सामाजिक सरोकारों और राष्ट्रीय चिन्ताओं से दुबले होनेवाले लेखकों और उपदेशकों के लिए भ्रष्टाचार सर्वाधिक आसान और बारहमासी विषय है। जब चाहे, जो चाहे, जितना चाहे लिख लो, कह दो। इसके बाद भी सब कुछ आधा-अधूरा। इतना कि धरती को कागज, समन्दर के पानी को स्याही और धरती की धुरी को कलम बनाया जाए तो भी कम पड़ जाए। भ्रष्टाचार याने गले का वह हार जिसका बोझ सहा भी न जाए और जिसे उतार फेंकने को भी जी न चाहे। हर कोई इससे दुःखी है, मुक्ति पाना चाहता है किन्तु इस मुक्ति के लिए किसी अवतार की प्रतीक्षा में बैठा है।
इसकी व्यापकता, प्रभाव और आकर्षण से बच पाने का दावा कौन कर सकता है? ईश्वर की उपस्थिति पर भले ही एक बार सन्देह किया जा सकता है किन्तु भ्रष्टाचार की उपस्थिति से नहीं। गोया, मनुष्य ने अपने लिए एक और ईश्वर का निर्माण कर लिया है - बहुत ही सुविधाजनक और मनमाफिक व्याख्यायित करने, कोसने के लिए।
चूँकि हम राजनीति से संचालित और प्रेरित देश हैं, शायद इसीलिए आज राजनीति और भ्रष्टाचार परस्पर पर्यायवाची, समानार्थी या कि एक सिक्के के दो पहलू बन कर रह गए हैं। हालत यह हो गई है कि हमारे तमाम राजनीतिक शिखर पुरुष या तो भ्रष्टाचार में लिप्त हैं या भ्रष्टाचार करनेवालों को बचाने में। गोल गुम्बदवाली इमारत में वे दाहिनी ओर बैठे हों या बाँयी ओर या फिर सामने, कहीं भी - अपनी तरफ उठी तीन अंगुलियों की अनदेखी कर, सामनेवाले पर एक अंगुली ताने रहते हैं और शुतुरमुर्ग की तरह मान लेते हैं कि पूरा देश उन्हें सच मान रहा है। जब भी, दाहिनी, बाँयी, सामने या किसी ओर दिशा में बैठा हमारा कोई रहनुमा रंगे हाथों पकड़ा जाता है तो सामनेवाला खुश हो जाता है। उपदेश देने लगता है - ‘जो खुद काँच के घरों में बैठे हैं, वे दूसरों के घरों पर पत्थर न फेंके।’ खुद को काँच के घर में बैठे रहने की सूचना देने का यह अत्यन्त शालीन तरीका है।
ऐसे में मुझे अचानक ही, श्री बालकवि बैरागी की एक कहानी याद आ रही है - किसी व्यसन की तलब की तरह। यह कहानी दैनिक भास्कर में बरसों पहले छपी थी और इसका शीर्षक था - बाइज्जत बरी।
कहानी कुछ इस तरह थी -
किसी बड़े कस्बे के पास स्थित एक छोटे से गाँव में एक बूढ़ी माँ और उसका नौजवान बेटा रहते थे। दो वक्त की रोटी जुटा कर जीवित बने रहना, दोनों के लिए सबसे बड़ी चुनौती औरी इकलौता काम था। बेरोजगारी से मुक्ति पाने के लिए हाथ पैर मारते-मारते बेटा, कस्बे के एक अफीम तस्कर का ‘केरीयर’ (वाहक) बन गया - तस्कर द्वारा सौंपी गई अफीम, निर्देशित मुकाम पर, निर्देशित व्यक्ति तक पहुँचानेवाला। एक तो तस्कर और पुलिस की मिली-भगत और दूसरी - खुद को चतुर-चालाक, सक्षम और कुशल साबित करने का उत्साह। सो, बूढ़ी माँ का वह इकलौता जवान बेटा, जल्दी ही, तस्कर का सबसे विश्वसनीय ‘वाहक’ बन गया।
किन्तु व्यापार तो व्यापार होता है। फिर, तस्करी का व्यापार तो और अधिक खास! पुलिस का काम केवल पैसों से नहीं चलता। दिखाने के लिए और कागजों का पेट भरने के लिए कुछ पकड़ा-धकड़ी करनी ही पड़ती है और इसमें भी दोनों की मिली-भगत काम में आती है। सो, पुलिस का आँकड़ा पूरा करने के लिए तस्कर ने अपने उस श्रेष्ठ ‘वाहक’ को, पुलिस को पकड़वा दिया। नौजवान को यह सब पहले ही बता दिया गया था। अपनी इस गिरफ्तारी को भी उस नौजवान ने अपने काम का हिस्सा ही माना और राजी-खुशी पुलिस अभिरक्षा में चला गया। जाते-जाते अपनी बूढ़ी माँ से कह गया कि वह सेठ के काम से, कुछ महीनों के लिए बाहर जा रहा है और माँ अपने भरण-पोषण की चिन्ता न करे, सेठ सारी व्यवस्थाएँ कर देगा। बूढ़ी माँ ने जमाना देखा था। उसने वह सब भी सुन-समझ लिया जो बेटे ने नहीं कहा था।
दिन बीतते गए। बूढ़ी माँ के यहाँ दाना-पानी समय पर, बराबर पहुँचता रहा। मुकदमा चलता रहा। तारीखें लगती रहीं। अन्ततः, तस्कर ने अपने श्रेष्ठ ‘वाहक’ को बाइज्ज्त बरी करवा ही दिया।
जेल से छूट कर बेटा जब अपनी माँ के पास पहुँचा तो साँझ ढल रही थी। सूरज अस्ताचलगामी हो चला था। बूढ़ी माँ, आँगन में बने तुलसी चौरे पर दिया जला रही थी। बेटे ने माँ को आवाज लगाई और चहकते हुए कहा - ‘माँ! मैं बाइज्जत बरी होकर आ गया।’
अपना क्रम जारी रखते हुए बूढ़ी माँ ने पहले तुलसी माता को, फिर सूरज देवता को प्रणाम किया। फिर बेटे से मुखातिब हुई। बोली - ‘बेटा! अस्त होते सूरज देवता और जगर-मगर हो रही तुलसी माता को साक्षी मान कर, अपने आत्मा राम से पूछ कर बता कि तू वास्तव में बाइज्जत बरी हो कर आया है? यदि तेरा जवाब हाँ हो तो ही घर में आना।’
बूढ़ी माँ की बात सुन कर बेटे के चेहरे का उल्लास पलायन कर गया, बढ़ते पाँव ठिठक गए, माँ के पाँव छूने को बढ़े हाथ कोहनियों में सिमट आए। उसने सूरज देवता को देखा, तुलसी माता को देखा, पल भर को अपनी आँखें मूँदीं और उल्टे पाँवों, कस्बे की ओर लौट गया। बूढ़ी माँ का झुर्रियों भरा चेहरा इन्द्रधनुष बन गया था - एक रंग आ रहा था, दूसरा जा रहा था। आँखों में आँसू और होठों पर गर्वीली मुस्कान। उसने सूरज देवता और तुलसी माता को माथा नवाया और गहरी निःश्वास ले, अपनी झोंपड़ी में चली गई।
यह कहानी मुझे लगातार ‘हाण्ट’ कर रही है। जी करता है - कचहरी के बाहर, पक्षकारों को बुलाने के लिए हाँक लगानेवाले, लाल पट्टाधारी दफ्तरी की तरह आवाज लगाऊँ - ‘है कोई बाइज्जत बरी?’ लेकिन आवाज लगा नहीं पा रहा। कैसे लगाऊँ? दूसरों से क्या पूछूँ? खुद से शुरुआत की तो पाया - मैं तो खुद ही बाइज्जत बरी नहीं!
मेरी तो हिम्मत नहीं हो रही। आप ही तलाश कीजिएगा और कोई ‘बाइज्जत बरी’ मिल जाए तो बताइएगा।