नगर निगमों, नगर पालिकाओं, नगर परिषदों और ग्राम पंचायतों के कर्मचारी बने हुए लगभग पौने तीन लाख अध्यापक अब पक्के सरकारी कर्मचारी बन गए। अब ये सब शिक्षा विभाग के अधीन, अध्यापक हो गए। मुख्यमन्त्री शिवराज ने घोषणा कर दी। ये सब खुश तो हैं लेकिन इसे सरकार की महरबानी न मानें तो ताज्जुब क्या? ये लोग इस प्राप्ति को अपने लम्बे संघर्ष के दौरान भुगती उपेक्षा, प्रताड़ना, वेतन कटौती, अवमानना, पिटाई, जेल यात्राओं जैसी पीड़ाओं का प्रतिफल क्यों न मानें? यह सब इन्हें मुफ्त नहीं मिला। इसके लिए इन्होंने क्या कुछ नहीं झेला? क्या कुछ नहीं सहा? ये लोग खुश भी हैं और सन्तुष्ट भी।
मेरी उत्तमार्द्धजी अध्यापक रही हैं। वर्ष 2012 में उन्होंने स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ले ली। लेकिन उससे पहले ही प्रबुद्ध मुनीन्द्र दुबे और जुझारू सुरेश यादव से मरा सम्पर्क बन गया। सुरेश इस संघर्ष में, प्रदेश स्तर पर पहली पंक्ति के योद्धाओं में शरीक रहा है। बाद में मुनीन्द्र और सुरेश जैसे और लोगों से सम्पर्क बन गया। इसीलिए मुझे इस समूचे संघर्ष की दैनिक जानकारी ‘आँखों देखा हाल’ की तरह मिलती रही। इन अध्यापकों की खुशी मैं भली प्रकार अनुभव कर पा रहा हूँ। कच्चे गारे से बनाई अपनी काली-भूरी ईंटों को ताम्बई रंग में, भट्टे से निकलते देख कर कुम्हार जिस तरह खुश होता है, उसी तरह ये लोग खुश हैं।
1995 में, दिग्विजय सिंह काल में, शिक्षाकर्मियों की नियुक्तियाँ शुरु हुई थीं। तब इन्हें वर्गानुसार क्रमशः 500, 800 और 1000 रुपये वेतन (केवल 10 महीनों का) मिलता था। गुरुजी योजना के अधीन, 500 सौ रुपये मानदेय वाले स्कूल खोले गए। 2001 में संविदा शाला शिक्षकों की भर्ती, पूर्णतः अस्थायी भर्ती हुई। महिलाओं को प्रसूति अवकाश नहीं मिलता था। एक अप्रेल 2007 में अध्यापक संवर्ग बनाकर सबको अध्यापक नाम दिया गया। तब शिक्षाकर्मी नियमित थे। संविदा शिक्षकों को नियमित किया गया। गुरुजी को पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण करने पर नियमित किया गया। तभी, 1995 की, शिक्षाकर्मियों की भर्ती को सर्वोच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया। वर्ष 1998 में, 2256 रुपये मासिक वेतन पर शिक्षाकर्मियों की नियमित भर्ती हुई। 2007 आते-आते यह वेतन 2550 रुपये मासिक हुआ। अपनी कुछ माँगों को लेकर इन लोगों ने 1998 में तत्कालीन केन्द्रीय मन्त्री अर्जुनसिंह और मुख्यमन्त्री दिग्विजयसिंह की मौजूदगी में बड़ी रैली निकाली। तेरह दिनों के आकस्मिक अवकाश के लिए इन्होंने 1998 के बाद फिर प्रदर्शन किया।
2002 और 2003 में इन लोगों ने हड़तालें की जो एक-एक महीने चलीं लेकिन दोनों ही बार हाथ खाली रहे। तब भाजपा विपक्ष में थी। 2003 के अपने चुनावी घोषणा-पत्र में भाजपा ने वादा किया कि यदि उसकी सरकार बनी तो वर्ग भेद समाप्त कर समान वेतन दिया जाएगा। लेकिन जैसा कि होता है, सरकार बनने के बाद भाजपा अपना वादा भूल गई। तब ये लोग 2004 में 23 और 2005 में 53 दिनों तक आन्दोलनरत रहे। हजारों अध्यापकों ने दिल्ली में तीन दिन तक प्रदर्शन किया। तत्कालीन प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह से एक घण्टा बात हुई। उनसे मिले आश्वासन के बाद दिल्ली में तो आन्दोलन खत्म हो गया लेकिन भोपाल में चलता रहा।
भोपाल में बड़ी रैली निकलनी थी। इन्हें भोपाल पहुँचने से रोकने के लिए घरों, बस स्टैण्डों, रेल्वे स्टेशनों से गिरफ्तार किया गया। करीब 500 महिला-पुरुष शिक्षाकर्मियों को भोपाल केन्द्रीय जेल में अपराधियों के साथ तीन दिन बन्द रखा गया। शिवराज की मध्यस्थता से आन्दोलन खत्म हुआ। रिटायर्ड आईएएस डीपी दुबे वाली एक सदस्यीय समिति बनाई गई। समिति ने अनेक सिफारिशें कीं लेकिन एक भी नहीं मानी गई। 2007 में भोपाल के सुभाष मैदान में करीब 50 हजार शिक्षाकर्मियों, संविदा शिक्षकों, गुरुजियों से, शिवराज ने दुबे समिति की सभी माँगें मानने का वादा किया। लेकिन कुछ ही मानी गईं।
अपनी माँगों के लिए ये लोग मानो सपनों में भी रणनीति ही बनाते रहे। 2009 में ऐन शिक्षक दिवस के दिन भोपाल में प्रदर्शन के दौरान महिला-पुरुष अध्यापकों को पुलिस ने दौड़ा-दौड़ा कर पीटा। 40 को गिरफ्तार किया गया। प्रदेश भर में 200 को निलम्बित किया गया। (वे 6 महीने निलम्बित रहे।) उस दिन मेरे कस्बे रतलाम में, शिक्षामन्त्री का पुतला जलाते हुए तीन अध्यापक झुलस गए थे। 2013 में ये लोग 23 दिनों तक आन्दोलनरत रहे। प्रदेश में कई जगहों पर अनशन किए गए। देवास में, अनशनरत एक महिला अध्यापक इलाज के दौरान चल बसी।
सरकार ने 2013 से छठा वेतनमान देने की घोषणा की जिसमें कई कमियाँ थीं। इसे लेकर 2015 में 13 दिन की हड़ताल हुई। तब भोपाल में हुई रैली पर भीषण लाठीचार्ज हुआ। प्रत्यक्षदर्शियों में से एक ने कहा था -‘ऐसा लग रहा था सर! मानो पुलिस किसी को जिन्दा वापस नहीं जाने नहीं देगी।’ ‘लाज बचाने’ के मुकाबले ‘जान बचाने’ की चिन्ता में महिलाएँ अधनंगी दशा में भागीं। सरकार के मुताबिक 12000 लोगों पर धारा 110 की कार्रवाई की गई। प्राण बचाने के लिए भाग रही अधनंगी महिलाओं के चित्र देखकर मेरी उत्तमार्द्धजी उस दिन खूब रोई थीं।
22 जनवरी को मैं कोई 23 शिक्षाकर्मियों से मिला। वे सब खुश तो थे लेकिन उनकी खुशी में खनक कम और कसक, पीड़ा, कराहें अधिक थी। एक ने कहा - ‘सर! 1995 में शिक्षाकर्मी की नौकरी कहने को जरूर नियमित थी लेकिन सुविधा कुछ नहीं थी। एक दिन का अवकाश लेने पर वेतन कटता था।’ दूसरे ने कहा - ‘2005 और 2015 में जब पुलिस घरों पर दबिश देकर हमें पकड़ रही थी तो आस-पड़ोसवाले हमें अपराधी समझते थे।’ तीसरे ने तनिक उग्र होकर कहा - ‘सर! आज शिवराजजी भले ही कुछ भी कहें। लेकिन मेरे कुछ साथी उस दौर में एक समय भोजन करते थे ताकि बच्चों को दूध पिला सकें।’ एक और ने कहा - ‘यह लड़ाई हमने अपनी एक-एक साँस होम कर जीती है सर! हमारे कई साथी चले गए। उनके अन्तिम संस्कार के लिए अनुग्रह राशि भी नहीं मिली।’ एक और ने कहा - ‘बैरागी सर! हमारी दशा देख-देख कर लोग हमारा मजाक उड़ाते थे। किसी अफसर से बहस करते हुए कभी अखबार में फोटू छप जाता तो घरवाले ही डाँटते-फटकारते थे।’ एक बहुत ही धीर-गम्भीर और प्रबुद्ध अधेड़ शिक्षक ने कड़वाहटभरी फीकी हँसी हँसते हुए कहा - ‘यह क्षण हमारी पीड़ाओं, हम पर हुए जुल्मों का आनन्द लेने का क्षण है सर! हमें याद है कि प्रदर्शन के लिए भोपाल जाते हुए हमें बसों, रेलों में छापामारी कर डाकुओं, आतंकियों की तरह उतार लिया गया, कोसों दूर जंगलों में छोड़ दिया गया था। रेकार्ड पर लिए बिना हमें गिरफ्तार रखा गया। अंग्रेज भी यही करते थे। हमारे कई लोग सप्ताहों तक लापता रहे जो रोते-गाते, जैसे-तैसे अपने घरों पहुँचे।’ शादी लायक हो रही बेटी के बाप एक अध्यापक ने कहा - ‘मुख्यमन्त्रीजी इस तरह बात कर रहे हैं जैसे उन्होंने हमारे खानदानों पर उपकार कर दिया हो। वे कह रहे हैं कि 21 वर्षों का यह अन्याय खत्म करने का सौभाग्य उन्हें मिला। लेकिन सर! 21 वर्षों के इस अन्याय में 12 वर्ष तो उनके अन्याय के ही हैं! यह उन्हें याद नहीं आता? कोई न्याय-व्याय नहीं सर! ये तो चुनाव में हमारे वोट लेने के लिए किया गया है। वर्ना उनका बस चलता तो वो तो अभी कुछ नहीं देते।’ एक और ने कहा - ‘हम शिवराजजी की इस देन की खुशियाँ मनाना चहते हैं सर! लेकिन उनकी ऐसी बातें हमारी खुशियों की खीर में नींबू निचोड़ देती हैं सर!’
इस अन्तिम टिप्पणी से मुझे नीरजा (मेरे छोटे भतीजे गोर्की की उत्तमार्द्ध) द्वारा सुनाया किस्सा याद आ गया जो उसके पिताजी ने उसे सुनाया था। उत्तर प्रदेश के पहले मुख्य मन्त्री (और भारत के चौथे गृह मन्त्री) पण्डित गोविन्द वल्लभ पन्त के हाथ और गरदन लगातार काँपते-हिलते रहते थे। 1928 में, साइमन कमीशन के विरोध में प्रदर्शन के दौरान पुलिस ने लाठियों से उनकी पिटाई की थी। यह उसीका परिणाम था। एक दौरे में, एक पुलिस दरोगा उनके सामने आया तो वे मुस्कुरा पड़े। दरोगा खुश हो, जोरदार सेल्यूट देकर बोला - ‘सरकार! आपने हमें पहचाना?’ पन्तजी की मुस्कुराहट चौड़ी हो गई। बोले - ‘आपको तो चाह कर भी नहीं भूल सकते भाई! जब-जब पुरवाई चलती है, आप याद आ जाते हो।’ दरोगा झेंप गया। पन्तजी पर लाठियाँ भाँजनेवाला वही था।
सोच रहा हूँ, विधान सभा के चुनावों ने दस्तक दे दी है। ये चुनाव शिवराज और भाजपा के लिए जीवन-मरण जैसी लड़ाई है। खुद शिवराज या उनके सिपहसालार भाषणों, वक्तव्यों में जब शिक्षकों पर किया गया यह ‘उपकार’ याद दिलाएँगे तो इन अध्यापकों की दशा, मनोदशा क्या होगी? ‘पुरवाई’ इन्हें सताएगी या गुदगुदाएगी?
सच में, इन पौने तीन लाख अध्यापकों के विवेक, बुद्धि, संयम और संस्कारों की परीक्षा लेंगे ये चुनाव।
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