देस म्हारो बदल्यो

 
श्री बालकवि बैरागी के मालवी श्रम-गीत संग्रह
‘अई जावो मैदान में’ की सोलहवीं कविता


यह संग्रह डॉ. श्री चिन्तामणिजी उपाध्याय को समर्पित किया गया है।



देस म्हारो बदल्यो

कलम मेली लो कान पर, ब्रह्माजी महाराज
थाँ का लिख्या मेटीद्या, म्हाँ मरदाँ ने आज
बदली द्या घर आँगणाँ, बदल्या हाट बजार
बदल्या बादल बीजरी, बदलीगी जलधार
मान, मान, मत मान पण, लग्या आग में वाग
अब मत लिखजे डोकरा, तू भारत का भाग

अणा पाड़-पड़ौसी प्यारा से
अणा गोरा से भई कारा से
थी पूछो म्हाँका हाल
म्हाने कूण कहे कंगाल
ओ बदल्यो, रे बदल्यो, बदल्यो यो देस म्हारो बदल्यो
यो देसड़ल्यो म्हारो बदल्यो

मेहनत करवा वारा बन्दा जूझीग्या तकदीर ती
सूखा सरवर पाछा लेहर्या ठण्डा मीठा नीर ती
पक्का पणघट पाणी लावे पंथीड़ा ने पणिहारी
रगड़-रगड़ पग धोवे एड़्याँ
 छैल छबीली छणिहारी
चरड़-मरड़ बोले मोजड़्याँ

 वाजे बिछुड़्याँ 
पसीना में अई झकझोर छणिहारी 
सोना रूप को माथे बेवड़ो काँधे नेजड़ली
चली जईरी पियाजी की पोर पणिहारी
अणा पणघट की पणिहाराँ से
अणाँ छाँणाँ की छणिहाराँ से
थी पूछो म्हाँका हाल
म्हाने कूण कहे कंगाल
बदल्यो रे बदल्यो, बदल्यो यो देस म्हारो बदल्यो

लाख-लाख हाथाँ ती म्हाँने, नद्याँ मात्तर तो की ली
कन्ता के घर जाती कामणी, मन भायो जाँ रोकी ली
डूँगर की छाती में म्हाँकी, मेहनत ने नख गाड़ीद्या
पग पाँवड़े धन कंचन का भर भण्डार्या काढ़ीद्या
कल कल करती नद्याँ ती म्हाने
झरझर बोल बोलाया रे
गौरी शंकर तक को माथो
ई पग घूँदी आया रे
नद्याँ ती अणा नारा ती
अणा ऊँचा परबत प्यारा ती
थी पूछो म्हाँका हाल
म्हाणे कूण कहे कंगाल
बदल्यो रे बदल्यो, बदल्यो यो देस म्हारो बदल्यो

हल का तीखा मूँडा आगे बाँजड़ धरती थाकीगी
बंध्या पालणाँ घरे वाँझ के, देखो जुवाराँ पाकीगी
डेढ़ परस को बंध्यो डागरो, गोफण फेरी री राणी
नवा खात ती पैदा वेईग्यो बीघे-बीघे सौ माणी
उपणे धराणी माणक मोती
सैणाँ में रही समझाय पियाजी म्हारा
रकड़ी ने रतन जड़ाव
सोना में आखी थने
पीरी-पीरी कर दूँ यूँ मत आग लगाव
रसीली म्हारी तू तो बस उपण्याँ ही जाव
अणा खेताँ का रखवारा से
अणा गहूँ चणा जौ ज्वाराँ से
थी पूछो म्हारा हाल
म्हाने कूण कहे कंगाल
बदल्यो रे बदल्यो, बदल्यो यो देस म्हारो बदल्यो

जणी बाप ने आखी ऊमर दस्खत करतँं न्हीं आया
देस-देस की पोथ्याँ वाँचे वणी बाप का कुलजाया
खेत खरा में नवी डावड़ी बारामासी गावे रे
श्रम हल्दी में लिपट्यो पिवड़ो कद तोरण पर आवे रे
वेगा आवो बरात लेई ने रंग रसिया
रंग रसिया ओ म्हारे हिरदे बसिया
ओ म्हारे मन में बसिया
परण्याँ से अणाँ क्वारा से
(अणा) आज परणवा वारा से
थी पूछो म्हाँका हाल
म्हाने कूण कहे कंगाल
बदल्यो रे बदल्यो, बदल्यो यो देस म्हारो बदल्यो

डामर सीमट और भाटा ती काचा गेला बाँधी द्या
बड़ा शहर और गाम गामड़ी का करजोड़ा फाँदी द्या
रोज परोड़े गाड़ी गेरे खेड़ा को मोट्यार रे
चाँद चल्यो परगाम चकोरी नम-नम करे जुहार रे
वेगा आजो रे गुमानी
म्हारे नैणा नी भावे पाणी
वेगा आजो रे गुमानी
अणी गोरा चाँद उजारा से
(अणी) चाँद का नवलख तारा से
थी पूछो म्हाँका हाल
म्हाने कूण कहे कंगाल
बदल्यो रे बदल्यो, बदल्यो यो देस म्हारो बदल्यो

आनी मानी लाल गुमानी अब विपता न्ही झेलेगा
कंगाली की कम्मर तोड़ी मस्साणाँ में मेलेगा
जामण को सिणगार करी र्या अपणा खून पसीना ती
ई की ई ललकाराँ अई री मथरा और मदीना ती
ओ थाने जगती को कीदां सिणगार ओ गुमानीलाला
लाज नही चली जावे देस की
ओ आखी जगती का माथा परला मोड़, ओ गुमानीलाला
लाज नही चली जावे देस की
अणा साधू सन्त फकीराँ से
अणा निरधन और अमीराँ से
थी पूछो म्हाँका हाल
म्हाँने कूण कहे कंगाल
बदल्यो रे बदल्यो, बदल्यो यो देस म्हारो बदल्यो

(इस गीत के हर छन्द की समापन पंक्तियों में एक-एक लोकधुन का प्रयोग किया गया है। एक ही गीत के लिये छः लोकधुनों का याद होना आवश्यक है। शिल्प की विविधता का यही कारण है।)
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संग्रह के ब्यौरे
अई जावो मैदान में (मालवी कविता संग्रह) 
कवि - बालकवि बेरागी
प्रकाशक - कालिदास निगम, कालिदास प्रकाशन, 
निगम-निकुंज, 38/1, यन्त्र महल मार्ग, उज्जन (म. प्र.) 45600
प्रथम संस्करण - पूर्णिमा, 986
मूल्य रू 15/- ( पन्द्रह रुपया)
आवरण - डॉ. विष्णु भटनागर
सर्वाधिकार - बालकवि बैरागी
मुद्रक - राजेश प्रिन्टर्स, 4, हाउसिंग शॉप, शास्त्री नगर, उज्जैन




यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। ‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।











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