वे आँखें परेशान करती हैं

1977 का वह दिन और आज का दिन। उस चाँटे की आवाज कानों में जस की तस गूँज रही है और तपिश अभी भी गाल पर महसूस हो रही है। खास बात यह कि वह चाँटा मुझे नहीं पड़ा था।

मेरे ब्याह को डेढ़ बरस भी नहीं हुआ था। नौकरी करना फितरत में नहीं था और न थी कमा-खाने की जुगत भिड़ाने की अकल। मन्दसौर में सक्रिय पत्रकारिता में था। उस समय दैनिक ‘दशपुर-दर्शन’ का सम्पादक था। लेकिन पत्रकारिता के उच्च नैतिक आदर्श निभाते हुए कमाई कर लेने का करिश्मा मेरे बस के बाहर की बात थी। गृहस्थी चलाना तो कोसों दूर, अकेले का पेट पालना भी कठिन था। तभी एक अपराह्न, बाबू (यादवेन्द्र भाटी) रतलाम से आया। उसके साथ जैन साब (विजय कुमार जैन) भी थे। वे थे तो मूलतः सागर के लेकिन रतलाम में ही, ग्लुकोज/सलाइन बोतलें बनानेवाली इकाई में मेन्यूफेक्चरिंग केमिस्ट के पद पर नौकरी कर रहे थे। दोनों रतलाम में, दवाइयाँ बनानेवाली इकाई स्थापित करने की योजना बनाए हुए थे। जैन साब से मेरा कोई परिचय नहीं था। बाबू मेरा हितचिन्तक रहा है। उसने मुझसे पूछे बिना और मुझे बताए बिना मुझे तीसरा भागीदारी बना लिया था। वह भागीदारी अनुबन्ध टाइप करवा कर लाया था। दोनों आए उस समय मैं दफ्तर में बैठा अखबार के मुख पृष्ठ की तैयारी शुरु कर रहा था। बाबू ने जैन सा‘ब से मेरा परिचय कराया और कहा कि कुछ जरूरी बात करनी है जो दफ्तर में नहीं हो सकती। हम तीनों नयापुरा से निकल कर सुचित्रा टाकीज के सामनेवाली होटल पर आए। बाहर लगी बेंच पर बैठे। बाबू ने वह भागीदारी अनुबन्ध मेरे सामने रखा और कहा कि जहाँ-जहाँ मेरा नाम लिखा है, वहाँ-वहाँ हस्ताक्षर कर दूँ। मैंने हस्ताक्षर कर प्रश्नाकुल आँखों से उसे देखा। वह हँसते हुए बोला - ‘तुम एक फार्मास्युटिकल यूनिट में पार्टनर हो गए हो। रतलाम शिफ्ट होने की तैयारी करो।’ मैं घबरा गया। मेरी जेब में फूटी कौड़ी नहीं थी। बाबू फिर हँसा और बोला - ‘तुम्हें कुछ नहीं करना है। तुम वर्किंग पार्टनर हो।’ और तेरह अगस्त 1977 को मैं रतलाम आ गया। 

कच्चा खाका बना हुआ था। काम-काज का बँटवारा हो चुका था। प्रबन्धकीय/प्रशासकीय और वित्तीय व्यवस्था बाबू के जिम्मे थी। जैन सा‘ब दवाइयों का निर्माण देखेंगे। बाहर की भाग-दौड़ मैं करूँगा। हमें म. प्र. वित्त निगम (एम.पी.एफ.सी.) से लोन लेना था। इसका मुख्यालय इन्दौर में था। इन्दौर आना-जाना मेरे जिम्मे ही हुआ। मुझे न तो पैसे-कौड़ी की अकल न ही धन्धे की सूझ। उस पर पत्रकारिता की अकड़ बनी हुई। मुझे तो सवाल पूछने की आदत। जबकि यहाँ छोटी से छोटी बात का भी जवाब देना होता था। वह भी विस्तार से और याचक मुद्रा में। मुझे तो पल-पल अपने आप से जूझना पड़ता था - ‘मेरी किसी मूर्खता से बाबू का और जैन सा‘ब का कोई नुकसान न हो जाए।’ खास-खास मौकों पर बाबू साथ आता लेकिन छोटे-मोटे कामों के लिए मैं ही जाता था। ये ‘छोटे-मोटे काम’ मेरे लिए हर बार हिमालय पार करने जैसे होते थे।

रतलाम से इन्दौर की दूरी 135 किलो मीटर है। उन दिनों बसें बहुत ज्यादा नहीं चलती थीं। पूरी सड़क ‘सिंगल रोड़’ और बहुत खराब। बस को लगभग चार घण्टे लगते थे इन्दौर पहुँचने में। पहली बस सुबह छः बजे निकलती थी। दफ्तरों का काम निपटानेवालों के लिए यही बस अनुकूल होती थी - दफ्तर खुलने से पहले पहुँच जाओ और काम निपटा कर शाम को वापस रतलाम के लिए चल दो। लेकिन मेरे लिए यही सबसे बड़ी प्रतिकूलता थी। मैदानी पत्रकारिता के कारण मेरी कोई नियमित दिनचर्या नहीं थी। अनियमित दिनचर्या ही मेरी नियमित दिनचर्या थी। आज भी वही दशा है। सुबह जल्दी उठना मेरे लिए सबसे कड़ी सजाओं में से एक है। मुझे रात भर जगवा लीजिए, लेकिन सुबह जल्दी उठने की मत कहिए। सो, उन दिनों, रतलाम से इन्दौर तक की पूरी यात्रा मैंने हर बार सोते/ऊँघते हुए ही पूरी की। 

रतलाम से चालीस किलो मीटर की दूरी पर, बदनावर में बस का पहला पड़ाव होता है। बदनावर की कचोरी इस अंचल में बहुत प्रसिद्ध है। इसका अनुमान इस बात से ही लगाया जा सकता है कि इस अंचल के केटररों के मेनू में ‘बदनावरी कचोरी’ एक व्यंजन के रूप में शामिल है। इमली की चटनी और दही के साथ हींग-काली मिर्च वाले जायकेदार सिंगदानों से सजी गरम-गरम बदनावरी कचोरी की तेज गन्ध अच्छे-अच्छे विश्वामित्रों की तपस्या भंग कर देती है। घर से खाली पेट चले लोग, नाश्ते के नाम पर यहाँ की कचोरियों के साथ ‘असल मालवी चरित्र’ के तहत ‘सम्पूर्ण न्याय’ करते हैं। तले-गले के कड़े परहेजी लोग, अपने डॉक्टरों, परिजनों की सारी हिदायतें, चेतावनियाँ ताले में बन्द कर इन कचोरियों पर टूट पड़ते हैं। एक कचोरी से किसी का काम नहीं चलता। एक नमूने से बात शायद आसानी से और अधिक प्रभावी ढंग से समझ में आ जाएगी।

श्री मध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति (इन्दौर) के वर्तमान प्रधान मन्त्री श्री सूर्यप्रकाशजी चतुर्वेदी रतलाम कॉलेज में प्रोफेसर हुआ करते थे। तब से आज तक वे बदनावरी कचोरी के दास बने हुए हैं। वे इन्दौर के हैं। आज वे अस्सी बरस के आसपास होंगे। उन्हें वे बीमारियाँ घेरे हुए हैं जिनमें तला-गला खाना निषिद्ध है। लेकिन उन्हें जब भी इन्दौर से रतलाम, मन्दसौर, नीमच इलाके में जाने का काम पड़ता है तो वे अनिवार्यतः बदनावर होकर ही यात्रा करते हैं और परिवार में घोषणा करके आते हैं कि वे आते-जाते, बदनावर में कम से कम दो-दो कचोरियाँ तो खाएँगे ही खाएँगे। बदनवारी कचोरी के व्यसनी, ऐसे अनगिनत चतुर्वेदीजी बदनावर से रोज गुजरते हैं। 

बदनावर तब तहसील मुख्यालय हुआ करता था। अब शायद उप सम्भाग हो गया हो। यह इस इलाके का अच्छा-भला व्यापार केन्द्र है। कपास और अनाज मण्डी है। अंचल के कई गाँवों, कस्बों का मुख्य बाजार यही है। यहाँ का बस अड्डा यदि बहुत बड़ा नहीं तो बहुत छोटा भी नहीं है। वहाँ कोई न कोई बस आती-जाती रहती है। बस के रुकते ही, होटलों पर काम करनेवाले बच्चे इन बसों में चढ़कर यात्रियों को आवाजें देने लगते हैं। इन आवाजों से मुझे बहुत परेशानी होती थी। मेरी नींद में व्यवधान जो पड़ता था! 

उस दिन भी यही हुआ। बस बदनावर बस अड्डे पर रुकी। लोग फटाफट उतरे। बस में हम गिनती के यात्री रह गए थे: पाँच-सात महिलाएँ और दो-एक बूढ़े। आठ-नौ बरस की उम्रवाले तीन बच्चे अन्दर आकर, अपनी आदत और जिम्मेदारी के अनुरूप जोर-जोर से ‘कचोरी-पोहे! गरम गरम कचोरी-पोहे!’ की आवाजें लगाने लगे। दो बच्चे तो थोड़ी देर में चले गए लेकिन एक बच्चा बराबर आवाज लगाता रहा। मुझे परेशानी होने लगी। मैंने अधखुली आँखों से, गुस्से से उसे देखा। मुझे अपनी ओर देखते देख वह अधिक उत्साह से आवाज लगाने लगा। मैंने उसे टोका। लेकिन वह चुप नहीं हुआ। मैंने तनिक डाँटते हुए कहा - ‘गिनती के लोग यहाँ बैठे हैं। सबने तेरी बात सुन ली। अब भाग जा।’ लेकिन उसने मेरी बात नहीं सुनी। आवाज लगाता रहा। मैंने जोर से कहा - ‘सुना नहीं? मैंने कहा ना! भाग जा। चल भाग!’ उसने पलट कर कहा - ‘मैं अपना काम कर रहा हूँ। आपको क्या? आप अपना काम करो।’ मुझे गुस्सा आ गया। चिल्लाया - ‘सामने बोलता है? जाता है या चाँटा टिकाऊँ?’ मेरी शकल देख और चिल्लाना सुन वह सहमा। लेकिन कुछ ही पलों में सामान्य हो बोला - ‘क्यों नाराज होते हो बाबूजी? मैं आपका क्या ले रहा हूँ? मुझे अपना काम करने दो।’ यह सुनना था कि मैं अपने बस में नहीं रहा। मेरा धैर्य छूट गया और मैंने जोर से, उसे चाँटा मार दिया। बच्चा हतप्रभ हो गया। उसके साथ ऐसा शायद पहली बार हुआ था। उसे मानो विश्वास ही नहीं हुआ। अपने गाल पर हाथ रख कर मुझे ताकने लगा। मुझे लगा था, वह रोना शुरु कर देगा और रोते-सुबकते बस से उतर जाएगा। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। वह, उसी मुद्रा में मुझे ताकता रहा। कुछ इस तरह कि मैं असहज हो गया। नजरें चुराने लगा। उसकी आँखों में न तो गरीबी की लाचारी थी न ही बच्चा होने का, शरीरिक दुर्बलता का भाव। इस क्षण भी मुझे उसकी वे, ताब भरी, मुझे घूरती आँखें साफ-साफ दिखाई दे रही हैं। वे ही आँखें मुझ पर गड़ाए हुए बोला - ‘बस! मार दिया झापट? हो गई तसल्ली? अब बाबूजी! मैं भी आपको एक झापट मार दूँ तो? क्या इज्जत रह जाएगी आपकी? यहाँ अभी भले ही कोई नहीं देख रहा है। लेकिन आप क्या कभी मेरे झापट को भूल जाओगे?’ कह कर वह, बिना रोए-सिसके बस से उतर गया।

उसका उतरना था कि मुझे मानो कँपकँपी छूट गई। मैं समझ ही नहीं पाया कि मैंने क्या कर दिया और वह बच्चा क्या कर गया। मेरी उम्र तीस बरस और उसकी आठ-नौ बरस। झापट नहीं मार पाता लेकिन मारने की कोशिश तो कर ही सकता था! प्रतिशोधग्रस्त आदमी को न तो उम्र की बाधा होती है न ही शारीरिक बल की। वह तो कुछ भी कर गुजरता है। लेकिन वह बच्चा न तो गुस्से में आया न ही बदले की भावना में बहा। वह संयत बना रहा और मुझे क्षमा कर चला गया। 

थोड़ी देर में बस इन्दौर के लिए चल दी। लेकिन मैं उसके बाद, पल भर नहीं सो पाया। और केवल उस दिन ही क्यों? उसके बाद बरसों तक, मैं जब भी उस बस से गया, कभी नहीं सो पाया। कभी बदनावर में उतरा भी नहीं। बस बदनावर के ज्यों-ज्यों पास पहुँचती, मेरा दिल बैठने लगता - कहीं उस बच्चे से सामना न हो जाए। वह सामने आ गया तो मेरा क्या हाल होगा? जब तक बस बदनावर से चल नहीं देती, मैं इस तरह से बस में बैठा रहता मानो कोई अपराधी पुलिस से बचने के लिए छिपा-बैठा हो।

आज भी जब-जब भी यह सब याद आता है तो घबरा जाता हूँ। पसीना-पसीना हो जाता हूँ। उस चाँटे की आवाज कानों में गूँजने लगती है। उसकी तपिश अपने गाल पर महसूस होने लगती है। लेकिन सबसे ज्यादा परेशानी होती है, उस लड़के की ताब भरी आँखों से। वे आँखे अब भी मेरी आँखों में गड़ी हुई हैं।
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देश पहली इण्टरनेट साहित्य पत्रिका ‘रचनाकार’ ने  
इस संस्मरण को 26 मार्च 2018 को प्रकाशित किया।


नया भारत पाने की कीमत केवल डी. रूपा ही चुकाए?

मध्य प्रदेश के, वााणिज्यिक कर विभाग के पूर्व अतिरिक्त आयुक्त श्री शमशेर बहादुरजी सिंह (जिन्हें एस. बी. सिंह के नाम से ज्यादा जाना जाता है) ने गए दिनों मुझे एक वीडियो भेजा था। लगभग नौ मिनिट के इस वीडियो में एक महिला आईपीएस अधिकारी पुलिस अधिकारियों को सम्बोधित करती अनुभव हो रही थी। भाषण के अन्दाज से लग रहा था कि ये अधिकारी या तो आईपीएस बन चुके थे या बननेवाले हैं। वीडियो का सम्पादन इतना चुस्त था कि लगता था मानो यह अधिकारी बिना साँस लिए बोल रही हो। भाषण के साथ-साथ पर्दे पर, अंग्रेजी में भी लिखित में दिया जा रहा था। भाषण का सार मुझे समझ में आया और लगा कि यह भाषण अधिक व्यापकता का अधिकारी है। किन्तु मेरी अंग्रेजी ऐसी नहीं कि एक बार सुनकर शब्दशः समझ सकूँ। न ही अंग्रेजी पढ़ने का ऐसा अभ्यास कि वीडियो पर आ रही इबारत पढ़ सकूँ। लिहाजा मैंने सिंह सा‘ब से अनुरोध किया कि वे मुझे इस भाषण की इबारत अंग्रेजी में उपलब्ध करा दें। उन्होंने मुझ पर कृपा की और अत्यधिक परिश्रम कर मुझे  यथासम्भव पूरा भाषण उपलब्ध कराया। मैंने अपनी सूझ-समझ के अनुसार और शब्दकोश का सहारा ले, इसका हिन्दी भावानुवाद किया। मैंने कोशिश की कि बात पूरी भले ही न आए किन्तु कुछ गलत न हो जाए। नहीं जानता कि मैं अपनी कोशिश में कितना कामयाब हुआ। यदि कोई चूक अनुभव हो तो कृपया उसे सदाशयतापूर्वक हुई चूक समझें और मुझे सूचित करें ताकि मैं सुधार कर सकूँ।

मेरे अनुरोध पर, ‘सुबह सवेरे’ (भोपाल) के स्थानीय सम्पादक भाई पंकज शुक्ला ने न केवल तलाश कर बताया कि भाषण देनेवाली अधिकारी  कर्नाटक केडर की आईपीएस अफसर दिवाकर रूपा मौद्गिल (डी. रूपा) हैं बल्कि इस सामग्री को, दिनांक 15 मार्च 2018 को ‘सुबह सवेरे’ में मेरे स्तम्भ ‘खरी-खरी’ में भी छापा। तकनीकी विवशताओं के कारण मैं वह कतरन प्राप्त नहीं कर पाया।

“जब लोग आईपीएस सेवाओं में आते हैं तो उनकी आँखों में
सितारों की चमक और दिल-दिमाग में आदर्श के रूप में ‘सिंघम’ की छवि होती है। लेकिन जैसे-जैसे वक्त गुजरता है और वे तन्त्र के पुरजे बनते जाते हैं तो ये आदर्श मोम की तरह पिघलने लगते हैं। तब वह कानून की मंशा के बजाय अपने आका राजनेता की मंशा के बारे में सोचने लगता है। 

“राजनेता से मेरा पहला साबका 2004 में पड़ा। तब मैं धारवाड़ जिले की स्वतन्त्र प्रभारी थी। मुझे एक महीना ही हुआ था कि कोर्ट ने, म. प्र. की तत्कालीन मुख्यमन्त्री के विरुद्ध गैर जमानती वारण्ट जारी किया। याने, मुझे उन्हें गिरफ्तार करना था। यकीन कीजिए, ऐसे भारी-भरकम नेता को गिरफ्तार करना मुझे सबसे आसान चुनौती लगा।

“वीआईपी कल्चर नामक भयानक और खतरनाक बीमारी ने भारत में गहरी जड़ें जमा रखी हैं। इन्हें, खासकर नेताओं को विभिन्न विशेष व्यवस्थाएँ उपलब्ध कराई जाती हैं। सशस्त्र जवान (गन मेन) ऐसी ही एक व्यवस्था है। नेताओं को, सामान्यतः कोई खतरा नहीं होता। ये गन मेन इनके ‘प्रतिष्ठा प्रतीक’ होते हैं - जितने अधिक गन मेन, उतनी अधिक प्रतिष्ठा। हकीकत यह है कि इन गन मेनों से चिट्ठी या सामान लाने-ले जानेवाले हरकारों का काम लिया जाता है। 

“मैं बेंगलुरु में उपायुक्त (सशस्त्र बल) थी। वीआईपी के लिए सशस्त्र जवानों की तैनाती का प्रबन्धन मेरे जिम्मे था। मैंने पाया कि विधायक, सांसद जैसे जनप्रतिनिधियों के यहाँ, पात्रता से अधिक गन मेन तैनात हैं। मैंने इन्हें हटाना शुरु किया। पहला प्रतिरोध मेरे बॉस से आया। उन्होंने मेरे अधीनस्थों के सामने मुझे, किसी नृत्य नाटिका (बैले) की मुख्य नृत्यांगना बना दिया। लेकिन मैं अविचलित रही और अन्तिम अधिक गन मेन को वापस बुला कर ही दम लिया। इसी क्रम में मैंने कर्नाटक के पूर्व मुख्यमन्त्री से 8 यूएसवी गाड़ियाँ वापस बुलवा लीं जिनकी पात्रता उन्हें नहीं थीं। मुझे ताज्जुब है कि मेरे पूर्ववर्तियों ने यह काम क्यों नहीं किया? यह सही काम करने से उन्हें किसने रोका? मुझे बाद में मालूम हुआ कि इस सही काम को पुलिसिया भाषा में ‘गन्दा काम’ कहा जाता है। यह ऐसा अप्रिय काम है जिससे नेता नाराज होते हैं। इसीलिए इसे कोई नहीं करना चाहता।

“बहुत दिन नहीं हुए, मैं बेंगलुरु में जेल डीआईजी बनाई गई थी। इस पद पर मैं, रविवार और छुट्टियों को छोड़कर मुश्किल से 17 दिन रही। इस दौरान मैंने देखा कि एक सजायाफ्ता को ऐसा ही वीआईपी ट्रीटमेण्ट दिया जा रहा है। वे तमिलनाडु की मुख्यमन्त्री, जिनका अभी-अभी ही निधन हुआ है की निकट सहयोगी थीं। इन्हें तमिलनाडु का अगला मुख्यमन्त्री माना जा रहा था। आय के ज्ञात स्रोतों से अधिक सम्पत्तियों के भ्रष्टाचार के मामले में न्यायालय ने इन्हें सजा सुनाई थी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश की खिल्ली उड़ाते हुए इन्हें विशेष सुविधाएँ इस तरह उपलब्ध कराई जा रही थीं मानो मुआवजे का भुगतान किया जा रहा हो। मैंने इस अनियमितता की सूचना ‘ऊपर’ दी। सूचना देते ही अनेक लोगों ने मुझसे पूछा - ‘यह तुमने सोच-समझकर किया या क्षणिक मनःस्थिति में?’ सच कहूँ, मैंने परिणामों के बारे में सोचा ही नहीं था। सोचने की जरूरत ही नहीं थी। मेरे दिमाग में यह बात साफ थी कि मैंने पारदर्शिता और जिम्मेदारी से यह किया है जिसकी अपेक्षा किसी भी लोकसेवक से की जाती है। 

“इस सूचना की प्रतिक्रिया में मुझे मानहानि मुकदमे का नोटिस मिला। मतलब क्या? यदि आप बर्र के छत्ते को छेड़ते हैं तो नतीजा भुगतने के लिए तैयार रहें। कानून और नियम एकदम साफ हैं कि यदि कोई जनप्रतिनिधि, भले ही वह विधायक या सांसद क्यों न हो, किसी प्राथमिकी में आरोपी के रूप में नामजद किया जाता है तो वह ऐसी सुविधाओं का हकदार नहीं है। हालाँकि ऐसी कार्रवाई, जैसी कि मैंने की थी, करनेवाले के विरुद्ध विशेषाधिकार हनन की कार्रवाई नहीं बनती किन्तु मुझे विधानसभा की विशेषाधिकार समिति के सामने कई बार हाजिर होना पड़ा। यह मामला बरसों तक खिंचा। लेकिन आखिरकार मिला क्या? मनमानी करनेवाला नेता एक अधिकारी को सबक सिखा रहा है - तुम मेरे माथे आओगे तो तुम्हें तुम्हारी औकात बता दूँगा। वह केवल उस एक अधिकारी को नहीं, समूची अफसर कौम को मानसिक रूप से भयभीत कर रहा है। ऐसे में यदि वह अधिकारी भयभीत हो जाता है तो उस नेता का मकसद पूरा हो जाता है। अफसर ऐसे नोटिसों से बचना चाहते हैं। क्योंकि जिम्मेदारी निभाने के बदले में ऐसे नोटिस अत्यधिक असुविधाजनक होते हैं। यदि इन मामलों में कोर्ट में जाना पड़े तो आपका वक्त, ऊर्जा, मानसिक शक्ति और जेब का पैसा लगाना पड़ता है। इसीलिए कोई भी ऐसी स्थिति का सामना नहीं करना चाहता। लेकिन मेरा मानना है कि दूसरे तमाम व्यवसायों की तरह, ये नोटिस, विशेषाधिकार हनन के, मानहानि के मामले हमारे व्यवसाय के ऐसे ही जोखिम हैं जिनका मुकाबला अधिकारियों को हिम्मत से करना चाहिए।

“अब कुछ उन चुनौतियों के बारे में जो हमारे पुरुष प्रधान समाज में एक महिला होने के कारण मैंने झेलीं। महिला होना सबसे बड़ा खतरा है। औरत होने के कारण आपकी उपेक्षा, अनदेखी कर दी जाती हैं आपको हलकेपन से लिया जाता है, कई बार आपके निर्देशों को हवा में उड़ा दिया जाता है। ऐसा ही एक दहला देनेवाला अनुभव मुझे गडग जिले में हुआ। मैं वहाँ 2008 में जिला पुलिस अधिकारी थी। एक पूर्व मन्त्री वहाँ के बड़े ताकतवर नेता थे। उनके एक भड़काऊ भाषण से प्रेरित हो उनके समर्थकों ने तीन सरकारी बसें जला दीं। सरकारी बस याने करदाताओं के पैसों से खरीदी गई जन सम्पत्ति। मैंने अपने अधीनस्थ पुलिस उप अधीक्षक को निर्देश दिया कि उन नेताजी को गिरफ्तार करे क्योंकि वे लोगों को भड़काने के प्रथमदृष्टया दोषी थे। इस भड़काऊ भाषण के वीडियो सबूत भी थे। मुझे यह देखकर गहरा धक्का लगा कि मेरे उस अधीनस्थ ने न केवल इंकार कर दिया बल्कि मुझसे बहस भी करने लगा और झूठ बोल दिया कि वह नेता शहर छोड़ गया है। लेकिन मैं भी टस से मस नहीं हुई। मैं सुबह-सुबह ही थाने पहुँच गई और पूरे दिन भर वहीं डटी रही। शाम हुई। रात हुई। घड़ी ने नौ बजाए। फिर सवा नौ, साढ़े नौ। दस बज गए। अन्ततः, जब देखा कि मैं डटी हुई हूँ तो उन नेताजी को पकड़कर लाए। मैंने थाना प्रभारी को निर्देश दिए कि नेताजी की गिरफ्तारी की कानूनी खानापूर्ति कर उन्हें न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करें। 

“यह सब हो जाने के बाद मैंने उस डीएसपी पर जाँच बैठाई तो मालूम हुआ कि जब वह मुझसे उस नेता के, शहर से बाहर चले जाने और शहर में कहीं नहीं मिलने की झूठी बात कह रहा था उस समय वह उस नेता से फोन पर पल-पल सम्पर्क बनाए हुए था। मैंने पूरी रिपोर्ट सरकार को तथा निर्वाचन आयोग को भेजी क्योंकि तब तक निर्वाचन प्रक्रिया शुरु हो चुकी थी। सरकार ने उस डीएसपी को निलम्बित किया। वह साल भर तक निलम्बित रहा।

“इन दिनों चुनौतियाँ विभिन्न स्वरूपों में सामने आने लगी हैं। लेकिन यदि अधिकारी जोखिम लेने का हौसला रखे, कुछ न छुपाए, पारदर्शिता से, चौड़े-धाले अपना काम करे, यदि उसका दिल-दिमाग साफ है और वह कानून के मुताबिक काम करे, सुविधाओं और मलाईदार पोस्टिंगों के लिए नेताओं का पिछलग्गू न बने और कहीं भी तबादले पर जाने के लिए अपना बोरिया-बिस्तर चौबीसों घण्टे तैयार रखे तो वह अफसर, औरत हो या मर्द, अपने आप में एक ताकत होता है। 

“यह कोई अनूठी जानकारी नहीं है कि विधायक, सांसद जैसे पद संविधान निर्मित हैं। लेकिन इसके समानान्तर यह भी उतना ही सच है कि राज्य प्रशासकीय सेवाओं सहित आईएएस, आईपीएस जैसी सेवाएँ भी संविधान निर्मित ही हैं और इसके अनुच्छेद 311 के अधीन प्रत्येक अधिकारी को देश के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने के लिए सुरक्षा प्राप्त है।

“इसलिए, अधिकारी समुदाय जिस दिन तबादलों और नेताओं के भय से मुक्त हो जाएगा उस दिन हम दुनिया का श्रेष्ठ प्रशासकीय तन्त्र बन जाएँगे। कार्ल मार्क्स ने अफसरशाही को ‘लोहे का पिंजरा’ कहा है। लेकिन मैंने तो पाया है कि हम अफसरों ने खुद ही खुद को जंजीरों से बाँध लिया है।

“जिस दिन हम अपनी ही इस जंजीर से मुक्त हो जाएँगे, जिस दिन हम अपनी शक्ति का वास्तविक उपयोग शुरु करेंगे, उस दिन हम एक नया भारत देखेंगे।”

डी. रूपा की बात खत्‍म हुई। अब मेरी बात -

मुझे विश्वास है कि यह सब पढ़ने के बाद हम सब अपेक्षा करने लगे होंगे कि हमारे तमाम अधिकारी डी. रूपा  के आह्वान को कबूल कर, साहसी, निडर, भयमुक्त हो, सुविधाओं और मलाईदार पोस्टिंगों की चिन्ता छोड़, जोखिम मोल लेकर काम करने लगें। लेकिन केवल अफसर ही क्यों? हम भी क्यों नहीं यह सब करते? आखिरकार अन्तिम प्रभावित व्यक्ति तो हम ही हैं! हम क्यों नहीं नेता की नाराजी की, अपना काम तनिक देर से होने की, गैरवाजिब काम न हो पाने की जोखिम उठाते? क्या हम बिना कोई कीमत चुकाए, बिना कोई जोखिम उठाए नया भारत देख सकेंगे? 

एक तरफा व्यवहार कहीं नहीं चलता। कीमत चुकाइए और अपना नया भारत पाइए।
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