ताकि तोड़ी जा सके
लाखों में एक : भाभी भी और रोग भी
दादा ने अद्भुत दृढ़ता दिखाई। उनकी आँखें एक पल को भी सजल नजर नहीं आई और न ही उनका गला रुँधा। उन्होंने कहा - ‘कोई रोना-धोना नहीं होगा। यह मृत्यु नहीं, महोत्सव है।’ अर्थी उठते समय, दादा की इकलौती साली चित्कार करने लगी तो गुस्से में दादा ने उसे ऐसा धकेला कि वह गिरते-गिरते बची। मेरी छोटी बहन नीलू भी क्रन्दन करने लगी तो दादा ने उसे ऐसा डाँटा कि वह नाराज होकर उठावने में शरीक नहीं हुई।
रात में दादा ने बताया कि 13 जुलाई को भाभी को फिर उदयपुर ले गए थे। प्लेटलेट चढ़ाने की प्रक्रिया शुरु की किन्तु शरीर ने अस्वीकार कर दिया। गोर्की की बात सच होने लगी। 14 को डॉक्टरों ने कहा - ‘बैरागीजी! इन्हें घर ले जाईए। अधिकतम 6 दिनों की बात है।’ किन्तु भाभी तो पाँचवें दिन ही चली गईं। अपने तईं मैं दादा कोजितना जानता हूँ, उसके मुताबिक तो भाभी का दाह संस्कार नीमच में ही हो जाना चाहिए था। दादा ने कहा - ‘यह सुशील की इच्छा थी। उसने कहा था - ‘आप मुझ ब्याह कर मनासा लाए थे। वहीं मेरा अन्तिम संस्कार करना।’
बातों ही बातों में दादा ने जब बताया कि यह रोग (एप्लास्टिक एनीमिया) लाखों में एक व्यक्ति को होता है तो मुझे झुरझुरी हो आई। मेरी भाभी लाखों में एक थी। उन्होंने रोग पाला तो वह भी लाखों में एक वाला!
सच हो गई एक लोकोक्ति
अण्णा का भ्रष्टाचार : इनका शिष्टाचार
‘अण्णा’ ही बने रहिए अण्णा
व्यवस्थित शोकसभा
किन्तु यह उदाहरण हमारे लोक मानस में आ रहे परिवर्तन का, सचेत करनेवाला उदाहरण है। इस परिवर्तन का आधार क्या हो सकता है? कोई आर्थिक-सामाजिक कारण है या शासक-शासित के बीच स्थापित असन्तोष इसका कारण है?
चिड़िया से मात खा गया मुख्यमन्त्री
नहीं अण्णा! 16 से अनशन बिलकुल नहीं
- चार जुलाई की सर्वदलीय बैठक में यह बात साफ हो गई है कि जिन 6 मुद्दों पर अण्णा-समूह और केन्द्र सरकार में असहमति बनी हुई है, उनमें से, कम से कम 5 मुद्दों पर लगभग सारे के सारे दल, केन्द्र सरकार के साथ हैं। केवल, लोकपाल के दायरे में प्रधानमन्त्री को लाए जानेवाले (एक ही) मुद्दे पर कुछ दल सहमत हैं।
बुरी नीयत से किया अच्छा काम
.....तो जेपी और अण्णा की जरुरत नहीं होती
मेरे शहर के हज़ल शहंशाह
कवि गोष्ठियों को लेकर मेरा अनुभव गोष्ठी-प्रति-गोष्ठी कसैला होता चला गया और स्थिति यह हो गई कि किसी कवि गोष्ठी का न्यौता मिलते ही जान घबराने लगी। मुझे कविता की या साहित्य की समझ नहीं है। किन्तु कवियों/साहित्यकारों के आसपास बने रहना, उनकी बातें सुनना अच्छा लगता है। हर बार वहाँ से कुछ न कुछ मिलता ही है। लेकिन कुछ बरसों से लगने लगा कि भरपूर समय लगाने के बाद भी कुछ नहीं मिल रहा। कवि गोष्ठियों ने इस मनःस्थिति को हर बार बढ़ाया और अन्ततः मैं कवि गोष्ठियों के प्रति विकर्षक हो गया। होता यह था कि तीस-तीस, पैंतीस-पैंतीस कवि होते और श्रोता मैं अकेला। वे सबके सब अपनी-अपनी डायरी बगल में दबाए होते। अपनी बारी आने तक, अपने से पहलेवालों की कविताओं पर खूब उत्साह से वाह! वाह! करते और अपनी बारी आने पर अपनी कविता पढ़ कर प्रस्थान कर जाते। अधिकांश कविताएँ पहले ही कई-कई बार पढ़ी हुई होतीं किन्तु वे हर बार ऐसे सुनाते और सुनते (और दाद देते) मानो पहली ही बार पढ़-सुन रहे हों। कविता की समझ न होने पर भी इतना तो समझ आने लगा था कि किस कविता में प्राण हैं और किसमें नहीं। अधिकांश कविताएँ निष्प्राण होतीं। धीरे-धीरे लगने लगा कि ऐसी कवि गोष्ठियाँ या तो खानापूर्ति हो गई हैं या फिर अपनी कविता सुनाने की ललक पूरी करने का निमित्त् मात्र। ऐसा लगने लगा मानो कवियों ने परस्पर अघोषित/अलिखित समझौता कर लिया है - ‘तू मेरी कविता पर वाह! वाह! कर, मैं तेरी कविता पर करूँगा।’ कुछ गोष्ठियों में, काव्य पाठ के पश्चात् मैंने किसी कवि से उसकी कविता के बारे में कुछ जिज्ञासाएँ रखीं तो मुझे कोई उत्त्र नहीं मिला। दो-चार बार ऐसा होने पर मैंने कवि गोष्ठियों में जाना बन्द कर दिया। बाद-बाद में ऐसा होने लगा था कि मेरे कस्बे के जन कवि श्याम भाई माहेश्वरी जब भी मुझे कवि गोष्ठी का न्यौता देते और गोष्ठी के बाद होनेवाले भोजन के लिए निर्धारित रकम माँगते तो मैं कहता - ‘नहीं श्याम भाई! मैं नहीं आऊँगा। सुननेवाला मैं अकेला और सुनानेवाले तीस-पैंतीस। मेरे मुँह से झाग आने लगेगें और मैं बेहोश हो जाऊँगा। जब आऊँगा ही नहीं तो पैसे देने का तो सवाल ही नहीं उठता। फिर भी आप चाहते हैं कि मैं आऊँ तो मुझे सुनने का पारिश्रमिक दें तो आने पर सोचूँ।’ श्याम भाई मेरी टप्पल में एक धौल टिकाते और मुझे ठेठ मालवी में गरियाते - ‘मीं ऐसा वेंडी बई का नी के थने दाल-बाटी भी खवाड़ाँ ने पईसा भी दाँ। नी चावे म्हाके ऐसा श्रोता। चल! भाग!’ (हम किसी विक्षिप्त माँ की सन्तान नहीं कि तुझे दाल बाटी भी खिलाएँ और रुपये भी दें। नहीं चाहिए हमें ऐसा श्रोता। चल, भाग।) और हम दोनों हँसते-हँसते एक दूसरे को मुक्त कर देते।
किन्तु इस गोष्ठी में ऐसा नहीं हुआ। ‘उस दिन’ पहली सूचना अनायास ही मिली भाई सिद्दीक रतलामी और आशीष दशोत्त्र से। बोले - ‘आज शाम को एक छोटी सी गजल गोष्ठी है। जरूर आईए। आपको अच्छा लगेगा।’ मैंने सुनने का शिष्टाचार निभाते हुए अनसुनी कर दी। दोपहर में खोकर साहब ने कहा - ‘मैं जानता हूँ कि आप कवि गोष्ठियों से आतंकित हैं। किन्तु आज शाम को जरूर आईए। पाँच-सात लोग अपनी गजलें पढ़ेंगे। ‘तरही नशिस्त’ है और बमुश्किल घण्टे- डेड़ घण्टे की होगी।’ खोकर साहब भारतीय जीवन बीमा निगम में विकास अधिकारी हैं और उसी शाखा में पदस्थ हैं जिससे मैं सम्बद्ध हूँ। हमारे (भा.जी.बी.नि. के) कार्यक्रमों का संचालन उन्हें ही करना पड़ता है। अच्छे गजलकार हैं और मंचों पर अपना मुकाम बना चुके हैं। मैं उनके प्रति मोहग्रस्त हूँ। जवाब दिया - ‘कोशिश करूँगा।’ उन्होंने सस्मित आग्रह दोहराया और कहा - ‘ईमानदारी से कोशिश कीजिएगा। आपको वाकई में अच्छा लगेगा।’
घर लौटा। भोजन किया और पसर गया। नींद आ गई। जोशीजी के फोन से नींद खुली। वे हमारे शाखा प्रबन्धक हैं। पूरा नाम हरिश्चन्द्र जोशी है किन्तु लिखते ‘हरीश चन्द्र जोशी’ हैं। पूछ रहे थे - ‘गोष्ठी में चल रहे हैं ना?’ मेरे जवाब की प्रतीक्षा किए बिना बोले - ‘घर के बाहर तैयार मिलिए। दस मिनिट में गाड़ी लेकर आ रहा हूँ।’ उसी क्षण मुझे लगा, ईश्वर चाहता है कि मैं इस गजल गोष्ठी में जाऊँ।
हम लोग पहुँचे तो सिद्दीक भाई अपनी गजल पढ़ रहे थे। एक शायर पढ़ चुके थे। जैसा कि खोकर साहब ने बताया था, यह ‘तरही नशिस्त’ थी जिसे हिन्दी में ‘समस्या पूर्ति गोष्ठी’ कहा जा सकता है। सबको पहले ही एक काव्य पंक्ति दे दी गई थी जिसे आधार बना कर प्रत्येक को अपनी गजल कहनी थी। इस बार की पंक्ति थी - ‘नये लोग होंगे, नई बात होगी।’ कुल जमा दस शायरों ने अपनी-अपनी गजलें पढ़ीं। किसी ने भी दो से अधिक गजलें नहीं पढ़ीं। कुछ ने एक, समस्या पूर्तिवाली, गजल ही पढ़ी। मुझे सचमुच में बहुत आनन्द आया। बहुत दिनों (बरसों) बाद किसी गोष्ठी में इतना आनन्द आया। मेरी जितनी भी और जैसी भी समझ है, उसके मुताबिक कहूँ तो इस गोष्ठी में पढ़ी गई गजलें निस्सन्देह बेहतरीन की श्रेणी में रख जा सकती हैं।
किन्तु मेरा ध्यानाकर्षित किया खोकर साहब ने। उन्होंने कभी संकेत दिया था कि उन्होंने खुद को गजल की हास्य-व्यंग्य की विधा ‘हज़ल’ (जिसे मेरे ब्लॉग गुरु श्री रवि रतलामी ने ‘व्यंजल’ नाम दिया है) पर केन्द्रित कर लिया है और इन दिनों उसी में लगे हुए हैं। इस गोष्ठी में उन्होंने समस्या पूर्ति पर जो गजल पढ़ी वह भी ‘हज़ल’ को स्पर्श करती लगी। दूसरी रचना शुद्ध ‘हज़ल’ थी और कहना न होगा कि उसने ‘मजा ला दिया।’ जी तो कर रहा है कि खोकर साहब की ढेर सारी हज़लें यहाँ दे दूँ किन्तु वह न तो उचित है और न ही सम्भव। बस, दो-तीन शेरों से उनके मिजाज का अनुमान लगाया जा सकता है -
न जलसा न शादी न बारात होगी
न बच्चों की हर साल सौगात होगी
यही सोच कर फिर करेगा वो शादी
नये लोग होंगे, नई बात होगी
मोहल्ले के कुत्ते, मुझे काटते हैं
बगीचे में अपनी, मुलाकात होगी
पड़ौसी से कह दो, छुपे हैं जो कातिल
हमें सौंप देना, तभी बात होगी
मुमकिन है मेरी बात ‘नादानी’ या छोटे मुँह बड़ी बात’ हो किन्तु मुझे आकण्ठ लग रहा है कि हज़ल की दुनिया में आनेवाला समय खोकर साहब का है और यदि उन्हें ठीक-ठीक मौके और रास्ते मिल गए तो वे हज़ल को नई पहचान दे सकते हैं। तब वे, यकीनन रतलाम की पहचान और पर्याय होंगे और मैं गर्व से कहूँगा कि मैं खोकर साहब को व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ।
मेरी बातों पर आप जिस प्रकार आँख मूँदकर विश्वास करते हैं उसके आधार पर मैं कह सकता हूँ कि आप भी कम से कम एक बार तो खोकर साहब को सुनना पसन्द करेंगे ही। वे मोबाइल नम्बर 98270 63451 और 94253 55777 पर उपलब्ध रहते हैं। लेकिन यदि आप उन्हें सुनने के बारे में विचार करें तो मेरा अनुरोध है कि मुफ्तखोरी की मानसिकता के अधीन उनका ही नहीं, किसी भी रचनाकार का शोषण बिलकुल न करें।
अण्णा! आरोप को सच होने से बचाइए
पाखण्ड याने आचरण से प्रतीक तक की यात्रा
डिब्बे में भीड़ की बात तो दूर रही, हमारे सिवाय अनारक्षित यात्री एक भी नहीं था। यह देखकर, जगह मिलने की मेरी आशा, पहले ही क्षण विश्वास में बदल गई। यात्रियों को देखकर मेरे विश्वास को प्रसन्नता का साथ भी मिल गया। लगभग 50-55 ऐसे यात्री थे जो शान्ति-कुंज (हरिद्वार) से लौट रहे थे। चारों ओर, पीताभ पृष्ठ भूमि पर गेरुए रंग में छपी इबारतोंवाले, गायत्री परिवार के झोले और यात्रियों के हाथों में, गायत्री परिवार प्रकाशन की गुजराती पत्रिकाएँ नजर आ रही थीं। इस दल में महिलाएँ अधिसंख्य थीं - चालीस से अधिक। शेष पुरुष और बच्चे थे। सबके सब गुजरात निवासी। गुजरात निवासियों की जग प्रसिद्ध दयालुता और सहृदयता से मैं अनेकबार उपकृत हुआ हूँ। सो, मेरी बाँछे ऐसी खिलीं कि बन्द होने का नाम नहीं ले रही थीं। पहली बात जो मन में आई वह यह कि बैठने की सुविधा तो मिलेगी ही, मीठे व्यवहार और पारिवारिकता के पर्याय समाज के धार्मिक लोगों का सामीप्य भी मिलेगा। सोने पर सुहागा। गोया हम लोगों की तो लॉटरी ही खुल गई थी।