1977 का वह दिन और आज का दिन। उस चाँटे की आवाज कानों में जस की तस गूँज रही है और तपिश अभी भी गाल पर महसूस हो रही है। खास बात यह कि वह चाँटा मुझे नहीं पड़ा था।
मेरे ब्याह को डेढ़ बरस भी नहीं हुआ था। नौकरी करना फितरत में नहीं था और न थी कमा-खाने की जुगत भिड़ाने की अकल। मन्दसौर में सक्रिय पत्रकारिता में था। उस समय दैनिक ‘दशपुर-दर्शन’ का सम्पादक था। लेकिन पत्रकारिता के उच्च नैतिक आदर्श निभाते हुए कमाई कर लेने का करिश्मा मेरे बस के बाहर की बात थी। गृहस्थी चलाना तो कोसों दूर, अकेले का पेट पालना भी कठिन था। तभी एक अपराह्न, बाबू (यादवेन्द्र भाटी) रतलाम से आया। उसके साथ जैन सा’ब (विजय कुमार जैन) भी थे। वे थे तो मूलतः सागर के लेकिन रतलाम में ही, ग्लुकोज/सलाइन बोतलें बनानेवाली इकाई में मेन्यूफेक्चरिंग केमिस्ट के पद पर नौकरी कर रहे थे। दोनों रतलाम में, दवाइयाँ बनानेवाली इकाई स्थापित करने की योजना बनाए हुए थे। जैन सा’ब से मेरा कोई परिचय नहीं था। बाबू मेरा हितचिन्तक रहा है। उसने मुझसे पूछे बिना और मुझे बताए बिना मुझे तीसरा भागीदारी बना लिया था। वह भागीदारी अनुबन्ध टाइप करवा कर लाया था। दोनों आए उस समय मैं दफ्तर में बैठा अखबार के मुख पृष्ठ की तैयारी शुरु कर रहा था। बाबू ने जैन सा‘ब से मेरा परिचय कराया और कहा कि कुछ जरूरी बात करनी है जो दफ्तर में नहीं हो सकती। हम तीनों नयापुरा से निकल कर सुचित्रा टाकीज के सामनेवाली होटल पर आए। बाहर लगी बेंच पर बैठे। बाबू ने वह भागीदारी अनुबन्ध मेरे सामने रखा और कहा कि जहाँ-जहाँ मेरा नाम लिखा है, वहाँ-वहाँ हस्ताक्षर कर दूँ। मैंने हस्ताक्षर कर प्रश्नाकुल आँखों से उसे देखा। वह हँसते हुए बोला - ‘तुम एक फार्मास्युटिकल यूनिट में पार्टनर हो गए हो। रतलाम शिफ्ट होने की तैयारी करो।’ मैं घबरा गया। मेरी जेब में फूटी कौड़ी नहीं थी। बाबू फिर हँसा और बोला - ‘तुम्हें कुछ नहीं करना है। तुम वर्किंग पार्टनर हो।’ और तेरह अगस्त 1977 को मैं रतलाम आ गया।
कच्चा खाका बना हुआ था। काम-काज का बँटवारा हो चुका था। प्रबन्धकीय/प्रशासकीय और वित्तीय व्यवस्था बाबू के जिम्मे थी। जैन सा‘ब दवाइयों का निर्माण देखेंगे। बाहर की भाग-दौड़ मैं करूँगा। हमें म. प्र. वित्त निगम (एम.पी.एफ.सी.) से लोन लेना था। इसका मुख्यालय इन्दौर में था। इन्दौर आना-जाना मेरे जिम्मे ही हुआ। मुझे न तो पैसे-कौड़ी की अकल न ही धन्धे की सूझ। उस पर पत्रकारिता की अकड़ बनी हुई। मुझे तो सवाल पूछने की आदत। जबकि यहाँ छोटी से छोटी बात का भी जवाब देना होता था। वह भी विस्तार से और याचक मुद्रा में। मुझे तो पल-पल अपने आप से जूझना पड़ता था - ‘मेरी किसी मूर्खता से बाबू का और जैन सा‘ब का कोई नुकसान न हो जाए।’ खास-खास मौकों पर बाबू साथ आता लेकिन छोटे-मोटे कामों के लिए मैं ही जाता था। ये ‘छोटे-मोटे काम’ मेरे लिए हर बार हिमालय पार करने जैसे होते थे।
रतलाम से इन्दौर की दूरी 135 किलो मीटर है। उन दिनों बसें बहुत ज्यादा नहीं चलती थीं। पूरी सड़क ‘सिंगल रोड़’ और बहुत खराब। बस को लगभग चार घण्टे लगते थे इन्दौर पहुँचने में। पहली बस सुबह छः बजे निकलती थी। दफ्तरों का काम निपटानेवालों के लिए यही बस अनुकूल होती थी - दफ्तर खुलने से पहले पहुँच जाओ और काम निपटा कर शाम को वापस रतलाम के लिए चल दो। लेकिन मेरे लिए यही सबसे बड़ी प्रतिकूलता थी। मैदानी पत्रकारिता के कारण मेरी कोई नियमित दिनचर्या नहीं थी। अनियमित दिनचर्या ही मेरी नियमित दिनचर्या थी। आज भी वही दशा है। सुबह जल्दी उठना मेरे लिए सबसे कड़ी सजाओं में से एक है। मुझे रात भर जगवा लीजिए, लेकिन सुबह जल्दी उठने की मत कहिए। सो, उन दिनों, रतलाम से इन्दौर तक की पूरी यात्रा मैंने हर बार सोते/ऊँघते हुए ही पूरी की।
रतलाम से चालीस किलो मीटर की दूरी पर, बदनावर में बस का पहला पड़ाव होता है। बदनावर की कचोरी इस अंचल में बहुत प्रसिद्ध है। इसका अनुमान इस बात से ही लगाया जा सकता है कि इस अंचल के केटररों के मेनू में ‘बदनावरी कचोरी’ एक व्यंजन के रूप में शामिल है। इमली की चटनी और दही के साथ हींग-काली मिर्च वाले जायकेदार सिंगदानों से सजी गरम-गरम बदनावरी कचोरी की तेज गन्ध अच्छे-अच्छे विश्वामित्रों की तपस्या भंग कर देती है। घर से खाली पेट चले लोग, नाश्ते के नाम पर यहाँ की कचोरियों के साथ ‘असल मालवी चरित्र’ के तहत ‘सम्पूर्ण न्याय’ करते हैं। तले-गले के कड़े परहेजी लोग, अपने डॉक्टरों, परिजनों की सारी हिदायतें, चेतावनियाँ ताले में बन्द कर इन कचोरियों पर टूट पड़ते हैं। एक कचोरी से किसी का काम नहीं चलता। एक नमूने से बात शायद आसानी से और अधिक प्रभावी ढंग से समझ में आ जाएगी।
श्री मध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति (इन्दौर) के वर्तमान प्रधान मन्त्री श्री सूर्यप्रकाशजी चतुर्वेदी रतलाम कॉलेज में प्रोफेसर हुआ करते थे। तब से आज तक वे बदनावरी कचोरी के दास बने हुए हैं। वे इन्दौर के हैं। आज वे अस्सी बरस के आसपास होंगे। उन्हें वे बीमारियाँ घेरे हुए हैं जिनमें तला-गला खाना निषिद्ध है। लेकिन उन्हें जब भी इन्दौर से रतलाम, मन्दसौर, नीमच इलाके में जाने का काम पड़ता है तो वे अनिवार्यतः बदनावर होकर ही यात्रा करते हैं और परिवार में घोषणा करके आते हैं कि वे आते-जाते, बदनावर में कम से कम दो-दो कचोरियाँ तो खाएँगे ही खाएँगे। बदनवारी कचोरी के व्यसनी, ऐसे अनगिनत चतुर्वेदीजी बदनावर से रोज गुजरते हैं।
बदनावर तब तहसील मुख्यालय हुआ करता था। अब शायद उप सम्भाग हो गया हो। यह इस इलाके का अच्छा-भला व्यापार केन्द्र है। कपास और अनाज मण्डी है। अंचल के कई गाँवों, कस्बों का मुख्य बाजार यही है। यहाँ का बस अड्डा यदि बहुत बड़ा नहीं तो बहुत छोटा भी नहीं है। वहाँ कोई न कोई बस आती-जाती रहती है। बस के रुकते ही, होटलों पर काम करनेवाले बच्चे इन बसों में चढ़कर यात्रियों को आवाजें देने लगते हैं। इन आवाजों से मुझे बहुत परेशानी होती थी। मेरी नींद में व्यवधान जो पड़ता था!
उस दिन भी यही हुआ। बस बदनावर बस अड्डे पर रुकी। लोग फटाफट उतरे। बस में हम गिनती के यात्री रह गए थे: पाँच-सात महिलाएँ और दो-एक बूढ़े। आठ-नौ बरस की उम्रवाले तीन बच्चे अन्दर आकर, अपनी आदत और जिम्मेदारी के अनुरूप जोर-जोर से ‘कचोरी-पोहे! गरम गरम कचोरी-पोहे!’ की आवाजें लगाने लगे। दो बच्चे तो थोड़ी देर में चले गए लेकिन एक बच्चा बराबर आवाज लगाता रहा। मुझे परेशानी होने लगी। मैंने अधखुली आँखों से, गुस्से से उसे देखा। मुझे अपनी ओर देखते देख वह अधिक उत्साह से आवाज लगाने लगा। मैंने उसे टोका। लेकिन वह चुप नहीं हुआ। मैंने तनिक डाँटते हुए कहा - ‘गिनती के लोग यहाँ बैठे हैं। सबने तेरी बात सुन ली। अब भाग जा।’ लेकिन उसने मेरी बात नहीं सुनी। आवाज लगाता रहा। मैंने जोर से कहा - ‘सुना नहीं? मैंने कहा ना! भाग जा। चल भाग!’ उसने पलट कर कहा - ‘मैं अपना काम कर रहा हूँ। आपको क्या? आप अपना काम करो।’ मुझे गुस्सा आ गया। चिल्लाया - ‘सामने बोलता है? जाता है या चाँटा टिकाऊँ?’ मेरी शकल देख और चिल्लाना सुन वह सहमा। लेकिन कुछ ही पलों में सामान्य हो बोला - ‘क्यों नाराज होते हो बाबूजी? मैं आपका क्या ले रहा हूँ? मुझे अपना काम करने दो।’ यह सुनना था कि मैं अपने बस में नहीं रहा। मेरा धैर्य छूट गया और मैंने जोर से, उसे चाँटा मार दिया। बच्चा हतप्रभ हो गया। उसके साथ ऐसा शायद पहली बार हुआ था। उसे मानो विश्वास ही नहीं हुआ। अपने गाल पर हाथ रख कर मुझे ताकने लगा। मुझे लगा था, वह रोना शुरु कर देगा और रोते-सुबकते बस से उतर जाएगा। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। वह, उसी मुद्रा में मुझे ताकता रहा। कुछ इस तरह कि मैं असहज हो गया। नजरें चुराने लगा। उसकी आँखों में न तो गरीबी की लाचारी थी न ही बच्चा होने का, शरीरिक दुर्बलता का भाव। इस क्षण भी मुझे उसकी वे, ताब भरी, मुझे घूरती आँखें साफ-साफ दिखाई दे रही हैं। वे ही आँखें मुझ पर गड़ाए हुए बोला - ‘बस! मार दिया झापट? हो गई तसल्ली? अब बाबूजी! मैं भी आपको एक झापट मार दूँ तो? क्या इज्जत रह जाएगी आपकी? यहाँ अभी भले ही कोई नहीं देख रहा है। लेकिन आप क्या कभी मेरे झापट को भूल जाओगे?’ कह कर वह, बिना रोए-सिसके बस से उतर गया।
उसका उतरना था कि मुझे मानो कँपकँपी छूट गई। मैं समझ ही नहीं पाया कि मैंने क्या कर दिया और वह बच्चा क्या कर गया। मेरी उम्र तीस बरस और उसकी आठ-नौ बरस। झापट नहीं मार पाता लेकिन मारने की कोशिश तो कर ही सकता था! प्रतिशोधग्रस्त आदमी को न तो उम्र की बाधा होती है न ही शारीरिक बल की। वह तो कुछ भी कर गुजरता है। लेकिन वह बच्चा न तो गुस्से में आया न ही बदले की भावना में बहा। वह संयत बना रहा और मुझे क्षमा कर चला गया।
थोड़ी देर में बस इन्दौर के लिए चल दी। लेकिन मैं उसके बाद, पल भर नहीं सो पाया। और केवल उस दिन ही क्यों? उसके बाद बरसों तक, मैं जब भी उस बस से गया, कभी नहीं सो पाया। कभी बदनावर में उतरा भी नहीं। बस बदनावर के ज्यों-ज्यों पास पहुँचती, मेरा दिल बैठने लगता - कहीं उस बच्चे से सामना न हो जाए। वह सामने आ गया तो मेरा क्या हाल होगा? जब तक बस बदनावर से चल नहीं देती, मैं इस तरह से बस में बैठा रहता मानो कोई अपराधी पुलिस से बचने के लिए छिपा-बैठा हो।
आज भी जब-जब भी यह सब याद आता है तो घबरा जाता हूँ। पसीना-पसीना हो जाता हूँ। उस चाँटे की आवाज कानों में गूँजने लगती है। उसकी तपिश अपने गाल पर महसूस होने लगती है। लेकिन सबसे ज्यादा परेशानी होती है, उस लड़के की ताब भरी आँखों से। वे आँखे अब भी मेरी आँखों में गड़ी हुई हैं।
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देश पहली इण्टरनेट साहित्य पत्रिका ‘रचनाकार’ ने
इस संस्मरण को 26 मार्च 2018 को प्रकाशित किया।