भविष्यफल का जिज्ञासा लोक

छुट्टी का दिन और तेज बरसता पानी। सुबह-सुबह का समय। ऐसे में तेजस आया तो मैंने अनुमान लगाया, निश्चय ही कोई बहुत ही जरूरी काम होगा। ऐसा, जिसे टाल पाना मुमकिन नहीं रहा होगा। मैंने कुछ नहीं पूछा। ‘बड़ेपन’ के अहम् में । यह सोचकर कि बरसते पानी में मतलब से आया हैै तो बताएगा ही। लेकिन उसने तो मुझे भीगो दिया। बोला - थोड़ी जल्दी में हूँ काका! केवल यह कहने आया था कि चिन्ता की कोई बात नहीं है। आपका संकट काल समाप्ति पर है। बस! स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहना और डॉक्टर से पूछ कर ही कोई दवाई लेना। अभी शास्त्री गुरुजी के यहाँ गया था। आपकी जन्म पत्री दिखाने। पत्री देखकर गुरुजी ने यही कहा। मैं कुछ नहीं बोला। उसे असीसा। चाय पिलाई। वह नमस्ते करके, जिस फुर्ती से आया था, उसी फुर्ती से चला गया। मेरे प्रति उसकी चिन्ता से मेरा जी भर आया। एक बार फिर उसे असीसा। मन ही मन। लेकिन भविष्यवाणी सुनकर हँसी आ गई। यह भविष्यवाणाी है या नेक सलाह? 

ज्योतिष और ज्योतिषियों को मैं अपनी सुविधा से ही लेता हूँ। न तो आँख मूँदकर विश्वास करता हूँ न ही हँसी उड़ाता हूँ। खुद को लेकर ही स्पष्ट नहीं हूँ। भ्रम में हूँ। नहीं जानता इस मामले में आस्तिक हूँ या नास्तिक? लेकिन इस पर निर्भरता और अन्धविश्वास को निरुत्साहित करता हूँ।

कोई चालीस बरस से अधिक का अरसा हो रहा है इस बात को। मन्दसौर में अखबार का सम्पादन करता था तो पाठकों की माँग पर अखबार में जब भविष्यफल छापना शुरु करना पड़ा तो शर्त रखी- सप्ताह में एक दिन छापूँगा। रोज नहीं।मेरी शर्त मान ली गई। एक पण्डितजी से बात तय की और प्रति सोमवार साप्ताहिक भविष्य फल छपने लगा। लेकिन अचानक ही समस्या आ गई। पण्डितजी अकस्मात ही चार धाम यात्रा पर चले गए, तीन महीनों के लिए। हमें कई खबर दिए बिना। इतनी जल्दी किसी पण्डित से बात करना सम्भव नहीं हुआ। मैंने अनायास ही एक प्रयोग करना तय किया। उन दिनों राजा दुबे मन्दसौर में ही था। उसने ताजा-ताजा ही कलमकारी शुरु की थी। ‘धर्मयुग’ में छपनेवाले भविष्यफल का अन्धविश्वासी। इतना कि जिस दिन धर्मयुग आनेवाला होता, उस दिन, तय समय पर रेल्वे स्टेशन पहुँचकर, वहीं बण्डल खुलवाकर धर्मयुग की अपनी प्रति लेता, अपना राशि फल देखता और वहीं अगले सप्ताह के कामकाज का कच्चा खाका बनाकर आगे बढ़ता। मैंने उससे साप्ताहिक भविष्यफल लिखने को कहा। वह अचकचा गया। बोला-‘ऐसा कैसे लिख सकता हूँ?’ मैंने अपनी सारी कुटिलता उँडेल कर, अपनी अकल के अनुसार कुछ गुर बताए, भरोसा बँधाया। तनिक हिचकिचाहट सहित राजा ने साप्ताहिक भविष्यफल लिखना शुरु किया और ऐसा शुरु किया कि चल निकला। अब राजा आत्म विश्वास तथा अधिक उत्साह से साप्ताहिक भविष्यफल लिखने लगा। लेकिन छठवें सप्ताह ही, लिखते-लिखते वह ‘उचक’ गया।  ये तो सब गड़बड़ हो गया भाई सा'ब! मैंने पूछा तो बोला - धर्मयुग में भी ऐसा ही हो रहा हो तो? मैंने भोलेपन से कहा कि ऐसा हो तो सकता है। उसने कलम फेंक दी। बोला आज से भविष्यफल लिखना बन्द और पढ़ना भी बन्द। बड़ी मुश्किल से राजा ने उस दिनवाला भविष्यफल लिखा।

उसी दिन मैंने मेरे कक्षापाठी अर्जुन पंजाबी से बात की। वह अब भी मुझ जैसा ही है। वह फौरन तैयार हो गया। हाँ भरने के बाद पूछा - लेकिन यार! ये बता! लिखूँगा कैसे? मैंने कहा - बहुत आसान है। करना क्या है? कुछ भी तो नहीं! गए दो सप्ताहों के छपे भविष्यफल देख ले। उसमें जो भविष्यवाणी की गई है, उसे आगे बढ़ाते रहना! बस! और अर्जुन ने पहले ही सप्ताह से, पूरे आत्म विश्वास से साप्ताहिक भविष्यफल लिखना शुरु किया और पण्डितजी के, तीर्थ यात्रा से लौटने तक पूरे खिलन्दड़पने से लिखता रहा। 

यह सब याद आने के बाद जिज्ञासा हुई कि इन दिनों भविष्यफल कैसे लिखे जा रहे हैं। मेरे यहाँ डाक से आनेवाले कुछ साप्ताहिक अखबारों में छपे साप्ताहिक भविष्यफल देख कर मेरी तबीयत हरी हो गई। आनन्द आ गया। मुझे लगा, या तो मैं अस्सी के दशक में आ गया हूँ या फिर भविष्यफल लेखन अभी भी अस्सी के दशक में ही ठहरा हुआ है। इन अखबारों के, चालू सप्ताह के बारह राशियों के भविष्यफलों के वर्गीकृत अंश यहाँ पेश कर रहा हूँ। खुद ही सोचिएगा कि ये भविष्यवाणियाँ हैं या नेक सलाहें। इनमें से प्रत्येक वाक्य, अलग-अलग राशि के भविष्यफल का हिस्सा है। 

पारिवारिक सुख-शान्ति: जीवन साथी कीभावना को महत्व न दिया तो कटुता सम्भव है। पारिवारिक स्थितियों में सामंजस्य न रहा तो कटुता सम्भव है। जीवन साथी की शिकायत बनी रहेगी। परिवार में परिजन वाणी संयम न रखेंगे तो विवाद सम्भव है। पारिवारिक स्थितियाँ अनुकूल रहने से सुखद स्थिति बनेगी। जीवन साथी को सहयोग-अपेक्षा पूरी करना हितकर रहेगा। परस्पर अविश्वास से पारिवारिक सामंजस्य गड़बड़ाएगा। परिजन-मित्रों से बेहिचक परामर्श-सलाह लेने से ही  हित होगा।

नौकरी: नौकरी में विरोधियों से सचेत न रहे तो अहित करेंगे। नौकरी में औरों से अलग दिखने से अच्छी पूछ परख होगी। नौकरी में परिवेश अनुकूल बनने से तनाव दूर होगा तथा अधिकारी वर्ग का विश्वास जीतने में सफल होंगे। नौकरी में परिवेश मनचाहा न रहने से मन में असन्तोष रहेगा। नौकरी में सम्हलकर चलना होगा तथा व्यर्थ का पंगा लेने से बचना होगा। व्यर्थ के वाद विवाद एवम् हठ से बचते हुए नौकरी में काम से काम रखना हितकर रहेगा। नौकरी में परिवेश अनुकूल न रहने से असन्तोष रहेगा।

आजीविका: आजीविका के क्षेत्र में कार्य योजना को आगे बढ़ाने पर लाभ की स्थिति बनेगी। आजीविका के क्षेत्र में लक्ष्य तक पहुँचने से कार्यसिद्धि एवम् लाभ होगा। आजीविका की बाधा एवम् समस्या दूर होने से राहत मिलेगी। प्रयास में शिथिलता एवम् लापरवाही का विपरीत प्रभाव कारोबार धन्धे पर पड़ेगा। कारोबार में समयानुसार परिवर्तन से लाभ होगा। आय वृद्धि से बचत की सम्भावना रहेगी। कारोबारी प्रतिस्पर्धा समाप्त होने से आय सन्तोषजनक होगी। धन सम्पत्ति, जोखिम एवम् अग्रिम सौदे के कार्य सावधानी से करने होंगे। अतिरिक्त आय से वित्‍तीय स्थिति सुधरेगी। आकस्मिक व्यय आने से संचित धन व्यय होगा। 

विद्यार्थी: विद्यार्थियों को सहज लक्ष्य नहीं मिलेगा। विद्यार्थियों को अनुकूल परिवेश मिलने से लक्ष्य की ओर बढ़ेंगे। विद्यार्थियों को बाहरी तड़क-भड़क के बजाय अपने लक्ष्य पर ध्यान देना होगा।  विद्यार्थियों को नई तकनीक का लाभ मिलेगा। विद्यार्थी वर्ग को सहज में सफलता नहीं मिलेगी। 

जीवन निर्देश: वाहन चलाने में सावधानी रखें। अति उत्साह में निर्णय से चूकेंगे। लोभ-लालच से बचना होगा।  बाहरी लोगों से सावधानी से सहायता लेनी होगी। प्रयास में शिथिलता रखी तो बनता काम रुक सकता है। अति उत्साह जोश में लिए गए निर्णय में चूक से हानि सम्भव है। विरोधी के पुनः सक्रिय रहने से तनाव होगा। बिचौलियों से कार्य बिगड़ेगा। 

स्वास्थ्य: स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहना होगा। स्वास्थ्य एवं आत्मबल बने रहने से रुके कार्य पूरे होंगे।

मैं ज्योतिष को न तो खरिज करता हूँ न ही आत्मसात। यह भी मानता हूँ कि ‘राशि फल’ में, उस राशि के तमाम लोग शरीक होते हैं इसलिए उस भविष्यवाणी में स्वाभाविक ही ‘सामूहिक भाव’ होता है। उसमें वैयक्तिकता की तलाश करना ज्योतिष और ज्योतिषी के प्रति अन्याय और अत्याचार ही होगा। वैयक्तिकता की पूर्ति हेतु तो व्यक्तिगत आधार पर ही गणना करनी पड़ेगी। 

मुझे लगता है, भविष्य के प्रति जिज्ञासा अच्छे-अच्छों की (सबकी ही हो तो ताज्जुब नहीं) कमजोरी है। कोई ताज्जुब नहीं कि हर कोई विश्वामित्र की दशा में आ जाता हो। आखिर, नास्तिक होना भी तो एक आस्था ही है! (स्वर्गीय) शरद जोशी ने कहीं लिखाा था कि अमावस की आधी रात को, घने बरगद के नीचे से गुजरते समय अच्छे से अच्छा नास्तिक भी हनुमान चालीसा पढ़ने लगता है। ऐसा ही कुछ भविष्य फल को लेकर भी होता होगा। ज्योतिष के पक्षकार इसे विज्ञान बताते हैं। उनसे असहमत नहीं। किन्तु इस विधा के वैज्ञानिकों तक पहुँचना जन सामान्य के लिए सम्भव नहीं। और जो ज्योतिषी जन सामान्य तक पहुँचते हैं, उनकी ज्योतिष-योग्यता का पता कौन करे?

वैज्ञानिकता और सामान्यता के बीच की यह दूरी ही इन दोनों के अस्तित्व को पुरजोर बनाए हुए है। बनाए रखेगी भी।
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कश्मीर से तो बात करें हम

कश्मीर हमारे लिए आज हमारे लिए ‘असमाप्त प्रकरण’ सा बना हुआ है। राजनीतिक रूप से यह यदि सम्भवतः सर्वाधिक प्रिय विषय है तो उतना ही कष्टदायक भी। ‘समस्या’ से आगे बढ़कर लगभग ‘नासूर’ बन चुके, धरती के इस स्वर्ग में व्याप्त अशान्ति की बात तो हर कोई करता है किन्तु जब भी निदान की बात आती है तो यह ‘रीछ के हाथ’ बन जाता है जिसे पकड़ने को कोई तैयार नहीं। इसी कश्मीर समस्या के निदान की दिशा में गाँधीवादी चिन्तक श्री कुमार प्रशान्त के अपने विचार हैं जो द्विमासिक पत्रिका ‘गाँधी मार्ग’ के जुलाई-अगस्त 2016 के अंक में प्रकाशित हुए हैं। प्रशान्तजी के इस चौंका देनेवाले विचार से असहमत हुआ जा सकता है किन्तु जब तक इस लेख को पढ़ेंगे नहीं तब तक भला असहमत कैसे हो सकेंगे?

तो पाकिस्तान ने बातचीत बन्द करने का मन बना रखा है। कभी हम, तो कभी वह ऐसा मन बनाता ही रहता है-कभी खुद तो कभी बाहरी निर्देश से! सवाल एक ही है। यह पाकिस्तान बनने से आज तक चला आ रहा है: कौन किससे बात करे? दोनों देशों में बनती और बदलती सरकारों की कसौटी भी इसी एक सवाल पर होती रहती है कि किसने, किससे, कब और कहाँ बातचीत की? हमारे देश में तो प्रारम्भ से ही लोकतान्त्रिक सरकारें रही हैं, पाकिस्तान में सरकारों का चरित्र लगातार बनता-बिगड़ता रहता है- कभी लोकतान्त्रिक तो कभी फौजतान्त्रिक! बातचीत फिर भी दाँवपेचों में फँसती रहती है।

लेकिन एक सवाल है जिससे हम मुँह चुराते हैंः- क्या बातचीत भारत और पाकिस्तान के बीच ही होनी है? इस विवाद के दो ही घटक हैं? ऐसा मानना सच भी नहीं है और उचित भी नहीं।  भारत और पाकिस्तान के बीच जब भी बातचीत होगी, कश्मीर के लोग उसका तीसरा कोण होंगे ही। एक तरफ यह इतिहास का वह बोझ है, जिसे उठा कर हमें किसी ठौर पर पहुँचा ही देना है; दूसरी तरफ यह हमारी दलीय राजनीति का वह कुरूप चेहरा है जिस पर स्वार्थ की झुर्रियाँ पड़ी हैं। 60 वर्षों से भी अधिक समय में भी हम कश्मीर को इस तरह अपना नहीं सके कि वह अपना बन जाए।  जब सत्ता का सवाल आया तो पिता मुफ्ती से लेकर बेटी महबूबा तक से भारतीय जनता पार्टी ने रिश्ते बना लिए अन्यथा उसकी खुली घोषणा तो यही थी न कि ये सब देशद्रोही ताकते हैं, जिनके साथ हाथ मिलाना तो दूर, साथ बैठना भी कुफ्र है।

कुछ ऐसा ही रवैया काँग्रेस का भी रहा और नेशनल कान्फ्रेंस का भी। सब हाथ मिला कर आते-जाते रहे हैं और सत्ता हाथ से जाते ही एक-दूसरे पर कालिख उछालते रहे हैं। लेकिन इन सबके बावजूद न नेशनल कान्फ्रेंस, न काँग्रेस न भारतीय जनता पार्टी और न महरूम मुफ्ती ही कभी हैसियत बना सके कि कह सकें कि कश्मीर का आवाम उनके साथ है। ऐसा दावा एक ही आदमी का था और सबसे खरा भी था और वे थे शेख अब्दुल्ला! बाकी सारे-के-सारे नाम हाशिये पर कवायद करनेवाले ही रहे। शेख साहब की बहुत सारी ताकत तेलों में जाया हुई और बहुत सारी उन्होंने भटकने में गँवा दी।। फिर जो सत्ता हाथ में आई उसे लेकर वे भी व्यामोह में फँसे और औसत दर्जे के राजनीतिज्ञ बनकर रह गए। किसी लालू यादव की तरह उन्हें भी अपना उत्तराधिकारी अपने परिवार में ही मिला। पाकिस्तान हमारी यह दुखती रग पहचानता रहा है और उसका फायदा उठाकर, कश्मीर के अलगाववादियों को उकसाता भी रहा है। आज की स्थिति यह है कि कश्मीर में किसी भारत के पाँव धरने की जगह नहीं है। कश्मीरी आवाम और नवजवान के मन में  भारत की तस्वीर बहुत डरावनी और घृणा भरी है।  ऐसा क्यों हुआ, यह कहानी बहुत लम्बी है और उसके पारायण में से आज कुछ निकलनेवाला भी नहीं है।

अब आज अगर हमारे सोचने और करने के लिए कुछ बचता है तो वह यह है कि पाकिस्तान हमसे बात करे कि न करे, हम कश्मीर मे एक सुनियोजित ‘सम्वाद सत्याग्रह’ करें। सरकार, फौज और राजनीतिक दल यह सत्याग्रह कर ही नहीं सकते क्योंकि इनके पास सत्य का एक अंश भी आज की तारीख में बचा नहीं है। तो फिर इस सत्याग्रह में शामिल कौन हो? यह काम देश के नवजवानों को करना होगा। सरकार जरूरी सुविधाएँ उपलब्ध करा कर पीछे चली जाए। सारे देश में मुनादी हो कि कश्मीर के अपने भाइयों से बातचीत करने के लिए युवक-युवतियों की जरूरत है।  देश के विश्वविद्यालयोें से, युवा संगठनों से, गाँधी संस्थाओं से व्यापक सम्पर्क किया जाए और इनकी मदद से ‘सम्वाद सत्याग्रह’ के सैनिकों का आवेदन मँगवाया जाए। स्थिति की गम्भीरता को समझने वाले 500 से 1000 युवक-युवतियों का चयन हो। उनका एक सप्ताह का प्रशिक्षण शिविर होे। जयप्रकाश नारायण से मिलकर कश्मीर के सवाल पर लम्बे समय तक, उनके विभिन्न पहलुओं पर काम करनेवाले गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान को ऐसे शिविर के आयोजन और संचालन के लिए अधिकृत किया जाए। इस शिविर को पूरा करने का मतलब यह होना चाहिए  कि युवाओं की यह टोली कश्मीर समस्या को हर पहलू से जानती व समझती है। यह जानकारी और कश्मीरी लोगों के प्रति गहरी, सच्ची सम्वेदना ही उनका हथियार होगा। 

ये सम्वेदनशील, प्रशिक्षित युवा अनिश्चित काल मान कर कश्मीर पहुँचें और कश्मीर घाटी में विमर्श का एक अटूट सिलसिला शुरु हो और अबाध चले; फिर जवाब में गाली हो कि गोली! और हमें कश्मीर के लोगों पर पूरा भरोसा करना चाहिए वे घटनाक्रम से वे व्यथित हैं, चालों-कुचालों के कारण भटके और उग्र भी हैं किन्तु पागल नहीं हैं। ऐसा ही मानकर तो गाँधी नोआखोली पहुँचे थे न! देश के विभिन्न कोनों से निकली और कश्मीर की धरती पर एक हुई 8 से 10 सदस्यों की टोलियाँ जब एक साथ, यहाँ-वहाँ हर कहीं उनको जानने, उनसे सुनने , सारा कुछ सुनने पहुँचेंगी तो व्यथा की कठोेरता भी पिघलेगी और गुस्से की गाली-गोली भी जल्दी ही व्यर्थ होने लगेगी। यह हिम्मत का काम है, धीरज का काम है और सम्वेदनापूर्वक करने का काम है। कश्मीर के लोगों और युवाओं में बनी हुई सम्पूर्ण सम्वेदनहीनता और उग्रता को हम शोर या धमकी के एक झटके से तोड़ नहीं सकेंगे। इसलिए यह सत्याग्रह धीरता, दृढ़ता और सदाशयता, तीनों की समान मात्रा की माँग करता है।

यह सत्याग्रह इसलिए कि कश्मीर यह समझ सके कि वह जितना घायल है, बाकी का देश भी उतना ही घायल है। कश्मीर यह समझ सके कि राजनीतिक बेईमानी का शिकार वह अकेला नहीं है, असन्तुलन केवल उसके हिस्से में नहीं आया है, फौज पुलिस के जख्मों से केवल उसका सीना चाक नहीं हुआ है और यह भी कि फौज-पुलिस का अपना सीना भी उतना ही रक्तरंजित है। ‘सम्वाद सत्याग्रह’ के युवा सैनिकों को यह जानना है कि कश्मीर दरअसल चाहता क्या है; और यह ‘सत्याग्रह’ उसे यह भी बताना चाहेगा कि वह जो चाहता है वह सम्भव कितना है। चन्द्र खिलौना किसे मिला है आज तक? कश्मीर के युवा और नागरिक यह समझेंगे कि एक अधूरे लोकतन्त्र को सम्पूर्ण बनाने की लोकतान्त्रिक लड़ाई हमें रचनी है, उसके सिपाही भी और उसके हथियार गढ़ने भी हैं और उसे सफलता तक पहुँचाना भी है। 

क्यों लड़ें हम ऐसी लड़ाई? क्योंकि इस लड़ाई के बिना उन सवालों के जवाब नहीं मिलेंगे, जिनसे कश्मीर भी और हम सब भी परेशान हैं और हलाकान हुए जा रहे हैं। हो सकता है, कश्मीर उलट हमसे कहे कि वह इस देश को ही अपना नहीं मानता है तो इस देश के लोकतन्त्र की फिक्र वह क्यों करे? ठीक है, यह भी सही लेकिन कश्मीर को यह बताना तो होगा ही उसका जो भी देश होगा, पाकिस्तान या कि कोई स्वतन्त्र देश ही सही, वहाँ सवाल तो सारे ये ही होंगे। कश्मीरी युवा चाहें तो पाकिस्तानी युवाओं से बात करें, म्याँमार और अफगानी युवाओं से बात करें कि श्रीलंकाई युवाओं से बात करें, जवाब एक ही मिलेगा कि जावाब किसी के पास नहीं है! तख्त, तिजोरी और तलवार के बल पर चलने वाला तन्त्र हर कहीं दुनिया में एक ही काम कर रहा है- वह लोक की पीठ पर बैठा, उसकी गरदन दबा रहा है।

यह सच सबसे पहले मोहनदास करमचन्द गाँधी ने पहचाना था और इससे लड़ने का रास्ता भी खोजा था। आजादी के बाद 80 साल के उस आदमी ने अभी साँस भी नहीं ली थी कि किसी ने पूछाः बापू! जुलूस, धरना, जेल, हड़ताल आदि सब अब किस काम के? अब तो देश भी आजाद हो गया और सरकार भी अपनी है! अब आगे की लड़ाई का आपका हथियार क्या होगा?  क्षण भर की देर लगाए बिना जवाब दिया उन्होंनेः अब आगे की लड़ाई मैं जनमत के हथियार से लड़ूँगा!

30 जनवरी को हमारी गोली खाकर गिरने से पहले जो अन्तिम दस्तावेज लिखा उन्होंने, उसमें भी इसी को रेखांकित किया कि लोकतन्त्र के विकास-क्रम में एक ऐसी अवस्था आनी ही है जब तन्त्र बनाम लोक के बीच एक निर्णायक लड़ाई होगी; और उस लड़ाई में लोक की निर्णायक जीत हो, इसकी तैयारी हमें आज से ही करनी है। कोई 68 साल पहले की यह भविष्यवाणी है और आज के हम हैं! रुप और आवाज बदल-बदल कर लड़ाई सामने आती है और हमें पराजित कर निकल जाती है।

कश्मीर भी समझे और हम सब भी समझें कि अगर इस लड़ाई में लोक को सबल और सफल होना है, तो ‘सम्वाद सत्याग्रह’ को तेज बनाना होगा। कभी ऐसा वक्त भी आएगा कि जब कश्मीर देश के दूसरे कोनों में पहुँचकर ‘सम्वाद सत्याग्रह’ चलाएगा। ऐसा ही एक अपूर्व ‘सम्वाद सत्याग्रह’ जयप्रकाश नारायण ने आजादी के बाद नगालैण्ड में चलाया था और वह सम्वादहीनता तोड़ी थी जिसे तोड़ने में राजनीतिक तिकड़में और फौजी बहादुरी नाकाम हुई जा रही थी। इतिहास का यह अध्याय इतिहासकारों पर उधार है कि पूर्वांचल आज देश से जुड़ा है और अलगाववाद की आवाजें  वहाँ से कम ही उठती हैं, तो यह कैसे सम्भव हुआ? खुले सम्वाद में गजब की शक्ति होती है बशर्ते कि उसके पीछे कोई छुपा हुआ एजेण्डा न हो।

क्या हम अपनी कसौटी करने के लिए, पाकिस्तान से नहीं सही तो नहीं, कश्मीर से ‘सम्वाद सत्याग्रह’ आयोजित कर सकते हैं? देखना है कि जवाब किधर से आता है!
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लीडरी कारगर करते हैं, मजबूर और मगरूर नहीं

03 अगस्त को मेरे कस्बे में बँटे एक अखबार के मुख पृष्ठ पर छपी खबर के मुताबिक आईएएस अफसर प्रकाश जाँगड़े के जरिए मुख्यमन्त्री ने नाराज स्वरों में तमाम अफसरों को, खासकर कलेक्टरों को सन्देश दिया है - ‘कलेक्टर लीडर न बनें। विधायक ही लीडर हैं।’ मुझे बहुत अच्छा लगा। यह मेरे मन की बात है। सरकारी और सार्वजनिक कार्यक्रमों/आयोजनों के मंचों पर बैठे अफसर मेरी आँखों को तनिक भी भले नहीं लगते। संसदीय लोकतन्त्र में मंचों की ऐसी कुर्सियाँ निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की या फिर लोक नेताओं की होती हैं। अफसरों की जगह उनके दफ्तरों में या योजना स्थलों पर है। उन्हें भाषण नहीं देना है, उन्हें सरकार की मंशाओं को मैदान में क्रियान्वित करना है। आईएएस अधिकारियों सहित अनेक सरकारी अधिकारी मेरे मित्र हैं। इस मुद्दे पर वे सबके सब (जी हाँ! सबके सब) मुझ पर कुपित हैं - मैं उनके, फोटू छपने के ‘चांस’ का विरोध क्यों करता हूँ? वे सब मुझ पर आत्मविश्वास भरी हँसी हँसते हैं। कुछ इस तरह मानो कह रहे हों - ‘तुम्हें जो कहना-करना है, कहते-करते रहो। होगा तो वही जो हम चाहेंगे।’ मैं उनकी इस मुखमुद्रा का प्रतिकार नहीं कर पाता हूँ। कैसे करूँ? खुद मुख्य मन्त्री और उनके संगी-साथी ही मुझे हास्यास्पद बनाते हैं।

नीमच से प्रकाशित दैनिक ‘नई विधा’  के, 30 जुलाई के अंक में प्रकाशित इस समाचार पर मुझे क्षणांश को भी विश्वास नहीं हुआ। इस समाचार के मुताबिक वर्ष 2015 में अल्प वर्षा के कारण बनी सूखे की स्थिति से प्रभावित किसानों के लिए सरकार द्वारा जारी राशि में से 40 करोड़ रुपयों का भुगतान इस वर्ष अब तक नहीं हुआ। जानकारी पा कर मुख्यमन्त्री अत्यधिक कुपित हुए और उन्होंने न केवल यह राशि 48 घण्टों में वितरित करने का सख्त आदेश जारी किया अपितु उन अफसरों की सूची भी माँगी जिनकी लापरवाही के चलते किसान इस रकम से अब तक वंचित रहे। मैंने यह समाचार खूब ध्यान से, दो-तीन बार पढ़ा किन्तु यह कहीं लिखा नजर नहीं आया कि इन अधिकारियों पर कोई कार्रवाई की जाएगी या नहीं और यह भी कि ऐसी हरकत भविष्य में नहीं दुहराई जाएगी। अपनी सरकार के मानवीय चेहरे के प्रति अहर्निश चिन्तातुर और सजग मुख्यमन्त्री के राज में ऐसी अमानवीय, क्रूर लापरवाही कैसे हो गई? खासकर तब जबकि मुख्यमन्त्री के पास अपना विशाल सूचना तन्त्र हो, किसानों की आत्म हत्या के समाचार अखबारों के स्थायी स्तम्भ बनते जा रहे हों। जाहिर है, सरकार केवल घोषणाएँ कर सकती है। उनका क्रियान्वयन न हो तो भला सरकार कर ही क्या सकती है?

मेरे कस्बे के जिला अस्पताल-भवन के एक हिस्से के गिरने पर और उससे हुई एक मृत्यु पर कार्रवाई करने को लेकर प्रदेश के नव नियुक्त स्वास्थ्य मन्त्री रुस्तम सिंह के प्रति प्रश्न ने मुझे स्तब्ध कर दिया। भोपाल में, विधान सभा सत्र के दौरान पत्रकारों ने जब इस मामले में की गई या की जानेवाली कार्रवाई के बारे में पूछा तो जनता के ‘लीडर’ बन कर विधान सभा में आए, रुस्तमसिंह ने कुछ ऐसा मासूम सवाल किया - ‘क्या कार्रवाई करें? किस पर कार्रवाई करें? आप नाम बता दो, हम उस पर कार्रवाई कर देंगे।’ जिज्ञासु पत्रकार को यदि ऐसे आकर्षक और प्रभावी निमन्त्रण की कल्पना भी होती तो वह निश्चय ही पूरी कार्य योजना रुस्तमसिंह को पेश कर देता। मुझे लगता है, अब भी देर नहीं हुई है। सम्बन्धित पत्रकार मित्र को अनुपम अवसर मिला है। सरकार को, स्वास्थ्य मन्त्री रुस्तमसिंह को मदद करें। विस्तृत कार्य योजना पेश कर दें। कार्रवाई हो जाएगी। क्यों कि बेचारी सरकार को तो पता ही नहीं, किंकत्तव्यविमूढ़ है - भला सरकार क्या कर सकती है?
अखबारों ने ही बताया कि एक कस्बे के नादान लोगों ने अपनी ही चुनी हुई सरकार को सक्षम और विश्वसनीय मानकर, जनता के ही एक ‘लीडर,’ एक अन्य मन्त्री से, अपने कस्बे के अस्पताल में डॉक्टरों की कमी का हवाला देकर कुछ डॉक्टरों की नियुक्ति की माँग कर दी। निरीह, असहाय मन्त्रीजी ने प्रति प्रश्न कर लिया कि लोग ही बताएँ कि वे कहाँ से डॉक्टर लाएँ। ये ‘लीडर’ यही कहकर नहीं रुके। उन्होंने लोगों को आसान उपाय बताया कि लोग डॉक्टर पैदा करके सरकार को दे दें, सरकार उन्हें, उनके कस्बे में नियुक्त कर देगी। क्योंकि सरकार तो कुछ नहीं कर सकती।

जनता के एक ‘लीडर’, सरकार के एक अन्य मन्त्री ने तो नागरिकों को मानो ‘कस्तूरी मृग’ साबित कर दिया। शिक्षा से उपजी चेतना और जागृति से प्रभावित लोग अपने स्वास्थ के प्रति सजग, सावधान हो, अन्धविश्वास और कुपरम्पराएँ छोड़, वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने लगे थे। जनता के ‘लीडर’ मन्त्रीजी को यह ठीक नहीं लगा। सोे, जब गाँव के लोगों ने स्वास्थ सुविधाएँ माँगी तो ‘लीडर’ ने प्रदेश की जनता की चिन्ता की और लोगों को भूली बिसरी बातें याद दिलाते हुए सलाह दी कि वे अस्पताल पर ही निर्भर न रहें और मरीज की झाड़ फूँक करवा लिया करें। ठीक भी है। सरकार कुछ कर सकती तो कर चुकी होती। किन्तु बेचारी सरकार तो कुछ कर ही नहीं सकती!

हमारा लोकतन्त्र केवल गुणों की खान नहीं है। इसमें दोष भी हैं। राजनीतिक और गुटीय सन्तुलन बनाने के नाम पर सत्तारूढ़ दल भी अपात्रों को पुरुस्कृत करने पर विवश हो जाते हैं और सुपात्र टूँगते रह जाते हैं। ऐसे अपात्रों की अक्षमता समूची सरकार की अक्षमता बन कर सामने आती है और यही स्थिति अफसरों को लीडर बनने का टॉनिक बनती है। 

आज के अखबारों में मेरे कस्बे के नगर निगमायुक्त के तबादले की खबर छपी है। खबर के अनुसार इस तबादले के निर्देश खुद मुख्यमन्त्री को देने पड़े। इन आयुक्तजी से मेरे कस्बे के पक्ष-प्रतिपक्ष के तमाम नेता, लगभग दो बरसों से परेशान थे। निगमायुक्तजी ने इन सबको, अपनी उपेक्षा का रोना रोने में व्यस्त कर रखा था। इन ‘लीडरों’ का रोना अखबारों का स्थायी स्तम्भ बन चुका था। हमारे विधायक भाजपाई हैं। उनके आसपास के भरोसेमन्द लोग बताते हैं कि पार्टी अनुशासन के लिहाज के चलते विधायकजी भी कस्बे को इनसे मुक्ति दिलाने का आग्रह खुद मुख्यमन्त्रीजी से एकाधिक बार कर चुके थे। किन्तु ‘प्रदेश के लीडर’ ने ‘विधान सभा क्षेत्र के लीडर’ की नहीं सुनी। किन्तु कल जब मुख्यमन्त्रीजी को अनुभूति हुई कि ये आयुक्तजी उनकी (मुख्यमन्त्रीजी की)  ही मट्टी पलीद कर रहे हैं तो ताबड़तोड़ तबादले के निर्देश जारी किए। मेरे कस्बे के लोग साँसें रोक कर लिखित आदेश की प्रतीक्षा कर रहे हैं। मुझे आकण्ठ विश्वास है कि सत्ता पक्ष के ही अनेक ‘स्थानीय लीडर’ देवस्थानों में मनौतियाँ ले रहे होंगे-यह तबादला निरस्त न हो जाए।

अपने मुख्यमन्त्रित्व काल में दिग्विजयसिंह  जब मेरे कस्बे में आते थे तो उनकी अगवानी में सरकारी अमले के अलावा काँग्रेस के पदाधिकारी और कार्यकर्ता भी हेलीपेड पर उपस्थिति रहते थे। होना तो यह चाहिए था कि हेलीकाफ्टर से उतरते ही वे, सबसे पहले अपनी पार्टी के जिलाध्यक्ष या/और अन्य पदाधिकारियों से मिलते। किन्तु ऐसा नहीं होता था। दो-एक बार मैंने ही देखा, वे उतरते ही कलेक्टर से गलबहियाँ करते थे। भला ऐसे में कोई ‘लीडर’ कैसे ‘लीडरी’ कर सकता है? मुझे नहीं पता, शिवराज ऐसा करते हैं या नहीं किन्तु ‘ स्थानीय लीडर’ की ‘लीडरी’ की चिन्ता यदि पार्टी का सबसे बड़ा लीडर नहीं करेगा तो बेचारा ‘स्थानीय लीडर’ कैसे ‘लीडरी’ करेगा? किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं लिया जाना चाहिए कि प्रशासकीय तन्त्र का राजनीतिककरण कर दिया जाए-जैसा कि इन दिनों अनुभव हो रहा है। 

कहते हैं, ‘सरकार नहीं चलती, सरकार का जलवा चलता है।’ यदि मुख्यमन्त्री को अपने अधिकारियों से कहना पड़े कि वे ‘लीडरी’ न करें तो इसका अर्थ यही है कि सरकार या तो मजबूर है या मगरूर। इन दोनों तरह की स्थितियों में ‘जलवा’ याने की ‘लीडरी’ सबसे पहले लुप्त होती है। 

जलवा कारगरों का ही चलता है, मजबूरों और मगरूरों का नहीं।
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