काफिला बना रहे

श्री बालकवि बैरागी के दूसरे काव्य संग्रह
‘जूझ रहा है हिन्दुस्तान’ की सातवीं कविता

यह संग्रह पिता श्री द्वारकादासजी बैरागी को समर्पित किया गया है।




काफिला बना रहे

इस तरह चले चलो कि काफिला बना रहे
यूँ कदम मिलाने का ये सिलसिला बना रहे
बढ़ता रहे कारवाँ
देखता रहे जहाँ
जब तलक है दम में दम
मिलते ही रहें कदम

कूच की सुबह में अपने कदमों को कुछ जोश दो
सिर्फ तुम हो होश में तो सबको थोड़ा होश दो
इस वतन के नाम पर ये हौसला बना रहे
यूँ कदम मिलाने का ये.....

उठ गया है बलबला तो आँधियों को मोड़ दो
आ गया है जलजला तो परबतों को तोड़ दो
ये बलबला बना रहे ये जलजला बना रहे
यूँ कदम मिलाने का.....

चल पड़े तो चल पड़े, रुकने का अब काम क्या
क्या गरज पड़ाव की, सुबह क्या औ’ शाम क्या
मनचलों की मौज का ये फैसला बना रहे
यूँ कदम मिलने का ये.....

इब्तिदा हुई है आज अपने इम्तिहान की
लिखते चलो कुछ नई इबारतें ईमान की
नक्शेपा रहे न रहे, काफिला बना रहे
यूँ कदम मिलाने का ये.....
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जूझ रहा है हिन्दुस्तान
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मालव लोक साहित्य परिषद्, उज्जैन (म. प्र.)
प्रथम संस्करण 1963.  2100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण - मोहन झाला, उज्जैन (म. प्र.)
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यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।

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