रतलाम में होता हूँ तो अखबार पढ़ने का मन नहीं होता। लेकिन जब इन्दौर में होता हूँ तो अखबार की तलाश रहती है। काम-धाम कुछ रहता नहीं। फुरसत ही फुरसत रहती है। वहाँ अखबार मुश्किल से मिल पाता है। दो-तीन दिनों के लिए जाता हूँ। बन्दी के अखबार बाँटनेवाले हॉकर के पास अतिरिक्त प्रतियाँ नहीं होतीं। रिंग रोड़ पर सिन्धिया प्रतिमा चौराहे पर अखबारवाला आता तो है लेकिन अपने मन का राजा है। उसके बाद अखबार मिलता है ठेठ पलासिया चौराहे पर। इतनी दूर कौन जाए? इसलिए, सुबह-सुबह सड़क पर आ खड़ा होता हूँ। इस उम्मीद से कि कभी, कोई हॉकर महरबान हो जाए।
इसी ‘कृपाकांक्षा’ में परसों, मंगलवार की सुबह कनाड़िया मार्ग पर आ खड़ा हुआ। सामनेवाली मल्टी के नीचेवाली होटल की सर्विस रोड़ के लिए बनी दो-फुटी दीवाल पर टिक गया। सात बज रहे हैं। होटल खुली नहीं है। एक ऑटो खड़ा है। दो सज्जन बैठे हुए हैं। बतिया रहे हैं। कड़ाके की सर्दी है - तापमान सात डिग्री। मैं उनकी बातें सुनने लगता हूँ। अपनी तरफ मेरा ध्यान देखकर वे अपनी बातों का सिलसिला तोड़ देते हैं। पूछते हैं - ‘कहीं बाहर से आए हैं? नए लगते हैं। पहले कभी नजर नहीं आए।!’ मैं अपना परिचय देता हूँ और वहाँ बैठने का मकसद बताता हूँ। एक कहता है - ‘आपको अखबार शायद ही मिले। लेकिन थोड़ी देर राह देख लीजिए। पाँच-सात रुपयों के लालच में कोई हॉकर किसी बन्दी वाले का अखबार आपको दे-दे।’ मैं मौन मुस्कुराहट से जवाब दे देता हूँ। उनकी बातों का टूटा सिलसिला जुड़ जाता है -
‘बहू को अच्छी नहीं लगी कैलाश की बात।’
‘कौन सी बात?’
‘वही! प्रियंका को चिकना चेहरा कहनेवाली बात।’
‘हाँ। वो तो अच्छा नहीं किया कैलाश ने। ऐसा नहीं कहना चाहिए था। शोभा नहीं देता। लेकिन सज्जन ने भी तो वही किया! उसे क्या जरूरत थी जवाब देने की? चुप रह जाता!’
‘हाँ। सज्जन ने भी घटियापन का जवाब घटियापन से दिया।’
‘हाँ। पता नहीं इन लोगों को क्या हो गया है! इन्हें न तो अपनी इमेज की चिन्ता है न अपनी पार्टी की इमेज की। पता नहीं, इनकी ऐसी बातें सुन कर इनके टीचर लोग क्या सोचते होंगे!?’
‘क्या सोचते होंगे! अपना माथा कूटते होंगे। यही पढ़ाया हमने इनको? पता नहीं राजनीति में आते ही इन लोगों को क्या हो जाता है!’
‘ऐसी बातों से ही लोग राजनीति को गन्दी मानते हैं।’
‘हाँ। राजनीति के कारण ही सज्जन बोला होगा। सोचा होगा, चुप रह जाऊँगा तो लोग बेवकूफ समझेंगे।’
‘हो सकता है। लेकिन बोल कर बेवकूफ साबित होने से तो अच्छा है कि चुप रह बेवकूफ साबित हुआ जाए। बेवकूफी का जवाब बेवकूफी नहीं होता।’
सन्दर्भ मुझे समझ में आ जाता है। कैलाश याने कैलाश विजयवर्गीय और सज्जन याने मध्य प्रदेश सरकार के मन्त्री सज्जन सिंह वर्मा। हमारे राज नेता भाषा की शालीनता से दूरी बढ़ाने की प्रतियोगिता करते नजर आ रहे हैं। उन्हें रोकने-टोकनेवाला कोई नहीं। लेकिन यह वार्तालाप सुनकर मेरी सुबह अच्छी हो गई - लोग हमारे नेताओं पर न केवल नजरें बनाए हुए हैं बल्कि उनकी भाषा पर भी ध्यान दे रहे हैं। आज अकेले में बात कर रहे हैं, कल मुँह पर बोलेंगे। बात निकलती है तो दूर तलक जाती ही है। बेवकूफी का जवाब बेवकूफी नहीं होता। खून के दाग खून से नहीं धोए जा सकते।
अब तक एक भी हॉकर इधर से नहीं निकला है। वे दोनों खड़े होते हैं। मुझे सलाह देते हैं - ‘अच्छा होगा कि आप माधव राव के पुतलेवाले चौराहे पर चले जाओ।’ उनके साथ-साथ मैं भी उठ जाता हूँ।
रिंग रोड़ चौराहे पर खूब भीड़ है। बॉम्बे हास्पिटल की ओर से आ रहा एक ट्रक उलट गया है। नुकसान तो कुछ नहीं हुआ लेकिन यातायात अस्तव्यस्त हो गया है। जाम लगा हुआ है। शीत लहर के कारण कलेक्टर ने स्कूलों की छुट्टी कर दी है। स्कूलों के वाहन गलती से ही नजर आ रहे हैं। उद्यमों/संस्थानों के वाहन सड़कों पर हैं। उनके कर्मचारी अपने-अपने वाहन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। सबको जल्दी है। ट्रेफिक पुलिस के दो जवान और तीन-चार समाजसेवी मिलकर ट्रेफिक क्लीयर करने में लगे हुए हैं। लोग उनकी परवाह नहीं कर रहे हैं। जिसे, जहाँ गुंजाइश मिल रही है, अपना वाहन घुसेड़ रहा है। ऐसा करने में खुद की और सबकी मुश्किलें बढ़ रही है। अखबारवाला नहीं आया है।एक ऑटो वाला कहता है - ‘अब नहीं आएगा। आना होता तो आ गया होता।’ मैं अपने मुकाम की ओर चल पड़ता हूँ। दारू की दुकान से दो दुकान आगेवाली होटल के सामने, दो लोग सड़क पर खड़े-खड़े चाय पीते हुए, दीन-दुनिया से बेपरवाह बातें कर रहे हैं। इस तरह कि रास्ते चलते आदमी को बिना कोशिश के ही सुनाई दे जाए। लगता है, दोनों एक ही संस्थान में काम करते हैं और कम्पनी के वाहन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। दोनों समवय हैं। चालीस-पैंतालीस के आसपास। मुखमुद्रा और बेलौसपन से एक झटके में समझ पड़ जाती है कि गम्भीर बिलकुल नहीं हैं। वक्तकटी की चुहलबाजी कर रहे हैं -
‘तुम स्साले काँग्रेसियों को उस एक खानदान के सिवाय और कुछ नजर नहीं आता। अपने घर के हीरों की न तो परख करते हो न ही पूछताछ। ये तो हम हैं जो बड़ा दिल करके तुम्हारेवालों को सम्मानित कर देते हैं। हिम्मत चाहिए इसके लिए। तुम सब तो मम्मी से डरते हो।’
तू कभी नहीं सुधरेगा! तेरे आका इतने भले नहीं है कि बिना किसी लालच के किसी के गले में माला डाल दे। इतने भले होते तो आडवाणी और जोशी की ये दुर्गत न करते। लोकसभा चुनाव में सीटों का घाटा पूरा करना है। इसलिए बंगालियों को खुश करने के लिए प्रणव मुखर्जी को भारत रत्न दे दिया। लेकिन ये चाल उल्टी न पड़ जाए। जानता है प्रणव मुखर्जी कौन है? इन्दिरा गाँधी ने जो इमरजेन्सी लगाई थी, उसका ब्लाइण्ड सपोर्टर था! उस समय, उसकी केबिनेट में मिनिस्टर था। इन्दिरा की इमरजेन्सी का विरोध और इमरजेन्सी का समर्थन करनेवाले को भारत-रत्न! तेरे आकाओं ने ये भी नहीं सोचा कि उन्होंने इमरजेन्सी का समर्थन कर दिया है। अब किस मुँह से इमरजेन्सी को क्रिटिसाइज करेंगे? और अभी जो कमलनाथ ने मीसा बन्दियों की पेंशन खत्म करने का जो आर्डर जारी किया है, उसका विरोध किस मुँह से करोगे? मुँह उठाकर कुछ तो भी बोल देते हो! कुछ अक्कल-वक्कल है के नहीं?’
‘अरे! तू तो सीरीयस हो गया यार! कहाँ तो तू राहुल को पप्पू कहता है और कहाँ ऐसी बातें कर रहा है?’
‘तेने हरकत ही ऐसी की! मैं तो जानता हूँ कि मुझे राहुल और सोनिया रोटी नहीं देते। लेकिन तू तो ऐसे बातें करता है जैसे मोदी केवल तेरे भरोसे, तेरे दम पे पीएम बना हुआ है और वहीं से तेरा टिप्पन आता है! अरे भई! जब पढ़े-लिखे लोग भी ऐसी बातें करेंगे तो सबका भट्टा बैठेगा नहीं तो और क्या होगा? ईमानदारी से अपना काम करो। सही को सही और गलत को गलत कहो।’
‘सॉरी-सॉरी यार! तू सही कह रहा है। मैंने तो यूँ ही बात-बात में बात कर दी थी। दिल पे मत ले।’
‘‘बात-बात में बात तो जरूर कर लेकिन ‘यूँ ही’ मत कर। पढ़ा-लिखा, समझदार, एक बच्चे का बाप है। जिम्मेदारी से बात किया कर।’’ उसे कोई जवाब मिलता उससे पहले ही उनकी बस आ गई।
वे दोनों चले गए। अब मुझे अखबार की जरूरत नहीं रह गई थी। जाते-जाते वह अनजान आदमी सूत्र दे गया - ‘बात जरूर कर लेकिन यूँ ही मत कर। जिम्मेदारी से किया कर।’ क्या यह सूत्र मुझ अकेले के लिए है?
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‘सुबह सवेरे’, भोपाल, 31 जनवरी 2019