यह इसी 12-13 जुलाई की सेतु रात्रि की बात है। एक पारिवारिक आयोजन में शामिल होने के लिए औरंगाबाद पहुँचा था। लगातार दस घण्टों की यात्रा ने इतना थका दिया था कि थकान के मारे नींद नहीं आ रही थी।
तारीख बदलने ही वाली थी कि मोबाइल ने ‘टुन्न’ से ठुमका मारा। एक अनजान नम्बर से दादा श्री बालकवि बैरागी का एक फोटू उतरा था। फोटू के लिए धन्यवाद देते हुए मैंने तनिक संकोच से जवाब दिया - “यह नम्बर मेरे मोबाइल में ‘सेव’ नहीं है। कृपया बातएँ, आप कौन हैं?”
जवाब तो आया बिना किसी लाग-लपेट के लिए लेकिन मैं झेंप गया - ‘भूली ग्या! मूँ देवेन्द्र जोशी। भोपाल से।’ देवेन्द्र भाई रतलाम में जिला जनसम्पर्क कार्यालय के सर्वे-सर्वा रहे हैं। मेरे पॉलिसीधारक भी रहे। उन्हें भला कैसे भुला जा सकता है! झेंपते-झेंपते ही जवाब दिया - “भूलवा वाली तो कोई वात नी हे। आप तो म्हारा ‘अन्नदाता’ हो। पर आपको नम्बर ‘सेव’ नी वेवा ती गफलत वेईगी। माफी देई दो।’ उधर से जवाब में सीधा-सादा ‘धन्यवाद’ मिला।
मुझे लगा, बात खतम हो गई। लेकिन अगले ही क्षण अच्छा-खासा सन्देश आया - “बालकवि बैरागी जी ने परिवार नियोजन पर गीत लिखा था और कवि सम्मेलनों में उसे सुनाते भी थे। गीत है -
ये गीत आज प्रासांगिक है। मुझे यह गीत आज भी याद है। उज्जैन के कार्तिक मेला मैदान के कवि सम्मेलन में सुना था। यह दादा का विजन था। उनकी लेखनी ने सारे देश मे यह सन्देश पहुँचाया था। कवि सम्मेलनों में गा-गा कर इसे लोकप्रिय बनाया।”
मैं हक्का-बक्का रह गया। यह गीत मेरी जानकारी में नहीं था। दो दिन पहले ही इसकी जानकारी हुई थी। इन दिनों दादा की रचनाएँ अपने ब्लॉग पर देने में लगा हूँ। उसी सिसिले में दादा के ‘दो टूक’ शीर्षक कविता संग्रह की कविताओं से गुजर रहा था। उसी संग्रह में इस गीत का शीर्षक आँखों के सामने से गुजरा था। गीत नहीं पढ़ पाया था।
मुझे ताज्जुब इस बात पर हुआ कि यह संग्रह 1971 में छपा था। दादा 1967 में विधायक बने थे। उसके बाद उनका कवि सम्मेलनों में जाना एकदम कम हो गया था। जाहिर है, देवेन्द्र भाई ने यह गीत 1967 से पहले ही सुना होगा। लेकिन पचास-पचपन बरस बीत जाने के बाद भी उन्हें यह गीत याद रहा! मैं नींद भूल बैठा।
लेकिन कुछ ही क्षणों में मेरा ताज्जुब, चमत्कार में बदल गया। ऊपर लिखी पंक्तियाँ देवेन्द्र भाई ने अपनी आवाज में रेकार्ड कर मुझे भेज दीं। तीन सितारा होटल के वातानुकूलित कमरे के सन्नाटे में मैं अचकचा कर उठ-बैठा।
किसी रचनाकार की सम्पत्ति क्या होती होगी? रुपया-पैसा तो अपनी जगह है ही लेकिन कोई अनजान पाठक/श्रोता, बिना किसी सन्दर्भ-प्रसंग के, बिना किसी स्वार्थ के उसकी रचना को सहेजे रखे - इससे बड़ी सम्पत्ति शायद ही हो। कोई रचनाकार अपने श्रोता/पाठक की यादों बना हुआ है यह जानकर ही वह निहाल हो जाता है।
मैंने जवाब दिया - ‘आप आधी रात में अजूबा मुझे थमा रहे हो। अभी औरंगाबाद में हूँ। बुधवार की शाम/रात रतलाम पहुँचूँगा। वहाँ जाकर पहली फुरसत में यह कविता देखता हूँ।’
अभी, थोड़ी ही देर पहले मैंने कविता देखी। मैं हैरान हूँ - देवेन्द्र भाई के लिखे में एक मात्रा भी इधर-उधर नहीं है। गजब की याददाश्त है आपकी देवेन्द्र भाई! आपकी याददाश्त को सेल्यूट।
मैंने तय किया कि यह पूरा किस्सा फेस बुक और अपने ब्लॉग पर पोस्ट करूँगा। लेकिन मुझे ऑडियो क्लिप पोस्ट करना नहीं आता। मैंने कृपालु मित्रोे से फेस बुक पर ही मदद माँगी। कुछ मित्रों ने रास्ता बताया लेकिन उस पर चल पाना मुझ तकनीक-अनाड़ी के लिए सम्भव नहीं हो पाया। अन्ततः प्रिय निखिल कछावा ने देवेन्द्र भाई के चित्र को उनके ऑडियो से जोड़ कर भेजा। ऑडियो की आवाज तनिक धीमी है लेकिन तनिक ध्यान से सुनेंगे तो देवेन्द्र भाई का कण्ठ आप तक पहुँच ही जाएगा।
प्रसंगवश उल्लेख है कि देवेन्द्र भाई मूलतः हैं तो उज्जैन से लेकिन सितम्बर 1960 में अपर संचालक जनसम्पर्क के पद से सेवा निवृत्त होकर अपनी अर्द्धांगिनी चित्राजी और दो बेटों के साथ भोपाल में ही बस गए हैं। अपने बारे में यह सब बताते हुए उन्होंने लिखा - ‘हम दो, हमारे दो। छोटा परिवार, सुखी परिवार।’
आपकी जय हो देवेन्द्र भाई।
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