.....और पैसे ने चारों को अकेला कर दिया


मर्मान्तक पीड़ा झेलते हुए यह पोस्ट लिख रहा हूँ। यह मेरे धन्धे की विशेषता भी है और विवशता भी कि मुझे जीवन के इन्द्रधनुष के सारे रंगों का आनन्द तो मिलता ही है, उस काले रंग की पीड़ा भी मिलती है जो उसमें है ही नहीं।

अपने परिचय में मैंने ‘पैसे’ का जो बखान किया है, वह इस घटना ने साकार कर दिया है। एक अच्छे-भले परिवार के चार सदस्यों को अकेला कर दिया। यह पैसा ही तो है - आदमी को अकेला करने में माहिर और खुद अकेला रहने को अभिशप्त।

इस परिवार में दो भाई हैं। अब ‘हैं’ को ‘थे’ कहना पड़ सकता है। दोनों भाइयों को एक-एक लड़का। बड़े भाई के बेटे का विवाह हो गया है और वह एक बेटे का बाप है। दोनों भाई और यह बेटा मिल कर पैतृक व्यवसाय देख रहे हैं। परिवार पर लक्ष्मीजी टूटमान हैं। दोनों हाथों से समेटे नहीं समेटी जा रही। छोटे भाई का बेटा अविवाहित है किन्तु टेक्स्टाइल इंजीनीयरिंग में विशेषज्ञता हासिल कर, लाखों में खेल रहा है। दोनों भाइयों का अपना-अपना दो मंजिला मकान। मकान नहीं, उन्हें ‘प्रासाद’ कहना चाहिए। जितने रहनेवाले, उनसे अधिक साफ-सफाई करनेवाले।

पहली ही नजर में स्पष्ट है कि दोनों भाइयों के पास जो कुछ है वह उनके बेटों का ही है। किसी को, कहीं किसी सन्देह की आशंका ही नहीं। सब रामजी राजी हैं।

किन्तु या तो किसी की नजर लग गई इस परिवार को या फिर आवश्यकता से अधिक पैसे ने अपनी ‘जात’ बता दी। बिना किसी बात के, बैठे-बिठाए ‘मेरा क्या’ जैसा अकल्पनीय प्रश्न उठ गया। एक के मन में उठा तो शेष तीनों के मन में भी उठ गया। केवल प्रश्न ही नहीं उठा, मिथ्या अहम् ने भी असर दिखा दिया। हर कोई कहने लगा कि सारी मेहनत तो वही करता है। बाकी तीन तो केवल ऐश करते हैं।

बिगड़ी बात को पटरी पर लाने में पसीना आ जाता है किन्तु बात को बिगड़ते देर नहीं लगती। यहाँ भी यही हुआ। बात बिगड़ी तो बिगड़ती ही चली गई और ऐसी चली कि घर से निकल कर सड़कों पर होती हुई बाजारों में तैरने लगी। जिसने भी सुना, परेशान हुआ। इस परिवार ने सदैव ही सबकी सहायता ही की। पूरे कस्बे में इनके प्रति भरपूर सद्भावनाएँ। किन्तु अहम् की टेकरियों ने सद्भावनाओं के हिमालय को छोटा कर दिया। बात को सुधारने की कोशिश जिसने भी की, अपनी फजीहत करा कर लौटा। लोगों को ताज्जुब और दुःख इस बात का कि बात न बात का नाम और जूतों में खीर बँट गई। बँटी सो बँटी, पुरखों के नाम की दुहाइयाँ भी बेअसर हो गईं। हालत यह कि चारों में से प्रत्येक समझौते को तो तैयार किन्तु प्रत्येक की शर्त यही कि बाकी तीनों उसकी शर्तों पर सहमत हों। अच्छे-अच्छे समझौता विशेषज्ञों के घुटने टिकवा दिए चारों ने।

और दीपावली से पहले ही चारों अलग हो गए। पहले दो चौके चलते थे। अब चार चल रहे हैं। चौके तो तीन ही चल पा रहे हैं क्योंकि छोटे भाई का अविवाहित बेटा तो होटलों में ही भोजन कर रहा है। खराब बात में अच्छी बात यह है कि धन्धे पर कोई असर नहीं होने दिया। पेढ़ी पर सब मिलते हैं और काम-काज पूर्वानुसार ही देख रहे हैं लेकिन एक दूसरे की ओर देखने से बचते/कतराते हैं। ढंग से बात नहीं करते। हँसने की कोई बात आ जाती है तो इनसे हँसते नहीं बनता। अपने-अपने जिम्मे का काम तो बराबर करते हैं किन्तु लगता है, मशीनें काम कर रही हैं। सयानों, परिपक्वों, अनुभवियों को आसार अच्छे नजर नहीं आ रहे। अहम् के मारे लोग कितने दिन साथ-साथ बैठ पाएँगे?

चारों को कितना घाटा हुआ, नहीं जानता किन्तु चारों ही मुझसे भी कतरा रहे हैं। खुलकर बात नहीं करते। प्रत्येक चाहता है कि मैं उसे ही सही मानूँ और बाकी तीनों को दोषी मानूँ भी और ऐसा ही सबको बताऊँ भी। मुझसे नहीं होता यह। हो ही नहीं सकता। हो भी कैसे? मैंने नम्रतापूर्वक किन्तु दृढ़तापूर्वक सबको, अलग-अलग कह दिया कि मैं उनका चाहा नहीं कर पाऊँगा। वे चाहेंगे तो मैं उनसे मिलना बन्द कर दूँगा।
इनकी पेढ़ी की दीपावली पूजा, इनके कर्मचारियों की दीपावली कराती थी। इस बार सब कुछ खानापूर्ति जैसा हुआ। पेढ़ी के अलावा, घर पर जो पूजा होती थी, वह इस बार चारों ने अलग-अलग की। मुझे लगता है, जब चारों साथ थे तब सबके सब ‘श्रीयुत’ थे। आज चारों के पास पैसा तो है किन्तु लग रहा है कि लक्ष्मी किनारा कर गई है।

मुझे हफीज जलन्धरी के कुछ शेर याद आ रहे हैं -

दौलत जहाँ की मुझको तू, मेरे खुदा न दे
पूरी हो सब जरूरतें, इसके सिवा न दे

औकात भूल जाऊँ अपनी जहाँ पहुँच
हरगिज मुझे वो मरतबा, मेरे खुदा न दे

धड़के तमाम उम्र मेरा दिल तेरे लिए
वर्ना तू धड़कनों को कोई सिलसिला न दे

यह सब लिखते हुए मेरे आँसू बहे जा रहे हैं। मैं ईश्वर से याचना कर रहा हूँ - इनके अपराध क्षमा कर। इस परिवार पर अपनी कृपा, करुणा की बरसात कर। इनके अहम् के हिमालय को पिघला। इनके पुरखों की मंगल कामनाओं को साकार कर। ये तेरे ही बच्चे हैं। ये परायों में अपने तलाश रहे हैं। इन्हें सद्बुद्धि दे। और यदि यह सब न कर सके तो इतनी कृपा तो कर कि ऐसा और किसी के साथ मत कर।
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें। यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें। मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

अन्नकूट: मेरी कमीज से उसकी कमीज ज्यादा सफेद कैसे

तय कर पाना मुश्किल हो रहा है कि यह धर्म है, धर्म का विस्तार है या अधर्म?

मेरे कस्बे में अन्नकूट अभी-अभी समाप्त हुआ है, कार्तिक पूर्णिमा, 21 नवम्बर को। पूरे पन्द्रह दिनों तक चलता रहा मेरे कस्बे में अन्नकूट। गए कुछ वर्षों से यही हो रहा है मेरे कस्बे में। मैं विस्फारित नेत्रों से देख रहा हूँ यह सब।

सन 1977 में मैं जब यहाँ आकर बसा था, तब ऐसा नहीं होता था। तब पूरे देश की तरह यहाँ भी अन्नकूट एक ही दिन होता था - कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को। किन्तु कुछ बरस पहले से परम्परा भंग हो गई। अलग-अलग मन्दिरों मे अलग-अलग दिनों में मनाया जाने लगा अन्नकूट। दो-एक बरस पहले तक, देव प्रबोधनी एकादशी तक अन्नकूट मनाया जाता था। किन्तु अब तो पूरे पन्द्रह दिन मनाया जाने लगा है।

इन पन्द्रह दिनों में मानों मेरे कस्बे के मन्दिरों में और उनसे जुड़े भक्तों में ‘गला काट’ प्रतियोगिता छिड़ी रहती है। जिस मन्दिर का अन्नकूट पहले हो जाता है, उसे फीका करने के सारे जतन किए जाते हैं। छप्पन भोग से कम पर तो अब किसी भी मन्दिर में बात नहीं होती। जोरदार सजावट, चोरी की बिजली से की गई, आँखें चैंधिया देनेवाली रोशनी, व्यंजनों की थालियों का ऐसा प्रदर्शन कि लोग भगवान को भूल कर थालियों को ही देखते रह जाते हैं। जिस मन्दिर पर जितनी ज्यादा भीड़, जितनी ज्यादा रेलमपेल, जितनी ज्यादा अव्यवस्था, जितने ज्यादा बड़े लोगों का आगमन, उस मन्दिर का अन्नकूट उतना ही सफल और चर्चित। आज इस मन्दिर में यदि महापौरजी आए हैं तो कल अपने मन्दिर में विधायकजी आने चाहिए। विधायकजी उस मन्दिर में कल गए थे तो आज अपने यहाँ सांसद आना चाहिए। सांसद न आ पाए तो कम से कम सांसद प्रतिनिधि तो आ ही जाए। दोनों में से कोई नहीं मिल रहा है तो पूर्व मन्त्री को तो लाना ही पड़ेगा नहीं तो लोग क्या कहेंगे और अपनी क्या इज्जत रह जाएगी? कलेक्टर, एसपी को तो कभी भी पकड़ लाएँगे। जरा तलाश करो, सम्भागायुक्त का आने का कार्यक्रम तो नहीं है? ‘मेरी कमीज से उसकी कमीज ज्यादा सफेद कैसे’ की तर्ज पर पटखनी देने की जुगत में भगवान तो शायद ही किसी को याद रह पाते होंगे या फिर भगवान भी टुकुर-टुकुर देखते, सोच रहे होते होंगे कि देखें! ये भक्त मेरी ओर कब देखते हैं? देखते हैं भी या नहीं?

मुझे ऐसे अन्नकूटों की न तो आदत है और न ही मैं इन्हें अन्नकूट मानता हूँ। मुझे तो जन्म घुट्टी के साथ ही समझा दिया गया था कि अन्नकूट केवल कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को होता है और इसका भोग केवल भगवान विष्णु और उनके अवतारों को ही लगता है। इसीलिए यदि मुझे अन्नकूट का प्रसाद लेना होता है तो कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को ही जाता हूँ और केवल भगवान विष्णु या विष्णु अवतार के मन्दिर ही जाता हूँ। लेकिन देख रहा हूँ कि इस शास्त्रोक्त और धार्मिक अनुशासन की धज्जियाँ बिखेरी जा रही हैं और वह भी धर्म के नाम पर। मैं जब उन लोगों को तलाशता हूँ जिनकी धार्मिक भावनाएँ, हास्यास्पद बातों के कारण आहत हो जाती हैं और जिनके कारण चारों ओर उथल-पुथल मच जाती हैं तो मेरी यह तलाश मुझे आश्चर्य में डुबो देती है जब मैं देखता हूँ कि वे ही लोग इस शास्त्रोक्त, धार्मिक अनुशासन को गेंद बनाकर, मजे ले-लेकर एक-दूसरे के पाले में उछाल रहे हैं।

मैंने अपने पैतृक गाँव मनासा में, अपने बालसखा अर्जुन पंजाबी को फोन लगाकर वहाँ की दशा जाननी चाही। अर्जुन बोला - ‘लो! प्रसन्न राघव यहीं है। उसी से पूछ लो। वह आधिकारिक रूप से बता देगा।’ प्रसन्न राघव शास्त्री, मेरा सहपाठी है और मालवा अंचल का ख्यात अनुशासित, कर्मकाण्डी ब्राह्मण है। शास्त्र ज्ञान और विद्वत्ता तो उसके जन्मना आभूषण है। श्रीमद् भागवत पारायण के लिए मेरे कस्बे में भी आ चुका है। उसने कहा - ‘अपने यहाँ तो सारे मन्दिरों में अन्नकूट एक ही दिन, कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को ही मनाया जाता है। बस, श्रीरामानुज कोट में चार दिन बाद मनाया जाता है। इस साल भी सारे मन्दिरों में उसी दिन अन्नकूट मनाया गया है।’ उसने जिज्ञासा जताई - ‘यह पूछने की जरूरत क्यों पड़ी?’ जब मैंने उसे मेरे कस्बे के अन्नकूट की जानकारी दी तो उसे विश्वास ही नहीं हुआ। बोला - ‘यह न तो धर्म सम्मत है और न ही शास्त्र सम्मत।’ मैं क्या कहता? वैसे भी, फोन पर बात करने की सीमा तो होती ही है। सो, प्रसन्न राघव को विस्मित दशा में छोड़ कर फोन बन्द कर दिया।

जानता हूँ कि एक दिन के अन्नकूट के धार्मिक और शास्त्रोक्त अनुशासन को ध्वस्त कर उसे पूरे पन्द्रह दिनों तक खींच ले जाने के लिए भाई लोग आसानी से तर्क जुटा लेंगे। लेकिन निजी मामलों में कोई भी ऐसा नहीं करेगा। मैंने देखा है कि एक ही गाँव में रह रहे, दो सगे भाइयों की सन्तानों के विवाह का एक ही दिन, एक ही मुहूर्त आया तो दोनों में से कोई भी अपना आयोजन स्थगित करने के लिए या एक ही मण्डप में दोनों आयोजन करने के लिए तैयार नहीं हुआ। दोनों को लगा कि यदि मुहूर्त टाल दिया तो बच्चों का अनिष्ट हो जाएगा। दुकान शुभारम्भ की बात हो या गृह प्रवेश की, कोई भी मुहूर्त चूकना नहीं चाहता। कई मामलों में मैंने देखा है बच्चे की परीक्षा की तारीख और गृह प्रवेश का मुहूर्त टकरा गया तो भी गृह स्वामी ने अपना मुहूर्त न तो बदला और न ही स्थगित किया। बेटे की अनुपस्थिति में ही गृह प्रवेश का आयोजन सम्पन्न किया।

मैं तनिक सावधानी से याद करने, देखने की कोशिश करता हूँ तो संकोच होता है यह देखकर कि जिन धर्मों की खिल्ली उड़ाने में हम न तो देर करते हैं और न ही संकोच, उन धर्मों में ऐसे अनुशासन कितनी दृढ़ता से निभाए जाते हैं। इसाइयों के सारे त्यौहारों की तारीखें सुनिश्चित होती हैं। दाउदी बोहरा समुदाय के सारे त्यौहार मिस्री केलेण्डर के अनुसार सुनिश्चित रहते हैं। मुसलमानों की ईद चाँद दिखने पर होगी ही और चाँद नहीं दिखा तो नहीं ही होगी। सिख समुदाय के सारे त्यौहार कड़े अनुशासन के साथ, सुनिश्चित तिथियों को ही होते हैं। ये तो हम ही हैं जो दो-दो जन्माष्टमी, दो-दो रामनवमी और पन्‍द्रह-पन्‍द्रह दिनों तक अन्‍नकूट मना लेते हैं और ऐसा करने के लिए तर्क तथा औचित्य भी तलाश कर लेते हैं - पूरी धार्मिकता के साथ।

कहीं ऐसा तो नहीं कि ऐसी ही बातों के कारण धर्म को अफीम का दर्जा दे दिया गया हो?
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....और विवाह हो गया मेरीवाली ‘इस लड़की’ का

2 फरवरी 2009 को ‘सम्बन्ध’ तोड़ दिया मेरी वाली ‘इस लड़की’ ने शीर्षक पोस्ट में मैं वचनबद्ध हुआ था कि मेरीवाली ‘इस लड़की’ का विवाह होने पर मैं आपको इससे मिलवाऊँगा। वह दिन आ गया।

मिलिए मेरी मीठी-मीठी पूजा से। मेरे दुःख बाँटने में मुझसे पहले तैयार मिलनेवाले, उज्जैन निवासी मेरे आत्मीय, डॉक्टर श्रीयुत् विनोद वैरागी की छोटी बिटिया।

पूजा शुरु से ही पूना में, किसी सूचना प्रौद्यिगिकी (आई. टी.) कम्पनी में नौकरी कर रही है। उसकी पहचान छुपाने के लिए मैंने बैंगलोर लिखा था। विनोद भैया भले ही रह रहे हैं आज के जमाने में लेकिन आज के जमाने की हवा उन्हें अब तक गिरत में नहीं ले पाई है। सो, वे पारम्परिक ही बने हुए हैं। किन्तु पूजा के लिए उपयुक्त पात्र तलाश करने के लिए उन्होंने इस बार पारम्परिक तरीकों के साथ ही साथ, ‘नेट’ का सहारा भी लिया और यहीं उन्हें अपना छोटा दामाद मिला भी।

मयंक पनाके (भारद्वाज) नाम है विनोद भैया के छोटे दामाद का। वह यवतमाल से है और मजे की बात यह रही कि वह भी पूना में ही, एक अन्य सूचना प्रौद्योगिकी कम्पनी में नौकरी करता मिला। लेकिन विनोद भैया ने सीधे मयंक से बात नहीं की। पहले उसके परिजनों से बात की और पूजा को इसकी जानकारी अन्तिम चरण में दी गई। पूजा तो पहले से ही अपनी बात पर कायम थी - ‘पापा जो करेंगे, वही मेरा फैसला होगा। बस, विवाह के बाद भी मेरी नौकरी जारी रहे।’

पाणिग्रहण समारोह धूम-धाम से सम्पन्न हुआ। मुझे तो इसमें शामिल होना ही था किन्तु एक अतिरिक्त आकर्षण था मेरे लिए इस आयोजन में - यह अन्तःभाषी विवाह था। वर मराठी और वधू हिन्दी, ठेठ मालवी। याने अब पूजा के मायके में पोरण पोळी बनेगी और सुसराल में दाल-बाटी।

मेरी सुनिश्चित धारणा है कि अन्तःभाषी, अन्तःधर्मी, अन्तःसंस्कृति, अन्तःजाति विवाह, हमें भाषायी, प्रान्तीय जैसे अनेक विवादों-समस्याओं से राष्ट्रीय और सामाजिक स्तर पर मुक्ति दिला सकते हैं।

इसका एक नमूना यह रहा कि मेरी शब्द सम्पदा में एक नया शब्द जुड़ गया। नाश्ता करते हुए मैंने एक बाराती की मनुहार की - ‘और लीजिए।’ उत्तर मराठी में मिला जिसमें ‘पुष्कल’ भी एक शब्द था। मैंने इसे किसी फूल से जोड़ा। जबकि इसका अर्थ बताया गया - ‘पर्याप्त, यथेष्ठ, भरपूर।’ इसके साथ यह भी बताया गया कि यह शब्द मूलतः संस्कृत का है जिसे मराठी का मान लिया गया है। मुझे तत्क्षण ही लगा कि यदि अन्तःभाषी सम्बन्ध प्रचुरता से हों तो अंग्रेजी को इस देश से जाना ही पड़ेगा। अपने तक ही सिमटे रह कर हमने मौसेरी बहनों (भारतीय भाषाओं) को सौतनें बना दिया है और इसके पीछे अंग्रेजी सबसे बड़ा ही नहीं, एकमात्र कारण है।

यह तो विषयान्तर हो गया। मुद्दे की बात यही कि विवाह के बाद भी पूजा नौकरी कर रही है और केवल मयंक ही नहीं, उसका समूचा परिवार भी प्रसन्नतापूर्वक इस निर्णय में शामिल है।

पूजा के विवाह में मेरी भागीदारी का प्रमाण यहाँ दिया गया चित्र है। सबसे बाँयी ओर मैं हूँ फिर मयंक, पूजा और सबसे दाहिनी ओर मेरी उत्तमार्द्ध वीणा।

आप भी अपने आशीषों से इस युगल को समृद्ध करें। वही तो इनकी मूल पूँजी होगी!
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विवेकवान प्रतिभा: प्रतिभावान विवेक

‘ऐसा न तो पहली बार हुआ है और न ही आखिरी बार। यह तो आपके जन्म से ही आपके साथ लगा हुआ है। इसलिए पेरशान मत होईए और जिस मिनिट आपका मन बन जाए, उस मिनिट से ही लिखना शुरु कर दीजिएगा।’ यह विवेक भाई थे जो मुझे, मेरे बारे में बता रहे थे।

विवेक भाई मेरे कस्बे के अग्रणी और स्थापित ‘नागर यन्त्री’ (सिविल इंजीनीयर) तो हैं ही, अनेक वित्तीय संस्थानों के ‘सम्पत्ति मूल्यांकक’ (प्रापर्टी वेल्यूअर) भी हैं। ‘अनेक’ से मतलब, खुद विवेक भाई को संस्थानों की संख्या अब याद नहीं। किसी संस्थान से मूल्यांकन का पत्र आता है तो पूछते हैं - ‘मैं आपके पैनल पर हूँ?’ हाँ में जवाब मिलने पर कहते हैं - ‘आप देख लीजिएगा। कहीं ऐसा न हो कि आप मुझे रेमुनरेशन पे कर दें और मेरी रिपोर्ट आपके काम ही न आए।’ चिट्ठी लानेवाला पहले भी यह बात सुन चुका होता है, सो हँसते-हँसते पूछता है - ‘कब दे देंगे?’ और तारीख लेकर हँसते-हँसते ही चला जाता है।

चित्र में इनके साथ है इनकी उत्तमार्द्ध (याने कि बेटर हाफ याने की जीवन संगिनी याने कि पत्नी) अ. सौ. प्रतिभा। विवेक भैया यदि ‘नागर यन्त्री’ हैं तो प्रतिभा ‘उपाधिधारी वास्तुविद्’ (डिप्लोमाहोल्डर आर्किटेक्ट) है। व्यवसाय में दोनों एक दूसरे के शानदार पूरक हैं। भवन/परियोजना की, विवेक भैया की कल्पना को प्रतिभा, रेखाओं और आकृतियों के जरिये उकेरती है और दोनों मिलकर लोगों के आवास/परिसर की कल्पनाओं को मकानों की शकलें देते हैं। ईश्वर ने दोनों के हाथ में भरपूर यश दिया है सो, इन्हें जानने वाले और चाहनेवाले, आसपास के पचीस-पचास कोसों तक फैले हुए हैं।

किन्तु दोनों का यह ‘मणि-कांचन योग’ केवल व्यवसाय तक सीमित नहीं रह गया। विवेक भैया का बाराती बन कर गया था तब से ही मैं इस युगल के नामों का आनन्द लेता चला आ रहा हूँ। मेरा मानना है कि नामों के सन्दर्भ में ऐसा जोड़ा आपको शायद ही कहीं मिले। ‘विवेकवान प्रतिभा’ और ‘प्रतिभावान विवेक’ एक साथ, एक घर में, जीवन साथी के रूप में आपको केवल मेरे कस्बे में ही मिलेंगे। मैं कहता हूँ - ‘‘ईश्वर ने यही जोड़ी सही मिलाई है। ये ही वास्तव में ‘एक दूजे के लिए’ हैं। ‘विवेकविहीन प्रतिभा’ परमाणु की तरह ध्वंस कर सकती है और ‘प्रतिभाविहीन विवेक’ किसी के, किसी काम का नहीं।’’

इनका ‘कुल नाम’ (सरनेम) हर्देकर हैं और चारों ओर इन्हें ‘हर्देकर साहब’ और ‘हर्देकर मैडम’ के नाम से ही जाना, पहचाना और पुकारा जाता है।

‘मणि-कांचन योग’ और ‘सुन्दर पूरक’ होने के बाद भी दोनों ही ‘आदर्श दम्पति’ की तरह अनेक बातों पर परस्पर असहमत रहते हैं। विवेक भैया सन्त प्रकृति के हैं। मैं इन्हें ‘देव पुरुष’ न केवल कहता हूँ अपितु (मेरा ईश्वर साक्षी है कि आयु में मुझसे पूरे अठारह बरस छोटे होने के बाद भी) इस विशेषण के अनुरूप ही मैं इनका आदर भी करता हूँ। किन्तु जैसा कि होता ही है, देव पुरुषों की पत्नियाँ अपने पतियों के देवत्व से परेशान ही रहती हैं। उन्हें घर जो चलाना होता है! सो, जब भी कोई काम आता है तो परामर्श शुल्क और पारिश्रमिक के निर्धारण तथा भुगतान की विधि और समय को लेकर प्रतिभा को अतिरिक्त सतर्क रहना ही पड़ता है। ऐसी सतर्कता विवेक भैया के स्वभाव में नहीं। इसी के चलते आज तक एक भी मामला ऐसा नहीं रहा जिसमें विवेक भैया को, पूर्व निर्धारित शुल्क पूरा-पूरा मिला हो। वे लिहाज पाल लेते हैं और इसी कारण हर साल ‘कुछ लाख’ रुपयों का नुकसान झेलते चले आ रहे हैं। ऐसे में प्रतिभा असहज क्यों न हो? वह चिढ़ती है तो ‘देव पुरुष’ सस्मित कहते हैं -‘क्यों गुस्सा होती हो? मकान बनने में बेचारे के पैसे खत्म हो गए होंगे। अगला काम रास्ते में चल ही रहा होगा। उससे भरपाई कर लेंगे। और फिर, अपनी जरूरतें तो पूरी हो ही रही हैं ना?’ ऐसे जवाब प्रतिभा को शुरु-शुरु में परेशान करते थे। अब नहीं करते। लेकिन अपनी मेहनत का पैसा और वह भी पहले से खरा-पक्का किया पैसा डूबता देख किसे तकलीफ नहीं होती? विवेक भैया को घर चलाना पड़ता तो शायद देवत्व से मुक्ति पा लेते। ऐसा ही कुछ सोच-सोच कर, प्रतिभा थोड़ा-बहुत भुनभुना लेती है और विवेक भैया फिर शुरु हो जाते हैं अगले काम में।

पता नहीं विवेक भैया ने खुद ही छोड़ दिया या काम इतना अधिक हो गया है कि उन्हें छोड़ना पड़ गया किन्तु ज्योतिष में उनका यथेष्ठ हस्तक्षेप रहा है। जन्म कुण्डली और अंक ज्योतिष के साथ ही साथ प्रश्न कुण्डली में उनका अध्ययन उन्हें पर्याप्त यशदायी रहा है। प्रश्न कुण्डली के कम से कम दो मामलों में तो उन्होंने मुझे चमत्कृत ही किया। दोनों मामलों में उनकी बातें इस तरह सच हुईं मानों घटनाओं की पटकथा उन्होंने ही लिखी हों।

मैं ज्योतिष पर न तो आँख मूँदकर भरोसा करता हूँ और न ही उसे सिरे से खारिज ही करता हूँ। अपनी सुविधा (जिसे पाखण्ड कहना अधिक उपयुक्त होगा) से इसे स्वीकार और निरस्त करता रहता हूँ और कभी-कभी ‘टाइम पास मूँफली’ की तरह इसे उपयोग में ले लेता हूँ।

दो सप्ताह से मैंने कुछ भी नहीं लिखा। लिखने को काफी कुछ है किन्तु मन ही नहीं हुआ। एक बीमे के लिए विवेक भैया के मुहल्ले में गया तो उनका दरवाजा भी खटखटा दिया। परस्पर ‘कुशल क्षेम’ के बाद बात मेरे ब्लॉग पर आ गई। मैंने अपने अनमनेपन की बात कही तो विवेक भैया ने वही कहा जिससे मैंने अपनी यह पोस्ट शुरु की।

जिस सहज भाव से (मैं यहाँ ‘लापरवाही’ वापरना चाह रहा हूँ किन्तु विवेक भैया का ‘देवत्व’ आड़े आ रहा है) विवेक भैया ने कहा उससे लगा, वे मुझे टाल रहे हैं। मैंने कहा - ‘आप टाल रहे हैं। मेरी इस मनोदशा का कोई तो कारण होगा?’ आक्षेप ने विवेक भैया को सतर्क कर दिया। कलम एक ओर रख कर बोले - ‘टाल नहीं रहा। आपकी जन्म राशि मिथुन है। इस राशि की विशेषता है - निरन्तर चंचलता। इस राशि वाले लोग, कोई भी काम लगातार और लम्बे समय तक कर ही नहीं सकते। वे या तो काम बन्द कर देंगे या काम बदल लेंगे। आपके साथ यही हो रहा है।’ सुनकर मुझे अचानक याद आया कि एक बार विवेक भैया ने अपनी जन्म राशि भी मिथुन ही बताई थी। मैंने पलटवार किया - ‘आपकी जन्म राशि भी तो मिथुन है? फिर आप लगातार और निरन्तर कैसे काम कर रहे हैं?’ मानो मैंने विवेक भैया की दुखती रग छू ली। दयनीय मुद्रा और करुण स्वरों में बोले - ‘आप समझते हैं मैं काम कर रहा हूँ। ऐसा नहीं है। मैं काम करता दीख रहा हूँ। मुझे तो अनचाहे, बिना मन, काम करना पड़ता है। मुझसे मेरी मर्जी तो पूछिए? अभी आपके साथ चल दूँगा। किन्तु मैंने तो लोगों से एडवांस ले रखा है। मुझे अपने लिए नहीं, लोगों के लिए काम करना पड़ रहा है। और यह मत समझिए कि राशि-प्रभाव से मुक्त हूँ। एक साइट से छूटकर दूसरी साइट पर जाने के बीच में, कई बार मैं तड़ी मार लेता हूँ। आप जैसों के साथ, सड़क पर, चाय की गुमटी पर खड़े होकर, चाय की चुस्कियाँ लेते हुए गपिया लेता हूँ। यदि राशि प्रभाव न होता तो मैं एक साइट से छूटकर, तीर की तरह दूसरी साइट पर पहुँच कर ही दम लेता।’ मुझे तसल्ली हुई। अपने से बेहतर आदमी भी जब अपने जैसी बदतर दशा में मिले तो असीम, अवर्णनीय आनन्द मिलता है। वही आनन्द मुझे मिल चुका था।

मैं चलने को हुआ तो विवेक भैया ने टोका - ‘बहुत हो गया आराम। जल्दी लिखना शुरु कीजिए। याद रखिए, मैं आपका नियमित पाठक हूँ।’ मैंने हैरत से उन्हें देखा और कहा - ‘लेकिन राशि प्रभाव का क्या?’ बोले - ‘बस! एक डॉक्टर की तरह मैंने आपका ईलाज कर दिया है। आज से राशि प्रभाव खत्म और लिखना शुरु।’

लगता है, विवेक भैया ने सही कहा। वर्ना, अचानक ही यह पोस्ट कैसे लिख पाता?
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यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें। यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें। मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

स्सालों ने ठग लिया


बहनजी बहुत दुःखी हैं। इतनी दुःखी कि चार महीने हो गए, किन्तु आघात से उपजे दुःख से अब तक नहीं उबर पाई हैं। इतनी दुःखी कि भूल ही गईं कि वे दीपावली की बधाइयाँ देने आईं हैं और शोक गीत पढ़ रही हैं।

चार महीने पहले ही उनके बेटे का विवाह हुआ है। विवाह खूब धूम-धाम से, हैसियत के पैमाने पर अनावश्यक प्रदर्शन का लगभग चरम छूते हुए हुआ। ऐसे समय हर कोई अपनी हैसियत से कुछ ज्यादा ही कर गुजरता है। वे भी ऐसा ही कर गुजरीं। अपनी करनी के प्रभाव से अब तक मुक्त नहीं हो पाई हैं। ‘उधर’ से अपेक्षानुरून न मिलना (या बहुत कम मिलना) और अपनी जेब से कुछ ज्यादा ही निकलजाने पर जो कुछ होता है, वही बहनजी के साथ भी हो रहा है। स्थिति ‘कोढ़ में खाज’ जैसी हो गई थी।

सो, बहनजी बहुत दुःखी हैं।

कह रही थीं कि लड़कीवालों ने ठग लिया। ‘वे’ कार देने पर तुले हुए थे और बहनजी मना कर रही थीं। ‘उन्होंने’ कहा कि उन्हें तो जमाने को दिखाना है इसलिए वे तो कार देंगे। बहनजी को मजबूरी में लेनी पड़ी। अब कार दी तो केवल कार दी। बिलकुल नंगी। न तो कुशनिंग करवाई और न ही स्टीरीयो वगैरह लगवाया। अब कार यदि है तो उसे कार की तरह तो रखनी ही पड़ेगी! सो, नंगी कार की सजावट में ही बहनजी के पचीस हजार खर्च हो गए। ‘स्सालों ने ठग लिया’, बहनजी कह रही थीं।

बात यहीं पर नहीं रुकी। ‘उन्होंने’ लड़की को गहनों के पाँच सेट चढ़ाए। अब, जब उन्होंने पाँच सेट चढ़ाए तो बहनजी को भी तो ‘कुछ’ करना ही था? वह सब किया तो जमीन धँस गई। यह भी सहन किया जा सकता था किन्तु ‘स्सालों ने बेईमानी कर दी’ बहनजी स्यापा किए जा रही थीं। ‘अब आप ही बताओ! किसी के मन में क्या है, यह कोई कैसे जान सकता है? पाँच सेटों में से एक सेट ही सोने का था। बाकी चार तो इमीटेशन ज्वेलरी के निकले। उन्होंने तो अपनी करनी कर ली लेकिन यहाँ तो सब कुछ साफ हो गया ना? अपना तो सारा माल चला गया और मिलने के नाम पर जीरो बटा सन्नाटा?’

वे दीपावली पर बधाई देने आई हैं, यह याद दिलाने पर भी वे याद नहीं कर पा रही थीं। शोकान्तिकाएँ पढ़े जा रही थीं। चूँकि वे मुझसे नहीं, मेरी उत्तमार्द्ध से बात कर रही थीं सो मुझे एक भले अदमी की तरह चुपचाप सुनना चाहिए था। किन्तु मैं भला नहीं रह सका। अनधिकृत हस्तक्षेप कर पूछा - ‘लड़की तो वही मिली ना जिससे रिश्ता तय हुआ था?’ बहनजी ने आँखें तरेरीं। विषयान्तर उन्हें अच्छा नहीं लगा। तमक कर बोलीं - ‘आप भी कैसी बातें करते हो भैया? उनकी एक ही तो लड़की है!’

अब मैं ही उनसे मुखातिब था। उत्तमार्द्ध खुश हो गईं। उनका पीछा जो छूट गया!

मैंने पूछा - ‘लड़की वही है ? मतलब वही लड़की ना जो नौकरी में थी?’

‘क्या भैया? थी से आपका क्या मतलब? वह अभी भी नौकरी में है।’

‘याने लड़की के मामले में उन्होंने कोई बदमाशी नहीं की। कोई ठगी नहीं की।’

‘आप भी कैसी बातें करते हैं? ऐसा कोई करता है क्या?’

‘चलो। यह तो बहुत ही अच्छी बात है। लड़की अपनी तनख्वाह पिताजी को दे रही है या आपको?’

‘नहीं। नहीं। लड़की बहुत समझदार है। कहने की जरुरत ही नहीं पड़ी। शादी के बाद की पहली ही तनख्वाह उसने पंकज को दे दी।’ पंकज याने बहनजी का बेटा।

‘यह तो और भी अच्छी बात है। अच्छा यह बताईए! शादी के बाद लड़की अपनी तनख्वाह आप को देगी, इस बारे में शादी से पहले कोई बात तय हुई थी?’

‘ऐसी बातें भी कोई तय करता है भैया? यह तो समझने की बात है!’ बहनजी ने मेरी अकल पर
तरस खाया।

‘तो, लड़कीवाले कार देंगे और नंगी कार देंगे और गहनों के जो सेट देंगे उनमें इमीटेशन ज्वेलरी के सेट नहीं होंगे, इस बारे में कोई बात हुई थी?’

‘भाभी ठीक ही कहती हैं। आप में दुनियादारी के लक्खण (‘लक्खण’ मालवी शब्द है जिसका अर्थ है - ‘लक्षण’) नहीं हैं वर्ना यह बात नहीं पूछते।’

‘अच्छा! ये जो आपने कहा कि स्सालों ने ठग लिया तो इस लेन-देन के बारे में कोई लिखा-पढ़ी हुई थी?’

अब बहनजी भड़क गईं। पता नहीं, वे मुझे डाँट रहीं थीं या प्रताड़ित कर रही थीं या मेरी बुद्धि पर तरस खा रही थीं। बोलीं - ‘अरे! सम्बन्ध तय हुआ है। घर में बहू ला रहे हैं। ऐसे में, ऐसी बातों की कोई लिखा पढ़ी होती है?’

‘यदि इस बारे में पहले कोई बात नहीं हुई, कोई लिखा-पढ़ी नहीं हुई, लड़की वही है और शादी के बाद लड़की अपनी तनख्वाह अपको दे रही है तो फिर आपको शिकायत किस बात है?’

बहनजी को ऐसे सवाल की उम्मीद नहीं थी। मुझे फटकारते हुए बोलीं - ‘क्या सारी बातें तय की जाती हैं? सारी बातों की लिखा पढ़ी की जाती है? अरे! बहुत सारी बातें तो खुद ही समझने की होती हैं।’

‘आप बिलकुल सही कह रही हैं। लेकिन क्या बातें समझने की सारी जिम्मेदारी लड़कीवालों की ही होती हैं? बातों को समझने की अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं होती? सारी जिम्मेदारी उन्हीं की क्यों?’

बहनजी ने मुझे तीखी नजरों से घूरा। पल भर चुप रह कर बोलीं - ‘उनकी जिम्मेदारी इसलिए कि वे लड़कीवाले हैं।’

उन्होंने कह तो दिया किन्तु उनकी आवाज की दृढ़ता और उसमें अब तक बना हुआ अधिकार-भाव कहीं नहीं था। कहते ही उन्हें शायद लगा कि उन्होंने केवल बात ही गलत नहीं कही है, गलत जगह पर भी कह दी है।

मैंने पूछा - ‘आप तो कट्टर सनातनी हैं। धर्म-प्राण हैं। भाई साहब तो वेदपाठी और शास्त्रों के ज्ञाता हैं। उन्हीं से सुना था कि पितृ-ऋण से उबरने के लिए पिता का वंश बढ़ाना पुत्र की जिम्मेदारी होती है। ऐसे में, जो आदमी, आपके बेटे को पितृ-ऋण से मुक्त करने के लिए अपनी बेटी आपको दे रहा है, वह कुछ भी नहीं? आपके परिवार पर इतना बड़ा उपकार करने के बाद भी सारी बातें समझने की जिम्मेदारी उन्हीं की? आपकी कोई जिम्मेदारी नहीं? उनका दोष यही कि वे लड़कीवाले हैं?’

बहनजी की शकल से लगा, वे काफी कुछ कहना चाह रही हैं लेकिन दुनियादारी से नावाकिफ, मुझ जड़-मति से कुछ कहने की नादानी नहीं करना चाहती हैं। बोलीं - ‘जब अपनेवाले ही ऐसी बातें करें तो परायों के लिए क्या कहना?’

और वे नमस्ते कर, चली गईं। पहले से ज्यादा दुःखी होकर।
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें। यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें। मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

मेरे यहाँ तो कब की आ गई दीपावली

सबके यहाँ तो दीपावली आज आई किन्तु मेरे यहाँ तो रविवार, इकतीस अक्टूबर की शाम से आने लगी थी। तीन और चार नवम्बर की सेतु-रात्रि दो बजे से तो दीपावली की रोशनियॉं अपने चरम पर मेरे घर में बिखरी हुई हैं।

नौकरी के कारण बड़ा बेटा वल्कल और पढ़ाई के कारण छोटा बेटा तथागत बाहर हैं। जैसा कि इन दिनों सबके साथ हो रहा है, यहाँ, घर पर ‘हम दोनों अकेले’ ही रहते हैं। घर के सब लोग साथ हों तो त्यौहार! बिना बच्चों के कैसा त्यौहार?

हम दोनों मान कर ही चल रहे थे कि तीन नवम्बर से पहले कोई नहीं आ सकेगा। किन्तु तथागत ने हमारी धारणा ध्वस्त होने का सुख दे दिया। बिना किसी पूर्व सूचना के रविवार, इकतीस अक्टूबर की अपराह्न साढ़े चार बजे वह अचानक आ पहुँचा। मोटर सायकिल से। हमें अच्छा तो लगना ही था किन्तु उसे मोटर सायकिल पर आया देख परेशान हुए। घबराए भी। हमारी शकलें देखकर हँसते हुए बोला - 'अब घबराईए मत। मेरे आने पर खुश हो जाईए। आने की सूचना देने के लिए फोन करता तो आप पूछताछ करते और मोटर सायकिल से आने के लिए मना कर देते। इसीलिए बिना कहे चला आया।' मैं तो भगवान को धन्यवाद देकर रह गया किन्तु देखा कि उसकी माँ की आँखें पनीली हो आई हैं। किन्तु थोड़ी ही देर में प्रसन्नता ने आँसुओं को पोंछ दिया। तथागत के आगमन ने दीपावली को रास्ता दिखाने के लिए देहरी के सामने दीपक रख दिया। घर में दीपावली की शुरुआत हो गई।

उसी शाम को वल्कल का फोन आया। मालूम हुआ कि वह और बहू प्रशा, तीन नवम्बर को निकलेंगे। वल्कल कह रहा था - ‘रेल में बहुत भीड़भाड़ होती है और वक्त भी काफी लगता है। सो, मोटर सायकिल से आना चाहता था किन्तु प्रशा ने मना कर दिया। इसलिए अब हम दोनों, तीन की की आधी रात पहुँचेंगे और रेल से ही आएँगे।’ हम दोनों ने एक दूसरे की ओर देखा ओर पाया कि हम दोनों ही प्रशा को धन्यवाद दे रहे थे।

तीन नवम्बर की शाम से ही हम आधी रात होने की प्रतीक्षा करने लगे थे। मुझे तो करने के लिए कोई न कोई काम था किन्तु उत्तमार्द्ध तो अपना सारा काम समाप्त कर चुकी थीं। प्रतीक्षा करना उनके लिए कठिन हो रहा था। रात ग्यारह बजे तक तो वे बुद्धू बक्से की चैनलें खँगालती रहीं और अन्ततः थक गईं। बोलीं - ‘अब धीरज खत्म हो रहा है। मैं तो सोने जा रही हूँ। आपकी आप देखिएगा।’ अब मैं था और मेरा लेपटॉप। उत्तमार्द्ध के हाथों से छूटे रीमोट को तथागत ने लपक लिया था और किसी अंग्रेजी फिल्म में उलझ गया था।

मैं काम करता रहा। मीटर गेज की रेलों का चरित्र और दुर्दशा के चलते मालूम था कि साढ़े बारह बजे आने वाली रेल साढ़े बारह बजे नहीं ही आएगी। देखना यही था कि कितनी देर से आती है।

डेढ़ बजे के आसपास उत्तमार्द्ध सामने खड़ी थीं। वे बिस्तर पर लेटी तो थीं किन्तु बेटे-बहू के आगमन के उल्लास ने शायद नींद के रास्त में ‘गतिरोधक’ खड़े कर दिए थे। बोलीं - ‘तलाश कीजिए ना? बच्चे कहाँ तक पहुँचे हैं?’ सवाल का जवाब तलाशने की जिम्मेदारी मैंने तथागत को थमा दी। उसने मोबाइल लगाया और वल्कल से बात कर बोला - ‘नौगाँवाँ पहुँच गए हैं।’ उत्तर उत्तमार्द्ध के लिए ही था। सुनकर बोलीं - ‘अभी तो बीस मिनिट और लगेंगे। इन रेल वालों को समझ नहीं पड़ता कि टाइम टेबल का ध्यान रखें और लोगों को समय पर घर पहुँचाएँ?’ इस सवाल का जवाब न तो मेरे पास था और न ही तथागत के पास। उत्तमार्द्ध की दशा देख हम दोनों अपनी मुस्कुराहट पर काबू नहीं कर पाए। वे, मुदितमन झेंपकर चली गईं।

रात लगभग दो बजे घर के सामने ऑटो रिक्शा के रुकने की आवाज आई। वल्कल और प्रशा पहुँच चुके थे। हम तीनों ने उन दोनों की अगवानी की। अब हमारा घर सचमुच में घर बन चुका था। गली में अँधेरा था और हमारे घर में दीपावली की रोशनियाँ समा नहीं रही थीं।

बाकी तीनों तो जल्दी ही सो गए लेकिन मैं और वल्कल लगभग तीन बजे तक बातें करते रहे।

तब से मेरे घर में दीपावली बनी हुई है, बसी हुई है। मेरा जी करता है, हम पाँचों के पाँचों कोई काम न करें। बस! बैठे रहें। बातें करते रहें। बातें न हों तो भी बस, बैठे रहें। एक दूसरे को देखते रहें। यह समय यहीं ठहर जाए। घर, घर बना रहे।

सो, मैं तो इकतीस अक्टूबर की शाम से ही दीपावली की रोशनी में नहा रहा हूँ। ईश्वर को धन्यवाद देने के लिए शब्द या तो मिल ही नहीं रहे हैं और यदि मिल रहे हैं भी तो कम पड़ रहे हैं।

जितना सुख मुझे मिल रहा है, उससे करोड़ों गुना सुख आप सबको मिले। दीपावली की रोशिनियाँ आप सबके घरों में सदैव अपने चरम पर बनी रहें। कभी, कहीं कोई कमी न हो।

जैसे मेरी दीपावली मनी, सबकी मने।

हार्दिक शुभ-कामनाएँ।
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सच में यह इतनी बड़ी बात है?

मुझे आश्चर्य हो रहा है। यह वास्तव में इतनी बड़ी बात है? मुझे तो पल भर भी नहीं लगा! अभी भी नहीं लग रहा।

मुझे भरपूर एसएमएस मिलते हैं। व्यापारिक और एलआईसी से मिलनेवाले (अधिकाधिक पॉलिसियॉं बेचने के लिए) प्रेरणादायी एमएमएस की परवाह मैंने कभी नहीं की। किन्तु पर्व प्रसंगों पर मिलनवाले ढेरों एसएमएस मुझे परेशान किए रहते हैं। परेशानी तो अपनी जगह किन्तु एक बात से एसएमएस मुझे अत्यधिक झुंझलाते हैं - एक ही सन्देश, एक ही दिन, पाँच-पाँच, सात-सात लोगों द्वारा भेज दिया जाता है। लेकिन इस झुंझलाहट से परे हटकर, मेरी आदत है कि मुझे मिलनेवाले प्रत्येक पत्र/सन्देश का उत्तर अवश्य दूँ, यदि प्रेषक ने अपना पूरा पता लिखा हो तो। अनजाने, अचेतन में ही, दादा की नकल करते हुए यह मेरी आदत (और अब पहचान भी) बन गई है। किन्तु एसएमएस लिखना मुझे अब तक नहीं आया। कभी प्रयास किया भी तो जल्दी ही धैर्य छूट गया। परिणामस्वरूप, कई दिनों तक मैं एसएमएस का जवाब पत्रों से देता रहा। किन्तु यह क्रम नहीं निभ पाया। सो, एसएमएस का जवाब देना ही बन्द कर दिया। लेकिन इससे क्या? एसएमएस के उत्तर न देने के लिए मेरी आत्मा तो मुझे धिक्कारती ही रही! इससे उपजे अपराध-बोध ने मानो मन में स्थायी डेरा ही डाल दिया। मेरा संकट यह कि एसएमएस न लिख पाने की अपनी विवशता जताने की सूचना भी एसएमएस पर दे पाना मेरे लिए सम्भव नहीं था। यदि यही कर पाता तो उत्तर ही क्यों न दे देता?

समझ नहीं पा रहा था कि आत्म-दुर्बलता-जनित अपनी इस विवशता की सूचना सबको कैसे दूँ। क्योंकि दिन में एक-दो उलाहने तो मिल ही जाते - ‘आपको एसएमएस किया था। आपने तो पलट कर जवाब ही नहीं दिया?’ अपराध-बोध अब अकेला नहीं रह गया था। शर्मिन्दगी भी उससे आ मिली थी।

लेकिन इस दीपावली पर मुझे इसका उपाय मिल गया। अपने समस्त ‘अन्नदाताओं’ (पॉलिसीधारकों) तथा मित्रों/कृपालुओं को भेजे जानेवाले दीपावली अभिनन्दन-पत्र का उपयोग मैंने इस काम के लिए कर लिया। यहाँ प्रस्तुत, इस अभिनन्दन-पत्र के चित्र में आप देखेंगे कि सबसे अन्त में मैंने लिखा है - ‘मुझे क्षमा कर दें - मुझे एसएमएस लिखने का अभ्यास अब तक नहीं हो पाया है। इसलिए, मुझे मिलने वालेएसएमएस के उत्तर नहीं दे पाता हूँ। कृपया मेरी विवशता को अनुभव करें और एसएमएस के उत्तर न देने की अशिष्टता के लिए मुझे क्षमा कर दें।’

इस वर्ष भेजे गए अभिनन्दन पत्रों की संख्या 836 रही। सन्देश लिख कर मेरे मन से बड़ा बोझ उतर गया। जानता हूँ कि, इसके बाद भी कई कृपालु ऐसे निकल आएँगे जिन्हें मैंने अभिनन्दन पत्र नहीं भेजा होगा। ऐसे कृपालुओं से फोन पर क्षमा-याचना कर लूँगा क्योंकि वे आसानी से चिह्नित किए जा सकेंगे।

अभिनन्दन पत्र परसों, 2 नवम्बर को, डाक घर खुलते ही वहाँ सौंप दिए जिन्हें मेरे सामने ही (वितरण हेतु) छँटाई विभाग को दे दिए गए। मैं प्रसन्न भी था और निश्चिन्त भी। किन्तु अपराह्न तीन बजे के बाद से एक के बाद एक फोन आने शुरु हो गए। सबसे पहला फोन आया चन्दू भैया की गैस एजेन्सी पर-वाले चन्दू भैया का। उसके बाद थोड़े-थोड़े अन्तराल से फोन आते रहे। पहले दिन, 2 नवम्बर को सारे फोन रतलाम से ही आए किन्तु कल, 3 नवम्बर से तो बाहर से भी फोन आने लगे। दोनों दिन मिला कर कुल 37 फोन आए। सबने न्यूनाधिक एक ही बात कही - ‘हमारे साथ भी यही दिक्कत है किन्तु कहने की हिम्मत नहीं कर पाए। अपनी कमजोरी कबूल करने में आपने बड़ी हिम्मत दिखाई।’ (चन्दू भैया का) पहला फोन आने पर मुझे गुदगुदी तो हुई किन्तु मैंने इसे सहजता से लिया। यही माना कि चन्दू भैया चूँकि मेरे प्रति मोहग्रस्त हैं, इसलिए उदारता और सौजन्यवश यह सब कह रहे हैं। किन्तु उसके बाद जो ताँता लगा तो मुझे विचार करना पड़ा।

मैंने सचमुच मे कोई अनूठा या बड़ा काम कर लिया? अपनी एक कमजोरी और उससे उपजी विवशता ही तो जताई है? अपने अपराध की क्षमा ही तो माँगी है? और यह सब यदि किया भी है तो खुद से खुद की मुक्ति के लिए ही तो? अपनी नजरों में गिरे रहने से बचने के लिए ही तो? यह स्वीकारोक्ति इतनी बड़ी, इतनी महत्वपूर्ण, इतनी उल्लेखनीय बात है? मुझे तो क्षण भर को भी नहीं लगा? तब भी नहीं, जब इसे मैंने, अभिनन्दन-पत्र छपने के लिए देते समय लिखा था!

किन्तु एक-दो नहीं, दो दिनों में पूरे 37 फोन आना भी तो इसका समानान्तर सच है?

मुझे तो बिलकुल ही नहीं लगता किन्तु अपनी कोई कमजोरी कबूल करना, वह भी अपराध-बोध से मुक्त होने के लिए, सचमुच में इतनी बड़ी बात है?
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मुझे आपसे ईर्ष्‍या हो रही है

अखबारों और पत्र/पत्रिकाओं में आए दिनों कभी ‘हिंगलिश’ के पक्ष में सीनाजोरी से दिए तर्क सामने आते हैं तो कभी हिन्दी के पक्ष में, गाँव-खेड़ों, कस्बों से उठते एकल स्वर सुनाई देते हैं। सीनाजोरी का विरोध करने और एकल स्वरों में अपना स्वर मिलाने को मैंने अपनी फितरत बना रखी है ताकि सीनाजोरों की निर्द्वन्द्वता, नाम मात्र को ही सही, बाधित हो और एकल स्वरों को अकेलापन न लगे। ऐसे सैंकड़ों पत्र मैंने लिखे किन्तु उनका कोई रेकार्ड नहीं रखा। 5 सितम्बर को अचानक ही विचार आया कि इन पत्रों का रेकार्ड रखा जाना चाहिए। इसीलिए इन पत्रों को 5 सितम्बर से अपने ब्लॉग पर पोस्ट करना शुरु कर दियाँ। ये मेरे ब्लॉग की पोस्टों में शरीक नहीं हैं। मैं जानता हूँ इनकी न तो कोई सार्वजनिक उपयोगिता है और न ही महत्व। यह जुगत मैंने केवल अपने लिए की है।

03 नवम्बर 2010, बुधवार
धन तेरस, 2067

प्रिय रघुरामनजी,

सविनय सप्रेम नमस्कार,

भली प्रकार जानता हूँ मैंने आसान काम हाथ में नहीं लिया है। और यह भी भली प्रकार जानता हूँ कि अपने इस काम के बदले में मुझे आपकी और आप जैसे तमाम लोगों की अप्रसन्नता (और आश्चर्य नहीं कि नफरत भी) ही मिलेगी। लेकिन प्राप्ति की प्रत्याशा क्यों? मुझे तो अपना काम करते रहना है।

'दैनिक भास्कर' में आपके स्तम्भ ‘मेनेजमेंट फंडा’ में आपके आलेख लगातार निर्दोष-प्रायः ही आ रहे हैं। इतने कि लोगों को आगे रहकर पढ़वाता हूँ। किन्तु कभी-कभी आपका, ‘निर्दोषिता क्रम’ भंग हो जाता है। मुझे आश्चर्य नहीं होता। आपको (और/अथवा आपके आलेखों के अनुवादकों को) इस ‘निर्दोषिता’ की आदत जो नहीं! बिगाड़ में कोई देर नहीं लगती। सुधार में ही भरपूर समय और श्रम लगता है।

गए दो दिनों में आपके आलेखों में अचानक ही अंग्रेजी शब्द अपेक्षा से अधिक दिखाई दिए हैं। उन्हीं की ओर आपका ध्यानाकर्षित करने की चेष्टा, एक बार फिर कर रहा हूँ, जानते हुए कि यह अन्तिम चेष्टा नहीं है।

कल, 02 नवम्बर वाले, ‘बच्चों के विकास का मंत्र है एक्सपोजर’ शीर्षक आलेख में एक बार फिर अंग्रेजी शब्द ‘क्लास’ का बहुवचन रूप ‘क्लासेस’ (‘....और फिलहाल इस संदर्भ में क्लासेस ले रहे हैं।’) प्रयुक्त किया है। आप यहाँ आसानी से ‘कक्षाएँ’ प्रयुक्त कर सकते थे जो लोक प्रचलित है। और यदि अंग्रेजी पर ही अड़े रहना जरूरी था तो ‘क्लासें’ लिखा जाना चाहिए था।

हिन्दी के सहज लोक प्रचलित शब्दों के स्थान पर आपने अकारण ही अनेक अंग्रेजी शब्द प्रयुक्त किए हैं। इनके उल्लेख इस प्रकार हैं -

1. ‘एक छात्र ने अपने गांव के रहवासियों की जहाँ-तहाँ थूकने की आदत पर स्टोरी लिखी है....।’

यहाँ, बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के ‘थूकने की आदत पर समाचार लिखा है’ या ‘समाचार
बनाया है’ लिखा जा सकता था।

2. ‘.....ग्रामीण आबादी आज भी टायलेट का इस्तेमाल नहीं करती...।’

यहाँ टायलेट के स्थान पर शौचालय प्रयुक्त किया जा सकता था।

3. ‘....इन जैसे बाकी छात्रों में कॉमन बात यह है....।’

यहाँ ‘कॉमन’ के स्थान पर ‘सामान्य’ प्रयुक्त करने पर अर्थान्तर नहीं होता।

4. ‘.....बच्चों के अधिकार जैसे विषयों को कवर करेगा।’

इस वाक्य को आप इस तरह लिख सकते थे - ‘...
बच्चों के अधिकार जैसे विषयों पर समाचार छापेगा।’

5. ‘यह यूनिसेफ द्वारा चलाए गए प्रोजेक्ट का हिस्सा है...।’

यह वाक्य इस प्रकार हो सकता था - ‘यह यूनिसेफ द्वारा चलाई गई योजना/परियोजना का हिस्सा
है...।’

अपने इस आलेख के शीर्षक में और अन्तिम अनुच्छेद (पैराग्राफ) में आपने ‘एक्सपोजर’ शब्द प्रयुक्त किया है। इसकी व्यंजना को अनुभव कर, प्रथमदृष्टया इस पर कोई आपत्ति नहीं है। किन्तु दोनों ही स्थानों पर इसका भावानुवाद ‘पहचान’ प्रयुक्त करने पर भी लेख के सकल प्रभाव और व्यंजना में कोई कमी नहीं होती। यह इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि आप जैसे स्थापित और लोकप्रिय लेखकों को लोक प्रचलित हिन्दी शब्द प्रयुक्त करने के साथ ही साथ अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी पर्यायवाची शब्दों को प्रचलन में लाने की दिशा में भी सोचना चाहिए।

आपके आज के आलेख ‘वेतन देना ही पर्याप्त नहीं’ में नाम मात्र की ही असावधानी है और वह स्वभाववश ही हुई लगती है।

इस आलेख में आपने दूसरी पंक्ति में ‘स्टाफ’ प्रयुक्त कर सातवीं पंक्ति में ही इसका लोक प्रचलित हिन्दी पर्याय ‘कर्मचारियों’ प्रयुक्त किया है।

इसी प्रकार आपने एक स्थान पर अकारण ही ‘साइन’ प्रयुक्त कर, अगली ही पंक्ति में इसकी व्यर्थता खुद ही जता दी है। आप खुद देखिए - ‘जब भी कोई कर्मचारी किसी संस्थान के साथ कोई अनुबंध साइन करता है तो वास्तव में वह तीन अनुबंध करता है।’
आपने एक स्थान पर ‘जॉब’ और एक स्थान पर ‘बिजनेस’ प्रयुक्त किया है। इनके स्थान पर आप ‘नौकरी/नौकरियाँ’ और ‘व्यापार’ प्रयुक्त करते तो तनिक भी अन्तर नहीं आता।

मुझे आपसे ईर्ष्‍या होती है कि हिन्दी को विस्तारित, सम्मानित करने के लिए ईश्वर ने आपका चयन किया। काश! यह अवसर मुझे मिला होता।

ईश्वर प्रदत्त इस सुभागी अवसर के जरिए आप हिन्दी के लिए वह काम कर सकते हैं जिसकी कल्पना मात्र ही पुलकित कर देती है।

कृपया, ईश्वर की इच्छा का अनुमान कर तदनुसार परिपालन करने में विलम्ब और कंजूसी मत कीजिए।

हार्दिक शुभ-कामनाएँ।

विनम्र,

विष्णु बैरागी


पुनश्च: यह ई-मेल सन्देश मैं अपने ब्लॉग ‘एकोऽहम्’ पर दिनांक 04 नवम्बर 2010 को ‘मुझे आपसे
ईर्ष्‍या हो रही है’ शीर्षक से प्रकाशित कर रहा हूँ।
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यूलीप पॉलिसी लूँ या कोई और?


अपना नाम न छापने का आग्रह करते हुए, मेरे एक नियमित कृपालु पाठक ने पूछा है - ‘सरकारी नौकरी में हूँ और मेरी उम्र इस समय 45 वर्ष है। मैंने अब तक कोई बीमा पॉलिसी नहीं ली है। अब लेने का विचार कर रहा हूँ किन्तु फैसला नहीं कर पा रहा हूँ कि कौन सी पॉलिसी लूँ और किस कम्पनी की लूँ। बाजार में यूलीप पॉलिसियों का चलन है और प्रायवेट कम्पनियों के एजेण्ट बार-बार सम्पर्क कर रहे हैं किन्तु इनका कोई ट्रेक रेकार्ड उपलब्ध नहीं है। निष्पक्ष सलाह दें।’

निश्चिन्त रहिए, निष्पक्ष सलाह ही दूँगा।

निजी बीमा कम्पनियों के बाजार में आने के बाद से चारों ओर यूलीप पॉलिसियों का बोलाबाला बना हुआ है। सच तो यह है कि यूलीप पॉलिसियाँ इन निजी बीमा कम्पनियों की ही देन है।

कोई भी पॉलिसी न तो शत प्रतिशत निर्दोष होती है और न ही शत प्रतिशत खराब। ऐसा होता तो बीमा कम्पनियाँ विभिन्न प्रकार की बीमा पॉलिसियाँ प्रस्तुत क्यों करतीं?

चूँकि, जैसा कि आपने कहा है, बाजार में यूलीप पॉलिसियों का बोलबाला है इसलिए संक्षेप में यूलीप पॉलिसी की अवधारणा बताने की चेष्टा कर रहा हूँ।

यूलीप पॉलिसी की बहुत बड़ी विशेषता है - बीमा सुरक्षा के साथ-साथ, स्टॉक मार्केट में निवेश की सुविधा और उससे मिलनेवाला लाभ। चूँकि यह पॉलिसी स्टॉक मार्केट से जुड़ी होती है इसलिए यह आवश्यक नहीं कि इसमें लाभ हो ही। बाजार (सेंसेक्स) की दशा के अनुसार ही इसमें लाभ और हानि की सम्भावना और आशंका समान रूप से बनी रहती है।

यूलीप पॉलिसी के लिए चुकाई गई प्रीमीयम का बड़ा भाग आपकी ओर से, आपके मनपसन्द ‘फण्ड’ में निवेशित होता है। इस निवेश पर ‘मार्केट रिस्क’ की शर्त लागू रहती है, वह भी आपकी जिम्मेदारी पर। याने लाभ हुआ तो आपका और हानि हुई तो आपकी। यूलीप पॉलिसी में, निर्धारित अवधि के बाद, कितने निवेश पर कितना रिटर्न मिलेगा - यह ग्यारण्टी कोई नहीं दे सकता। यह अलग बात है कि कई उत्साही एजेण्ट ग्यारण्टी की बात कह देते हैं। किन्तु यह याद रखिए कि इसमें रिटर्न की कोई ग्यारण्टी नहीं होती। अन्तिम भुगतान तिथि पर आपके निवेश की जो फण्ड वेल्यू होगी, वह आपको दे दी जाएगी।

यूलीप पॉलिसी में बीमा प्रीमीयम बहुत कम होती है इसलिए आपकी रकम का बड़ा हिस्सा निवेश के लिए उपलब्ध होता है। निर्धारित अवधि से पहले पॉलिसीधारक की मृत्यु की दशा में भुगतान की जानेवाली रकम के बारे में प्रत्येक कम्पनी की अपनी शर्तें हो सकती हैं। कुछ बीमा कम्पनियाँ, बीमा धन और फण्ड वेल्यू, दोनों को भुगतान करती हैं जबकि कुछ कम्पनियाँ, इन दोनों में से जो रकम अधिक हो, उसका भुगतान करती हैं। इसलिए, यूदि आप यूलीप पॉलिसी ले रहे हैं तो इस बारे में सब कुछ स्पष्ट जान लीजिएगा।

पॉलिसी लेने के बाद तरलता (लिक्विडिटी) की उपलब्धता इस पॉलिसी की एक और विशेषता है।

वर्तमान प्रावधानों के अनुसार, पॉलिसी लेने के पाँच वर्ष बाद (जिसे ‘लॉक-इन पीरीयड’ कहा जाता है) आप अपनी पॉलिसी बन्द कर, उसकी फण्ड वेल्यू प्राप्त कर सकते हैं। 30 सितम्बर 2010 तक खरीदी गई पॉलिसियों में यह अवधि तीन वर्ष थी।

कुछ बीमा कम्पनियों ने अपनी यूलीप पॉलिसियों में तीन वर्ष बाद आंशिक भुगतान की सुविधा भी उपलब्ध कराई हुई है। याने, आप पॉलिसी पूरी तरह बन्द न कर, अपनी फण्ड वेल्यू का एक भाग प्राप्त कर सकते हैं। यह आंशिक भुगतान प्राप्त कर लेने के बाद आपकी बीमा राशि (रिस्क कवरेज) में कोई कमी आएगी या नहीं, इसके बारे में भी अलग-अलग कम्पनियों के अलग-अलग प्रावधान हैं। कुछ कम्पनियाँ बीमा राशि (रिस्क कवरेज) में कमी नहीं करतीं जबकि कुछ कम्पनियाँ, रिस्क कवरेज में, निकाली गई रकम के बराबर कमी कर देती हैं। याने, आपका बीमा कम हो सकता है। इसके बारे में भी पहले ही सब कुछ साफ-साफ समझ लें।

चूँकि यूलीप पॉलिसियाँ, स्टॉक मार्केट के निवेश से जुड़ी रहती हैं इसलिए कुछ कम्पनियाँ इनमें ‘टॉप अप’ की सुविधा भी उपलब्ध कराती हैं। अर्थात्, यदि आप स्टॉक मार्केट का मिजाज भाँपने में उस्ताद हैं और बाजार की अनुकूल दशा से आर्थिक लाभ प्राप्त करना चाहते हैं तो, निर्धारित प्रीमीयम की रकम के अतिरिक्त रकम भी इसमें निवेश कर सकते हैं। इस रकम पर भी आपको, प्रीमीयम की रकम के समान ही आय कर में छूट मिलेगी किन्तु इस अतिरिक्त निवेश (टॉप अप) के कारण आपकी बीमा राशि (रिस्क कवरेज) मे कोई वृद्धि नहीं होगी।

किन्तु, इस पॉलिसी की, तरलता (लिक्विडिटी) की उपलब्धता की यह विशेषता ही इसकी सबसे बड़ी खराबी भी है। आपको पॉलिसी बेचते समय ही एजेण्ट भली भाँति बता देता है कि जैसे-जैसे सेंसेक्स ऊँचाई की ओर बढ़ेगा, वैसे-वैसे ही आपकी निवेशित रकम पर रिटर्न बढ़ता जाएगा। यह बात दिमाग में से कभी नहीं निकलती। दूसरी ओर, हम सब परिवार लेकर बैठे हैं और सबके चूल्हे मिट्टी के ही हैं। रुपये-पैसों की कोई न कोई आवश्यकता, प्रत्येक घर में, बारहों मास, चौबीसों घण्टों बनी ही रहती है। ऐसे में, बाजार के उछाल मारते ही, जैसे ही आपको मालूम होता है कि आपके निवेश पर आपकी उम्मीद से अधिक रिटर्न मिल रहा है, तो आप अपनी पॉलिसी बन्द करने में देर नहीं करेंगे। ऐसा करते समय आपने अच्छा-भला लाभ तो कमा लिया किन्तु ऐसा करते ही आप बीमा सुरक्षा से वंचित हो जाते हैं। चूँकि यह सुविधा आपको ‘लॉक इन पीरीयड’ पाँच वर्ष के बाद मिली है, इसलिए यह पॉलिसी बन्द कर आप जब नई पॉलिसी लेंगे तब आपकी उम्र पाँच वर्ष बढ़ चुकी होगी और जब आप नई पॉलिसी लेंगे तब आपको इस बढ़ी हुई उम्र की अधिक प्रीमीयम चुकानी पड़ेगी। इसके साथ ही साथ यह भी सम्भव है कि उम्र के आधार पर आपको कुछ विशेष चिकित्सा परीक्षण भी कराने पड़ सकते हैं। यदि उनके निष्कर्ष प्रतिकूल रहे तो बीमा कम्पनी आपको बीमा देने से इंकार भी कर सकती है। याने, ‘यूलीप’ ने आपको मुनाफा तो भरपूर दे दिया किन्तु बीमा सुरक्षा से स्थायी रूप से वंचित भी कर दिया। बार-बार यूलीप पॉलिसी लेकर, लॉक-इन पीरीयड के बाद उसे बन्द कर, मुनाफा बटोरते-बटोरते एक स्थिति यह आ सकती है कि आपकी उम्र बीमा देने की सीमा से अधिक हो जाए और तब आप मुँह माँगी प्रीमीयम देने के बाद भी बीमा हासिल न कर पाएँ। निश्चय ही यह एक काल्पनिक स्थिति है, किन्तु बीमा सन्दर्भों में ऐसी कल्पना को हकीकत में बदलने में देर नहीं लगती।

इसलिए, यदि आप निवेश और रिटर्न आधारित पॉलिसी लेना चाहते हैं तो बिना सोचे यूलीप पॉलिसी लें। किन्तु यदि आपकी चिन्ता और प्राथमिकता पारिवारिक सन्दर्भों में ‘बीमा सुरक्षा’ है तो फिर आप कोई पारम्परिक (कन्वेंशनल) पॉलिसी ही लें जिसमें, पॉलिसी के लाभ, पॉलिसी पूरी होने पर ही मिलते हैं। बीच में पॉलिसी बन्द करने पर अच्छा खासा नुकसान होता है। किन्तु यूलीप पॉलिसी में जहाँ किसी भी बात की कोई ग्यारण्टी नहीं होती वहीं पारम्परिक (कन्वेंशनल) पॉलिसी में बीमा धन के भुगतान की ग्यारण्टी होती है और प्रति वर्ष घोषित किए जानेवाले बोनस की राशि का भुगतान भी मिलता है। बोनस की यह राशि सर्वथा अनिश्चित होती है और यह पॉलिसी के अन्तिम भुगतान (अर्थात् पॉलिसी अवधि पूरी होने पर या पॉलिसी अवधि पूरी होने से पहले मृत्यु होने पर) के साथ ही मिलती है।

ऐसे में, यह आप ही तय करें कि आपको कौन सी पॉलिसी की आवश्यकता है।

जहाँ तक कम्पनी की बात है तो मुझे क्षमा करें, इस बारे में मैं निष्पक्ष नहीं रह सकूँगा। मैं भारतीय जीवन बीमा निगम का एजेण्ट हूँ इसलिए स्वाभाविक रूप से चाहूँगा कि आप भा.जी.बी.नि. की ही पॉलिसी खरीदें। यह सरकारी कम्पनी है और पूरे देश में यह एकमात्र वित्तीय संस्थान् है जिसके निवेश पर भारत सरकार की शत प्रतिशत ग्यारण्टी है।

और इससे आगे बढ़ कर मुझ कहने की अनुमति दीजिए कि आप न केवल भा.जी.बी.नि. की पॉलिसी लें अपितु यह पॉलिसी मुझसे ही लें। जैसा कि इस ब्लॉग पर मेरे व्यक्तिगत विवरण में मैंने कहा है - मैं एक पूर्णकालिक (फुल टाइमर) बीमा एजेण्ट हूँ और विक्रयोपरान्त ग्राहक सेवा को सर्वोच्च प्राथमिकता देता हूँ।

आपकी और कोई जिज्ञासा हो तो सूचित कीजिएगा। आके लिए सहायक होकर मुझे आत्मीय प्रसन्नता होगी।
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें। यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें। मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.