हिन्दी को लेकर तार्किकता, तथ्यात्मकता, वास्तविकता, व्यवहारिकता और भाषा विज्ञान के आयामों को उजागर करते हुए और समेटते हुए, भाषाविद् डॉक्टर जयकुमार जलज का यह विचारोत्तेजक लेख तनिक बड़ा लग सकता है किन्तु एक साँस में पढ़े जाने का चुम्बकीय प्रभाव लिए हुए है। यह लेख अधिकाधिक प्रसारित किए जाने, यथोचित मंचों तक पहुँचाए जाने और क्रियान्वित किए जाने का अधिकारी है। इस पर अपनी राय तो प्रकट करें ही, इसे इसका यह अधिकार दिलाने में सहायक भी बनें।
अंग्रेजी के सामने हिन्दी: रावण रथी विरथ रघुवीरा
- डॉ. जयकुमार जलज
यह सच्चाई कितनी ही अपमानजनक और पीड़ादायक क्यों न हो पर अब इसे स्वीकार कर लेना चाहिए कि स्वतन्त्र भारत में हिन्दी, अंग्रेजी से पराजित हो गई है। यही एक काम है जो हमने अंग्रेजों से कम समय में कर दिखाया। वे इसे 200 साल में नहीं कर सके। हमें 50 साल से भी कम समय लगा। उन्होंने प्राथमिक शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी को नहीं बनाया था। महानगरों के बच्चे भी मातृभाषा में शिक्षा पाते थे। यूनेस्को की मान्यता है कि बच्चा एक अनजान माध्यम की अपेक्षा मातृभाषा के माध्यम से अधिक तेज गति से सीखता है। लेकिन हमारी नीति और सरकार गाँवों की प्राथमिक शालाओं में अंग्रेजी माध्यम लादने की तैयारी में है।
आजादी के बाद, देश में दो बड़ी समस्याओं, कश्मीर और राजभाषा को दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति से हल किया जाना था। हमने सकुचाते हुए और डर से हल करना चाहा। पाकिस्तान ने कश्मीर पर कबाइली हमला किया। हमले को नाकाम करती हमारी सेना पूरा कश्मीर खाली करवा पाती इसके पहले ही हमने संघर्ष विराम कर लिया। संविधान ने हिन्दी को राजभाषा घोषित तो 14 सितम्बर 1949 को कर दिया था, लेकिन प्रावधान करवाया गया कि यह घोषणा 15 साल बाद लागू होगी। तब तक हिन्दी सक्षम हो जाएगी। 1967 में फिर प्रावधान करवाया गया कि अंग्रेजी अनिश्चित काल तक बनी रहेगी। हिन्दी की सक्षमता कौन, कब और कैसे नापेगा, इस बार मेें कुछ भी नहीं बताया गया। लीपापोती ने कश्मीर व राजभाषा दोनों समस्याओं को नासूर बना दिया। कश्मीर की समस्या सतह पर है। बाह्य है। दिखती है। राजभाषा की समस्या अन्दर की है। दिखती नहीं है। देश की 95 प्रतिशत से अधिक आबादी की मौलिक प्रतिभा अंग्रेजी के कारण ही दीन व गूँगी बनी रहने को अभिशप्त है। नासूर को चीरा लगाना पड़ता है, पर यह काम काँपते हाथों से न हुआ है और न होगा।
14 सितम्बर 1949 को जैसे ही संविधान में हिन्दी को राजभाषा स्वीकार किया गया देश की बहुत बड़ी आबादी जश्न में डूब गई। संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने प्रसन्न भाव से टिप्पणी की - ’हमने जो किया है, उससे ज्यादा अक्लमन्दी का फैसला हो ही नहीं सकता था।’ जश्न मनाते लोग यह समझ बैठे कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित किया गया है। राष्ट्रभाषा (नेशनल लैंग्वेज) और राजभाषा (ऑफिशियल लैंग्वेज) के अन्तर पर उनका ध्यान ही नहीं गया।
सम्विधान सभा ने जब यह प्रावधान किया कि अभी 15 साल तक अंग्रेजी ही राजभाषा यानी सरकारी कामकाज की भाषा बनी रहेगी ताकि हिन्दी को समर्थ होने का वक्त मिल जाए तब इसके निहितार्थ और फलितार्थ का अन्दाजा भी सदस्यों को नहीं हुआ। इसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। भाषा उपयोग से समर्थ बनती हैै। पैरों को भी चलाया न जाए तो वे कमजोर हो जाते हैं। वाहन भी चलाने से ही तो वाहन चलाना आता है। लम्बे समय तक उसे चलाएँगे नहीं तो हमारा, चलाने का सामर्थ्य भी कम होता जाएगा और वाहन को भी जंग लग जाएगी। सत्ता के सिंहासन पर बैठा दी गई अंग्रेजी जहाँ ताकतवर होती गई, वहीं हिन्दी को कमजोर होते जाना पड़ा। फिलवक्त, अंग्रेजी के सामने हिन्दी 'रावण रथी विरथ रघुवीरा' की तरह है।
अगर सरकारी कामकाज में अंग्रेजी का प्रयोग तत्काल बन्द कर दिया जाता तो हिन्दी 10-15 साल तक जरूर लड़खड़ाती हुई चलती लेकिन फिर अपनी सहज, स्वतन्त्र और मौलिक चाल से चलने लगती। उसे अंग्रेजी का पिछलग्गू और अनुवाद की जड़ भाषा बन कर नहीं रहना पड़ता। वह अपने सधे और स्वाभाविक कदमों से चलते हुए एक प्रौढ़/परिपक्व राज भाषा के रूप मे प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेती। उसके पास सिर्फ कागजी प्रमाण-पत्र नहीं, राज भाषा होने का 65 साल का वास्तविक अनुभव होता।
1967 के राजभाषा कानून से तो अंग्रेजी के वास्तविक राजभाषा बनने पर मुहर लग गई। सिद्धान्त और संविधान में हिन्दी भारत की राजभाषा है पर उसकी चलती नहीं। चलती अंग्रेजी की है। जिसे संविधान की आठवीं अनुसूची में भारत की 22 भाषाओं में भी शामिल नहीं किया गया है उस अंग्रेजी में सरकार के मूल दस्तावेज जारी होते हैं। उन्हें प्रामाणिक होने की मान्यता प्राप्त है। उनके साथ उनके हिन्दी अनुवाद नत्थी रहते हैं पर उनकी मान्यता न होने से उन्हें कोई नहीं पढ़ता। हिन्दी अनुवाद लापरवाही और उपेक्षा के शिकार होते हैं। उन्हें बिना पढ़े फाइल कर दिया जाता है। अर्द्ध सरकारी और गैर सरकारी विभागों में भी यही होता है। टेलीफोेन की डायरेक्टरी, रेलवे की समय सारणी आदि पहले अंग्रेजी में आती है, बाद में उनका हिन्दी संस्करण आता है। हिन्दी संस्करण कब आएगा, इसका कोई निश्चय नहीं रहता। लोग अंग्रेजी संस्करण खरीद लेते हैं, बाद में आने वाले हिन्दी संस्करण के लिए भला कौन रुका रहेगा? सरकारी और गैर सरकारी निष्कर्ष निकाल लिया जाता है कि हिन्दी संस्करण की बिक्री नगण्य है।
आजादी के तुरन्त बाद प्रकाशकों को लगने लगा था कि अब तो भविष्य हिन्दी का है। अंग्रेजों ने भी छोटी कक्षाओं में पढ़ाई का माध्यम हिन्दी को ही रहने दिया था। इसलिए प्रकाशकों ने जोर-शोर से हिन्दी किताबें छापना शुरु किया। कुछ अच्छी किताबें बाजार में आने लगीं। ये सहज हिन्दी में थीं। समझ में आती थीं। लेकिन इस बीच सरकारों ने अंग्रेजी में उपलब्ध ज्ञान विज्ञान को भले ही अच्छी नीयत से हो, हिन्दी में लाने की योजना बना डाली। राशि आवण्टित हुई। ग्रन्थ अकादमियों ने अनुवाद करवाना शुरु किया। जिन्हें अनुवाद का काम दिया गया, वे अपने विषय के विशेषज्ञ तो थे पर हिन्दी और अनुवाद का अभ्यास उन्हें नहीं था। इस क्षेत्र में उनकी गति प्रायः शून्य थी।
अनुवाद करवाने वाली संस्थाएँ समय सीमा में अनुवाद चाहती थीं। अनुवादकों में से कुछ ने पारिश्रमिक देते हुए या लिहाज में ही दूसरों से भी अनुवाद करवा लिया। यह भी हुआ कि एक किताब का अनुवाद करवाने में एक से अधिक व्यक्तियों को अलग-अलग पृष्ठ बाँट दिए गए। फिर जिसे जितने पृष्ठ मिले उसने भी उन्हें दूसरों में वितरित किया। इस तरह अनुवाद का काम ठेके पर हुआ। सरकारें/अकादमियाँ/संस्थाएँ भूल गईं कि ठेके पर नहरें तो बन सकती हैं, नदियाँ नहीं। यहाँ तो नहरें भी नहीं बन पाईं।
अनुवादों की भाषा-शैली में एकरूपता के अभाव की चर्चा और आलोचना हुई तो विषय विशेषज्ञों के साथ भाषा विशेषज्ञों को संयुक्त किया गया। भाषा विशेषज्ञों ने भी वही रास्ता अपनाया जो अनुवादकों ने अपनाया था। कहीं-कहीं यह नियम भी रहा कि अनुवाद पर अनुवादक और भाषा विशेषज्ञ का नाम नहीं दिया जाएगा। इससे उन्हें लापरवाही बरतने की पुुख्ता छूट मिल गई। जवाबदेही नहीं रही। अपयश का डर नहीं रहा। ऐसे अनुवादों से न विषय की सेवा हुई न हिन्दी की।
पिछले दिनों यूपीएससी के सी-सेट प्रश्न पत्र के विरोध की जड़ में उसका हिन्दी अनुवाद भी था। टेबलेट कम्प्यूटर और स्टील प्लाण्ट का अनुवाद अगर गोली कम्प्यूटर और स्टील पौधा होगा तो समस्या तो आएगी ही। फिर भी कोई भाषा कठिन शब्दों या पारिभाषिक शब्दों के प्रयोग से उतनी कठिन नहीं होती जितनी गलत वाक्य रचना, परसर्गों के यथास्थान गैर प्रयोग, क्रियाओं के लापरवाह प्रयोग, स्रोत भाषा की प्रकृति को अनुवाद की भाषा पर हावी होने देने से होती है। इन तमाम कारणों ने अनुवाद की जिस हिन्दी को प्रस्तुत किया उससे दुर्भाग्य से यह धारणा बनी कि हिन्दी कठिन भाषा है, कि उसमें ज्ञान-विज्ञान का माध्यम बनने का माद्दा नहीं है।
हिन्दी का रथ रोकने के लिए आजादी के पहले से ही प्रयत्न होने लगे थे, एक दुखद लेकिन ताकतवर प्रयत्न यह हुआ कि संस्कृत और उर्दू को हिन्दी के बरअक्स खड़ा कर दिया गया। कहा गया कि संस्कृत समर्थ भाषा है। देश को जोड़ती है। देश की हर भाषा में बड़ी संख्या में उसके शब्द सम्मिलित हैं। वह हमारी संस्कृति की भाषा है। उसमें हर तरह का ज्ञान विज्ञान है। वह एक बड़ी आबादी के धर्म की भाषा भी है। उसमें कालिदास जैसे कवियों का साहित्य है। वह एक पुुरानी भाषा है। काश! संस्कृत की पैरवी करने वालों ने कालिदास के इस कथन पर ध्यान दिया होता कि ‘किसी वस्तु की अच्छाई उसके नए या पुराने होने पर निर्भर नहीं होती।’ भाषा का बोला जाने वाला रूप ही उसका मूल रूप होता है। वही उसे विकास यानी परिवर्तन की दिशा में आगे ले जाता है। लिखित रूप तो बोले जाने वाले रूप की नकल होता है। वह विकास नहीं करता बल्कि विकास का विरोधी भी होता है। संस्कृत जब बोली जाने वाली भाषा थी तब उसने भी विकास किया था। तब उसके विकास की गति बहुत तेज थी। लगभग 500 साल की अवधि में वह इतनी विकसित अथवा परवर्तित हुई कि उसके नए रूप को एक स्वतन्त्र भाषा प्राकृत नाम दिया गया। फिर प्राकृत को अपभ्रंश और अपभ्रंश को हिन्दी नाम दिया गया। यह परिवर्तन संस्कृत भाषा का क्रमिक विकास ही है। हिन्दी अपभ्रंश की बेटी, प्राकृत की पोती और संस्कृत की पड़पोती है। संस्कृत आदर की पात्र है पर विकास में वह पीछे छूट चुकी है।
भाषा का विकास कठिनता से सरलता की ओर होता है। वह जटिलता का केंचुल उतार कर उसे इतिहास के कूड़ेदान में फेंकती हुई आगे बढ़ती है। संस्कृत को अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए तीन लिंग, तीन वचन और आठ विभक्तियों का सहारा लेना पड़ता है। हिन्दी यह काम दो लिंग, दो वचन, और तीन विभक्तियों से कर लेती है।
आठ कारकों का भाव प्रकट करने के लिए संस्कृत को कुछ शब्दों के 72 रूपों तक का सहारा लेता पड़ता है। हिन्दी सिर्फ छह रूपों से आठों कारकों का भाव प्रकट कर लेती है। हिन्दी में तीन विभक्तियाँ है। एकवचन और बहुवचन इन दोनों वचनों में उसके रूप हैं - लड़का लड़के, लड़के लड़कों, हे लड़के, हे लड़को। संस्कृत रूपों को रटने का बच्चों का डर अनुचित और अस्वभाविक नहीं है। हिन्दी में परसर्गों का प्रयोग इस समस्या को पैदा ही नहीं होने देता।
संस्कृत के विशेषणों को विशेष्य के लिंग और वचन का अनुसरण करना पड़ता है। हिन्दी के सिर्फ आकारान्त विशेषणों में ऐसा होता है। संस्कृत कृदन्तों से विकसित होने के कारण हिन्दी क्रियाओं में कर्ता के अनुसार लिंग परिवर्तन की समस्या जरूर है पर अब उसे इससे भी निजात मिलने को है। लड़कियों की बातचीत में इसके संकेत एकदम साफ हैं - 'दीदी, कल आप कॉलेज नहीं चले। आज चलोगे। मोहिनी दीदी तो आए थे।' अब यह नहीं कहा जाता कि मोहिनी दीदी आई थीं। हम गए थे, हम आए थे, हम आपका इन्तजार करते रहे, ऐसा कहा जा रहा है। हम आपका इन्तजार करती रहीं, ऐसा नहीं कहा जाता।
संस्कृत द्वारा किया गया हिन्दी का प्रतिरोध अधिक दिन नहीं चला। उसमें आक्रामकता भी नहीं थी लेकिन उर्दू से जो प्रतिरोध करवाया गया वह लम्बे समय तक चला। उसमें आक्रामकता भी थी। इसका कारण यह था कि इसे राजनीतिक शह मिली हुई थी। अंग्रेजों ने हर स्तर पर हर क्षेत्र में देश में फूट डालने की कोशिश की थी। शुरु में जॉन गिलक्राइस्ट और फोर्ट विलियम कॉलेज, कोलकाता के माध्यम से हिन्दी, उर्दू को दो अलग-अलग भाषाएँ माना गया। प्राथमिक शिक्षा के लिए दोनों में अलग-अलग किताबें छापी गईं। उन्हें पढ़ने वाली जातियाँ कौन सी होंगी, यह भी बताया गया। यह एक ऐसा घिनौना खेल था जो अन्ततः इस देश के दो टुकड़े कर गया।
हिन्दी और उर्दू का डीएनए एक ही है। दोनों में संरचनात्मक एकता है। लिपि की भिन्नता और शब्द समूह की थोड़ी बहुत भिन्नता भाषाओं की तुलना करने में निर्णायक नहीं होती। आजादी के पूर्व हिन्दी और उर्दू को अलग-अलग बताने वालों के उद्देश्य और प्रयत्न ही नहीं, समझ भी भाषा वैज्ञानिक नहीं थी। वे तो सिर्फ अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करना चाहते थे। उन्हें सफलता भी मिली। पाकिस्तान बना। वहाँ भी उन्होंने भाषा वैज्ञानिक समझ का परिचय नहीं दिया। उर्दू, जो पाकिस्तान में बोली ही नहीं जाती थी, पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा बना दी गई। इसका खामियाजा उन्हें पूर्वी पाकिस्तान खो कर उठाना पड़ा।
हिन्दी की सरंचनात्मक एकता जितनी उर्दू के साथ है उतनी उसकी अपनी कई बोलियों के साथ भी नहीं है। यह अकारण नहीं है। हिन्दी के पाठक को मीर, फैज फिराक की भाषा प्रायः जितनी जल्दी समझ में आती है, उतनी मैथिली के विद्यापति, अवधी के जायसी या तुलसी की नहीं। 'साये में धूप' के कवि दुष्यन्त की गजलें जितनी हिन्दी की हैं, क्या उतनी ही उर्दू की नहीं लगतीं?
बीती सदी के मध्य के कुुछ दशकों में हिन्दी उर्दू के बीच जो तलवारें खिंची हुई थीं, वे अब म्यान से भी निकाल कर दूर फेंकी जा चुकी हैं। हिन्दी की एम. ए. कक्षाओं में उर्दू साहित्य और उर्दू की एम. ए. कक्षाओं में हिन्दी साहित्य पढ़ाया जा रहा है। हिन्दी के कवि त्रिलोचन की दृष्टि में तो उर्दू कवि गालिब अपनों से भी ज्यादा अपने हैं - 'गालिब गैर नहीं हैं, अपनों से अपने हैं।'
उर्दू भारत की भाषा है। भारत की भाषाओं की आठवीं अनुसूची में शामिल है, जिसमें अंग्रेजी शामिल नहीं है। उर्दू की नाल भारत में ही गड़ी है। उसके रिसालेे देवनागरी लिपि में प्रकाशित होकर लोकप्रिय हो रहे हैं। अयोध्याप्रसाद गोयलीय, प्रकाश पण्डित जैसे दूरदर्शी सम्पादकों ने बरसों पहले से हिन्दी पाठकों को उर्दू से जोड़ रखा है।
संस्कृत, उर्दू और तमिल से करवाया गया हिन्दी विरोध शान्त हुआ तो हिन्दी को लगा होगा कि अब उसके अच्छे दिन आ गए। पर अच्छे दिन इतनी जल्दी कहाँ आते हैं ? हिन्दी के सामने अब अंग्रेजी की शातिर चुनौती है। चालें चुपचाप चली जा रही हैं। उच्च वर्ग और नौकरशाही नहीं चाहती कि जनता को सत्ता में वास्तविक हिस्सेदारी मिले। वह तो चाहती है- जनता मतदान करे और भ्रम में बनी रहे कि वही मालिक है। सत्ता को जनता से भिन्न होना और भिन्न दिखना ही पसन्द होता है। सत्ता की भाषा जनता जैसी हुई तो वह काहे की सत्ता? जनता हिन्दी बोलती थी। बोलती रही। पर सत्ता की भाषा संस्कृत, फिर फारसी, फिर अंग्रेजी हुई। कई छोटे रजवाड़ों में भी राजकाज की अलग भाषा थी। अंग्रेजी को 1967 में ही हमने अभयदान दे दिया था कि वह अनिश्चित काल तक हमारे गणतन्त्र में राज करती रहे। हमारी सरकारें नर्सरी से लेकर बड़ी कक्षाओं तक छात्रों को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाना चाहती हैं। स्नातक कक्षाओं में हिन्दी को वैकल्पिक बनाने का खेल शुरु हो चुका है। गाँवों में अंग्रेजी माध्यम के सरकारी स्कूल खोलने की तैयारी है।
बच्चों की सारी ऊर्जा अंग्रेजी पढ़ने में खर्च हो रही है। उनके हाथ न अंग्रेजी आएगी और न अन्य विषय। भाषा ज्ञान नहीं होती, ज्ञान तक पहुँचने का माध्यम होती है। व्यक्ति का अधिकार एक भाषा पर होना चाहिए। थोड़ी-थोड़ी गति सब भाषाओं में होने से तो व्यक्ति दुभाषिया बन सकता है ज्ञानवान नहीं। बिल गेट्स सिर्फ एक भाषा अंग्रेजी जानते हैं।
अंग्रेजी की गुलामी के हमारे संस्कार आज भी सिर उठाते रहते हैं। हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे अंग्रेजी बोलें। हमारी चमड़ी अंग्रेजों जैसी गोरी हो। अपनी इन दोनों इच्छाओं को पूरा करने पर हमारी गाढ़ी कमाई का पैसा पानी की तरह बह रहा है। हम न अंग्रेजी बोल पा रहे हैं और न हमारी चमड़ी गोरी हो पा रही है।
पंजाब जैसे उन्नत राज्य में दसवीं में अस्सी हजार बच्चे अंग्रेजी में फेल हुए तो वहाँ शिक्षामन्त्री ने शिक्षकों का अंग्रेजी में टेस्ट लिया। सिर्फ एक ही शिक्षक पास हो पाया (दैनिक भास्कर, 26 जून 2015)। हम अनुमान लगा सकते हैं कि राजस्थान, म. प्र., बिहार, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ आदि में अंग्रेजी की पढ़ाई की क्या स्थिति होगी ?
यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि अगर देश की भाषा अंग्रेजी हो जाए तो देश में समृद्धि आ जाएगी। ध्यान देने की बात है कि दुनिया के सबसे समृद्ध देशों में शासन-प्रशासन और शिक्षा वहाँ की मातृभाषा में होती है; जैसे जर्मनी, चीन, फ्रांस आदि। केवल चार देशों की भाषा अंग्रेजी है। वह इसलिए कि अंग्रेजी ही उनकी मातृभाषा है। संसार के सबसे गरीब देशों में से 18 की भाषा उनकी मातृभाषा नहीं ,बल्कि अंग्रेजी है। अफ्रीका के राष्ट्रों की भाषा उनकी मातृभाषा की जगह अंग्रेजी या फ्रांसीसी है। इन राष्ट्रों की बदहाली सारी दुनिया जानती है।
चीन की मन्दारिन के बाद हिन्दी संसार की सबसे अधिक जनसंख्या वाली भाषा है। वह बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, म. प्र., राजस्थान, उ. प्र., हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड की राजभाषा है। अण्डमान-निकोबार, चण्डीगढ़, दादर-नागर हवेली, दमन-दीव और दिल्ली में उसकी हैसियत राजभाषा की है। भारत के बाहर फिजी में दो अन्य भाषाओं के साथ वह वहाँ की राजभाषा है। अंग्रेजी भक्तों को भला यह कैसे सुहा सकता है कि संख्या बल में ही सही अंग्रेजी, हिन्दी से नीचे हो। इसलिए अवधी, बुन्देली, ब्रज भोजपुरी आदि को वे हिन्दी में शामिल नहीं करते। वे इन्हें हिन्दी नहीं मानते। दरअसल खड़ी बोली, बुन्देली, भोजपुरी, मालवी, निमाड़ी, मेवाड़ी, ब्रज, अवधी आदि मिल कर ही तो हिन्दी हैं। वे सब हिन्दी के मोहल्ले हैं। इब्राहीमपुरा, एमपी नगर, अरेरा कॉलोनी, निराला नगर आदि मिल कर ही तो भोपाल हैं। इन मोहल्लों के बिना भोपाल कहाँ होगा? शायद ही किसी देश ने अपनी किसी भाषा को राजभाषा के सम्वैधानिक सिंहासन पर बैठा कर उसका निरन्तर ऐसा अपमान किया हो। राम को 14 साल का वनवास मिला था। हिन्दी को अनिश्चितकाल का वनवास दिया गया है। सामाजिक क्षेत्र में अंग्रेजी हमारे पढ़े लिखे होने का सबूत और हैसियत की भाषा है। और हिन्दी? उसे सब बोलते हैं। वह सबकी है। जो सबकी हो वह विशेष कैसे हो सकती है? इधर एक नया मुहावरा प्रचलित हुआ है। काम बिगड़ने, बेइज्जत करने को हिन्दी होना कहा जाने लगा है - 'मेरा तो सारा काम हिन्दी हो गया।', 'उसने सबके सामने मेरी हिन्दी कर दी।'
एक विषय के रूप में अंग्रेजी पढ़ना अच्छी बात है पर देश के कामकाज पर, देश के बोलने पर उसे थोपने से काम बिगड़ता है। सन् 1981 की जनगणना में देश में 2 लाख 2 हजार 400 लोगों की प्रथम भाषा अंग्रेजी थी। 2001 में यह संख्या 2 लाख 26 हजार 449 हो गई। बीस साल में सिर्फ 24 हजार लोग बढ़े। ऐसे में अंग्रेजी के सहारे 'सबका साथ सबका विकास' कैसे सधेगा ?
अंग्रेजी नियुक्ति, पदांकन, पदोन्नति का अघोषित आधार बनी हुई है। हमारा सिनेमा और हमारी किक्रेट, खाते हिन्दी का हैं और बजाते अंग्रेजी का हैं। हिन्दी के धारा प्रवाह भाषण सारे देश में सुने, समझे, सराहे जाते हैं। चुनावों में जीत दिलाते हैं, फिर भी हमारी रट है कि अंग्रेजी देश को जोड़ती है।
जब तक दीया तले अंधेरा है, संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी को मान्यता मिलना मुश्किल है। विदेशी राजनयिक भारत में अपनी पद स्थापना के पूर्व यथासम्भव हिन्दी सीख कर भारत आते हैं। भारत में उन्हें हिन्दी का माहौल गायब मिलता है तो वे हिन्दी भूल जाते हैं। विदेशियों को शिकायत है कि वे हिन्दी में मेल भेजते हैं, भारत उन्हें अंग्रेजी में उत्तर देेता है।
हिन्दी के साथ उसकी लिपि देवनागरी को भी आलोचना का शिकार होना पड़ा है। भाषा स्वभाविक होती है, लिपि कृत्रिम। बोेलने को बच्चा खुद सीखता है, लिखना उसे हाथ पकड़ कर सिखाया जाता है। इसलिए भाषा में तो प्रयत्नपूर्वक परिवर्तन नहीं किया जा सकता है, लिपि में किया जा सकता है। नागरी प्रचारिणी सभा, हिन्दी साहित्य सम्मेलन आदि के प्रयत्नों के बाद 1953 में उत्तरप्रदेश शासन ने भी देवनागरी सुधार का काम किया। उसके कई सुधार स्थायी साबित हुए। वे आज भी प्रचलन में हैं। जैसे अ, ण को ही मान्य किया गया है। इनके दूसरे रूपों को नहीं। कुछ लिपि चिह्नों की बनावट को बदल कर उन्हें असंदिग्ध बनाया गया है। अब ख, ध, भ ही प्रचलन में हैं। इनके अन्य/पुराने रूप अब भुला दिए गए हैं।
देवनागरी में कमियाँ हैं। वह ध्वन्यात्मक नहीं, अक्षरात्मक है। कहीं-कहीं तीन मंजिला इमारत जैसी है। इ की मात्रा कभी-कभी अपने उच्चारण क्रम में जैसे चन्द्रिका में बहुत पहले लगाई जाती है। लेकिन कमियाँ तो संसार की हर लिपि में हैं। रोमन में लिखने के हमारे प्रयत्नों ने हमें कम नुकसान नहीं पहुँचाया है। हमारे शब्दों के न सिर्फ उच्चारण भ्रष्ट हुए हैं, बल्कि अर्थ का अनर्थ भी हुआ है। बुद्ध, कृष्ण, योग, गुप्त, मिश्र शुक्ल जैसे अकारान्त शब्द आकारान्त कर दिए गए हैं। मैथिलीशरण गुप्त, द्वारिकाप्रसाद मिश्र, रामचन्द्र शुक्ल जैसे कुछ व्यक्ति ही गुप्त, मिश्र, शुक्ल बने रह पाए हैं। कृष्णा का अर्थ कृष्ण नहीं, द्रोपदी होता है। उपन्यासकार चेतन भगत का तर्क है कि रोमन को अपनाने से हिन्दी को आधुनिक तकनीक का फायदा मिल जाएगा। यह तो देह को कपड़े के नाप का बनाने का सुझाव है। आधुनिक तकनीक का जन्म पश्चिम में हुआ। स्वभावतः उसकी पहली अभिव्यक्ति रोमन लिपि में हुई। अब इण्टरनेट पर अन्य लिपियों और भाषाओं का प्रयोग भी बढ़ रहा है। सन् 2000 में इण्टरनेट पर 80 प्रतिशत जानकारी अंग्रेजी और रोमन में उपलब्ध होती थी। अब वह प्रतिशत 40 से भी कम है। देवनागरी में टंकण की कई समस्याओं को कम्पनियाँ तेजी से सुलझाती जा रही हैं। देवनागरी फोण्ट्स पर लाखों लोगों के हाथ तेज गति से दौड़ रहे हैं। माइक्रोसोफ्ट कम्पनी ने माना है कि भारतीय व्यापार का 95 प्रतिशत अब भी भारतीय भाषाओं और भारतीय लिपियों में हो रहा है। स्पष्ट है कि अंग्रेजी और रोमन लिपि के वर्चस्व की सम्भावनाएँ सिकु़ड़ रही हैं। हिन्दी के सन्दर्भ में निराशा धीरे-धीरे छँट रही है। हम जानते हैं कि अन्ततः राम की ही विजय हुई थी।
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सम्पर्क: डॉ. जयकुमार जलज, 30 इन्दिरा नगर, रतलाम-457001 (म. प्र.),
मो. न. 9407108729, फोन (07412) 260911, 404208,
ई-मेल: jaykumarjalaj@yahoo.com
(भोपाल से प्रकाशित मासिक 'साक्षात्कार' के सितम्बर 2016 अंक से साभार।)