आपने वह किस्सा जरूर पढ़ा/सुना होगा जिसमें चार ठग मिल कर एक किसान के बछड़े को, अलग-अलग जगह, बकरा बता-बता कर उसका बछड़ा हड़प लेते हैं। इस किस्से को याद रखते हुए ही मेरी यह बात पढ़िएगा।
शारीरिक श्रम के मामले में बहुत ही आलसी हूँ। इतना कि यदि कभी जामुन के पेड़ की छाँव में लेटना पड़े तो मनोकामना होगी कि जामुन, सीधा मेरे मुँह में टपके, कोई और चबा ले, मुझे स्वाद आ जाए और गुठली भी कोई और ही थूक दे। आलसियों की कोई प्रतियोगिता हो तो छोटा-मोटा पुरुस्कार तो जीत ही सकता हूँ।
ऐसे में, जब भी पैदल चलता हूँ तो ‘मेरा भला चाहनेवाले’ टोकने लगते हैं - ‘बहुत तेज चलते हो। अब जवान नहीं रह गए हो। बुढ़ा गए हो। धीरे-धीरे चला करो। तेज-तेज चलते हुए ऐसे लगते हो जैसे गेंद लुड़क रही है। लुड़कती गेंद खुद पर काबूू नहीं रख पाती। सड़क पर इधर-उधर लुड़क सकती है। नाली में गिर सकती है।’ आलसीपने की वजह से यूँ तो पैदल चलना ही भूल गया हूँ। लेकिन जब भी पैदल चलने की कोशिश करता हूँ, ऐसी नसीहतें मिल जाती हैं।
कॉलेज में पढ़ते समय एनसीसी में भर्ती हुआ था। सेना के रिटायर्ड सुबेदार रामसिंह और हवलदार पूनाराम हमारे ‘उस्ताद’ थे। बताया करते थे कि ‘तेज चल’ में सामान्य टुकड़ी की गति 120 कदम प्रति मिनिट होती है और गोरखा टुकड़ी की गति 180 कदम प्रति मिनिट। सो, तब से ही तेज चलने की आदत तो बनी तो सही लेकिन वह अब तक बनी हुई है-यह मैं बिलकुल नहीं मानता। उम्र के पचहत्तर बरस पूरे कर लिए हैं। बेशक मन न तो बूढ़ा होता है न ही थकता है। लेकिन शरीर के साथ तो ऐसा बिलकुल नहीं होता। इसलिए, भाई लोग जब-जब मुझे तेज चलने पर ‘बड़े प्रेम से समझाते-दुलराते’ हैं तो मैं हँस कर रह जाता हूँ। लेकिन हर बात की एक हद होती है। सो, कभी-कभी लगने लगता है - ”इतने सारे लोग, अलग-अलग वक्त पर, अलग-अलग जगह पर जब एक ही बात कह रहे हैं तो ‘कुछ’ तो सचाई होगी।“ और मैं झाँसे में आ ही गया। मानने लगा कि मैं और लोगों के मुकाबले तेज चलता हूँ।
लेकिन कल शाम गजब हो गया।
कल शाम, ‘झाँसे में आया हुआ’, अपने-आप में मगन, मैं, अपनी ‘तेज चाल’ से, अच्छा-भला चला जा रहा था। खूब खुश-खुश कि भई लोग एकदम झूठ तो नहीं ही बोलते हैं। कि अचानक वह हो गया जो नहीं होना था। या कहिए कि वह हो गया जो एक न एक दिन तो होना ही था।
हुआ यह कि मुझसे भी अधिक बूढ़ी एक महिला, मेरे पीछे से आई और सरपट चाल से चलती हुई, पल भर ही में, मुझे पीछे छोड़ती हुई मुझसे आगे, ‘ये ऽ जा-वो ऽ जा!’ सड़क लगभग सुनसान। न तो कोई आवा-जाही न ही वाहनों की भरमार। ले-दे कर हम दो ही पद-यात्री। मुझे पार कर आगे निकली महिला को मैं ठिठक कर देखने लगा। पता ही नहीं लगा कि मैं कब रुक गया। मैं सनाका खा गया और हुआ यह कि मुझे, मुझे पीछे छोड़ कर जाती हुई उस महिला की पीठ पर मेरे उन सारे हितैषियों की शकलें नजर आने लगीं जो मेरी फिक्र में दुबले होते रहने का भरोसा मुझे दिलाते रहते हैं।
इसके बाद पूछिए मत कि मेरा मन कैसा-कैसा हुआ और अपने हितैषियों को मैंने कैसे-कैसे याद किया। बस! एक ही बात की तसल्ली रही कि जब मैं ‘कुछ भी कर गुजरने’ की मनोदशा में था तब, मुझे लड़ियाने-दुलराने वाले मेरे तमाम हितैषियों में से वहाँ कोई नहीं था। अच्छा हुआ कि वे सब और मैं तथा दोस्त और दोस्ती बची रह गई।
भगवान ऐसे दोस्त सबको मिलें जो मुगालते में रख कर दोस्तों को सुखी जीवन का उपहार देते हैं और मुगालते दूर करके हकीकत से वाकिफ भी बनाए रखते हैं।
दोस्ती जिन्दाबाद!
(अब तुम मिलना स्सालों! तुम सबने, अनायोजित रूप से मेरे मजे लिए। अब मैं एक-एक को निपटाऊँगा। तुम सबकी ऐसी गत बनाऊँगा कि सारी दुनिया तुम्हारे मजे लेगी। दोस्ती एक फर्ज है। यकीन मानो! पूरी शिद्दत और पूरी ईमानदारी से निभाऊँगा।)
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