श्री बालकवि बैरागी के कहानी संग्रह
‘बिजूका बाबू’ की दसवीं कहानी
यह संग्रह, इन कहानियों के पात्रों को
समर्पित किया गया है।
ओऽम् शान्ति
आदमीयत और जिन्दादिली का जहाँ तक सवाल है, अपने पीरू अंकल का कोई जवाब नहीं। अपने कस्बे में जिधर से भी वे निकल जाते हैं, ‘पीरू अंकल! पीरू अंकल!’ की आवाजें लगने लगती हैं। जंगली धावड़े के कसाव, गठन और रंग-रूपवाली काया और सिर पर सफेद झक बालों के साथ जब वे अपनी लोचदार लचकीली-लहराती चाल से चलते हुए घर से निकलते हैं तो उनका एक नियम होता है कि वे देहरी लाँघते ही अपने दरवाजे के बाहर बीच रास्ते में खड़े होकर, जोर से आवाज लगाते हुए अपनी पत्नी से खादी भण्डारवाला अपना, कन्धे पर लटकानेवाला झोला माँगते हैं। झाड़-झटककर, झोला कन्धे पर लटकाकर वे, अपनी अनुपस्थिति में क्या-क्या काम करना और क्या-क्या नहीं करना, इन सबका खुलासा घरवाली के सामने करने के बाद जिधर को मुँह होता है उधर ही चल पड़ते हैं। यह पीरू अंकल का रोजमर्रा का चलन है।
जहाँ तक विशेषताओं तथा विशेषज्ञताओं का सिलसिला है, अंकल की शख्सियत में इसकी एक लम्बी सूची है। पर अंकल खुद अपनी इस सूची पर कभी एक सरसरी नजर भी नहीं डाल पाते। कोई दिन ऐसा नहीं जाता, जब यह सूची खुद में एक-न-एक नई विशेषता जुड़ती हुई नहीं पाती हो। खाने-कमाने का जहाँ तक मुद्दा है, पीरू अंकल के लिए इतना भर लिखना पर्याप्त है कि वे एक उच्च श्रेणी के शिक्षक के तौर पर अभी दो बरस पहले ही रिटायर होकर अपना शेष आयुकाल पूरी जिन्दादिली के साथ बिता रहे हैं।
अब, जब एक आदमी के पास विशेषताओं की लम्बी सूची है तो फिर सवाल यह भी उठता है कि इस-सूची में सबसे पहली नम्बर एकवाली विशेषता कौन सी है? बस, यही एक बात, बहुत मातबर और मतलब की है। पीरू अंकल की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है शवयात्राओं में जाना और मरघट में सम्पन्न होनेवाली शोकसभाओं में अपनी ओर से श्रद्धांजलि अर्पित करना। इस कार्य में वे इतनी महारत हासिल कर चुके हैं कि लोग उन्हें ‘श्मशान की रौनक’ तक कहने लगे हैं। गाँव में उस शवयात्रा को शवयात्रा नहीं माना जाता, जिसमें पीरू अंकल शामिल नहीं हों। मरघट में सम्पन्न हुई उस शोकसभा को तो कोई शोकसभा मानेगा ही नहीं, जिसमें पीरू अंकल का भाषण नहीं हुआ हो। अमूमन मरघटी शोकसभाओं में अन्त में ही पीरू अंकल से बोलने को कहा जाता है।
अंकल जब अपना सवेरेवाला नगर भ्रमण शुरु करते हैं तब सबसे पहले उन घरों में जाते हैं, जिनमें किसी सदस्य की तबीयत खराब होने का समाचार उनको मिल चुका होता है। वैसे टोह वे खुद भी लेते रहते हैं। पर गाँव के मनचले लड़के-बच्चे अंकल की इस फेरी का मतलब समझते हैं। इसलिए अपनी ओर से अंकल को सभी सूचित कर देते हैं कि अंकल, फलाँ के घर में फलाँ आदमी बीमार है और वहाँ आपकी याद हो रही है।
अंकल अपनी दिमागी डायरी में उस घर को नोट करते रहते हैं, फिर अपनी फेरी इस हिसाब से शुरु करते हैं कि घण्टे-दो घण्टे में वे सारे घर उनकी उपस्थिति से गुलजार हो जाएँ, जहाँ कोई बीमार चल रहा है। बीमार से सेहत की पूछताछ करेंगे, दवा-दारू की जानकारी लेंगे, डॉक्टर-वैद्य का नाम पूछेंगे, पथ्य-परहेज और आराम-उपचार की सलाह देंगे। ‘पहला सुख निरोगी काया’ से शुरु करते हुए चरक संहिता, आयुर्वेद, डॉक्टरी, एलोपैथी, होम्योपैथी ओझा-झाड़-फूँक, तन्तर-मन्तर, टोना-टोटका, गण्डा-तावीज पर तफसील से अपनी रोचक शैली में बीमार और उसके घरवालों से न जाने क्या-क्या कहते रहेंगे। समय इतना लेंगे कि अंकल के लिए चाय-पानी आ ही जाए। बीच में दो-एक बार बात को तोड़ते हुए उठने का उपक्रम करेंगे, तब तक दूसरे तीमारदार और स्वयं मरीज ही उनसे प्रार्थना करने लग जाएगा कि ‘नहीं अंकल! जरा देर और बैठो। सभी का मन लग रहा है। मरीज को बड़ा आराम मिल रहा है।’ और अंकल इस प्रार्थना को हलके से रोध-प्रतिरोध के बाद स्वीकार करते हुए भी कहेंगे, ‘मरीज के पास ज्यादा देर बैठना नहीं चाहिए। अगर बैठ भी गए तो उसका भेजा नहीं खाना चाहिए। बीमार का पहला उपचार है उसका मनोबल और दूसरा उपचार है उसके आस-पास बनी हुई शान्ति। दवा-दारू और डॉक्टरों का नम्बर इसके बाद आता है।’
इस निश्छल डाँट-फटकार के बाद भी वे इत्मीनान से बैठे गपियाते रहेंगे। बेशक अपनी कलाई घड़ी को जरा-जरा सी देर में देखते रहेंगे, पर कहेंगे नहीं कि मुझे दूसरे बीमार का हाल पूछने भी जाना है। हालाँकि सारा हाजिर मजमा जानता रहता है कि अंकल इसके बाद किसके यहाँ जाएँगे। खैर, अंकल अपनी फेरी में यही टोह लेते रहते हैं कि कौन बीमार अच्छा हो जाएगा और कौन लटक रहा है। कौन कितने दिन का मेहमान है और किसकी क्या हालत है।
शोकसभाओं में तालियाँ बजवा देना और दो-चार ठहाके लगवा देना पीरू अंकल के बाएँ हाथ का खेल है। हँसी की लहरें तो उनकी उपस्थिति मात्र से ही शुरु हो जाती है, पर तब भी लोग मन-ही-मन भी सोचते रहते हैं और कानाफूसी तथा खुसुर-पुसर में एक-दूसरे से कहते रहते हैं कि अंकल आज मरनेवाले तक की तबीयत खुश कर देंगे। और तो और, मरनेवाले के आत्मीय-से-आत्मीय परिजन और शोक-सन्तप्त करीबी-से-करीबी नाते-रिश्तेदार तक पल-दो पल को अपना रोना भूलकर होंठों पर आई मुसकान को चबाने लग जाते हैं। अंकल को इसके लिए कोई मेहनत नहीं करनी पड़ती। कई बार तो वे खुद कह पड़ते हैं कि ‘राम जाने यह सब कैसे हो जाता है! मैं खुद नहीं चाहता कि ऐसा हो, पर नटते-नटते भी वैसा हो ही जाता है। अब भगवानजी न जाने कौन से नरक में मुझे डालेंगे।’ इतना मलाल पाल लेने के बाद अंकल अपने-आप ही कह पड़ते, ‘चलो, कोई बात नहीं। जिस नरक में भी मैं रखा जाऊँगा, वहाँ वे दस-पाँच लोग तो मिल ही जाएँगे जिनको मैंने अपनी शोक-श्रद्धांजलि अर्पित की है।’ और सारा उपस्थित समुदाय हो-हों करके हँसने लग जाता।
पीरू अंकल की इस विशेषता पर तुर्रा उस दिन लगा, जब गाँव के उमराव चौधरी बीमार पड़े और उनकी बीमारी गम्भीर हो चली। अपने नित्य नियम के अनुसार पीरू अंकल चौधरी साहब का हाल पूछने उनके घर गए। अंकल को लगा कि पंछी उड़ने वाला है उन्होंने सान्त्वना देने की कोशिश की। ज्यों ही चौधरी जरा सहज हुए, उन्होंने अपने बच्चों से कहा, ‘मुझे लगता है कि अब मेरी काया की हवेली उजड़ने वाली है। जो कुछ तुम्हें करना हो, वह करते रहना; पर मेरी शवयात्रा में अगर मरघट में कोई शोकसभा हो तो उसमें पीरूलालजी को जरूर शामिल रखना।’ चौधरी परिवार के सदस्य सिर लटकाए हामी भरते रहे । पर अंकल यहाँ भी एक कदम आगे बढ़ गए। बच्चों की हिमायत करते हुए उमरावजी से बोले, ‘जो काम मुझे करना है, उसकी भारवण इनको क्यों देते हो? मैं जो यहाँ मौजूद बैठा हूँ! मैं बराबर हाजिर हो जाऊँगा। पर पहले अपना प्रोग्राम तो पक्का करके तारीख-तिथि बता दो। मुझे भी पचास काम हैं। आपका इरादा पक्का हो गया हो तो मैं उस दिन फिर गाँव में ही ठहरूँ। कहीं इधर-उधर नहीं भटकूँ।’ यह सब पीरू अंकल ने कुछ ऐसी सादगी से कहा कि सारे वातावरण में कहकहे बिखर गए। डूबते सूरज के चेहरे पर नई लाली छा गई। बच्चों को लगा कि चौधरी साहब अब अच्छे हो जाएँगे। अपनी हाजिरी दाखिल करवाकर पीरू अंकल चलते बने।
अंकल के किस्से रोज बनते ही चले जा रहे थे। खुद पीरू अंकल उस दिन अंसारी सर के पिताजी के इन्तकाल पर अपने कहे की चर्चा आज तक करते रहते हैं। अंकल को पता चल गया था कि अंसारी सर के वालिद मियाँ बीमार चल रहे हैं। वे इस दुनिया जहान से कभी भी सफर कबूल कर सकते हैं। अंकल उनकी मिजाजपुर्सी के लिए जाते, तब तक वे वाकई अल्ला मियाँ को सलाम करने जन्नत में दाखिल हो गए। अंकल ने अपने आपको अंसारी सर के दौलतखाने पर दाखिल किया। अंसारी सर समझ गए कि अंकल कुछ-न-कुछ ऐसा-वैसा जरूर कह देंगे। वैसे भी, अंसारी सर के मन में अंकल के प्रति कोई खास भावना थी भी नहीं। वे अंकल की सोशल छेड़छाड़ को फूहड़ता मानते थे। यदा-कदा अपने आस-पासवालों से कहते भी थे कि कभी-न-कभी यह लंँगड़ा बुरी तरह बेइज्जत होकर रहेगा। पर आज मसला बिलकुल जाती था। अंकल उनके दरवाजे पर मरहूम वालिद मियाँ को अपना सलाम पेश करने आए थे। मामला शिष्टाचार का था। सवाल रस्म और रिवाज का भी था। अंकल ने बैठक में दाखिल होते ही अपना सलाम पेश किया और जरा सा ऊँचा बोले, ‘ओऽम् शान्ति।’ अंसारी सर ने बैठने का इशारा किया। दोनों पकी-पकाई उम्र के थे। यों कहो कि हमजोली। बराबरी के पढ़े-लिखे। कई साल एक ही साथ, एक ही मदरसे में गुजारकर आगे-पीछे रिटायर हुए। दोनों एक-दूजे की नस-नस से वाकिफ। छेड़छाड़ में करीब-करीब यक साँ।
अंकल ने कन्धे पर से अपना गाँधी झोला उतारा। बिछात पर बैठे और बैठते ही सान्त्वना देने की मुद्रा में शुरु हो गए, ‘खालिद मियाँ का मुझपर बड़ा लाड़-प्यार था। आप बेशक उनके जायन्दा जाँनशीन हैं, पर मैं भी अपने आपको उनका धरम बेटा मानता हूँ। मेरा दुःख आपसे कम नहीं है। पर अंसारी भाई! अब इस मौत का क्या करो? हरामजादी न जाने कहाँ से, न जाने कब आदमी के जिस्म में घुस जाती है। अब्बा जान को खुदा ने अपने पास बुला, लिया। दुनिया के इस राग-रंग को आप खूब समझते हो। यहाँ किसी का बस नहीं चलता। अब आपक़ो उनकी गैर मौजूदगी में जीने की कोशिश करनी होगी। वे तो मर ही चुके हैं।’
अंसारी सर के लिए बहुत हो चुका था। उन्होंने पीरू अंकल को बीच में ही थाम लिया, ‘पीरू भैया! मेरे वालिद मरे नहीं हैं। उनका इन्तकाल नहीं हुआ है। उन्होंने बस, हमसे परदा कर लिया है।’
इतना सुनते ही पीरू अंकल का मन उस मोड़ पर पहुँच गया, जहाँ उनको रास्ता मिलता है। वे बोले, ‘अंसारी भाई! आपके वालिद ने आपसे परदा कर लिया है! खैर, आपमें परदा प्रथा वैसे भी जरा ज्यादा सख्त डिसिप्लीनवाली है। पर परदा तो औरतें करती हैं। आपके घर में यह मर्दों ने परदा करना कब से शुरु.....।’
इतना सुनने भर की देर थी कि अंसारी सर की आँखों से चिनगारियाँ निकलने लगीं। करीब-करीब चीखते हुए वे बोले, ‘लँगड़े! अब तू यहाँ से लम्बा हो जा। स्साला, बड़ा आया है मातमपुर्सी करने! जब देखो तब.....’ पर अंकल अविचलित बैठे रहे। अंसारी सर के चेहरे को पढ़ते रहे। अपने अन्तर की सारी अबोधता को आँखों में लाकर करीब-करीब सिसकते हुए बोले, “मुझे क्या पता था कि मेरा भाई ‘गीता’ पढ़ रहा है। चल बोल, ‘ओऽम् शान्ति’। चेहल्लुम की तारीख बता और रो अपने बाप को। पढ़ता है पाक कुरान शरीफ, बोलता है पवित्र गीता और जलता रहा है गुस्से की आग में। तेरी जहन्नुम पक्की है बड़े भाई!”
अंसारी सर का गुस्सा जरा कम हुआ। हाथ जोड़कर बोले, ‘पीर्या! अब तू अपना रास्ता ले। मेरे मरहूम वालिद को और मुझे अपने हाल पर छोड़ दे। इस घर पर रहम खा। उठते-उठते भी अंकल बोले, ‘हमारे यहाँ तो यह सारा लफड़ा तेरह दिनों का होता है। पर भाई मेरे! तुझे तो पूरे चालीस दिन यही सब करना है। आज जाता हूँ। वक्त-बेवक्त फिर हाजिर हो जाऊँगा। चाय तब ही पियूँगा। ओऽम् शान्ति।’ और पीरू अंकल बाहर आ गए।
शहर में कई दिनों तक इस मातमपुर्सी की चर्चा तरह-तरह से होती रही। पर उस दिन तो गजब ही हो गया, जब पीरू अंकल खाना खा ही रहे थे कि कन्धों पर गमछा और टॉवेल डाले बनियान-पाजामे में चार-पाँच नौजवान उनके दरवाजे पर आ धमके। पड़ोसवालों को आश्चर्य हुआ कि लग तो रहा है कि ये लोग किसी शवयात्रा में श्मशान के लिए निकले हैं, पर उधर नहीं जाकर इस अच्छे-भले चहकते-महकते घर के सामने कैसे आ गए? उन्होंने अंकल को आवाज लगाई।
अंकल ने गस्सा चबाते-चबाते ही पूछा, ‘क्या बात है, भाई?’
बाहर से वे लोग बोले, ‘चलिए, आप जल्दी करिए। वो सन्तू पहलवान मर गया है। शवयात्रा शुरु हो गई होगी। सीधे मरघट चलना है। वहाँ सब कुछ आप ही को करना होगा। आप नहीं रहे तो वहाँ मजा नहीं आएगा।’
अंकल खाना खाते-खाते ही बोले, ‘जरा ठहरो, मैं खाना पूरा कर लूँ, फिर चलता हूँ।’ मुहल्लेवालों ने कुछ इशारों से-पूछने की कोशिश की, पर बात खुली नहीं। खाना पूरा खाने के बाद दागिए का बानक धारण करके पीरू अंकल बाहर निकले। यथा नियम उन्होंने अपनी घरवाली को आवाज दी। बाहर से ही कहा, ‘मेरे झोले में पाँचेक सौ रुपए रख देना।’ और उन युवकों से बोले, ‘मेरा नियम है, जब भी मरघट में किसी शव-संस्कार के लिए जाता हूँ तो अपनी अण्टी में चार-पाँच सौ रुपए दबाकर बैठता हूँ। मेरा मन भीतर-ही-भीतर करता रहता है कि एक जीव दुनिया से चला गया है। इसकी पंच लकड़ी में दो सौ, चार सौ रुपए अपने भी शामिल हो जाएँ तो अपना क्या बिगड़ता है! जानेवाले की परलोक यात्रा के लिए अपनी ओर से यही टी. ए. या मान लो कि अनुदान है।’ अंकल का मूड यहीं से बन गया था। चारों-पाँचों चल पड़े। रास्ते भर इस ‘टी. ए. और अनुदान’ पर चर्चा होती रही।
मरघट में सन्तू पहलवान का शव चिता पर चढ़ाया जा रहा था। अंकल ने जी भरकर उस शव का दर्शन किया, आँखों से अविरल आँसू बहाए। नाम बेशक सन्तू पहलवान था, पर काया उसकी मरियल थी। यही बीस-बाईस बरस का जवान रहा होगा। सारा चेहरा जला हुआ था। अस्पताल की चीर-फाड़ नजर आ रही थी। पता चला कि आग में झुलस जाने से सन्तू पहलवान मर गया है। किसी ने कहा, ‘शहीद हो गया है।’ कोई बोला, ‘शान था शहर की।’ कुँआरा ही था, सो बड़े भाई ने उसे मुखाग्नि दी। दागिए अपने-अपने टोले बनाकर बैठ गए। पीरू अंकल हमेशा की तरह आज भी मरघट में, घने बबूल के तने से पीठ टिकाकर बैठ गए। जब शोकसभा शुरु होगी तब पीरू अंकल को बुला लिया जाएगा। साल भर में दस-पन्द्रह मौके कुल आते हैं, जब यहाँ मेला लगता है। सभी जानते थे कि अंकल की भूमिका कब शुरु होती है। उधर, अंकल मन-ही-मन सोचते रहे, आखिर यह सन्तू पहलवान था कौन? अंकल ने न कभी इसका नाम सुना था, न इसके कामों से उनकी वाकफियत थी। आस-पास के कई गाँव-कस्बों पर उन्होंने अपनी याददाश्त को टिकाया, पर यह नाम कहीं से भी उन्हें याद नहीं पड़ा। समय की लाचारी यह कि शव की कपाल-क्रिया होते-होते पंच लकड़ी देने का समय आ जाएगा और उसके कुछ ही समय पहले शोक- श्रद्धांजलि का सिलसिला चल पड़ेगा। दागियों की संख्या भी कोई विशेष है नहीं। इने-गिने कुछ लोग बोलेंगे और फिर जिम्मेदारी आ जाएगी अंकल की। क्या तो बोलना और क्या कहना है, इसपर वे बड़ी देर तक सोचते बैठे रहे। जलती चिता को अंकल ने एक नजर फिर से देखा। मरनेवाले की उम्र का अन्दाज उन्होंने लगा लिया था। उसका अधजला शरीर और गले के नीचे तक का सारा हिस्सा जिस बुरी तरह जलकर विकृत हुआ था, वह उनकी चेतना में कौंधा।
वे कुछ सोच ही रहे थे कि एक दागिए ने आकर कहा, “अंकल! चलो, आपको सन्तू पहलवान की आत्मा की शान्ति के लिए ‘ओऽम् शान्ति’ बोलना है।”
अंकल उठे और दागियों के समूह में पोजीशन लेकर खड़े हो गए।
उन्होंने बोलना शुरु किया। पहले ही वाक्य पर लगा कि उनका कण्ठ अवरुद्ध हो गया है। इस अघट घटना पर वे अन्तर तक व्यथित हैं। अपने मोटे गाँधी झोले से उन्होंने अपनी आँखें पोंछीं। अंकल शुरु हुए। जिस ‘ओऽम् शान्ति’ को लोग अन्त में बोलते हैं, उससे उन्होंने शुरू किया, ‘भाइयों! अपना सन्तू चला गया। क्या तो उसकी उम्र थी और क्या उसकी बहादुरी थी! पट्ठा जान पर खेलकर जलती ज्वाला में कूद पड़ा। उसने उस निरीह अबला को आग की भीषण लपटों के बीच से निकाल ही लिया। अब कौन तो हमारे मुहल्ले की बहू-बेटियों के शील की रक्षा के लिए लड़ेगा और कौन ऐसी मर्दानगी दिखाएगा! हमारे इस महान् शहीद का नाम क्या है?’ चार-पाँच लड़के बोले, ‘सन्तू।’ ‘हम अपने बच्चों के नाम अब क्या रखेंगे?’ आवाज आई, ‘सन्तू।’ ‘इस बस्ती की शान कौन?’ नारा लगा, ‘सन्तू।’ ‘माँ का दूध उजलानेवाला कौन?’ लड़के बोले, ‘सन्तू।’ ‘अपने बाप के नाम को रोशन करनेवाला कौन?’ लोग बोले, ‘सन्तू।’ ‘हमको मझधार में कौन छोड़ गया?’ उत्तर आया ‘सन्तू।’ ‘हमको कौन रुला गया?’ जवाब था, ‘सन्तू।’ ‘हजार पहलवानों पर भारी कौन?’ लड़के बोले, ‘सन्तू।’ और अंकल अपनी मस्ती में धाराप्रवाह हो गए। सन्तू के परिवारवाले भी चकित थे कि सन्तू ने कैसे-कैसे महान् कार्य अपनी इस छोटी सी उम्र में कर लिये।
अंकल ने अपनी श्रद्धा का शिखर प्रकट किया, ’भाइयों! मैं उस दिन को कभी नहीं भूल पाऊँगा जिस दिन सन्तू अपनी अद्भुत बाल-सम्पदा के साथ मेरे सामने खड़ा हो गया। मैंने देखा कि अपनी कोहनियों से कलाइयों तक दोनों हाथों पर यही कोई चालीस-पचास डण्डे उठाए सन्तू कहीं चला जा रहा है। मैंने पूछा, ‘सन्तू, यह क्या?’ वह उल्लास से उछलते हुए बोला, ‘अंकल! मेरी दोनों जेबें टटोल लो तो समझ जाओगे।’ ‘मैंने जब उसकी पतलून की दोनों जेबें सँभालीं तो मैं दंग रह गया। वाह रे सन्तू! वाह रे मेरे शेर! उसकी जेबों में चालीस-पैंतालीस गिल्लियाँ ठँसी हुई थीं। चहकता हुआ बोला, ‘अंकल ! सारे मुहल्ले के बच्चों को ,आज अपनी ओर से गिल्ली-डण्डा दूँगा। वे खेलेंगे, मैं देखूँगा। आज अंकल! गाँव की गलियों में गिल्ली-गंगा बह जाएगी। देखना तो सही आप!’ अब कहाँ वह डण्डेवाला? कहाँ वह गिल्लीवाला?’ और अंकल करीब-करीब हिचकियों तक आ गए। अपनी जेब से उन्होंने सौ-सौ रुपए के पाँच नोट निकाले। उन्हें मुट्ठी में भींचा। फिर मुट्ठी ढीली करते हुए बोले, ‘जिस भी जगह हमारा सन्तू पहलवानी करता था, उस जगह उसके अखाड़े पर सन्तू की एक शानदार प्रस्तर प्रतिमा स्थापित करना आज का हमारा संकल्प है।’ लोगों ने अपनी आदत और सभाओं की परम्परा के मुताबिक इस घोषणा का स्वागत तुमुल करतल ध्वनि से किया। देर तक तालियाँ बजती रहीं। अंकल बोले, ‘मेरी ओर से पाँच सौ रुपए प्यारे सन्तू की मूर्ति के लिए आप लोग स्वीकार करिए। मूर्ति शानदार हो। हो सके तो वही गिल्ली-डण्डेवाली मुद्रा में अपना सन्तू साक्षात् खड़ा हो। ओऽम् शान्ति।’ श्मशान में ही ‘सन्तू जिन्दाबाद’, ‘सन्तू अमर रहे’, ‘हमारा शहीद सन्तू पहलवान’ जैसे नारे लगने लगे। और पंच लकड़ी का समय हो गया। लोग चिता की परिक्रमा करने लगे। अपना-अपना प्रणाम अर्पित कर दागिए श्मशान से बाहर निकलने लगे।
जब शव संस्कार के बादवाला स्नान हो रहा था तब किसी ने अंकल को बताया, ‘अंकल, आपने तो सन्तू को अमर शहीद बना दिया। कमाल कर दिया।’
अंकल बोले, ‘आखिर अपना बच्चा था। उसने काम ही ऐसा किया है। भगवान उसकी आत्मा को शान्ति प्रदान करे।’
बात धीरे-धीरे खुली। सन्तू पहलवान का मुख्य शगल था जुलूसों के आगे अपने हाथ में लोहे के एक तार पर कपड़े की गेंद गूँथकर उसे जलाना। फिर अपने मुँह में केरोसिन का कुल्ला भरकर, हवा में केरोसिन की फुहार छोडकर जलती हुई गेंद से उस फुहार को लपट में बदल देना। ढोल-ताशे-बैंड बजते रहते थे। जुलूस चलता रहता था और गाँव के बच्चे सन्तू को अपने घेरे में घेरते हुए आगे-पीछे चलते रहते थे। वे आवाज लगाते थे, ‘वाह पहलवान!’ सन्तू के ठीक साथ में एक लड़का केरोसिन का पीपा लेकर चलता रहता था।
गई रात हुआ ऐसा कि सन्तू ने दस-पाँच बार लपट को-खूब अच्छी तरह उठा दिया। पर शायद उसके सिर पर मौत मँडरा रही थीं। एक कुल्ला उसने कुछ ऐसा किया और उसे जलती हुई गेंद कुछ इस तरह छुआ दी कि लपट उलटकर वापस सन्तू के मुँह की तरफ आ गई। जिसके हाथ में केरोसिन का पीपा था, उसने घबराकर आव देखा न ताव, पानी के भरोसे सन्तू पहलवान पर वह पीपा और उलट दिया। हाहाकार मच गया। न किसी को होश रहा, न सम्पट बँधी। सन्तू सड़क पर छटपटाता रहा। जुलूस की ऐसी-तैसी हो गई। पुलिस और कानून के डर से, जिधर जिसका मुँह था, वह उधर ही भाग खड़ा हुआ।
बड़ी देर बाद लोगों ने सन्तू को समेटा। अस्पताल-पुलिस सब बाद में हुआ। सन्तू मर गया। न उसने जीवन में कोई कसरत-पहलवानी की, न कोई अखाड़ा-वखाड़ा देखा। कुश्ती लड़ने का तो सवाल ही नहीं था।
पीरू अंकल की प्रेरणा से इन दिनों सन्तू की मूर्ति के लिए चन्दा किया जा रहा हे। पुलिस उस लड़के की तलाश में है जिसके हाथ में केरोसिन का पीपा था। कोई किसी को पहचान नहीं रहा है। उस जुलूस में शामिल होने से सभी ने इनकार कर दिया है। ढोल और बैंडवाले तक मना कर रहे हैं। दूसरी तरफ रोज एक नया रसीद कट्टा किसी-न-किसी के हाथ में नजर आ रहा है। रसीदें कट रही हैं, प्रतिमा समिति बन रही है।
पीरू अंकल किसी दूसरी ‘ओऽम् शान्ति’ के लिए तैयार बैठे हैं।
ओऽम् शान्ति।
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‘बिजूका बाबू’ की नौवी कहानी ‘आम की व्यथा’ यहाँ पढ़िए।
‘बिजूका बाबू’ की ग्यारहवी कहानी ‘सदुपयोग’ यहाँ पढ़िए।
कहानी संग्रह के ब्यौरे -
बिजूका बाबू -कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - प्रभात प्रकाशन, 4/19, आसफ अली रोड़, नई दिल्ली-110002
संस्करण - प्रथम 2002
सर्वाधिकर - सुरक्षित
मूल्य - एक सौ पचास रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली