समान नागरिक संहिता इन दिनों चर्चाओं में है। मैं अपने जीवन के सत्तरवें बरस में चल रहा हूँ। ढंग-ढांग की गृहस्थी और ठीक-ठीक स्तर का परिचय, सम्पर्क और लोक-व्यवहार है मेरा। लोगों के सुख-दुःख के प्रसंगों में शरीक होता हूँ और लोग मेरे सुख-दुःख में। लेकिन इस सबमें और अपना सामान्य जीवन जीने में यह समान नागरिक संहिता अब तक न तो जरूरी अनुभव हुई और न ही कभी, कहीं आड़े आई। सब कुछ निर्विघ्न, निर्बाध सम्पन्न होता रहा है। भावोत्तेजित करनेवाला यह विषय हमारे दैनिक जीवन और वैयक्तिकता को शायद ही छूता, प्रभावित करता हो। पहली नजर में मुझे यह विषय सीधे-सीधे वोट से जुड़ा होने के कारण महत्वपूर्ण होता लगता है। हमारे राजनीतिक दलों, राजनेताओं और उनके समर्थकों के लिए यह अवश्य ही उत्प्रेरक या फिर कभी-कभार प्राण-वायु बनता रहता है।
अपने अनुभव के आधार पर मेरी धारण बनी हुई है कि समानता सदैव ही आचरण की विषय वस्तु होती है। कानून या सम्वैधानिक प्रावधान बनाना शायद बहुत ही आसान हो। लेकिन यदि उन कानूनों, प्रावधानों पर ईमानदारी से अमल न हो तो वे हास्याास्पद होकर अपना महत्व और अर्थ खो देते हैं।
गए दिनों मैं इन्दौर में था। 29 जून के अखबारों में छपी एक खबर ने मेरा ध्यानाकर्षित किया। वहाँ, कुछ दुकानों की मौजूदा स्थिति को निगम प्रशासन ने अनुचित माना और उन्हें सील कर दिया। खबर से अनुमान लगा कि अधिकांश (हो सकता है, सारी) दुकानें मौजूदा सत्ताधारी दल भाजपा से जुड़े लोगों के कब्जे में हैं। वहाँ की एक विधायक ने निगम प्रशासन की इस कार्रवाई को अनुचित माना और (अखबारी खबर के अनुसार) रात आठ बजे, नगर निगम की जनकार्य समिति के प्रभारी के घर ‘धरना’ दे दिया। निगम प्रशासन की कार्रवाई को ‘बगैर जाँच की गई’ बताने के साथ-साथ उनके दो सवाल थे-“ निगम अफसर क्या ‘अपने ही लोगों को’ टारगेट कर रहे हैं?” और “हमें राजनीति करने दोगे या नहीं?” अखबार के मुताबिक, ‘सोशल मीडिया पर जमकर मेसेज चला कि पूर्व महापौर कृष्णमुरारी मोघे और भाजपा नेता गोपीकृष्ण नेमा ने निगम अफसरों पर लगाम कसने की बात करते हुए उन्होंने यह बात दोहराई कि निरंकुश अफसरों को बर्दाश्त नहीं करेंगे। केन्द्र और राज्य में हमारी सरकार है।’
ऐसी बातें केवल भाजपाई नहीं कहते। सत्ता के मद में प्रायः सभी दलों के लोग ऐसी बातें करते हैं-कोई कम तो कोई ज्यादा, कोई खुलकर तो कोई लोकलाज का ध्यान रखकर बन्द कमरों में।
इस उदाहरण में निगम प्रशासन की कार्रवाई पर नियमों/कानूनों के आधार/औचित्य के परिप्रेक्ष्य में आपत्ति नहीं उठाई गई। ऐतराज इस बात पर था कि ‘अपने ही लोगों पर’ कार्रवाई की जा रही है जबकि ‘केन्द्र और राज्य में हमारी सरकारें हैं।’
यहीं आकर नियम और वैधानिक प्रावधान अपना अर्थ और महत्व खो देते हैं। अपराध का निर्धारण जब ‘अपना-पराया’ के आधार पर होने लगता है तो सारे कानून बलात्कृत दशा में आ जाते हैं। जब भी किसी प्रभावी व्यक्ति पर कानूनी शिकंजा कसता है तो तमाम नेता एक ही बात कहते हैं - ‘कानून अपना काम करेगा।’ लेकिन बेचारा कानून काम करे तो कैसे? वह काम करे उससे पहले ही उसे मनमाफिक हाँकने की जुगत शुरु हो जाती है।
कानून काम कैसे करता है और पदों पर बैठे लोग कैसे उसका लिहाज पालते, कैसे उसका आदर करते हैं, इसके कुछ किस्से मुझे बरबस ही याद आ गए।
1998-99 में मनोज झालानी रतलाम के कलेक्टर थे। रतलाम को सूरत की तरह साफ-सुथरा बनाने की भावना से उन्होंने, रतलाम के कुछ जनप्रतिनिधियों, गण्यमान्य नागरिकों और प्रबुद्ध लोगों को सूरत भेजा था ताकि वे वहाँ की व्यवस्थाएँ देख कर उन्हें रतलाम में लागू कर, रतलाम को वैसा ही साफ-सुथरा बनाने की सम्भावनाओं पर विचार करने के लिए सुझाव दे सकें। नारायण पाटीदार तब रतलाम के एसडीएम थे। सूरत जानेवाले लोगों में उन्होंने मेरा नाम भी शरीक करवाया था।
सूरत नगर निगम पर भाजपा काबिज थीा वहाँ की व्यवस्थाएँ सचमुच में अविश्वसनीय थीं। वहाँ, सड़कपर थूकने पर आर्थिक दण्ड का प्रावधान था। नियमों/कानूनों का पालन कराने में वहाँ समान-भाव बरता जा रहा था। व्यवस्थाओं और कानूनों/नियमों के क्रियान्वयन को समझने के लिए सूरत नगर निगम की स्थायी समिति के अध्यक्ष नटू भाई (मुझे यही नाम याद आ रहा है) से हमारी बात हुई। मैंने सवाल किया - ‘आप तो राजनीतिक व्यक्ति हैं। आपको वोटों की चिन्ता करनी पड़ती है। जुर्माने से बचने की सिफारिश केे लिए आपके पास तो प्रतिदिन पचासों लोग आते होंगे। आप उनसे कैसे निपटते हैं?’ नटू भाई ने बताया कि शुरु-शुरु में उनका पूरा दिन ही ऐसे मामलों का सामना करने में बीता जाता था। अधिसंख्य लोग उनके कार्यकर्ता होते थे। लेकिन वे एक भी मामले में सिफारिश नहीं करते थे। प्रत्येक से कहते कि वह जुर्माने की रकम उनसे (नटू भाई से) ले ले और जमा कर दे। रकम एक ने भी नहीं ली। प्रत्येक ने जुर्माना चुकाया।
1969 से 1972 के बीच सुश्री विमला वर्मा मध्य प्रदेश की स्वास्थ्य मन्त्री थीं और दादा (श्री बालकवि बैरागी) सूचना-प्रकाशन राज्य मन्त्री। दादा के एक कार्यकर्ता अपने एक साथी के साथ अलसुबह भोपाल पहुँचे। साथी का बेटा पीएमटी में फेल हो गया था। उसे पास कराने का काम लेकर। दादा ने कहा कि वे तो कुछ जानते-समझते नहीं। हाँ, उन कार्यकर्ता और उनके साथी की भेंट विमलाजी से करवा देते हैं। जो भी कहना-सुनना हो, कह-सुन लें। ऐसा ही हुआ। सुन कर विमलाजी ने अपनी बहन को (जो उनके साथ ही रहती थीं) आवाज लगाई और कहा कि वे उनकी बेटी (याने, विमलाजी की भानजी) की, पीएमटी की अंक सूची लेकर आए। उन्होंने अंक सूची, दादा को और दादा ने कार्यकर्ता को थमा दी। कार्यकर्ता ने साथी को दिखाई। दोनों ने मानो एक साथ कहा - ‘चलो! अब क्या कहना-सुनना!’ विमलाजी की सगी भानजी पीएमटी में फेल हो गई थी।
यह घटना रतलाम के राजा सज्जनसिंहजी के शासन काल 1893 से 1947 के बीच की। रियासत के एक प्रमुख अधिकारी श्रीनिवासजी राय को कुछ लोगों ने षड़यन्त्रपूर्वक एक आर्थिक घपले में फँसा दिया। मामला रियासत की कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश श्री शिवशक्ति राय के सामने पेश हुआ। श्रीनिवासजी राय पिता और श्री शिवशक्ति राय पुत्र। पूरी रियासत में सनसनी और उत्सुकता। खुद राजा सज्जनसिंहजी की नजर पूरे मामले पर। बचाव पक्ष के वकील, श्रीनिवासजी को निर्दोष साबित करने में विफल रहे। मुख्य न्यायाधीश ने दोषी (पिता) को छह मास का कारावास और पाँच सौ रुपयों के जुर्माने की सजा सुनाई। अदालत में सन्नाटा खिंच गया।
निर्णय सुनाकर शिवशक्तिजी कुर्सी से उठे। पिता के पास आए। उनके पाँवों में माथा टेककर, धार-धार रोते हुए बार-बार क्षमा माँगी और पहले से ही लिखा हुआ त्याग-पत्र जेब से निकाल कर राजा सज्जनसिंहजी को पहुँचा दिया। इधर पिता परम प्रसन्न। गर्वित। बेटे ने न्याय की रक्षा की और पद की गरिमा कायम रखी। उन्होंने बेटे को बाँहों में भर, गले लगा लिया।
यह अलग बात रही कि श्रीनिवासजी को सजा नहीं भुगतनी पड़ी। राजा सज्जनसिंह समानान्तर रुप से सारे मामले की जाँच करवा रहे थे। उन्हें पहले ही पता चल चुका था कि श्रीनिवासजी को फँसाया गया है। वे निर्दोष हैं। उन्होंने अपने विशेषाधिकार प्रयुक्त करते हुए सजा रद्द कर दी और शिवशक्तिजी को अपने दरबार में सर्वोच्च स्थान देकर सम्मानित किया।
दरअसल, कानून बनाना जितना आसान है, उसकी और उसके मान की रक्षा करना उतना ही कठिन होता है। उसके लिए खुद को दाँव पर लगाना होता है, अपनी कथनी-और करनी में समानता बरतने का प्राणलेवा संघर्ष खुद से पल-प्रति-पल करते रहना होता है।
जाहिर है, कठिन काम करना, खुद से संघर्षरत रहना हमें रास नहीं आता। सो, हम आसान काम करते हैं। किए जा रहे हैं। ऐसा करके हम खुश भी होते हैं। लेकिन हकीकत में हम लोकतन्त्र को निर्बल ही नहीं, विफल भी कर रहे होते हैं और गुनाह बेलज्जत करते हुए कहते हैं - कानून अपना काम करेगा।
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दोनों कतरनें दैनिक नईदुनिया (नगर संस्करण) 29 जून 2016 पृष्ठ 02