काव्य संग्रह ‘शीलवती आग’
के कवि का आत्म-कथ्य, समर्पण, टिप्पणी, संग्रह का ब्यौरा और अनुक्रमणिका
समर्पण
इस पीढ़ी के
असहमत आक्रोश
के गायक
डॉ. शिवमंगलसिंह ‘सुमन’
को
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मेरी बात
‘शीलवती आग’ आपके हाथों में है। मेरा मूल मानस इन रचनाओं में स्पष्ट है। व्यवस्था और सरकार का फर्क जब लोग नहीं समझते हैं, तब वे बेमानी बहसें करते हैं। इस समय हम वह काल जी रहे हैं, जब कोई किसी के साथ नहीं है। हर आदमी एक द्वीप हो गया है। कटाव बढ़ा है और आक्रोश का ग्राफ तेजी से ऊपर उठ रहा है। मसीहाई मेरा तेवर नहीं है। कवि, चाहे वह कैसा ही हो, व्यवस्था का समर्थक नहीं होता। बहुत गहरे देखने पर आप उसे विद्रोह की परिधि तक वैसा पायेंगे, जैसा कि उसे होना चाहिए। आलोचना, विरोध और विद्रोह ये तीनों क्रमिक आयाम हैं; उत्तरोत्तर विकसित। आखिर इन आयामों का आधार-बिन्दु क्या हो? आलोचना किसकी? विरोध किसका? विद्रोह किसके प्रति? कई प्रश्न हैं। अशिव, असत्य और अभद्र के प्रति विद्रोह एक सनातन माँग है। शायद ‘शीलवती आग’ का आधार-बिन्दु यहीं-कहीं निकल आयेगा। इस संग्रह की कविताओं में आप यदि मुझे ढूँढेंगे तो मेरे प्रति अन्याय होगा। इनमें कहीं-न-कहीं आप भी हैं। मैं यही चाहूँगा कि आप इन रचनाओं में स्वयं को कहीं-न-कहीं खोज लें।
यदि अपने लेखन का पुरस्कार पाने की ललक मुझमें लिप्सा के तौर पर जी रही हो तो मैं लेखन का तिरस्कार भी भुगतने को तैयार हूँ। मैंने वह सब सहा है, जो सामान्यतः असह्य और अवांछित था। अनावश्यक और असत्य तो था ही। मुझे कभी कोई शिकायत नहीं रही। कल भी नहीं थी और आज भी नहीं थी। अस्तु,
पुस्तक के प्रकाशक का मैं आभारी हूँ। पाठकों का ऋणी तो हूँ ही।
- बालकवि बैरागी
ज्योति पर्व
7 नवम्बर 1980
शीलवती आग
आग में कोई शील नहीं होता। उसकी कोई सीमा नहीं होती। वह कोई बाधा नहीं मानती। उसका स्वभाव होता है, सत्-असत् सब कुछ को, जो भी उसकी चपेट में आ जाए, जलाकर क्षार कर देना। किन्तु बालकवि बैरागी की इस कृति में संकलित रचनाओं में ऐसी आग है जिसमें शील है। वह केवल असत् को क्षार करने के लिए धू-धू कर जल रही है। उसे अनुकूल वायु की प्रतीक्षा है। बदलते वक्त के साथ ही अनुकूलता का अहसास होता है, तो लगता है ‘कुछ होने को है’, किन्तु गुजरते वक्त के साथ यह मानना पड़ता है ‘हम कुछ नहीं करेंगे, कभी कुछ नहीं होगा’ और परिस्थितिजन्य वास्तविकता यह है कि आग लग चुकी है जिसमें ‘हर एक का कुछ न कुछ जल रहा है।’ लेकिन ध्यान कोई नहीं देता। द्वापर का दैत्य फिर आ गया है। सूरज ने स्याही उगल कर आकाश काला कर दिया है। ‘तुम उठो! माँजो गगन को........पत्थरों को चेतना का स्पर्श दो’। जरा सोचो तो ‘पक्षियों तक ने परों को फड़फड़ाया है’। आज के परिवेश की दस्तावेज ‘शीलवती आग’ की ये रचनाएँ मनन-चिन्तन का नया परिदृश्य प्रस्तुत करती हैं और कुछ करने का संकेत देती हैं।
- डॉ. रामाश्रय सविता
शीलवती आग (कविता संग्रह)
कवि: बालकवि बैरागी
प्रकाशक: राष्ट्रीय प्रकाशन मन्दिर, मोतिया पार्क, भोपाल (म.प्र.)
प्रथम संस्करण: नवम्बर 1980
कॉपीराइट: लेखक
मूल्य: पच्चीस रुपये
मुद्रक: सम्मेलन मुद्रणालय, प्रयाग
अनुक्रमणिका
01. चाहे सुनो मत सुनो
02. बेमिसाल हम
03. अलख अनिवार्य
04. गीत
05. राम के प्रति
06. दादा के प्रति
07. नीम बोला
08. मेरे गाँव के लोग
09. निरर्थक
10. सब कुछ बेतरतीब
11. विडम्बना
12. रात से प्रभात तक
13. शीलवती आग
14. तुम्हारा दाँव
15. थूको अपनी तटस्थता पर
16. खूब
17. सगे संबंधी
18. चुनाव: मेरा खेत मेरी फसल
19. मुद्दा
20. सुबह का भूला
21. आत्मालाप
22. तीसरा विकल्प
23. बहसरत: वे
24. दैन्य द्वापर का
25. वशीकरण के खिलाफ
26. अपनी-अपनी शक्ति
27. हम भूल गए हैं वेदराग
28. एक निवेदन
29. खून (अनुवाद)
30. एक निर्लज्ज प्रश्न: बदले परिवेश से
31. वे और मैं
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यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। ‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।
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रूना के पास उपलब्ध, ‘शीलवती आग’ की प्रति के कुछ पन्ने गायब थे। संग्रह अधूरा था। कृपावन्त राधेश्यामजी शर्मा ने गुम पन्ने उपलब्ध करा कर यह अधूरापन दूर किया राधेश्यामजी, दादा श्री बालकवि बैरागी के परम् प्रशंसक हैं। वे नीमच के शासकीय मॉडल उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में व्याख्याता हैं। उनका पता एलआईजी 64, इन्दिरा नगर, नीमच-458441 है तथा वे मोबाइल नम्बर 88891 27214 पर उपलब्ध हैं।
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