स्पष्टीकरण

मालवा के एक प्रसिद्ध साहित्यकार हुए हैं - श्री मंगल मेहता। मालवांचल और मालवी बोली उनके रोम-रोम में बसी हुई थी। मालवा और मालवी पर उन्होंने न केवल अपने सामर्थ्य और क्षमता से अधिक काम किया, मालवांचल के बिखरे हुए अज्ञात-अपिरिचित, अनचिह्ने रचनाकारों को ढूँढ-ढूँढ कर उनसे लिखवाने का अद्भुत, अनूठा और श्रमसाध्य काम भी किया। अपनी इसी ‘धुन’ में उन्होंने 1966 में ‘मौन मुखर’ शीर्षक से एक कविता संग्रह प्रकाशित करवाया था। इसके मुखपृष्ठ से इसके रचनाकारों के नाम मालूम हो जाते हैं। दादा श्री बालकवि बैरागी भी इनमें से एक थे। दादा का यह ‘स्पष्टीकरण’ इसी संग्रह में छपा है। 

मुमकिन है, दादा के इस ‘स्पष्टीकरण’ में नया, अनूठा कुछ भी न हो। फिर भी इसमें ‘कुछ’ तो ऐसा मिल ही जाता है जो अच्छा लगता है और दादा की मनोभावनाएँ उजागर करता है। दादा के लिखे को सहेजने के एकमात्र मकसद से इसे यहाँ दे रहा हूँ। इसके साथ दादा का वही चित्र यहाँ दे रहा हूँ जो दादा की कविताओं के साथ ‘मौन मुखर’ में छपा था। ‘मौन मुखर’ में छपी, दादा की सारी कविताएँ दादा के कविता संग्रह ‘दो टूक’ (1971) में उपलब्ध हैं। 

मंगलजी के बेटे विवेक मेहता ने अत्यधिक आत्मीयता और चिन्ता से दादा का यह आत्म-कथन उपलब्ध कराया है। विवेक कच्छ (गुजरात) अंचल के आदीपुर कस्बे में रहता है। 

-----

स्पष्टीकरण

लगता है, इस देश के हर उस आदमी को, जो कि कलम से अपना रिश्ता रखता है, अपराधी माना जाता है। समाज उसे न जाने किन-किन तरीकों से, न जाने कौन-कौन सी सजाएँ देता है। इन कई सजाओं में एक सजा यह भी है कि वह समय-समय पर समाज के सामने अपना स्पष्टीकरण देता रहे कि वह क्यों लिखता है? आज मैं भी फिर से ऐसी सजा भुगत रहा हूँ। अपराधी हूँ सो बयान सो देना ही होगा। फिर, उन बेचारों की तो और भी अधिक शामत आती रहती है तो भूले-भटके ‘ऐसे’ या ‘वैसे’ कवि कहलाने लग जाएँ। यह मेरा भाग्य ही मानिये कि आज तक मैंने अपने आप को कवि नहीं माना है। सो, मेरी सुरक्षा की ग्यारण्टी ज्यादह है,....खैर,

सवाल बड़ा ही बेमानी है कि मैं क्यों लिखता हूँ? कई प्रश्नों के उत्तर नहीं होते। जैसे कि सूरज क्यों चमकता है? नदी क्यों बहती है? फूल क्यों खिलता है? पवन क्यों यायावर है? आदि-आदि। इन प्रश्नों का जो उत्तर होगा, वही कवि के बारे में सही होगा।

लिखना मेरे जीवन की पहली शर्त है। इसके बगैर मैं अपने आप को अधूरा मानता हूँ। न तो यह किसी पर उपकार है न एहसान। लिखे बिना रहा नहीं जाता, सो, लिखता हूँ।

अतीत को मैं आज तक गाली नहीं दे पाया, वर्तमान की विकृति पर मैंने दस्तखत नहीं किये और भविष्य पर अनास्था मैं कैसे पैदा कर लूँ? बहरहाल, इस चौखटे में मैं लिखता हूँ और बगावत के नाम पर बेवकूफी का कोई कार्यक्रम मेरे पास नहीं है।

मूलतः मालवी का कलमगर होने से मैं साधिकार कह सकता हूँ कि ‘जनता’ तत्व से मेरा तनिक विशिष्ट सम्पर्क रहा है। उसे बनाये रखना मेरी आत्मा की भूख है। जनता से मेरा सम्पर्क टूटा कि मैं टूटा। इस टूटन से मैंने आज तक बचने की कोशिश की है। मेरी रचनाओं का राष्ट्रीय पक्ष मेरी इसी प्यास का प्रतिफल है।

युद्ध होते हैं तो मैं भड़क उठता हूँ। इसके पीछे मेरी राष्ट्रीयता ही प्रेरक है। भारत पर थोपे गये आज तक के युद्धों के सन्दर्भ में मैंने और मेरी तरह के अनेक साहित्यकारों ने जो सकारात्मक भूमिका निबाही है उसके समर्थन में मुझे सिर्फ यही कहना है ‘जिस दिन मेरा देश अपनी ओर से किसी पर आक्रमण करेगा उस दिन मैं सबसे पहिले उसका विरोध करूँगा।’ मैं युद्ध का विरोधी हूँ पर देश की कीमत पर नहीं।

मेरे आसपास जितने भी लिख-पढ़ रहे हैं, मैं सबको आदर देता हूँ। सभी मुझसे सहमत हों, यह मेरी जिद नहीं है। बहस का मेरे पास समय नहीं है। काफी कुछ लिखना है।

-----