आज वे आए और तीन साल पहलेवाली बात याद दिलाई तो याद आई। याद आई ही नहीं, जाते-जाते वे जो कह गए, सुनकर अच्छा तो लगा ही, आत्म सन्तोष भी हुआ।
वे मेरे कस्बे के अग्रणी व्यापारी हैं। एकदम ठीक-ठीक तो नहीं मालूम किन्तु विश्वास है कि कस्बे के पहले दस व्यापारियों में उनका नाम आता ही होगा। उनसे ऐसा और इतना परिचय है कि महीने-दो महीने में उनके यहाँ चला जाता हूँ। दस-बीस मिनिट की गप्प-गोष्ठी कर, उनके साथ एक प्याला चाय पीकर चला आता हूँ। वे मुझसे बीमा लेते नहीं और उनका जो व्यापार है उसमें मेरे खरीदने जैसा कुछ नहीं। सो, हमारा मिलना-जुलाना सच्चे अर्थों में मिलना-जुलना ही है। हमारे इन सम्बन्धों के लिए मेरे पास कोई नाम या सम्बोधन नहीं है। बस, मुझे उनके यहाँ जाना अच्छा लगता है और मेरा पहुँचना उन्हें बुरा नहीं लगता।
तीन साल पहले हुई गप्प गोष्ठी में बात उठी थी कि विभिन्न सरकारी विभागों के अधिकारियों/कर्मचारियों की माँगें पूरी करने के लिए उन्हें न केवल काफी-कुछ खर्च करना पड़ता है अपितु इस हेतु व्यवस्थाएँ करने के लिए काफी-कुछ भाग-दौड़ भी करनी पड़ती है। यह भाग-दौड़ कभी उनके कर्मचारियों को करनी पड़ती है तो कभी खुद उन्हें। उन्हें खर्च का कष्ट कम था, व्यवस्थाओं हेतु की जानेवाली भाग-दौड़ पर और उसमें लगने वाले मानव-श्रम और समय पर कष्ट अधिक था। उन्हें तन-मन-धन से अधिकारियों/कर्मचारियों के लिए खटना पड़ता था। मैंने पूछा था - ‘ऐसी भी क्या मजबूरी है?’ उन्होंने जवाब दिया था - ‘क्या करें? करना पड़ता है। नम्बर दो का धन्धा जो करते हैं!’
बातों-बातों में बात इस मुकाम पर आ गई कि जरा देखें तो कि दो नम्बर के धन्धे से होनेवाली आय और अधिकारियों/कर्मचारियों की माँगें पूरी करने के लिए लगने वाले ‘तन-मन-धन’ के सकल खर्च में कितना अन्तर है? गिनती करने में उन्हें ज्यादा समय नहीं लगा। लेकिन इससे भी कम समय लगा उन्हें हैरान होने में। इस आय-व्यय में अन्तर इतना बड़ा नहीं था कि कोई व्यापारी खुश हो सके और सारा खटकरम जारी रखने को ललचाए। उन्होंने माथा ठोकते हुए खुद को कोसा था - ‘कमाल है? यह बात मेरी समझ में अब तक क्यों नहीं आई? यह तो व्यापार नहीं, सरासर बेवकूफी है!’
वह पल और उस पल में लिए अपने निर्णय के परिणाम की जानकारी देने ही वे आज आए थे।
जैसा कि उन्होंने बताया - उसी क्षण से उन्होंने तय कर लिया कि ‘अब नम्बर दो खतम करना है।’ लेकिन एक झटके में करना सम्भव अनुभव नहीं हुआ। सो, इन तीन बरसों में वे अपने व्यापार को, धीरे-धीरे इस मुकाम पर ले आए कि नम्बर दो उतना ही रह गया जितना रखना मजबूरी था। उनके मुताबिक तीन साल पहले उनके धन्धे में एक नम्बर और दो नम्बर का अनुपात 60:40 का था। इस साल, 31 मार्च को यह अनुपात 95:05 रह गया। इसका असर यह हुआ कि सरकारी अधिकारियों/कर्मचारियों की, समय-असमय की माँगें भी इसी अनुपात मे कम हो गईं। व्यापार के और चुकाए गए टैक्स के आँकड़े अपने आप ही सारी कहानी कहने लगे। अधिकारियों/कर्मचारियों ने इनकी ओर देखना ही बन्द कर दिया। पहले, जहाँ प्रतिदिन दस-पाँच सरकारी लोग, मुँह उठाए आ जाते थे वहीं अब, दस-पाँच दिनों में भी शायद ही कोई आता हो।
उन्होंने बड़े पते की बात कही। बोले - ‘‘भुगतान तो अभी भी मैं उतना ही करता हूँ लेकिन बड़ा फर्क आ गया। पहले अफसरों-कर्मचारियों को (सीधे उन्हें व्यक्तिगत स्तर पर या उनकी माँगें पूरी करने के लिए की जानेवाली व्यवस्थाओं पर) भुगतान करता था। अब लगभग सारा का सारा भुगतान सरकार को करता हूँ। मुझे तो उतना ही मिल रहा है जितना पहले मिल रहा था। किन्तु फर्क यह आया है कि अब जब भी मैं किसी दफ्तर में जाता हूँ तो मेरी आत्मा पर कोई बोझ नहीं होता, कोई अपराध बोध आत्मा पर हावी नहीं रहता। उल्टे, मेरी नजरें और गर्दन सीधी रहने लगी। वहाँ लोगों की नजरों में और बात करने के तरीकों में बड़ा फर्क आ गया। पहले, मुझसे कम उम्र के कर्मचारी भी मुझसे घटिया मजाक कर लिया करते थे। अब कर्मचारियों की छोड़िए, उनके अफसर भी इज्जत से बात करते हैं।
‘‘इनकम टैक्स और सैल्स टैक्स के अफसरों से मैंने शिकायत की कि उन्होंने मेरी पेढ़ी पर आना क्यों बन्द कर दिया तो बोले - ‘अब आकर क्या करें। आपने सब कुछ तो रेग्युलराइज कर लिया। हमारे लिए तो कुछ रखा ही नहीं।’
‘‘अफसरों की ऐसी बातें सुनकर मुझे अच्छा लगता है। पहले मैं दबी आवाज में बात किया करता था। अब खुलकर बात करता हूँ। ऐसा लगता है मानो बाजी ही पलट गई है।
‘‘इस सबके पीछे आप ही हो। आपके साथ गप्प-गोष्ठी में खर्च किया गया वक्त और आपको पिलाई गई चाय मुझे इतना ‘मुनाफा’ देगी, यह तो मैंने कभी नहीं सोचा था। मेरे नगदी मुनाफे में तो पाई भर की कमी नहीं हुई उल्टे, सरकारी दफ्तरों मे जो व्यवहार पाया और बेफिक्री की जो नींद मिली, वह सब इतना बड़ा मुनाफा है कि उसकी गिनती करना मेरे लिए मुमकिन नहीं है।’’
प्रशंसा किसे अच्छी नहीं लगती? देवता भी इसकी लिप्सा से मुक्त नहीं हो पाते। मैं तो सामान्य मनुष्य हूँ - कमजोरियों का पुतला! भला अपनी प्रशंसा मुझे अच्छी क्यों नहीं लगती? सो, मुझे गुदगुदी होने लगी। किन्तु इसके समानान्तर संकोच भी हो आया। ऐसी बातें करना तो मेरी आदत है। जहाँ जाता हूँ, ऐसे ही उपदेश झाड़ता रहता हूँ। लोग भलमनसाहत और शराफत में, लिहाज पालते हुए, कुछ नहीं कहते। चुपचाप सुन लेते हैं। यदि कुछ किया है तो ‘इन्होंने’ ही किया। ये भी एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकाल देते तो मैं क्या कर लेता? साधुवाद के पात्र तो ‘ये’ ही हैं जिन्होंने ‘हानि-लाभ के अन्तर के मर्म’ को समझा और ऐसा साहसी, प्रशंसनीय, अनुकरणीय निर्णय ले, उस पर अमल भी किया।
मैंने उन्हें बधाई दी और कहा कि जहाँ भी अवसर मिले, वे अपने इस अनुभव को अधिकाधिक लोगों से साझा करें। लोग उपदेशों की अनदेखी, अनसुनी कर देंगे किन्तु उनकी आपबीती की अनदेखी, अनसुनी नहीं कर सकेंगे। क्या पता, उनकी ही तरह किसी और को नफा-नुकसान की गिनती करने का यह तरीका पसन्द आ जाए और वह भी उनकी जमात में शामिल हो जाए?
वे, मेरी बात मानने का वादा कर गए हैं। इस मामले में मुझे अपने आप से ज्यादा उन पर विश्वास है कि वे अपना यह वादा तो निभाएँगे ही निभाएँगे।