मुनाफा : जिसकी गिनती नहीं की जा सकी

आज वे आए और तीन साल पहलेवाली बात याद दिलाई तो याद आई। याद आई ही नहीं, जाते-जाते वे जो कह गए, सुनकर अच्छा तो लगा ही, आत्म सन्तोष भी हुआ।

वे मेरे कस्बे के अग्रणी व्यापारी हैं। एकदम ठीक-ठीक तो नहीं मालूम किन्तु विश्वास है कि कस्बे के पहले दस व्यापारियों में उनका नाम आता ही होगा। उनसे ऐसा और इतना परिचय है कि महीने-दो महीने में उनके यहाँ चला जाता हूँ। दस-बीस मिनिट की गप्प-गोष्ठी कर, उनके साथ एक प्याला चाय पीकर चला आता हूँ। वे मुझसे बीमा लेते नहीं और उनका जो व्यापार है उसमें मेरे खरीदने जैसा कुछ नहीं। सो, हमारा मिलना-जुलाना सच्चे अर्थों में मिलना-जुलना ही है। हमारे इन सम्बन्धों के लिए मेरे पास कोई नाम या सम्बोधन नहीं है। बस, मुझे उनके यहाँ जाना अच्छा लगता है और मेरा पहुँचना उन्हें बुरा नहीं लगता।

तीन साल पहले हुई गप्प गोष्ठी में बात उठी थी कि विभिन्न सरकारी विभागों के अधिकारियों/कर्मचारियों की माँगें पूरी करने के लिए उन्हें न केवल काफी-कुछ खर्च करना पड़ता है अपितु इस हेतु व्यवस्थाएँ करने के लिए काफी-कुछ भाग-दौड़ भी करनी पड़ती है। यह भाग-दौड़ कभी उनके कर्मचारियों को करनी पड़ती है तो कभी खुद उन्हें। उन्हें खर्च का कष्ट कम था, व्यवस्थाओं हेतु की जानेवाली भाग-दौड़ पर और उसमें लगने वाले मानव-श्रम और समय पर कष्ट अधिक था। उन्हें तन-मन-धन से अधिकारियों/कर्मचारियों के लिए खटना पड़ता था। मैंने पूछा था - ‘ऐसी भी क्या मजबूरी है?’ उन्होंने जवाब दिया था - ‘क्या करें? करना पड़ता है। नम्बर दो का धन्धा जो करते हैं!’

बातों-बातों में बात इस मुकाम पर आ गई कि जरा देखें तो कि दो नम्बर के धन्धे से होनेवाली आय और अधिकारियों/कर्मचारियों की माँगें पूरी करने के लिए लगने वाले ‘तन-मन-धन’ के सकल खर्च में कितना अन्तर है? गिनती करने में उन्हें ज्यादा समय नहीं लगा। लेकिन इससे भी कम समय लगा उन्हें हैरान होने में। इस आय-व्यय में अन्तर इतना बड़ा नहीं था कि कोई व्यापारी खुश हो सके और सारा खटकरम जारी रखने को ललचाए। उन्होंने माथा ठोकते हुए खुद को कोसा था - ‘कमाल है? यह बात मेरी समझ में अब तक क्यों नहीं आई? यह तो व्यापार नहीं, सरासर बेवकूफी है!’

वह पल और उस पल में लिए अपने निर्णय के परिणाम की जानकारी देने ही वे आज आए थे।

जैसा कि उन्होंने बताया - उसी क्षण से उन्होंने तय कर लिया कि ‘अब नम्बर दो खतम करना है।’ लेकिन एक झटके में करना सम्भव अनुभव नहीं हुआ। सो, इन तीन बरसों में वे अपने व्यापार को, धीरे-धीरे इस मुकाम पर ले आए कि नम्बर दो उतना ही रह गया जितना रखना मजबूरी था। उनके मुताबिक तीन साल पहले उनके धन्धे में एक नम्बर और दो नम्बर का अनुपात 60:40 का था। इस साल, 31 मार्च को यह अनुपात 95:05 रह गया। इसका असर यह हुआ कि सरकारी अधिकारियों/कर्मचारियों की, समय-असमय की माँगें भी इसी अनुपात मे कम हो गईं। व्यापार के और चुकाए गए टैक्स के आँकड़े अपने आप ही सारी कहानी कहने लगे। अधिकारियों/कर्मचारियों ने इनकी ओर देखना ही बन्द कर दिया। पहले, जहाँ प्रतिदिन दस-पाँच सरकारी लोग, मुँह उठाए आ जाते थे वहीं अब, दस-पाँच दिनों में भी शायद ही कोई आता हो।

उन्होंने बड़े पते की बात कही। बोले - ‘‘भुगतान तो अभी भी मैं उतना ही करता हूँ लेकिन बड़ा फर्क आ गया। पहले अफसरों-कर्मचारियों को (सीधे उन्हें व्यक्तिगत स्तर पर या उनकी माँगें पूरी करने के लिए की जानेवाली व्यवस्थाओं पर) भुगतान करता था। अब लगभग सारा का सारा भुगतान सरकार को करता हूँ। मुझे तो उतना ही मिल रहा है जितना पहले मिल रहा था। किन्तु फर्क यह आया है कि अब जब भी मैं किसी दफ्तर में जाता हूँ तो मेरी आत्मा पर कोई बोझ नहीं होता, कोई अपराध बोध आत्मा पर हावी नहीं रहता। उल्टे, मेरी नजरें और गर्दन सीधी रहने लगी। वहाँ लोगों की नजरों में और बात करने के तरीकों में बड़ा फर्क आ गया। पहले, मुझसे कम उम्र के कर्मचारी भी मुझसे घटिया मजाक कर लिया करते थे। अब कर्मचारियों की छोड़िए, उनके अफसर भी इज्जत से बात करते हैं।

‘‘इनकम टैक्स और सैल्स टैक्स के अफसरों से मैंने शिकायत की कि उन्होंने मेरी पेढ़ी पर आना क्यों बन्द कर दिया तो बोले - ‘अब आकर क्या करें। आपने सब कुछ तो रेग्युलराइज कर लिया। हमारे लिए तो कुछ रखा ही नहीं।’

‘‘अफसरों की ऐसी बातें सुनकर मुझे अच्छा लगता है। पहले मैं दबी आवाज में बात किया करता था। अब खुलकर बात करता हूँ। ऐसा लगता है मानो बाजी ही पलट गई है।

‘‘इस सबके पीछे आप ही हो। आपके साथ गप्प-गोष्ठी में खर्च किया गया वक्त और आपको पिलाई गई चाय मुझे इतना ‘मुनाफा’ देगी, यह तो मैंने कभी नहीं सोचा था। मेरे नगदी मुनाफे में तो पाई भर की कमी नहीं हुई उल्टे, सरकारी दफ्तरों मे जो व्यवहार पाया और बेफिक्री की जो नींद मिली, वह सब इतना बड़ा मुनाफा है कि उसकी गिनती करना मेरे लिए मुमकिन नहीं है।’’

प्रशंसा किसे अच्छी नहीं लगती? देवता भी इसकी लिप्सा से मुक्त नहीं हो पाते। मैं तो सामान्य मनुष्य हूँ - कमजोरियों का पुतला! भला अपनी प्रशंसा मुझे अच्छी क्यों नहीं लगती? सो, मुझे गुदगुदी होने लगी। किन्तु इसके समानान्तर संकोच भी हो आया। ऐसी बातें करना तो मेरी आदत है। जहाँ जाता हूँ, ऐसे ही उपदेश झाड़ता रहता हूँ। लोग भलमनसाहत और शराफत में, लिहाज पालते हुए, कुछ नहीं कहते। चुपचाप सुन लेते हैं। यदि कुछ किया है तो ‘इन्होंने’ ही किया। ये भी एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकाल देते तो मैं क्या कर लेता? साधुवाद के पात्र तो ‘ये’ ही हैं जिन्होंने ‘हानि-लाभ के अन्तर के मर्म’ को समझा और ऐसा साहसी, प्रशंसनीय, अनुकरणीय निर्णय ले, उस पर अमल भी किया।

मैंने उन्हें बधाई दी और कहा कि जहाँ भी अवसर मिले, वे अपने इस अनुभव को अधिकाधिक लोगों से साझा करें। लोग उपदेशों की अनदेखी, अनसुनी कर देंगे किन्तु उनकी आपबीती की  अनदेखी, अनसुनी नहीं कर सकेंगे। क्या पता, उनकी ही तरह किसी और को नफा-नुकसान की गिनती करने का यह तरीका पसन्द आ जाए और वह भी उनकी जमात में शामिल हो जाए?

वे, मेरी बात मानने का वादा कर गए हैं। इस मामले में मुझे अपने आप से ज्यादा उन पर विश्वास है कि वे अपना यह वादा तो निभाएँगे ही निभाएँगे।

सेनापति : सरोजकुमार

आईने के सामने बैठते ही
चिड़िया
अपने प्रतिबिम्ब को
चोंच मारने लगी!

उसे बताया
कि वो तू ही है
दूसरी नहीं,
तेरी चोंच टूट जाएगी
फिर तू कैसे खाएगी
कैसे चहचहाएगी!

बोली, मैं नहीं
वो मुझे चोंच मार रही है
पहली चोंच उसने ही मारी थी,
मैं तो केवल
जवाब दे रही हूँ!

मैंने समझाया:
जवाबी चोंच मत मार
लड़ाई
अपने आप रुक जाएगी!

बोली:
ये बात किसी सेनापति से
कहला दे,
तो जानूँ!
तू तो कवि है
लड़ाई के मामले में
तेरी बात
क्यों मानूँ?
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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।

सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।

पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।

अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।

पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

बाँटने का सुख : उफ्! इतना?

‘बाँटने का सुख अवर्णनीय होता है।’ यह बात, कुछ बार लिखी, असंख्य बार कही और उससे कहीं अधिक बार सुनी। किन्तु इसे जाना आज ही। अभी-अभी।

गजल सम्राट जगजीत सिंह के जन्म दिन प्रसंग पर, ‘कलर्स’ चैनल ने आज दोपहर एक बजे एक कार्यक्रम प्रसारित किया। (यह कार्यक्रम, आज शाम सात बजे पुनर्प्रसारित होगा।) इसकी जानकारी मुझे दो दिन पहले ही हो चुकी थी। तय हो चुका था कि सारे काम छोड़ कर इसे देखेंगे। मुझे तो कुछ काम था नहीं, किन्तु उत्तमार्द्ध फुरसत में नहीं थी। उन्होंने दो काम एक साथ करने का निर्णय लिया। कार्यक्रम शुरु होने से पहले ही वे गेहूँ बीनने का बिखेरा कर, काम में लग गई थीं।

कार्यक्रम शुरु हुआ और पहले ही क्षण से मन मोहने लगा। कुछ इतना और ऐसे कि उत्तमार्द्ध के हाथ रुक गए और वे पसारा छोड़ कर कार्यक्रम देखने बैठ गईं। कुछ ही मिनिट हुए थे कि फोन घनघनाया। इन्दौर से धर्मेन्द्र रावल बोल रहा था। फोन कान से लगाते ही मुझे मालूम हो गया कि धर्मेन्द्र भी यह कार्यक्रम देख रहा है और हो न हो, यह कार्यक्रम देखने की कहने के लिए ही उसने फोन किया हो। उसने पूछा - ‘क्या कर रहे हो?’ मैंने कहा - ‘वही, जो करने की सिफारिश करने के लिए तुमने फोन किया है।’ वह खुश हो गया। मैं भी खुश हो गया कि मैंने उसके मन की बात भाँप ली थी। ‘चलो! पहले कार्यक्रम का आनन्द ले लें। बाद में बात करेंगे।’ कह कर हम दोनों ने फोन बन्द कर दिया।

फोन का चोंगा रखते ही मेरी ट्यूब लाइट चमकी - ‘जो नेक काम धर्मेन्द्र ने किया, वह मुझे क्यों नहीं सूझा?’ और मैं शुरु हो गया। जैसे-जैसे नाम याद आते गए, वैसे-वैसे मित्रों को फोन करने लगा। रतलाम और बाहर के कोई तीस-पैंतीस मित्रों को फोन किया। कुछ तो पहले से ही यह कार्यक्रम देख रहे थे किन्तु अधिकांश को मुझसे ही जानकारी मिली। इसी बीच यह सूचना मैंने फेस बुक पर भी दी। कोई पाँच-सात मित्रों ने नोटिस लिया। इनमें से भी कुछ पहले से ही देख रहे थे और कुछ ने, मेरी सूचना के बाद देखना शुरु किया।

किन्तु यह पोस्ट लिखने का सबब तो कार्यक्रम समाप्त होने के बाद बना। कार्यक्रम समाप्त होते ही एक के बाद एक, मित्रों के फोन आने लगे। मुझसे सूचना मिलने के बाद जिन्होंने कार्यक्रम देखा, उन सबके फोन आए। सब कार्यक्रम की प्रशंसा कर रहे थे और गद्गद भाव से धन्यवाद दे तो दे ही रहे थे, कह रहे थे - ‘मजा आ गया। आगे भी ऐसा ही करते रहना।’

मेरे रोंगटे खड़े हो गए। सूचना पानेवाले इतने खुश होंगे, यह तो मैंने सपने में भी नहीं सोचा था! मैंने किया ही क्या था? धर्मेन्द्र ने जो सूचना मुझे दी थी, वही तो मैंने आगे बढ़ाई थी? अपने घर में बैठे रहकर कुछ फोन ही तो किए थे? किन्तु सबको कितना सुख मिला? मेरी जेब से तो कुछ नहीं गया किन्तु मित्रों को कितना आनन्द आया? कितना सुख मिला? इसका कोई आर्थिक मूल्यांकन सम्भव है? कदापि नहीं। यह तो अगणनीय, अकल्पनीय, अवर्णनीय है - केवल अनुभव किया जा सकनेवाला।

मैं दूसरों के आनन्द का निमित्त बना - यह विचार ही मुझे झुरझुरी दे गया।

इतना कुछ कहने के बाद भी मुझे लग रहा है कि मेरी बात पूरी नहीं हो पा रही है।

बाँटने का सुख! उफ्! इतना?  

अलंकरण : सरोजकुमार

डिग्री को
तलवार की तरह घुमाते हुए
वह संग्राम में उतरा
वह काठ की सिद्ध हुई!

डिग्री को
नाव की तरह खेते हुए
वह नदी में उतरा
वह कागज की सिद्ध हुई!

डिग्री को
चेक की तरह सँभाले हुए
वह बैंक पहुँचा
वह हास्यास्पद सिद्ध हुई!

डिग्री को काँच में जड़वाकर
उसी दीवार पर उसने लटका दिया,
जिस पर शेर का मुँह
और हिरन के सींग टँगे थे
शोभा में, इजाफा करते हुए!
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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।

सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।

पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।

अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान (2010) आदि।

पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

चित्कार और हा!हा!कार नहीं, शुभ-कामनाओं का हर्षनाद



राष्ट्रकवि, स्वर्गीय मैथिलीशरण गुप्त ने, कोई सौ बरस पहले, अपनी कृति ‘भारत भारती’ में लिखा था -

‘हम कौन थे, क्या हो गए, और क्या होंगे अभी?
आओ विचारें आज मिल कर, ये समस्याएँ सभी।’

इन पंक्तियों को शुरु से ही भारतीय समाज की दशा-दुर्दशा से जोड़ा जाता रहा। आज भी जोड़ा जाता है। अभी-अभी एक भाष्य यह भी आया है कि गुप्तजी को अपने पाविारिक व्यापार में भयंकर घाटा हो गया था जिससे उपजी दशा को लेकर उन्होंने ये पंक्तियाँ रचीं थीं।

वास्तविकता या तो गुप्तजी जानें या भगवान किन्तु मुझे लगा, गुप्तजी ने ये पंक्तियाँ आज, 27 अप्रेल 2012 को, पूरे देश में मचे हा!हा!!कार और चित्कार को लेकर लिखी होंगी।

क्रिकेट के भगवान, सचिन तेन्दुलकर को, सरकार द्वारा राज्य सभा हेतु मनोनीत किए जाने की खबर आते ही पूरे देश में जो गगनभेदी चित्कार और हा!हा!!कार मचा, वह अनूठा और अभूतपूर्व तो था ही, कुछ सवाल भी खड़े कर गया। हम क्या हैं - दोमुँहे, पाखण्डी? अतिरेकी? आत्म-भ्रमित? अपनी और अपने नायकों की, ‘विवेकवान हो, निर्णय लेने की क्षमता’ के प्रति सन्देही? क्या हैं हम? हमें न तो खुद पर विश्वास रहा, न सचिन के विवेक पर और और न ही सरकार (या कि काँग्रेस) की नीयत पर।

संसद में दागी सदस्यों की दिन-प्रति-दिन बढ़ती संख्या को लेकर हम चिन्ता से दुबले हुए जा रहे हैं। चाहते हैं कि दागी लोग वहाँ नजर न आएँ। कुर्सियों पर भले लोग बैठे मिलें। किन्तु सचिन के मनोनयन पर बुक्का फाड़ कर रो-रो कर अन्ततः हम क्या साबित कर रहे हैं?

इस बात पर विश्वास करते हुए कि इस नामांकन के पीछे निश्चय ही सरकार (या कि काँग्रेस) के इरादे नेक नहीं हैं, या कि वह सचिन का राजनीतिक उपयोग करना चाह रही है या कि अपनी साख और विश्वसनीयता पर छाए घटाटोप से लोगों का ध्यान हटाना चाह रही है, इस बात पर तो खुश हुआ ही जाना चाहिए संसद में एक दागी कम नजर आएगा या कि एक भला आदमी अधिक नजर आएगा। सरकार (या कि काँग्रेस ने), दुराशयता से ही सही, फिलवक्त तो एक अच्छा काम किया ही है। क्या जरूरी है कि सरकार (या काँग्रेस) की मनोकामना पूरी हो ही जाएगी? पाँसा पलट भी तो सकता है?

पूरा देश भयाक्रान्त है - राजनीति सचिन को मटियामेट कर देगी। एक अच्छा भला आदमी, काम से चला जाएगा, दो कौड़ी का भी नहीं रह जाएगा। याने, हमें सचिन की बुद्धि पर, सचिन के विवेक पर, संयमित होकर, अपना भला-बुरा सोचकर निर्णय लेने की उनकी क्षमता पर रंच मात्र और पल भर भी विश्वास नहीं रह गया। अपनी उम्र के चालीसवें बरस में चल रहे, सारी दुनिया घूम चुके (कहिए कि घाट-घाट का पानी पी चुके), दुनिया भर में फैले करोड़ों-अरबों प्रशंसकों के नायक, अपने से बेहतर और दीर्घानुभवी, अपने-अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ, असंख्य लोगों के सम्पर्क में आए हुए, बरसों के वैवाहिक जीवन के अनुभवी, एक बच्चे के बाप, अनगिनत कम्पनियों के खरबों रुपयों के ’विपणन भविष्य’ (मार्केटिंग फ्यूचर) को अपने कन्धों पर ढो रहे सचिन की बुद्धि, विवेक और सामान्य समझ पर हमें तिल भर भी भरोसा नहीं रह गया है। हर कोई सचिन को इस तरह सलाह दे रहा है जैसे कि सचिन ने अभी छठी के दूध का स्वाद भी नहीं चखा हो। हर कोई सचिन की रक्षा करने में इस तरह जुट गया है मानो उसने ऐसा नहीं किया तो सचिन तो लुट ही जाएगा।

चलिए, मान लिया कि सचमुच में वैसा ही हो गया जैसी कि शंका की जा रही है - सचिन सरकार (या कि काँग्रेस) के षड़यन्त्र का शिकार हो ही जाएँगे। तो क्या सचिन के करोड़ांे-अरबों प्रशंसक भी, एक मुश्त ऐसे ही शिकार हो जाएँगे? क्या ये तमाम प्रशंसक ‘भेड़ों की रेवड़’ है जिसे, सचिन जैसा चाहेंगे वैसा हाँक लेंगे? यह खुशफहमी काँग्रेस को तो शायद नहीं होगी कि सचिन के तमाम प्रशंसक ‘काँग्रेस के वोट’ बन जाएँगे किन्तु हमें यह भय अवश्य हो गया है। हमें सचिन के प्रशंसकों के, न तो ‘सामूहिक विवेक’ पर विश्वास रह गया है न ही ‘व्यक्तिगत विवेक’ पर। हमने तो अन्तिम रूप से मान लिया है कि सब कुछ शब्दशः वैसा ही होगा जैसा सरकार (या कि काँग्रेस) ने सोचा है।

मुझे नहीं पता कि, ऐसे नामांकन के लिए सम्बन्धित व्यक्ति से सहमति पहले ली जाती है या बाद में। किन्तु स्थिति जो भी हो, हमे सचिन के विवेक पर, उनकी सामान्य समझ पर, निर्णय लेने की क्षमता पर विश्वास करना चाहिए। विश्वास करना चाहिए कि राजनीति के मौजूदा स्वरूप, चरित्र और प्रभाव से सचिन बेखबर नहीं होंगे। और कुछ हो न हो, उन्हें यह पता तो होगा ही वे अनेक कम्पनियों से, विज्ञापनों हेतु अनुबन्धित हैं और राजनीति के नकारात्मक प्रभावों से उनकी करोड़ों की कमाई में तेजी से, अच्छी-खासी कमी आ सकती है।

इस समय तक तो वे किसी पार्टी के सदस्य नहीं बने हैं। सचिन के सिवाय और कोई नहीं जानता कि अगले क्षण क्या होगा। किन्तु यदि सचिन राजनीति में जाने का निर्णय करते हैं, किसी पार्टी का सदस्य बनते हैं तो यह सब करने का अधिकार तो सचिन को है। अपने निर्णय के परिणाम (याने कि ‘कर्म-फल’) उन्हें भोगने-भुगतने पड़ेंगे ही। अपने-अपने स्तर पर हम सब यह कामना ही कर सकते हैं  कि वे उनकी नहीं, हमारी मनपसन्द पार्टी से जुड़ें। उनके अन्तिम निर्णय के बाद, अपने-अपने राजनीतिक रुझान के आधार पर हम सचिन के बारे में अपनी राय बनाने के लिए स्वतन्त्र हैं।

इस क्षण तो यह होना चाहिए कि पूरा देश सचिन को शुभ-कामनाएँ दे, हौसला बँधाए। उन्हें आश्वस्त करे कि उनके जैसे साफ-सुथरे, भले आदमी को संसद में देख कर पूरा देश प्रसन्न है। उनसे कहें कि वे निरपेक्ष और निर्भय होकर एक विवेकवान और जिम्मेदार सांसद की भूमिका इस तरह निभाएँ कि धन्धेबाज नेताओं की घिग्घी बँध जाए, उन्हें अपनी भूमिका पर, अपने संसदीय आचारण शर्म आने लगे, वे सब के सब, सचिन के रास्ते पर चलने लगें।

हम चाहते तो हैं कि संसद में भले लोग नजर आएँ किन्तु भले लोगों को वहाँ भेजने में हमारी न तो रुचि होती है और न ही कोई भूमिका। होना तो यह चाहिए कि हम भले आदमी को संसद में भेजें और यदि हम ऐसा न कर सकें और दैव योग से ऐसा हो रहा हो तो उस भले आदमी को वहाँ बने रहने में अपनी पूरी ताकत लगाएँ, उसे पूरी मदद करें - वह सारी मदद ताकि वह ‘जरूरतमन्द’ हो कर स्खलित न हो और ‘भला आदमी’ बना रहे।

आज तो हर्षनाद होना चाहिए - ‘जाओ! सचिन! निश्चिन्त होकर जाओ। हम जानते हैं कि इससे तुम्हारा क्रिकेट जीवन अवश्य ही प्रभावित होगा किन्तु तुम देश का भविष्य बनाने की ऐतिहासिक  और प्रेरक भूमिका निभाओ। ईश्वर तुम्हें वह सब करने का निमित्त बनाए जिसकी दुहाइयाँ दे-दे कर, नेता लोग हमारे वोटों के दम पर, हमारे कन्धों पर चढ़कर विधायी सदनों में जाते हैं किन्तु करते सुब कछ उल्टा हैं। तुम इन सब धन्धेबाज नेताओं को मजबूर कर दो कि उन सबको तुम जैसा बनना पड़े।’

शुभ-कामनाओं के हर्षनाद के स्थान पर, नकारात्मकता और निराशा लिए यह चित्कार और हा!हाकार तो सचिन को भी अच्छा नहीं लगेगा।

प्रकृति : सरोजकुमार

मेरे अपने
कोई रहस्य नहीं थे,
तुम्हारे पास ही अज्ञान था!
मैंने तुम्हें
कभी ललकारा नहीं
न मैदान में उतरी
तुम्हारे खिलाफ!


फिर तुम्हारा जीतना कैसा?
अगर
यह मुझे पहचानना हुआ है,
तो यह भी
बूँद का समुन्दर को जानना हुआ है!

तुम मुझसे
भिन्न नहीं हो
चाहे मुझे रहस्य मानो
चाहे धरोहर,
तुम मेरे ही हिस्से हो,
अपनी अलग पहचान रचने
की कोशिश में
मेरे ही  किस्से हो!
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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।

सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।

पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।

अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।

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कलेक्‍टर, भला आदमी और मेरी उलझन




ये हैं राजेन्द्रजी शर्मा। हमारे, रतलाम जिले के कलेक्टर। इन्होंने मुझे उलझन में डाल रखा है।

व्यक्तिगत स्तर पर हम दोनों एक दूसरे को नहीं जानते। मैं जानता हूँ कि ये उस जिले के कलेक्टर हैं जिसका मैं नागरिक हूँ और निश्चय ही शर्माजी नहीं जानते होंगे कि मैं इनकी कलेक्टरीवाले जिले का नागरिक हूँ। इनसे मैं दो बार मिला हूँ - दोनों बार मिला कर अधिकतक पाँच मिनिटों का मिलना हुआ होगा। जाहिर है कि यह मिलना ऐसा नहीं कि हम दोनों एक दूसरे को याद रखें। (वैसे भी किसी कलेक्टर को क्या पड़ी है कि किसी आम आदमी को याद रखे!) यदि वे कलेक्टर नहीं हुए होते और उनकी इसी हैसियत के कारण मैं उनसे नहीं मिला होता तो मुझे भी याद नहीं रहता कि मैं राजेन्द्र शर्मा नाम के किसी आदमी से मिला होऊँगा। इन्हीं शर्माजी ने मुझे उलझन में डाल दिया।

एक समय था, कोई बारह-पन्द्रह बरस पहले तक कि मैं जिला मुख्यालय पर पदस्थ लगभग प्रत्येक अधिकारी को जानता था और उनमें से अधिसंख्य को व्यक्तिगत स्तर पर भी। बीमा करानेवालों की तलाश में ही यह जान-पहचान हुआ करती थी। मुझे यह कहना ‘अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना’ लग रहा है किन्तु सर्वथा वस्तुपरक भाव से कह रहा हूँ, उन दिनों बीमा एजेण्टों के बीच मेरी पहचान ही ‘कलेक्टर, एसपी का बीमा करनेवाला’ की बन गई थी। किन्तु कोई दौर स्थायी नहीं होता। सो, एक तो मुझसे बेहतर बीमा एजेण्ट आते गए, दूसरे - मेरी जरूरतें कम होने लगीं और तीसरे (जो निश्चय ही पहले से भी पहले वाला कारण रहा होगा) - अधिकारियों के निरन्तर सम्पर्क ने मुझे दम्भी बना दिया। आज स्थिति यह है कि मैं कलेक्टोरेट परिसर की चाय दुकानवाले को भी नहीं जानता। अपने इस निष्कासन को मैं इस प्रगतिशील जुमले में छुपा लेता हूँ कि मुझे यह प्रतीति जल्दी ही हो गई कि नेताओं, धन्ना सेठों और अफसरों की तिकड़ी ही देश की सबसे बड़ी समस्या है।

साहित्यिक, सांस्कृतिक और ललितकलाओं से जुडे़ आयोजनों में नेताओं, अफसरों और धन्ना सेठों को मंचों पर, मुख्य अतिथि, अध्यक्ष जैसी हैसियत में बैठे देखना मुझे कभी नहीं सुहाया - तब भी, जब अफसरों से मेरी निकटता थी। मेरी सुनिश्चित धारणा बनी हुई है कि इन विधाओं से इन लोगों का कोई लेना-देना नहीं होता और ये लोग वाजिब लोगों का हक मारते हैं और इन क्षेत्रों को प्रदूषित करते हैं। मेरी धारणा के अपवाद, निश्चय ही होंगे तो, किन्तु अपवाद अन्ततः सामान्य नियमों की ही पुष्टि करते हैं। किन्तु इसका कड़वा समानान्तर सच यह भी है कि लोग भी जबरन इन्हें इन कुर्सियों पर बैठाते हैं।

इसीलिए, जब मैं, अमर शहीद भगतसिंह पर ‘प्राधिकार’ की हैसियत अर्जित कर चुके प्रो. चमनलालजी के हाथों, प्रिय आशीष दशोत्तर की दो पुस्तकों के विमोचन हेतु आयोजित, इसलिए सागर बन गया आयोजन वाले समारोह में (समय से पहले) पहुँचा था तो तनिक खिन्न था। निमन्त्रण-पत्र से मुझे पता था कि ‘आई. ए. एस. शर्माजी’ इस ‘साहित्यिक आयोजन’ के अध्यक्ष हैं। इसलिए, जब शर्माजी को अध्यक्ष के आसन पर विराजित होने के लिए आमन्त्रित किया गया तो मुझे अप्रसन्नता तो हुई किन्तु धक्का नहीं लगा। किन्तु इसके समानान्तर ही मुझे तनिक अचरज भी हो रहा था। 2011 के दो अक्टूबर को सम्पन्न, ‘हम लोग’ के आयोजन में ये ही शर्माजी (और जिला पुलिस अधीक्षक डॉ. रमणसिंह सिकरवार) बहुत ही सहजता से, पूरे समय तक श्रोताओं में बैठे रहे थे और समय-समय पर तालियाँ बजाने में श्रोताओं का साथ देते रहे थे। मुझे यह देखकर अतिरिक्त प्रसन्नता हुई थी कि, गाँधी पर आयोजित, केन्द्रीय लोक सेवा आयोग के सदस्य और जे. एन. यू. के पूर्व प्राध्यापक डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल के इस व्याख्यान को सुनने का अवसर देने के लिए इन्हीं शर्माजी ने आयोजकों को अलग से, विशेष रूप से धन्यवाद दिया था। मैं चूँकि इस आयोजन में पार्श्व भूमिका निभा रहा था और मंच के समानान्तर ही बैठा था सो शर्माजी मुझे पूरे समय नजर आते रहे और मैं अचरज करता रहा कि श्रोता के रूप में बैठने को लेकर वे एक क्षण भी असहज नहीं हुए।

जब शर्माजी को उद्बोधन हेतु आमन्त्रित किया तो मैं ऊँचा-नीचा होने लगा। अपनी सुनिश्चित धारणा के अधीन मैंने खुद को, ‘अफसरी प्रभाव से सक्रंमित, साहित्यिक सम्बोधन’ सुनने के लिए तनिक कठिनाई से तैयार किया। किन्तु शर्माजी ने पहले ही क्षण से मेरी असहजता नष्ट कर दी। अपनी बात की शुरुआत ही उन्होंने यह कह कर की कि जहाँ उन्हें बैठरया गया है, वह उनकी जगह नहीं है। वे आयोजन का आनन्द तो लेना चाहते थे किन्तु एक श्रोता के रूप में। आयोजन का अध्यक्ष बनने को बिलकुल ही तैयार नहीं थे। जब उन्हें इस हेतु निवेदन किया गया तो उन्होंने आश्वस्त किया कि यदि उनकी उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए उन्हें अध्यक्ष बनाया जा रहा है तो ऐसा न किया जाए। वे खुद चमनलालजी को सुनना चाहते हैं और इसीलिए आयोजन में अवश्य आएँगे। किन्तु आशीष सहित अन्य लोग अपने अनुरोध पर अड़े रहे और उन्हें अन्ततः ‘स्नेहाधीन’ हो, इस कुर्सी पर बैठना पड़ा। उन्होंने कम से कम तीन बार साफ-साफ कहा कि साहित्य उनका क्षेत्र नहीं है और यदि है तो केवल एक पाठक और श्रोता के रूप में ही। मुझे यह सुनकर अच्छा ही नहीं लगा, बहुत अच्छा लगा - चलो! इस बारे में शर्माजी को कोई मुगालता नहीं है। (वर्ना जब कोई अफसर, केवल अफसर होने के कारण ही साहित्यकार होता है तो अफसरी का तो ‘ग्लेमर’ बढ़ता है किन्तु साहित्य दुर्घटनाग्रस्त होकर लज्जित होता है।)

किन्तु जिस बात से शर्माजी ने मुझे उलझन में डाला, वह अभी बाकी थी। भगतसिंह के जज्बे के सन्दर्भ में देश की मौजूदा स्थिति पर शर्माजी ने कहा - ‘सारा संकट, नैतिक मूल्यों आई गिरावट से उपजा है। यह सामाजिक संकट है जिसका निदान कोई सरकार या प्रशासन नहीं कर पाएगा। इस संकट का समाधान, समाज को ही तलाश करना पड़ेगा।’ किसी ‘कलेक्टर’ से ऐसा जुमला सुनने के लिए मैं बिलकुल ही तैयार नहीं था। मैं उलझन में पड़ गया। यह कौन बोल रहा है - एक कलेक्टर या स्थितियों से परेशान/चिन्तित कोई सम्वेदनशील, समझदार/जागरूक नागरिक? बात तो बहुत ही अच्छी और सच्ची कही किन्तु कोई ‘कलेक्टर’ भला ऐसी बातों से कब और क्यों परेशान होने लगा?

बात मुझे अधूरी लगी - उपदेश की तरह। मुझसे रहा नहीं गया। आयोजन समाप्ति के बाद जब शर्माजी जाने लगे तो मैं अपनी पूरी अक्खड़ता के साथ उनका रास्ता रोक कर खड़ा हो गया। उनके ‘सुविचार’ के लिए उन्हें साधुवाद दिया और लगभग आरोप लगाया - ‘आप भी तो इसी समाज में हैं। समाज की एक जिम्मेदार इकाई के रूप में, आपके पास इस समस्या का क्या निदान है?’ शर्माजी मुस्कुराए। बोले - ‘लगता है, आप मुझे कोई काम बताना चाहते हैं। आप ही बताइए, मैं क्या करूँ?’ पता नहीं क्यों, मैं इसी सवाल की प्रतीक्षा कर रहा था। बोला - ‘हम आदश अनुप्रेरित समाज हैं। हम खुद तो राम नहीं बनना चाहते किन्तु हमें कोई न कोई राम चाहिए जिसका अनुसरण कर सकें। आज गुण्डों-बदमाशों के चर्चे तो होते हैं किन्तु नेकचलन, भले आदमियों की बात कोई नहीं करता। आप एक काम कर सकते हैं। ‘सकते हैं’ नहीं, आपको करना ही चाहिए। वह यह कि आप रतलाम में रहें या कहीं और, जब भी आपको किसी आम आदमी द्वारा किए गए किसी अच्छे काम की जानकारी मिले तो आप अपनी ओर से उस आदमी से सम्पर्क करें - या तो चलकर उसके पास जाएँ या ससम्मान उसे बुलाएँ और भीड़ के बीच उसकी पीठ थपथपाएँ, उसे बधाई-धन्यवाद दें, उसकी प्रशंसा करें। इससे उसका मनोबल तो बढ़ेगा ही, अपनी इस प्रवृत्ति पर कायम रहने का उसका आत्म विश्वास भी बढ़ेगा। लोग जब देखेंगे-सुनेंगे कि अच्छे काम करनेवाले को कलेक्टर ने बुलाकर या खुद चलकर बधाई दी तो लोग न केवल उस आदमी को सम्मान की नजर से देखेंगे बल्कि खुद भी ऐसे अच्छे काम करने को प्ररित होंगे।’ शर्माजी ने ‘प्रणाम’ की मुद्रा में हाथ जोड़े और कहा - ‘आपने आज कहा है। विश्वास कीजिएगा, मैं ऐसा ही करूँगा और मेरे ऐसा करने की जानकारी आपको भी मिल जाएगी।’ मुझे अच्छा लगा। (वैसे, मुझे अच्छा लगने न लगने से भला किसी ‘कलेक्टर’ को क्या फर्क पड़ना है?) कहा - ‘आज की यह बात मैं कहीं न कहीं लिखूँगा।’ उनकी अनुमति से मैंने उनका चित्र लिया।

अब मैं, किसी आम आदमी द्वारा किए गए किसी अच्छे काम के लिए, किसी ‘कलेक्टर’ द्वारा उसे बधाई देने के, उसकी प्रशंसा करने के समाचार की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।

किन्तु मेरी उलझन यह नहीं है। उलझन यह है कि मैं शर्माजी को क्या मानूँ - भला आदमी या अच्छा कलेक्टर? कोई कलेक्टर भला आदमी कैसे हो सकता है और कोई भला आदमी अच्छा कलेक्टर कैसे हो सकता है?

पिंजरा : सरोजकुमार

चिड़िया गलती से
उसके कमरे में आ गई,
उसने दरवाजा बन्द कर लिया!
अब चिड़िया क्या करे?
कहाँ जाए?


वह टँगी तस्वीर पर बैठी
पंखे पर फड़फड़ाई
छत की तरफ गई
यहाँ-वहाँ उड़ती रही!


उसे लगा, वह किसी
पिंजरे में पहुँच गई है,
पर किसी गलत पिंजरे में!
इसमें तो एक आदमी
पहले से मौजूद है!


हाय!
सही आसमान
अगर नसीब न हो
कायदे का पिंजरा तो मिले!

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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।

सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।

पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।

अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान (2010) आदि।

पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

जिसका बाराती, उसी का अर्थीधारी होन का अभाग्य

यह शोकान्तिका मैं केवल खुद के लिए, खुद को समझाने, खुद को ढाढस बँधाने के लिए लिख रहा हूँ। इसका कोई सार्वजनिक औचित्य और महत्व नहीं है। मेरे प्रिय सुरेश चोपड़ा के, अनपेक्षित, असामयिक और स्तब्ध करदेनेवाले आकस्मिक निधन से उपजी नितान्त व्यक्तिगत पीड़ा का यह प्रकटीकरण करने से मैं खुद को रोक नहीं पा रहा हूँ या कहूँ कि ब्लॉग के जरिए अपनी घुटन से मुक्ति पा रहा हूँ - बस! इसीलिए यह सब लिख रहा हूँ।


सुरेश वह आदमी था जिसने, कोई इक्कीस बरस पहले, उस समय मेरी ओर सहायता का हाथ बढ़ाया था जब मैं खड़े रहने के लिए जमीन और परिवार के लिए जीविका की तलाश में था। दवाइयाँ बनानेवाली, तीन भगीदारोंवाली हमारी औद्योगिक इकाई संकटगग्रस्त हो, बन्द होने के कगार पर आ गई थी। आगत की आहट सुनकर, मेरी अतिरिक्त चिन्ता करते हुए मेरे दोनों भागीदारों ने मुझे भागीदारी से मुक्त कर दिया था और 01 अप्रेल 1991से मैं ‘बिना काम-काजी’ हो गया था। मेरी उत्तमार्द्ध यद्यपि नौकरी में थी और जनवरी 1991 से मैं एलआईसी अभिकर्ता भी बन चुका था। किन्तु ये दोनों साधन भी अपर्याप्त थे। ऐसे में एक शाम, जयन्त बोहरा और राजेन्द्र पाटौदी के साथ सुरेश मेरे घर आया था - यह प्रस्ताव लेकर कि जो काम अब तक मैं अपनी इकाई के लिए कर रहा था, वही काम मैं सुरेश की इकाई के लिए करूँ।

सुरेश भी इवाइयाँ बनाने की एक लघु औद्योगिक इकाई का मालिक था और यह उसके व्यवसाय का शुरुआती दौर था। सरकारी कार्यालयों से, अपनी-अपनी इकाइयों के लिए क्रयादेश प्राप्त करने के लिए मैं और सुरेश उन दिनों, अविभाजित मध्य प्रदेश में घूमा करते थे और ऐसी यात्राओं में प्रायः ही, किसी न किसी शासकीय कार्यालय में हमारी भेंट हो जाया करती थी। हम तीन भागीदारों में से मेरे जिम्मे यह काम था जबकि सुरेश अपनी इकाई का सारा काम-काज अकेले ही देख रहा था। उसका विश्वास था कि यदि मैं उसकी इकाई के लिए शासकीय क्रयादेश प्राप्त करने की जिम्मेदारी ले लूँगा तो, इस विपत्ति-काल में मुझे भी दो पैसे मिल जाएँगे और वह भी अपनी इकाई के प्रबन्धन, उत्पादन और विपणन के लिए अधिक समय प्राप्त कर सकेगा। सुरेश का मानना था कि यह तरकीब हम दोनों जरूरतमन्दों के लिए सहयोगी, उपयोगी और लाभदायक रहेगी। उसकी बात सच भी थी किन्तु तब तक मैं, लगातार लम्बी-लम्बी (40-40, 45-45 दिनों की) यात्राओं से थक भी चुका था और ऊब भी चुका था। सुरेश का प्रस्ताव सुनकर मेरा जी भर आया था किन्तु तब मैं शायद अधिक दम्भी था इसलिए उन तीनों के सामने खुलकर रो नहीं पाया और मैंने धन्यवाद देते हुए विनम्रतापूर्वक सुरेश का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया था।

सुरेश मुझसे कोई नौ वर्ष छोटा था, मुझे ‘दादा’ सम्बोधित करता था, मेरा अत्यधिक सम्मान करता था किन्तु इसके समानान्तर किसी ‘बड़े की तरह’ मेरी चिन्ता भी करता था। अपने आसपास की छोटी-मोटी बातों में मुझे शामिल करने का कोई अवसर वह नहीं छोड़ता था। अभी कुछ ही दिन पहले वह आया था - बहुत ही खुश। मुझे बाहर बुलाया और कहा - ‘दादा! यह गाड़ी आपको दिखाने आया हूँ। रिमझिम (उसकी बिटिया) ने जिद करके कार खरीदवाई है। थोड़े पैसे उसने दिए और थोड़े मैंने मिलाए। रिमझिम अड़ गई कि कार तो लेनी ही पड़ेगी।’ अपने प्रति अपनी बेटी का ‘ममत्व’ जताते-बताते उसके चेहरे पर गर्व भी था और भीगापन भी। बिना किसी काम के, बिना किसी बात के वह, महीने-बीस दिन में मुझे फोन किया करता था। वह मधुमेह का रोगी था किन्तु परहेज करने और दवाइयाँ लेने के मामले में अतिरिक्त सावधानी बरत कर उसने मधुमेह को अपनी सीमाओं में सिमटे रहने को विवश कर दिया था। किन्तु उसका दिल कब बेकाबू हो गया, यह वह खुद भी नहीं जान पाया और दिल के पहले ही दौरे में, बेदिल होकर सबको छोड़ गया।

पाँच भाइयों में वह शायद सबसे छोटा था। डॉक्टर बनना उसकी लालसा थी। वह ‘चिकित्सा प्रवेश परीक्षा’ में पास भी हुआ था किन्तु डॉक्टरी की पढ़ाई नहीं कर पाया। ऐसा क्योंकर हुआ - यह न तो मैंने कभी पूछा और न ही उसने बताया। उसकी इस ‘लालसा’ के कारण उसके तमाम परिजन और अन्तरंग मित्र उसे ‘डॉक्टर’ कह कर ही पुकारते थे। वह डॉक्टरी तो नहीं कर सका किन्तु अपने लम्बे-चौड़े परिवार के तमाम छोटे-बड़े सदस्यों को डॉक्टर की तरह ही हिदायतें, समझाइश और सलाह देता था।

वह ‘सस्मित’ शब्द का मानवाकार था। मुस्कान उसकी स्थायी पहचान थी। मुझे लगता है, वह नींद में भी मुस्कुराता रहता रहा होगा। कल, जब मैंने श्मशान में उसे अन्तिम बार देखा तो भी यह मुस्कान उसके चेहरे पर जस की तस मौजूद थी - बिलकुल ईश्वर और मृत्यु जैसे अटल सत्यों की तरह ही एक सत्य के समान।

‘होने के बावजूद न होना’ उसकी विशेषता थी। वह बहुत ही कम, बहुत ही धीमी आवाज में और बहुत ही धीमी गति से बोलता। उसका कहा सुनने के लिए मुझे हर बार अतिरिक्त रूप से सतर्क और सचेष्ट रहना पड़ता था - फोन पर भी। महत्वपूर्ण सूचनाएँ भी वह ऐसे सहज-सपाट तरीके से देता मानो उससे कोई फालतू बात जबरन कहलवाई जा रही हो।

जिसका मौन बोलता था, वही ‘चुप्पा’ सुरेश अचानक ही हमेशा के लिए चुप हो गया।

परसों, मैं अपने शाखा कार्यालय में बैठा था। शनिवार था। दफ्तर आधे दिन का था। दो बज रहे थे। मैं गणन संसाधन इकाई के वातानुकूलित कमरे में बैठा राजेश देवतारे से गपिया रहा था कि साथी अभिकर्ता पंकज जैन आया और पूछा - ‘आप, उन रामबागवाले चोपड़ाजी को जानते हो?’ मैंने हामी भरी तो पंकज बोला - ‘आज वे मर गए।’ मुझे सम्पट ही नहीं पड़ी। मैंने, सुरेश से जुड़े अलग-अलग सन्दर्भ देकर तीन-चार बार पूछा कि वह सचमुच में मेरेवाले सुरेश की ही बात कर रहा है या किसी और की? मेरा दुर्भाग्य कि पंकज का उत्तर हर बार मेरेवाले सुरेश से ही जुड़ा।

मेरा जी मिचलानेलगा। घबराहट होने लगी। लगा, मेरे प्राण निकल जाएँगे। भाग कर डॉक्टर के पास पहुँचा तो मालूम हुआ कि मेरा रक्त चाप अच्छा-खासा बढ़ा हुआ है। डॉक्टर साहब ने मुझे हाथों-हाथ लिया। गोलियाँ दीं, पानी पिलाया। पासवाले कमरे में आराम करने को कहा। कोई घण्टा-डेड़ घण्टा वहाँ रुककर, तनिक सामान्य हो, खिन्न-मन, खिन्न-वदन घर पहुँचा। शकल देख कर उत्तमार्द्ध घबरा गईं। रक्तचाप बढ़ने की बात के अलावा सारी सूचनाएँ दीं। वे भी कुम्हला गईं। बोलीं - ‘यह तो भगवान ने अच्छा नहीं किया। उनका तो बेटा अभी बहुत छोटा है और बेटी की भी शादी बाकी है!’ मैं क्या कहता? मेरे पास कहने को कुछ भी तो नहीं था! उन्होंने पूछा - ‘आप उनके घर जा रहे हैं?’ मैंने कहा कि मैं नहीं जा रहा हूँ। सुरेश के परिजनों का सामना करने का साहस मुझमें नहीं है। सुरेश की पत्नी अरुणा को ऐसे क्षणों में देख पाना मेरे बस की बात नहीं। मैं नहीं गया। मैं न तो ‘व्यवहार’ निभा पाया और न ही बीमा एजेण्ट की जिम्मेदारी। (सुरेश मेरा ‘अन्नदाता’, बीमाधारक भी था।)

कैसे बताऊँ कि अपने से छोटे, अपने प्रिय पात्र की अर्थी को कन्धा देना कितना पीड़ादायक होता है? यह पीड़ा तब हिमालय को भी छोटा कर देती है जब आपको याद आता है कि जिसकी अर्थी को आप कन्धा दे रहे हैं उसके विवाह में भी आप शरीक हुए थे और उसके विवाह की रजत जयन्ती समारोह के भी भागीदार बने थे। निस्सन्देह ईश्वर तो कृपालु है किन्तु ऐसे क्षणों में उसके कृपालु होने पर सन्देह भी होता है और उस पर गुस्सा भी आता है।

कितना पीड़ादायक होता है एक, अस्सी वर्षीय बूढ़े बाप को, अपने बेटे की अर्थी को कन्धा देने के लिए व्याकुल होकर दौड़ते हुए देखना और बाद में उसी बूढ़े पिता को, श्मशान में, अपनी, अभी-अभी पितृहीन हुई पोती को बाँहों में भींचकर सांत्वना बँधाते, पुचकारते देखना! लगभग चौदह वर्षीय अबोध उज्ज्वल को, अपने पिता को मुखाग्नि देते देखना मेरे अभाग्य के सिवाय और क्या है?

सुरेश के बहुत ही कम बोलने और अपने अधिक बोलने को लेकर मैं कहा करता था - ‘सुरेश! लगता है, तुम्हारा बोलना भगवान ने मुझे अलॉट कर दिया है।’ वह कुछ नहीं कहता। अपनी आदत के मुताबिक चुप ही रहता। हाँ, उसकी मुस्कुराहट तनिक बड़ी हो जाती, होठ तनिक अधिक फैल जाते।

वही सुरेश अब नहीं है। वह सामने होता था तो यहाँ जो कुछ कहा, उसमें से कुछ भी याद नहीं आता था। लगता था, इस सबमें कहने की कौन सी बात है? किन्तु अब सब याद आ रहा है। एक-एक बात याद आ रही है। लग रहा है, अभी तो कुछ भी नहीं कह पाया हूँ। लेकिन इसी क्षण मन ही मन सवाल उठा - यहाँ जो भी कहा है, वह सब सचमुच में मेरा ही कहा हुआ है? शायद नहीं। यह सब तो सुरेश का ही कहा हुआ है जो कहना तो उसे था किन्तु कहने के लिए मुझे अलॉट हो गया था।

कहते हैं, बाँटने से दुःख कम होता है। किन्तु इस समय मुझे ऐसा नहीं लग रहा। सुरेश का जाना सहन और स्वीकार नहीं हो पा रहा है। बार-बार रुलाई फूट रही है। कल सुभाष भाई जैन ने बताया था और आज (रविवार की) शाम जब सुरेश के परिवार में गया तो उसके बड़े भाई रमेश भैया ने भी बताया कि कल सुबह जब उसे अस्पताल ले जाया जा रहा था तो उसने कहा था - ‘विष्णु भैया को खबर कर देना।’

मेरी रुलाई कैसे रुके?

सुमनजी का कोई विकल्प नहीं है...... : सरोजकुमार

समय ज्यादा हो गया है
मंच पर बैठे हुए हाकिम-हुक्काम
घड़ियों में बार-बार झाँक रहे हैं,
उधर सुमनजी प्रेमिका के जूड़े में
तबीयत से, गुडाँस का फूल टाँक रहे हैं!
श्रोता रीझ-रीझकर तालियाँ बजा रहे हैं!
इधर तकरीर में
दादू, रैदास और नानक आ रहे हैं!
लंच के लिए अब शायद चीफ सेक्रेटरी न रुकें
आयोजक रो रहा है,
उधर लोकसभा मे कैफी आजमी के साथ
सुमनजी का स्वागत हो रहा है!

बच्चन की आत्मकथा में सहखाटी होने का किस्सा
हॉल मज ले-ले कर सुन रहा है
आयोजक विंग में जाकर सिर धुन रहा है!
सुमनजी युवक समारोह में
खचाखच उपस्थिति को समझा रहे हैं
कि जवानी का कोई सेक्स नहीं होता,
और वो गलती करती है हमेशा!

वे शिकागो पहुँच गए हैं,
संस्कृत के श्लोकों से हॉल गूँज उठा है,
आयोजक बाहर निकल आया है!
भीतर नदी उफान पर है,
लड़के-लड़कियाँ डूब-उतरा रहे हैं,
और अब रवीन्द्रनाथ के सामने उदयशंकर
नृत्य करने आ रहे हैं!
सुमनजी बांग्ला में रवीन्द्र को ‘डाक’ रहे हैं!
नामर्द कौम में मुझे पैदा किया है क्यों?
नई पीढ़ी फटकार सुनती हुई तालियाँ पीट रही है
और मर्दाने भगतसिंह आकर
अहलेवतन को शुभकमनाएँ देकर
सफर पर निकल जाते हैं!
तालियाँ इस तरह बजती हैं,
मानो भाषण खत्म हो गया है,
पर नहीं, सुमनजी की महाकविता में
अभी और और छन्द हैं!
हर छन्द की ताली, समाप्ति का भ्रम देती है!
महाकविता अनन्त है
जिसे श्रोता मुग्धा नायिका की तरह सुने जा रहे हैं!
‘लोहा जब माटी भया, तो पारस का क्या काम?’
सबको लगा कि आया पूर्ण विराम,
पर अचानक गुरुदेव आ गए हैं
अपना चन्द्रमा लिए हुए, जो सुबह कान्तिहीन बनकर भी
सूर्य के दर्शनों को रुकना चाहता है!
आयोजक जल्दी भाषण समाप्त करने की
एक चिट्ठी भेजना चाहते हैं,
पर चिट्ठी सुमनजी को देने, कोई तैयार नहीं,
पब्लिक शॉप दे देगी!

इस बार इन्दिराजी आई हैं
और कर्णसिंह कविता सुनाते मिल गए हैं!
विवेकानन्द विवेक के साथ
बुद्ध अपनी करुणा के साथ
उपस्थिति दर्ज कराकर चले गए हैं!
‘मिट्टी कर बारात’ में सुमनजी खो गए हैं
और अब कालिदास की शेष कथा कहने में
मशगूल हो गए हैं!
हवाई पट्टी पर उतरा हुआ जहाज
आसमान में फिर पेंगें भरता है-
अशोक आते हैं
और गाँवों में आग लगाता अलेक्जेण्डर
बर्बरता से भरा, मंच पर चढ़ता है!
आयोजक कमर झुकाए, फिर मंच से उतरता है!

इन्दिराजी ने इमरजेंसी लगा दी है!
और अलाउद्दीन खाँ का शिष्य कौन हो सकता है?
पूछकर सुमन उत्तर भी देते हैं - रविशंकर!
वयोवृद्ध सुमन के गाल
प्रेम की कविता, सुनाते हुए
अब भी लाल हो जाते हैं!
सिर पर सहेजे गए काँस के फूल
बिखर-बिखर जाते हैं!
श्रोता तालियों पर तालियाँ बजाते हैं!

भाषण खत्म होते ही ऑटोग्राफ की ललक में
लड़के-लड़कियों ने सुमनजी को घेर लिया है!
हाकिम चिढ़ रहे हैं
आयोजक भीड़ से भिड़ रहे हैं!
जब बुलाने गए थे, तब मिमिया रहे थे
अब भिनभिना रहे हैं
कल फिर मिमियाते पहुँचेंगे।
सुमनजी का कोई विकल्प नहीं है!
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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।

सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।

पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।

अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान (2010) आदि।

पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

‘कुछ’ तो हो सकता है निर्मल नरुला का

'कुछ नहीं होगा निर्मल नरुला कापोस्ट लिखने के बाद कल से ही अटपटा लग रहा था। अपराध बोध सा लग रहा था। लग रहा था, जाने-अनजाने मैं निर्मल नरुला का न केवल बचाव कर रहा हूँ अपितु उसके लिए समर्थन भी जुटा रहा हूँ। साफ नजर आ रहा है कि गड़बड़ हो रही है तो क्यों नहीं, कुछ हो सकता? मुमकिन है, सामान्य से अधिक मेहनत करनी पड़े किन्तु कुछ न कुछ तो होना ही चाहिए।

कल दिन भर बेचैनी रही। पुराने कागज-पत्तर टटोलता-पलटता रहा। याद आ रहा था कि ऐसा ही ‘कुछ’ पहले कहीं न कहीं हुआ था जिस पर सजा हुई थी।

आखिरकार मुझे 1976 के कुछ कागजों में,  कच्चे स्वरूप में लिखा एक संस्मरण मिला। मैं उछल पड़ा। बस! यह सब लिखते हुए एक कसक साल रही है - इसके नायक का नाम नहीं दे पाऊँगा। वे अब इस दुनिया में नहीं हैं। होते तो उनकी अनुमति लेने का प्रयास करता। पूरा विश्वास है कि वे होते तो पहली ही बार में अनुमति दे देते। किन्तु किसी दिवंगत की अनुपस्थिति में उसे अन्यथा लिए जाने का अपराध करने की अनुमति मन नहीं दे रहा।

घटना मन्दसौर की है। पत्रकारिता में मेरे गुरु (अब स्वर्गीय) श्रीयुत् हेमेन्द्र त्यागी ने यह किस्सा सुनाया था। मन्दसौर में आयोजित एक कवि सम्मेलन में आए एक कवि से मिलने के लिए त्यागीजी गए। ये कवि उद्भट विद्वान् तो थे ही, अद्भुत आशुकवि भी थे। रहन-सहन और व्यवहार सर्वथा असामान्य। इतना और ऐसा कि वे खुद को घामड़ और औघड़ तक कह देते थे। एकदम अक्खड़। किसी को भी, कहीं भी, कुछ भी कह देना उनकी फितरत भी थी। जिसे लाड़ करते, उस पर न्यौछावर हो जाते और जिस को निपटाना होता उसकी इज्जत का फलूदा कर देते। दारु पीते तो रोज, एक ही बैठक पर पूरी बोतल पी जाएँ और न पीने पर आए महीनों/बरसों न पीएँ। अंग्रेजी के ‘अनप्रिडेक्टिबल’ शब्द के वे वास्तविक मानवाकार थे।

अभिवादन के बाद बातें शुरु हुईं तो त्यागीजी ने कहा कि वे उनसे पहले मिल चुके हैं। उन्होंने पूछा - ‘कब?’ त्यागीजी की बताई तारीखें और वर्ष सुनकर वे बोले - ‘आप झूठ बोल रहे हैं। उन दिनों तो मैं जेल में था।’ त्यागीजी सन्न! शिष्टाचारवश बोला गया उनका झूठ न केवल तत्क्षण पकड़ा जाएगा बल्कि उन्हें मुँह पर ही, हाथों-हाथ ही झूठा भी कह दिया जाएगा - यह तो उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था।

अपनी झेंप मिटाने हेतु त्यागीजी ने फौरन पूछा - ‘आप! और जेल में! भला क्यों?’ तब उन कविराज ने जो किस्सा सुनाया वह कुछ इस तरह था -

‘‘तब मैं कवि के रूप में स्थापित नहीं हुआ था। काम-काज के नाम पर कुछ भी नहीं था। घर खर्च चलाना मुश्किल हो रहा था। तब रातों-रात धनपति होने की तरकीब सोची।

‘‘जैसे-तैसे कुछ पैसे जुटा कर मैं ने अखबारों विज्ञापन दिया - ‘एक बार हजार रुपये देकर दो वर्षों तक घर बैठे हजार रुपये मासिक प्राप्त कीजिए।’ विज्ञापन ने तहलका मचा दिया। सप्ताह पूरा होने से पहले ही मनी आर्डरों का ढेर लग गया। पैसा समेटे, समेटा नहीं जा रहा था। मैंने रुपये भेजनेवालों के नाम-पतों की व्यवस्थित सूचियाँ बनाईं। जब मनी आर्डर आने की गति धीमी हुई तो मैंने रुपये भेजनेवालों की, शहरवार सूचियाँ बनाईं। एक शहर को केन्द्र बना कर उसके आसपास के इलाके के (एक हजार रुपये भेजनेवाले) लोगों को विज्ञापन के जरिए बुलाया। सबके साक्षात्कार लिए और कहा कि वे योजना के लाभ लेने के पात्र पाए गए हैं और जल्दी ही उन्हें हजार रुपये मासिक मिलना शुरु हो जाएगा।

‘‘साक्षात्कार लेने के मेरे इस कदम से लोगों में मेरे प्रति विश्वास और बढ़ा। मनी आर्डरों की संख्या और गति में थोड़ी बढ़ोतरी हुई।

‘‘जब देखा कि अब पानी ठहर गया है तो मैंने भारत के समाचार पत्र पंजीयक को आवेदन देकर, जुगाड़ लगा कर एक मासिक पत्र का शीर्षक (टाइटिल) हासिल किया। शीर्षक था - ‘हजार रुपये।’

‘‘शीर्षक मिलते ही मैंने जिला दण्डाधिकारी के समक्ष घोषणा-पत्र प्रस्तुत करने सहित तमाम औपचारिकताएँ पूरी कर अखबार छपवाया - ‘हजार रुपये मासिक’ और सूचियों के अनुसार पतों पर डाक से भेज दिया।

पहला अंक मिलते ही हंगामा हो गया। लेकिन अपने यहाँ लोग बोलते ज्यादा और करते कम हैं। इसलिए दो-तीन महीने यूँ ही निकल गए। लोगों के पास ‘हजार रुपये मासिक’ तीसरे महीने भी पहुँच गया।

‘‘लेकिन वो कबीरदासजी कह गए हैं ना - ‘पाप छुपाए न छुपे, छुपे तो मोटा भाग। दाबी-दूबी ना रहे, रुई लपेटी आग।।’ सो, चौथे महीने चार शहरों में मुझ पर धोखाधड़ी और ठगी के मुकदमे लग गए। मेरी तकदीर अच्छी थी कि ये चारों मुकदमे एक ही जिले में लगे थे। मेरे वकील ने अपनी विद्वत्ता का चरम उपयोग कर वे सारे मुकदमे मेरे गृह नगर की अदालत में स्थानान्तरित करवा लिए।

‘‘मुकदमे चलते रहे और लोगों को घर बैठे ‘हजार रुपए मासिक’ मिलते रहे। मेरे वकील ने मुकदमों को यथा सम्भव लम्बा खींचने का प्रयास किया और बड़ी हद तक कामयाब भी हुआ। किन्तु बकरे की माँ आखिर कब तक खैर मनाती। आखिरकार कयामत का दिन आ ही गया।

‘‘जज साहब ने कहा कि शाब्दिक अर्थों के आधार पर मैं बेशक निरपराध हूँ किन्तु हमारा कानून केवल शब्दों पर नहीं चलता। मेरे मामले में शब्द तो मेरा साथ दे रहे थे किन्तु ‘मंशा’ (इण्टेन्शन्स) मेरे विरुद्ध तन कर खड़ी थी। उसी आधार पर जज साहब ने मुझे अठारह महीनों के सश्रम कारावास की सजा सुनाई। जज साहब ने कहा कि कोई और होता तो वे कम और सादी सजा सुनाते किन्तु मेरा कवि होकर शब्दों का ऐसा आपराधिक दुरुपयोग उन्हें अत्यधिक नागवार गुजरा। सो उन्होंने मुझे ‘सजा बामशक्कत’ सुनाई।

‘‘मैंने इस फैसले को सर झुकाकर कबूल किया। जानता था कि अपील में जाऊँगा तो भी सजा में कोई अन्तर नहीं पड़ना। उल्टे, वकीलों की फीस चुकाने में बड़ी रकम खर्च हो जाएगी। इसलिए बेहतर यही समझा कि बुढ़ापा बिगड़ने से बचा लिया जाए और जवानी में ही सजा काट ली जाए।

‘‘अठारह महीनों के बाद मैं जब जेल से बाहर आया तब तक लोग सब भूल चुके थे। मेरी पत्नी ने समझदारी बरती और रुपया भले ही हराम का था किन्तु खर्च करने और बचाने में समझदारी बरती। मेरी गैरहाजरी में घर बराबर चलता रहा। हाँ, पत्नी को जरूर पग-पग पर अपपानित होना पड़ा। किन्तु उसने उदारता और बड़प्पन बरत कर मुझे क्षमा कर दिया।

‘‘जेल से आते ही मैंने खुद पर ध्यान दिया। जेलर साहब कहा करते थे कि जितनी मेहनत शार्ट-कट में लगाई, उतनी ही मेहनत कविता में लगाता तो मुमकिन है कि इससे अधिक रुपये मिलते और प्रसिद्धी मिलती सो अलग। वह बात मैं नहीं भूला। जेल में रहते हुए भी कविताएँ लिखता रहा और बाहर आने के बाद तो मैं कविता का ही हो कर रह गया।

‘‘आज शब्दों ने मेरे ‘अनर्थ’ को ढँक दिया और सरस्वती की बड़ी बहन बन कर लक्ष्मी मुझ पर बरस रही है। लोग मेरा अतीत भूल गए हैं। मैं भी भूल ही जाता किन्तु त्यागीजी! आपने झूठ बोलकर मुझे वह सब याद दिला दिया।’’

कोई छत्तीस बरस पहले का लिखा यह कच्चा संस्मरण मुझे हौसला दे गया। यदि यह बात अच्छे लोगों तक पहुँचे और वे ‘मंशा’ के आधार पर मामला बढ़ाएँ तो मुझे विश्वास है निर्मल नरुला का ‘कुछ’ ही नहीं ‘काफी कुछ’ हो सकता है।

यह सब लिख कर मैं काफी हलका अनुभव कर रहा हूँ - स्तनपान कर रहे गौ-वत्स के मुँह से झर रहे फेन की तरह हलका।

कलकलवती नदी: सरोज कुमार

पठारों से लेकर
ढलानों की फिसलन तक
बिखरे हैं इस पोथी के पन्ने!
अवसाद के कगारों से
आनन्द के कछारों तक
पसरी है
एक कलकलवती नदी!
फैले हुए चौड़े पाट
कुछ डूबे, कुछ टूटे घाट
कई जगह उथली है
जगह-जगह गहरी है
भीतर से बहती है
ऊपर से ठहरी है!

ऐसी चादर, जिसे मैंने
ओढ़ा है, बिछाया है
लेकिन कबीर साहब की तरह
जैसी की तैसी
नहीं जा सकेगी तहाई!

झरने के सफेद धुएँ से लेकर
नीली आँखों वाली
नदी तक,
नदी से बाँध
बाँध से बिजली
बिजली से लेकर अँधेरों तक फैले
अनुभवों की
कवायद करती चतुरंगिणी!

प्रेम से लेकर प्रेम तक
विवाह से तलाक तक
तलाक से तन्हाई
तन्हाई से
अनाम सम्बन्धों के
मूक रिश्तों को भेदकर
निकलती, सुरंग जैसी
जिन्दगी!

मन तक पहुँचने की कोशिश में
शरीरों से खेलती,
अर्थ की तलाश में
शब्दों को झेलती,
बार-बार मिट-मिट कर
बार-बार बन-बन कर
अनेक आवृत्तियों में
एक ही उपस्थिति को
दुहराती तिहराती
वही-वही जिन्दगी!

कमरे से कक्षा तक
दरी से मंच तक
लिखने से दिखने तक
परिचितों से परायों तक
कितना लम्बा सफर रही है
यह हाँफती जिन्दगी!

दो सौ साल जी लिया लगता है,
वैसे मरना
कौन चाहता है, मुर्दा भी नहीं!
पर और जीने की
जरूरत नहीं लगती!
दुहरा रहा हूँ स्वयम् को!
यह दुहराना
जिन्दगी की रिहर्सल नहीं है!
यह दुहराना
मजबूत होना भी नहीं है!
चीजों के सध जाने के बाद का
ठहराव ठिठका हुआ है
इस हलचल में!

नया खेल चाहिए!
नए के नाम पर-
वही-वही खेल रचती है
नई-नई चालों से जिन्दगी!
इतना चल चुका हूँ, अब
नई चाल नहीं चल पाऊँगा!
इतना ही हो सकता था चालाक!

यों तो जितना
जिया जाए कम है
कब्र में लटका भी
मरना नहीं चाहता,
पुनर्जन्म का ढिंढोरची
पुण्यात्मा भी नहीं!
लौटना सम्भव नहीं है
इस यात्रा में!
यों कुछ पड़ावों पर
लौटने की इच्छा
बराबर रही सुलगती!

कुछ मोड़ याद आते हैं
जहाँ सही-गलत मुड़ा था,
कुछ जोड़ याद आते हैं
जहाँ सही-गलत जुड़ा था।
रिवर्स गियर क्यों नहीं लगता
बहती हुई नदी में?
इतिहास में घुसकर
कुछ पन्ने फाड़ने-चिपकाने की
इजाजत क्यों नहीं है?

यात्रा जो हुई है
और है,
वही एकमात्र है
अनन्त है
शरीर से साँस तक!

लगता है, बस
शरीर ही शरीर है!
मन भी है.....
पर वह हो चुका है मुक्त,
मिल गया है उसे मोक्ष
सब कुछ पा जाने की
अनुभूति ही मोक्ष है!

अनुभूति तो होती है अनुभूति ही,
चट्टानों की छाती पर खड़ी हो
चाहे रेत के बगूलों पर
फर्क नहीं पड़ता है!

दो सौ साल जी चुका
लगता है।
हजार साल भी जी सकता हूँ,
पर जीना
कोई प्रतियोगिता का
मामला नहीं है!
-----

‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।

सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।

पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।

अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान (2010) आदि।

पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

कुछ नहीं होगा निर्मल नरुला का

व्यापक सामाजिक सराकारों के सन्दर्भ में, निर्मल सिंह नरुला उर्फ निर्मल बाबा के उपक्रम से असहमत होते हुए और उसके उपक्रम को अन्ततः समाज को क्षति पहुँचानेवाला मानते हुए, मुझे नहीं लगता कि निर्मल नरुला को कानूनन अपराधी साबित किया जा सकेगा और उसे दण्डित किया जा सकेगा।

मैं कानून का जानकार नहीं किन्तु पहली नजर में लगता है कि उसने कानूनन कोई अपराध नहीं किया है।
उसने किसी को अपने दरबार में आने का निमन्त्रण नहीं दिया। उसने तो केवल विज्ञापित किया कि उसका दरबार लगता है और सूचित किया कि उसके इस दरबार में मौजूद रहने, अगली पंक्ति में बैठने और उससे सवाल पूछने के लिए निर्धारित शुल्क की रकम क्या है।

निर्मल नरुला ने किसी को कोई वादा नहीं किया कि उसके दरबार में भाग लेने से किसी को कोई लाभ होगा या भाग लेनेवाले की कोई समस्या हल हो जाएगी या भागलेनेवाले को किसी पुरानी झंझट से मुक्ति मिल जाएगी।

निर्मल नरुला के दरबार में हुए कुछ प्रश्नोत्तरोंवाले कार्यक्रम मैंने टेलीविजन पर देखे हैं। मैंने एक बार भी उसे यह कहते नहीं सुना/देखा कि वह कोई अवतार या चमत्कारी व्यक्ति है या उसके कहने से कोई चमत्कार हो जाएगा। इसके विपरीत मैंने एकाधिक बार उसे लोगों को सलाह देते हुए सुना/देखा कि किसी प्राप्ति या प्रतिफल की आशा में यदि कोई, कुछ करता है तो वह सही नहीं है। आदमी को ‘शक्तियों’ में, ईश्वर में विश्वास और आस्था रखते हुए अपना काम करते रहना चाहिए, उस पर कृपा होगी।

अपनी समस्याएँ प्रस्तुत करनेवालों को निर्मल नरुला ने कोई उपाय बताते हुए उस उपाय के शर्तिया कारगर होने का दावा कभी नहीं किया।

निर्मल नरुला के दरबार/समागम में (शुल्क चुका कर) भाग लेनेवालों में से एक ने भी कोई असन्तोष नहीं जताया है न ही किसी ने, निर्मल नरुला के विरुद्ध, वचन भंग की शिकायत ही की है।

निर्मल नरुला के विरुद्ध जो भी मामले पुलिस में लगाए गए हैं वे सबके सब, जागरूक लोगों ने अपनी सामाजिक जिम्‍मेदारी अनुभव करते हुए लगाए हैं। इनमें से किसी ने निर्मल नरुला के दरबार/समागम में न तो भाग लिया है न ही कोई सवाल पूछा है, न ही अपनी किसी समस्या का निदान चाहा है। कानूनी दृष्टि से इनमें से कोई भी ‘प्रभावित’ या ‘पीड़ित’ नहीं है।

निर्मल नरुला ने किसी पर दबाव बना कर रकम नहीं ली है। जो भी रकम ली है, नम्बर एक में ली है। रकम का उपयोग करने के बारे में उसने कभी, कोई आश्वासन नहीं दिया है। पहली नजर में, लोगों द्वारा विभिन्न खातों में जमा की गई रकम, निर्मल नरुला की व्यक्तिगत सम्पत्ति अनुभव होती है जिसके, अपनी इच्छानुसार उपयोग के लिए वह स्वतन्त्र और कानूनी रूप से अधिकृत है।

चूँकि सारी रकम, लोगों ने सीधे ही बैंक खातों में जमा की है, इसलिए उसे छुपा पाना निर्मल नरुला के लिए न तो सम्भव है और न ही उसकी ऐसी कोई मंशा अनुभव होती है। यह कोई ‘घपला’ या ‘गबन’ भी अनुभव नहीं होता। जाहिर है कि इस रकम पर उसने अपने कानूनी ज्ञान के अनुसार या फिर अपने कानूनी सलाहकारों के अनुसार आय-कर चुकाया ही होगा। यदि नहीं चुकाया होगा तो यह, आयकर कानूनों के अन्तर्गत केवल आर्थिक रूप से दण्डनीय अपराध होगा और आय कर विभाग द्वारा निर्धारित कर राशि, उस पर अतिरिक्त शुल्क और दण्ड की रकम (यदि आरोपित की गई तो) उसे चुकानी पड़ेगी।

निर्मल नरुला के विरुद्ध कितने लोग गवाही देने के लिए न्यायालय के समक्ष जाएँगे? न्यायालय यदि अपनी ओर से भी संज्ञान ले ले तो भी न्यायालय की सहायता के लिए कितने लोग स्वैच्छिक रूप से प्रस्तुत होंगे?

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, निर्मल नरुला के विरुद्ध, न्यायालय को कोई सहायता करेगा, इसमें मुझे यथेष्ठ सन्देह है। अपनी सामाजिक जिम्मेदारी के मुकाबले, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने तो अपने मुनाफे को प्राथमिकता दी। निर्मल नरुला के दरबार की रेकार्डिंग को, लम्बे अरसे तक विज्ञापन के रूप में लोगों के सामने परोसते रहे। वे तो इस गोरख-धन्धे में निर्मल नरुला के आर्थिक सहयोगी के रूप में ही प्रस्तुत हुए। निर्मल नरुला का भण्डा-फोड़ अपनी ओर से उन्हीं चैनलों ने किया जिन्हें दरबार/समागम के विज्ञापन नहीं मिले। ये विज्ञापन दिखानेवाले चैनल, अन्ततः निर्मल नरुला के विरुद्ध मैदान में आए तो सही किन्तु वे ‘आए’ नहीं, लोगों के बीच अपनी विश्वसनीयता बनाए रखने की व्यावसायिक मजबूरी में उन्हें ‘आना पड़ा’ और वे मैदान में आए भी तो, हम सबने देखा कि उनकी धार कितनी भोथरी थी। हम सब खूब अच्छी तरह जानते हैं कि हमारे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की प्राथमिकता सूची में ‘टीआरपी’ नम्बर एक पर है, बाकी सारी बातें या तो हैं ही नहीं और हैं भी तो चैनलों की सुविधा/इच्छा के अधीन।

निर्मल नरुला ने अपने दरबार/समागम को कभी धार्मिक नहीं कहा किन्तु लोगों ने इसे अपने आप ही धर्म से जोड़ लिया है। मैंने शायद गलत कह दिया। कोई जोड़े या नहीं, यह उपक्रम है ही ऐसा जिसे हम अपनी स्थापित मानसिक ग्रन्थियों के कारण धार्मिक ही मानते हैं। सो, इसके विरुद्ध या तो कोई खुलकर मैदान में आएगा ही नहीं और यदि आएगा भी तो उसकी पराजय सुनिश्चित है। विभिन्न चैनलों पर हुई बहसों में कुछ भगवाधारी भी निर्मल नरुला के विरुद्ध प्रस्तुत हुए थे किन्तु उनकी बातों में ‘तर्क और तथ्य’ नहीं थे। या तो गुस्सा था या फिर खीझ - ‘हाय! रातों-रात करोड़पति बनने की यह अकल मुझे क्यों नहीं आई?।’

ऐसे लोगों पर हुई कानूनी कार्रवाई और सामाजिक व्यवहार के पूर्वानुभव भी कोई आस नहीं बँधाते। दक्षिण भारत के एक ‘सन्त’ तो रंगरेलियाँ करते टेलीविजन पर देखे गए थे, उन पर समलैंगिक यौन व्यवहार के आरोप भी लगे। किन्तु इस बवण्डर की धूल जल्दी ही बैठ गई और हम सबने उन्हीं ‘सन्त’ को, स्वर्ण सिंहानारूढ़ हो, रथ में बैठे देखा जिसके आगे-पीछे हजारों स्त्री-पुरुष जय-जयकार करते हुए, नाचते-गाते चल रहे थे।

कानून अपनी ओर से अधिक कुछ कर नहीं पाता और समाज? समाज न केवल सब कुछ भूल जाता है अपितु ऐसे लोगों को फौरन ही माथे पर बैठा लेता है - इतनी जल्दी मानो भूलने, क्षमा करने और फिर से माथे पर बैठाने के लिए उतावला हो।

ऐसे में, मुझे नहीं लगता कि निर्मल नरुला किसी कानूनी या सामाजिक पकड़ में आ पाएगा। हाँ, कुछ दिनों के लिए उसके खातों में आवक जरूर कम हो जाएगी। लेकिन यह दौर बहुत लम्बा नहीं खिंचेगा क्योंकि सारा संसार दुःखिया है और जब तक एक भी मूर्ख मौजूद है तब तक करोड़ों बुद्धिमानों की दुकानें चलती रहेंगी। आप-हम भी इसी तरह लिखते रहेंगे और धरती अपनी धुरी पर घूमती रहेगी।


लगे रहो निर्मल नरुला! तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा जब तक कि तुम खुद ही इस पर आमादा नहीं हो जाओ।

अच्छी लग रही हैं..... : सरोजकुमार

अच्छी लग रही हैं आप,
बहुत अच्छी लग रही हैं आप!

कुछ नहीं है बात ऐसी
जो नहीं होती,
वही जूड़ा, वही ब्लाउज
रोज की धोती!

आँख में गड़ने लगी
क्यों रूप की यह छाप?
अच्छी लग रही हैं आप,
बहुत अच्छी लग रही हैं आप!

पास आना और
आकर बैठ जाना पास,
तोड़ देना, यों
हमारे प्यार का उपवास!

देख लो, बढ़ने लगा है
निकटता का ताप,
अच्छी लग रही हैं आप,
बहुत अच्छी लग रही हैं आप!
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‘शब्द कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।

सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।

पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।

अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान (2010) आदि।

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एक फेसबुकिया अनुभव यह भी

फेस बुक के जरिए मिला, यह अनुभव मेरे लिए विचित्र और स्तम्भित कर देनेवाला सर्वथा अनपेक्षित अनुभव है।

मैं ‘बतरसिया’ हूँ। मेरी माँ कहा करती थी कि मैं सूने गाँव में भी सात दिन रह सकता हूँ। फेस बुक के बारे में जितना सुना और जाना था, उससे लगा कि यह तो चौराहे पर जमी गप्प गोष्ठी या अड्डेबाजी जैसा मामला है जिसमें कोई भी, कभी भी आकर शामिल हो सकता है, बातें सुन सकता है, चाहे तो अपनी बात भी कह सकता है, जब तक ‘रस’ आए तब तक मौजूद रह सकता है वर्ना किसी को नमस्कार किए बिना, किसी से अनुमति लिए बिना रवाना हो सकता है। यह (अनुत्तरदायी और खिलन्दड़) व्यवहार मेरी प्रकृति से मेल खाता है - सर्वाधिक अनुकूलता सहित। किन्तु एक बड़ी और महत्वपूर्ण बात यह कि यहाँ नित नए लोगों से मेल-मुलाकात होने की सम्भावना बनी रहती है जो मेरे बीमा व्यवसाय के लिए सबसे जरूरी और सर्वाधिक सहायक कारक है।

सो, फेस बुक से जुड़ने में मुझे कोई मानसिक बाधा नहीं रही। उम्र तो आड़े आई ही नहीं। ‘मुलाकात और बात होगी तो ही तो आदमी के बारे में कुछ मालूम हो सकेगा!’ इसी विचार के अधीन मैंने, मुझे मिले प्रायः सारे मैत्री अनुरोधों को तनिक लापरवाही से कबूल कर लिया। हाँ, एक छन्नी यह जरूर लगाई कि जिनके चित्र और पर्याप्त ब्यौरे नहीं थे, उनसे कन्नी काट ली। आज, जब मैं यह पोस्ट लिख रहा हूँ तो मेरे फेस बुक मित्रों की संख्या 646 है।

हाँ, मेरे ब्लॉग गुरु श्री रवि रतलामी की एक बात यहाँ भी सावधानी से याद रखी। मई 2007 में जब मैंने ब्लॉग जगत में कदम रखा तो रविजी ने कहा था - ‘सपने में भी याद रखिएगा कि ब्लॉग आपके लिए है। आप ब्लॉग के लिए नहीं हैं। यदि आप ब्लॉग के लिए हो गए तो सच में बैरागी हो जाएँगे।’ रविजी की यह सीख मैं वाकई में सपने में भी याद रखता हूँ और ब्लॉग की ओर तभी देखता हूँ जब मेरी टेबल पर कोई काम लम्बित न हो। फेस बुक के लिए भी मैंने रविजी की यह सीख गाँठ बाँधी हुई है।

लेकिन गलतियाँ हो ही जाती हैं। एक मैत्री अनुरोध पर चित्र तो नहीं था किन्तु ब्यौरा पूरा था। जानकारियों के अनुसार वे सज्जन लेखन और पत्रकारिता से जुड़े हैं। उनके चित्र के स्थान पर हिन्दू धर्म का पवित्र, शक्ति प्रतीक का चित्र लगा हुआ था। मैंने आशावाद का सूत्र थामा और तनिक हिचकिचाहट के साथ, मैत्री अनुरोध स्वीकार कर लिया।

अगले ही दिन, चौबीस घण्टों से भी पहले वे ‘मित्र’ चेट बॉक्स पर प्रकट हो गए। हम दोनों के बीच बातचीत कुछ इस तरह हुई -

वे: नमस्कार सरजी! कैसे हैं?

मैं: नमस्कार। मैं ठीक हूँ। आप कैसे हैं?

वे: हमने आपको अपने दिल में बसा लिया है।

मैं: इतनी जल्दी? अभी तो चौबीस घण्टे भी नहीं हुए!

वे: हम तो ऐसे ही हैं।

मैं: मैं ऐसा नहीं हूँ।

वे: आपसे एक बात पूछूँ सरजी? नाराज तो नहीं होंगे?

मैं: यह तो आपकी बात जानने के बाद ही मालूम हो सकेगा कि नाराज हुआ जाए या नहीं।

वे: तो फिर नहीं पूछता। क्या पता आप नाराज हो ही जाएँ।

मैं: आपकी मर्जी। वैसे, सबको खुश रखने की कोशिश में हम किसी को खुश नहीं रख सकते।

वे: तो फिर पूछ लेता हूँ।

मैं: पूछिए।

वे: आप ‘m2m’ सेक्स में विश्वास करते हैं?

मैं: ‘m2m’ याने?

वे: ‘m2m’ याने मेल टू मेल। आप और मैं।

मैं: मैं प्रकृति के विरुद्ध नहीं जाता और न ही किसी को एसी सलाह देता। यह गलत भी और अपराध भी।

वे: आप तो नाराज हो गए!

मैं: नहीं। मैं नाराज नहीं हूँ। आपने पूछा तो मैंने अपनी बात कह दी।

वे: नहीं। नहीं। आप नाराज हो गए। मैं आपको नाराज नहीं करना चाहता। मैं तो आपको खुश करना चाहता हूँ। आपको खुश देखना चाहता हूँ।

मैं: मैंने कहा ना! मैं नाराज नहीं हूँ।

वे: नहीं। नहीं। आप नाराज हो गए।

मैं: मुझे जो कहना था, कह दिया। आपकी आप जानो।

वे: सॉरी सरजी! मैंने आपका दिल दुखा दिया। आपको नाराज कर दिया। मैं तो आपको खुश करना चाहता था।

मैं: इसी तरीके से?

वे: जिस भी तरीके से आप खुश हो जाएँ।

मैं: मैं तो आपसे बात करने से पहले भी खुश था और अभी भी दुःखी नहीं हूँ। हाँ, आपकी बातों से चकित और स्तम्भित अवश्य हूँ। इससे पहले मुझसे किसी ने ऐसी बातें नहीं कीं।

वे: मतलब आप नाराज हो ही गए।

मैं: अब तो यह आप ही तय कीजिए।

वे: सॉरी सरजी! मैंने आपका दिल दुखा दिया। आगे से ध्यान रखूँगा। मैं तो आपको खुश करना और खुश देखना चाहता था। आप मेरे दिल में बस गए हैं। कभी खुशी की जरूरत पड़े तो बताइएगा।

मैं: आप बेफिक्र रहिएगा। मेरा मन खुशियों से भरा है। गोदाम खाली नहीं है। नमस्कार।

वे: नमस्कार सरजी।

इस सम्वाद को लगभग दस दिन हो गए हैं। मैं जब भी फेस बुक खोलता हूँ, आशंकित रहता हूँ कि कहीं ‘वे’ प्रकट न हो जाएँ। एक विचार आया कि उन्हें मित्र सूची से हटा दूँ। फिर सोचा, कहाँ वे और कहाँ मैं? पता नहीं, कितने कोस दूर हैं वे मुझसे? क्या बिगाड़ लेंगे मेरा? बिगाडेंगे भी कैसे? मैं चाहूँगा तभी तो बिगाड़ सकेंगे!

स्तम्भित कर देनेवाले इस अनुभव के बाद भी एक खुशी तो उन्होंने मुझे दे ही दी - अब तक मुझसे, फिर बात न करके।