यह आख्यान हम सबने कई बार सुना होगा और आश्चर्य नहीं कि हममें से कइयों इसे प्रयुक्त भी किया हो।
कवि रहीम का पूरा नाम अब्दुुल रहीम खानखाना है। वे अकबर के नवरत्नों में से एक थे। वे बड़े दानशील थे। दान देते समय लेनेवाले का चेहरा नहीं देखना उनकी विशेषता थी। नतनयन, नजर झुकाए दान देते थे। कवि गंग, अकबर के दरबारी कवि थे। इनके एक छप्पय पर प्रसन्न होकर रहीम ने इन्हें 36 लाख रुपये भंेट किए थे। रहीम की इस दानशीलता और विनम्रता से प्रभावित हो कवि गंग ने रहीम से पूछा -
सीखे कहाँ नवाब जू, ऐसी दैनी देन।
ज्यों-ज्यों कर ऊँचो कियो, त्यों-त्यों नीचे नैन।।
बड़ी सरलता से रहीम ने उत्तर दिया -
देनहार कोउ और है, देत रहत दिन-रैन।
लोग भरम हम पै करें, ता सों नीचे नैन।।
सम्राट अकबर के रत्न को अपने पद का गुमान नहीं था। उन्हें अपनी अकिंचनता का भान हर पल बना रहता था।
उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के बारे में यह उल्लेख अनेक बार पढ़ा। उन्हें देश-विदेश से बुलावे आते थे। लेकिन इन बुलावों में यदि आकाशवाणी का बुलावा होता तो वे सब बुलावों को परे सरका देते। कहते कि आकाशवाणी ने उन्हें दुनिया भर में पहचान दिलाई और सुबह-सुबह देश के लगभग प्रत्येक घर में पहुँचाया। वे भला इस बात को कैसे भूल सकते हैं? उन्होंने कभी भी ‘आकाशवाणी’ की उपेक्षा, अनदेखी की न ही कभी खुशामद करवाई। ‘आकाशवाणी’ के साथ वे सदैव विनम्रतापूर्व कृतज्ञ भाव से पेश आते रहे।
डॉक्टर रामाचरण राय मध्य प्रदेश के स्वास्थ्य मन्त्री थे। वे दौरे पर जब भी रायपुर जाते, अपने परामर्श केन्द्र पर कुछ देर बैठकर कुछ मरीज जरूर देखते। सरकारी अस्पताल के निरीक्षण के दौरान एक वृद्धा उनके सामने आ खड़ी हुई। उसने शिकायत की कि अस्पताल का डॉक्टर ढंग से उसका इलाज नहीं कर रहा है। उसने छत्तीसगढ़ी में कहा कि उस डॉक्टर के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करे। रामाचरणजी ने उसे ढाढस बँधाया और कहा कि वह डॉक्टर पर भरोसा करे। बहुत अच्छा डॉक्टर है और उसका (वृद्धा का) इलाज वही करेगा। उन्होंने वृद्धा के (ईलाज के) कागज देखे, डॉक्टर से पूछताछ कर एक गोली सुझाई। डॉक्टर से ही कागजों पर लिखवाई, वृद्धा को फिर ढाढस बँधाया और चले आए। लेकिन भोपाल पहुँचकर वे उस वृद्धा को नहीं भूले। फोन पर डॉक्टर से बराबर जानकारी लेते रहे। उन्होंने मन्त्रीपद का रोब जताने के बजाय पद की शालीनता, मर्यादा और ‘डॉक्टर’ की सार्वजनिक प्रतिष्ठा की सुरक्षा की।
एक परिचित ने यह अविश्वसनीय घटना सुनाई थी। एक सुबह ‘ऊँचे घरों’ के दीखनेवाले कुछ लोग उनके मुहल्ले में आए। उन्होंने घरों के सामने आवाज लगाकर भोजन माँगा। लोगों ने जो भी दिया, दोनों हाथ फैलाकर लिया, बिना किसी बर्तन के और वहीं बैठकर खाया। पानी भी माँग कर पीया। मुहल्ले के लोग उन्हें अचरज और विश्वास से देख रहे थे किन्तु वे सबसे बेपरवाह, ‘अपना काम’ करते रहे। मेरे इन परिचित से रहा नहीं गया। कहा - “शकल, व्यवहार और कपड़ों से तो आप लोग ‘खाते-पीते घरों के’ लग रहे हैं। आप यह सब क्या कर रहे हैं?” जवाब मिला कि वे सब सचमुच में ‘खाते-पीते घरों के’ ही हैं। लेकिन शुरु से या खानदानी धनी नहीं हैं। वे सब पड़ौसी प्रदेश से आये थे। आज जरूर वे एक ही शहर में हैं लेकिन सब अलग-अलग गाँव से आकर उस शहर में बसे। सबका बचपन अभावों में, कठिनाइयों के बीच बीता। जिन्दगी ने कदम-कदम पर उनकी परीक्षा ली। कठिन परिश्रम और विकट संघर्ष करते हुए आज की दशा में पहुँचे। सबके सब करोड़पति हैं। वे वर्ष में दो बार किसी दूसरे प्रान्त में, अनजान जगहों पर जाकर इसी तरह माँग कर खाते हैं ताकि अपनी हकीकत भूल न सकें।
बरसों पहले की बात है। स्वर्गीय दिलीप सिंह भूरिया तब मेरे इलाके के सांसद थे। वे आदिवासी थे। एक सरकारी कार्यक्रम में मुख्य अतिथि थे। कार्यक्रम से पहले उनके इलाके का एक आदिवासी दल नृत्य प्रस्तुत कर रहा था। ढोल की थाप, थालियों-झालरों की झनकार पर आदिवासी युवा-युवतियाँ खुद को भूल, मद-मस्त नाच रहे थे। लोग मन्त्र-मुग्ध भाव से नाच में खोए हुए थे। किसी को पता ही नहीं चला और अचानक ही दिलीप भाई तेजी से उठे, अपनी धोती घुटनों तक चढ़ाई, दल में शामिल हो गए और नाच खत्म होने तक नाचते रहे। अपनी कुर्सी पर लौटे तो पसीने में लथपथ थे और हाँफ जरूर रहे थे किन्तु चेहरे पर झेंप या हीन भाव की एक लकीर भी नहीं। परम प्रसन्न, सन्तुष्ट मुद्रा में। लोग तो खुश थे और तालियाँ बजा रहे थे किन्तु तमाम अधिकारी हतप्रभ, चकित थे। कलेक्टर ने जिज्ञासु नजरों से देखा तो बोले - ‘मेरा क्षेत्र, मेरे लोग, मेरे गाँव के साथी नाचें और मैं चुपचाप बैठा देखता रहूँ? अरे! मैं इनमें शामिल नहीं होऊँ तो मैं तो मैं ही नहीं रहूँ!’ कलेक्टर दिलीप भाई की नजरों की ताब नहीं झेल सका। उसकी नजरें नीची हो गईं।
हमारे परिवार के अधिकांश सदस्य आज भले ही आय-कर चुका रहे हैं लेकिन भीख माँगना हमारे परिवार का पेशा था। जैसा कि दादा (श्री बालकवि बैरागी) कहते हैं - उन्हें पहला खिलौना जो मिला वह था, भीख माँगने का कटोरा। लोग ऐसी बातें छुपाते हैं लेकिन दादा हैं कि मौका मिलने पर यह बात बताना नहीं चूकते। गए नौ महीनों में उन्हें चार सम्मान मिले हैं और चारों के चारों लखटकिया। लेकिन दादा आज भी अपने खरीदे हुए कपड़े नहीं पहनते। वे या तो माँगे हुए कपड़े पहनते हैं या कहीं से मिले हुए। कोई उनसे पूछता है तो ठहाका लगा कर कहते हैं - ‘इससे तबीयत और दिमाग, दोनों दुरुस्त रहते हैं।’
प्रसिद्ध भोजपुरी लोक गायक मनोज तिवारी ने यह सब याद दिला दिया। 2014 से वे सांसद (लोक सभा) हैं। एक आयोजन में कार्यक्रम संचालिका ने उनसे एक गीत गाने का आग्रह कर दिया। इसी बात पर वे कुपित हो गए। माइक पर संचालिका को खूब फटकारा। सांसद पद की गरिमा और प्रतिष्ठा का हवाला दिया। उन्हें यह बात अपमानजनक लगी कि उन्हें भोजपुरी लोकगायक के रूप में पहचाना, पुकारा गया। आवेश में वे भूल गए कि ‘सांसदी’ विश्वासघाती प्रेमिका की तरह साथ छोड़ेगी ही छोड़ेगी और लोक गायकी ही चिता तक उनके साथ जाएगी। उनके आदेश के अधीन संचालिका को मंच छोड़ना पड़ा। सारी दुनिया ने यह सब देखा और अभी देख रही है। उनके इस व्यवहार पर सबकी अपनी-अपनी राय हो सकती है। उनका कहा सब कुछ वाजिब हो सकता है किन्तु इस बात से वे खुद कैसे इंकार कर सकते हैं कि उनकी पहली पहचान उनका भोजपुरी लोक गायक होना ही है। इतना ही नहीं, इससे मिली लोकप्रियता और इसीसे बनी उनकी छवि ही उनकी उम्मीदवारी की एकमात्र योग्यता थी। उनसे उनकी राजनीतिक सक्रियता और उनकी पार्टी को उनके योगदान के बारे में पूछा जाएगा तो वे तत्काल शायद ही कुछ बता पाएँ।
मनोज तिवारी की मनोज तिवारी जानें किन्तु ‘टेम्परेरी’ के दम पर ‘परमानेण्ट’ से आँखें फेरना, उसे खारिज या अस्वीकार करना विवेकसम्मत नहीं। ब्याज का लालच मूल को ले बैठता है और आदमी खाली हाथ, खाली जेब रह जाता है।
हम जो नहीं हैं, खुद को वह दिखाने के चक्कर में हम वह भी नहीं रह पाते जो हम हैं।
-----
(दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल में, 23 मार्च 2017 को प्रकाशित)