‘इन पड़ावों में गाँव के नाम पर केवल एक ही गाँव रास्ते में आता है। वह है सोनम्यानी। यह बाकायदा एक गाँव है। यहाँ हर यात्री की जाँच या परीक्षा होती है। यहाँ रामगिरि का अखाड़ा है। यहाँ एक कहावत प्रचलित है-
सोनम्यानी सुई का नाका
जहाँ रोके रामगिर काका
रामगिरि महाराज यहाँ जो जाँच करते थे वह बड़ी सख्त और सूक्ष्म होती थी। जाति, धर्म, सम्प्रदाय, गुरु, अखाड़ा, पंगत और न जाने किस-किस विषय पर वे न मालूम कौन-कौन से सवाल करते थे। अधिकांश सवाल धार्मिक मान्यताओं और नागपंथ की अध्यात्मिक मान्यताओं से सम्बन्धित ही किए जाते थे। हमारे दल के सभी 35 यात्री इस विकट परीक्षा में सफल रहे। यह जाँच पूरी पटक लेना ही बड़ी बात हुआ करती थी। रामगिरि काका की रोक को हटा देनेवाला यात्री इतना आत्मविश्वास प्राप्त कर लेता था कि वह हिंगलाज माता की यात्रा को सफलतापूर्वक सम्पन्न कर लेगा।’
दादा की आँखों में एक चमक आई और उनके जबड़े अपनी प्राकृतिक भिंचन के साथ भिंचे। मुझे लगा कि जैसे दादा ने अभी-अभी कोई परीक्षा देकर अपना परिणाम किसी अखबार में देखा हो। दादा कहते गये -
‘जब हिंगलाज तीन-चार ही मील दूर रह जाती है तो वहाँ एक नदी आती है। इस नदी का नाम हिंगलाज माता के नाम पर हिंगोल नदी है। यह नदी पहाड़ों के बीच में से निकालती है और पहाड़ इसको दोनों तरफ से छत की तरह ढाँके हुए हैं। लगता है, पहाड़ों ने नदी को अपने हृदय में से होकर निकाला हो। इस नदी का पानी बेहद मीठा और पाचक है। पहाड़ों के आवेष्ठन के कारण यहाँ ध्वनि की प्रतिध्वनि कई मिनटों तक होती है। दूर-दूर से आये यात्री यहाँ कौतूहलवश बार-बार हिंगलाज माता की जय बोलते हैं और अपनी आवाज को सुनते हैं। यहाँ यदि यात्री कोई भजन शुरु कर दे तो वह क्या गा रहा है यह उसके खुद की ही समझ में नहीं आता है।
हिंगोल में स्नान करना हर यात्री के लिए अनिवार्य है। नदी की कछारें हरी-कच्च हैं। उतनी हरियाली एक साथ मैंने किसी नदी की कछार में आज तक नहीं देखी। यहाँ नहाने और पूजा के साथ एक रस्म आवश्यक रूप से पूरी करनी होती थी। हर यात्री को अपना एक शरण भाई बनाना पड़ता था। शरण भाई जो भी बनाया जाता था, वह अपने से उम्र में बड़ा होना जरूरी था। रस्म यह थी कि नदी की कछारों में झाऊ नामक झाड़ी बहुतायत से पाई जाती है। उस झाड़ी की एक डगाली तोड़ कर उसकी दतौन बनाई जाती है और उससे दतौन कर शरण भाई के नाम पर नदी के किनारे ही, बालू रेत में उस दतौन को गाड़ दिया जाता है। जैसा कि मैंने बताया है, यहाँ से हिंगलाज माता केवल तीन-चार मील ही है, अतः हिंगोल नदी से जाकर हिंगलाज माता के दर्शन करके यात्री वापस तीन ही दिन में इस नदी के किनारे आ जाते हैं। यह देखा जाता है कि जो दतौन जाते समय शरण भाई के नाम पर बालू में गाड़ी गई है वह कुम्हलाई तो नहीं। यदि दतौन का डण्ठल तब तक हरा नहीं होता है या उग नहीं जाता है तो वह शरण भाई हिंगलाज माता को मान्य नहीं है। आस्था में कहीं गड़बड़ रह गई है। माता के दर्शन के समय शरण भाई का काम बहुत महत्व का होता था। यदि दतौन ने हरियाली नहीं पकड़ी तो यात्री और शरण भाई, दोनों ही अपने आप को माता के द्वारा प्रताड़ित मानते थे।
मुझे किसी ने अपना शरण भाई नहीं बनाया था। मैंने अपना शरण भाई राजस्थान के एड़वा माता नामक स्थान के लक्ष्मणगिरि नामक व्यक्ति को बनाया था। शरण भाई का यह रिश्ता हिंगलाज माता के यात्री और नाथ गुसाई पंथ को मानने वाले आजीवन निभाते हैं। जिस प्रकार भारतीय संस्कृति में राखी का भाई-चारा आजीवन पाला जाता है उसी प्रकार शरण भाई का भारी महत्व होता है। एक बार सगा भाई धोखा कर सकता है, पर शरण भाई मरते मर जाए, अपने संगाती भाई से कोई भी परलोक बिगाड़नेवाली बात नहीं कर सकता। यहाँ तक पाया जाता है कि परिवारों के झगड़े मौके-बे-मौके शरण भाई आकर पिटाते हैं। मेरा शरण भाई लक्ष्मण अभी जीवित है। वह मुझसे उम्र में दस वर्ष बड़ा है। शरण भाई को कोई भेंट या दक्षिणा नहीं दी जाती है।
शरण भाइयों के नाम पर गाड़ी जानेवाली दतौन के कारण पूरी हिंगोल नदी की कछारें हरी-कच्च धरी हैं। झाऊ लकड़ी की विशेषता यह है कि वह गीली भी भर्र-भर्र करके जलती है। सूखी जलाने का कोई सवाल ही नहीं उठता है। इतनी आसानी से जलने वाला ईंधन प्रकृति ने वहाँ पैदा करके यात्रियों पर अपार उपकार किया है। यात्रा के अन्तिम सोपान में जब कि यात्रीगण माता के दर्शनों को उतावले रहते हैं यह झाड़ी खाना बनाने में उनकी बहुत सहायता करती है। न तो कहीं किसी को लकड़ी बटोरने के लिए जाना होता है, न पानी की तकलीफ। हिंगोल नदी के पानी का जो स्वाद है, शब्द-शक्ति के बाहर की चीज है। मैं बयान नहीं कर सकता। उसे जो चखे वही जाने।
‘हिंगलाज माता जाने के लिए नदी को पार करना होता है। पहाड़ एक सपाट ऊँची दीवार की तरह सामने है और नदी पहाड़े के सहारे-सहारे बहती है। नदी का बहाव तक इस दीवार के कारण बदल गया है। हिंगोल का पानी मैंने एक कमण्डल में ले लिया था। यह कमण्डल मैंने भुज से खरीदा था। उस समय माँगीलाल मेरे साथ था। यह कमण्डल मुझे समय-समय पर मॉँगीलाल की याद दिलाया करता था। ज्यों-ज्यों हिगलाज माता करीब आती थी त्यों-त्यों मुझे माँगीलाल और वह अन्धा अधिक याद आते थे। मैं भजनों और जयकारों के निनाद में उनको भूलने की चेष्टा करता था।
‘पहाड़ पार करते ही घाटी में हिंगलाज माता का मोक्षदायी मन्दिर है। यात्रीगणों को पहाड़ पार करते ही सीधे हिंगलाज माता के मन्दिर नहीं जाने दिया जाता है। उतरते ही काली माता की एक भव्य मूर्ति है। पहले काली की पूजा और दर्शन करना होता है। काली मैया के लिए यहाँ बकरे की बलि देने का रिवाज था। आप पूछेंगे कि इस वनखण्ड बियाबान में बकरा कहाँ से आता होगा? पर जो भी अगुआ होता है वह इसकी व्यवस्था आसानी से कर लेता है। उन सुनसान पहाड़ों में वह अपनी एक निश्चित भाषा में विचित्र तरह की हाँक मारता था। यह एक प्रकार का कोड संकेत होता था। अगुआ की यह संकेत-पुकार पहाड़ों और नदी की कछारों में प्रतिध्वनि के कारण मीलों दूर तक सुनाई पड़ती थी और मिनटों तक गूँजा करती थी। उसे सुनकर कुछ ही घण्टों में वहाँ के मूल निवासी कबीलों के लोग बकरे लेकर भागे चले आते थे। बकरे का मोल-तोल अगुआ ही करता था और सभी यात्री उसका मूल्य बराबर चन्दा करके चुका देते थे। यह बकरा सारे दल की ओर से बलि दिया जाता था। जो भी यात्री माँस खाते थे वे यहाँ पूजा के बाद प्रसाद लेते थे और अपना जीवन सार्थक करते थे। काली की पूजा के पश्चात् पहाड़ के सहारे-सहारे हिंगलाज माता की तरफ यात्री-दल चलता है। काली माता और हिंगलाज माता के बीच में कोई दो-तीन फर्लाग की दूरी है। चूँकि हिंगोल नदी से आगे ऊँट नहीं जाते हैं सो ऊँट और उनके ऊँटैये वहाँ नदी-तट पर तीन-चार दिन का खेमा लगा देते हैं। जब यात्री वापस होते हैं तो फिर ये ऊँटवाले साथ हो जाते हैं। यहाँ से यात्रियों को अपना सामान और राशन स्वयं ढोना होता है।
‘हिंगलाज माता और काली मैया के बीच की यात्रा सारी थकान उतार देने वाली होती है। रम्य हिंगोल का शीतल अमृत-जल और मनोहारी हरियाली, सिर पर घटाओं की तरह झूमते लुभावने पहाड़ और लोकगीतों के ललकते स्वर, सह-यात्रियों की, भाईचारे से लबालब भावनापूर्ण चमकती आँखें और लक्ष्य की ओर बढ़ते अथक पाँव, कुल मिलाकर ऐसा लगता था मानो जिन्दगी सफल हो गई हो। नदी का प्रवाह इस जगह हिंगलाज माता तरफ से काली मैया की तरफ है। लोगों को उल्टी धार चलना पड़ता है।
हिंगलाज माता मन्दिर की एक छवि (चित्र गूगल के सौजन्य से)
ज्यों ही हिंगलाज माता मन्दिर निकट आता है त्यों ही यात्रियों की जयध्वनियाँ भावातिरेक में ऊँची हो जाती हैं। न तन की सुध रहती है और न मन का भान। कोई भी यात्री कुछ भी गाने और कहने लग जाता है। मैंने महसूस कि पासवाला किससे क्या कह रहा है, यह किसी को याद नहीं। आज तक सहयात्री यह नहीं बता पाते हैं कि उन्होंने हिंगलाज माता के मन्दिर पर जाते समय क्या बात किससे कही थी। किसी की आँखों में अविरल आँसू-धारा है तो कोई गूँगे की तरह अवाक् देख रहा है। अपने-अपने स्वर में कुछ भी गाने लग जाते हैं। यह भान ही नहीं रहता कि कोई क्या कहेगा। यदि अगुआ होश में नहीं हो तो यह क्रम घण्टों चलता रह सकता है। सबकी तन्द्रा अगुआ ही तोड़ता है। यह मेरा ही अनुभव नहीं, कई यात्रियों का अनुभव है।
हिंगलाज माता मन्दिर की एक और छवि (चित्र गूगल के सौजन्य से)
हिंगलाज माता के मन्दिर पर जाते ही कोई भी दर्शन नहीं कर सकता है। ऐसा दर्शन वर्जित था। यात्री दल चाहे सुबह पहुँचे या शाम, रात को बारह बजे से पहले इस मन्दिर में अगुआ भी प्रवेश नहीं कर सकता है। हिंगलाज माता के मन्दिर के पास या वहाँ माँस नहीं खाया जाता है। माँस का वहाँ पूर्ण रूपेण निषेध है। यह सारा खान-पान काली माता के मन्दिर पर ही हो जाता है।
किताब के ब्यौरे -
कच्छ का पदयात्री: यात्रा विवरण
बालकवि बैरागी
प्रथम संस्करण 1980
मूल्य - 10.00 रुपये
प्रकाशक - अंकुर प्रकाशन, 1/3017 रामनगर,
मंडोली रोड, शाहदरा, दिल्ली-110032
मुद्रक - सीमा प्रिंटिंग प्रेस, शाहदरा? दिल्ली-32
कॉपीराइट - बालकवि बैरागी
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