न रन की भयावहता का पता न संकटों का अनुमान, माता का जैकारा लगा, शुरु कर दी पद-यात्रा, जाना पानी का मोल (कच्छ का पदयात्री - दसवाँ भाग)



‘आशापुरी से दो-तीन मील आगे पैदल चलने पर मकरभीम स्थान आता है। मकरभीम से ही कच्छ का रन शुरु होता है। इने-गिने आदमी ऐसे होते हैं जो कि यहाँ से इस रन को पैदल पार करने की हिम्मत करते हैं। मकरभीम से कच्छ पार करने वालों को भुज की तरफ लखपत नामक स्थान पर पैदल आना पड़ता है। यह दूरी कम-से-कम 36 मील है। मुझे न तो कच्छ की भयावहता का पता था, न उस यात्रा में आने वाले संकटों का अन्दाज। मुझे तो पैदल चलना था और अधिकाधिक देरी तक भटकना था। सो, मैंने मकरभीम पर उस स्थान पर जाकर अपना चोला खड़ा कर दिया जहाँ पैदल पार करने वालों को सुविधाएँ दी जाती हैं। 

जब मैं उन अधिकारियों के सामने खड़ा हुआ तो वे मुझे सिर से पाँव तक देखते ही रह गए। मेरी कच्ची उम्र और कच्छ का 36 मील का जानलेवा लू मेें तपता नमकीन मैदान! इस तुलना ने वहाँ के अधिकारियों को असमंजस में डाल दिया। वे मुझे बार-बार समझाते थे और मैं अपनी जिद पर दृढ़ था। जब बाधाएँ आती हैं तो मेरी जीवट भी जवान हो जाती है। मैंने सोच लिया कि इस अभियान को साकार करना ही चाहिए। मैंने अपनी हिंगलाज माता की विकराल यात्राओं का अनुभव उनको सुनाया और उनका समाधान किया कि मैं कच्छ को पार पटक जाऊँगा। वे तो बस अनुमति भर दे दें। कुछ आपसी खुसुर-पुसुर के बाद आखिर मुझे अनुमति मिल गई। एक बार फिर मेरी आँखें विजयोल्लास से चमक उठीं और मुझे अहसास हुआ कि मैं अपनी उम्र का एक और ठप्पा समय की छाती पर लगा दूँगा।’

अब हम सब अपनी-अपनी कुर्सियों पर सरक, आगे तन आये थे। दादा की यात्रा का रोमांचकारी सोपान शुरु हो रहा था। दादा बोले-

‘मकरभीम पर पैदल निकलने वाले यात्रियों को पानी पीने के लिए मिट्टी का बत्तखनुमा एक बर्तन दिया जाता है, जिसे वहाँ तूंग कहते थे। अपने यहाँ इसे तोंग या बदक कहते हैं। इस बर्तन में कोई 10-15 सेर पानी समा जाता है। यह पानी पदयात्री को साथ लेकर चलना होता है। ऐसे बर्तन वहाँ मोल भी मिलते थे पर गेरुआ पहने सन्यासियों को मुफ्त वितरित होते थे। तीन-चार लोगों का एक पेनल या बोर्ड उस यात्री को रास्ते की कठिनाइयाँ बताता है और किस समय यात्रा करनी और कहाँ-कहाँ मुकाम करना यह सब बताता है। यदि इस समझाइश को यात्री गम्भीरता से नहीं ले तो इसमें कोई शक नहीं कि रन में कहीं किसी क्षण यात्री का प्राणान्त हो जाए। उसकी लाश खाने के लिए वहाँ गिद्ध भी एकाएक नहीं आ पाते हैं। नमक और बालू में वह लाश अपनी भाग्य-गति के अनुसार रफा-दफा होती है। आज तो कच्छ के रन में जीपें चलने के फोटू आप-हम अखबार में देखते हैं और भारत की सुरक्षा टुकड़ियों ने रन में रास्ते भी बना लिये हैं। पर तब ऐसी कोई बात नहीं थी। भारत अविभाजित था और कच्छ की तरफ से देश को किसी खतरे की तत्कालीन अंग्रेज सरकार सोचती भी न थी। इसलिए रास्तों का प्रश्न ही नहीं था। 

कच्छ का रन लम्बाई में 1100 मील है और जिस जगह मैं पार कर रहा था यह कुल 36 मील का टुकड़ा था, पर मीलों की कमी या बेशी से यात्रा की समस्याएँ और भयावहता कम नहीं हो जातीं है। ज्यों-ज्यों अधिकारीगण उस भयावहता का वर्णन करते थे त्यों-त्यों मैं अपने संकल्प पर दृढ़ होता जाता था। मेरा देहाती शरीर, अपढ़ अनुभव और कच्ची उम्र या यूँ कहिये कि मेरा गँवार तन-मन इस बात के लिए सन्नद्ध हो गया था कि ‘चल पड़ पट्ठे’। कन्धे पर पानी की तोंग, चादर और कमण्डल लटकाये मैंने हिंगलाज माता की जय बोली। अधिकारियों ने मुझे रास्ते के लिए थोड़ा-सा पिण्ड खजूर और भुने हुए दानामोठ दिये। यह पदयात्रियों का पाथेय था। इस बात की सख्त हिदायत थी कि प्यास लगने पर भरपेट पानी कहीं मैं पी न लूँं। हलक को गीला भर करना और पिण्ड खजूर या दानामोठ को मुँह में इसलिए रखना था कि मुँह सूखा नहीं लगे। पानी की तोंग का आकार सुराही जैसा था पर यह चपटी होती थी। इसके चपटी होने से यह बगल में आ जाती थी। यात्री की सुविधा के लिए इसको यह आकार दिया गया था। 

यह तो मुझे याद नहीं पड़ता कि वह कौन-सा महीना था पर जहाँ तक मेरा अनुमान है कि वह सन् 1932 का अक्टूबर रहा होगा। कराँची जब मैंने छोड़ी तो सर्दियाँ शुरु हो गई थीं। पदयात्रियों को बड़ी सुबह या शाम के बाद ही रन में प्रवेश करने की आज्ञा दी जाती है। सवेरे, दस  बजते-बजते वहाँ भीषण लू चलने लगती है और शाम होने के बाद भी लू चलती है। रात हो या दिन, वहाँ गर्मी में कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है। कच्छ रन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि चाहे चाँदनी रात हो या अँधेरी रात, रन के मैदान में कभी अँधेरा नहीं हो पाता है। इसका कारण यह है कि जमीन पर महीन बालू रेत और उसमें भर-पल्ले नमक का मिश्रण है। रात में चाँद हो या नहीं हो, तारों की रोशनी ही इतनी उजली होती है कि मीलों तक नजर काम करती है। मुझे यह भी याद नहीं आ रहा कि तब आसमान में चाँद था या नहीं। जमीन छोड़कर आसमान देखने का मतलब है वहाँ एक जोखिम उठाना। सारे कच्छ के मैदान में, इस 36 मील के रास्ते पर मार्ग जानने के लिए कोई एक-एक मील पर बड़़ी-बड़ी बल्लियाँ गड़ी हुई थीं। रात में भी मुझे चार-पाँच मील तक की बल्लियाँ साफ दिखाई पड़ती थीं। यदि ये बल्लियाँ नहीं हों तो संसार की कोई शक्ति यात्री को रास्ता नहीं बता सकती। मैं आज तक नहीं समझ पाया कि ये बल्लियाँ जिसने सबसे पहली-पहली बार गाड़ी होंगी वह कितनी जीवट वाला आदमी रहा होगा! हो सकता है कि यह सरकार का प्रबन्ध रहा हो। पर मैं इस व्यवस्था को देख-देख कर हैरान था। 

अरब सागर का पानी शाम के आस-पास से चढ़ना शुरु हो जाता है और कभी-कभी यह इस रन में पाँच-पाँच, सात-सात और गाहे-ब-गाहे दस-दस फुट भी चढ़ जाता है। आदमी डूब जाए इतना पानी भी चढ़ता है और रात ढलते-ढलते यह पानी अपने-आप उतर भी जाता है। नमक और रेत पर जब यह पानी फिर जाता है तो पाँव-पैदल चलना इतना कठिन हो जाता है कि कहा नहीं जा सकता है। पग-पग पर पाँव फिसलने का डर रहता है। और पाँव फिसलने पर यदि कोई यात्री गिर गया और दुर्भाग्य से पानी की तोंग फूट गई तो फिर वह जीवित निकल आएगा इसकी कोई सम्भावना नहीं है। पानी-पानी चिल्ला कर उसका प्राण वहीं निकल जाएगा। न वहाँ कोई सुनने वाला है, न पुरसाने हाल। यदा-कदा ऊँटों पर भी इधर से रन पार करने के लिए लोग निकल पड़ते हैं पर वे भी अकेला ऊँट लेकर नहीं चलते। यात्रियों की प्रतीक्षा में कई-कई दिनों तक ऊँटवालों को ठहरना होता है। एक तकलीफ यह भी है कि यदि कहीं रास्ते में पाँव फिसल जाने से ऊँट गिर गया तो उसको खड़ा करना ही सबसे बड़ी समस्या हो जाती है। कहीं-कहीं रन में ऊँटों के पंजर भी देखने को मिल जाते हैं। नमक के कारण वहाँ लाश धीरे-धीरे गलती है और ऐसे पंजर यात्रा को और भी अधिक भयावना बना देते हैं। एक बार मकरभीम आँख से ओझल हुआ कि फिर यात्री को सहायता की सभी सम्भावनाएँ समाप्त समझनी चाहिए। वह बद्धिमानी से वापस लौट जाये तो बात अलग है।
 
रन में जितनी नमकीन और दीप्तिमयी चाँदनी होती है, दिन उतना ही विकराल और साँय-साँय करता होता है। मृगतृष्णा कहीं-कहीं तो अगले पग-पर ही दिखाई पड़ती है और कहीं सौ-पचास गज पर। पानी के अभाव में चाहे दिन हो या रात, अगर यात्री मृगतृष्णा के भ्रम में फँस गया और उसने मार्ग-संकेत छोड़ दिए तो फिर उसको मरने से कौन बचायेगा? भगवान के सिवाय कोई सहारा नहीं है। आसमान की तरफ देखना हो तो ठहरकर देखना होता है। चलते-चलते देखने पर गिरने का पूरा खतरा है। सड़क के मीलों की तुलना में ये मील इतने लम्बे और खाऊ लगते हैं कि मैं आपको बता नहीं सकता। न आसपास मील के पत्थर, न कोई झाड़ या झाड़ी। और फिर हवा की लपटें! दिन भर का तपा-तपाया रन, रात को भी गरम रहता है। पग-पग पर गला सूखता है और पानी की तोंग पर आदमी की पकड़ अपने आप मजबूत होती जाती है। तोंग के मुँह में एक नली सी लगी रहती है जो बगल की तरफ से होकर मुँह तक आ जाती है। जहाँ गला सूखा कि उस नली को मुँह में लेकर एकाध घूँट पानी खींच लो। यह भी पता नहीं चल पाता है कि तोंग में पानी कितना बचा है। दस-पाँच पग चलने पर ही मन करता है कि तोंग का मुँह खोलकर पानी देख लो। पानी उस समय आदमी के लिए कुबेर की सम्पत्ति से भी अधिक मँहगा हो जाता है।’ 
 




किताब के ब्यौरे -
कच्छ का पदयात्री: यात्रा विवरण
बालकवि बैरागी
प्रथम संस्करण 1980
मूल्य - 10.00 रुपये
प्रकाशक - अंकुर प्रकाशन, 1/3017 रामनगर,
मंडोली रोड, शाहदरा, दिल्ली-110032
मुद्रक - सीमा प्रिंटिंग प्रेस, शाहदरा? दिल्ली-32
कॉपीराइट - बालकवि बैरागी



यह किताब, दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती रौनक बैरागी याने हम सबकी रूना ने उपलब्ध कराई है। रूना, राजस्थान प्रशासकीय सेवा की सदस्य है और इस किताब के यहाँ प्रकाशित होने की तारीख को, उदयपुर में, सहायक आबकारी आयुक्त के पद पर कार्यरत है।

आलोक का अट्टहास


आलोक का अट्टहास’: कवि का आत्म-कथ्य, समर्पण और अनुक्रमणिका








समर्पण

जिन्हें 
मेरी कलम से 
कोई सरोकार नहीं है
ऐसे
डॉ. श्री वेदप्रताप वैदिक
एवम्
डॉ. श्री प्रभाकर श्रोत्रिय
को
ससम्मान समर्पित।
(यह जानते हुए भी 
कि
ये दोनों
इन पृष्ठों को
पढ़ेंगे नहीं।)

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                                                        डराओ मत 
                                                        बिजली को बादल से
                                                        सोने को आग से
                                                        शून्य को अंक से
                                                        और मछली को पानी से।
                                                        मुक्त कर लो अपने आपको
                                                        इस डरावनी मानसिकता
                                                        और पागल परेशानी से ।
                                                        बादल ही तो है बिजली का घर
                                                        आग ही परखती है सोने को
                                                        शून्य क्यों डरेगा अंक से?
                                                        और मछली?
                                                        मछली पानी से नहीं तो
                                                        क्या प्यार करेगी पंक से?
                                                                    ----- 
 
                                                        द्वार-देहरी-दर-दीवार
                                                        दीवट या दौलतखाने में
                                                        रख दो हजार दीये
                                                        जला लो लाख दीपक
                                                        अपनी मुँडेर पर
                                                        कोई फर्क नहीं पड़ता
                                                        अगर अँधेरा है
                                                        दिलों के आले में
                                                        जो अन्धा है
                                                        मन का मालिक
                                                        तो अँधेरी गुफा है
                                                        तुम्हारी उम्र की पगडण्डी।

                                                                                -इस संग्रह से 

                                                                    -----

                                            हैं करोड़ों सूर्य लेकिन सूर्य हैं बस नाम के
                                            जो न दें हमको उजाला वे भला किस काम के ?
                                            जो रात भर जलता रहे उस दीप को दीजे दुआ,
                                            सूर्य से वो श्रेष्ठ है तुच्छ है तो क्या हुआ ?
                                            वक्त आने पर मिला लें हाथ जो आँधियार से,
                                            संबंध उनका कुछ नहीं है सूर्य के परिवार से॥

 
भूमिका

उत्तराधिकार के बीज

आज का बहुत बड़ा और कचोटनेवाला सवाल मेरी नजर में एक यह भी है कि ‘आप-हम अपने बच्चों को वसीयत में, विरासत में, उत्तराधिकार में क्या देना चाहते हैं--आशा या निराशा?’ मेरा मानना और आपका उत्तर इस मुकाम पर एक ही होगा--‘हम अपने बच्चों को विरासत, वसीयत याकि उत्तराधिकार में आशा ही देना चाहते हैं, निराशा नहीं।’ तब फिर क्या निराशा के बीज बोने से आशा की फसल उगेगी? कदापि नहीं। यदि हमें आशा को फसल काटनी है तो बीज भी आशा के ही बोने होंगे। आशा की खेती, निराशा के बीजों से नहीं होगी।

‘आलोक का अट्टहास’ ऐसी ही कविताओं के पृष्ठ आपके सामने फैलानेवाला मेरा नया काव्य-संग्रह है। सभी कविताएँ ऐसी नहीं भी हो सकती हैं; लेकिन कई कविताएँ ऐसी ही हैं।
मैं निराशा और हत-उत्साह का कवि नहीं हूँ । जानता हूँ कि आरती में बुझे हुए दीये नहीं रखे जाते। अँधेर से लड़ना आसान नहीं होता। तरह-तरह के अँधेरे हमारे आस पास हैं। लेकिन मैं मानता हूँ कि सूरज मर नहीं गया है। रोशनी बाँझ नहीं है। दीया जीवित है।

आप पढ़ें तो आपकी कृपा, नहीं पढ़ें तो मुझे कोई शिकायत नहीं है। आपका हमारा ‘सत्संग’ होता ही रहता है। फिर होगा। प्रणाम!

-बालकवि बैरागी
बुद्ध पूर्णिमा, 2060 विक्रमी
16 मई 2003 ईसवी
 




अनुक्रमणिका
01 तुम: उनके लिए
02 स्वभाव
03 आलोक का अट्टहास
04 माँ ने कहा
05  धन्यवाद
06 महाभोज की भूमिका
07 मैं जानता हूँ वसन्त
08 खाली म्यान
09 साधना का नया आयाम
10 चिन्तक
11 गन्ने! मेरे भाई!
12 जीवन की उत्तर-पुस्तिका
13 इष्ट मित्र
14 पर्यावरण प्रार्थना
15 इस वक्त
16 गुप्त लिपि
17 दीप ने मुझसे कहा
18 उनका पेशा
19 बड़ी ताकत है फूलों में
20 गुलदस्ते! गमले! बगीचे और खेत
21 हिंदी
22 आज का अखबार
23 मैं रहा टेसू -का-टेसू
24 एक दिन
25 राज करिए दीप को
26 एक और जन्मगाँठ
27 जन्मदिन पर-माँ की याद
28 पराजय-पत्र
29 तब भी
30 उनका पोस्टर
31 पेड़ की प्रार्थना
32 रामबाण की पीड़ा
33 नसेनी
34 पर जो होता है सिद्ध-संकल्प
35 करके देखो
36 वासुदेव धर्मी
37 उठो मेरे चैतन्य
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आलोक का अट्टहास (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - सत्साहित्य प्रकाशन, 205-बी, चावड़ी बाजार, दिल्ली-110006
सर्वाधिकार - सुरक्षित
संस्करण - प्रथम 2003
मूल्य - एक सौ पच्चीस रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली

चल मतवाले

श्री बालकवि बैरागी के दूसरे काव्य संग्रह
‘जूझ रहा है हिन्दुस्तान’ की पैंतीसवीं कविता

यह संग्रह पिता श्री द्वारकादासजी बैरागी को समर्पित किया गया है।




चल मतवाले

चल मतवाले उन राहों पर, जिन पर चलते बलिदानी
शोषित पीड़ित इन्सानों की, बदलें आज कहानी
ओ मतवाले ओ बलिदानी
व्यर्थ न जाये तेरी कहानी
नहीं किसी का तू मुहताज
तू है दुनिया का सरताज

यह न समझना आजादी का, चाँद यूँ ही उग आया है
इस पर कितनी ही पूनों ने, सुख-सिन्दूर लुटाया है
चारों ओर लगे हैं राहु, तेरे चन्दा प्यारे पर
रोज-रोज मँडराती मावस, इस गोरे उजियारे पर
यह पूनों अब जावे ना
मावस फिर से आवे ना
तेरे हाथों में है लाज
तू है दुनिया का सरताज

आँगन में आ बैठा फागुन, फूल गई फुलवारियाँ
किन्तु द्वार के भीतर अब भी, चमक रही चिनगारियाँ
हाय अभी तक कितनों से ही, रामराज यह दूर है
कोटि-कोटि हैं बेबस अब भी, लाख-लाख मज़बूर है
सबका रोष मिटा दे तू
सब में जोश जगा दे तू
बदल बागियों की आवाज
तू है दुनिया का सरताज

देख मुहूरत बीता जाता, बैठा क्यों मुँह लटकाये
शूर वही जो सबसे पहिले, तूफानों से टकराये
कदमों में ला तेजी रे भाई, शीश हथेली पर ले ले
थाम तिरंगा आगे हो जा, उमड़ पड़ेंगे अलबेले
झोंपड़ियों को महल बना
महलों की कर नव रचना
अमन-चमन का आया राज
तू है दुनिया का सरताज
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जूझ रहा है हिन्दुस्तान
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मालव लोक साहित्य परिषद्, उज्जैन (म. प्र.)
प्रथम संस्करण 1963.  2100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण - मोहन झाला, उज्जैन (म. प्र.)












यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।






गीत

 


श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘शीलवती आग’ की चौथी कविता 






गीत

साँझ ढली है, दीप जलेगा
तुलसी चौरे, गोरे-गोरे 
रूप कमल का पुण्य फलेगा
साँझ ढली है, दीप जलेगा

अधर कामना कम्पित होंगे
माथे पर आँचल आयेगा
मंगल-सूत्र चूम कर कोई
खुद मंगलमय हो जायेगा
तब तक आँसू आ जायेंगे
सुधियों से सम्वाद चलेगा
साँझ ढली है दीप जलेगा

मेरी कुशलम् पूछेगा फिर
उगते ही पहिले तारे से
और क्षितिज देखेगा कोई
सूने आकुल चौबारे से
तब तके तारे हँस ही देंगे
अन्तर का अवसाद ढलेगा
साँझ ढली है दीप जलेगा

नित्य निबाह रहा है कोई
मेरे लिए नियम सिन्दूरी
स्वाहा करता है सकुचा कर
अपनी काया की कस्तूरी
सूरज का सोना गल जाये
लेकिन यह व्रत नहीं गलेगा
साँझ ढली है, दीप जलेगा
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संग्रह के ब्यौरे
शीलवती आग (कविता संग्रह)
कवि: बालकवि बैरागी
प्रकाशक: राष्ट्रीय प्रकाशन मन्दिर, मोतिया पार्क, भोपाल (म.प्र.)
प्रथम संस्करण: नवम्बर 1980
कॉपीराइट: लेखक
मूल्य: पच्चीस रुपये 
मुद्रक: सम्मेलन मुद्रणालय, प्रयाग





यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। ‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।


रूना के पास उपलब्ध, ‘शीलवती आग’ की प्रति के कुछ पन्ने गायब थे। संग्रह अधूरा था। कृपावन्त राधेश्यामजी शर्मा ने गुम पन्ने उपलब्ध करा कर यह अधूरापन दूर किया। राधेश्यामजी दादा श्री बालकवि बैरागी के परम् प्रशंसक हैं। वे नीमच के शासकीय मॉडल उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में व्याख्याता हैं। उनका पता एलआईजी 64, इन्दिरा नगर, नीमच-458441 तथा मोबाइल नम्बर 88891 27214 है। 















बालकवि बोले - मैं मुफ्त में कही नहीें जाता

यह संस्मरण खुद जलजजी ने सुनाया था।

बात इसी, 2021 के जून महीने की किसी एक शाम की है। हम तीन, जलजजी के घर बैठे थे। ‘हम तीन’ याने, डॉ. मुरलीधरजी चाँदनीवाला, गुस्ताद भाई अंकलेसरिया और मैं। अपने दादाजी श्री जी. डी. अंकलेसरियाजी की स्मृति में गुस्ताद भाई, प्रति वर्ष एक व्याख्यान करवाने चाहते हैं। उसी पर बात करने के लिए उन्होंने यह जमावड़ा किया था।

आयोजन के रूप-स्वरूप, व्यवस्थाओं और सम्भावित वक्ताओं के नामों पर होते-होते बात, आमन्त्रित वक्ता के पारिश्रमिक पर आ गई। गुस्ताद भाई ने हाथ खड़े कर दिए - ‘मुझे इस बारे में कोई अनुभव नहीं। आप लोग जो कह देंगे, वह आँख मूँदकर मंजूर कर लूँगा।’ हम तीनों के पास, इस मामले में अपने-अपने कुछ अनुभव, संस्मरण थे - कुछ सुखद-प्रिय, कुछ अप्रिय, जायका कड़वा कर देनेवाले। बच्चनजी का वह प्रसंग भी बीच में आ गया जब उन्होंने कवि सम्‍मेलन में आने के लिए रेल की प्रथम श्रेणी का यात्रा भाड़ा वसूल किया था जबकि बतौर राज्य-सथा सदस्य, उहें प्रथम श्रेणी की निःशुल्क रेल यात्रा का पास मिला हुआ था। एक के बाद एक, ऐसे ही कुछ नामों की बात करते हुए दादा बालकविजी का उल्लेख आ गया। जलजजी ने कहा - ‘पारिश्रमिक तो बैरागीजी ने भी वूसल किया था। मेरे सामने।’

सुनते ही मैं चौंका। सकपका सा गया - पता नहीं दादा के बारे में अब, आगे क्या सुनना पड़ेगा! चाँदनीवालाजी सविस्मय, दयाभरी नजर से मुझे देखने लगे। हम दोनों की शकलें देखकर जलजजी हँस पड़े। बोले - ‘घबराइये नहीं। ऐसा कुछ भी नहीं है। सुन लीजिए।’

और जलजजी ने जो कुछ सुनाया वह कुछ इस तरह था -

अपनी स्वर्गीया पत्नी बानू बहन अब्बासी की स्मृति में बैरिस्टर अब्बासी साहब प्रति वर्ष एक व्याख्यान करवाते थे। हिन्दी के लिए, अपने जमाने की स्थितियों के हिसाब से बानू बहन ने अभूतपूर्व काम किया था। उन्होंने खुद को हिन्दी के लिए समर्पित कर दिया था। सो, बैरिस्टर साहब इस व्याख्यान को यथा सम्भव हिन्दी दिवस, 14 सितम्बर को या उसके आसपास करवाते थे। इसके लिए एक समिति बनाई हुई थी। वक्ता चयन में जलजजी की भूमिका लगभग निर्णायक हुआ करती थी।

यह सम्भवतः 2006 की बात है। इस बरस बालकविजी का व्याख्यान तय हुआ था। उनसे पहला सम्पर्क जलजी ने ही किया। उन्होंने बिना किसी ना-नुकर, हीले-हवाले के फौरन हाँ भर ली। आयोजन की कागजी तैयारियाँ शुरु हो गईं। तारीख पास आने लगी। बालकविजी उन दिनों नीमच रहते थे। कुछ दिन पहले बालकविजी से, रतलाम आने का कार्यक्रम पूछा। उन्होंने कहा - ‘फलाँ दिन, फलानी ट्रेन से, लगभग इतने बजे, रतलाम पहुँचेंगे।’ जवाब में कह गया कि खुद बैरिस्टर साहब उहें लिवाने स्टेशन पहुँचेंगे। सब कुछ तय हो जाने के बाद बालकविजी के नामोल्लेख सहित आयोजन की प्रेस विज्ञप्ति जारी कर दी गई।

बालकविजी के चाहनेवाले रतलाम में बहुत लोग हैं। सो, उनका नाम सामने आते ही कुछ लोगों ने उनसे सम्पर्क कर रतलाम आने का कार्यक्रम पूछा। बालकविजी ने उन्हें जो ट्रेन बताई वह  ट्रेन वह नहीं थी जो ‘समिति’ को बताई थी। शहर में चर्चा कुछ और थी और ‘समिति’ की जानकारी कुछ और। आयोजक असहज तो हुए लेकिन उन्हें अपने अतिथि पर भरोसा था कि यदि कोई बदलाव होगा तो बालकविजी खुद खबर करेंगे। सो, वे अपनी आशंकाओं को नियन्त्रित किए रहे।

निर्धारित तारीख को, बालकविजी द्वारा बताई गई ट्रेन के, नीमच से रवानगी के समय के कुछ समय बाद जलजजी ने बालकविजी के घर फोन किया। श्रीमती बैरागी ने फोन उठाया। उन्होंने बताया कि बालकविजी निर्धारित ट्रेन से रतलाम के लिए निकल चुके हैं। जलजजी ने जानना चाहा कि बालकविजी को भोजन में क्या पसन्द है। जवाब मिला कि शाम का भोजन उन्हें दे दिया गया है। रेल में ही कर लेंगे। इसलिए आयोजक उनके भोजन की चिन्ता, व्यवस्था न करें।

बालकविजी को लिवाने के लिए बैरिस्टर साहब को पहुँचना था। लेकिन स्थिति ऐसी बनी कि वे नहीं पहुँच पाए। ‘समिति’ के सदस्य पहुँचे। बालकविजी बैरिस्टर साहब के आवास पर पहुँचे। उनकी भाव-भीनी अगवानी हुई। चाय-बिस्किट के साथ बातें शुरु हुईं। बालकविजी आयोजन के लिए तैयार होने लगे। 

व्याख्यान आयोजन का सिलसिला शुरु होने के पहले ही साल से ‘समिति’ के दो निर्णय थे - पहला, अतिथि वक्ता को पारिश्रमिक भेंट किया जाएगा और दूसरा, यह पारिश्रमिक, यथासम्भव कार्यक्रम से पहले ही, घर पर ही भेंट किया जाएगा। तदनुसार अब्बासीजी ने बालकविजी को पारिश्रमिक का लिफाफा भेंट किया। लिफाफा देखकर बालकविजी ने कहा - ‘हाँ। पारिश्रमिक तो मैं लूँगा और जरूर लूँगा। मैं मुफ्त में कहीं नहीं जाता। न तो खुद मुफ्तखोरी करता हूँ न करने देता हूँ।’ कहकर उन्होंने, लिफाफा बैरिस्टर साहब की ओर सरकाते हुए कहा - ‘इसमें से एक रुपया निकाल कर मुझे दे दीजिए। वही मेरा, आज का पारिश्रमिक है।’ बैरिस्टर साहब के बेटी-दामाद सकीना और अनवर भाई ने यात्रा व्यय स्वीकार करने का अनुरोध किया। बालकविजी हँसकर बोले - ‘रेल्वे मुझसे किराया नहीं लेती।’

खैर,

सब लोग आयोजन स्थल पर पहुँचे। कार्यक्र शुरु हुआ। जलजजी ने कहा कार्यक्रम के दौरान मैंने जिज्ञासा-भाव से पूछा  - ‘जब आपको इसी ट्रेन से आना था तो बादवाली ट्रेन से आपके आने की बात का सच क्या है?’ बालकविजी ठठाकर हँसे। बोले - ‘यदि उन्हें सच बता देता तो पता नहीं मैं बैरिस्टर साहब के घर तक आ पाता भी या नहीं। यदि आ पाता तो पता नहीं कब आ पाता और यह भी मुमकिन था कि मैं बाद में आता, वे सब मुझसे पहले ही बैरिस्टर साहब के घर पहुँच चुके होते। तब  क्या होता? कितनी असुविधा होती सबको? इसलिए मैंने उनसे सच नहीं कहा।’

जलजजी ने कहा-“उस दिन बालकविजी ने सबको अविश्वसनीय, सुखद आश्चर्य से भर दिया। था। उस दिन वे वक्ता, मुख्य अतिथि  नहीं, ‘देवता अतिथि’ थे।”  

जलजजी से पूरी बात सुनकर मेरी साँस में साँस आई। सकपकाहट ‘उड़न छू’ हो गई।    

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02 अक्टूबर जलजजी की अभिलेखीय जन्म तारीख है। इस तारीख को जलजजी के निवास पर उनके चाहनेवालों का अच्छा-खासा जमावड़ा हो जाता है। जलजजी और उनकी अर्द्धांगिनी श्रीमती प्रीती जैन का, यहाँ दिए गए चित्रवाला यह रूप-स्वरूप, 02 अक्टूबर 2019 को हुए ऐसे ही जमावड़े ने सजाया था। 


अहिन्दू देश में पौराणिक स्थान, अनिच्छुक वापसी ने करवा दी कच्छ की पद-यात्रा (कच्छ का पदयात्री - नौवाँ भाग)



दादा की बातों से अब साफ लगता था कि कच्छ की पैदल यात्रा का हिस्सा आगे है। हम सबने चाहा कि दादा जरा.सा विश्राम ले लें ताकि उनकी बातों में जरा ताजगी आ जाये। पर दादा थे कि अविराम कहे चले जा रहे थे। बीच.बीच में दादा विभोर होते थेए रोमांचित होते थे और पुरानी यादों में खो-से जाते थे। पर वे आज एक अफसर हैं और हम सब उनके सामने कच्ची उम्र के लोग बैठे थे। सोए वे अपने मनोभावों को छिपाते हुए भी रंगे हाथों पकड़े जा रहे थे। अपनी घनी भौंहो को वे जब सहलाते तो मैं समझ जाता कि दादा अब फिर एक ताजगी लेकर बात आगे बढ़ा देंगे। हुआ भी यही। वे फिर आगे बढ़े -

'जिस पहाड़ पर हम चल रहे थेए वह एक प्रकार का पठार है। इसे आप अंग्रेजी जानने वाले 'टेबल लैण्ड' भी कह सकते हैं। हिंगलाज यात्रियों के लिए यहाँ कई महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थान थेए जैसे नानक चबूतराए कबीर स्थानकए पाण्डवों की गुफाएँ आदि। उस जमाने में एक अहिन्दू देश में पहली बार मुझे अपने पौराणिक और सांस्कृतिक नामों के आधार पर बने हुए स्थान देखकर रोमांच हो आया। मैं तो यह सोच भी नहीं सकता थाए न मैं भूगोल जानता थाए न इतिहास। लोकगीत ही मेरे गुरु थे और मेरी लाइब्रेरी भी तब तक केवल लोकगीत और रमते साधु.सन्त थे। उन्होंने कभी मुझे यह ज्ञान नहीं कराया था। पर जब बालभारती ने एक कुशल गाइड की तरह हमको बताया कि अब हम भारतवर्ष की सीमा से बाहर हैं तो मैं सिहर गया। यह सिहरन आनन्द और हर्ष की थी। इस स्थान को देखते हुए हमें अलीलकुण्ड जाना था। अलील का शाब्दिक मतलब होता है पवित्रए यह मुझे तब बताया गया था। पवित्र कुण्ड को पवित्र नहीं कहकर अलील कहा जाता थाए इसका मतलब मुझे ऐसा समझ पड़ा कि हो न हो यह उधर की भाषा का प्रभाव है। इस अलीलकुण्ड में से ही वह नाला निकलता है जिसके किनारे हिंगलाज माता और काली मैया का स्थान है।

यह नाला आगे जाकर पहाड़ों में न जाने कहाँ खो जाता है। इस अलीलकुण्ड में अगुआ छड़ी को स्नान कराता है। छड़ी.स्नान का समारोह भी पूर्णरूपेण धामिक होता है। अगुआ के मन्त्र और यात्रियों के समवेत धार्मिक गीतए पंथ के महापुरुषों के जयकारे और हिंगलाज माता के जयनाद के बीच यह रस्म धूम-धाम से सम्पन्न होती है।

'अलीलकुण्ड का निर्माण प्रकृति ने कुशल कारीगर की तरह किया है। वास्तव में प्रकृति से अधिक कुशल न तो कोई कारीगर है न चितेरा। पठार की कड़ी और ठोस कड़ी चट्टान की छाती के बीचों.बीच एक गहराए चौकोर गड्ढा है। पानी से लबालब इस कुण्ड के बीचों.बीच एक चट्टानए पानी में जमीन की सतह पर दिखाई पड़ती है। पानी कंचन की तरह साफ और चमकीला है। धरातल का कण.कण दिखाई पड़ता है। पानी बहुत मीठा और शीतल है पर हिंगोल नदी के पानी जैसा नहीं है। यात्री इस चट्टान के भी दर्शन करते हैं। ऐसा कहा जाता है कि यह विशाल शिवलिंग है जो कि जल समाधि लिए हुए है।

'अलीलकुण्ड वाले इस 'टेबल लेण्ड' पर घूमकर यात्री वापस हिंगोल के किनारे उसी पड़ाव पर आ जाते हैं। यहाँ ऊँटों का काफिला यात्रियों की पहले ही प्रतीक्षा करता मिलता है। यहाँ से रवाना होकर यात्रीदल गेंडा बाबा और कपिल मुनी के आश्रम पर होकर कराची के लिए चल पड़ता है। हमने भी यही किया। सब यात्रियों को अपने.अपने निवास स्थानों पर पहुँचने की जल्दी होती है। पर मैं चाहता था कि यह यात्रा अधिकाधिक लम्बी हो। लेकिन कितना भी चाहोए चाहने से क्या होता है! इस सारी यात्रा का अपना एक विधान है और हिंगलाज माता से वापस कराची जाने तक 16 दिन में यात्रा पूरी होनी चाहिएए नहीं तो अगुआई और यात्रियों की अध्यात्मिक उपलब्धि समाप्त मानी जाती है। हमारा दल भी ठीक 16 दिनों में वापस कराची आ गया। सभी सानन्द और सकुशल लौटे। न कोई बीमार पड़ा न थका। सब के सब ताजा और तन्दुरुस्त।

'कराची आकर अखाड़े में हाजरी देनी होती है। अगुआ ने हम सबकी हाजरी दी। अब यात्री वापस अपने घरों को जाने के लिए स्वतन्त्र हो जाते हैं। महन्त की एक चिट्ठी उनको रखनी जरूरी होती है। इस चिट्ठी पर महन्त के हस्ताक्षर और अखाड़े की सील.मुहर लगी होती है। यह चिट्ठी रास्ते में पासपोर्ट का काम देती है। जहाँ यात्री को कोई रुकावट आती हैए यह चिट्ठी शाही फरमान की तरह उसका रास्ता सुगम बना देती है। 

'नियमानुसार मुझे भी अगुआ की सिफारिश पर रामगिरिजी ने एक चिट्ठी दे दी। चिट्ठी मिलते ही यात्री मानसिक रूप से घर लौटने को तैयार और तत्पर हो जाता है। पर मेरा तो मामला ही दूसरा था। मैं तो घर जाना ही नहीं चाहता था। घर की यातनाओं से तो मैं चला था! अब मेरे मानस में मन्थन उठा . ष्मुझे कहाँ जाना चाहिएघ् मैं घर क्यों जाऊँघ्ष् अनेकानेक सवाल मेरे दिमाग में बगूले की तरह उठते थे और धूसरित होते थे। बहरहालए अखाड़े के नियमानुसार मुझे अखाड़ा छोड़ना था। मैंने रामगिरि स्वामी तथा बालभारती के पाँव छूकर कल्याण आशीष ली और अपनी झोली.झण्डा वहाँ से उठा लिया। 
   
'पैसा मेरे पास एक भी नहीं था। कराची से बिना टिकिट ही मैं रेल में सवार हुआ और जुंगशाही नामक स्टेशन पर आया। यहाँ रेल की लाइन पूरब.पश्चिम है। मुझे दक्षिण में आना आना था। सो मैंने रेल.यात्रा छोड़ी और वापस पैदल ही चला। कराँची में मैं रामगिरि के अखाड़े में कम से कम दो.ढाई माहए और रुक चुका था । मन मेरा घर आने का था नहीं और रामगिरिजी का मुझ पर अपार स्नेह थाए सो कई लोगों की ईर्ष्या मोल लेकर भी मैं वहाँ मुकाम करने में सफल हो ही गया था। फिर भी अखाड़ा छोड़कर निकलना तो पड़ा ही और इस विछोह का असर मेरे मन पर अधिकाधिक पड़ा। मन बार.बार कराची की ओर उड़ता था पर गुरु आज्ञा के कारण टूटे मन से मैंने पैदल ही दक्षिण दिशा का छोर पकड़ा। 

'चलते-चलते मैं सिन्ध नदी के किनारे आ गया। मुझे याद है, सुजावल नाम का कस्बा रास्ते में आता था। सुजावल से यात्रियों को नावें और बोटें सुलभ थीं। ये नावें और बोटें धर्मादे की भी चलती थीं और किराया देने वालों को पैसे से भी उपलब्ध थीं। मैं साधुवेश में ही था और भीख माँग.माँगकर ही अपना काम चला रहा था। सो मैंने धरम नाव में आसन जमाया और नदी पार करके मैं आशापुरी आ गया। आशापुरी में स्नान के लिए कुण्ड और विश्राम के लिए मठ की व्यवस्था थी। मठ में जाकर वहाँ के महन्त को कराँची की चिट्ठी बतानी होती है। महन्त उस चिट्ठी को देखकर उस पर परवाने के लिए अपने दस्तखत करता था। यदि ये दस्तखत नहीं किए जाते थे तो आगे की यात्रा सुविधाओं के लिहाज से दूभर हो जाती है। मैंने ये दस्तखत प्राप्त किये और आगे चला। मैं अकेला था और मैं हर सम्भव यत्न कर रहा था कि मेरी यात्रा अधिकाधिक लम्बी हो। इसी भावना ने मुझसे कच्छ का रन पैदल पार करवा दिया।'


 




किताब के ब्यौरे .
कच्छ का पदयात्री- यात्रा विवरण
बालकवि बैरागी
प्रथम संस्करण 1980
मूल्य . 10/- रुपये
प्रकाशक . अंकुर प्रकाशन, 1/3017 रामनगर,
मंडोली रोड, शाहदरा, दिल्ली-110032
मुद्रक . सीमा प्रिंटिंग प्रेस, शाहदरा, दिल्ली-32
कॉपीराइट . बालकवि बैरागी



यह किताब, दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती रौनक बैरागी याने हम सबकी रूना ने उपलब्ध कराई है। रूना, राजस्थान प्रशासकीय सेवा की सदस्य है और इस किताब के यहाँ प्रकाशित होने की तारीख को, उदयपुर में, सहायक आबकारी आयुक्त के पद पर कार्यरत है।

जागो दादा



श्री बालकवि बैरागी के मालवी श्रम-गीत संग्रह
‘अई जावो मैदान में’ की चौबीसवीं/अन्तिम कविता


यह संग्रह डॉ. श्री चिन्तामणिजी उपाध्याय को समर्पित किया गया है।



जागो दादा

जागो दादा भाग फाटी, बोलवा लागी चड़्याँ
मालवा में दन उगीग्यो, रात की बीती घड़्याँ

चाँद-तारा डूबी ग्या है, रामजी को नाम लो
चकवी चाली घर पिया के, हाल तक थी काँ पड़्या
जागो दादा भाग फाटी, बोलवा लागी चड़्याँ

पाँगती मत फेर वेंडा, जाग ने सब ने जगा
न्हीं तो थारी रोर वेगा, दाँत काड़े डावड़्याँ
जागो दादा भाग फाटी, बोलवा लागी चड़्याँ

हाथ में लो दाँतरो ने, काँधे मेऽलो पावड़ो
अन्नदाता थारा बारक ने, मिले न्ही राबड़्याँ
जागो दादा भाग फाटी, बोलवा लागी चड़्याँ

पेट डाबी, फाटी जाबी, भाभी के न्हीं काँचरी
आलसी मेलाँ में होवे, थारे वाते झूँपड़्याँं
जागो दादा भाग फाटी, बोलवा लागी चड़्याँ

मालवी! उठ, लो पखावज, और उगेरो भैरवी
वावरा थाँ रामजी ने, जग जगावा ने घड़्या
जागो दादा भाग फाटी, बोलवा लागी चड़्याँ
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संग्रह के ब्यौरे
अई जावो मैदान में (मालवी कविता संग्रह) 
कवि - बालकवि बेरागी
प्रकाशक - कालिदास निगम, कालिदास प्रकाशन, 
निगम-निकुंज, 38/1, यन्त्र महल मार्ग, उज्जन (म. प्र.) 45600
प्रथम संस्करण - पूर्णिमा, 986
मूल्य रू 15/- ( पन्द्रह रुपया)
आवरण - डॉ. विष्णु भटनागर
सर्वाधिकार - बालकवि बैरागी
मुद्रक - राजेश प्रिन्टर्स, 4, हाउसिंग शॉप, शास्त्री नगर, उज्जैन




यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। ‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।

नौजवानों आओ रे

श्री बालकवि बैरागी के दूसरे काव्य संग्रह
‘जूझ रहा है हिन्दुस्तान’ की चौंतीसवीं कविता

यह संग्रह पिता श्री द्वारकादासजी बैरागी को समर्पित किया गया है।




नौजवानों आओ रे

नौजवानों आओ रे
नौजवानों गाओ रे
लो कदम बढ़ाओ रे
लो कदम मिलाओ रे
नौजवानों आओ रे, नौजवानों गाओ रे
ऐ वतन के नौजवानों, इस चमन के बागवानों 
एक साथ बढ़ चलो, मुश्किलों से लड़ चलो
इस महान देश को नया बनाओ रे
नौजवानों आओ रे
धर्म की दुहाईयाँ, प्रान्त की जुदाईयाँ
भाषा की लड़ाईयाँ, पाट दो ये खाईयाँ
एक माँ के लाल, एक निशाँ उठाओ रे
नौजवानों आओ रे
एक बनो, नेक बनो, खुद की भाग्य रेख बनो
पंचशील के हो लाल, तुमसे ये जगत निहाल
शान्ति के लिये जहाँ को गुदगुदाओ रे
नौजवानों आओ रे
माँ निहारती तुम्हें, माँ पुकारती तुम्हें
हँसते मुस्कुराते आओ, श्रम के गीत गाते आओ
कोटि कण्ठ एकता के गान गाओ रे
नौजवानों आओ रे
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जूझ रहा है हिन्दुस्तान
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मालव लोक साहित्य परिषद्, उज्जैन (म. प्र.)
प्रथम संस्करण 1963.  2100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण - मोहन झाला, उज्जैन (म. प्र.)










यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।






अलख अनिवार्य

 



श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘शीलवती आग’ की तीसरी कविता 





अलख अनिवार्य

निस्सीम अनन्त नहीं कोई
हर एक बँधा मर्यादा में
जिसको अबाध हम कहते
वह स्वयं बद्ध है बाधा में।

धरती हो चाहे अम्बर हो
हो पवन या कि हो अनिल, अनल
सबकी अपनी एक सीमा है
सीमान्त सभी का परम प्रबल।

कुछ भाग्यबद्ध कुछ कर्मबद्ध
कुछ बँधे हुए पर्यायों से
सब काट रहे अपने बन्धन
अनजाने अगम उपायों से।

जब-जब भी टूटी मर्यादा
तब-तब ही समझो ध्वंस हुआ
तम-तोम टूट कर पसर पड़ा
आरम्भ अनय का अंश हुआ।

जड़ चेतन सब मर्यादित हैं
हर अणु में वह आभासित है
पर वह अगम अगोचर परमपिता तक
मर्यादा से शासित है।
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संग्रह के ब्यौरे
शीलवती आग (कविता संग्रह)
कवि: बालकवि बैरागी
प्रकाशक: राष्ट्रीय प्रकाशन मन्दिर, मोतिया पार्क, भोपाल (म.प्र.)
प्रथम संस्करण: नवम्बर 1980
कॉपीराइट: लेखक
मूल्य: पच्चीस रुपये 
मुद्रक: सम्मेलन मुद्रणालय, प्रयाग




यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। ‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।


रूना के पास उपलब्ध, ‘शीलवती आग’ की प्रति के कुछ पन्ने गायब थे। संग्रह अधूरा था। कृपावन्त राधेश्यामजी शर्मा ने गुम पन्ने उपलब्ध करा कर यह अधूरापन दूर किया। राधेश्यामजी दादा श्री बालकवि बैरागी के परम् प्रशंसक हैं। वे नीमच के शासकीय मॉडल उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में व्याख्याता हैं। उनका पता एलआईजी 64, इन्दिरा नगर, नीमच-458441 तथा मोबाइल नम्बर 88891 27214 है। 













मेहनत करवा वारा मरदाँ

  


श्री बालकवि बैरागी के मालवी श्रम-गीत संग्रह
‘अई जावो मैदान में’ की तेईसवीं कविता


यह संग्रह डॉ. श्री चिन्तामणिजी उपाध्याय को समर्पित किया गया है।



मेहनत करवा वारा मरदाँ

मंगल मोहरत निकर्याँ जईर्यो, उतरो गहरा ज्ञान में
मेहनत करवा वारा मरदाँ, अई जावो मैदान में

एक जुद्ध जीतीग्या रे जोद्धा, मचक गुलामी देईगी
(पण) दारीद्दर का भर्या टोबला, व्हा लारे न्हीं लेईगी
(तो) हिम्मत की तरवाराँ रे मरदाँ, मती मेलो थी म्यान में
मेहनत करवा वारा मरदाँ, अई जावो मैदान में
मंगल मोहरत निकरयाँ जइर्यो

जूनी नाव जुगत जोड़ी ने, भम्मर में ती काड़ी
थाँ के हाथ में डाँड देई ने, पोढ़ीग्यो खेलाड़ी
नाव फसी न्हीं जारे रे नावड़्या, फेर पाछी तूफान में
मेहनत करवा वारा मरदाँ, अई जावो मैदान में
मंगल मोहरत निकर्याँ जईर्यो

जद-जद माँ की आँखाँ छलकी, थाँ ने शीश कटाया
महूँ मानू हूँ म्हारी माँ बेनाँ ने, कुल का रतन लुटाया
पण चार चँदरमाँ और लगई लो, देई ने पसीनो दान में
मेहनत करवा वारा मरदाँ, अई जावो मैदान में
मंगल मोहरत निकर्याँ जईर्यो

गाम गोयरे कल-कल नद्दी, विफरी-विफरी वेऽईरी
थारा गाम की अनधन लछमी, चौड़े धाले जईरी
जल बिन आँसूड़ा ढारे रे घराणी, गोड़ा-गोड़ा धान में
मेहनत करवा वारा मरदाँ, अई जावो मैदान में
मंगल मोहरत निकर्याँ जईर्यो

ऊँची मेड़्याँ, टूटा छपरा, या सब प्रभु की माया
पण ऊँच-नीच, कंगाल-मातबर सब एक माँ का जाया

यूँ कई फरक करे रे वेंडा, एक जरणी का थान में
मेहनत करवा वारा मरदाँ, अई जावो मैदान में
मंगल मोहरत निकर्याँ जईर्यो

चेतो रे बारक चेतो रे बूढ़ा, चेतो रे मोट्याराँ
ई दन पाछा न्ही आवेगा, जामण ने सिणगाराँ
श्रम का गीत गुँजाओ म्हारी बेन्याँ, खेत, खदान, अडाण में
मेहनत करवा वारा मरदाँ, अई जावो मैदान में
मंगला मोहरत निकर्याँ जईर्यो

देव-देवरा वारा पण्डत, हुणजे रे हेलो म्हारो
ओ मज्जित का काजी-मुल्ला, मानूँगा जस थारो
नवा बोल ई जोड़ी दी जो, आरती और अजान में
मेहनत करवा वारा मरदाँ, अई जावो मैदान में
मंगल मोहरत निकर्याँ जईर्यो
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संग्रह के ब्यौरे
अई जावो मैदान में (मालवी कविता संग्रह) 
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - कालिदास निगम, कालिदास प्रकाशन, 
निगम-निकुंज, 38/1, यन्त्र महल मार्ग, उज्जन (म. प्र.) 45600
प्रथम संस्करण - पूर्णिमा, 986
मूल्य रू 15/- ( पन्द्रह रुपया)
आवरण - डॉ. विष्णु भटनागर
सर्वाधिकार - बालकवि बैरागी
मुद्रक - राजेश प्रिन्टर्स, 4, हाउसिंग शॉप, शास्त्री नगर, उज्जैन





यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। ‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।

हिन्दू तीर्थ: मुसलमान पुजारिन! प्राणान्तक पीड़ादायी गर्भ परिक्रमा और अजानी प्रौढ़ता की अनुभूति (कच्छ का पदयात्री - आठवाँ भाग)



सबसे ज्यादा आश्चर्य और सुख की बात यह है कि हिंगलाज माता का पुजारी सदा-सदा से मुसलमान होता आया है। कहा यह जाता है कि मुसलमान धर्म में मूर्ति-पूजा को कोई मान्यता नहीं है पर हिंगलाज माता जाकर कोई देखे कि वहाँ मुसलमान मूर्ति-पूजा करता है और अब भी वहाँ यही होता होगा। और भी विशेष बात यह है कि हिंगलाज माता की मूल पूजा कोई पुरुष नहीं कर सकता है। सो, वहाँ पुजारी नहीं हो कर पुजारिन हुआ करती है। मैं गया तब भी वहाँ की पुजारिन एक महिला थी। वह मुसलमान थी। मन्दिर के आसपास कनेरों के सघन झाड़ हैं। बड़ी मात्रा में कनेर यहाँ पैदा होती है। कनेर के वन के वन हैं। एक साथ इतनी कनेर मैंने इससे पहले न तो देखी थी न इसके बाद।

‘हिंगलाज माता की मूर्ति खड़ी या बैठी नहीं है। यह मूर्ति लेटी हुई है। मूर्ति की चौकी के आस-पास, चारों ओर सँकरा, तहखाने जैसा परिक्रमा मार्ग है। इसके भीतर एक लौ सतत् जलती रहती है। 


हिंगलाज माता की मूर्ति की छवि  (चित्र गूगल के सौजन्य से)

‘पूजा की विधि यह है कि रात बारह बजे के बाद अगुआ स्नान करता है और मन्दिर में प्रवेश करता है। मूर्ति पर एक कपड़ा ढँका रहता है। यह कपड़ा, हिंगलाज माता की चुनरी माना जाता है। जो भी यात्री-दल आता है, वह अपने दल की ओर से अगुआ के हाथों वह चुनरी हिंगलाज माता को चढ़वाता है। जैसे ही अगुआ भीतर आता है, वह माता की जय बोलकर कुछ मन्त्र बोलता है और पूर्व दल द्वारा चढ़ाए गए वस्त्र को हटाकर अपने दल की ओर से अर्पित की जानेवाली चूनर, माता की मूर्ति पर चढ़ा देता है। मूर्ति को निर्वसना कभी नहीं रखा जाता है। उतारा गया वस्त्र महिला पुजारी ले लेती है। यह चढ़ावा उसका माना जाता है। इसके बाद अगुआ सारे दल को अपने-अपने शरण भाइयों के साथ परिक्रमा के लिए सन्नद्ध कर देता है। उस तहखानेनुमा परिक्रमा-गर्भ में न तो बैठे-बैठे परिक्रमा होती है, न खड़े-खड़े। यह सार परिक्रमा लेटे-लेटे करनी होती है। मूर्ति जिस चबूतरे पर प्रतिष्ठित है वह कोई ज्यादह लम्बा या चौड़ा चबूतरा नहीं है। उसकी लम्बाई और चौड़ाई अधिकाधिक दस-दस फुट होगी। अगुआ एक-एक यात्री का नाम पुकारता है और वह यात्री अपने शरण भाई को आगे करके मूर्ति के चरणों की तरफ जाकर शरण भाई के पीछे खड़ा हो जाता है। अगुआ कुछ मन्त्र बोलता है और शरण भाई लेट जाता है। लेटे-लेटे ही वह गर्भ में प्रवेश करता है। उसके पीछे तत्काल यात्री भी लेटकर गर्भ में प्रविष्ट हो जाता है। भीतर जलने वाली मद्धिम लौ का हल्का-हल्का प्रकाश और गर्भ के मोड़ों पर विचित्र-सा अँधेरा। कुल मिलाकर आँखें मुँद जाती हैं और गर्भ की दीवारों को हाथों से टटोलते हुए शरण भाई के पीछे यात्री को यह परिक्रमा पूरी करनी होती है। जब तक दोनों यात्री बाहर नहीं निकलते तब तक दूसरा शरण भाई अपने यात्री को पीछे लिए प्रतीक्षा में खड़ा रहता है। अगुआ मन्त्र बोलता रहता है। बाहर प्रतीक्षारत यात्री या तो गीत गाते रहते हैं या फिर सन्नाटा छा जाता है। सब अपनी-अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हैं।

‘ज्यों ही शरण भाई गर्भ से बाहर आता है वह जाकर सीधा उस मुसलमान पुजारिन की गोद में सो जाता है। पुजारिन अपने साथ एक विशेष प्रकार का पेय तैयार लाती है। इसे गुड़ला कहते हैं। गुड़ला वह पेय होता है जो पैदा होते ही दाई बच्चे को पिलाती है, जिसे हम घुट्टी कह सकते हैं। इसका स्वाद तीखा और विचित्र-सा होता है। हर यात्री को पुजारिन की गोद में लेटकर गुड़ला पीना होता है। गुड़ला पिलाकर पुजारिन यात्री को गोद से खड़ा करके आशीर्वाद देती है। यह सारी प्रक्रिया गुसाई पंथ में पुनर्जन्म की प्रक्रिया मानी जाती है। मूर्ति के आसपास गर्भ-परिक्रमा को माँ के गर्भ का प्रतीक माना जाता है। उस गर्भ-गुफा में यात्री को जो पीड़ा होती है और जिस प्रकार दम घुटता है उसका वर्णन तो मैं कर ही नहीं सकता। यदि इस परिक्रमा का आधार धार्मिक, अध्यात्मिक न हो तो कुबेर का खजाना लेने के मोल भी कोई उसमें प्रवेश नहीं करे। हालाँकि आज तक उस गर्भ में एक भी यात्री के मरने का समाचार नहीं सुना पर फिर भी पहली ही साँस पर लगता है कि अब जीवित बाहर नहीं निकला जा सकेगा। शरण भाईं की साँसों और हिंगलाज माता के दर्शन का सहारा ही यात्री का गर्भ-पाथेय होता है। पुजारिन माता की घुट्टी में जड़ी-बूटियों का जीवनदाता पानी होता है। उसको पीकर यात्री अपने आपको कृतार्थ और अपनी यात्रा को सफल मानते हैं। 

जब यात्रीगण यह परिक्रमा पूरी कर लेते हैं तब अगुआ हिंगलाज माता के मन्दिर की एक दीवार पर बैठ जाता है और एक नया नारा लगाता है। यह नया नारा यात्रा की समाप्ति और दल के वापस लौटने का सूचक होता है। वहीं बैठे-बैठे अगुआ सब यात्रियों को तोड़े पहनाता है। तोड़े का मतलब है माला। एक तोड़ा एक-एक हज़ार मणियों का होता है। ये मणियाँ काफी छोटी-छोटी होती हैं। अगुआ कराँची से ही मालाएँ साथ लेकर चलता है। एक-एक माला यात्री के गले में डाल देने के बाद वह पचास-पचास मणियों की एक-एक छोटी माला हर यात्री को देता है। ये छोटी मालाएँ प्रत्येक यात्री वहाँ पर फली-फूली कनेर को पहना देता है। कनेर को वह माला पहनाते ही सब कनेर उस यात्री की बहन मान ली जाती हैं। यात्री को वहाँ यह व्रत लेना पड़ता है और घोषणा करनी होती है कि वह आजीवन कनेर का फूल नहीं तोड़ेगा, न कनेर को वह सतायेगा। जो छड़ी अगुआ कराँची से लेकर चलता है, वह यहाँ रोप दी जाती है। इस प्रकार इस यात्रा में गुरु, शरण-भाई के नाम पर भाई और घुट्टी पिलानेवाली माता तथा बहन के रूप में कनेर - यात्री को सब-कुछ प्राप्त हो जाता है। एक नया परिवार उसका बन जाता है और उसका जन्म सफल मानकर गर्भ-गुफा से अवतरित होने के पश्चात् उसका दूसरा जन्म शुरु माना जाता है। ये रिश्ते और मान्यताएँ यात्रीगण  आजीवन पालते हैं। हिंगलाज माता के मन्दिर पर न तो खाना बनाया जा सकता है, न चूल्हा-चौका होता है। वहाँ पानी भी नहीं पिया जा सकता है। कनेर को भी बहन बनाने के बाद उसी अगुआ की अगुआई में यात्रा का दूसरा चरण शुरु होता है। यह वापसी भी बड़ी विचित्र होती है। जिस रास्ते से यात्री मन्दिर पर आते हैं उसी रास्ते से वापस लौटना मना है। उधर से वापस नहीं जा सकते हैं। हम सबने अपनी इष्टदेवी को याद किया, अगुआ बालभारती ने अपने धामिक मन्त्रों का पाठ किया तथा हमारा दल हिंगलाज माता को पीठ देकर यात्रा के दूसरे चरण के लिए लौट पड़ा। मुझमें एक अपूर्व ताजगी थी और अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेने की किशोर-सुलभ विजय-भावना भी। मुझे लगता था कि मेरा मानसिक कद बढ़ गया है। एक अजानी प्रौढ़ता मुझे अपने आप में विराजती लगी। मुझे लगा कि अब मैं निरा बच्चा नहीं हूँ और पंथ के प्रति मेरी कुछ जिम्मेदारियाँ हैं। यह प्रौढ़ता मुझे मानसिक रूप से कसती जा रही थी, पर इसके विपरीत मेरे शरीर पर आती हुई जवानी के पहले ज्वार ने मेरे अंग-अंग को गुलाबी पोत दिया था। आप देख रहे हैं कि मेरा कद ठिगना है पर मुझे लगा कि मैं कुछ गोलाई ले रहा हूँ। बदन की माँसपेशियाँ अधिक कसीली हो गयी हैं। भूगोल के विभिन्न पहलुओं ने मुझे प्रबल शक्ति दी है और ये पहाड़, नदियाँ और रेगिस्तान मेरे लिए पौष्टिक प्राश सिद्ध होते जा रहे हैं। पाँवों में वेग आ गया था। मुँह पर मूँछें मसमसाकर फूट आई थीं। दाढ़ी का दबदबा सहयात्रियों पर पड़ने लगा था। चेचक के दाग भर-से गए थे और मेरी नजर में ललाई की रंगत मुझे खुद को ज्यादा लगती थी। धरती, आसमान और समन्दर, इन सबने मिलकर भरपूर नमक मेरे बदन पर मसल दिया था। बार-बार मैं अपने भगवा कपड़ों को देखता था और गले में पड़ी रुद्राक्ष की माला तथा गुरु का दिया हजार-मणियों का तोड़ा रह-रहकर मेरी उँगलियों में खेलने लग जाते थे। न मैं अनमना था, न वाचाल। एक स्थान पर अधिक समय तक रहना अब मेरे शरीर ने मना जैसा कर दिया था। मैं चाहता था कि मैं सिर्फ चलता रहूँ, चलता रहूँ, वहाँ तक चलता रहूँ जहाँ तक कि मैं थककर चूर नहीं हो जाऊँ और हर तरह की थकानें अब मुझसे थक गयी लगती थीं।

‘हिंगलाज माता की जय के साथ हमारे पाँव वापस कराँची के लिए उठे। हिन्दूकुश पर्वत की नयनाभिराम श्रेणियों पर अब हम विपरीत दिशा की ओर चले। यहाँ से हमें फारस की सीमा पर जाना था। हिंगलाज माता वाला पहाड़ बलूचिस्तान की सीमा में है और तब भारत में था। फारस तब भी भारत से अलग देश था और आज भी अलग है। एक तरह से यह मेरी पहली विदेश-यात्रा थी, यह मान लें तो भी मुझे कोई आपत्ति नहीं है। न किसी के पास पासपोर्ट, न कोई रोक-टोक। उधरवाले भी सब जानते थे कि हम यात्री हैं और हिंगलाज का हर यात्री, यह यात्रा इसी प्रकार करने को विवश है।’
 

 





किताब के ब्यौरे -
कच्छ का पदयात्री: यात्रा विवरण
बालकवि बैरागी
प्रथम संस्करण 1980
मूल्य - 10.00 रुपये
प्रकाशक - अंकुर प्रकाशन, 1/3017 रामनगर,
मंडोली रोड, शाहदरा, दिल्ली-110032
मुद्रक - सीमा प्रिंटिंग प्रेस, शाहदरा? दिल्ली-32
कॉपीराइट - बालकवि बैरागी



यह किताब, दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती रौनक बैरागी याने हम सबकी रूना ने उपलब्ध कराई है। रूना, राजस्थान प्रशासकीय सेवा की सदस्य है और इस किताब के यहाँ प्रकाशित होने की तारीख को, उदयपुर में, सहायक आबकारी आयुक्त के पद पर कार्यरत है।

गोरा बादल

श्री बालकवि बैरागी के दूसरे काव्य संग्रह
‘जूझ रहा है हिन्दुस्तान’ की तैंतीसवीं कविता

यह संग्रह पिता श्री द्वारकादासजी बैरागी को समर्पित किया गया है।




गोरा बादल

गोरा रे...
बादल रे...
आह्ला रे...
ऊदल रे...
गोरा रे भाई बादल रे
आह्ला रे भाई ऊदल रे
मारू बाजे बजे देश में, रण भेरी का शोर रे
गरजो रे गरजो गोरा बादल, बरस पड़ो घनघोर रे
गोरा रे...बादल रे...

जिसको मुँह का कौर खिलाया, वो करता है बेईमानी
शीश सिरहाने रखा जिसके, उसको सूझी शैतानी
सरहद से ललकार रहा है, देखो बौना अभिमानी
चला परखने बुजदिल देखो, भारत वालों का पानी
(तो) मूँछ मरोड़ो, आगे आओ, आया अपना दौर रे
गरजो रे गरजो गोरा बादल, बरस पड़ो घनघर रे
गोरा रे...बादल रे...

अय्यूबी सौदे दुश्मन से, होते हैं तो होने दो
लाल जहर से कोई चेहरे, धोते हैं तो धोने दो
ना करते भी आक-धतूरे, बोते हैं तो बोने दो
रावलपिण्डी में कुछ गीदड़, रोते हैं तो रोने दो
आखिर साथ हमारा देंगे, ढाका और लाहौर रे
गरजो रे गरजो गोरा बादल, बरस पड़ो घनघोर रे
गोरा रे...बादल रे...

जिसने हम पर पतझर डाला, उसके चमन उजाड़ दो
हाथ उठा है जो जननी पर, जड़ से उसे उखाड़ दो
हर चीनी की छाती पर तुम, अमर तिरंगा गाड़ दो
पेकिंग को नाखून गड़ा कर, कागज जैसा फाड़ दो
और निचोड़ो ऐसा जैसे, नींबू दिया निचोड़ रे
गरजो रे गरजो गोरा बादल, बरस पड़ो घनघोर रे
गोरा रे...बादल रे

मरघट के सोये भूतों को, दो आवाज़ जगाओ रे
डाकनियों और शंखनियों को, ताज़ा खून पिलाओ रे
चीनी आँतों की माला से, भैरव-कण्ठ सजाओ रे
सत्तर कोटि कलेजे काटो, भूखा रुद्र जिमाओ रे
करो खून में ग़ारत ऐसा, ओर मिले ना छोर रे
गरजो रे गरजो गोरा बादल, बरस पड़ो घनघोर रे
गोरा रे...बादल रे...

होशियार सिंह बाँह पसारे, लो आवाज़ लगाता है
उसका बदला कौन सूरमा, देखें आज चुकाता है?
बीड़ा फिरता है मतवालों, हँस कर कौन उठाता है?
किसका कन्धा, किसका कुन्दा, माँ का घाव पुराता है?
कौन बाँधता अपने सिर पर, रण दुल्हे का मौर रे
गरजो रे गरजो गोरा बदल, बरस पड़ो घनघोर रे
गोरा रे...बादल रे... 

कसम तुम्हें है काश्मीर के, जलते हुए चिनारों की
कसम तुम्हें है ब्रह्मपुत्र की, अध-घायल हुँकारों की
क़सम तुम्हें है धनसिंह जैसे, बिना बुझे अंगारों की
दाँत भींच कर आँत खींच लो, नरपत के हत्यारों की
लानत है, दुश्मन को अब तक, मिली हुई है ठौर रे
गरजो रे गरजो गोरा बादल, बरस पड़ो घनघोर रेे
गोरा रे....बादल रे...
 
नेफा से पेकिंग तक धरती, अरि मुण्डों से पाट दो
खड़ा चीर दो खीरे जैसा, गाजर जैसा काट दो
जोड़-जोड़ को, तोड़-तोड़ कर, बोटी-बोटी छाँट दो
अनशन तुड़वा दो चीलों का, यूँ उछाल कर बाँट दो
दावत दो कुत्तों-कौओं को, जशन मने हर ओर रे
गरजो रे गरजो गोरा बादल, बरस पड़ो घनघोर रे
गोरा रे...बादल रे...

इतिहासों से हमलावर ने, ना पूछा, ना ताछा है
किसी नशे में या पीनक में, नंगा होकर नाचा है
समझ रहा है नेहरू चाचा, सीधा-साधा चाचा है
लेकिन चाचा नहीं दोस्त अब, नेहरू एक तमाचा है
लाख जनम तक याद रहेगा, यह चाँटा पुरजोर रे
गरजो रे गरजो गोरा बादल, बरस पड़ो घनघोर रे
गोरा रे...बादल रे...

शीश चढ़ाने की बेला है, बढ़ो तान कर सीना रे
आन, मान या शान गँवा कर, जीना कैसा जीना रे 
या तो बहता रहे खून या, बहता रहे पसीना रे
जब तक दुश्मन जिन्दा तब तक, कैसा खाना-पीना रे
किसके लिये उगे हैं माथे, पैंतालीस करोड़ रे
गरजो रे गरजो गोरा बादल, बरस पड़ो घनघोर रे
गोरा रे...बादल रे...
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जूझ रहा है हिन्दुस्तान
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मालव लोक साहित्य परिषद्, उज्जैन (म. प्र.)
प्रथम संस्करण 1963.  2100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण - मोहन झाला, उज्जैन (म. प्र.)









यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।