नवरात्रि मुख्यतः देवी आराधना का पर्व है। व्यक्तिगत स्तर पर और सामाजिक स्तर पर घट स्थापना हो जाती है। मुहल्ला स्तर से लेकर महानगर स्तर तक, गरबों के सतरंगी पाण्डाल तन जाते हैं। सुबह देवी आराधना से दिन शुरु होता है। दिन भर अपना काम, शाम को देवी पूजा और रात में गरबा। चौबीस घण्टों में सामान्यतः दस-बारह घण्टे व्यस्त रहनेवाला समाज सोलह-सोलह, अठारह-अठारह घण्टे व्यस्त हो जाता है।
लेकिन यह पर्व केवल देवी आराधना और गरबा रास तक ही सीमित नहीं रहता। आश्विन/क्वाँर प्रतिपदा से एक सिलसिला और शुरु हो जाता है - रामलीलाओं का सिलसिला। देश के बाकी हिस्सों का तो पता नहीं किन्तु समूचा उत्तर भारत रामलीला के जरिए राम कथा में भी डूब जाता है। इसका समापन दशहरे को होता है। शाम को रावण-मेघनाद के पुतलों का दहन और रात को रामलीला के मंच पर रावण-वध। दिल्ली से देहात तक लोग अपनी-अपनी हैसियत और श्रद्धा के अनुसार रामलीलाएँ आयोजित करते हैं।
मेरे गाँव मनासा में रामलीला का सिलसिला, शरणार्थी बन कर आए पंजाबी समाज ने शुरु किया। ‘प्रेम प्रचारणी रामलीला मण्डली’ के नाम से इस समाज ने रामलीला का शुरुआत की। कहते हैं कि दूरदर्शन पर ‘रामायण’ प्रस्तुत करनेवाले रामानन्द सागर भी मूलतः इसी मण्डली से जुड़े हुए थे।
खुद को ‘हिन्दू पंजाबी’ कहनेवाले इस समाज ने मनासा में रामलीला की शुरुआत किस वर्ष से की यह तो मुझे ठीक-ठीक याद नहीं किन्तु सन् 1958-60 में चतुर्भुज बैरागी, चन्दनमल सालवी, मैं और कुछ अन्य लड़के इस रामलीला से जुड़े और कुछ बरसों तक जुड़े रहे। उस समय हमारी उम्र बारह बरस की रही होगी। बाद में, पंजाबी समाज की देखादेखी, मनासा के लोगों ने ‘अपनी’ रामलीला मण्डली (मुझे इस मण्डली का नाम ‘आदर्श रामलीला मण्डली’ याद आ रहा है) शुरु की। तब हम लोग इस मण्डली से जुड़ गए।
प्रेम प्रचारणी मण्डली से हमें जोड़ने के लिए पंजाबी समाज के बड़े लोगों ने हम बच्चों से सम्पर्क किया था। हम सब राजी-राजी, बड़ी खुशी और उत्साह से शामिल हुए थे। हममें से किसी ने अपने घरवालों से पूछने की जरूरत नहीं समझी और न ही हमारे घरवालों ने कोई आपत्ति की।
हम सब लड़कों को स्त्री वेश ही धारण करना पड़ता था। तब तो अनुभव नहीं हुआ लेकिन बाद के बरसों में अनुभव हुआ कि स्त्री वेश धारण करने में पंजाबी समाज के बच्चे शायद तनिक हिचकते थे। उन्हीं की कमी पूरी करने के लिए हम बच्चों से सम्पर्क किया गया था। हमें कभी भी किसी पात्र की भूमिका नहीं दी जाती थी। हम लोग पर्दा उठते ही की जानेवाली गणेश वन्दना और उसके ठीक बाद होनेवाले दो-तीन नृत्य गीतों में नाचते-ठुमके लगाते। गणेश वन्दना की पहली पंक्ति मैं अब तक नहीं भूला हूँ - ‘हे! प्रथमे शिव नन्दन का सुमिरन हम करें, करें सब रे।’ इसके बाद एक नृत्य-गीत प्रति दिन होता था जिसमें, पनघट पर कुछ स्त्रियाँ पानी भरने के लिए जुटी हुई होती थीं और समूह की नायिका अपनी सहेलियों से उसका घड़ा माथे पर रखवाने में मदद माँगती थी। इस घड़े के बहाने नायिका अपने भाई, पिता आदि का उल्लेख करती थी। वह एक-एक सहेली से अनुरोध करती। जवाब में प्रत्येक सहेली ‘मैं ना!’ कह कर इंकार करती। गीत का मुखड़ा था - ‘सैंयों नी! जरा घड़ा उठा दे। कुछ तो हलका भार करा दे।’ जवाब मे सहेली कहती - ‘मैं ना!’ जवाब सुन कर नायिका घड़े का महत्व बताती - यह घड़ा मेरा भाई रतलाम से लाया था। ‘ये घड़ा मेरा बीर ले आया, ले आया रतलामूँ......’ (तब मनासा के लिहाज से रतलाम बहुत बड़ा शहर हुआ करता था। तब मुझे नहीं मालूम था कि मैं कभी रतलाम में ही बैठकर यह सब लिखूँगा।) इसके बाद एक-दो नृत्य गीत और होते और हमारा काम पूरा हो जाता।
इन दस दिनों में हम सब रामलीला के नशे में डूबे रहते। सामान्यतः रात आठ बजे से रामलीला शुरु होती। हम लोग सात बजते-बजते नेपथ्य में पहुँच जाते। मेक-अप के नाम पर ‘मुर्दा सिंघी’ का लेप भरपूर मात्रा में मुँह पर लगाते। यह पत्थर जैसा पदार्थ होता था जिसे घिस कर लेप बनाया जाता। हम सब जल्दी से जल्दी तैयार होने की कोशिश करते। पंजाबी समाज के ही जानकार लोग कलाकारों के मेकअप की जिम्मेदारी लिए हुए थे। मुझे मुर्दा सिंघी कभी अच्छी नहीं लगी। उसे लगाने के बाद चमड़ी खिंचती सी लगती। उसे छुड़ाने में काफी मेहनत लगती। अगले दिन भी चमड़ी पर भारीपन लगता। लेकिन इससे हमारा ‘नशा’ रंचमात्र भी कम नहीं होता था और शाम सात बजते-बजते हम लोग उत्साह से लबालब मुकाम पर पहुँच जाते।
पंजाबी समाज इस रामलीला को अत्यधिक भक्ति-भाव से आयोजित करता था। लम्बी-चौड़ी दीवार के आकार के तीन-चार, भारी-भरकम पर्दे होते थे जिन पर विभिन्न दृष्य चित्रित होते। ये चित्र दृष्यों की पार्श्वभूमि का काम करते थे। इन पर्दों को लम्बी-भारी बाँस-बल्लियों के सहारे ऊपर-नीचे किया जाता था। प्रत्येक पर्दे की रस्सी खींचने के लिए अलग-अलग आदमी होता था। जब मंच पर एक दृष्य चल रहा होता था तब उसकी पार्श्वभूमि बने पर्दे के पीछे अगले दृष्य की तैयारी चल रही होती। गणेश वन्दना के लिए जब पहला पर्दा उठने को होता तो समूचा वातावरण रोमांच और तनाव से भर जाता। गणेश वन्दना में अधिकाधिक कलाकार शामिल होते। सिटी बजती और पर्दा उठते ही, अपनी-अपनी भूमिका के अनुसार मेकअप किए कलाकार और हम जैसे ‘फिलर’ कलाकार अपनी पूरी शक्ति और मुक्त-कण्ठ से जब ‘हे! प्रथमे शिव नन्दन का.........’ शुरु करते तो मानो किसी जादुई दुनिया की रचना शुरु हो जाती थी।
जब तक ‘आदर्श रामलीला मण्डली’ शुरु नहीं हुई तब तक हम बच्चा लोग, घाघरे-लुगड़े और पोलके पहन कर प्रेम प्रचारणी मण्डली के मंच पर खूब नाचते-ठुमके लगाते रहे। पंजाबी समाज की रामलीला में कलाकारों की भरमार नहीं थी। जबकि ‘आदर्श’ में मानो आधा मनासा कलाकार बन जाना चाहता था। हमसे अधिक आयु के लोग बढ़-चढ़कर भूमिकाएँ लेने लगे थे। ‘कलाकारों’ की अधिकता के चलते हमारे लिए अवसर कम होने लगे थे। लेकिन स्त्री पात्रों में किसी की रुचि नहीं होती थी। मुझे जैसे अन्ध-उत्साहियों के लिए यह स्थिति ‘सुअवसर’ होती थी। इसी के चलते मैंने लगातार दो बरसों तक सती सुलोचना की भूमिका निभाई। जैसे-जैसे हम लोग हायर सेकेण्डरी कक्षाओं की ओर बढ़ने लगे, रामलीला से हमारी दूरी भी बढ़ने लगी। हायर सेकेण्डरी पास करने के बाद तो मनासा छूट गया और छूट गया रामलीला का साथ।
पता नहीं क्यों आज अचानक ही अपना रामलीला समय याद आ गया। इसके साथ ही याद आ गए, रामलीला से जुड़े दो-चार रोचक-मनोरंजक किस्से।
लोक मंच से जुड़े ये किस्से जब मुझे, इस समय (सुबह सवा तीन बजे) अकेले में ही गुदगुदा रहे हैं तो आपको भी निश्चय ही गुदगुदाएँगे।
कोशिश करता हूँ, ये किस्से आप तक पहुँच ही जाएँ।
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