किताब के ब्यौरे -
कच्छ का पदयात्री: यात्रा विवरण
बालकवि बैरागी
प्रथम संस्करण 1980
मूल्य - 10.00 रुपये
प्रकाशक - अंकुर प्रकाशन, 1/3017 रामनगर,
मंडोली रोड, शाहदरा, दिल्ली-110032
मुद्रक - सीमा प्रिंटिंग प्रेस, शाहदरा? दिल्ली-32
कॉपीराइट - बालकवि बैरागी
बात इसी, 2021 के जून महीने की किसी एक शाम की है। हम तीन, जलजजी के घर बैठे थे। ‘हम तीन’ याने, डॉ. मुरलीधरजी चाँदनीवाला, गुस्ताद भाई अंकलेसरिया और मैं। अपने दादाजी श्री जी. डी. अंकलेसरियाजी की स्मृति में गुस्ताद भाई, प्रति वर्ष एक व्याख्यान करवाने चाहते हैं। उसी पर बात करने के लिए उन्होंने यह जमावड़ा किया था।
आयोजन के रूप-स्वरूप, व्यवस्थाओं और सम्भावित वक्ताओं के नामों पर होते-होते बात, आमन्त्रित वक्ता के पारिश्रमिक पर आ गई। गुस्ताद भाई ने हाथ खड़े कर दिए - ‘मुझे इस बारे में कोई अनुभव नहीं। आप लोग जो कह देंगे, वह आँख मूँदकर मंजूर कर लूँगा।’ हम तीनों के पास, इस मामले में अपने-अपने कुछ अनुभव, संस्मरण थे - कुछ सुखद-प्रिय, कुछ अप्रिय, जायका कड़वा कर देनेवाले। बच्चनजी का वह प्रसंग भी बीच में आ गया जब उन्होंने कवि सम्मेलन में आने के लिए रेल की प्रथम श्रेणी का यात्रा भाड़ा वसूल किया था जबकि बतौर राज्य-सथा सदस्य, उहें प्रथम श्रेणी की निःशुल्क रेल यात्रा का पास मिला हुआ था। एक के बाद एक, ऐसे ही कुछ नामों की बात करते हुए दादा बालकविजी का उल्लेख आ गया। जलजजी ने कहा - ‘पारिश्रमिक तो बैरागीजी ने भी वूसल किया था। मेरे सामने।’
सुनते ही मैं चौंका। सकपका सा गया - पता नहीं दादा के बारे में अब, आगे क्या सुनना पड़ेगा! चाँदनीवालाजी सविस्मय, दयाभरी नजर से मुझे देखने लगे। हम दोनों की शकलें देखकर जलजजी हँस पड़े। बोले - ‘घबराइये नहीं। ऐसा कुछ भी नहीं है। सुन लीजिए।’
और जलजजी ने जो कुछ सुनाया वह कुछ इस तरह था -
अपनी स्वर्गीया पत्नी बानू बहन अब्बासी की स्मृति में बैरिस्टर अब्बासी साहब प्रति वर्ष एक व्याख्यान करवाते थे। हिन्दी के लिए, अपने जमाने की स्थितियों के हिसाब से बानू बहन ने अभूतपूर्व काम किया था। उन्होंने खुद को हिन्दी के लिए समर्पित कर दिया था। सो, बैरिस्टर साहब इस व्याख्यान को यथा सम्भव हिन्दी दिवस, 14 सितम्बर को या उसके आसपास करवाते थे। इसके लिए एक समिति बनाई हुई थी। वक्ता चयन में जलजजी की भूमिका लगभग निर्णायक हुआ करती थी।
यह सम्भवतः 2006 की बात है। इस बरस बालकविजी का व्याख्यान तय हुआ था। उनसे पहला सम्पर्क जलजी ने ही किया। उन्होंने बिना किसी ना-नुकर, हीले-हवाले के फौरन हाँ भर ली। आयोजन की कागजी तैयारियाँ शुरु हो गईं। तारीख पास आने लगी। बालकविजी उन दिनों नीमच रहते थे। कुछ दिन पहले बालकविजी से, रतलाम आने का कार्यक्रम पूछा। उन्होंने कहा - ‘फलाँ दिन, फलानी ट्रेन से, लगभग इतने बजे, रतलाम पहुँचेंगे।’ जवाब में कह गया कि खुद बैरिस्टर साहब उहें लिवाने स्टेशन पहुँचेंगे। सब कुछ तय हो जाने के बाद बालकविजी के नामोल्लेख सहित आयोजन की प्रेस विज्ञप्ति जारी कर दी गई।
बालकविजी के चाहनेवाले रतलाम में बहुत लोग हैं। सो, उनका नाम सामने आते ही कुछ लोगों ने उनसे सम्पर्क कर रतलाम आने का कार्यक्रम पूछा। बालकविजी ने उन्हें जो ट्रेन बताई वह ट्रेन वह नहीं थी जो ‘समिति’ को बताई थी। शहर में चर्चा कुछ और थी और ‘समिति’ की जानकारी कुछ और। आयोजक असहज तो हुए लेकिन उन्हें अपने अतिथि पर भरोसा था कि यदि कोई बदलाव होगा तो बालकविजी खुद खबर करेंगे। सो, वे अपनी आशंकाओं को नियन्त्रित किए रहे।
निर्धारित तारीख को, बालकविजी द्वारा बताई गई ट्रेन के, नीमच से रवानगी के समय के कुछ समय बाद जलजजी ने बालकविजी के घर फोन किया। श्रीमती बैरागी ने फोन उठाया। उन्होंने बताया कि बालकविजी निर्धारित ट्रेन से रतलाम के लिए निकल चुके हैं। जलजजी ने जानना चाहा कि बालकविजी को भोजन में क्या पसन्द है। जवाब मिला कि शाम का भोजन उन्हें दे दिया गया है। रेल में ही कर लेंगे। इसलिए आयोजक उनके भोजन की चिन्ता, व्यवस्था न करें।
बालकविजी को लिवाने के लिए बैरिस्टर साहब को पहुँचना था। लेकिन स्थिति ऐसी बनी कि वे नहीं पहुँच पाए। ‘समिति’ के सदस्य पहुँचे। बालकविजी बैरिस्टर साहब के आवास पर पहुँचे। उनकी भाव-भीनी अगवानी हुई। चाय-बिस्किट के साथ बातें शुरु हुईं। बालकविजी आयोजन के लिए तैयार होने लगे।
व्याख्यान आयोजन का सिलसिला शुरु होने के पहले ही साल से ‘समिति’ के दो निर्णय थे - पहला, अतिथि वक्ता को पारिश्रमिक भेंट किया जाएगा और दूसरा, यह पारिश्रमिक, यथासम्भव कार्यक्रम से पहले ही, घर पर ही भेंट किया जाएगा। तदनुसार अब्बासीजी ने बालकविजी को पारिश्रमिक का लिफाफा भेंट किया। लिफाफा देखकर बालकविजी ने कहा - ‘हाँ। पारिश्रमिक तो मैं लूँगा और जरूर लूँगा। मैं मुफ्त में कहीं नहीं जाता। न तो खुद मुफ्तखोरी करता हूँ न करने देता हूँ।’ कहकर उन्होंने, लिफाफा बैरिस्टर साहब की ओर सरकाते हुए कहा - ‘इसमें से एक रुपया निकाल कर मुझे दे दीजिए। वही मेरा, आज का पारिश्रमिक है।’ बैरिस्टर साहब के बेटी-दामाद सकीना और अनवर भाई ने यात्रा व्यय स्वीकार करने का अनुरोध किया। बालकविजी हँसकर बोले - ‘रेल्वे मुझसे किराया नहीं लेती।’
खैर,
सब लोग आयोजन स्थल पर पहुँचे। कार्यक्र शुरु हुआ। जलजजी ने कहा कार्यक्रम के दौरान मैंने जिज्ञासा-भाव से पूछा - ‘जब आपको इसी ट्रेन से आना था तो बादवाली ट्रेन से आपके आने की बात का सच क्या है?’ बालकविजी ठठाकर हँसे। बोले - ‘यदि उन्हें सच बता देता तो पता नहीं मैं बैरिस्टर साहब के घर तक आ पाता भी या नहीं। यदि आ पाता तो पता नहीं कब आ पाता और यह भी मुमकिन था कि मैं बाद में आता, वे सब मुझसे पहले ही बैरिस्टर साहब के घर पहुँच चुके होते। तब क्या होता? कितनी असुविधा होती सबको? इसलिए मैंने उनसे सच नहीं कहा।’
जलजजी ने कहा-“उस दिन बालकविजी ने सबको अविश्वसनीय, सुखद आश्चर्य से भर दिया। था। उस दिन वे वक्ता, मुख्य अतिथि नहीं, ‘देवता अतिथि’ थे।”
जलजजी से पूरी बात सुनकर मेरी साँस में साँस आई। सकपकाहट ‘उड़न छू’ हो गई।
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02 अक्टूबर जलजजी की अभिलेखीय जन्म तारीख है। इस तारीख को जलजजी के निवास पर उनके चाहनेवालों का अच्छा-खासा जमावड़ा हो जाता है। जलजजी और उनकी अर्द्धांगिनी श्रीमती प्रीती जैन का, यहाँ दिए गए चित्रवाला यह रूप-स्वरूप, 02 अक्टूबर 2019 को हुए ऐसे ही जमावड़े ने सजाया था।