राधनपुर का वातावरण बहुत ही धार्मिक था। साधु-सन्तों और सन्यासियों के लिए कहीं किसी बात की कमी या अनादर की बात नहीं थी। जगह-जगह अन्न-क्षेत्र चलते थे और कच्छी धनिक खुले दिलों से इन अन्न-क्षेत्रों की व्यवस्था करते थे। कोई भी यात्री भूखा नहीं सोता था। खाना भर-पेट मिलता था और धर्मिक गीतों से वहाँ की गलियाँ अनवरत गूँजती रहती थीं। मुझे पूरी तरह याद है कि कच्छ में उन दिनों अन्न-क्षेत्रों की भरमार थी। किसी की दूकान पर जाकर हम खड़े हो जाते तो वहाँ से या तो नगद पैसा या फिर भोजन की चिट्ठी मिल जाती थी। बड़े-बड़े बाड़ों में यह व्यवस्था यात्रियों के लिए होती थी। प्रायः सभी अन्न-क्षेत्र या बाड़े, साधुओं से भरे रहते थे। अकसर होता यह था कि साधुओं को बिना माँगे ही भर-पेट भोजन और यात्रा-व्यय के लिए नगद पैसा मिल जाता था। कोई भी द्वार निराश नहीं लौटाता था। ये बाड़े ही वहाँ अन्न-क्षेत्र थे और साधुओं के लिए आवास भी यही बन जाते थे। दूर-दूर के थके-माँदे सन्यासी-साधु और यात्री, कच्छ में आकर अपना कष्ट भूल जाते थे। एक नई प्रेरणा और शक्ति का संचार, कच्छ में आते ही वहाँ की जनता की व्यवस्था से हो जाता था। सारा लोक-जीवन अपार श्रद्वा और साधु-सेवा से परिपूरित था। मैंने अपने जीवन में वैसा वातावरण, उसके बाद आज तक फिर कभी नहीं देखा। मैं समझ नहीं पाता था कि वहाँ ऐसा क्या था जो वातावरण को इतना प्रेरक बनाए हुए था। पता नहीं, आज वहाँ पर लोक-जीवन की क्या स्थिति है। यह बात सन् 1930 के अन्त और 1931 के आरम्भ की है। हम लोग प्रायः अन्य टोलियों के साथ ही मठों में ही ठहरते थे। ये बाड़े या अन्न-क्षेत्र ही मठ कहलाते थे। इन मठों को मैं आजीवन नहीं भूल सकूँगा। मैं एक महाराष्ट्रीय ब्राह्मण और मेरे साथ एक खटीक हरिजन! परन्तु उस जमाने में भी हम लोग इन मठों में बिना किसी छूत-छात और जात-पाँत के भेद-भाव के, आराम से गाते-खाते थे और हिंगलाज माता की जय बोलते थे। हमारा साधु वेश ही इसकी जड़ था और अब हम यह सोच भी नहीं सकते थे कि सिवाय साधु के हमारा, अपना और भी कोई जीवन है।
‘राधनपुर से हमारी यात्रा फिर भी पैदल ही रही। न किसी बात की चिन्ता, न कमी। 10-15 मील प्रति-दिन पैदल चल कर हम लोग कोई 10-12 दिनों में भुज पहुँच गये। इस पद-यात्रा में भुज जाने से पहले याद रखने काबिल हमको केवल एक गाँव मिला। इसका नाम चितरोल है। आज भी यह गाँव बराबर बसा हुआ होगा ही। यहाँ हम एक रात एक गुसाई मठ में रहे। इस मठ में हमको किसी तरह का अजनबी व्यवहार नहीं मिला। पहले जैसा गुसाइयों ने हमको मारा-पीटा था उस पर से हम डरे हुए तो थे पर जब मठ में गए तो वहाँ का वातावरण अन्य मठों की तरह ही साधुपालक मिला। यहाँ न जाने क्या कुछ हुआ कि माँगीलाल एकदम बदल गया। न जाने किस समय वह पुलिस में पहुँच गया और उसने मेरे खिलाफ यह रिपोर्ट लिखा दी कि मैं उसे घर से भगाकर लाया हूँ। उसने मुझसे जिद की कि मैं उसे वापस उसके घर छोड़ आऊँ नहीं तो वह मुझे गिरफ्तार करवा देगा। इस रिपोर्ट के पीछे उसका मंशा यही थी कि मैं डरकर अपना इरादा बदल दूँ और उसको नयागाँव छोड़ने के लिए लौट जाऊँ। मुझे थाने में बुलाया गया और हम दोनों की जाँच की गई। चूँकि माँगीलाल उम्र में मुझसे बड़ा था सो थानेदार ने उल्टा उसी को तमाचा दिया कि यह कैसे हो सकता कि छोटा लड़का बड़े लड़के को भगा लाए? उसने कहा कि यह जिम्मेदारी माँगीलाल पर तो आ सकती है कि उसने मुझे भगाया होगा पर मैं उसे कैसे भगा सकता हूँ? हाँ, कोई लड़की का मामला होता तो थानेदार यह मानने को तैयार था कि छोटी उम्र की लड़की जरूर बड़ी उम्र के जवान को बहका कर घर से भगोड़ा बना सकती है। थाने से मेरी जान छूट गई पर माँगीलाल से मेरा पीछा छूटना मुश्किल था। थाने से जैसे ही हम लोग मठ में वापस आए कि उसने मेरा जीना मुहाल कर दिया। गाँधीजी के सत्याग्रह में कितनी ताकत हो सकती है यह मुझे माँगीलाल के उस दिन के व्यवहार से ज्ञात हुआ। मैंने लाचार होकर अपना रास्ता बदलने की घोषणा की और मैं माँगीलाल को लेकर, एक संरक्षक की तरह वापस नयागाँव के लिए, दण्ड-कमण्डल समेट कर पैदल ही चल पड़ा। अब मैं हर दृष्टि से माँगीलाल का नेता था। मैंने अपने-आप यह जिम्मेदारी ओढ़ ली थी कि उसे घर वापस छोड़ दूँ।’
यह कहते-कहते दादा अपनी आँखों को मसलकर चौकस हो गए। मैंने देखा कि एकाएक उनकी आँखों में नमी का एक बादल आया और वापस चला गया। कमरे में हम जितने भी लोग थे वे सब माँगीलाल पर खीज उठे और दादा पर सबकी सहानुभूति बरस पड़ी। दादा ने हाथ के अखबार की चार-पाँच तह की, अपने हथेली से सिपहिया बालों को एक बार शेप दिया। अब वे पूरे मूड में थे। कहने लगे -
‘हम पैदल ही माँडवी आए। मेरा रास्ता बदल चुका था। वहाँ से धर्मादे की नाव में बैठकर माँगीलाल को लेकर मैं बेट द्वारिका आया। बेट द्वारिका से गोमती द्वारिका होता हुआ मुझे वापस अहमदाबाद आना पड़ा। अब तक हम लोग रेल यात्रा के सारे गुर सीख चुके थे और कोई भी स्थान हमें पराया नहीं लगता था। एक अनब्याहा आत्मविश्वास हमारे भीतर हिलोरें ले रहा था। माँगीलाल को घर की उमंग थी और मुझे वापस लौटने की जल्दी। नादान संगाती ने मुझसे राह बदलवाई थी पर हिंगलाजा माता के दर्शनों की उत्कट अभिलाषा मुझे बावला बनाए जा रही थी। अहमदाबाद से ही रेल द्वारा हम रतलाम आए। रतलाम आते ही मैंने माँगीलाल के हाथ जोड़ लिए। मैंने उससे साफ कह दिया कि अब मैं वापस अपनी मंजिल की तरफ जाऊँगा और वह यहाँ से गाड़ी पकड़ कर नयागाँव चला जाए। रतलाम से केसरपुरा के लिए सीधी गाड़ी मिलती है और वह इस रास्ते से वाकिफ था। उसने ज्यादा जिद नहीं की और ‘जय हिंगलाज माता की’ कहकर हम अपने-अपने रास्ते हो गये। मैंने उसे इजाजत दी कि वह चाहे तो मेरे घर साफ कह दे कि मैं हिंगलाज माता के दर्शन किये बगैर वापस नहीं लौटूगाँ। इस समय मुझे अपना घर छोड़े करीब 5 मास हो गये थ। मालवा में वसन्त का पहला चरण पड़ गया था और यात्राएँ सुहावनी हो चली थीं। मैं तो शारीरिक और मानसिक रूप से 1930 की कार्तिक पूर्णिमा से ही लिपटा हुआ था। जहाँ से शुरु हुआ था वहीं से फिर से, एक से गिनवा दिया माँगीलाल ने। भाग्य को दोष देने के सिवाय मैं कर भी क्या सकता था? माँगीलाल उधर अजमेर वाली गाड़ी में बैठा और मैंने फिर से दोहद के लिए गाड़ी पकड़ ली।’
किताब के ब्यौरे -
कच्छ का पदयात्री: यात्रा विवरण
बालकवि बैरागी
प्रथम संस्करण 1980
मूल्य - 10.00 रुपये
प्रकाशक - अंकुर प्रकाशन, 1/3017 रामनगर,
मंडोली रोड, शाहदरा, दिल्ली-110032
मुद्रक - सीमा प्रिंटिंग प्रेस, शाहदरा? दिल्ली-32
कॉपीराइट - बालकवि बैरागी
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