मेरे एक आदरणीय मित्र भोपाल स्थानान्तरित हो गए । वे अत्यधिक संकोची, आत्मकेन्द्रित और ‘चुप्पा’ किस्म के हैं । अपना नाम तक बताने में संकोच कर जाते हैं । भोपाल में उनका नया आवास राज भवन वाले क्षेत्र में है, यह जानकर मैं ने उन्हें श्री विजय वाते का नम्बर दिया ताकि आपात स्थिति में उनकी सहायता ले सकें । आपात स्थिति यही कि सामान से लदे उनके ट्रक को कहीं भी रोका जा सकता था । वे बोले - ‘वातेजी से बात करने में मुझे उलझन होगी । आप उन्हें मेरा नम्बर दे दीजिएगा ।’ मैं ने पूछा - ‘वातेजी को कैसे मालूम पड़ेगा कि आप आपात स्थिति में हैं ? बताना तो आपको ही पड़ेगा ।’ वे परेशान हो गए । बोले - ‘पुलिस का जवान ही नहीं सुनता तो इतना बड़ा अफसर मेरी बात क्यों सुनेगा ? फिर, पुलिस वालों को तो आप जानते ही हो ।’ चूँकि मैं इनका स्वभाव जानता था सो मुझे अटपटा नहीं लगा । कहा -‘वातेजी थोड़ा अलग हटकर हैं । वे रतलामवालों के प्रति अतिरिक्त प्रेमभाव रखते हैं । उनसे बात कर आपको अच्छा ही लगेगा ।’ बेमन से उन्होंने वातेजी का नम्बर लिख लिया ।
वे रतलाम से रवाना हुए तो मैं ने वातेजी को पूरा किस्सा सुना कर बार-बार विशेष अनुरोध किया कि मेरे इन मित्र का फोन आते ही वे अतिरिक्त सम्वेदनशीलता बरत कर उनकी मदद करें । वातेजी को ऐसी बातों की आदत है और वे पढ़ने-लिखनेवाले आदमी भी हैं, सो उन्होंने मेरे थोड़े कहे को बहुत समझ लिया और मेरे आदरणीय मित्र की ‘आप तो जानते ही हो’ वाली बात पर हँसते रहे ।
उनके भोपाल पहुँचने के अपेक्षित समय के बाद भी देर तक उनकी कोई खबर नहीं आई तो मैं ने अपनी ओर से उनकी तलाश की । बोले - ‘पुलिसवालों ने दो बार ट्रक को रोका ।’ मैं ने पूछा - ‘आपने वातेजी से बात की ?’ बोले -‘जरूरत ही नहीं पड़ी । मैं ने उनका फोन नम्बर पुलिसवालों को देकर कहा कि वे मेरे बारे में वातेजी से पूछ लें । वातेजी का नाम सुनकर ही उन्होंने ट्रक को जाने दिया ।’ मैं ने कहा -‘इस सबके लिए आपने वातेजी को धन्यवाद दिया ?’ बोले -‘मैं ने सोचा तो था लेकिन हिम्मत नहीं हुई । पुलिसवालों को तो आप जानते ही हो ।’ मैं क्या कहता ? चुप हो गया ।
मैं ने मोबाइल बन्द किया ही था कि वातेजी का फोन आ गया । अब तक मेरे मित्र का फोन न आने से वे चिन्तित हो पूछताछ कर रहे थे । मैं ने पूरी बात बताई तो वे पहले तो तनिक खिन्न प्रतीत हुए लेकिन अगले ही क्षण मौज में आ गए । बोले-‘ऐसा न तो पहली बार हुआ है और न ही अन्तिम बार ।’ फिर उन्होंने किस्सा सुनाया ।
भोपाल में, एक प्रगतिशील कलमकार के घर चोरी हो गई । उन्होंने वातेजी से मदद माँगी । वातेजी ने कहा कि वे पुलिस थाने जाकर प्राथमिकी लिखवा दें । कलमकारजी के हाथ-पाँव फूल गए । उन्होंने जो कुछ कहा उसका मतलब था कि वातेजी अपने पद-प्रभाव का उपयोग कर कुछ ऐसा करें कि कलमकारजी को थाने नहीं जाना पड़े और प्राथमिकी लिख ली जाए । वातेजी ने एकाधिक बार भरोसा दिलाया और थाने जाने का परामर्श दिया । प्रगतिशील कलमकारजी जाने को तैयार नहीं । वातेजी ने तनिक चिढ़ कर कारण पूछा तो वे बोले -‘पुलिस वाले कैसा व्यवहार करते हैं, आप तो जानते ही हो ।’ अन्ततः वातेजी को दो-टूक कहना पड़ा कि प्राथमिकी के लिए तो उन्हें ही जाना पड़ेगा । वे गए । घण्टों बाद तक उनकी कोई खबर नहीं आई तो वातेजी ने अपनी ओर से फोन लगाया । मालूम हुआ कि प्राथमिकी लिखवा कर वे घण्टों पहले ही आ चुके हैं । वातेजी ने कहा - ‘आपने तो खबर ही नहीं ।’ बोले-‘पुलिस थाने में जाने से ही इतनी घबराहट हो गई कि खबर करना भूल गया ।’ वातेजी ने पूछा कि उनके साथ कैसा व्यवहार हुआ । बोले - ‘व्यवहार तो बहुत अच्छा हुआ । आवभगत हुई । चाय भी पिलाई और फौरन ही प्राथमिकी लिख ली ।’ वातेजी ने कहा -‘अब क्या कहना है आपका ?’ वे बड़ी मासूमियत से बोले -‘वह तो आपके कारण हो गया वर्ना पुलिस वालों को तो आप जानते ही हो ।’ वातेजी ने सर पीट लिया ।
इन सज्जन की चोरी का माल बरामद हो गया । माल की पहचान करने के लिए पुलिस थाने से बुलावा आया । ये जाने को तैयार नहीं । फिर वातेजी को फोन किया । वातेजी ने कहा -‘बुलाया है तो चले जाईए । सामान तो आप ही पहचानेंगे ।’ प्रगतिशीलजी बोले -‘नहीं । आप फोन कर दीजिए कि हमें वहाँ न तो रोकें और न ही प्रतीक्षा कराएँ । हम जैसे ही जाएँ, सामान की पहचान करवा कर हमें फौरन फ्री कर दें ।’ वातेजी ने कहा -‘आप ऐसा क्यों चाहते हैं ? वे पहले अपने हाथ का काम निपटाएँगे फिर आपका काम कर देंगे ।’ बोले -‘थाने में बैठने में डर लगता है । लोग क्या कहेंगे ? फिर, पुलिस वालों को तो आप जानते ही हो ।’ वातेजी ने बमुश्िकल खुद को नियन्त्रित कर संयत बनाए रखा और उससे भी अधिक मुश्िकल से उन्हें थाने भेजा ।
किस्सा सुनाकर वातेजी बोले -‘पुलिस के लिए उन्होंने जो कुछ कहा उसका मुझे बुरा तो लगा लेकिन उससे ज्यादा बुरा इस बात का लगा कि जो लोग कलम के हल से कागज की जमीन पर क्रान्ति के बीज बो कर, व्यवस्था का विरोध करने की, प्रशंसा की फसल काटते हैं, वे लोग खुद के लिए भी कोई जोखिम लेने को तैयार नहीं होते । वह भी तब, जबकि उन्हें उनकी अपेक्षा से अधिक अनुशंसा और सुरक्षा पहले ही क्षण से मिल जाती है ।’
मैं क्या कहता ? मेरे पास कोई जवाब नहीं था ।
लेकिन वातेजी की बात से मुझे वह किस्सा याद आ गया जिसका मैं नेत्र-देह साक्षी था । तब दादा, राज्य मन्त्री थे । उनके पास एक ‘दुखियारे सज्जन’ आए और अनुनय की कि उनकी मदद भले ही न करें, उनकी बात सुन जरूर लें । दादा अपने हाथ का काम छोड़ कर उनके पास बैठ गए । व्यथा-कथा लम्बी चली - कोई दो घण्टे । इस दौरान अपनी बात सुनाते हुए उन्होंने कम से कम बीस बार कहा - ‘आप तो जानते ही हो, आजकल कोई सुनता ही नहीं है ।’ जब यह वाक्य बार-बार सामने आने लगा तो दादा का धैर्य छूट गया । पूछा - ‘मैं दो-सवा दो घण्टे से आपकी बात ध्यान से सुन रहा हूँ और आप हैं कि बार-बार कहे जा रहे हैं कि कोई सुनता नहीं । मैं सुन नहीं रहा हूँ तो क्या कर रहा हूँ ?’ वे उसी मुद्रा और निस्पृहता से बोले- ‘आपकी बात और है वर्ना आप तो जानते ही हो, आजकल कोई सुनता ही नहीं है ।’
क्या बताऊँ कि मैं ने यह सब क्यों लिखा । आप तो जानते ही हो ।