भारतीय नारी की शोभा...........में गई


ये जो इस फोटू में पीछे खड़ा है, वो धर्मेन्द्र है। धर्मेन्द्र रावल। मेरे संघर्ष के दिनों का साथी। फोटू में बाँयी ओर, सलवार-सूट में मेरी उत्तमार्द्ध वीणाजी और दाहिनी ओर, साड़ी पहने सुमित्रा भाभी बैठी हैं। सुमित्रा भाभी याने धर्मेन्द्र की पत्नी। और बीच में जो बैठी हैं वो हैं ‘बई’। ‘बई’ याने धर्मेन्द्र की माँ और सुमित्रा भाभी की सासूजी। उम्र है 85 बरस और नाम है पार्वती। ‘बई’ और सुमित्रा भाभी, सास-बहू हैं जरूर लेकिन इकतालीस बरस से अधिक से साथ-साथ रह रही हैं तो ‘सखी-सहेली’ हो गई हैं। जब, जिसे मौका मिलता है, ठिठोली कर लेती हैं। ‘बई’ के सामने जब हम लोग होते हैं तो ‘बई’ हम सब को धर्मेन्द्र और सुमित्रा ही समझती, मानती और वैसा ही व्यवहार करती हैं। लाड़-प्यार करना हो, डाँटना-असीसना हो, ‘बई’ के लिए हम सबके सब धर्मेन्द्र-सुमित्रा हैं। इसलिए धर्मेन्द्र की ‘बई’ हम सबकी ‘बई’ है। 

‘बई’, इन्दौर के पास के गाँव गौतमपुरा की, मालवी गृहस्थन हैं। कोई पचास बरसों से अधिक से समय से जरूर इन्दौर में हैं और खड़ी बोली (याने, आपकी-हमारी हिन्दी) में बात कर लेती हैं लेकिन खड़ी बोली में सहज नहीं रह पातीं। बहुत हुआ तो दस-बीस शब्दों के बाद खड़ी बोली पता नहीं कहाँ चली जाती है और ‘बई’ के मुँह से रसभरी मालवी बरसने लगती है। मालवी के मामले में बई अपने आप में एक खजाना है। लोक जीवन के, जनम-मरण-परण से लेकर तमाम प्रसंगों के लोक गीतों ने मानो बई के ‘हिवड़े’ (हृदय) को अपना बसेरा बना रखा है। पोता समन्वय, बहू आभा के साथ और पोती तनु, पति हर्ष के साथ बेंगलुरु में नौकरी पर है। सब नियमित रूप से इन्दौर आते रहते हैं। जब भी आते हैं, ‘बई’ को घेर कर बैठ जाते हैं और ‘बई’ से मालवी में इस तरह बातें करते हैं मानो मालवी के भूले-बिसरे पाठ याद कर रहे हों। 

गए कुछ महीनों से ‘बई’ बीमार चल रही है। कभी-कभार अस्पताल में भी भर्ती कराना पड़ जाता है। कुछ दिन अस्पताल में। फिर घर। यह आना-जाना अब परेशान नहीं करता। बीच में ‘बई’ तनिक अधिक परेशान हो गई थी। कुछ इस तरह कि उनकी दुनिया बिस्तर पर ही सिमट आई थी। यह दीपावली से पहले की बात है। उस दौरान ‘बई’ को टी-शर्ट और पायजामा पहनाना पड़ा। बई ने पहन तो लिए लेकिन उन सारे दिनों में ‘बई’ मानो एक अतिरिक्त बीमारी से ग्रस्त हो गई हों। उन सारे दिनों ‘बई’ को लगता रहा कि वे भले ही अपने कमरे में बन्द हैं लेकिन फिर भी सारी दुनिया उन्हें इन कपड़ों में देख-देख कर हँस रही है। टी-शर्ट और पायजामा मानो कपड़े न होकर, मूल बीमारी से अधिक त्रासदायी एक और बीमारी हों। उनकी दशा ‘स्वस्थ तन, बीमार मन’ जैसी रही। उस दौरान वीणाजी और मैं इन्दौर गए। निकले तो हम कहीं और के लिए थे लेकिन सोचा कि धर्मेन्द्र का घर भी इसी इलाके में है, ‘बई’ से मिल लिया जाए। वीणाजी हिचकीं। वे सलवार-सूट में थीं। इन कपड़ों में भला ‘बई’ के सामने कैसे जाएँ? उन्होंने साफ मना कर दिया - ‘मैं तो बई के सामने इन कपड़ों में नहीं जाऊँ।’ मैंने जोर दिया। कहा कि संयोग से इस इलाके में हैं। इतनी दूर, अलग से आना मुश्किल होगा। अपने बुजुर्गों से मिलना तो अपने लिए ‘तीरथ करने’ की तरह है। ‘बई’ को जो कहना होगा, कह देंगी। अपन तो अपने मन की तसल्ली के लिए चल रहे हैं। वीणाजी को बात तो जँची लेकिन हिम्मत ने साथ छोड़ दिया। बड़े ही कच्चे मन से चलीं। हमने जोड़े से ‘बई ’को प्रणाम किया। ‘बई’ ने, असीसते हुए, भेदती नजर से वीणाजी को देखा आशीर्वचन समाप्त कर मानो ‘फोल्डिंग लप्पड़’ मारा - ‘यो कई? अबे लाड़्याँ सास के सामे सलवार-सूट में आवा लागी?’ (यह क्या? बहुएँ अब सलवार-सूट पहन कर सास के सामने आने लगीं?) पहले से पस्त-हिम्मत वीणाजी मानो निष्प्राण हो गईं। नजरें तो पहले से ही नीची थीं। अब बोलती भी बन्द हो गई। लेकिन मन के कोने-कचारे से हिम्मत बटोर कर, हँसते हुए बोली - ‘कई कराँ बई! जब सासजी टी सरट पेन ले तो लाड़्याँ ने भी सलवार-सूट पेननो पड़े।’ (क्या करें बई? जब सासूजी टी-शर्ट पहन लें तो बहुओं को भी सलवार-सूट पहनना पड़ता है।) वीणाजी ने तो सहज भाव से (केवल कहने के लिए) कहा था लेकिन ‘बई’ मानो झपाक से बुझ गईं। उनके, गोरे-चिट्टे, गोल-मटोल चेहरे पर विवशता, पीड़ा, करुणा छा गई। बड़ी ही मुश्किल से बोली - ‘कई कराँ बई! बीमारी जो नी करावे कम हे।’ (क्या करें! बीमारी जो न कराए, कम है।) सास-बहू का सम्वाद तो पूरा हुआ लेकिन कमरे का माहौल सामान्य होने में थोड़ा वक्त लगा।

दीपावली के बाद ‘बई’ जैसे ही बेहतर हुईं, सबसे पहला फैसला सुनाया - ‘मूँ यो सरट ने पाजामो नी पेरूँगा। मने साड़ी पेराओ।’ (मैं यह शर्ट और पायजामा नहीं पहनूँगी। मुझे साड़ी पहनाओ।) सुमित्रा भाभी जोर से हँस दीं। ‘सखी’ से ठिठोली की - ‘इत्ती भी कई जलदी हे? इन कपड़ाँ माँ भी आप घणा रुपारा लागी रिया हो।’ (इतनी भी क्या जल्दी है। इन कपड़ों में भी आप बहुत सुन्दर लग रही हैं।) एक सखी ने दूसरी सखी की शरारत पहचानी। जवाब आया - ‘तम भी सुमितरा! तमने तो रोर करवा को मोको मिलनो चइये! रोर बाद में करजो दरी! पेलाँ मने साड़ी पेनावो।’ (तुम भी सुमित्रा! तुम्हें तो ठिठोली करने का मौका मिलना चाहिए। ठिठोली बाद में करना। पहले मुझे साड़ी पहनाओ।) 

गए अठवाड़े हम दोनों फिर इन्दौर में थे। ‘बई’ से मिलना ही था। बीस दिसम्बर की दोपहर ‘बई’ के पास पहुँचे। वे बिस्तर पर जरूर थीं लेकिन लेटी हुई नहीं, बैठी हुई। देखकर कोई कह नहीं सकता था कि वे बीमार हैं। एकदम ताजादम। आवाज की खनक अपने मुकाम पर लौट आई थी। वीणाजी इस बार भी सलवार-सूट में थीं। हम दोनों ने जोड़े से पाँव छुए। दिपदिपाते चेहरे, जग-मगाती आँखों और टपकती शहतूतों जैसी वाणी से ‘बई’ ने असीसा। पाँव छूकर खड़े होते-होते वीणाजी ने चुहल की - ‘यो कई बई! मूँ तो वसी की वसी सलवार-सूट में अई। पण आपने पईजामो ने सरट उतारी द्यो?’ (बई! यह क्या? मैं तो उसी तरह सलवार-सूट में आई लेकिन आपने तो पायजामा और शर्ट उतार दिया?) ‘सास’ को मानो ‘बहू’ के इस ‘वार’ का पूरा-पूरा अनुमान था। गौतमपुरा की पटेलन की तरह तनकर, दर्पभरी वाणी में तपाक से बोलीं - ‘तम भलेऽई कई भी को ने कई भी पेरो। पण भारतीय नारी की सोभा तो साड़ी में ईऽज हे।’ (तुम भले ही कुछ भी कहो और कुछ भी पहनो। लेकिन भारतीय नारी की शोभा तो साड़ी में ही है।) कह कर ‘बई’ ने तनी हुई गर्दन हम चारों के चेहरों पर घुमाई। पूरा कमरा मानो अनूठे उजास से भर गया हो। हम चारों के साथ खुद ‘बई’ भी अपनी ही बात पर सन्तोषभरी हँसी, हँसी।

अचानक ही सुमित्रा भाभी ने मानो छुपा दाँव चला। दबी-दबी मुस्कान से, चुहल करती हुई बोलीं - ‘या बात तो आपने सई की बई के भारतीय नारी की सोभा साड़ी में हे। पण अपनी मुन्नी जीजी भी अब सलवार-सूट पेनवा लाग्या। वाँ भारतीय नारी की सोभा काँ गई?’ (यह बात तो बई! आपने सही कही कि भारतीय नारी की शोभा साड़ी में है। लेकिन अब तो अपनी मुन्नी जीजी भी सलवार-सूट पहनने लगी हैं। वहाँ भारतीय नारी की शोभा कहाँ गई?) (‘मुन्नी जीजी, याने ‘बई’ की बेटी याने कि धर्मेन्द्र की बहन और सुमित्रा भाभी की ननद। रतलाम में रहती हैं और पोतों के साथ खेल रही हैं।) मैं सहम गया। बेटी किसी भी माँ की सबसे बड़ी कमजोरियों में से एक होती है! मैंने देखा, धर्मेन्द्र भी असहज था। लेकिन हमारी ‘बई’ तो आखिर ‘बई’ थी। ठठाकर बोली - ‘हाँ। म्हारे मालम हे। इनी वास्ते केई री हूँ। अबे भारतीय नारी की सोभा छूला में गी।’ (हाँ। मुझे मालूम है। इसीलिए कह रही हूँ। अब भारतीय नारी की शोभा चूल्हे (भाड़) में गई) ‘बई’ का यह कहना था कि मानो कमरे में बम फूट गया हो। हम पाँचों के पाँचों जोर-जोर से हँस रहे थे। इस तरह हँसते हुए ‘बई‘ अब रंच मात्र भी बीमार नजर नहीं आ रही थीं।

ऐसी हैं हमारी ‘बई’, जो इस फोटू में बीच में बैठी नजर आ रही हैं।
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.......और मैंने असल से पहले नकल कर ली

सोमवार, ग्यारह दिसम्बर की सुबह। थक कर चूर था। एक दिन पहले, दस दिसम्बर को छोटे बेटे तथागत का पाणिग्रहण संस्कार सम्पन्न हुआ था। कुछ रस्में बाकी थीं। घर में उन्हीं की तैयारी चल रही थीं। थक कर बैठने की छूट नहीं थी। मुझ जैसे आलसी आदमी को सामान्य से तनिक भी अधिक कामकाज झुंझलाहट और चिढ़ से भर देता है। मैं इसी दशा और मनोदशा में था। तभी फोन घनघनाया। चिढ़ और झुंझलाहट और बढ़ गई। बेमन से फोन उठाया। उधर
से भाई अनिल ठाकुर बोल रहे थे। वे रतलाम से हैं और इन दिनों पुणे में हैं। वे क्षुब्ध और आवेशित थे। उन्होंने जो खबर दी उससे मेरी थकान, झुंझलाहट, चिढ़, सब की सब हवा हो गई। मैं ताजादम हो, हँसने लगा। मेरी इस प्रतिक्रिया ने अनिल भाई को चिढ़ा दिया। बोले - ‘मेरी इस बात पर आपको गुस्सा आना चाहिए था। नाराज होना चाहिए था। लेकिन आप हैं कि हँस रहे हैं! यह क्या बात हुई?’ मैंने कहा - ‘क्यों न हँसू भला? आपको नहीं पता, आपने इस जर्रे को हीरे में तब्दील हो जाने की खबर दी है।’ फिर मैंने उन्हें कवि रहीम का यह दोहा सुनाया -

रहीमन यों सुख होत है, बढ़त देख निज गोत।
ज्यों बढ़री अँखियन लखिन, अँखियन को सुख होत।।’

मेरा जवाब सुन अनिल भाई अपना गुस्सा, अपना क्षोभ भूल गए। बोले - ‘पहले तो इस दोहे का अर्थ बताइए और फिर बताइए कि मेरी बात का इस दोहे से क्या लेना-देना?’ मैंने जवाब दिया - ‘आपकी बात सुन कर मुझे ठीक वैसा ही सुख हुआ जैसे किसी की बड़ी आँखें (मृग-लोचन) देख कर बड़ी आँखों वाले को और अपनी गोत्र वृध्दि होने पर किसी को होता है। यही इस दोहे का अर्थ भी है। आज आपने मेरी गोत्र वृद्धि की ही खुश खबर दी है।’

वस्तुतः हुआ यह कि अनिल भाई ने, पुणे के हिन्दी दैनिक ‘आज का आनन्द’ के, रविवार दस दिसम्बर के अंक में, अखबार के मालिक और सम्पादक श्री श्याम ग्यानीरामजी अग्रवाल का ‘जिंदगी में न्याय ही दुनिया का संवर जाना है/मौत तो इंसान के सपनों का बिखर जाना है/जिन्दा रहना है तो मरने का सलीका सीखो/वरना मरने को तो हर आदमी को मर ही जाना है’ शीर्षक आलेख पढ़ा तो उन्हें (अनिल भाई को) लगा कि यह लेख वे पहले भी कहीं पढ़ चुके हैं। उन्होंने खूब सोचा। उन्हें अचानक ही, सात दिसम्बर को प्रकाशित मेरी इस ब्लॉग पोस्ट का ध्यान आया जो सात दिसम्बर को ही भोपाल से प्रकाशित हो रहे दैनिक ‘सुबह सवेरे’ में भी छपी थी। उन्होंने अपना वाट्स एप टटोला और अपने अनुमान को सही पाया। उन्होंने श्यामजी के लेख की स्केन प्रति मुझे भेजी। पढ़ने में मुझे तनिक असुविधा तो हुई लेकिन जैसे-तैसे पढ़ने पर लगा कि अनिल भाई सच ही कह रहे हैं।

‘आज का आनन्द’ पुणे का अग्रणी हिन्दी अखबार है। छियालीस बरसों से निरन्तर प्रकाशित हो रहा है। आठ कॉलम आकार में सोलह पृष्ठों का अखबार है। सारे के सारे सोलह पृष्ठ रंगीन। मोहक साज-सज्जा और आकर्षक ले-आउट। श्यामजी का स्तम्भ सम्भवतः प्रतिदिन छपता है।


यह है वह लेख जिससे अनिल भाई क्षुब्ध हुए

एक ही विचार/भाव भूमि पर एकाधिक रचनाएँ, लेख मिलना बहुत ही स्वाभाविक है। लेकिन शब्द चयन, वाक्य विन्यास, घटनाओं/सन्दर्भों का ब्यौरा शब्दशः समान हो और घटनाक्रम भी जस का तस हो, ऐसा तो कभी होता ही नहीं। लेकिन श्यामजी के लेख में ऐसा ही हुआ। उनका लेख पढ़कर मुझे लगा कि  मैंने श्यामजी के लिखने के तीन दिन पहले ही उनकी नकल कर ली है। मुझे अतीव प्रसन्नता हुई - ‘चलो! मैं भी ठीक वैसा ही सोचता हूँ जैसा कि छियालीस बरसों से छप रहे प्रतिष्ठित और लोकप्रिय दैनिक अखबार का प्रधान सम्पादक सोचता है।’ और यह भी कि यह जर्रा (याने कि मैं) खुद के हीरा होने का आत्म-मुग्धता भरा मुगालता तो पाल ही सकता है।

मैंने मन ही मन, श्यामजी को धन्यवाद दिया। उन्होंने मेरी बात को न केवल रेखांकित किया बल्कि उस पर अपना ठप्पा लगाकर ‘गुणवत्ता प्रमाणीकरण’ (क्वालिटी सर्टिफिकेशन) भी कर दिया। उसे विस्तारित किया, यह मेरे लिए अतिरिक्त उत्साहजनक कारक है। उम्मीद है, वे मुझ पर इसी तरह नजर बनाए रखेंगे और इसी तरह मेरा उत्साह बढ़ाते रहेंगे।

मेरी बातें सुनकर (अब) अनिल भाई भी ठठा कर हँसे। बोले - ‘आप बार-बार खुद के आशावादी और सकारात्मक होने का जो दावा करते हैं, वह आज समझ में आया। मैं बेकार ही दुःखी हुआ। अब मैं भी इसका मजा लूँगा। चलिए! लगे हाथों तथागत की शादी की और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर लेने की बधाइयाँ कबूल कीजिए।’

हमारी बात यहीं ठहर गई और मैं अपनी थकान, झुंझलाहट, चिढ़ भूल कर, पूरी तरह ताजादम हो, शादी के बाकी काम निपटाने में लग गया। (इसके लिए अतिरिक्त धन्यवाद श्यामजी!)
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प्रकाशन से पहले ही आ गई टिप्पणी

जब मैं यह सब लिख रहा था तो मेरा बड़ा बेटा वल्कल मेरे
पास ही बैठा हुआ, शादी के बाकी काम निपटाने में लगा हुआ था। सारी बात जानकर उसने टिप्पणी की - ‘पापा! यह सब जानकर आप खुश हुए। यह मुझे अच्छा लगा। ऐसे ही बने रहिएगा। साहित्यिक हलकों के कई लोग ब्लॉग दुनिया से जुड़े नहीं हैं। ऐसे अनेक लोग डिजिटल माध्यमों से भी जुड़े नहीं हैं। इतना पुराना अखबार जब अपने ढंग से ब्लॉग पर प्रकट विचारों को विस्तारित, प्रतिध्वनित करता है तो न केवल ब्लॉगर का हौसला बढ़ाता है अपितु ब्लॉग के विस्तारण में भी अपना योगदान देता है।’
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देखें! कौन अधिक क्रूर! अधिक निर्मम!

पुंजालाल और लोकेश समझ नहीं पा रहे हैं कि उन्हें किस अपराध का दण्ड मिला। दोनों सगे भाई हैं। पुंजालाल बड़ा और लोकेश छोटा। बड़ा इक्कीस बरस का और छोटा  बीस बरस का। रतलाम से पचास किलो मीटर दूर, तहसील मुख्यालय बाजना के गाँव सालरडोजा के निवासी हैं। सन् 2007 में बीमारी में पिता चल बसा। 2010 में, मजदूरी करते हुए, एक निर्माणाधीन मकान की दीवार गिरने से माँ दब मरी। तब पुंजालाल चौदह बरस का और लोकेश तेरह बरस का था। स्कूल के उद्घाटन के लिए, 2010 में मुख्यमन्त्री शिवराजसिंह चौहान बाजना पहुँचे। गाँव वालों ने दोनों आदिवासी किशोरों की दशा उनके सामने रखी। द्रवित होकर उदार हृदय मुख्यमन्त्री ने घोषणा की कि दोनों भाइयों की पढ़ाई का खर्चा सरकार उठाएगी और दोनों को पाँच-पाँच हजार रुपये प्रति वर्ष दिए जाएँगे। खूब तालियाँ बजीं। सचित्र समाचार छपे। 

पुंजालाल और लोकेश बहुत खुश हुए। उन्हें लगा, उनके दुःखों का अन्त हो गया है। नई जिन्दगी के रास्ते खुल गए हैं। लेकिन उन्हें पता नहीं था कि जब वे ऐसा सोच रहे थे तो दुर्देव हँस रहा था। सात बरस हो गए। अब तक कुछ नहीं मिला। पटवारी का कहना है कि उसने तो हाथों-हाथ प्रकरण तहसीलदार को पेश कर दिया था। उसके बाद क्या हुआ, उसे नहीं पता। उसे तो क्या, किसी को कुछ नहीं पता। बात कलेक्टर तक पहुँची तो जवाब मिला - हर बरस नहीं दे सकते। एक बार दे सकते हैं। अधिकतम दस हजार रुपये। दे देंगे। लेकिन वो भी नहीं मिले। 

दोनों भाई पढ़ना चाहते थे। मुख्यमन्त्री की घोषणा ने उनकी चाहत को पंख लगा दिए थे। लेकिन भरोसे में मारे गए। औंधे मुँह जमीन पर आ गिरे। किसी को काई फर्क नहीं पड़ना था। नहीं पड़ा। आदिवासी का मामला है। ऐसा तो होता ही रहता है। न तो पहली बार हुआ न ही आखिरी बार हुआ है। मुख्यमन्त्री की घोषणा के बाद 2014 के विधान सभा चुनाव हो गए। अब 2019 के चुनाव सामने हैं। वे भी हो ही जाएँगे और यदि सब कुछ सामान्य रहा तो शिवराजसिंह एक बार फिर मुख्य मन्त्री बन जाएँगे। लेकिन पुंजालाल और लोकेश तब तक नई घोषणाओं के अम्बार में दब चुके होंगे।

लोकेश पढ़ाई जारी नहीं रख सका। पुंजालाल ने हिम्मत नहीं हारी। कभी मजदूरी की, कभी वेटर का काम किया। बी. ए. कर लिया। अब पी.एस.सी की तैयारी कर रहा है। अब उसे समझ (याने की ‘अकल’) आ गई है। जो भी करना है, उसे ही करना है। सालरडोजा और बाजना में भाजपाई भी हैं और काँग्रेसी भी। सब उसके नाम पर राजनीति करते हैं। मदद कोई नहीं करता। उसकी मदद कर देंगे तो मुद्दा खतम हो जाएगा। वोट नहीं मिलेगा। उसे मदद नहीं मिलेगी तो वोट की रोटी सिकती रहेगी। अफसरशाही/नौकरशाही को तो कभी सोचना ही नहीं था। जब खुद मुख्यमन्त्री को और उनकी पार्टी के लोगों को चिन्ता नहीं तो इन्हें क्या पड़ी है? अनगिनत पुंजालाल और लोकेश मरें या जीएँ, इनके ठेंगे से।

राजनेताओं और अफसरों/नौकरों में कौन सी प्रतियोगिता चल रही है? एक-दूसरे को खुद से अधिक निर्मम, अधिक क्रूर, अधिक गैर जिम्मेदार साबित करने की? एक-दूसरे का उपयोग कर अपना उल्लू सीधा करने की? एक-दूसरे की फजीहत करने की? या फिर यह कि देखें! कौन लोगों को अधिक बेहतर ढंग से ठग सकता है?

प्रधानमन्त्री मोदी ने ‘उज्ज्वला योजना’ शुरु की थी। करोड़ों रुपये इसके प्रचार के लिए खर्च किए गए। इसे मोदी सरकार की युगान्तरकारी, क्रान्तिकारी योजना साबित करनेवाले, पूरे-पूरे पृष्ठों के विज्ञापन अभी भी अखबारों में नजर आते हैं। कहा जाता है कि करोड़ों देहाती गृहिणियों को गीली लकड़ियों के धुँए से मुक्ति दिलाई गई। योजना को इस तरह पेश किया गया मानो देहाती गृहिणियों को सब कुछ मुफ्त में दे दिया गया। लेकिन हकीकत कुछ और ही किस्सा बयान कर रही है। मेरे कस्बे के गैस विक्रेता बता रहे हैं कि उज्ज्वला योजना के सिलेण्डरों की बुकिंग में चालीस प्रशित की कमी आ गई है। सरकार के और गैस विक्रेताओं के कारिन्दे गाँव-गाँव जाकर समझा रहे हैं लेकिन बुकिंग नहीं बढ़ रही। लोग कहते हैं कि एक सिलेण्डर की कीमत आठ सौ रुपये एकमुश्त उनके पास नहीं है। उन्हें सबसीडी की रकम भी नहीं मिल रही। सारी की सारी रकम, गैस कनेक्शन के डिपाजिट की रकम के रुप में काटी जा रही है। याने कि गैस कनेक्शन मुफ्त नहीं है। एक दिक्कत और। गैस एजेन्सियाँ गाँवों में सिलेण्डर नहीं पहुँचातीं। एजेन्सियों के गोदामों से सिलेण्डर उठाने पड़ते हैं। इसमें वक्त भी लगता है और खर्च भी आता है। लिहाजा, एक बार सिलेण्डर लेने के बाद लोग पलट कर नहीं देख रहे। गीली लकड़ियों के धुँए से आँखें मसलते हुए चूल्हा फूँकना उन्हें अधिक अनुकूल लग रहा है। उपलब्धियों के विज्ञापन छप रहे हैं, गीली लकड़ियों का उपयोग बढ़ रहा है, गैस सिलेण्डरों की बुकिंग कम होती जा रही है। ‘उज्ज्वला’ दम तोड़ कर ‘तिमिरा’ बनती जा रही है। लेकिन  न सत्ता को परवाह है न प्रतिपक्ष को और न ही अफसरशाही/नौकरशाही को। कभी किसी मालवी कवि ने कहा था - ‘चलवा दो यो को ढर्रो। खाता रो घूस, पीता रो ठर्रो।’

मुख्यमन्त्री शिवराजसिंह चौहान की भावान्तर योजना इन दिनों खूब चर्चा में है। मुख्यमन्त्री को आकण्ठ विश्वास है कि इस योजना को पूरा देश अपनाएगा। लेकिन जमीनी वास्तविकता मुख्यमन्त्री के विश्वास पर विश्वास नहीं करने दे रही। घोषणा होते ही इसका सीधा अर्थ लगाया गया था - किसान को मिले मूल्य और न्यूनतम मूल्य के अन्तर की रकम किसान को दे दी जाएगी। लेकिन ‘जन्नत की हकीकत’ कुछ और ही निकली। योजना के विस्तृत ब्यौरे सामने आए तो ‘मॉडल मूल्य’ अचानक ही बीच में पैदा हो गया और किसान माथे आ गए। हालत यह हो गई कि जिनके लिए योजना बनी, वे ही फायदा लेने से बिचकने लगे। जिन किसानों ने ‘भागते भूत की लंगोटी भली’ की तर्ज पर योजना कबूल की तो उन्हें समय पर पैसा नहीं मिला। और जब मिला तो गेहूँ का तो मिल गया लेकिन एक महीना बीतने के बाद भी उड़द का नहीं मिला। मण्डी प्रशासन कह रहा कि वह तो देने को उतवाला बैठा है लेकिन किसानों के खातों की जानकारी नहीं मिल रही। देनेवाला उतावला, लेनेवाला उससे ज्यादा उतावला लेकिन भावान्तर है कि टस से मस होने को तैयार नहीं। यहाँ भी न नेता को फर्क पड़ रहा है न अफसरों/नौकरों को। जिसे फर्क पड़ रहा है, उसे पड़ता रहे। कोई फर्क नहीं पड़ता। ऐसा तो सनातन से चला आ रहा है। प्रलय तक चलता रहेगा।

लगता है, लोकतन्त्र के दो खम्भों (विधायिका और कर्यपालिका) ने अपनी-अपनी स्वतन्त्र, सार्वभौम दुनिया बना ली है। दोनों में जनविरोधी दुरभिसन्धी हो गई है - ‘तू मुझे जिन्दा रख, मैं तुझे जिन्दा रखूँ।’ दोनों ही अपने समर्थकों के कन्धों पर चढ़कर कुर्सियों पर काबिज हैं और विरोधियों से मिल कर राज कर रहे हैं।

रही बात जनता की तो उसकी क्या परवाह करनी! वह तो है ही इसी काबिल! और हो भी क्यों नहीं? जो लोग बेरोेजगारी, भ्रष्टाचार, रोटी-कपड़ा-मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, विषमता, अन्याय, शोषण जैसे आधारभूत मुद्दों के मुकाबले धर्म, जाति, मन्दिर-मस्जिद, लव जिहाद, तीन तलाक, लव जिहाद जैसी बातों को प्राथमिकता देते हों, इनके लिए मरने-मारने पर उतारू हों, वे इसी दशा के, इसी व्यवहार के काबिल हैं। 

अपना यह वर्तमान हम ही बुन रहे हैं। लेकिन भूल रहे हैं कि यही हमारे बच्चों के भविष्य की नींव भी बन रहा है।
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‘सुबह सवेरे’ (भोपाल), 07 दिसम्बर 2017



जिन्दा रहने की शर्त - मालिक से मजदूर बन जाओ

कोई अट्ठाईस-तीस बरस का वह नौजवान पत्रकार बहुत व्यथित है। गाँव का है। खेती बहुत कम है। काम के लिए ‘शहर’ आया है। एक अखबार के दफ्तर में बैठता है। अपना मोबाइल मेरी ओर बढ़ाते हुए कहता हे - ‘देखिए! सरकार ने किसानों की क्या हालत बना दी है।  भीख माँगने की सलाह दे रही है। कोई बोलने वाला नहीं।’ वह एक वीडियो शुरु कर देता है - एक आदमी किसानों से घिरा हुआ है। एक किसान फसल का वाजिब मूल्य न मिलने की शिकायत कर रहा है। जवाब में आदमी सलाह दे रहा है - ‘सरकारी भाव से असन्तुष्ट हो तो मनरेगा में मजदूरी कर लो या फिर सरपंच का चुनाव लड़ लो। उसमें ज्यादा फायदा है।’ कह कर अफसर आगे बढ़ जाता है। सारे किसान उसे हैरत से, बेबस, टुकुर-टुकुर देखते रह जाते हैं। नौजवान कहता है - ‘ये राधेश्याम जुलानिया है। चीफ सेक्रेटरी रेंक का है।’ मैं चौंकता हूँ। इतना बड़ा अफसर इतना असम्वेदनशील, क्रूर हो सकता है! मैं लाचार निगाहों से नौजवान को देखता हूँ। वह कहता है - ‘मैं जानता हूँ, आप कुछ नहीं कर सकते। तकलीफ यह है कि जो लोग कुछ कर सकते हैं वो भी कुछ नहीं कर रहे। न तो रूलिंग पार्टी के लोग कुछ बोल रहे हैं न ही अपोजीशन के। मन्त्री भी चुप है और कलेक्टरों को उल्टा टाँगनेवाला मुख्यमन्त्री भी। वो भी जुलानिया से सहमत है। किसान की बात सुनने का टाइम किसी को नहीं। किसान जबरदस्ती सुनाता है तो उसे यह सलाह मिलती है। बस! यही कहने आया था।’

नौजवान चला गया। लेकिन अब मैं क्षुब्ध हूँ। कुछ न कर पाने की अपनी लाचारी पर गुस्सा आ रहा है। मैं किसानी से सीधा तो नहीं जुड़ा लेकिन खेतों-किसानों के बीच खूब रहा हूँ। खलिहानों में गीत गाते, लोक कथाएँ सुनते अनगिनत रातें गुजारी हैं। फसलों के दाने निकालने के लिए दावन और सिंचाई के लिए चड़स खूब हाँकी है। किसानों का दुःख-दर्द बहुत पास से देखा है। इसीलिए राधेश्याम जुलानिया की सलाह बरछी की तरह चुभ रही है। जुलानिया के नाम से अनुमान लगा रहा हूँ, इस आदमी की जड़ें भी देहात में ही हैं। गाँव के कष्ट भली प्रकार जानता ही होगा। लेकिन अफसर बनने के बाद देहातों और देहातियों से इस आदमी को कष्ट होना लगा है। मुझे ताज्जुब नहीं हुआ। राधेश्याम जुलानिया एक नाम नहीं, पूरा एक वर्ग है। मैं पाँच-सात ऐसे आईएस अफसरों को जानता हूँ जिनका बचपन चरम विपन्नता में बीता। माँ-बाप ने मजदूरी करके, रात-रात भर सिलाई करके इन्हें पढ़ाया, अफसर बनाया। लेकिन अफसर बनते ही ये गरीब और गरीबी को भूल गए। इनसे चिढ़ने भी लगे और निर्मम, निष्ठुर, क्रूर हो, आर्थिक अत्याचार करने लगे। ये सबके सब राधेश्याम जुलानिया ही हैं।

स्कूल मेें मास्साब बताते थे - ‘अपना भारत गाँवों का, कृषि प्रधान देश है। अस्सी प्रतिशत लोग गाँवों में रहते हैं।’ ग्राम्य सौन्दर्य का वर्णन करते-करते नारा लगवाते - ‘कहाँ है भारत देश हमारा?’ हम पूरी ताकत से कहते - ‘वो बसा हमारे गाँवों में।’ मैं आँकड़े खँगालने लगता हूँ - 1951 में हमारी जन संख्या 36,10,88,400 थी। 80 प्रतिशत के मान से लगभग 29 करोड़ लोग गाँवों में रहते थे। 2011 में हम 1,21,01,93,422 हो गए। इनमें से लगभग साढ़े 83 करोड़ लोग गाँवों में रहते हैं। याने लगभग 69 प्रतिशत। साठ बरस में हमारी ग्यारह प्रतिशत आबादी ने गाँव छोड़ दिए। अपना गाँव, अपनी जमीन, अपना घर छोड़ते हुए इन लोगों पर क्या गुजरी होगी? पलायन का यह क्रम बना हुआ है। गाँव कम हो रहे हैं, शहरों में झुग्गी-झोंपड़ियाँ बढ़ती जा रही हैं। और शहरों में इनकी दशा क्या है? बजबान अदम गोंडवी -

यूँ खुद की लाश अपने काँधें पर उठाए हैं
ऐ शहर के बाशिन्दों! हम गाँव से आए हैं

ग्राम रायपुरिया निवासी, स्व. ईश्वरलालजी पालीवाल रतलाम के जाने-माने वकील थे। खाँटी समाजवादी थे। बाद में काँग्रेसी हो गए थे। ‘भारत एक कृषि प्रधान देश है।’ से उन्हें बहुत चिढ़ थी। कहते थे - “इसने किसानों का बहुत नुकसान किया है। ‘कृषि’ के नाम पर सेठों की तिजोरियाँ भर रही हैं। किसान भिखारी हो रहा है। इस नारे को बदलो और ‘भारत कृषक प्रधान देश है।’ पर अमल करो।” अन्तर पूछने पर कहते थे - ‘किसानी अधारित नीतियों का फायदा केवल पूँजीपतियों को मिलता है। नीतियाँ ‘किसान आधारित’ होंगी तभी किसानों को दो पैसे मिलेंगे।’ चौंकानेवाली बात यह कि ऐसी बातें करनेवाले पालीवाल सा‘ब खानदानी धनाढ्य किसान थे। फार्म हाउसों के मालिक किसान नहीं होते लेकिन आय-कर की छूट से मालामाल होते हैं और किसान कर्जदार होकर आत्महत्या करता है। 1992 में देश के 25 प्रतिशत किसान परिवार कर्जदार थे जो 2016 में बढ़कर 89 प्रतिशत हो गए। कुछ राज्यों में यह प्रतिशत 93 है। ग्रामीण जनसंख्या दिनों दिन कम हो रही है और आत्म हत्या करनेवाले किसानों की संख्या वर्ष-प्रति-वर्ष बढ़ती जा रही है। पालीवाल वकील सा‘ब की बात समझ में आती है।

दमोह के केएन कॉलेज के, अर्थशास्त्र के सहायक प्राध्यापक डॉ. तुलसीराम दहायत ने अपने साथी डॉ. केशव टेकराम के साथ तीन वर्ष तक बुन्देलखण्ड के किसानों का जमीनी अध्ययन कर ‘कृषक संकट और समाधान’ शीर्षक किताब लिखी है। इसके अनुसार ऋण-ग्रस्तता और साहूकार की प्रताड़ना किसानों का सबसे बड़ा संकट है। किसान क्रेडिट कार्ड से ऋण लेता है, जमीन गिरवी रखता है लेकिन प्राकृतिक आपदा से फसल नष्ट हो जाती है। किसान सूदखोंरों के चंगुल में फँसता चला जाता है। वह अपने मान-सम्मान से समझौता नहीं करता। आत्म-हत्या कर लेता है। दस-बीस हल-बैल जोड़ीवाला बड़ा किसान ट्रेक्टर से खेती कर रहा है और एक हल-बैल जोड़ीवाला किसान, उसके यहाँ मजदूरी कर रहा है। ‘कृषि’ फल-फूल रही है। ‘कृषक’ आत्म-हत्या कर रहा है।

खेती-किसानी का महिमा-मण्डन करते हुए किताबें कहती थीं - ‘उत्तम खेती, मध्यम बान। अधम चाकरी, भीख निदान।’ आज तस्वीर एकदम उलट है। ‘उत्तम’ को ‘अधम’ होने की सलाह दी जा रही है। मजदूर बढ़ रहे हैं, मजदूरी कम होती जा रही है। मजदूर मण्डियों में रोज पचासों मजदूर, मजदूरी न मिलने से निराश हो कर लौटते हैं। जिसे ‘चाकरी’ भी न मिले वह क्या करे? भीख माँगे या आत्म-हत्या कर ले।

डी. पी. धाकड़ मेरे जिले के जिला पंचायत के उपाध्यक्ष हैं। पर्याप्त अन्तराल से हुई, जिला पंचायत की, एक के बाद एक हुई बैठकों में उन्होंने पाया कि पंचों के फैसलों का क्रियान्वयन नहीं हो रहा और पूछने पर अफसर, किसान प्रतिनिधियों का मजाक उड़ाते हैं। एक शनिवार को उन्होंने घोषणा की - ‘अब हम लोगों के बीच जाकर इन अफसरों का मजाक उड़ाएँगे।’ असर यह हुआ कि अगले दिन रविवार होने के बावजूद, पंचों के फैसलों पर क्रियान्वयन शुरु हो गया।

यही किसानों की  मुक्ति का रास्ता है। हमारी राजनीति किसान केन्द्रित होनी चाहिए। किसान ही राष्ट्रीय नीति निर्धारण का नायक और लक्ष्य होना चाहिए। लेकिन यह बात किसानों को ही समझनी पड़ेगी। दलगत राजनीति केवल वोट देने तक ही रहनी चाहिए। उसके बाद तो वह किसान केन्द्रित ही होनी चाहिए। अपनी समस्याओं के निदान के लिए उन्हें ‘किसान नीति’ अपनानी पड़ेगी। उन्हें समझना होगा कि प्राकृतिक आपदा से भाजपाई और काँग्रेसी किसान को समान नुकसान होता है। दलगत राजनीति उनका भला कभी नहीं करेगी। जिस दिन किसान यह ‘किसान नीति’ अपना लेंगे उस दिन से, पाँच साल में एक बार मुँह दिखाने वाले तमाम नेता उनके दरवाजों पर चाकर की तरह खड़े और सारे के सारे राधेश्याम जुलानिया अपना वेतन पाने के लिए गुहार लगाते नजर आएँगे।
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दैनिक 'सुबह सवेरे',  भोपाल,  30 नवम्‍बर 2017



कानून का राज: राज का कानून

अपनी रिपोर्ट लिखवाने के लिए भोपाल की बालात्कार पीड़ीता को तीन थानों के चक्कर लगाने पड़े। पूरे चौबीस घण्टों के बाद उसे सफलता मिल पाई। यह, कोई अनोखी घटना नहीं। लेकिन इस मामले में यह महत्वपूर्ण है कि इस बच्ची के माता-पिता, दोनों ही पुलिसकर्मी हैं। तीनों थानों के कर्मचारी भी यह बात जानते ही होंगे। इसके बाद भी, अपने ही सहकर्मी की बेटी की रिपार्ट लिखने को कोई तैयार नहीं हुआ। इंकार करनेवाला प्रत्येक पुलिसकर्मी भली प्रकार जानता रहा ही होगा कि उसके इंकार की सजा उसे मिल सकती है। इसके बाद भी रिपोर्ट नहीं लिखी गई। इसके पीछे वास्तविक कारण तो इंकार करनेवाले ही जानते होंगे लेकिन एक कारण, कर्मचारियों के मन में बैठा यह भय जरूर रहा होगा कि कोई ‘जबरा आदमी’ इस काण्ड से जुड़ा हुआ निकल आया तो उसकी नौकरी पर बन आएगी। हमारा  कानून शकल देखकर तिलक निकालता है।

वर्णिका कुण्डू का मामला जिस तेजी से उछला था, उससे अधिक तेजी से नेपथ्य में चला गया है। वर्णिका के आईएएस पिता कानून जानते हैं। इसीलिए अपनी हदें भी जानते हैं। कानून ने वर्णिका की कितनी सहायता की, यह भले ही किसी को नजर न आया हो किन्तु कानून के तहत वर्णिका के पिता का तबादला सबको नजर आया। कानून ने अभी अपनी इतनी ही जिम्मेदारी निभाई है। बाकी जिम्मेदारी कैसे निभानी है, यह बाद में देखा जाएगा।   

पत्रकार विनोद वर्मा को पुलिस ने रात तीन बजे उनके दिल्ली स्थित निवास से गिरफ्तार कर लिया। किसी ने उनकी नामजद शिकायत नहीं की, न ही किसी एफआईआर में उनका नाम है और न ही पुलिस, अदालत में उनके विरुद्ध अब तक कोई पुख्ता दस्तावेज पेश कर पाई है। विनोद वर्मा फिलहाल 27 नवम्बर तक न्यायिक हिरासत में हैं। माना जा रहा है कि छत्तीसगढ़ के एक ‘जबरे’ मन्त्री की कोई ऐसी सीडी वर्मा के पास है जिसमें इस मन्त्री के कपड़े उतरे हुए हैं और यह सीडी इस मन्त्री को कुर्सी से उतार सकती है। अन्देशे का मारा कानून स्वस्फूर्त भाव से सक्रिय बना हुआ है।

एक देहाती मेले के उद्घाटन समारोह में रतलाम ग्रामीण विधान सभा क्षेत्र के विधायक ने बन्दूक से हवाई फायर किया। कानून में ऐसा करने की अनुमति नहीं है। लेकिन बन्दूक का धमाका कानून को सुनाई नहीं दिया, न ही अखबार में छपा फोटू और समाचार देखने में आया। यह संयोग ही है कि विधायकजी सत्तारूढ़ दल के हैं। 

कोई आठ-दरस बरस पहले, वेलेण्टाइन डे पर मेरे कस्बे के बजरंगियों ने भारतीय संस्कृति बचाने के पराक्रम में ऐसा कुछ कर दिया था कि उनमें से कुछ को पुलिस ने थाने में बैठा लिया। मेरे प्रिय मित्र विष्णु त्रिपाठी तब भाजपा के प्रभावशाली नेता हुआ करते थे। कानून को समझाने में उन्हें थोड़ी मेहनत करनी पड़ी। देर शाम वे कानून को भरोसा दिलाने में कामयाब हो पाए कि ‘कुछ अज्ञात असामाजिक तत्व’ प्रदर्शन में घुस आए थे और उन्हीं ने वह पराक्रम किया था जो बजरंगियों के खाते में जमा किया जा रहा था। और सारे पराक्रमी थाने से बाहर आ गए।

पूर्व केन्द्रीय मन्त्री यशवन्त सिन्हा ने अपनी ही पार्टी को ‘भई गति साँप, छछूंदर केरी’ वाली दशा में खड़ा कर रखा है। पार्टी न निगल पा रही न उगल पा रही। पेरेडाइज पेपर्स में जयन्त सिन्हा के नामोल्लेख ने (यशवन्त) सिन्हा-संतप्तों को मानो संजीवनी बूटी दे दी - बेटे के नाम पर बाप की बोलती बन्द की जा सकेगी। लेकिन एक बेटे के बाप ने दूसरे बाप को उसका बेटा याद दिला दिया। याद दिलाया कि कानून तो सबके लिए एक जैसा होता है। इसलिए ‘पेरेडाइज’ में जगह पानेवाले जयन्त की जाँच के साथ ही, 50 हजार को, चुटकियों में सोलह हजार गुना के पेरेडाइज में बदलने वाले ‘जादूगर-जय’ भी जाँच होनी चाहिए। यशवन्ती-माँग ने कानून को उहापोह में डाल दिया है - ‘माँग सुने या न सुने?’ सुने तो अपनी भी जाँघ उघड़ जाए। न सुने तो बूमरेंग की चोट सहनी पड़े। फिलहाल कानून, अपनी लैंगिक पहचान छुपाए, दुम दबाकर कन्दरा में बैठ गया है। 

अपनी ईमानदारी और कानूनपेक्षी आचरण के लिए ख्यात, हरियाणा के आईएएस अधिकारी अशोक खेमका एक बार फिर स्थानान्तरित कर दिए गए हैं। छब्बीस बरस की नौकरी में यह उनका इक्यावनवाँ तबादला है। याने प्रति छः माह में एक। सरकार काँग्रेसी रही हो या भाजपाई, सबने कानूनी व्यवस्था के अनुसार ही उनका तबादला किया। सारी पार्टियाँ उनकी मुक्त कण्ठ प्रशंसक रही हैं - काँग्रेसी सरकारों में भाजपा और भाजपा सरकारों में काँग्रेस। कानून का सन्देश - जिस अफसर की ईमानादरी की प्रशंसक तमाम पार्टियाँ हों, उसका तबदला हर छः महीनों में किया ही जाना चाहिए। जिनका ऐसा तबादला नहीं किया जाता, उनके (पाक-साफ होने के) बारे में कानून कुछ नहीं कह कर सब कुछ कह देता है। कानून की यही खूबी है।

दरअसल सारा झगड़ा ‘कानून का राज’ और ‘राज का कानून’ को लेकर है। कानून का राज किसी राज को नहीं सुहाता और राज का कानून राज के सिवाय किसी और को नहीं सुहाता। राज के लाभार्थी प्रत्येक समय में मौजूद रहते हैं। परम मुदित मन और अन्ध-भक्ति-भाव से राज के कानून की हिमायत करते रहते हैं। हमारा ‘लोक’ इनसे हर काल में त्रस्त रहता है और इन्हें चाटुकार, चमचे, चापलूस कहता है। कानून का राज चलाने में चैन की नींद सोया जा सकता है, लोक-यश अर्जित किया जा सकता है, दुआएँ ली जा सकती हैं। लेकिन राज की स्वार्थपूर्ति नहीं हो पाती, अपनों को उपकृत नहीं किया जा सकता, मनमानी नहीं की जा सकती। तब ‘राज’ आत्म-मुग्ध हो, उच्छृंखल, उन्मादी, उन्मत्त हो, पागल हाथी की तरह अपनों को ही रौंदने लगता है। इसीलिए हमारा ‘लोक’ लौह महिला इन्दिरा गाँधी, उदार दक्षिणपंथी अटलबिहारी वाजपेयी, सन्त राजनेता मनमोहनसिंह को कूड़े के ढेर पर फेंक देता है। तब राज को सौ जूते भी खाने पड़ते हैं और सौ प्याज भी - जैसा कि अभी-अभी हमने जीएसटी के मामले में देखा है। राज का कानून अपनी ही संस्थाओं की खिल्ली उड़वाता है। सीबीआई कभी काँग्रेस का तो कभी भाजपा का तोता कही जाती है। चुनाव आयोग लोक-उपहास का पात्र बन जाता है। राज का कानून हर बार साबित करता है कि कानून का राज ही एक मात्र और अन्तिम उपाय है। किन्तु वह राज ही क्या जो पथ-भ्रष्ट और मद-मस्त न कर दे! सेवक-भाव सहित राज सिंहासन पर बैठने से पहले चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार करना पड़ता है। वर्ना, सम्पूर्ण सत्ता तो सम्पूर्ण रूप से भ्रष्ट करती ही है। करेगी ही।

जानते तो सब हैं लेकिन कबूल कोई नहीं करता। कोई नहीं मानता। इसीलिए ‘लोक’ सनातन से चेतावनी देता चला आ रहा है - ‘किस मुगालते में हो? राज तो रामजी का भी नहीं रहा और घमण्ड कंस का भी नहीं रहा।’ 

लेकिन कानून का राज हमें भी तो नहीं सुहाता! उसके लिए हम भी तो कीमत चुकाने को तैयार नहीं। और बिना कीमत चुकाए कुछ मिलता नहीं। हम लोग बिना कीमत चुकाए सब कुछ हासिल कर लेना चाहते हैं। इसीलिए हमें कुछ भी हासिल नहीं हो रहा। अपनी यह नियति हमने ही तय की है।
हम सब, अपने खाली हाथों के लिए दूसरों को कोसने में माहिर हैं। इसी में व्यस्त भी हैं और इसी में मस्त भी। लोकतन्त्र में ‘नागरिक’ खुद अपना राजा होता है। लेकिन हम ‘प्रजा’ बन कर खुश हैं। हम ‘नागरिक’ बनेंगे तो ही कानून का राज आ पाएगा। हम कानून के राज में जीएँ या राज के कानून में, यह हमें ही तय करना है
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(दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल, 16 नवम्बर 2017)



दस ग्राम हींग सफेद रही, करोड़ों रुपये काले हो गए

मेरे कस्बे के ‘श्री अन्नपूर्णा अन्नक्षेत्र ट्रस्ट बोर्ड’ द्वारा संचालित वृद्धाश्रम में जो भी एक बार दान देता है, वह आजीवन यहाँ दान देते रहता है। यहाँ दान  के समारोह आयोजित करने, फोटो खींचने की अनुमति नहीं और यहाँ रहनेवाला निःशक्त, निराश्रित यदि भीख माँगता नजर आए तो तत्काल निकाल दिया जाता है। ‘समारात्मक समाचार’ के खोजी पत्रकारों के लिए यह बहुत ही बढ़िया ‘न्यूज स्टोरी’ है। कहने को इसका संचालन एक ट्रस्ट करता है लेकिन वस्तुतः यहाँ का प्रख्यात ‘सुरेका परिवार’ ही इसका संचालन-प्रबन्धन करता है। यहाँ दान की रकम पर आय कर में छूट मिलने का प्रावधान है। आय कर विभाग के सक्षम अधिकारी से इस प्रावधान का नवीकरण कराना पड़ता है। 

कुछ बरस पहले, नवीकरण आदेश प्राप्त करने के लिए सुरेन्द्र भाई सुरेका उज्जैन स्थित आय कर कार्यालय पहुँचे। कोई युवा आईआरएस अधिकारी वहाँ आई-आई ही थीं। उन्हें लगता था कि ऐसे ट्रस्ट काले धन को सफेद करने की दुकानें हैं। सुरेन्द्र भाई को भी उन्होंने इसी नजर से देखा और ट्रस्ट का, पिछले पाँच वर्षों का हिसाब प्रस्तुत करने के लिए अगली तारीख दे दी। निर्धारित तारीख को सुरेन्द्र भाई एक छोटा-मोटा गट्ठर लेकर पहुँचे। अधिकारी के पूछने पर सुरेन्द्र भाई ने कहा कि वे चालीस बरसों का हिसाब लाए हैं। गट्ठर में छपी हुई चालीस किताबें थीं। हर बरस के हिसाब की एक किताब। कुछ के पन्ने पलटने के बाद अधिकारी ने न कुछ देखा, न कुछ पूछा। अपने हेण्ड बेग में से कुछ रुपये निकाले, सुरेन्द्र भाई को थमाए और दफ्तर में मौजूद सारे आय-कर सलाहकारों को आदेशित किया कि वे सब इस ट्रस्ट को अभी ही अपनी-अपनी दान राशि दें। क्योंकि ‘किसी ट्रस्ट का ऐसा व्यवस्थित काम-काज उन्होंने पहली बार देखा है और ऐसे ट्रस्ट को तो मदद करनी ही चाहिए।’ वार्षिक हिसाब की किताब में ‘आठ पुराने कपड़े, पन्द्रह ग्राम चाय-पत्ती और दस ग्राम हींग’ जैसे दान का भी उल्लेख होता है। 

लेकिन, जो अन्नक्षेत्र/वृद्धाश्रम अपने आप में एक सम्पूर्ण समाचार-कथा है, उस पर मैं यह आधी-अधूरी जानकारी क्यों दे रहा हूँ? 

देश में नोटबन्दी की पहली वर्ष गाँठ/बरसी मनाई जा रही है। अखबार सरकारी विज्ञापनों से रंगे पड़े हैं। टीवी चैनलों के पास किसी दूसरे विषय के लिए समय ही नहीं रह गया है। सरकार उपलब्धियाँ गिनवा रही हैं और प्रतिपक्ष, नोटबन्दी की वेदी पर हुई मौतों के आँकड़े। एक दूसरे को परास्त करने में लगे उत्सवी और धिक्कार के मिले-जुले तुमुलनाद से आकाश भरा हुआ है। लेकिन मैं निराश हूँ। नोटबन्दी को लेकर नहीं। उस बात को लेकर जो मेरे हिसाब से लोकतन्त्र के प्रति किये गए सबसे बड़े दुष्कर्मों में से एक,  प्राणघातक प्रहार है। वह न तो किसी अखबार में नजर आ रही है, न किसी चैनल पर और न ही धन्य-धिक्कार के कोलाहल में सुनाई दे रही है। ऐसा स्वाभाविक भी है। जनता के सोचने-विचारने की शक्ति चतुराईपूर्वक, छीन ली गई है। राजनीतिक दलों ने उसे धर्म-जाति, देशभक्ति-राष्ट्रवाद के भ्रामक, अवांछित मुद्दों में उलझा दिया है। लगता है वह कि रोटी-कपड़ा-मकान भी भूल गई है। लोकतन्त्र के साथ किए गए इस दुष्कर्म में तमाम राजनीतिक दल एक-मत हो गए हैं।

राजनीतिक दलों को मिलनेवाला चन्दा देश की सबसे बड़ी चिन्ताओं, समस्याओं में शामिल किया जाना चाहिए। लोकतन्त्र को उसके मूलस्वरूप में लाने हेतु प्रयत्नरत लोग इस मुद्दे को पहले नम्बर पर लाने की कोशिशें कर रहे हैं लेकिन धन-पिशाच उन्हें सफल नहीं होने दे रहे। राजनीतिक दलों को मिलनेवाले चन्दे को सूचना के अधिकार के दायरे में लाने की छोटी से छोटी कोशिश भी उन्हें आँख की किरकिरी लगती है। वे इसे मुद्दा ही नहीं मानते। मौजूदा सरकार से उम्मीद थी कि वह इस मामले में जनभावनाएँ समझेगी और चन्दे को पारदर्शी बनाएगी। लेकिन इसने तो जो किया वह कोढ़ ‘में खाज’ जैसा। बीमारी के उपचार के नाम पर बीमारी से भी अधिक खतरनाक किया। भ्रष्टाचार और कालेधन की समाप्ति मौजूदा सरकार की घोषित सबसे बड़ी चिन्ता, पहली प्राथमिकता रही है। लेकिन कथनी और करनी के अन्तर को देखकर लगता है, देश का लोकतन्त्र बुरी तरह से छला गया। कुछ इस तरह कि चील ने वाद किया कि वह अपने घोंसले में रखे मांस की रक्षा करेगी और देश ने भरोसा कर लिया। दशा कुछ ऐसी हो गई -

बागबाँ ने आग दे दी आशियाँ को जब मेरे,
जिन पे तकिया था वे ही पत्ते हवा देने लगे।

इस सरकार ने राजनीतिक दलों के चन्दे को लेकर जो पाखण्ड किया, वह बेमिसाल है। नगदी चन्दे की सीमा तो घटाई लेकिन ‘इलेक्टोरल बाण्ड’ बॉण्ड का प्रावधान कर लोकतन्त्र की आत्मा ही मार दी। दूसरों की छोड़िए, भारत निर्वाचन आयोग ने इसे ‘अवनतिशील कदम’ (रिट्रोगेटेड स्टेप) कहा। 

यह प्रावधान केवल कार्पोरेट घरानों और राजनीतिक दलों (खासकर सत्तारूढ़ दल) की स्वार्थपूर्ति केे गठजोड़ को मजबूत बनाने की सुविधा उपलब्ध कराता है। इसमें व्यवस्था है कि जो भी (व्यक्ति/संस्थान) ‘इलेक्टोरल बॉण्ड’ खरीदेगा, खरीदी की यह रकम उसकी आय में से कम कर दी जाएगी। यह व्यक्ति/संस्थान अपना (खरीदा गया) इलेक्टोरल बॉण्ड किसी भी दल को दे सकेगा लेकिन किसे दिया है, यह बताना आवश्यक नहीं होगा। चूँकि बॉण्ड पर देनेवाले का नाम नहीं होगा, इसलिए प्राप्त करनेवाला दल भी अपनी हिसाब-बही में देनेवाले का नाम लिखने से मुक्त हो जाता है। इस बॉण्ड की रकम की तो रसीद भी जारी नहीं होगी। इस बॉण्ड के प्रावधान के बाद तो राजनीतिक दलों के चन्दे को सूचना के अधिकार के अधीन लाने के बाद भी मालूम नहीं हो सकेगा कि किसने चन्दा दिया। अब होगा यह कि एक कार्पोरेट घराने ने हजारों करोड़ रुपयों के इलेक्टोरल बॉण्ड खरीदे। यह रकम उसकी आय में से कम हो गई। उसने किस दल को दिए, यह बताना उसके लिए जरूरी नहीं। जिसे मिले, उसने अपने खाते में जमा कराए। लेकिन रसीद नहीं कटी। इसलिए किसी का नाम भी नहीं। यह भी हो सकता है कि कार्पोरेट घराने का कोई कारिन्दा, सीधे ही बैंक में यह बॉण्ड जमा करा दे। उस हालत में राजनीतिक दल भोलेपन से कहेगा - ‘पता नहीं किसने हमारे खाते में जमा कराए।’ पहले चन्दा चेक से जाता था तो जगजाहिर होता था। अब तो ‘देनेवाले भी श्रीनाथजी और लेनेवाले भी श्रीनाथजी’ जैसी स्थिति रहेगी। चन्दा दे भी दिया, ले भी लिया फिर भी सब कुछ गुमनाम। ‘रिन्द के रिन्द रहे, हाथ से जन्नत न गई’ वाला शेर साकार हो गया।

इलेक्टोरल बॉण्ड का यह प्रावधान राजनीति शुचिता और पारदर्शिता की अवधारणा को सिरे से खारिज करता है। निर्वाचन आयोग ने इसे ‘अवनतिशील’ कहा है लेकिन यह वस्तुतः ‘लोकतन्त्र के लिए पतनशील कदम’ है। 

काले धन की एक मात्र परिभाषा है - ‘अज्ञात स्रोतों की आय।’ पानेवाले के पास स्रोत की जानकारी न होना। इस लिहाज से इलेक्टोरल बॉण्ड काले धन के सिवाय और क्या है? काला धन और भ्रष्टाचार परस्पर पर्यायवाची हैं। ये दोनों ही हमारी मौजूदा सरकार के घोषित निशाने पर हैं। लेकिन लगता है, खात्मे के निशाने पर नहीं, पालन-पोषण-पल्लवन-विकास के निशाने पर हैं। हर कोई अपने काले धन को सफेद करने की जुगत में भिड़ा रहता है। लेकिन हमारी सरकार ने सफेद धन को काले धन में बदलने का विलक्षण, ऐतिहासिक काम किया है। 

हमारा देश सचमुच में विविधताओं, विचित्रतताओं, विशेषताओं का देश है। यहाँ पन्द्रह ग्राम चाय पत्ती और दस ग्राम हींग के दानदाता का नाम बतानेवाला आदमी है तो करोड़ों का चन्दा देनेवाले का नाम छुपाने की सुविधा देनेवाले प्रधान मन्त्री-वित्त मन्त्री भी हैं।
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(दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल। 09 नवम्बर 2017)



........और मुझे गुरुद्वारे जाना पड़ा


छः बजनेवाले हैं। साँझ होनेवाली है। जो कुछ मेरे साथ हुआ उसे कोई छः घण्टे हो रहे हैं लेकिन मैं अब तक उससे बाहर नहीं आ पाया हूँ।

सुबह से अच्छा-भला घर में बैठा था। अपना, छोटा-मोटा काम कर रहा था। कुछ भी ऐसा नहीं था कि ध्यान इधर-उधर हो। लेकिन कोई ग्यारह बजे लगा, किसी ने कहा - ‘चलो! गुरुद्वारे हो आएँ।’ मैं चौंक गया। आसपास देखा। नहीं। हम दोनों (पति-पत्नी) के अतिरिक्त घर में कोई नहीं था। मैं दरवाजे तक आया। बाहर देखा। घर के सामने ही नहीं, पूरा मोहल्ला सुनसान था। कोई चिड़िया भी नजर नहीं आ रही थी। आसपास देखते हुए ही अन्दर आया और पूर्वानुसार ही छोटा-मोटा काम निपटाने लगा।

लेकिन अब सब कुछ पूर्वानुसार सहज, सामान्य नहीं था। बार-बार लग रहा था, कोई आवाज दे रहा है। खुद को समझाया - ‘मन का वहम है।’ कुछ पलों तक तो सब ठीक ही ठीक रहा लेकिन उसके बाद अकुलाहट बढ़ने लगी। मैं मन को समझाता रहा लेकिन अकुलाहट बनी रही। बारह बजते-बजते तो कानों में नगाड़े बजने लगे - ‘चलो! गुरुद्वारे हो आएँ।’ हालत यह हो गई कि न काम में मन लगे न कुछ और सोचने में। 

अन्ततः घर से निकला। गुरुद्वारे पहुँचा। मानो यन्त्रवत पहुँचा। उसी दशा में सर पर रूमाल बाँध, प्रवेश किया। अन्दर भजन चल रहे थे। चिर-परिचित भजन ‘एक नूर ते सब जग उपज्या’ गाया जा रहा था। स्त्री-पुरुष हाथ जोड़े बैठे थे। कुछ परिचित चेहरे नजर आए। उन सबने मुझे कौतूहल और अविश्वास से देखा। मैंने, घुटने टेक कर ग्रन्थ साहब को प्रणाम किया। जेब में हाथ डाला। जो नोट हाथ में आया, भेंट पात्र में डाला। उल्टे पाँवों चलते हुए बाहर आया। उसी तरह, यन्त्रवत।

सर से रूमाल उतारते वक्त लग रहा था, किसी का बताया, बड़ा भारी काम कर लिया है। जिम्मेदारी से मुक्त हो गया हूँ। सारी अकुलाहट समाप्त हो गई है। सब कुछ शान्त और सामान्य हो गया है। अब खुल कर साँस ली जा सकती है।
मेरे लिए यह बहुत ही असामान्य अनुभव है। मैं धर्म को नितान्त निजी मामला मानता हूँ। अपना सारा धरम-करम घर के अन्दर ही करता हूँ। अपनी धार्मिक गतिविधियों के सार्वजनीकीकरण से यथासम्भ्वव बचता हूँ। उत्तमार्द्धजी के मनोनुकूल जब भी मन्दिर जाता हूँ तो यथासम्भव इतनी देर से जाता हूँ कि वहाँ पुजारी के अतिरिक्त शायद ही कोई मिले। मेरे घर से साई मन्दिर आधा किलोमीटर से भी कम दूरी पर है। पर याद नहीं आता कि वहाँ कब गया थ। मुझे बेसन की, चाशनी पगी बूँदी (जिसे मालवी में हम लोग नुक्ती/नुगदी कहते हैं) बहुत पसन्द है। साई मन्दिर पर जब भी भण्डारा होता है, वहाँ से अपने लिए बूँदी अवश्य मँगवाता हूँ।

ऐसे में आज का यह अनुभव मुझे अब तक चक्कर में डाले हुए है। केवल मुझ तक पहुँची अनजानी, निराकारी आवाज के अतिरिक्त मुझे एक भी कारण नजर नहीं आ रहा कि मैं गुरुद्वारे जाऊँ। इसका जवाब शायद मनोविज्ञान में ही होगा। खुद को टटोल रहा हूँ तो जवाब मिलता है कि आज गुरु नानक जयन्ती होने की बात और इसी वजह से गुरुद्वारे जाने की बात मेरे अवचेतन में रही होगी। लेकिन अवचेतन की कोई बात इतनी प्रभावी हो सकती है? मैं अपनी अकुलाहट का वर्णन अब भी नहीं कर पा रहा हूँ।

यह चाहे जिस कारण से हुआ, लेकिन मेरे लिए यह अत्यन्त असामान्य अनुभव है।
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देश-भक्ति के 'पर-उपदेश'

पाँच दिवसीय दीपोत्सव समाप्त हो चुका था। अगले दिन छोटी दीपावली थी। मालवा के कस्बाई बाजार छोटी दीपावली तक प्रायः गुलजार ही रहते हैं। लेकिन मेरे कस्बे के सारे बाजारों की अधिकांश दुकानें बन्द थीं। बाजार में उठाव बिलकुल नहीं था। मौसम में ठण्डक की खुनक तनिक भी नहीं थी लेकिन व्यापार शीत लहर की जकड़न में था। कस्बे के मुख्य बाजार से मैं अपनी धुन में, धीरे-धीरे गुजर रहा था कि अपने नाम की हाँक सुनकर स्कूटर का ब्रेक मानो अपने आप लग गए। हाँक की दिशा में देखा - किराने की एक बड़ी दुकान पर बैठे चार लोगों में से एक, हाथ हिलाकर मुझे बुला रहा है। पहचानने में देर नहीं लगी।  मुझसे कोई पन्द्रह बरस छोटा यह व्यापारी अनूठा है। इसकी आत्मा मानो हरिशंकर परसाई और शरद जोशी की पड़ोसन रही हो। इससे बतियाना मुझे सदैव अच्छा लगता है। हर बार, कोई न कोई ‘मसाला’ लेकर ही लौटता हूँ। इसकी जिस बात का मैं कायल हूँ वह है - इसकी, खुद पर हँसने की, खुद की खिल्ली उड़ाने की क्षमता और शक्ति। किसी की हँसी उड़ाने से पहले यह खुद पर हँसता है। मुझ पर अतिरिक्त महरबान है। बात-बात में, मेरी सहमति हासिल करने के लिए ‘हे के नी बेरागीजी?’ (है कि नहीं बैरागीजी?) का तकिया कलाम कुछ इस तरह वापरता है जैसे कि मित्र ‘द्दे त्ताली’ कहकर हाथ बढ़ाते हैं। 

चार में से एक तो खुद दुकान मालिक था। दो सराफा व्यापारी थे। चौथा यह था - कपड़ा व्यापारी। चारों फुरसत में थे। चारों, पोहे के साथ कारु मामा की कचोरी का नाश्ता करके चाय पीनेवाले थे। इसने पूछा - ‘चाय तो पीयेंगे ना?’ मैं कुछ कहता उससे पहले दूसरा बोला - ‘पागल! यह भी कोई पूछने की बात है?’ मुझे फौरन समझ आ गया कि मुझे निर्णय लेने की छूट और सुविधा हासिल नहीं है। 

वे सब मेरे पहुँचने से पहले गपिया रहे थे। बात का अन्तिम सिरा निश्चय ही इसी के पास था। बोला - ‘हाँ तो मैं क्या कह रहा था? हाँ! मैं कह रहा था कि  अपना एक भी सांसद-विधायक देश-भक्त नहीं है।’ मेरे कान खड़े हो गए। चारों के चारों, अपने शरीर की चमड़ी की सात-सात तहों तक कट्टर भाजपाई। देश-प्रदेश में भाजपा की सरकारें, मेरे जिले के पाँच में से चार विधायक भाजपाई और यह सबको एक घाट पानी पिला रहा? मेरी परवाह किए बिना वे चारों शुरु हो गए -
“एक भी एमपी-एमएलए देश-भक्त नहीं! ऐसा कैसे हो सकता है? और तुझे कैसे मालूम?”

“अरे! मुझे कैसे मालूम? सारी दुनिया को तो मालूूम और तुझे नहीं मालूम? तू कौन सी दुनिया में रहता है?”

“चल! मैं बेवकूफ सही। लेकिन तुझे कैसे मालूम? बता!”

“तेने जेटली की बात नहीं सुनी?”

“कौन सी बात?”

“लो! इसकी सुनो! इसने जेटली की बात नहीं सुनी।”

“चल यार! मान ले कि इसने नहीं सुनी। तू बता! बात क्या है?”

“अरे! तू भी इसमें शामिल हो गया? तेने भी नहीं सुनी? कैसे व्यापारी हो यार तुम? अरे! जो जेटली व्यापारी तो ठीक, तमाम व्यापारियों के पूरे खानदान के सपने में आ रहा है उसकी बात तुम दोनों ने नहीं सुनी! धिक्कार है रे तुम दोनों को।”

“अरे यार! तेरे साथ यही मुश्किल है। चल! हमें धिक्कार ही सही। लेकिन बात तो बता।”

“अरे! जेटली ने कहा है कि टेक्स चुकाना देश-भक्ति है। तुमने नहीं सुना।”

“हाँ। ये तो अखबार में पढ़ा है।”

“हाँ। हाँ। मैंने भी पढ़ा है। लेकिन इसमें एमपी-एमएलए कहाँ से आ गए?”

“क्यों? जेटली ने इनका नाम नहीं लिया इसलिए ऐसा कह रहे हो? थोड़ी खोपड़ी लगाओगे तो मान लोगे कि जेटली ने पूरी दुनिया को बता दिया है हिन्दुस्तान का एक भी एमपी-एमएलए देश-भक्त नहीं है।”

“चल यार! हम बट्ठड़ खोपड़ीवाले, बेअक्कल सही। तू ही बता दे।”

“अच्छा बता! अपने एमपी लोग अपने वेतन-भत्तों पर इनकम टेक्स चुकाते हैं?”

“हाँ यार! एक भी नहीं चुकाता। सरकार ने कानून बना कर इनको इनकम टेक्स से बरी कर रखा है। अब तेरी पूरी बात समझ में आ गई।”

“अपना एक भी एमएलए चुकाता है?”

“हाँ यार! बाकी  का तो नहीं मालूम लेकिन अपने एमपी के एमएलए तो नहीं चुकाते।”

“अब बता! जेटली ने कहा कि नहीं कि अपने एमपी-एमएलए देश-भक्त नहीं हैं?”

“हाँ यार! जेटली का बात का मतलब तो यही है। इन सबका टेक्स तो अपन लोग चुकाते हैं।”

“खाली टेक्स ही नहीं चुकाते। अपन सब एक काम और करते हैं।”

“क्या? कौन सा काम?”

“ये सब हमें देश-भक्ति का डोज देते हैं और खुद देश-भक्ति नहीं निभाते। उल्टे रोज किसी न किसी को देशद्रोही होने का सर्टिफिकेट देकर पाकिस्तान भेजते रहते हैं। ये ऐसे देश-भक्त हैं जिनकी देश-भक्ति तुम-हम सब निभा रहे हैं। इनमें से एक भी देश-भक्त नहीं और अपन सब के सब दुगुने देश-भक्त। (मुझे सम्बोधित करते हुए) है कि नहीं बैरागीजी?”

“तुम्हारे फार्मूले के हिसाब से तो तुम्हारी ही बात सही है सेठ।” मुझे कहना पड़ा।

“आप बुद्धिजीवियों के साथ यही परेशानी है। डर-डर कर बात करते हो। वो परसाईजी की बात आपने ही सुनाई थी ना?”

“कौन सी बात?”

“अरे वही कि अपने बुद्धिजीवी लोग हैं तो बब्बर शेर लेकिन वो सियारों के जलसों-जुलूसों में बेण्ड बजाते हैं।”

मुझसे कुछ बोलते नहीं बना। खिसिया कर चुप रह गया।

लेकिन वह चुप नहीं हुआ। हम सबको सम्बोधित करते हुए बोला - “ये अपने नेता लोग बड़े-बड़े भाषण देते हैं, चिल्लाते हैं, शिकायत करते हैं कि देश के लोग उनकी नहीं सुनते। कैसे सुनें? मैं कट्टर भाजपाई हूँ लेकिन मैं भी नहीं सुनता। क्यों सुनूँ? गला कटवाने के लिए हम ही हम! तुम क्या करोगे? तुम तो फाइव स्टार में मजे मारोगे, ए सी कारों में घूमोगे, खुद टेक्स नहीं भरोगे, अपना टेक्स हमसे भरवाओगे और उपदेश दोगे कि टेक्स भरना देश-भक्ति है! क्यों? देश-भक्ति  का ठेका हमारा ही है? तुम्हारा नहीं? ये देश तुम्हारा नहीं? ‘भटजी भटे खाएँ, औरों को परहेज बताएँ।’ खुद तो मुट्ठियाँ भर-भर गुड़ खाएँगे और हमें गुलगुले खाने से रोकेंगे। ये समझते हैं कि हममें अकल नहीं है, हम बेवकूफ हैं। अरे! पार्टी से बँधे होने के कारण हम कुछ बोलते नहीं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम कुछ समझते भी नहीं। हम भी रोटी खाते हैं। घास नहीं। है कि नहीं बैरागीजी?”

उसकी बातें सुन, उसके तेवर देख मेरी तो मानो घिघ्घी बँध गई। हाँ कहते बने न ना। बाकी तीनों व्यापारी भी सकपकाए, सहमे मानो गूँगे हो गए हों। हम सबकी दशा देख मानो वह होश में आया हो। बोला - “इस पार्टी लाइन ने पूरे देश का भट्टा बैठा रखा है। गलत को गलत नहीं कह सकते वहाँ तक तो फिर भी ठीक है लेकिन गलत को सही कहना, ये न तो पार्टी लाइन है न ही देश की लाइन। दल से पहले देश की दुहाई तो सब देते हैं लेकिन सबके सब, पार्टी को तो छोड़ो, खुद को सबसे पहले मानते हैं। अब, जब देश से पहले नेता हो जाए तो देश का तो भट्टा बैठना ही बैठना है और यह भट्टा बैठाने में सबसे पहले हम शरीक हैं। है कि नहीं बैरागीजी?”

बात सौ टका सही थी। मेरे मन की। मैं कुछ सोचूँ उससे पहले ही मेरे मुँह से निकला - हाँ।
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दैनिक 'सुबह सवेरे' भोपाल, 02 नवम्‍बर 2017



जामफल के ठेले पर बड़ा व्यापारी

यह ऐसा संस्मरण है जिसे मैं आसमान पर लिख देना चाहता हूँ।

उज्जैन-बड़नगर के लगभग ठीक बीच में एक कस्बा आता है - इंगोरिया। यहाँ के और बड़नगर के जामफल इस अंचल में बहुत प्रसिद्ध हैं। कस्बों के नाम से बेचे जाते हैं। यह संस्मरण इसी इंगोरिया से जुड़ा है।

यह इसी शनिवार की बात है। अपने समधीजी, मेरी बहू प्रिय नीरजा के पिताजी और मेरे भतीजे प्रिय गोर्की के ससुरजी आदरणीय श्री जे. बी. लाल (श्री जुगल बिहारी लालजी सक्सेना) के दाह संस्कार के बाद उत्तमार्द्धजी के साथ भोपाल से लौट रहा था। हमारी टैक्सी उज्जैन पार कर बड़नगर की तरफ बढ़ रही थी। अचानक ही मुझे याद आया - रास्ते में ही इंगोरिया आता है। मेरे साले प्रिय देवेन्द्र और मुकेश जब भी अपने दुपहिया से रतलाम आते हैं तो इंगोरिया के जामफल जरूर लाते हैं। याद आते ही ड्रायवर से कहा कि इंगोरिया में गाड़ी रोक ले। 

इंगोरिया पहुँचते-पहुँचते चार-साढ़े चार बज रहे थे। सूरज अस्ताचलगामी हो चला था। झुटपुटा होने लगा था। बस स्टैण्ड पर जामफल के पाँच-सात ठेले खड़े थे। ड्रायवर ने एक ठेले के सामने गाड़ी रोकी। कोई बाईस-पचीस वर्षीय युवक के इस ठेले पर बहुत थोड़े जामफल बचे थे। दूसरे ठेलों पर नजर दौड़ाने के बजाय मैंने इसी नौजवान से बात शुरु की -

(मैं यथासम्भव मालवी बोली में ही बात करता हूँ। मुझे इसमे आनन्द भी आता है और सामनेवाला पहले ही बोल से पूरी तरह सहज हो जाता है।)

- कई रे भई! कई भाव दिया जामफल? (क्यों भाई! जामफल क्या भाव दिए?)

- पचास रिप्या किलो बाबूजी। (पचास रुपये प्रति किलो बाबूजी।)

- ने दो किलो लूँ तो? (अगर में दो किलो जामफल लूँ तो?)

- तो बाबूजी! पेंतालीस रिप्या। (तो बाबूजी पैंतालीस रुपये प्रति किलो।)

- ने मूँ तीन किलो लूँ तो? (और अगर मैं तीन किलो जामफल लूँ तो?)

इस बार उसने अविलम्ब जवाब नहीं दिया। थोऽऽड़ा सा हिचकते हुए (मानो, जोखिम ले रहा हो) बोला -

- तो बाबूजी! चालीस रिप्या लगई लीजो। (तो बाबूजी! चालीस रुपये प्रति किलो के भाव से ले लेना।)

- ओर जो मूँ चार किलो लूँ तो? (और यदि मैं चार किलो जामफल लूँ तो?)

मेरा सवाल सुनकर इस बार वह तनिक घबरा गया। उलझन की पूरी इबारत उसके चेहरे पर साफ-साफ उभर आई। भाव और कम न करने पर (कम से कम तीन किलोग्राम जामफल का) ग्राहक हाथ से निकल सकता है। लेकिन भाव और कम भी तो नहीं किया जा सकता! ‘क्या करूँ? क्या न करूँ?’ वाली उलझन और गाढ़ी हो गई। कुछ पल लगे उसे फैसला लेने में। वह बोला तो जरूर लेकिन उसे शायद खुद ही समझ नहीं आ रहा था कि उसके बोलने में घबराहट ज्यादा है या दृढ़ता। हाँ, उसकी आवाज बहुत धीमी जरूर हो गई थी। इतनी धीमी कि सुनने न सुनने का अन्तिम निर्णय मानो मुझ पर छोड़ दिया हो -

- अबे बाबूजी! चालीस ती नीचे ओर नी जई सकूँ। (अब बाबूजी! चालीस रुपये किलो से कम तो नहीं कर सकूँगा।)

- वा! चार किलो देई दे। (तो फिर, चार किलोग्राम जामफल दे दे।)

मेरी बात सुनकर वह उछलते-उछलते बचा। कुछ इस तरह मानो पूरी चाबी भरा खिलौना बन गया हो। 

जामफल बहुत ज्यादा नहीं थे। छाँटने का जिम्मा मैंने उसी को दे दिया। वह उत्साह से छाँटने लगा। इस बीच मैंने एक जामफल उठा कर खाना शुरु कर दिया और कहा कि तोल में से एक जामफल कम कर ले। वह बोला - ‘लो बाबूजी! कई वात कर दी आपने? एक जामफल ती कई फरक पड़े। ने आपने तो खायो। वेच्यो थोड़ी!’ (आपने भी क्या बात कर दी बाबूजी! एक जामफल से क्या फर्क पड़ना? वैसे भी आपने तो खाया ही तो है। बेचा थोड़े ही है?)

जामफल इतने कम थे कि छाँटते-छाँटते, तीन जामफल बाकी बचे रहे और बाकी सब चार किलो के तोल में चढ़ गए। उसने वे तीन  जामफल भी चार किलो में शरीक कर दिए - ‘अबे ई तीन जाम कणीने वेचूँगा? आप लेई पधारो।’ (अब ये तीन जामफल किसे बेचूँगा? आप ले जाइये।) और, उसने एक-एक किलो जामफल की चार थैलियाँ मेरी ओर सरका दी। एक जामफल मैं खा चुका था और तीन जामफल उसने अधिक दे दिए थे। कम से कम चार सौ ग्राम वजन तो रहा होगा ही होगा इन अतिरिक्त जामफलों का। मुझे यह अच्छा नहीं लगा। मैं इनका अधिकारी नहीं था। थैलियाँ मैंने कार में बैठी उत्तमार्द्धजी को थमाई और मुड़ कर दो सौ रुपये उसे थमाए। बाकी रकम मुझे लौटाने के लिए उसने जेब में से छुट्टे नोट निकाले। मैंने उसे रोका - ‘रेवा दे रे भई! पचास का भाव ती दो सो वेईग्या।’ (रहने दे भाई! पचास रुपये प्रति किलोग्राम के भाव से दो सौ रुपये हो गए।) 

वह ठिठका। अविश्वास भाव से मुझे देखा। लेकिन अगले ही पल चालीस रुपये मेरी ओर बढ़ाते हुए बोला - ‘नी बाबूजी! चालीस को भाव वेई ग्यो थो।’ (नहीं बाबूजी! चालीस का भाव तय हो गया था।) मैंने कहा - ‘ऊ तो मने यूँईऽज वात करी थी।’ (वो तो मैंने बस यूँऽही बात की थी।) अब तक वह सामान्य हो चुका था। पूरी तसल्ली से बोला - ‘आपकी वात आप जाणो। मूँ म्हारी वात जाणूँ ने मने चालीस को भाव वतायो थो।’ (आपकी बात आप जानें। मैं अपनी बात जानता हूँ और मैंने चालीस रुपये प्रति किलोग्राम का भाव बताया था।)

अतिरिक्त चार जामफलों का वजन मुझ पर अब तक बना हुआ था। मैंने कहा - ‘अच्छा! चाल! आधी वात थारी ने आधी वात म्हारी। पेंतालीस का भाव ती बाकी पईशा देई दे।’ (अच्छा! चल! आधी बात तेरी मान और आधी बात मेरी मान। पैंतालीस रुपये प्रति किलोग्राम के भाव से बाकी रुपये दे दे।) तब तक दस-दस के चार नोट वह मेरी ओर बढ़ा चुका था। इस बार वह तनिक अधिक मजबूती से बोला - ‘भलेई ठेलो लगऊँ बाबूजी पण हूँ तो वेपारी! ओर वेपार में आप जाणोऽई हो, वात को मान राखणो चईये। सच्चो वेपारी ऊईऽज जो आपणी वात पे कायम रे। म्हारा माल को भाव म्हने ते करियो। अणी वास्ते, भाव तो चालीस कोईऽज लागेगा बाबूजी।’ (भले ही ठेला लगाता हूँ बाबूजी! पर हूँ तो व्यापारी! और व्यापार में तो आप जानते ही हैं बाबूजी कि बात का मान रखना चाहिए। सच्चा व्यापारी वही जो अपनी बात पर कायम रहे। मेरे माल का भाव मैंने तय किया। इसलिए भाव तो बाबूजी! चालीस रुपये प्रति किलोग्राम का ही लगेगा।)

मेरी आँखें भर आईं। छाती में हवा का गोला भर गया। बोलना कठिन हो गया। कुछ बोलने के लिए लम्बी साँस लेना जरूरी हो गया। लेकिन लम्बी साँस भी न ले पा रहा। कुछ पल लगे मुझे। फिर बड़ी मुश्किल से बोला - ‘चल! योई सई। पण वणा तीन जामफलाँ का पईसा तो लेई ले!’ (चल! यही सही! लेकिन उन तीन जामफलों के पैसे तो ले ले!) चालीस रुपये लिए, मेरी ओर बढ़ा हुआ उसका हाथ अब भी हवा में ही था। मेरी बात सुनकर उसने तनिक खिन्नता से कहा - ‘या कई वात वी बाबूजी? वी तीन जामफल आपने तो मांग्या नी था! मने आपणी मर्जी ती ताकड़ी में मेल्या था। वणां का पईसा केसे लेई लूँ? नी बाबूजी! वणा का पईसा तो बिलकुल नी लेई सकूँ। वी तो आपका वेई ग्या।’ (यह क्या बात हुई बाबूजी? वो तीन जामफल आपने तो माँगे नहीं थे! मैंने अपनी मर्जी से तराजू में रखे थे। उनके पैसे कैसे ले लूँ? नहीं बाबूजी! उनके पैसे तो बिलकुल नहीं ले सकता। वे जामफल तो आपके हो गए।)  

मेरे छोटे बेटे से भी छोटे उस नौजवान ने मेरे सारे रास्ते बन्द कर दिए थे। अब मेरे सामने बाईस-पचीस बरस का, जामफल के ठेलेवाला, देहाती लड़का नहीं, अपनी बात का धनी, भविष्य का बहुत बढ़ा, अपनी बात का धनी, ईमानदार व्यापारी खड़ा था। मैंने एक छोटे से, ठेलेवाले को दो सौ रुपये दिए थे लेकिन बहुत बड़े व्यापारी ने मुझे बाकी रकम लौटाई थी। मैंने चुपचाप अपने चालीस रुपये लिए और गाड़ी में बैठ गया।

मैं सहज, सामान्य नहीं था। इस भावाकुलता में उसका नाम पूछना ही भूल गया। खुद से बचने के लिए मन को समझाया - इस रास्ते पर आखिरी यात्रा नहीं है यह। आना-जाना बना रहेगा। तब उससे नाम पूछ लूँगा। उसके साथ एक फोटू भी खिंचवाऊँगा। सबको यह किस्सा सुनाते हुए उसका फोटू दिखाऊँगा और कहूँगा - ‘इसे देखो! धन्ना सेठों, नेताओं और अफसरों की बेईमानियों के नासूर के मवाद की दुर्गन्ध से यह नौजवान देश को मुक्ति दिलाएगा। इसकी ईमानदारी का मलय-पवन हमारी प्राण-वायु बनेगा।

सोच रहा हूँ, अगले बरस दीपावली पर घर में बच्चे जब लक्ष्मी पूजन करेंगे तब उनसे कहूँगा - ‘उसके’ लौटाए, दस-दस के इन चार नोटों की पूजा करो। ये ही सच्ची लक्ष्मी हैं।   
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दीपावली याने किसी को दुःखी न करना

मैं शायद प्रकृति से ही ‘उदासी’ हूँ। खुद को आशावादी मानता, कहता हूँ लेकिन जल्दी उदास हो जाता हूँ। शायद इसीलिए दीपावली से एक दिन पहले की सुबह भी मन में कहीं दीवाली नहीं आ पा रही है। 

त्यौहार का मेरे लिए एक ही अर्थ होता है-पूरा परिवार दो-चार दिन एक साथ बैठे, अपने सुःख-दुःख कहे, सबके सुख-दुःख पूछे, बतियाए, हँसी-ठिठोली करे। यह सब करने के लिए रुपये-पैसों की जरूरत नहीं होती। जरूरत होती है केवल समय की और ऐसी मनोदशा की। मैं विपन्नता के साथ बड़ा हुआ लेकिन मेरी परवरिश ऐसे ही वातावरण में हुई। विपन्नता ने त्यौहारों की खुशी कभी हलकी नहीं की। हमारे पास कुछ नहीं होता था लेकिन त्यौहार की खुशियाँ भरपूर होती थीं। बाजार जाने की हैसियत नहीं होती थी किन्तु खुशियों के लिए बाजार नहीं जाना पड़ता। बैठे-बैठाए ही मिल जाती हैं। जितनी चाहो, उतनी। 

इस समय घर में हम दोनों पति-पत्नी ही हैं। बच्चों की राह देख रहे हैं। दोनों बेटे नौकरी में हैं। बड़ा बेटा कल रात छोटे बेटे के पास पहुँच गया है। यहाँ से कुल सवा सौ किलो मीटर दूर हैं। लेकिन देर रात में आएँगे। साथ-साथ। छोटे बेटे को छुट्टी इसी शर्त पर मिली है कि वह तीन दिनों का काम अग्रिम रूप से करके आए। दोनों आज रात आएँगे और दो दिनों बाद, भाई दूज की सवेरे निकल जाएँगे। आएँगे बाद में, जाने की सुनिश्चितता पहले कर। हमें स्कूल से पूरे बीस दिनों की छुट्टी मिलती थी-दशहरे से दीपावली तक। अब सब कुछ बदल गया है। स्कूल-कॉलेज अब भारतीयता के केलेण्डर से नहीं, प्रतियोगी परीक्षाओं के केलेण्डर से चलते हैं। 

लेकिन ऐसी दशा मुझ अकेले की नहीं। मोहल्ले में सब मुझ जैसे ही नजर आ रहे हैं। स्कूली बच्चे गिनती के रह गए हैं। बडे़ बच्चों की मौजूदगी न तो नजर आ रही है न ही महसूस हो रही है। पड़ौस में अक्षय की बिटिया साक्षी तो आ गई है लेकिन सामने विनीता और संजय, बेटे वेदान्त की प्रतीक्षा कर रहे हैं। वेदान्त को अभी-अभी ही, ‘ढंग-ढांग’ के पेकेज वाली नौकरी मिली है। नई-नई नौकरी में तो छुट्टी की बात सोची ही नहीं जा सकती। मिल जाए तो ठीक। वर्ना इधर माँ-बाप, उधर बच्चा। खुश हों न हों, जैसे बन पड़े, त्यौहार मना लो। 

मेरे कस्बे में दीपावली का त्यौहार पाँच दिनों का होता है-धन तेरस से भाई दूज तक। मेरी गली के कोने में, अतिक्रमण कर बनाए मकान में रह रहे सरदार परिवार के बच्चों ने कल पटाखे छोड़ कर पूरी गली को दीपावली त्यौहार की शुरुआत कर अहसास कराया। गली में यही एक कच्चा मकान है। परिवार में सत्रह सदस्यों वाली चार गहस्थियाँ हैं। आर्थिक सन्दर्भो में गली का सबसे कमजोर परिवार है यह। लेकिन केवल उसी परिवार के बच्चों ने पटाखे फोड़े। बाकी सब परिवारों ने उन्हें देखा या छूटते पटाखों की आवाजें सुनीं। मैंने सच ही सोचा था-खुशियाँ बाजार में नहीं मिलतीं। घर बैठे मिल जाती हैं। जितनी चाहो, उतनी। समृद्धि और खुशियों का कोई सम्बन्ध नहीं। गली का सबसे कमजोर परिवार कल गली का सबसे धनवान परिवार साबित हो रहा था।

मेरे कस्बे का महालक्ष्मी मन्दिर अब पूरे देश में पहचाना जाने लगा है। कल एनडीटीवी इण्डिया पर उसका समाचार प्रमुखता से प्रसारित किया गया। चेनल ने दिल्ली से अपना सम्वाददाता खास तौर पर भेजा था। मान्यता है कि धन तेरस पर यहाँ धन जमा कराने पर वह कई गुना होकर लौटता है। आज अखबार बता रहे हैं कि कल सुबह साढ़े पाँच बजे से ही मन्दिर के सामने कतार लग गई थी। लगभग डेड़ किलो मीटर लम्बी। कतार में महिलाओं की संख्या अत्यधिक थी। महा लक्ष्मी के सामने कतार में खड़ी गृह लक्ष्मियाँ। पुरुष बहुत कम। सबने अपनी-अपनी हैसियत से नगदी, जेवर, रत्न जमा कराए। देश भर के बारह सौ से अधिक ‘श्रद्धालुओं’ ने एक सौ करोड़ रुपयों से अधिक मूल्य की नगदी, हीरे-जवाहरात, आभूषण जमा कराए। खबर के मुताबिक मध्य प्रदेश के लोगों ने तो ‘श्रद्धा’ जताई ही, महाराष्ट्र, गोवा, राजस्थान, बिहार, गुजरात सहित अन्य राज्यों के लोगों ने भी यथाशक्ति, यथा-अपेक्षा ‘श्रद्धा’ जताई। इन सबको मन्दिर की ओर से जमा सामग्री के टोकन और ‘कुबेर पोटलियाँ’ दी गईं। पोटलियाँ तो ये लोग ‘लक्ष्मी-शगुन’ के रूप में रखेंगे, भाई दूज को टोकन देकर अपनी-अपनी ‘श्रद्धा’ प्राप्त कर लेंगे और पाँच दिनों के निरन्तर ‘लक्ष्मी स्पर्श’ से अपनी ‘श्रद्धा’ साल भर में कई गुना हो जाने की प्रतीक्षा करेंगे। मैंने अपने पत्रकार मित्रों का टटोला तो मालूम हुआ कि कस्बे का या मध्य प्रदेश का एक भी नामचीन पैसेवाला कतार में नहीं था। सबके सब, आपके-हम जैसे लोग ही थे। जानकर मैंने अपने परिचय क्षेत्र के एक ‘लक्ष्मी-पुत्र’ को फोन किया। जवाब मिला कि उन्हें कतार में खड़े होने की न तो जरूरत है और न ही उन्हें इसमें विश्वास है। वे दिन-रात अपने काम से मतलब रखते  हैं। कोशिश करते हैं कि उनकी तिजोरियाँ ‘फुल केपिसिटी’ में भरी रहें और हर साल नई तिजोरी खरीदने की जरूरत पड़ती रहे। मैंने पूछा - ‘और खुशियाँ?’ जवाब मिला - ‘अब त्यौहार के दिन क्या झूठ बोलूँ बैरागीजी! सच्ची बात तो यह है कि खुशियाँ तो गरीबों के पास ही हैं। वे तो स्टील की एक कटोरी खरीद कर ही खुश हो जाते हैं और हम हवाई जहाज खरीद लें तो भी खुश नहीं हो पाते। लछमीजी की रखवाली की चिन्ता ने हमारी सारी खुशियाँ छीन रखी हैं। हमारी, खुशी की तिजोरी तो खाली की खाली ही है।’ यह लक्ष्मी किसी को चैन की नींद नहीं सोने देती। जिसके पास नहीं है, वह ब्राह्म मुहूर्त से कतार में खड़ा है। जिसके पास है, वह इसे बनाए रखने की चिन्ता में सो नहीं पा रहा। मुझे फिर अपनी ही बात याद आने लगती है - खुशियाँ बाजार में नहीं मिलतीं।

मैं जब यह सब लिख रहा हूँ तो मेरी उत्तमार्द्धजी पास ही बैठी हैं। टोक रही हैं-‘यह सब क्या है? आप यदि खुश नहीं हो पा रहे हैं तो बाकी सबको तो खुश होने दें! क्यों अपनी मनहूसियत फैलाकर सबका त्यौहार खराब कर रहे हैं?’ मुझे बुरा नहीं लगा। उल्टे, मेरी आत्मा प्रसन्न हो गई। वे नहीं जान रहीं कि उन्होंने मुझे एक जीवन-सूत्र फिर से याद दिला दिया है। उन्हें यह कष्ट नहीं है कि मैं खुश नहीं हूँ। उन्हें चिन्ता है कि (मेरे इस लिखे को) पढ़नेवाले उदास न हो जाएँ। अपनी खुशी से पहले दूसरों की खुशी की चिन्ता करना ही सबसे बड़ी खुशी होती है। हम किसी को खुश भले ही न कर सकें, किसी को दुःखी नहीं करें। यही बहुत बड़ी बात है। 

दुःख ही स्थायी है। मनुष्य का जन्मना साथी। मनुष्य कहीं इसीलिए तो रोता हुआ पैदा नहीं होता? कहीं इसीलिए तो सुख की तलाश में आजीवन नहीं भटकता रहता है? निश्चय ही हम सब ‘कस्तूरी मृग’ हैं। कस्तूरी गंध की तलाश में व्याकुल, जंगल-जंगल भटक रहे। उत्तमार्द्धजी को धन्यवाद। उन्होंने तो इसी क्षण से मेरी दीवाली शुरु कर दी।  

बच्चों को जब आना होगा, आ जाएँगे। जब जाना होगा, चले जाएँगे। वे जब तक रहेंगे, उनके रहने का सुख भोगूँगा। चले जाएँगे तो उदास नहीं होऊँगा। अब मैं गुदगुदी की फुलझड़ियाँ, मुस्कुराहटों के अनार और ठहाकों के पटाखे फोड़ूँगा। इस पल से हर पल दीवाली। खुशियाँ बाजार में जो नहीं मिलतीं! 

हम में से हर एक के पास यह खजाना है। हम एक बार खुद को टटोल तो लें!

आप सबको दीपावली और नूतन वर्ष की हार्दिक बधाइयाँ, अभिनन्दन और अकूत मंगल कामनाएँ। 
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दैनिक 'सुबह सवेरे' (भोपाल) ने मेरी इस पोस्‍ट के कुछ अंशों का आज, 
19 अक्‍टूबर 2017 को अपने मुखपृष्‍ठ पर इस तरह प्रकाशित किया।





याद रखना! आपको कमीशन तब ही मिलेगा..............

खबरों से दूर रहने का मेरा फैसला भंग होने की गति में बढ़ोतरी हो गई है। समाचार पढ़ने का आग्रह करने के फोन पहले, दो-तीन दिनों में आते थे। अब लगभग प्रतिदिन आ रहे हैं। मैं खबरों से दूर रहना चाहता हूँ लेकिन भाई लोग हैं कि मानते ही नहीं। बाबाजी कम्बल छोड़ना चाह रहे और लोग फिर-फिर ओढ़ा देते हैं।

आज भी ऐसा ही हुआ। एक युवा व्यापारी का फोन आया - ‘फलाँ अखबार में फलाँ खबर पढ़िए।’ आज मैं झुंझला गया। जानता हूँ कि क्यों मुझे इस तरह खबरें पढ़वाई जाती हैं। मैंने कहा - ‘पराये पाँवों से तीर्थ नहीं होते सेठ!’ युवा व्यापारी केवल व्यापारी नहीं है। अभिरुचि सम्पन्न है। शब्द-शक्ति जानता, समझता है। बोला - ‘लगता है, आज सबसे पहले मैं हत्थे चढ़ गया हूँ। घर पर ही रहिएगा। आ रहा हूँ।’ उम्मीद से तनिक जल्दी ही आ गया। कुछ पुराने अखबार लिए। बोला - ‘आज आप चुप रहेंगे। मैं बोलूँगा। आप सुनेंगे।’ कह कर, अखबार फैलाकर कर एक के ऊपर एक रख दिए। बोला - ‘हाई लाइटेड खबरें पढ़िए।’ मैंने पढ़ना शुरु किया। 

तमाम समाचारों का सार कुछ इस तरह रहा - रेडीमेड की माँग में देशव्यापी ठण्डापन आया हुआ है। भीलवाड़ा में कुछ दिनों बाद उत्पादन बन्द करना पड़ सकता है। मिलों में बना माल गोदामों में जमा हो रहा है। खेरची/फुटकर ग्राहकी नहीं हो रही है। अगस्त में रेडीमेड निर्यात में लगभग चार प्रतिशत की गिरावट आई है। इन्दौर में रेडीमेड व्यापार 35 प्रतिशत ही रह गया है। खेरची/फुटकर ग्राहकी न होने से देहाती इलाकों में रुपया बाजार में वापस न आने से बेचवालों की आर्थिक स्थिति डगमगा रही है। वे जाने-अनजाने दिवालिया बनने की ओर बढ़ रहे हैं। व्यापारियों के हाथ में पूँजी नहीं है। छोटे व्यापारी बाजार से पूरी तरह हो जाएँ तो ताज्जुब नहीं। प्रोसेस हाउसों में काम नहीं मिल रहा। भीलवाड़ा में एक आढ़तिया पार्टी ने ढाई करोड़ की देनादारी से हाथ खड़े कर दिए हैं। उधारी व्यापार लगभग बन्द ही हो गया है। नियमों ने व्यापार को जकड़ लिया है। तिरुपुर एक्सपोर्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष के मुताबिक (निर्यात में) गिरावट का यह दौर बना रहेगा क्योंकि जीएसटी लागू होने के बाद निर्यातकों ने नए आर्डर लेना या तो कम कर दिया है या बन्द कर दिया है। सूरत, मुम्बई, भीलवाड़ा, भिवण्डी के कपड़ा उत्पादक और व्यापारी भारी संकट में आ गए हैं।

जीएसटी प्रणाली व्यापारियों के जी का जंजाल बन गई है। पिछले ढाई-पौने तीन महीनों में कारोबार घटा है। जिन पर यह प्रणाली लागू ही गई है उनमें से 95 प्रतिशत असहज हैं। देश, आजादी के बाद सबसे बड़े आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा है। आनेवाले दिनों में बाजारों में धन की तंगी महसूस होती लग रही है। तीन वर्ष पूर्व जिस सरकार को एक तरफा गद्दी सौंपी थी, उसीसे से और उसकी कार्य प्रणाली से व्यापारियों का विश्वास उठता जा रहा है। अपराह्न चार बजे स्टाक सीमा लागू करती है और शाम 6 बजे छापे शुरु कर देती है। जीएसटी लागू होने के बाद व्यापार के लिए समय ही नहीं मिल रहा। शायद सरकार की नजर में व्यापारी ईमानदार नहीं हैं। व्यापारियों-उद्योगों को जकड़ लिया है। व्यापारी सरकार को कोस रहे हैं। निठल्ले बैठे और करें भी क्या? 

व्यापार चरमरा जाने से महाराष्ट्र की शकर मिलें अब नवम्बर में ही शुरु होने की सम्भावना है। (महाराष्ट्र की ही) कुछ दाल मिलों पर ‘बिकाऊ है’ के बोर्ड लटक गए हैं। दालों की दलाली करनेवाले कहते हैं कि जीवन में पहली बार सितम्बर महीने में घर-खर्च भी नहीं निकला। 

समाचार पढ़ कर मैंने उदासीन भाव से उसे देखा  - ‘हाँ, लेकिन इससे मुझे क्या लेना-देना?’ उसकी शकल पर अविश्वास, आश्चर्य और निराशा छा गई। हताश आवाज में बोला - ‘यह आपने क्या कह दिया? आपको पता भी है कि आपके कहे का मतलब क्या है?’ मुझे कोफ्त होने लगी। बात समाप्त करने के लिए मैं बोला - ‘देखो सेठ! यह तुम्हारी लड़ाई है। तुम्हें ही लड़नी पड़ेगी। वैसे भी तुम व्यापारी हो और मुझ जैसे लोग ग्राहक। तुम जिस भाव सामान दोगे, हमें तो उसी भाव खरीदना पड़ेगा।’ उसकी आवाज बदल गई। आवेश से बोला - ‘उम्मीद नहीं थी कि आप ऐसी बात करोगे। ठीक है! लेकिन याद रखना दादा! आपको कमीशन तब ही मिलेगा जब मैं बीमे की किश्त जमा करूँगा।’ मुझे घबराहट हो आई। जिस बात से मैं बचना चाह रहा था, वही उसने कह दी। मैंने दयनीय स्वरों में कहा - ‘तुम तो बुरा मान गए सेठ। यार! तुम ही बताओ मैं कर ही क्या सकता हूँ? जो भी करना है, आखिर तुम्हें ही तो करना है?’ पीड़ा, लाचारी, झुंझलाहट से बोला - ‘हम तो जो कर सकते थे, किया। सराफा व्यापारी चालीस दिनों तक हड़ताल पर रहे। सरकार का चपरासी भी नहीं फटका। हम गए तो हमारी सुनी ही नहीं। सूरत के व्यापारी पन्द्रह-सोलह दिन हड़ताल पर रहे और लाखों लोगों के जुलूस निकलते रहे। सरकार के कानों पर जूँ नहीं रेंगी। व्यापारी मिलने गए और ‘लाखों’ का हवाला दिया तो जेटली बोले कि इनकम टैक्स तो गिनती के व्यापारी देते हैं! बाकी क्यों नहीं दे रहे? किसानों की आत्महत्याओं का भी इन पर असर नहीं हुआ। किसानों का आन्दोलन इतने दिन चला। उनसे बात करने के बजाय सरकार ने उन्हें गुण्डा साबित करने की कोशिश की। मन्दसौर में तो पाँच-सात को गोली ही मार दी! बनारस की लड़कियों का मामला ही देख लो। जिस दिन धरने पर बैठी थीं उस दिन मोदी बनारस में ही थे। वे वहाँ के सांसद भी हैं। माना कि वे नहीं आ सकते थे। लेकिन लड़कियों का बुलाकर तो बात कर सकते थे! लेकिन किया क्या? उन पर लाठियाँ बरसाईं। अब उन बच्चियों को ही गुनहगार साबित कर रहे हैं। न तो बात करते हैं, न सुनते हैं। गलती कबूल करना इन्हें अपनी बेइज्जती लगती है। ये तो मानो आदमजात नहीं, पीरजी हो गए हों! हमारी मुश्किल यह कि यह सरकार बनावाने में हम ही सबसे आगे रहे। कहें तो क्या कहें? किससे कहें? हम और क्या करें?’ मेरे पास कोई जवाब नहीं था। 

हमारे बीच में मौन ने डेरा डाल लिया था। गहरी साँस छोड़ते हुए, गुस्से और नफरत से बोला - ‘अब तो भगवान का ही भरोसा रह गया है। आज तो कुछ कर नहीं सकते। जो भी करना है, चुनाव में ही करेंगे। तब तक सब झेलना, सहना है। लेकिन आप याद रखना, आप-हम-सबके भाग्य एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। व्यापारी तो वैसे भी डरपोेक माने जाते हैं। फिर भी, जो कर सकते हैं, करेंगे। अब व्यापारियों ने अपनी स्टेशनरी पर ‘हमारी भूल-कमल का फूल’ छपवाना शुरु कर दिया है। मैंने कल ही मोदी को चिट्ठी लिखी है कि अपने जुल्मों में कसर मत रखना। हर जुल्म पर मैं एक गाँठ लगा रहा हूँ। गाँठ तो मैं हाथ से लगा रहा हूँ लेकिन आप दाँतों से खोलोगे तो भी नहीं खुलेगी।’ अपनी आवाज और तेवरों को यथावत रख मुझसे बोला - ‘राज तो रामजी का भी नहीं रहा और घमण्ड कंस का भी नहीं रहा। कल ये नहीं थे। पक्का है कि कल नहीं रहेंगे। आप और आप जैसे लोग जो ठीक समझें वह जरूर करें।’ मुझे सम्पट बँधे और मैं कुछ कहूँ, उससे पहले ही वह तैश में ही सपाटे से चला गया। मैं उसकी पीठ भी नहीं देख पाया।

उसकी बातों का जवाब मेरे पास न उसके सामने था न अब है - उसके जाने के बाद भी।
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(दैनिक ‘सुबह सवेरे‘, भोपाल में, 28 सितम्बर 2017 को प्रकाशित)