प्रवक्‍ता डॉट काम की लेख प्रतियोगिता

समसामयिक विचार पोर्टल प्रवक्‍ता डॉट कॉम के तीन साल पूरे होने पर द्वितीय ऑनलाइन लेख प्रतियोगिता का आयोजन किया जा रहा है। इससे पूर्व प्रवक्‍ताके दो साल पूरे होने पर भी लेख प्रतियोगिता (http://www.pravakta.com/archives/18521) का आयोजन किया गया था।

इस बार प्रतियोगिता का विषय है मीडिया में व्‍याप्‍त भ्रष्‍टाचार

प्रथम पुरुस्‍कार: रु. 2500/, द्वितीय पुरुस्‍कार: रु. 1500/- एवं तृतीय पुरुस्‍कार रु. 1100/- तय किया गया है।

आयोजक के अनुसार लेख केवल हिन्दी भाषा में और 2000 से 3000 शब्दों के बीच होना चाहिए जो 16 नवम्बर 2011 तक मिल जाना चाहिए। परिणाम 25 नवम्बर 2011 को प्रवक्‍ता डॉट कॉम पर घोषित किए जाएँगे। लेख अप्रकाशित एवं मौलिक होना चाहिए। लेख प्रवक्‍ता डॉट कॉम पर प्रकाशित किया जायेगा एवं बाद में इसे पुस्‍तक का स्वरूप भी दिया जा सकता है। लेख के साथ जीवन परिचय (नाम/मोबाइल नम्‍बर/ई-मेल/पता/पद आदि का जिक्र) संस्थान/ एवं फोटोग्राफ भी भेजें।। पुरुस्कार की राशि चेक द्वारा भेजी जाएगी।

पुरुस्‍कार के सम्‍बन्‍ध में निर्णायक मण्‍डल का निर्णय सर्वोपरि होगा। अपना लेख ई-मेल के ज़रिये prawakta@gmail.com पर भेज सकते हैं। कृपया अपना लेख हिन्दी के युनिकोड फ़ोंट जैसे मंगल (Mangal) में अथवा क्रुतिदेव (Krutidev) में ही भेजें।

विस्‍तृत विवरण के लिए यहाँ क्लिक (http://www.pravakta.com/archives/31304) करें या फिर सम्‍पर्क करें: संजीव कुमार सिन्‍हा, सम्‍पादक, प्रवक्‍ता डॉट कॉम, मो. 09868964804

अण्णा को पता तो चले

भ्रष्टाचार के प्रति हमारी मानसिकता का सामान्य उदाहरण है यह।

शुक्रवार शाम साढ़े चार बजे मैं, भारत सरकार के एक उपक्रम के स्थानीय कार्यालय पहुँचा। सन्नाटा छाया हुआ था। कर्मचारियों के बैठनेवाला पूरा हॉल खाली था। पंखे चल रहे थे और बत्तियाँ जल रही थीं। कार्यालय प्रबन्धक और उनके दो सहायक, प्रबन्धक के कमरे में बैठे कागज निपटा रहे थे। दूर, एक कोने में, चतुर्थ श्रेणी के दो कर्मचारी, माथा झुकाए कागजों के ढेर में उलझे हुए थे। नगद लेन-देन का समय यद्यपि समाप्त हो चुका था किन्तु शायद हिसाब बराबर मिला नहीं होगा, सो खजांची अपने पिंजरे में बैठा कभी रुपये गिन रहा था तो कभी सामने रखे कागज पर लिखे आँकड़े देख रहा था। पूरे कार्यालय में सन्नाटा पसरा हुआ था। कुल जमा 6 लोग कार्यालय में थे किन्तु कोई भी आपस में बात नहीं कर रहा था। सब, अपने-अपने काम में लगे हुए थे।

अनुमति लेकर कार्यालय प्रभारी के कमरे में गया। पूछताछ के जवाब में मालूम हुआ कि सारे कर्मचारी अपने एक सहकर्मी के परिवार में हुई मौत पर शोक प्रकट करने गए हैं। यह पूछने का कोई अर्थ नहीं था कि वे वापस काम पर लौटेंगे भी या नहीं? स्पष्ट था कि कार्यालय का समय भले ही शाम सवा पाँच बजे तक का है किन्तु सबके सब, शोक संतप्त परिवार को साँत्वना बँधा कर अपने-अपने घर चले जाएँगे। अगले दिन शनिवार है - अवकाश का दिन। सो, अब मेरे काम के बारे में सोमवार को ही कुछ मालूम हो सकेगा। मैंने किसी से कुछ नहीं कहा। बुझे मन से लौट आया।

इस कार्यालय में मेरा आना-जाना बना रहता है। इतना कि, अण्णा हजारे के समर्थन में जब इस कार्यालय के कर्मचारियों ने जुलूस निकाला तो उन्होंने मुझसे भी शरीक होने का आग्रह किया। मैं भी राजी-राजी शरीक हुआ। जुलूस में केवल पुरुष कर्मचारी थे। महिला कर्मचारी शरीक नहीं हुईं। जुलूस में शामिल सारे कर्मचारियों ने ‘मैं अण्णा हूँ’ वाली सफेद टोपियाँ पहन रखी थीं। उन्होंने लाख कहा किन्तु मैंने टोपी नहीं पहनी। कोई आधा किलोमीटर घूम कर जुलूस समाप्त हुआ तो भाषणबाजी हुई। मैंने भी अण्णा के समर्थन में भाषण दिया और सराहना पाई।

वे ही सारे के सारे, लगभग पचीस कर्मचारी, निर्धारित समय से पौन घण्टे पहले कार्यालय से तड़ी मार कर, अपने सहकर्मी के शोक में शरीक होने का अपना व्यक्तिगत फर्ज निभाने चले गए थे। किसी ने अनुभव करने की कोशिश नहीं कि वे आम आदमी के समय पर डाका डाल कर अपनी व्यावहारिकता निभा रहे हैं। किसी ने नहीं सोचा कि इस पौन घण्टे में, अपना काम लेकर आनेवाले लोगों को कितना कष्ट होगा? किसी ने नहीं सोचा कि प्रत्येक कर्मचारी के इस पौन घण्टे का भुगतान, उन लोगों ने किया है जिन्हें इन कर्मचारियों की अकस्मात अनुपस्थिति के कारण अपने काम के लिए अड़तालीस घण्टों की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।

सारे कर्मचारियों को पता था कि मृत्यु वाले परिवार ने अगले दिन, शनिवार शाम पाँच बजे उठावना (तीसरे की बैठक) रखा है। किन्तु उस दिन तो छुट्टी है! सबको अपने-अपने काम निपटाने हैं। काम नहीं हो तो भी इस काम के लिए अलग से समय निकालना, तैयार होना, अपने घर से, अपना समय नष्ट करके आना पड़ेगा! कौन करे और क्यों करे यह सब? इसलिए, शुक्रवार को ही हो आया जाए और वह भी आम आदमी के पौन घण्टे पर डाका डाल कर, उसके काम, कार्यालय में अधूरे छोड़ कर। सवा पाँच बजे तक की प्रतीक्षा कौन करे और क्यों करे? वह समय तो अपने-अपने घर जाने का होता है! शोक प्रकट करना जितना जरूरी, उससे अधिक जरूरी है - समय पर अपने घर पहुँचना। आज तो और जल्दी पहुँच जाएँगे। शायद सवा पाँच बजे तो घर लग जाएँगे।


इन सबने अण्णा के समर्थन में जुलूस निकाला था। भ्रष्टाचार के विरोध में और अण्णा के समर्थन में जोर-शोर से नारे लगाए थे। सबने सफेद टोपियाँ पहनी थीं जिन पर लिखा था - मैं अण्णा हूँ।

अपनी यह करनी इनमें से किसी को भ्रष्टाचार नहीं लगी होगी। लगे भी कैसे? भ्रष्टाचार तो केवल आर्थिक होता है और आर्थिक भी वह जो नेता, अधिकारी, बड़े लोग करते हैं। इन्होंने तो एक पाई का भी भ्रष्टाचार नहीं किया। कर भी कैसे सकते हैं? ये तो सबके सब खुद ही अण्णा जो हैं!

अण्‍णा का अधूरा आह्वान

कोई सप्ताह भर की, हाड़-तोड़, शरीर को निचोड़ देनेवाली भागदौड़भरी व्यस्तता से मुक्त हो आज शाम बुद्धू बक्सा खोला तो पहला ही समाचार देखकर हतप्रभ रह गया। विभिन्न समाचार चैनलों में, नीचे पट्टी में बताया जा रहा था कि अण्णा ने, मतदाताओं से, हिसार लोकसभा उपचुनाव में फौरन ही और पाँच प्रदेशों के विधान सभा चुनावों में, संसद के शीतकालीन सत्र के बाद, स्थिति अनुसार, काँग्रेस को वोट न देने का आह्वान किया है। लगा कि समाचार को संक्षिप्त रूप में देने की विवशता के अधीन समाचार आधा ही दिया गया है। अत्यधिक अधीरता से एक के बाद एक, मेरे बुद्धू बक्से पर उपलब्ध, हिन्दी-अंग्रेजी के तमाम समाचार चैनल देख मारे किन्तु समाचार इतना ही था। थोड़ी देर में दो-तीन चैनलों पर अण्णा को यही आह्वान करते देख भी लिया। वहाँ भी बात काँग्रेस को वोट न देने तक ही सीमित रही।

अण्णा का यह आह्वान मुझे न केवल अधूरा और नकारात्मक अपितु उनके आन्दोलन के लिए सांघातिक लग रहा है। काँग्रेस को वोट न देने की अपील तो अपनी जगह ठीक है किन्तु यह नहीं बताया गया कि काँग्रेस को वोट न दें तो फिर किसे दें। यदि विकल्प नहीं सुझाया जा रहा है तो यह आह्वान सवालों के घेरे में आ जाएगा। होना तो यह चाहिए था कि अण्णा-समूह, मतदाताओं को बताता कि फलाँ-फलाँ उम्मीदवार अथवा पार्टी ने, अण्णा-समूह के जनलोकपाल को शब्दशः समर्थन दिया है, इसलिए उसे ही वोट दें। किन्तु विकल्प नहीं बताया जा रहा है और केवल काँग्रेस को वोट न देने का आह्वान किया जा रहा है। इस ‘अनकही’ का सन्देश तो यही जाएगा कि काँग्रेस को धूल चटा कर, उसके निकटतम प्रतिद्वन्द्वी दल को विजयी बनाया जाए।


उधर, किरण बेदी को यह कहते हुए प्रस्तुत किया गया कि भाजपा और लोक दल ने,

अण्णा-समूह के जनलोकपाल के पक्ष में पत्र दे दिए हैं। किन्तु ये दोनों पत्र सार्वजनकि नहीं किए जा रहे हैं। यह बात इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि लोकसभा में सुषमा स्वराज घोषित कर चुकी हैं कि अण्णा के जनलोकपाल के अनेक बिन्दुओं से भाजपा सहमत नहीं है।

अण्णा, काँग्रेस को वोट न देने का आह्वान अवश्य करें किन्तु अपनी निष्पक्षता और सदाशयता जताने के लिए उन्हें किसी विकल्प (यह विकल्प कोई पार्टी भी हो सकती है और/या अलग-अलग दलों के अलग-अलग उम्मीदवार भी) का सुझाव भी अवश्य देना चाहिए। ऐसा न होने पर एकमेव निष्कर्ष यही निकलेगा कि अण्णा-समूह निश्चय ही किन्हीं निहित राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति में सीधे-सीधे सहायक हो रहा है।


यदि यह आह्वान यूँ ही अधूरा बने रहने दिया गया तो आज भले ही काँग्रेस को पराजित करवा कर अण्णा-समूह आत्म-सन्तुष्ट होकर उत्सव मना ले। किन्तु इसके साथ ही अण्णा के आन्दोलन की निष्पक्षता और सदायता संदिग्ध ही नहीं अविश्वसनीय हो जाएगी। उस दशा में यह,एक मजबूत जन आन्दोलन के निराशाजनक अन्त का कारुणिक आरम्भ होगा।


मैं इस कल्पना मात्र से ही भयभीत हूँ। मैं अण्णा को असफल होते नहीं देखना चाहता।