साकार होती एक लोक कथा

प्रायः प्रत्येक अंचल में पाई जानेवाली लोक कथा का ‘वृद्ध पुरुष संस्करण’, (यदि सब कुछ वैसा ही सामान्य बना रहा है जैसा इस क्षण है तो) अपनी पूर्णता के अन्तिम सोपान पर है और मैं इसका हिस्सा हूँ।

इस लोक कथा में किसी एक देश का राजकुमार या राजकुमारी किसी दूसरे देश की अनदेखी राज कुमारी का नख-शिख वर्णन सुनकर या अनदेखे राजकुमार के साहस और शूर-वीरता का बखान सुनकर मोहित हो, उसी से विवाहबद्ध होने का प्रण ले लेता/लेती है। अनेक घटनाओं/प्रसंगों से गुजरती हुई लोक कथा का समापन दोनों के विवाह से होता है।

कुछ ऐसा ही यहाँ हो रहा है। बड़ा अन्तर यह कि इस कथा में न तो कोई राजकुमारी है न ही राजकुमार। दोनों पात्र पुरुष हैं और आधिकारिक रूप से ‘वृद्ध’ हैं - एक 77 वर्ष का और दूसरा 72 वर्ष का।

 मैं ईश्वर चन्द्रजी को नहीं जानता। उन्हें देखा भी नहीं। उनके बारे में कभी-कुछ सुना भी नहीं। मुझे लेकर यही स्थिति ईश्वर चन्द्रजी की भी है। फेस बुक पर ही उनके चित्र देखे और उनकी पोस्टें पढ़ीं। अब यह भी याद नहीं आ रहा कि उनकी ओर कब ध्यानाकर्षित हुआ। एक बार उनकी, आत्म-कथ्य जैसी एक पोस्ट पढ़ी थी जिससे मालूम हुआ कि वे आपातकाल के विरुद्ध अभियान में सक्रिय थे और (शायद) जेल भी गए थे। शायद उनके समाजवादी रुझान ने ही मुझे उनकी ओर आकर्षित किया होगा। लोहिया मुझे शुरु से लुभाते रहे हैं। व्यवस्था के विरुद्ध उनकी तथ्यपूर्ण, धारदार किन्तु शालीन आक्रामता मुझे विस्मित करती रही है। ओंकार शरद लिखित लोहिया की जीवनी मेरे पास बरसों सुरक्षित रही। लेकिन  कोई भरोसेमन्द मिलनेवाला उसे ले उड़ा। बाद में नीमचवाले डूँगरवालजी, जीरनवाले रामचन्द्रजी शर्मा, गाहे-ब-गाहे मन्दसौर-नीमच की यात्राओं पर आते रहे बाबू लाड़ली मोहन निगम (इन्हें मैंने देखा ही देखा है, सामुख्य कभी नहीं हुआ। इनकी बातें खूब सुनीं हैं।), ‘विषपायी’ के नाम से पहचाने जानेवाले बाबू भाई माली, मंगलजी मेहता, कमल जैन आदि-आदि समाजवादी चिन्तकों/विचारकों से लगातार निकट सम्पर्क ने समाजवादियों के प्रति आकर्षण को घना किया। जब समाजवादी आन्दोलन अपने विद्रोही तेवरों के चरम पर था तब से लेकर अब तक मेरी यह धारणा यथावत् बनी हुई है कि समाजवादियों के सत्तासीन होने ने भारतीय लोकतन्त्र की अपूरणीय हानि पहुँचाई है। समाजवादी यदि सत्ता में न जाते तो हमारा लोकतन्त्र आज की बदहाली नहीं भुगतता। ये लोग लोकतन्त्र के सच्चे रक्षक हो सकते थे लकिन सत्ता-सुन्दरी की रति-लिप्सा में स्खलित हो बैठे। सो, ईश्वर चन्द्रजी के समाजवादी रुझान ने ही मुझे उनके प्रति आकृष्ट किया होगा।

उनकी खुद की वाल पर उनकी पोस्टें और दूसरों की वालों पर उनकी टिप्पणियाँ पढ़-पढ़ कर उनकी सटीकता मुझे धीमे-धीमे कायल करने लगी। सूत्रों में बात करती, ‘सतसैया के दोहरे’ की तरह उनकी टिप्पणियाँ ‘बीज में वृक्ष’ की अनुभूति कराती  लगीं। (बाद में मालूम हुआ कि वे भवानीमण्डी रहते हैं। दीर्घानुभवी वकील हैं। कम बोल कर ज्यादा कहने का कमाल कोई वकील ही कर सकता है।) शेर-ओ-शायरी की शकल में उनकी भावनाएँ बड़ी नजाकत से गहरे पैठती लगती हैं। फूलों के सुन्दर चित्र उनके प्रकृति प्रेमी होने का सन्देस देते हैं। 

इसी इक्कीस फरवरी की सुबह तीन बजे नींद खुल गई। मेरे साथ ऐसा सामान्यतः होता नहीं। मैं ‘उन नौ लोगों’ में भी नहीं जिन्हें नींद न आए। लेकिन नींद का क्या है, खुल गई तो खुल गई। नींद खुलने के बाद चैतन्य होने के पहले ही क्षण विचार आया - ‘ईश्वर चन्द्रजी से मिलना चाहिए।’ इस बात को एक महीना होने को आ रहा है लेकिन अब तक समझ नहीं पाया कि यह विचार क्यों आया। विचार आते ही 03ः04 बजे मेसेंजर पर उन्हें सन्देश दिया - 

“यह शायद ब्राह्म मुहूर्त की वेला है। बिना किसी सन्दर्भ-प्रसङ्ग मन में आया कि यदि कभी भवानीमण्डी आना हुआ और आपसे मिलने को जी चाहे तो किस पते पर पहुँचूँ?

भवानीमण्डी आज तक नहीं गया और दूर-दूर तक कोई कारण नजर नहीं आता भवानीमण्डी आने का।” 

सन्देश देकर मैं अपने काम पर लग गया। दिन भर खूब काम किया। दिन में किए काम का टेबल वर्क निपटाकर, भोजन करते-करते खूब देर हो गई। रात साढ़े ग्यारह बजते-बजते अचानक ईश्वर चन्द्रजी की याद आई। मेसेंजर खोला तो शाम 07ः53 पर आया उनका सन्देश देखा -

“आप ज़रूर पधारें। बहुत खुशी होगी। आपको ‘उपग्रह’ में पढ़ता रहा हूँ। ‘जनसत्ता’ में भी। अब यह अखबार यहाँ नहीं मिलता। मेरा पचपहाड़ में फार्म पर घर है आपको असुविधा नहीं होगी। भवानीमण्डी में वकालत करता हूँ यहाँ भी रामनगर गोटावाला  कॉलोनी में मकान है। बड़े भाई साहब से परिचित था। मेरा  मोबाइल नम्बर ------- है। आप कहें तो कार लेकर भानपुरा आ  सकता हूँ। आग्रह है आप अवश्य पधारें।”

इसके बाद हमारा संवाद शुरु हुआ -

मैं - “अरे! आप इतने समीप के निकले! सुखद आश्चर्य। 
आप भानपुरा क्यों आएँगे? मैं तो रतलाम में हूँ। आऊँगा तो भवानीमण्डी (अब पचपहाड़) ही आऊँगा। मुझे वहाँ कोई काम नहीं है। बस! उस भोर मन में बात आई। बता दी। नहीं जानता कि कब आऊँगा। लेकिन जब भी आऊँगा, अब पूछ/कह कर आऊँगा।”

ईश्वर चन्द्रजी - “मन की बात का ठेका मोदीजी का नहीं है।
कृपया जल्दी प्रोग्राम बना कर सूचित करें। स्टेशन पर स्वागत के लिए उत्सुक हूँ।”

मैं - “यह सब तो अब संस्मरण बनता जा रहा है।

बीमा एजेण्ट हूँ। लेकिन लालची नहीं। जरूरतें सब पूरी हो रही हैं लेकिन धन्धे की प्रकृति अनुमति नहीं दे रही। ‘मार्च-बाधा’ जनवरी से आड़े आ खड़ी है। ‘अन्नदाता’ जैसे कुछ कृपालु इन दिनों मुझे अपने पास ही चाह रहे हैं। जानता हूँ कि मेरे बिना उनका (उनका क्या, किसी का भी) काम नहीं रुकेगा। लेकिन रुकना है।

इसलिए, अभी तो मार्च तक रतलाम में ही। आगे प्रभु इच्छा।”

ईश्वर चन्द्रजी - “जी। समझ सकता हूँ। अप्रैल में पधारें।”

मैं - “प्रभु मुझे जल्दी आपके दरवाजे पर खड़ा करे।”

ईश्वर चन्द्रजी - “तथास्तु। बात यह है कि 78 पार कर रहा हूँ सो चाहता हूँ आप जैसे प्रिय लेखकों से इति के पहले मिल लूँ।

अच्छा लगेगा आपसे मिल कर।”

मैं - “मैं आपके पीछे-पीछे ही चल रहा हूँ - मार्च में 73वाँ शुरु हो जाएगा। रोचक संयोग यह कि जैसा आप सोच रहे हैं, मैं भी ठीक वैसा ही सोचे हुए हूँ। जब भी इन्दौर जाता हूँ, ऐसे ही अपने पसन्ददीदा दो-एक कलमकारों से जरूर मिल आता हूँ।

यह उतावलापन मुझे भी तनिक परेशान करने लगा है। लेकिन यह परेशानी आनन्ददायक है।”

ईश्वर चन्द्रजी - “अब आप समझ गये मेरी उत्सुकता। मुझे गम्भीरता से लेंगें, इस आशा के साथ, शुभरात्रि।”

वह दिन और आज का दिन। एक-एक करके दिन बीतते जा
रहे हैं। मैं अपना काम किए जा रहा हूँ। इस बीच अप्रेल के लिए काम आने शुरु हो गए हैं। पन्द्रह से इक्कीस अप्रेल तक की व्यस्तता अभी से पक्की हो गई है। यह स्थिति देख कर घबराहट हो रही है। मुझे जल्दी से जल्दी पचपहाड़/भवानीमण्डी जाना चाहिए। बिना काम की मुलाकतें जीवनी-शक्ति देती हैं। ऐसी मुलाकातों को लोग नफे-नुकसान से देखते-तौलते हैं, घाटे का सौदा मानते हैं। लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता। लिख भी चुका हूँ। 

अब मुझे खुद को कसौटी पर कसना है।
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ईश्वर चन्द्रजी के चित्र मैंने फेस बुक से, उनकी वाल से ही लिए हैं। 
एक चित्र पुराना लगता है और दूसरा अभी-अभी का।