त जी शर्मा ‘इन्द्र’। हमेशा अपने शहर आगर के बाद कोष्टक में ‘मालवा’ लिख कर गर्वित होते थे। तीसरे रहे हमारे सीतामऊ के महाराजकुमार डॉ. श्री रघुबीर सिंह जी। अपने मोतियों जैसे बड़े-बड़े अक्षरों में लिखते थे ‘सीतामऊ’, ‘मालवा’। और चौथे हुए राजस्थान, ‘प्रतापगढ़’ के महान् उपन्यासकार और लेखक श्री परदेशी। उन्होंने ‘प्रतापगढ़’ के आगे कभी ’राजस्थान’ नहीं लिखा। हमेशा ‘प्रतापगढ़’ ‘मालवा’ ही लिखते रहे। ‘मालवा’ और ‘मालवी’ के लिए इन चारों के आग्रह अपनी-अपनी जगह बहुत ही आत्मीय और ऐतिहासिक बने रहे। आज चारों हमारे बीच में नहीं हैं। महाकाल ने अपनी चतुरंगिणी ध्वज वाहिनी में इन चारों को शामिल कर लिया है। पता नहीं हमारे बाद वाले हमारे उत्तराधिकारी परिजन इन लोगों को किस तरह याद करेंगे।
बहुत याद आते हैं ‘दा’ साहब! कितने चतुर निकले वे अपना पुण्य दिवस चुनने के मामले में? 22 जून, यह माह मालवा में सम्मोहन और मांसल मादकता से भरपूर ‘कामिनी’ हवाओं के चलने का होता है। नीम की निम्बोरियाँ पकने टपकने को होती हैं। पौ फटने के प्रथम प्रहर में कोयल की. कुहू-कुहू पूरे मालवा को मस्ती से भर देती है। पानी भरती पनिहारिनें, रसाल आम की किस्मों पर बहस करती अपनी हमजोलियों से चुहलों में अनंग-प्रसंग उभारती खिलखिलाती, अपनी सुहाग चूड़ियों को खनकाती मिलती हैं, गौ वत्स कुलाँचें भरते खेतों की मेंड़ों पर भागते रहते हैं। जेठ की तपती दोपहरी के गर्भ में आषाढ़ का पहला बादल साँस लेता स्पष्ट आभासित होता है। किसान अगले संवत्सर का गणित बैठाता यहाँ-वहाँ भागता रहता है। बहिन-बेटियाँ मन-ही-मन राखी के दिन गिनने लग जाती हैं। माँ क्षिप्रा अपने तटों और घाटों से दूर भागते पानी को ललचाकर पुकारने लगती है। कुछ-कुछ ऐसा ही होता है मालवा में जून का महीना। महाकवि कालिदास ने ‘ऋतुसंहार’ में ग्रीष्म का जो रम्य अनुगायन किया है उसका जोड़ विश्व के साहित्य में कहाँ मिल सकेगा! ‘दा’ साहब ने यही समय चुना अपनी चिर बिदा का। हँसता-गाता मालवा छोड़ कर महाकाल के जा रथ में जा बैठे। हम लोग उस रथ के पहियों की धूल को आज तक अपनी आँखों में महसूस कर रहे हैं। न आँसू पोंछ पाये न आँखें ही मसल पाये। पीछे अवाक् खड़े आज तक अनन्त क्षितिज को निहारने की कोशिश में बस यही कल्पना कर रहे हैं कि शायद यह रथ वापस कभी लौटेगा। पर यह आशा कभी फलवती नहीं हुई।
अपनी प्रातःकालीन चर्या से निवृत होकर ‘दा’ साहब जब भारती भवन के अपनेझरोखे में आकर बैठते थे तो लगता था कि सूरज अपने सारथि अणु को दिशा निर्देष देता हुआ अपने सात घोड़ों के रथ पर आरूढ़ हो गया है। भगवान भुवन भास्कर की जय यात्रा शायद इसी तरह शुरु होती होगी। शुभ्र धवल वस्त्र और सुनहरी फ्रेम का चश्मा, प्राणों को आर-पार बेधती उनको अनुभवी किन्तु अध्ययनशील आँखें, करीने से बढ़े हुए केश, और ताजा मालवी पान से रचे हुए होंठ, भगवान ने उन्हें भरापूरा शरीर और मजबूत कद-काठी तो दी ही थी, रास्ते चलते और आते-जाते लोग उन्हें झुक कर इस तरह प्रणाम करते निकलते थे मानो किसी मन्दिर के सामने से निकलने वाले श्रद्धालु अपने इष्ट प्रभु को या अपनी पूज्य देव-प्रतिमा को प्रणाम कर रहे हों। जिस पर उनकी नजर पड़ जाती वह निहाल हो जाता। कई-कई दिनों
तक वह अपने परिवेश से उस एक नजर का बखान करता रहता था। अपनी मेज पर बैठे वे या तो लिखते रहते थे या फिर पढ़ते दिखाई देते थे। प्रायः ऐसा भी हुआ है कि पूर्व निर्धारित समय के कारण उनसे मिलने वाले लोग भी उनके सामने बैठे मिलते। अपनी जिज्ञासाओं का उत्तर लेते या फिर अपनी ज्ञान-पिपासा का शमन करते प्रतीत होते थे। ‘दा’ साहब के उत्तर साधिकार और प्रामाणिक होते थे। उनका वचन, ‘शास्त्र-वचन’ माना जाता था। उनके माता-पिता ने उनका नाम बहुत सोच-समझ कर रखा होगा। वे ‘सूर्य’ भी थे और ‘नारायण’ भी। सूर्य अपनी जगह अटल, अविचल और अनासक्त है। उसका काम है स्वयं को अपनी ही ऊर्जा से दीप्त रखना। जो भी उसको सीमाओं में आ जाए, उसे रोशनी देना। फिर, वे ‘नारायण’ भी थे। नर रूप में लोग उन्हें ‘नारायण’ भी पाते थे। आशीर्वाद देने का अधिकार उन्हें जन्म से तो मिला ही था। यद्यपि वे श्रेष्ठ ब्राह्मण कुल के कुल दीपक थे। किन्तु उन्होंने अपनी तपस्या से भी इस अधिकार को अर्जित किया था। वे विसर्जित हो गए तब तक उनका यह अर्जन बराबर चलता रहा। एक पल और एक दिन भी वे निठल्ले या निष्क्रिय नहीं रहे। आज यदि संसार-भर में उनका पत्राचार ही ढूँढ़ लिया जाए तो हजारों पृष्ठों की सामग्री एकत्र हो सकती है। पर उनके पत्र कौन दे? अमूल्य निधि जो हो गए हैं वे पत्र!
पत्रों को लेकर एक बहुत ही विचित्र किन्तु विनोदपूर्ण प्रसंग मैं आज तक नहीं भूला हूँ। उनके झरोखे में हम लोग बैठे हुए थे। अपने निर्धारित समय पर एक सज्जन उनसे मिलने आए। बहुत ही परेशान और करीब-करीब उद्विग्न। हम लोग उठ कर चलने को हुए। ‘दा’ साहब ने हमें रोका, फिर बैठा लिया। उन सज्जन से बात शरु हुई। अनुमान था कि शायद वे अपनी या अपने किसी परिजन को गृहदशा पर ‘दा’ साहब से कुछ पूछताछ करेंगे। सम्भवतः किसी बड़े आदमी की जन्म कुण्डली जेब से निकालेंगे या फिर हो न हो, ज्योतिष का कोई रहस्य जानने की जिज्ञासा उन्हें भारती भवन तक ले आई होगी। पर वैसा कुछ नहीं हुआ।
‘दा’ साहब ने जब हम लोगों की उपस्थिति से उन्हें आश्वस्त कर दिया तो उन्होंने अपनी जेब से दस-बारह पत्र निकाले-कुछ पोस्ट कार्ड, कुछ लिफाफे और कुछ अन्तर्देशीय जैसे पत्र। ‘दा’ साहब को सौंपते हुए उन्होंने माथे पर रूमाल रगड़ा और लम्बी साँस छोड़कर पूछा, ‘पण्डितजी! मैं क्या करूँ?’ दा साहब ने एक-दो पत्रों को सरसरी नजर से पढ़ा और पहले तो हल्के से मुस्कराए फिर खिलखिला कर हँस दिए। फिर अपनी टेबल की दराज को खींचा। उसमें से दो-तीन पत्र अपने नाम पर आए हुए निकाले और उन सज्जन कोे थमा दिए। उन सज्जन ने वे पत्र गहराई से पढ़ेे, ‘दा’ साहब की ओर भेद-भरी दृष्टि से देखा फिर हम लोगों को देखा और मुँह लटका कर वे पत्र ‘दा’ साहब का लौटा दिये। इस बीच ‘दा’ साहब ने भी वे सारे पत्र उन सज्जन को लौटा दिये जो कि उन्होंने ‘दा’ साहब को दिये थे।
वातावरण बोझिल और रहस्यमय हो चला था। हम लोग इस तरह प्रतीक्षारत थे मानो कोई परीक्षाफल प्रकट होने वाला हो। वे सज्जन फिर बोले, ‘पण्डितजी! रोज न एक ऐसा गालियों-भरा गुमनाम पत्र मुझे मिलता है। कभी वह बच्चों को मिलता है, कभी बहू को, कभी पत्नी को। मैं घर जाता हूँ तब तक उस पत्र को सारा परिवार पढ़ चुका होता है। परिवार में तनाव और अपमानजनक मानसिकता बनी रहती है। कुछ सुझाइयेगा कि मैं क्या करूँ?’ ‘दा’ साहब रंच मात्र भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने सहज पूछा, ‘आपने मेरे दिए हुए पत्र पढ़े? क्या वे आपको मिले पत्रों से किसी कदर कमतर हैं? मैंने इस तरह के पत्र मिलने के बाद क्या किया? जो मैंने किया वही आप भी कीजिए।’ वे उन सज्जन से बोले, ‘ठहाका लगाइये और ऐसे पत्र लिखने वाले को माफ कर दीजिएगा। भगवान को धन्यवाद दीजिएगा कि उसने आपको इतना ईर्ष्यास्पद जीवन दिया कि कोई-न-कोई, कहीं-न-कहीं आपसे जल-भुन रहा है। यह आपके जीवन की सफलता है।’ फिर अपने विनोद को सहजते हुए बोले, ‘आपको पता है इस तरह के गुमनाम पत्र कौन लिखता है?’ तब तक वातावरण सहज हो आया था।
वे सज्जन चुप थे। हम सभी चुप थे। ‘दा’ साहब खुद ही बोले, ‘इसका उत्तर मेरी गरिमा के नीचे जैसा लगेगा। पर मैं बता देता हूँ। ऐसे गुमनाम पत्र वे लोग लिखते हैं जिनको अपनी माँ का तो पता होता है पर अपने जन्मदाता पिता का पता नहीं होता। जिनका बाप गुमनाम, उनका पत्र गुमनाम।’ और उस झरोखे में जो ठहाका लगा तो एक पल को रास्ता चलते लोग भी ठहर गए। ‘दा’ साहब ने एक-एक पान की गिलौरी हम सभी को थमाई और उन सज्जन से कहा, ‘तनाव मुक्त होकर जीने की कोशिश कीजिए। जाइए! भगवान महाकाल का दर्शन करके अपना कामकाज कीजिए।’ चरण स्पर्श करके वे सज्जन चल पड़े।
उनके जाने के बाद ‘दा’ साहब ने उनके पास आए वे पत्र हमें भी पढ़ने को दिये। बहुत गलीज और गन्दे शब्दों में किसी ने ‘दा’ साहब को न जाने क्या-क्या लिखा था। मैं जरा-सा चकित हुआ तो ‘दा’ साहब ने समझाया, ‘क्या लोग पहाड़ पर मल विसर्जन नहीं करते?अपनी गन्दगी नहीं उलीचते? अगर पहाड़ बने हो तो यह सब सहना पड़ेगा।’ सामने बहती हुई क्षिप्रा की ओर संकेत करते हुए उन्होंने प्रति प्रश्न किया, ‘सारी उज्जयिनी की गन्दगी यह माता अपनी छाती पर ढोती है या नहीं? पूज्य बने रहने के लिए न जाने क्या-क्या सहना पड़ता है!’
मुझे खूब याद है, वे जब झरोखे में बैठते थे तो उनका मुँह क्षिप्रा की ओर रहता था। सामने हरसिद्धि का दिव्य मन्दिर और क्षिप्रा का क्षिप्र प्रवाह। शहर की ओर पीठ। महाकाल का विग्रह उनके बाएँ और दाहिने खुला जनपथ। पर, जब झरोखे से उठ कर वे भीतर वाली बैठक में बैठते थे तो सारी दिशाएँ बदल जाती थीं। ठीक झरोखे की विपरीत स्थिति। इस स्थिति को वे यदाकदा विस्तार से समझाते थे वह अलग से लिखने का मामला है।
राजस्थान के भ्रमण में एक ज्योतिषियों से भरपूरे शहर में एक प्रख्यात ज्योतिषी ने मुझसे जो कुछ कहा, वह रोमांचकारी है। उनका कहना था, ‘हम लोग उसे ज्योतिषी ही नहीं मानते जिसकी पूजा और बैठक में पण्डित सूर्यनारायण जी व्यास का चित्र नहीं हो।’ यह बात उस दिन नए सिरे से रेखांकित हो गई जब कि ठेठ गंगा किनारे रुड़की शहर में एक मित्र ज्योतिषी ने अपनी पूजा के लिए खुद मुझसे ही ‘दा’ साहब का चित्र माँग लिया।
पता नहीं महाकाल ने हमसे कितना कुछ ले लिया है और रत्नगर्भा हमें कितना क्या दे देगी? इसे आप लेन-देन कहेंगे या देन-लेन?