यह संग्रह नवगीत के पाणिनी श्री वीरेन्द्र मिश्र को समर्पित किया गया है।
आज के सूरज से
आज के सूरज से
ये भी उदास
वे भी उदास
न कोई आभा
न कोई उजास
रीता और रोता सवेरा
सूरज की आँखों के नीचे
गालों तक काला-काला घेरा
लगता है
कुछ गड़बड़ है!
गई साँझ तक तो
ऐसा कुछ था नहीं।
मैं एक अदना-सा जुगनू
सारी रात लड़ा अँधेरे से
कुछ वचन लिये-दिये
मैंने आसन्न सवेरे से
चीरकर रख दिया
मैंने कलेजा काली रात का
भरोसा सभी ने किया मेरी बात का!
हाँ! हाँ!!
मेरी ही पीठ पर चस्पा था
सूरज का घोषणा-पत्र
चर्चा रही इस बात की सर्वत्र
पर अब यह गड़बड़?
सूरज के खानदान में
ऐसी बदहवास भगदड़?
आखिर क्यों?
क्या कहा?
सबेरे-सबेरे ही सुला दिया उन्होंने
सूरज को?
सिरहाने रखकर अपना ही
घोषणा-पत्र?
मुँदवाकर आँखें
मोड़ दिया उसका मुँह अन्यत्र?
मरियल और अड़ियल घोड़े
जोत दिये उसके रथ में?
दिगपाल चलने नहीं दे रहे हैं
उसका रथ?
असुरक्षित है सारथि अरुण?
तभी तो
मैं कहूँ कि क्यों है ऊषाकाल
इतना नीरस इतना करुण!
तब भाई सूरज!
आँखें खोलो नये सिरे से
पहचानो अपने आसपास लगी
अथक, अनन्त, अटाटूट और
अवांछित
भीड़ को
ये नहीं हैं वे लोग
जिन्होंने पढ़ी थी गायत्री
कोई सरोकार नहीं है
त्रिकाल सन्ध्या से इनका
क्षितिज से क्षितिज तक की
उजली यात्रा
ये नहीं करने देंगे तुम्हें
म्लान, निष्प्रभ और निरीह रहो तुम
यही है इनकी साधना
रोशनी के लुटेरे ये
तुम्हें नोच-नोचकर खा जायेंगे
उदयाचल पर
ये जो बैठे हैं न तुम्हारे आसपास
तुम्हें
प्राची सहित पचा जायेंगे।
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संग्रह के ब्यौरे
मन ही मन (कविता संग्रह)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - पड़ाव प्रकाशन
46-एल.आय.जी. नेहरू नगर, भोपाल-462003
संस्करण - नवम्बर 1997
मूल्य - 40 रुपये
आवरण - कमरूद्दीन बरतर
अक्षर रचना - लखनसिंह, भोपाल
मुद्रक - मल्टी ग्राफिक्स, भोपाल
यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है।
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती।
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती।
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।
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