भ्रष्टाचार के प्रति हमारी मानसिकता का सामान्य उदाहरण है यह।
शुक्रवार शाम साढ़े चार बजे मैं, भारत सरकार के एक उपक्रम के स्थानीय कार्यालय पहुँचा। सन्नाटा छाया हुआ था। कर्मचारियों के बैठनेवाला पूरा हॉल खाली था। पंखे चल रहे थे और बत्तियाँ जल रही थीं। कार्यालय प्रबन्धक और उनके दो सहायक, प्रबन्धक के कमरे में बैठे कागज निपटा रहे थे। दूर, एक कोने में, चतुर्थ श्रेणी के दो कर्मचारी, माथा झुकाए कागजों के ढेर में उलझे हुए थे। नगद लेन-देन का समय यद्यपि समाप्त हो चुका था किन्तु शायद हिसाब बराबर मिला नहीं होगा, सो खजांची अपने पिंजरे में बैठा कभी रुपये गिन रहा था तो कभी सामने रखे कागज पर लिखे आँकड़े देख रहा था। पूरे कार्यालय में सन्नाटा पसरा हुआ था। कुल जमा 6 लोग कार्यालय में थे किन्तु कोई भी आपस में बात नहीं कर रहा था। सब, अपने-अपने काम में लगे हुए थे।
अनुमति लेकर कार्यालय प्रभारी के कमरे में गया। पूछताछ के जवाब में मालूम हुआ कि सारे कर्मचारी अपने एक सहकर्मी के परिवार में हुई मौत पर शोक प्रकट करने गए हैं। यह पूछने का कोई अर्थ नहीं था कि वे वापस काम पर लौटेंगे भी या नहीं? स्पष्ट था कि कार्यालय का समय भले ही शाम सवा पाँच बजे तक का है किन्तु सबके सब, शोक संतप्त परिवार को साँत्वना बँधा कर अपने-अपने घर चले जाएँगे। अगले दिन शनिवार है - अवकाश का दिन। सो, अब मेरे काम के बारे में सोमवार को ही कुछ मालूम हो सकेगा। मैंने किसी से कुछ नहीं कहा। बुझे मन से लौट आया।
इस कार्यालय में मेरा आना-जाना बना रहता है। इतना कि, अण्णा हजारे के समर्थन में जब इस कार्यालय के कर्मचारियों ने जुलूस निकाला तो उन्होंने मुझसे भी शरीक होने का आग्रह किया। मैं भी राजी-राजी शरीक हुआ। जुलूस में केवल पुरुष कर्मचारी थे। महिला कर्मचारी शरीक नहीं हुईं। जुलूस में शामिल सारे कर्मचारियों ने ‘मैं अण्णा हूँ’ वाली सफेद टोपियाँ पहन रखी थीं। उन्होंने लाख कहा किन्तु मैंने टोपी नहीं पहनी। कोई आधा किलोमीटर घूम कर जुलूस समाप्त हुआ तो भाषणबाजी हुई। मैंने भी अण्णा के समर्थन में भाषण दिया और सराहना पाई।
वे ही सारे के सारे, लगभग पचीस कर्मचारी, निर्धारित समय से पौन घण्टे पहले कार्यालय से तड़ी मार कर, अपने सहकर्मी के शोक में शरीक होने का अपना व्यक्तिगत फर्ज निभाने चले गए थे। किसी ने अनुभव करने की कोशिश नहीं कि वे आम आदमी के समय पर डाका डाल कर अपनी व्यावहारिकता निभा रहे हैं। किसी ने नहीं सोचा कि इस पौन घण्टे में, अपना काम लेकर आनेवाले लोगों को कितना कष्ट होगा? किसी ने नहीं सोचा कि प्रत्येक कर्मचारी के इस पौन घण्टे का भुगतान, उन लोगों ने किया है जिन्हें इन कर्मचारियों की अकस्मात अनुपस्थिति के कारण अपने काम के लिए अड़तालीस घण्टों की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।
सारे कर्मचारियों को पता था कि मृत्यु वाले परिवार ने अगले दिन, शनिवार शाम पाँच बजे उठावना (तीसरे की बैठक) रखा है। किन्तु उस दिन तो छुट्टी है! सबको अपने-अपने काम निपटाने हैं। काम नहीं हो तो भी इस काम के लिए अलग से समय निकालना, तैयार होना, अपने घर से, अपना समय नष्ट करके आना पड़ेगा! कौन करे और क्यों करे यह सब? इसलिए, शुक्रवार को ही हो आया जाए और वह भी आम आदमी के पौन घण्टे पर डाका डाल कर, उसके काम, कार्यालय में अधूरे छोड़ कर। सवा पाँच बजे तक की प्रतीक्षा कौन करे और क्यों करे? वह समय तो अपने-अपने घर जाने का होता है! शोक प्रकट करना जितना जरूरी, उससे अधिक जरूरी है - समय पर अपने घर पहुँचना। आज तो और जल्दी पहुँच जाएँगे। शायद सवा पाँच बजे तो घर लग जाएँगे।
इन सबने अण्णा के समर्थन में जुलूस निकाला था। भ्रष्टाचार के विरोध में और अण्णा के समर्थन में जोर-शोर से नारे लगाए थे। सबने सफेद टोपियाँ पहनी थीं जिन पर लिखा था - मैं अण्णा हूँ।
अपनी यह करनी इनमें से किसी को भ्रष्टाचार नहीं लगी होगी। लगे भी कैसे? भ्रष्टाचार तो केवल आर्थिक होता है और आर्थिक भी वह जो नेता, अधिकारी, बड़े लोग करते हैं। इन्होंने तो एक पाई का भी भ्रष्टाचार नहीं किया। कर भी कैसे सकते हैं? ये तो सबके सब खुद ही अण्णा जो हैं!