बड़ी देर कर दी मेहरबाँ आते-आते


गडकरी को यदि यही करना था तो पहले ही दिन कर लेते! तब न केवल खुद की इज्जत बचती बल्कि पार्टी की इज्जत भी बढ़ती। ‘नैतिकता’ शब्द को सार्थकता मिलती। 

‘पूर्ति समूह’ को लेकर जब उन पर पहली बार आर्थिक कदाचरण के आरोप लगे थे तब उन्होंने बड़ी दृढ़ता दिखाई थी। दो टूक शब्दों में कहा था कि उन्होंने कुछ भी अनुचित नहीं किया है इसलिए वे त्याग पत्र नहीं देंगे।

तब, किन्हीं गुरुमूर्तिजी से एक जाँच करवाई गई थी जिसके निष्कर्षों को, गड़करी के लिए क्लीन चिट कहा गया था। इसी क्लीन चिट को लेकर पूरी पार्टी उनके पीछे खड़ी हुई थी - हिमालय की तरह।

तब, 22 जनवरी को अचानक यह क्या हो गया?

अपने पलायन वक्तव्य में गडकरी ने कहा कि यूपीए सरकार और सीबीआई उनके विरुद्ध दुराशयतापूर्वक आरोप फैला रही है और वे अपने कारण पार्टी पर कोई लांछन नहीं लगने देना चाहते। इसलिए वे दूसरी बार अध्यक्ष नहीं बनेंगे।

बात गले नहीं उतरती।

22 जनवरी को आयकर विभाग ने मुम्बई में जिन आठ-दस (या बारह) कम्पनियों के यहाँ ‘सर्वे’ किया, उनमें से एक भी कम्पनी, ‘पूर्ति समूह’ का हिस्सा कभी नहीं रही। ये कम्पनियाँ तो ‘पूर्ति समूह’ की कम्पनियों में निवेशक कम्पनियाँ थीं। फिर, इन कम्पनियों के ‘सर्वे’ के निष्कर्ष भी सार्वजनिक नहीं हुए! न तो पूर्ति समूह पर और न ही गडकरी पर कोई नया आरोप लगा।

जब कोई नया आरोप नहीं लगा और गुरुमूर्ति की क्लीन चिट यथावत् है तो पार्टी पर लांछन भला अब कैसे लग गए? यदि लांछन लगे ही थे तो वे तो पहले ही दिन लग गए थे! तब तो ‘दाग अच्छे थे!’ पार्टी की छवि की चिन्ता इतनी देर से क्यों हुई?

सच तो यह है कि इस सबमें गडकरी का कोई दोष नहीं। वे खुद के दम पर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने ही नहीं थे इसीलिए अपनी रवानगी का समय तय करना भी उनकी मर्जी पर नहीं था। ‘उन्होंने’ कहा/चाहा - ‘भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन जाओ।’ गडकरी बन गए। आरोप लगे तो ‘उन्होंने’ कहा - ‘घबराओ मत! बने रहो।’ गडकरी बने रहे। अब ‘उन्होंने’ कहा - ‘त्याग-पत्र दे दो।’ गडकरी ने ‘अच्छे बच्चे’ की तरह, कहा मानते हुए त्याग-पत्र दे दिया। इस सबमें किसी का कुछ नहीं बिगड़ा। बस, गडकरी की हालत यह हो गई कि सौ कोड़े भी खाए और सौ प्याज भी।

जिनकी अपनी जड़ें नहीं होतीं, वे अन्धड़ तो दूर रहा, तेज हवा का एक झोंका भी झेल नहीं पाते। गमलों के पौधे, मालियों की कृपा पर ही जीवित रह पाते हैं और बरामदों की शोभा बने रह पाते हैं।  

पहले आते तो बात कुछ और ही होती। बड़ी देर कर दी मेहरबाँ आते-आते।

अच्छी शुरुआत का आशावाद


जब आप अपनी कमजोरियाँ और कमियाँ सार्वजनिक रूप से स्वीकार करते हैं, वह भी तब, जब आप किसी पद पर आने के बाद पहली बार ऐसा कर रहे हों, तब कुछ बातें अपने आप ही साथ आ जाती हैं। पहली, और मेरे हिसाब से सबसे बड़ी बात तो यह कि आप अपने विरोधियों से उनका, आपकी आलोचना का सबसे बड़ा हथियार छीन लेते हैं। जो कुछ वे कह सकते थे, वह सब तो आपने खुद ही कह दिया। दूसरी, उतनी ही महत्वपूर्ण बात यह कि लोग आपकी आत्म-स्वीकृतियाँ सुनने के बादवाले पहले ही क्षण से आप पर नजर रखना, प्रतीक्षा करना, प्रबल अपेक्षा करना शुरु कर देते हैं कि आप अपनी इन कमियों को कितनी जल्दी दूर करते हैं। क्योंकि लोग आपकी वे सारी कमियाँ, आपके मुँह से भले ही पहली बार सुन रहे हों किन्तु यह सब वे बहुत पहले से जानते हैं। तीसरी और भारतीय राजनीतिक दलों और नेताओं के सन्दर्भ में मेरे मानोनुकूल बात यह कि अब लोग अन्य दलों और नेताओं से भी ऐसी ही आशा/अपेक्षा करेंगे कि वे भी अपनी-अपनी कमियाँ सार्वजनिक रूप से स्वीकार करें। और जब वे भी ऐसा सार्वजनिक स्वीकार करेंगे तो उन्हें भी वैसी ही जनपेक्षा/जन-आशा का सामना करना पड़ेगा कि वे अब अपनी कमियाँ कब दूर करते हैं।

भारतीय राजनीति का वर्तमान चरित्र केवल ‘विरोधी की आलोचना’ बन कर रहा गया है। सारे के सारे दल और नेता अपने विरोधियों को भ्रष्ट, जन-विरोधी से कम कभी नहीं बताते। उनके पास बताने के लिए मानो अपनी खुद की कोई पूँजी रही ही नहीं। बस! विरोधियों की गलतियाँ ही उनकी पूँजी बन कर रह गई हो। सबकी बातों को सच माना जाए तो हमारे पास अपने तमाम राजनीतिक दलों और नेताओं को भ्रष्ट तथा जन-विरोधी मानने के सिवाय कोई चारा ही नहीं बचता। जबकि इसका समानान्तर रोचक-जन-सत्य यह है कि, हमारे राजनीतिक दल और नेता नागरिकों को नामसझ मानने की हास्यास्पद नासमझी कर रहे हैं। वे निश्चय ही ‘शुतुरमुर्गी मुद्रा’ अपनाते हुए भूल जाना चाहते हैं कि ‘ये पब्लिक है, सब जानती है।’

अखबार हों, समाचार चैनलों की लफ्फाजी भरी बहसें हों या आम-सभाएँ - हमें केवल और केवल आरोप, आलोचना और फूहड़-घटिया चुटकुलों के जरिए विरोधी का उपहास ही देखने-सुनने को मिलता है। हर कोई सामनेवाले को ‘चरम भ्रष्ट और परम पापी’  साबित करता रहता है और जब उससे, खुद के भ्रष्टाचार और पाप के बारे में कहा/पूछा जाता है तो वह सामनेवाले के ही भ्रष्टाचार और पापों की दुहाई देकर बचने की सीनाजोरी करता है। सारे के सारे, खुद ‘चरम भ्रष्ट और परम पापी’ बने रहते हुए, सामने वाले को ‘पवित्र और पूजनीय गाय’ के रूप-स्वरूप में देखना चाहते हैं। निर्लज्जता का चरम यह कि जब अधिक पूछताछ करो तो जवाब मिलता है - ‘राजनीति में भजन करने नहीं आए हैं।’

ऐसे में, काँग्रेस उपाध्यक्ष बनने के बाद दिए गए, राहुल गाँधी के पहले भाषण में मैंने, वर्तमान घटिया और गैरजिम्मेदार राजनीतिक व्यवहार के सन्दर्भ में ‘आशा की किरण’ देखी। राहुल की आत्मस्वीकृतियों के पीछे कारण जो भी रहे हों, किन्तु वे खुद भी इतना तो जानते/समझते होंगे कि केवल आत्मस्वीकृतियों से काम नहीं चलता। स्वीकार करने के बाद यदि इन कमियों को दूर नहीं किया जाता तो सारा कहा गया न केवल अर्थहीन होता है अपितु जग-हँसाई का और कालान्तर में लोक अस्वीकार का कारण भी बनता है। किसी भी राजनीतिक दल और नेता के लिए यही सबसे बड़ा खतरा होता है।

नेताओं से एक दूसरे की आलोचना (और वह भी घटिया शब्दावली में) सुन-सुन कर अब देश को मितली आने लगी है। अब देश आलोचना और उपदेश नहीं, आत्म-स्वीकार सुनना चाहता है और तदनुसार ही सुधार भी देखना चाहता है। अपने नेताओं से देश अब विरोधियों के भ्रष्टाचार, पापों, दुराचरण के किस्से नहीं, अपनी जमात की और अपनी जमात के लोगों की धवलता, निष्कलंकता, सदाचरण, ईमानदारी के ब्यौरे सुनना चाहता है। 

राहुल गाँधी के मीडिया-चर्चित इस भाषण में मैंने यही बात देखी। सम्भवतः केवल इसीलिए कि मैं ऐसी ही बात प्रत्येक दल के प्रत्येक नेता के भाषण में देखना-सुनना चाहता हूँ। मेरे तईं, भारतीय राजनीति की ही नहीं, समूचे भारत की आज यही सबसे बड़ी आवश्यकता है कि हमारे राजनीति दल और नेता खुद की कमियाँ स्वीकारें, उन्हें दूर करें और दूसरों को गलियाँ देने के बजाय खुद के लिए अभिनन्दन-पत्र भेंट किए जाने का अधिकार और पात्रता अर्जित करें। 

शरद जोशी: आज की जरूरत


कल ‘उन्होंने अनायास ही श्रद्धेय शरद भाई (स्वर्गीय शरद जोशी) की बात याद दिला दी।

‘वे मेरे कस्बे के, मझौले स्तर के ठीक-ठीक व्यापारी हैं। लिखने-पढ़ने के शौकीन हैं। प्रबुद्ध श्रेणी में गिने जाते हैं। अखबारों में, सम्पादक के नाम उनके पत्र नियमित रूप से छपते रहते हैं। भाजपा और राष्ट्रीय स्वयम् सेवक संघ के समर्थक हैं, सो उनके लगभग सारे के सारे पत्र, काँग्रेस, काँग्रेसी मन्त्रियों और काँग्रेसी सरकारों के विंसगत, विरोधाभासी आचरण, जन-विरोधी निर्णयों आदि पर केन्द्रित होते हैं। यह सम्भवतः उनकी ‘प्रतिबद्धता आधारित मानसिकता’ के अधीन ही होता है कि प्रतिपक्ष की जो बातें उन्हें अनुचित लगती हैं, अपनों की वे ही बातें उनसे अनदेखी रह जाती हैं। जैसे कि काँग्रेसी अगुवाईवाली मौजूदा केन्द्र सरकार और काँग्रस शासित किसी राज्य सरकार की जो बात उन्हें जन विरोधी लगती है, भाजपा शासित राज्य सरकार की वही बात उन्हें वाजिब लगती है। किसी काँग्रेसी नेता की जो बात उन्हें देश के लिए घातक लगती है, भाजपा नेता की वही बात उन्हें राष्ट्र-हित लगती है। मेरे कस्बे के पत्र लेखकों में उन्होंने अपना अलग स्थान बनाया हुआ है। दुकानदार-व्यापारियों से जुड़े, श्रम-कानूनों, गुमाश्ता कानून जैसे कुछ महत्वपूर्ण कानूनों पर उनकी अच्छी पकड़ है-किसी ‘विषय विशेषज्ञ’ जैसी। दुकान-व्यापारियों से जुड़ी व्यावाहारिक और वास्तविक समस्याओं/उलझनों पर केन्द्रित उनके पत्र, कुछ अवसरों पर, दुकानदारों और जिला प्रशासकीय तन्त्र के लिए ‘मध्यस्थ’ की तरह, परिणामदायी-उपयोगी साबित हुए हैं। 

पूर्व सूचना देकर कल वे मिले तो तनिक असन्तुष्ट और दुःखी थे। उन्हें शिकायत थी कि वे इतने पत्र लिखते हैं, जनहित से जुड़े इतने मुद्दे उठाते हैं लेकिन कोई बात ही नहीं करता। और तो और, खुद उनकी पार्टी के लोग ही उनदेखी करते हैं। धन्यवाद और बधाई देना तो दूर, यह तक नहीं कहते कि उनका कोई पत्र आज फलाँ अखबार में छपा है। चूँकि वे सक्रिय राजनीति या कि पद प्राप्ति की दौड़ में नहीं हैं इसलिए वे किसी के लिए नुकसानदायक बिलकुल नहीं हैं। ऐसे में, अपनी इस अनदेखी, उपेक्षा से वे न केवल चकित अपितु आहत, क्षुब्ध, खिन्न, आक्रोशित और उत्तेजित थे। वे मुझसे जानना चाहते थे कि उनके साथ ऐसा क्यों हो रहा है। मुझे आश्चर्य हुआ। हम दोनों भली प्रकार जानते हैं कि हम दोनों परस्पर स्थायी असहमत हैं। 

उनकी ‘व्यथा-कथा’ का पूर्वानुमान मुझे था तो सही किन्तु उनकी पूरी बात सुनने से पहले कुछ भी कहना मुझे उचित नहीं लगा। सुनकर लगा, उन्होंने वही सब कहा जो मैं पहले से ही न केवल जानता था अपितु उनसे अधिक तथा उनसे बेहतर जानता था। मैंने अधिकार भाव से कहा कि अपनी इस (दुः)दशा के लिए वे ही जिम्मेदार हैं। यदि उनका लेखन, अपनी राजनीतिक वैचारिकता के प्रति समर्पण भाव से किया गया सेवा-अनुष्ठान है तो उन्होंने किसी प्रशंसा, शाबासी की अपेक्षा बिलकुल नहीं करनी चाहिए। जिनकी वे आलोचना कर रहे हैं, जो उनसे असहमत हैं, वे उनकी प्रशंसा भला क्यों करेंगे? और उनकी पार्टी के लोगों के हिसाब से वे नया और अनोखा कुछ भी नहीं कर रहे हैं। वही तो कर रहे हैं जो एक पार्टी-सेवक को करना चाहिए! इसलिए वे आपका नोटिस नहीं लेंगे और इसीलिए न तो धन्यवाद देंगे और न ही प्रशंसा करेंगे। लोगों पर भी उनकी बातों का असर इसलिए नहीं होता कि वे जानते हैं कि आपने क्या लिखा है और क्यों लिखा है। लोग जानते हैं कि आपने लोगों की चिन्ता में नहीं, अपने विरोधियों की आलोचना करने के लिए यह सब लिखा है। आप जब पक्ष बन जाते हैं तो न केवल प्रतिपक्ष अपितु खुद आपका ही पक्ष आपकी उपेक्षा करेगा। सार्वजनिक स्वीकार, प्रशंसा, सराहना केवल निरपेक्ष जन पक्षधरता को ही मिल पाती है और उसके लिए भी भरपूर समय लगता है। 

मेरी बात सुनकर वे कुछ नहीं बोले। हाँ, मेरी बातों का प्रतिवाद भी नहीं किया। चुपचाप सुनते रहे। चुपचाप चाय पी। और चुपचाप ही लौट भी गए। अन्तर केवल इतना ही रहा कि आए थे तब व्यग्र और मुखर थे। जाते समय गम्भीर, विचार मग्न और निःशब्द।

उनके जाते ही मुझे शरद भाई याद आए। 

यह सम्भवतः सत्तर के दशक की बात होगी। उन दिनों लेखकीय प्रतिबद्धता को लेकर देश व्यापी बहस चली थी। उसी दौर में किसी पत्रकार ने, इस मुद्दे शरद भाई से उनकी राय पूछी थी। अब, इस समय मुझे शब्दशः तो सब कुछ याद नहीं किन्तु तब शरद भाई ने कुछ ऐसा कहा था कि उनकी प्रतिबद्धता केवल लिखने के प्रति है। लिखने के बाद जब लोगों के सामने जाएगा तब लोग खुद ही उनके (शरद भाई के) लेखन की प्रतिबद्धता समझ भी जाएँगे और तय भी कर लेंगे। उनका काम केवल लिखना है। यह तय करके नहीं लिखना है कि वे किसके लिए, किसके पक्ष में, किसके विरोध में लिख रहे हैं। जो बात लिखने के लिए बेचैन कर दे, वह बात लिखनी ही है। 

शरद भाई ने आज मुझे अचानक ही हमारे एक बड़े संकट का कारण समझा दिया। हमारे बुद्धिजीवियों की बातें इसीलिए असरकारी नहीं हो रही हैं। सबके सब अपनी-अपनी प्रतिबद्धता के अधीन बात कर रहे हैं। निरपेक्ष भाव तिरोहित होता लग रहा है। कोई बुद्धिजीवी कुछ कहे, उससे पहले ही उसकी बात का अनुमान हो जाता है। लगता है, मानो प्रत्येक समन्दर खुद को तालाब बना रहा है। उनकी कथनी और करनी का अन्तर इस संकट को और अधिक विकराल तथा गम्भीर बनाता है। वे सपेक्षिक रह कर निरपेक्ष प्रतिसाद चाहते हैं।  ‘खोटी मुद्र्रा, अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है’ वाला अर्थशास्त्र का नियम हमारे बुद्धिजीवियों पर भी तो लागू नहीं हो गया? सापेक्षिक बुद्धिजीवियों ने हमारे निरपेक्ष बुद्धिजीवियों को नेपथ्य में तो नहीं धकेल दिया?  परिदृष्य पर सक्रिय और मुखर बुद्धिजीवी हमें रास्ता दिखाते अनुभव नहीं होते। उन पर, उनकी बातों पर विश्वास करने का साहस नहीं होता।

नहीं जान पा रहा कि मैं ठीक सोच रहा हूँ या नहीं। किन्तु कल से मुझे शरद भाई याद आ रहे हैं। बहुत याद आ रहे हैं। वे होते तो वही कहते जो आजकी जरूरत है।

डिश टीवी की सीनाजोर दादागिरी


आज मेरा यह भ्रम दूर हो गया कि मैंने अपने लिए, अपनी सुविधा के लिए डिश टीवी का कनेक्शन लिया हुआ है। डिश टीवीवालों ने आज मुझे जता दिया कि वे मेरे लिए नहीं, मैं उनके लिए हूँ। उन्होंने आज मुझे मेरी सीमाएँ, मेरी औकात जता दी।

गए दो-तीन दिनों से अचानक ही मेरे कनेक्शन से ‘लाइफ ओके’ तथा ‘स्टार उत्सव’ चैनलें दिखाई देना बन्द हो गईं। इस मामले में मैं पूरी तरह से वासु भाई पर आश्रित हूँ। उन्हीं से मैंने डिश टीवी की छतरी खरीदी और उनके माध्यम से ही निर्धारित समय में शुल्क का पुनर्भरण (रीचार्ज) करता हूँ। सो, उन्हीं के पास गया।

वासु भाई, ऐसे मामलों में मेरी हकीकत जानते हैं। सो, मुझसे अधिक मेरी चिन्ता करते हैं। उन्होंने तत्काल ही, डिश टीवी के स्थानीय सेवा केन्द्र पर सम्पर्क किया। अपने स्तर पर उन्होंने समझाने-समझने की भरपूर कोशिश की। अन्ततः, फोन का चोंगा मुझे ही थमा दिया। मुझे सूचित किया गया कि ‘लाइफ ओके’ प्राप्त करने के लिए मुझे पचीस रुपये प्रति माह अतिरिक्त रूप से चुकाने पड़ेंगे। मैंने कहा - ‘अब तक तो बिना किसी अतिरिक्त शुल्क के मिल रहा था। व्यापार के स्थापित व्यवहार के अधीन, मेरे अगले पुनर्भरण (रीचार्ज) तक तो मुझे यह चैनल पूर्वानुसार ही निःशुल्क मिलती रहनी चाहिए। उधर से पत्थरमार जवाब आया कि मैं खुद को भाग्यशाली मानूँ और डिश टीवीवालों को धन्यवाद दूँ कि वह चैनल मुझे अब तक मुफ्त मिलता रहा। क्योंकि वह तो मुझे मिलना ही नहीं चाहिए था। यह कम्पनी ही तय करेगी कि मेरे मौजूदा मासिक शुल्क में मुझे क्या-क्या मिलना है। आगे से मुझे यदि यह चैनल चाहिए तो मुझे पचीस रूपये मासिक अतिरिक्त रूप से चुकाने पड़ेंगे। मैंने अपनी आपत्ति दुहराई तो मुझे समझाइश दी गई कि वे मुझे पढ़ा-लिखा और समझदार मानते हैं इसलिए मैंने वैसा ही व्यवहार करना चाहिए।

‘स्टार उत्सव’ चैनल के लिए मुझे कहा गया कि मैं ‘चैनल सर्च’ का सहारा लेकर चैनल प्राप्त कर लूँ। मैंने कहा कि मुझे चैनल सर्च के बारे में कुछ बता दें। जवाब मिला कि रिमोट कण्ट्रोल पर सब कुछ मौजूद है। अपनी अकल लगाइए, चैनल प्राप्त कीजिए, कम्पनी के सेवा केन्द्रों पर सेवा देनेवालों का समय खराब कर उन्हें परेशान न करें।

वासु भाई समझ गए कि डिश टीवी के स्थानीय सेवा केन्द्र से यह सम्मान प्राप्त करने के बाद भी मेरा समाधान नहीं हुआ है। उन्होंने कम्पनी का टोल फ्री नम्बर लगाया। एक बार लगाया। दूसरी बार लगाया। तीसरी बार लगाया। मुझे लगा, नम्बर व्यस्त होगा। लेकिन बात दूसरी थी। चौथी बार नम्बर लगा कर वासु भाई ने चोंगा मेरे कान पर लगाया। लाइन में इतनी खरखराहट थी कि कुछ भी समझ नहीं पड़ रहा था। इतना भर लग रहा था कि उधर कोई टेप बज रहा है किन्तु क्या बज रहा है - बिलकुल ही समझ नहीं पड़ रहा था। वासु भाई ने बताया कि पहले तीनों बार भी यही दशा थी। यन्त्र से कब तक और कैसे संघर्ष किया जा सकता था? हम दोनों ने तत्क्षण ही हार मान ली।

अपनी मूर्खतावश मैंने दो महीनों का भुगतान कर दिया था। इसलिए, पाँच फरवरी से पहले डिश टीवी से मुक्ति लेने का मतलब है, लगभग एक महीने के शुल्क को पानी में डुबोने की हिम्मत कर लूँ।

नहीं जानता कि आगे क्या करूँगा। अभी तो यही जान रहा हूँ कि मुझे डिश टीवीवालों की यह सीनाजोर दादागिरी, प्रसन्नतापूर्वक झेलनी ही है।

एलआईसी एजेण्टों का वार्षिक संकट


अलग-अलग समय पर सच लग रही दो बातें एक साथ सामने आने पर या तो सच नहीं लगतीं या फिर आधा सच लगती हैं। मेरे अभिकर्ता मित्रों ने कल यही प्रतीति कराई मुझे। उन्होंने मेरी ही बातें उदद्धृत कर मेरी बोलती बन्द कर दी।

आधा दिसम्बर बीतते ही हम अभिकर्ता ‘सुपरिचित वार्षिक संकट’ से जूझना शुरु कर देते हैं। यह संकट है - नये वर्ष के केलेण्डर-डायरी का। कुछ ग्राहकों को तो देना ही होते हैं किन्तु अनेक ग्राहकों के मामले में ‘किसे दें, किसे न दें’ के निर्धारण की समस्या बराबर बनी रहती है। वर्ष में पाँच लाख रुपयों की प्रीमीयम देनेवाले और तीन हजार की प्रीमीयम देनेवाले ग्राहक की तुलना करते समय ‘सब ग्राहक समान’ की आदर्श धारणा से आँखें चुराई जाने लगती हैं। किन्तु बीमे का धन्धा बड़ा विचित्र! पाँच लाख सालाना देनेवाले के यहाँ से अगला बीमा शायद नहीं मिलने की आशंका और तीन हजार सालाना दे रहे ग्राहक के यहाँ से अगला बीमा मिल सकने की सम्भावना के बीच कोई निर्णय ले पाना असम्भव नही तो दुःसाध्य अवश्य ही हो जाता है। लालच सचमुच में आदमी को उलझा देता है!

एलआईसी का बहुरंगी सचित्र केलेण्डर निश्चय ही आकर्षक होता है। प्रति वर्ष किसी एक विषय पर केन्द्रित यह केलेण्डर प्राप्त करना अनेक लोगों के लिए ‘अभियान’ यूँ ही नहीं बनता। वर्ष 2013 को ‘नदी वर्ष’ घोषित किया गया है। इस वर्ष का केलेण्डर इसी विषय पर केन्द्रित है और कहना न होगा कि सचमुच में बहुत ही सुन्दर, आकर्षक, नयनाभिराम और चित्ताकर्षक है। किन्तु यह केवल ‘सुन्दर’ ही है। इसकी उपयोगिता मुझे न केवल खुद को कम लगी किन्तु ग्राहकों के घरों में जाकर देखने पर मेरी यह धारणा पुष्ट ही हुई। इसमें तारीखों के अंक बहुत छोटे होते हैं - मुश्किल से दिखाई देते हैं। इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि नब्बे प्रतिशत से अधिक घरों में मैंने पाया कि मार्च महीने के बाद इसके पन्ने भी नहीं पलटे जाते।

केलेण्डर के मुकाबले एलआईसी की डायरी बहुत कम आकर्षक होती है। उपयोगी तो और भी कम। वैसे भी, पल-पल नवोन्नत होती जा रही सूचना प्रौद्योगिकी के इस समय में डायरी चलन से बाहर ही हो गई है। फिर भी, अपने ग्राहकों के अनुभव के आधार पर कह पा रहा हूँ कि लोग अभी भी डायरी की माँग करते हैं। मुझे आश्चर्य भी होता है और उलझन भी। इसी के चलते मैंने ऐसे अनेक ग्राहकों के घर जाकर ‘छानबीन’ की जो प्रतिवर्ष आग्रहपूर्वक डायरी ‘वसूलते’ हैं - ‘पठानी वसूली’ की तरह। लगभग प्रत्येक घर में मैंने पाया कि डायरी का उपयोग किया ही नहीं गया। एक सज्जन ने तो मुझे सात वर्षों की डायरियाँ निकाल कर गर्वपूर्वक दिखाईं। सब की सब ‘नई-नक्कोर’, एकदम अछूती। नाम भी नहीं लिखा था उन्होंने। मैंने पूछा कि जब वे उपयोग ही नहीं करते तो माँग कर क्यों लेते हैं? उन्होंने जवाब दिया - ‘क्यों नहीं लें? आपको तो एलआईसी से मेरे नाम का केलेण्डर और डायरी हर साल मिलती है!’ मेरे पास कोई जवाब नहीं था। इसी धारणा के चलते, रतलाम से लगभग सवा सौ किलोमीटर दूर बैठी मेरी एक पॉलिसीधारक, गए बारह वर्षों से प्रतिवर्ष अपने भाई को मेरे घर भेज कर अपनी डायरी-केलेण्डर ‘वसूल’ कर रही है। जबकि गणित के लिहाज से उसकी वार्षिक किश्त पर मुझे मिलनेवाला कमीशन, डायरी-केलेण्डर के रियायती मूल्य के आधे से भी कम है।

बहुत कम लोग जानते होंगे कि हम अभिकर्ताओं को डायरी-केलेण्डर मुफ्त नहीं मिलते। एलआईसी से खरीदने पड़ते हैं। कहने को हमें ‘रियायती दाम’ पर दिए जाते हैं किन्तु मुझे फिर भी मँहगे लगते हैं। मैं जब-जब भी यह तथ्य केवल ‘बताने के लिए’ बताया तो प्रायः हर बार ही, हँसते हुए या फिर खिल्ली उड़ाते हुए मुझे एक ही जवाब मिला - ‘आप सारे के सारे एजेण्ट एक जैसा झूठ बोलते हैं।’ जेब से रोकड़ा खर्च करो और झूठा होने का लेबल भी खुद पर चस्पा कराओ। अजीब दशा हो जाती है। कहा भी न जाए, चुप रहा भी न जाए और ग्राहक है कि जबरा मारे, रोने न दे।

सो, एलआईसी के हम अभिकर्ता इन दिनों इसी ‘सुपरिचित वार्षिक संकट’ से गुजर रहे हैं। यह दौर आधी फरवरी तक चलता है। कल दोपहर में यही संकट मुद्दा बन गया। भाई लोगों ने मुझे घेर लिया - ‘दादा! कोई रास्ता बताओ।’ मेरे पास कोई रास्ता नहीं था। मैंने हाथ ऊँचे किए तो एक-दो नहीं, आठ-दस अभिकर्ता एक साथ चढ़ बैठे - ‘ऐसे कैसे? आप तो हमें भाषण देते हो। कहते हो कि ऐसी कोई समस्या नहीं है जिसका निदान नहीं।’ मेरी बोलती बन्द हो गई। हाँ। मैं ऐसा कहता हूँ। 

ऐसे में कवि गिरधर अचानक ही मेरे मुक्ति-दाता बन कर मेरे अचेतन में उभर आए। उनकी एक कुण्डली की एक पंक्ति ‘जैसी बहे बयार, पीठ तब तैसी कीजै।’ याद हो आई। मैंने सयानापन बघारते हुए और विद्वत्ता झाड़ते हुए कहा - “कुछ समस्याएँ ऐसी होती हैं जिनके एक से अधिक निदान होते हैं। ये निदान ‘रेडीमेड’ नहीं होते। अपनी अकल से तलाशने पड़ते हैं। जब समस्या सामने आए तब स्थिति के अनुसार, उन्हीं निदानों में उसका कोई एक निदान निकाल लो और मुक्ति पाओ।”

किसी को सन्तोष नहीं हुआ। सब पिल पड़े मुझ पर - ‘वाह! यह तो कोई बात नहीं हुई।’ अपनी आयु-वरिष्ठता और भाषा-सम्पदा का दुरुपयोग करते हुए मैंने निर्णायक घोषणा की - ‘कैसे नहीं हुई? तुम लोगों ने जो समस्या बताई थी, उसका निदान मैंने भी अभी-अभी ऐसे ही निकाला कि नहीं?’ और मैं तत्काल ही चला आया - चल रही बयार के मुताबिक पीठ करते हुए।

लिखना तो और चाह रहा हूँ किन्तु रुकना पड़ रहा है। दरवाजे पर खटखटाहट हो रही है। लगता है, कोई ग्र्राहक आया है - डायरी/केलेण्डर की पठानी वसूली करने।

आनन्द के साथ हौसला भी मिला


अचेतन में भी यह बात नहीं थी कि जा तो रहा हूँ गीत-संगीत का आनन्द लेने, तनाव-मुक्त होने लेकिन हौसला लेकर भी लौटूँगा। किन्तु एक सौ घण्टों से भी अधिक हो गए हैं, मैं अब तक उसी सब में डूबा हुआ हूँ - आनन्द, तनाव-मुक्ति और हौसले में सराबोर।

इन्दौर प्रवास के दौरान, रविवार तेरह जनवरी को, अपनी उत्तमार्द्ध वीणाजी, मेरे आत्मीय रवि शर्मा, उसकी उत्तमार्द्ध, हमारी प्रिय पुष्पा भाभी के साथ, एक पारिवारिक आयोजन से लौट रहा था कि, चलते-चलते नरेश ने पूछा - ‘क्या प्रोग्राम है दादा?’ मैंने कहा - ‘कल रतलाम के लिए निकलना है।’ सुनकर नरेश ठिठक गया। मेरी बाँह पकड़कर, मुझे भी रोकते हुए बोला - ‘‘तो फिर आज शाम साढ़े छः बजे रवीन्द्र नाट्य गृह पहुँचिए। विदाउट फेल। आपकी लाइकिंग का कार्यक्रम है। आप तो मान लो कि कार्यक्रम आपके लिए ही है और आज आप उसी के लिए रुक रहे हो। हेमन्त कुमार के गीतों को, चैन्नई का एक आर्टिस्ट पेश कर रहा है। मैं उसे सुन चुका हूँ। मेरा दावा है कि आप आँखें बन्द कर सुनेंगे तो आपको मानना पड़ेगा कि आप हेमन्त दा’ को ही सुन रहे हैं। आपको आना ही है। आप आ रहे हो।’’ मैंने पहले वीणाजी की ओर और पल भर बाद रवि की ओर देखा। नरेश बोला - ‘सोचो और इधर-उधर मत देखो। रवि भी आएगा।’ मैं तनिक असहज हुआ। बोला - ‘वहाँ तो पास की व्यवस्था होगी। हमारे पास तो पास नहीं हैं।’ नरेश ने अधिकारभरी लापरवाही से कहा - ‘आप उसकी बिलकुल परवाह मत करो। पास की कोई व्यवस्था नहीं है। आप बिन्दास होकर आओ। पहले नाश्ता करो। वहाँ का नाश्ता जोरदार होता है, और बेधड़क हॉल में घुस जाओ। कोई पूछे तो मेरा नाम बता देना।’

मनोनुकूल कार्यक्रम के लिए नरेश का आदेशित-निमन्त्रण और रवि के संसाधन। हमें करना ही क्या था? बस! निर्धारित समय पर तैयार होकर, रवि की प्रतीक्षा ही तो करनी थी? यही किया और यही हुआ। छः बजते-बजते रवि और पुष्पा भाभी पहुँचे। हमें कार में बैठाया और पन्द्रह-बीस मिनिटों में ही हम लोग रवीन्द्र नाट्य गृह के परिसर में थे - नरेश के आदेशित समय से, कम से कम दस मिनिट पहले ही। 

सब कुछ बिलकुल वैसा ही था जैसा नरेश ने बताया था। नाश्ता तैयार था। नाश्ता क्या था, पूरा भोजन था -  छोले-भटूरे, गुलाब जामुन, साबूदाने की खिचड़ी और कॉफी। नाश्ता करने के बाद हमें नरेश की सुध आई। वह तो नजर नहीं आया किन्तु उसकी उत्तमार्द्ध, हम सबकी प्रिय पूर्णिमा भाभी सामने आ गईं। बोलीं - ‘आपके लिए कुर्सियाँ सुरक्षत करके आ रही हूँ।’ नरेश की पूछा तो उन्होंने प्रति-प्रश्न किया - ‘आपके साथ नहीं थे?’ याने, नरेश आ चुका था और कहीं न कहीं घिरा हुआ था। नरेश आया। हम सब को हाँक कर हॉल में ले गया। हमारी कुर्सियों पर बैठाया। 

लगभग सवा सात बजे, सूत्रधार संजय पटेल की आवाज गूँजी। मालूम हुआ कि गायक कलाकार का नाम सुरोजित गुहा है। वे हैं तो बंगाली किन्तु रहते चैन्नई में हैं। इन्दौर में यह उनकी दूसरी प्रस्तुति है। भोपाल की सुश्री सुहासिनी जोशी और महू की सुश्री शिफा मन्सूरी उनका साथ देंगी। वाद्य-वृन्द (आर्केस्ट्रा) भोपाल का है।

फिल्म ‘आनन्द मठ’ में लताजी के गाए गीत ‘वन्दे मातरम्’ से सुहासिनीजी ने कार्यक्रम की शुरुआत की और उनके फौरन बाद सुरोजितजी को बुलाया गया। उनके और हमेन्त दा‘ के प्रति उनके समर्पण-निष्ठा के बारे में बताते हुए, संजय पटेल ने ‘गागर में सागर’ भरने का अपना सुपरिचित-प्रख्यात कौशल भी प्रभावी रूप से उजागर किया।

अब तक सब कुछ सामान्य ही था। किन्तु अगले ही क्षण, समूचा रवीन्द्र नाट्य गृह कोई आधी सदी पहले के काल खण्ड में बदल गया। ‘बेकरार करके हमें यूँ न जाइए’ से  सुरोजित दा’ ने शुरुआत क्या की - समूचा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। नरेश का कहा शब्दशः सच था - सौ फी सद। यदि मैंने हेमन्त दा‘ के चित्र नहीं देखे होते तो मैं सुरोजित दा‘ को ही हेमन्त दा‘ मानता। वही, भीगी-भीगी, थरथराती, धीमी, हवाओं पर तैरती आवाज। वे ही साँसें, वे ही अल्प-विराम, वही आरोह-अवरोह, वे ही लहरियाँ। सब कुछ वही का वही। जी हाँ, वहीं का वही। लग रहा था, मानो हेमन्त दा‘ का कायान्तरण हो गया हो। हेमन्त दा‘ के न होने पर भी हेमन्त दा‘ के होने की ऐसी अनुभूति की खुद पर ही अविश्वास होने लगे। बार-बार आँखें मलनी पड़ें। सब कुछ ऐसा कि मैं चाहूँगा कि मेरी बात पर अपने सम्पूर्ण आत्म विश्वासपूर्वक अविश्वास किया जाए, तसल्ली करने के लिए सामने बैठ कर सुरोजित दा‘ को सुना जाए और तब ही मेरे इस वक्तव्य को सच माना जाए।

कार्यक्रम कोई तीन घण्टे चला। गीत-चयन, संगीत संचालन/संगत, गायन कौशल जैसे प्रत्येक सन्दर्भ और आयाम के हर मायने में यह ‘अविस्मरणीय और उल्लेखनीय’ जैसे विशेषणों को अधिकारी है। सुरोजित दा‘ के प्रत्येक गीत पर कम से कम तीन-तीन बार तालियाँ बजीं। वे जब-जब भी माइक थामे रहे, तब-तब समूचा वातावरण ‘नास्टेल्जिया’ का बन्दी बना रहा। सुरोजित गुहा से हेमन्त दा’ को सुनते हुए हर पल लगता रहा मानो, ज्वालामुखी के लावे से पटे हमारे मौजूदा समय के नीचे, ईथर से तर-ब-तर रुई के फाहों की बारात गुजर रही हो। सुहासिनी और शिफा ने, सुरोजित दा‘ का साथ देते हुए युगल गीतों में तो अपनी धाक जमाई ही, एकल गीतों में भी खूब प्रभावित किया। दोनों ने ‘मणी कांचन’ योग को साकार किया। स्वरों पर सुहासिनी की पकड़ सहज रूप से आकर्षित करती रही। शिफा यद्यपि अपने शुरुआती दौर में लगती हैं किन्तु किसी ‘किशोरी’ के मुँह से हेमन्त दा‘ के काल-खण्ड के गीत सुनना न केवल चौंकाता है अपितु आश्वस्त भी करता है कि हमारी मौजूदा पीढ़ी के ‘संगीत चरित्र’ को लेकर हमने अपनी धारणाएँ बदलने के लिए तैयार रहना चाहिए। मेरे तईं शिफा का सन्देश बिलकुल साफ था - ‘आज के बच्चे वैसे नहीं हैं जैसा कि उनके बारे में सोचा जाता है।’ शिफा में अपार सम्भावनाएँ सहज ही अनुभव होती हैं। मुझे उनकी आवाज, गीता दत्त की आवाज के बहुत पास लगी।

कार्यक्रम के संचालन और संचालक के बारे में कुछ न कहना न केवल कार्यक्रम के  प्रति अपितु खुद के प्रति भी बेईमानी होगी। संजय पटेल अब संचालक मात्र नहीं रह गए हैं। वे ‘कार्यक्रम संचालन का विश्व विद्यालय’ का दर्जा हासिल कर चुके हैं। उनका शब्द चयन, उनकी सहजता, उनका बेलौसपन, ‘स्वभाव’ की तरह अभिनीत की जा रही लापरवाही, चुटीली भाषा, तीसरी शब्द-शक्ति ‘व्यंजना’ का इच्छानुकूल उपयोग, दो प्रस्तुतियों के बीच में सामंजस्य स्थापित करने का अद्भुत कौशल जैसे तत्व उन्हें निश्चय ही ‘कार्यक्रम का नायक’ बनाते हैं किन्तु इन सबको (यानि, खुद को) पीछे धकेलते हुए वे, आयोजन को नायक बनाने में जिस चिन्ता, संयम और विवेक का परिचय देते हैं, वह उन्हें ‘अनुपम’ बनाता है। अन्यथा, मैं ऐसे अनेक कार्यक्रमों का साक्षी रहा हूँ जहाँ से लौटते हुए लोगों को कार्यक्रम के स्थान पर कार्यक्रम संचालक ही याद रह पाया।

और सबसे आखिर में उस हौसले की बात जो मेरे लिए अकल्पनीय अतिरिक्त प्राप्ति रहा।
संगीत का वर्तमान परिदृष्य मुझे बहुत सुखद नहीं लगता। मेरे बेटों की पीढ़ी का संगीत मुझे तनिक भी नहीं रुचता-सुहाता। उसे मैं या तो शिष्टाचारवश या विवशतावश सहन करता (झेलता) हूँ या फिर, खुद को बचाते हुए उससे दूर हो लेता हूँ। आज के फिल्मी गीत मुझे केवल ‘अपनी शारीरिक शक्ति प्रदर्शन के लिए, पूरी ताकत लगाकर चीखना-चिल्लाना’ लगता है। आज के फिल्मी गीतों में प्रेम का प्रकटीकरण भी धमकी अनुभव होता है। मुझे लगता है, सब कुछ मटियामेट हो गया है और अब भारतीय संगीत का भगवान ही मालिक है। किन्तु इस आयोजन ने मेरी इस निराशा को लगभग पूरी तरह से दूर किया। लगभग आठ सौ श्रोताओं से ठसाठस भरे रवीन्द्र नाट्य गृह में कम से कम आधे  श्रोता नई पीढ़ी के, मेरे बेटों की पीढ़ी के बच्चे थे और वे सबके सब, प्रत्येक प्रस्तुति पर न केवल तालियाँ बजा रहे थे अपितु अपनी-अपनी कुर्सियों पर बैठे-बैठे, गीतों के ‘सहयात्री’ बने हुए थे। अपने बच्चों को इस स्थिति में देखकर मेरी आँखें भर आईं। अपने बच्चों के भरोसे पर मेरी टूटन तो कम हुई ही, अपनी जड़ों की शक्ति की अनुभूति ने मेरा हौसला बँधाया भी और बढ़ाया भी। कायक्रम के कोई पचीस-तीस गीतों ने मेरे मन के उखड़ते वट वृक्ष को मानो थाम लिया। मुझे इतना निराश-हताश होने की, घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है। बिलकुल ही नहीं है। अपनी कमजोरी को मैं अपनी जड़ों की कमजोरी मानने की आपराधिक भूल करता रहा। मेरी वास्तविक भूल तो यही है कि मैंने अपनी जड़ों को टटोला-सहलाया नहीं। उनकी तरफ देखा भी नहीं। उन्हें याद करने की भी जरूरत नहीं समझी। 

इस कार्यक्रम ने यही सब मुझे लौटाया। देखने-कहने-सुनने को यह बहुत ही छोटी बात हो सकती है। किन्तु, मुझे एक बार फिर लगा कि छोटी-छोटी बातें सचमुच में उतनी और वैसी छोटी नहीं होतीं जैसी कि हम मान लेते हैं। 

धन्यवाद नरेश। धन्यवाद रवि। तुम दोनों के कारण मैं अपने आप से, अपनी ताकत से परिचित हो सका। 

चित्र में बॉंये से - पूर्णिमा भाभी, नरेश, रवि, पुष्‍पा भाभी और वीणाजी


(पोस्‍ट में चित्र लगाते समय चित्रों के नीचे परिचय लिख पाना मुझे अब तक नहीं आ पाया। इसलिए यहॉं लिख रहा हूँ - ऊपर से नीचे पहले चित्र में सुरोजित गुहा और शिफा, दूसरे चित्र में सुहासिनी और तीसरे चित्र में, गीत प्रस्‍तुतियों के दौरान बैठे हुए, कार्यक्रम संचालक संजय पटेल)

यह खबर कौन छापेगा?


अभी तीन दिन इन्दौर में रहा। काम कम और फुरसत अधिक। कुछ ऐसी कि लगभग पूरी तरह से फुरसत। बेटी-बेटे, महू नाका चौराहे पर, एक बहु-मंजिला इमारत की दूसरी मंजिल पर रहते हैं। अन्नपूर्णा मन्दिर जानेवाली सड़क के समानान्तर ही जाती है - फूटी कोठी और रणजीत हुनमान मन्दिर पहुँचानेवाली  सड़क। इसी के, चौराहेवाले कोने पर बड़े सवेरे, अखबार विक्रेता अपना अड्डा जमा लेते हैं। उनका आना, अखबार लानेवाले वाहनों की प्रतीक्षा करना, वाहनों के आते ही, जल्दी से जल्दी, अपने-अपने ढेर उतारना, उन्हें टेबलों पर रखना, अपनी-अपनी सायकिलें लिए, सामने और आसपास खड़े हॉकरों के हिसाब से उन्हें प्रतियाँ थमाना आदि-आदि सब कुछ, बेटों के निवास की खिड़की से साफ-साफ दिखाई देता है। 

चूँकि सब कुछ लगभग पूर्वनिर्धारित ही रहता है, इसलिए, चहल-पहल तो भरपूर रहती है किन्तु बातें बहुत ही कम। बहुत जरूरी हो तो ही बात होती है अन्यथा एक ने अखबार की प्रतियाँ दीं, दूसरे ने लेकर अपनी सायकिल पर जमाई। उनके ठीक-ठीक जमने की तसल्ली करने के लिए जोर से दो-चार बार थपथपाईं और चल दिए। सबको, सबसे पहले जाने की जल्दी। इस बीच, चाय भी आ जाती है, बिना किसी मनुहार के सब अपना-अपना ग्लास उठा लेते हैं। चाय पी। खाली ग्लास एक तरफ रखा और अगला काम शुरु। किसी को किसी की परवाह नहीं। बस! एक ही धुन - सबसे पहले निकल जाना है। हर एक इतनी जल्दी में कि बेचारा सूरज अपनी पहली किरण फेंक कर देखता है तो शायद ही कोई नजर आए। घुप अँधेरे से अपने काम की शुरुआत कर, मुँह अँधेरे तक सब अपना-अपना काम कुछ इस तरह से निपटाते हैं मानो सूरज उनका कोई ‘टे्रड सीक्रेट’ देख न ले।

लगातार तीन दिन, ब्राह्म मुहूरतों में मैंने इस जीवन्त दृष्य श्रृंखला का आनन्द लिया। मैं सबको ध्यान से देखता रहा किन्तु मेरी ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया। अखबार लो, पैसे दो। बस!

तीनों ही दिन, तीन अखबार लिए - नईदुनिया, भास्कर और पत्रिका। हाँ, सान्ध्य दैनिक प्रभातकिरण भी तीनों ही दिन लिया किन्तु उसके लेने में ऐसे आनन्द का सहस्रांश भी नहीं।

अखबारों की हालत किसी से छुपी नहीं। विज्ञापन ही विज्ञापन। समाचार-सामग्री की स्थिति कुछ ऐसी कि मानो अखबार को अखबार बताना जरूरी न हो तो विज्ञापन के सिवाय और कुछ छापा ही नहीं जाए। ऐसे में अखबार, केवल कहने भर को अखबार। पठनीय कम और दर्शनीय तो उससे भी कम। लेकिन आदत की बात। जब तक अखबार न देखो तब तक न देखने की बेचैनी और देखने के बाद, खुद पर हुई ‘आखिरकार देखा ही क्यों’ की खीझ।

इस सबके बीच ही अखबारों की कीमतों और पृष्ठ संख्या पर ध्यान गया तो वह बात सामने आई जिसके कारण यह सब लिखना पड़ा। अचानक ही यह ज्ञान प्राप्ति हुई कि ‘दाम और माल’ के मामले में हम रतलामवालों के साथ कुछ अनुचित किया जा रहा है, असमानता बरती जा रही है। आँकड़े खुद ही सारी बात कह देते हैं -

नईदुनिया 
शनिवार, 12 जनवरी को - 
इन्दौर में - 24 पृष्ठ,  2/- रुपये। रतलाम में - 20 पृष्ठ, 2/- रुपये।

रविवार, 13 जनवरी को -
इन्दौर में - 52 पृष्ठ, 5/- रुपये (वार्षिक केलेण्डर सहित)। रतलाम में - 24 पृष्ठ, 2/- रुपये (बिना केलेण्‍डर)।

सोमवार, 14 जनवरी को -
इन्दौर में - 20 पृष्ठ, 2/- रुपये। रतलाम में - 16 पृष्ठ, 2/- रुपये।

दैनिक भास्कर 
शनिवार, 12 जनवरी को -
इन्दौर में - 22 पृष्ठ, 2/- रुपये। रतलाम में - 20 पृष्ठ, 3.50 रुपये।

रविवार, 13 जनवरी को -
इन्दौर में - 26 पृष्ठ, 3/- रुपये। रतलाम में - 22 पृष्ठ, 4/- रुपये।

सोमवार, 14 जनवरी को -
इन्दौर में - 18 पृष्ठ, 2/- रुपये। रतलाम में - 14 पृष्ठ, 2/- रुपये।

पत्रिका 
शनिवार, 12 जनवरी को -
इन्दौर में - 36 पृष्ठ, 2/- रुपये। रतलाम में - 18 पृष्ठ, 3/- रुपये।

रविवार, 13 जनवरी को -
इन्दौर में - 40 पृष्ठ, 3/- रुपये। रतलाम में - 22 पृष्ठ, 3/- रुपये।

सोमवार, 14 जनवरी को -
इन्दौर में - 26 पृष्ठ, 2/- रुपये। रतलाम में - 16 पृष्ठ, 2/- रुपये।

सान्ध्य दैनिक प्रभातकिरण 
उपरोक्त तीनों ही दिन -
इन्दौर में - 10 पृष्ठ प्रतिदिन, 1/- रुपया। रतलाम में - 6 पृष्ठ प्रतिदिन, 1/- रुपया।

गणित के मामले में मैं शुरु से ही फिसड्डी रहा हूँ। व्यापार की सूझ आज तक नहीं आ पाई। सो, इस अन्तर का कारण समझ नहीं पा रहा हूँ। निपट देहाती आदमी हूँ सो लगता है कि या तो हम रतलामवालों ने इन्दौरवालों की, घनी अमराइयाँ काट दी होंगी या फिर, रतलाम की बेटियों ने इनकी बहू के रूप में इन्हें इतनी यातना दी होगी कि हमसे इस तरह बदला लिया जा रहा है। 

ईश्वर से प्रार्थना भी कर रहा हूँ - जैसा हम रतलामवालों के साथ हो रहा है, वैसा और किसी कस्बेवालों के साथ न हो। गाँवों-कस्बों के दम पर किस तरह शहरों को पाला-पोसा जा रहा है, उसी का एक उदाहरण यह भी है।

सालाना साढ़े बारह अरब के एसएमस याने गरीबों की अमीरी


एसएमएस मुझे सदैव ‘आपात’ ही लगते हैं - पढ़ना हो या भेजना हो। पढ़ने में ही प्राण निकल जाते हैं तो लिखने में क्या गत होती होगी, कल्पना की जा सकती है। फिर भी, इससे बच पाना सम्भव नहीं रह गया है। सो, पढ़ता भी हूँ और (लिख कर) भेजता भी हूँ।

कुछ मेहरबान हैं जो मुझे एसएमएस से बराबर जोड़े रखे हुए हैं। प्रति दिन सुबह, मध्याह्न, अपराह्न, देर रात एसएमएस भेजते रहते हैं। कुछ इस तरह, मानो अपने आराध्य की निर्धारित पूजा-सेवा का क्रम, निष्ठापूर्वक निभा रहे हों। सुबह प्रभातियाँ गाकर उठाते हैं और रात को शयन-आरती करके सुलाते हैं। उत्सवों, पर्वों और विशेष प्रसंगों पर आनेवाले एसएमएस इनमें शामिल नहीं हैं। कभी-कभी ऐसे एसएमएस भी आ जाते हैं जो मुझे अपने स्कूल-कॉलेज के दिनों की आदिम-फूहड़ता की याद दिला देते हैं। ऐसे एसएमएस अपने अन्तरंगों को ही भेजे जाते होंगे, मुझे गलती से आ जाते हैं। जाहिर है, भेजनेवाले को भी पता नहीं कि वह किसे, कौन सा सन्देश भेज रहा है। सो, प्रतिदिन, लगभग अठारह-बीस एसएमस पढ़ ही लेता हूँ।

गए कुछ दिनों से ये एसएमस ही विचार पटल पर छाए हुए हैं। इनमें मुझे कोई रचनात्मकता दिखाई नहीं देती। उपयोगिता तो निश्चय ही कुछ नहीं होती। मुझे लगता है, भेजनेवाले किसी व्यसन के अधीन ही भेजते होंगे। क्योंकि मुझे नियमित रूप से एसएमएस भेजनेवाले  दो कृपालु मुझे प्रायः प्रतिदिन मिलते हैं किन्तु अपने ही भेजे हुए एसएमएस की चर्चा उन्होंने कभी नहीं की। उनसे बातें करते समय मैं नजरें गड़ा कर, ध्यान से उनका चेहरा देखता हूँ। मुझे एक बार भी, एक पल को भी नहीं लगा कि उन्हें पता है कि वे मुझे नियमित रूप से एसएमस भेजते हैं।

मुझे नहीं पता कि मेरा सोचना कितना सही या कितना गलत है। किन्तु मुझे लग रहा है कि एसएमएस के मामले में हमने अपनी स्थिति और दशा एकदम विपरीत दिशा में स्थापित कर दी है - एसएमएस हमारे लिए होने चाहिए थे किन्तु हम एसएमएस के होकर रह गए हैं। हमें मोबाइल कम्पनियों का उपभोक्ता होना चाहिए था किन्तु हम मोबाइल कम्पनियों के उत्पाद बन कर रह गए हैं। हम मोबाइल कम्पनियों और मोबाइल सेवाओं को प्रयुक्त नहीं कर रहे, वे हमें प्रयुक्त कर रही हैं और मजे की बात यह कि यह सब हम अपनी गाढ़ी कमाई की कमत पर कर रहे हैं।

सुनता और पढ़ता हूँ कि देश की जनसंख्या और देश की मोबाइल संख्या लगभग बराबर हो गई है। गई रात मैंने बहुत ही मामूली गिनती की तो, हाड़ जमा देनेवाली इस ठण्ड में भी मुझे पसीना आ गया।

मेरी गणित शुरु से ही बहुत ही कमजोर रही है। सम्भव है, मेरी गणना गलत हो। ऐसे में, किसी और बात के लिए नहीं तो केवल इसी बात के लिए कि मेरी गणना सही है या नहीं, थोड़ी देर के लिए मेरे साथ हो लीजिए।

मोटे तौर पर हमारी जनसंख्या सवा अरब मान रहा हूँ। मान रहा हूँ कि इनमें से 80 प्रतिशत जनसंख्या के बराबर ही देश में मोबाइलों की संख्या होगी - याने एक अरब। इनमें से 10 प्रतिशत लोग अर्थात् 10 करोड़ लोग वैसे ही ‘एसएमएस व्यसनी’ होंगे जैसा कि मैंने ऊपर लिखा है और प्रति व्यक्ति, प्रति दिन एक एसएमएस करता होगा। एक एसएमएस का शुल्क कम से कम एक पैसा तो होगा ही। याने, 10 करोड़ पैसे प्रतिदिन। याने 10 लाख रुपये प्रति दिन। इस मान से पूरे वर्ष का आँकड़ा बनता है - 36 करोड़ 50 लाख रुपये।

मोबाइल कम्पनियाँ एक और ‘लोकप्रिय’ सेवा उपलब्ध कराती हैं - रिंग टोन की। मोबाइलधारकों की, मेरी उपरोक्त अनुमानित संख्या के 5 प्रतिशत, याने 5 करोड़ मोबाइलधारक भी यदि यह सेवा प्रयुक्त करते हैं तो इसका आँकड़ा ‘भयावह’ की सीमा तक पहुँच जाता है। इस सेवा के लिए एक उपभोक्ता यदि 20 रुपये मासिक चुकाता है तो एक महीने का राष्ट्रीय आँकड़ा 1 अरब रुपये अर्थात् 12 अरब रुपये वार्षिक होता है।

यहाँ तक लिखते-लिखते मेरी साँस फूल आई है। मैं ईश्वर से प्रार्थना कर रहा हूँ कि मेरी यह गिनती आंशिक रूप से भी सच न हो। लेकिन आप इसमें कितनी कमी कर पाएँगे?  

मेरी इस गणना को परखने का श्रम कीजिए और साथ-साथ यह भी विचार करते रहिएगा कि यह सब उस देश में हो रहा है जिसकी आधी से अधिक जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रही है।

यह सब हम ही कर रहे हैं। या तो हम, यह सब जानते ही नहीं हैं या फिर जानना ही नहीं चाहते। हमने ‘परम् प्रसन्नतापर्वूक’ खुद को, मोबाइल कम्पनियों के ‘उत्पाद’ में बदल लिया है। 

यह कौन सा भारत है? 

‘कुछ’ अच्छे से जुड़ने की खुशी


कभी-कभी ‘कुछ’ ऐसा हो जाता है जिसे परिभाषित करना या व्याख्यायित करना तो दूर, उसका उल्लेख भी शायद आवश्यक न हो किन्तु उससे जुड़कर, उसका हिस्सा बन कर अच्छा लगता है। आत्मीय प्रसन्नता होती है। इससे तनिक आगे बढ़कर, आत्म सन्तोष भी होता है। कल, ऐसे ही ‘कुछ’ से जुड़ गया मैं। 

यह 28 या 29 दिसम्बर की शाम थी। हाश्मीजी के आदेश के अधीन मैं ‘विजन 20-20’ पर बैठा था। वाचनालय के आयतन और घनत्व में दिन-प्रति-दिन हो रही धीमी-धीमी बढ़ोतरी से समूचे वाचनालय परिवार की प्रसन्नता उनकी बातों से झलक रही थी। उन्हें इस बात की अतिरिक्त खुशी थी कि यह वाचनालय, ‘पढ़ने-लिखनेवालों के मिल-बैठने-बतियाने का अड्डा’ बनता जा रहा है। इस सबसे उत्साहित हो, इस बार 26 जनवरी को, वाचनालय की ओर सेे एक छोटा सा आयोजन करना तय हुआ। हाश्मीजी चाह रहे थे कि उस कार्यक्रम का संचालन मैं करूँ।

इस तरह वाचनालय पर मिलना-जुलना, बैठना-गपियाना, अड्डेबाजी करना, ऐसा आयोजन - यह सब कुछ मेरे मनपसन्द शगलों में शामिल है। सो, अच्छा तो मुझे लगना ही था। बस, एक बात अच्छी नहीं लग रही थी कि कार्यक्रम का संचलान मैं करूँ। 

मैंने हाश्मीजी से कहा कि काम मेरी पसन्द का है। यह काम मैं करता रहा हूँ। अब भी कर सकता हूँ। किन्तु आखिरकार किसी भी बात की हद तो होनी चाहिए! हम बूढ़े कब तक अपने बच्चों के  हक पर अतिक्रमण करते रहेंगे? डाके डालते रहेंगे? कब अपने बच्चों को अवसर देंगे? मैंने सवाल किया - ‘वाचनालय में आनेवाले बच्चों में से किसी बच्चे से यह काम क्यों नहीं करवाते?’ हाश्मीजी को बात अच्छी लगी। किन्तु अगले ही क्षण बोले - ‘लेकिन कोई शायद ही तैयार हो। किसी ने यह काम अब तक नहीं किया है।’ मैंने कहा - ‘कोई बात नहीं। नहीं किया तो अब कर लेंगे। कोई मुश्किल काम तो है नहीं!’ हाश्मीजी बोले - ‘आपके-हमारे लिए मुश्किल नहीं है। लेकिन जिसने कभी किया ही नहीं, उसके लिए तो बहुत मुश्किल है।’ बात सही थी। किन्तु अपने ‘एबलेपन’ के अधीन कहा - ‘मुश्किल हो सकता है। लेकिन नामुमकिन तो नहीं। आप किसी से बात तो कीजिए! कोशिश तो कीजिए! न हो तो उनके लिए घण्टे-दो-घण्टे की, कोई छोटी-मोटी वर्कशॉप आयोजित कर लीजिए।’ यह बात भी हाश्मीजी को पसन्द आई। बोले - ‘हाँ। आपकी यह बात गले उतरती है। लेकिन वर्कशॉप का इन्स्ट्रक्टर कौन हो?’ जवाब में अपनी आवाज सुनकर मैं खुद ही चौंक गया। मैंने सुना, मैंने बेसाख्ता कहा - ‘मैं बन जाऊँगा इन्स्ट्रक्टर।’ कह/सुन कर मैं सकपका गया। यह क्या हो गया? क्या कह दिया मैंने? क्यों और कैसे कह दिया? अब लग रहा है कि निश्चय ही मेरी कोई दमित, अव्यक्त कामना ही इस तरह, अनायास जबान पा गई! किन्तु यह देख कर तसल्ली हुई कि हाश्मीजी का ध्यान मेरी इस दशा की ओर गया ही नहीं। इसके विपरीत वे खुश होकर बोले - ‘लीजिए! आपने तो खुद ही, खुद के सवाल का जवाब दे दिया। बातइए! वर्कशॉप कब करें?’ 

अब मेरे बस में कुछ भी नहीं रह गया था। सब कुछ हाश्मीजी को ही तय करना था। उन्हीं ने तय कर दिया - रविवार, 6 जनवरी को सुबह ग्यारह बजे। स्थान - लायब्रेरी विजन 20-20. कौन आएगा, कैसे आएगा, कैसे खबर की जाएगी - सारा जिम्मा हाश्मीजी ने ले लिया। मुझे तनिक घबराहट हो रही थी जबकि हाश्मीजी ‘परम्-प्रसन्न’ थे।

6 जनवरी को मुझे पौने ग्यारह बजे ही वाचनालय पहुँचना था। मैं घर से निकलता, उससे पहले ही हाश्मीजी का फोन आ गया। मैं पहुँचा। वे प्रतीक्षारत थे। एक बच्चा बैठा हुआ था। हाश्मीजी ने परिचय कराया - शोएब पटेल। आनेवाले कल का, एक बेहतर चार्टर्ड अकाउण्टण्ट। कुल पाँच बच्चों ने रुचि दिखाई थी - तीन बच्चियाँ और दो बच्चे। बाकी चार की प्रतीक्षा थी। कुछ ही मिनिटों में दो बच्चियाँ आईं - राखी और सुरभि ओरा। दोनों बहनें। एक इंजीनियरिंग की और दूसरी कामर्स की छात्रा। थोड़ी ही देर में एक और बच्चा पहुँचा - यश गोयल। यह भी कामर्स का छात्र था। इससे, एक शाम पहले भी, इसी वाचनालय पर मुलाकात हो चुकी थी। अब पाँचवे प्रशिक्षु की प्रतीक्षा थी। हितैषी नामकी यह बच्ची लगभग साढ़े ग्यारह बजे पहुँची। यह भी चार्टर्ड अकाउण्टण्ट बनने वाली है।

हितैषी के आते ही हम लोग काम पर लग गए। मैं घर से कागजी तैयारी करके चला था। मुझे लगा था कि विषय बहुत ही मामूली है और एक घण्टा भी शायद ही लगेगा अपनी बात कहने में। किन्तु मुझे आश्चर्य हुआ कि डेड़ घण्टे से भी अधिक समय लग गया, अपनी बात कहने और विषय को समेटने में। असंख्य ऐसी बातें सामने आती गईं जिनकी कल्पना खुद मैंने भी नहीं की थी। 

प्रशिक्षक के रूप में मैं। हाश्‍मीजी ने ये  चित्र भेजे और बाद में मालूम हुआ 
कि यह सब  उन्‍होंने फेस बुक पर भी दिया है तो ही मुझे यह सब सूझा।

मैं नहीं जानता कि बच्चों को कैसा लगा। किन्तु, सबसे बाद में आकर सबसे जल्दी जाने की उतावली बरतनेवाली हितैषी एक बार भी जाने को बेचैन नहीं हुई - इससे अनुमान कर रहा हूँ कि बच्चों को सब कुछ ठीक-ठीक ही लगा होगा। जानता हूँ कि बच्चों की प्रतिक्रियाएँ या तो मिलेंगी ही नहीं और मिलेंगी भी तो वे अनुकूल तथा प्रशंसात्मक ही होंगी। (आखिर, इतनी समझ तो उन्हें है ही!:):):):):)) किन्तु इतनी देर तक बच्चों से बात कर मुझे बहुत अच्छा लगा - ऊर्जा, ताजगी और स्फूर्तिदायक। पहले लगा था, मुझे आत्म-सन्तोष मिला है। किन्तु सच तो यह है कि बच्चों ने मुझे समृद्ध कर दिया।

तय हुआ है कि 20 जनवरी को हम सब एक बार फिर मिलेंगे। उसी समय और स्थान पर। पाँचों ही बच्चे, अपनी-अपनी कल्पना से एक-एक कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार कर साथ लाएँगे और अपने संचालन की बानगी प्रस्तुत करेंगे। यह तो उसी दिन तय हो गया कि 26 जनवरी वाले कार्यक्रम का संचालन इन्हीं पाँच में से कोई एक करेगा। मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ कि 20 तारीख को मैं इन्हें प्रतियोगी के रूप में देखूँ - कार्यक्रम का संचालक बनने हेतु प्रतियोगी के रूप में।

नहीं जानता कि यह सब कैसा, क्या, कितना उपयोगी, कितना सार्थक हुआ? किन्तु मैं बहुत खुश हूँ। आत्म सन्तुष्ट होने तक खुश। अच्छा लगा मुझे इस ‘कुछ’ से जुड़कर।

गाँधी का नाम और गाँधी टोपी पर्याप्त नहीं

‘विचार’ का वृत्ति में आना, ‘वैचारिकता’ होता होगा और यही वैचारिकता जब मनुष्य के आचरण में उतर आती है तभी वह आदमी की पहचान होती है। इसीलिए केवल ‘विचार’ या ‘वैचारिकता’ की पर्याप्त नहीं होती। इन दोनों का अन्तरण, आचरण में हुए बिना ये दोनों अमूर्त ही रह जाते हैं। इनकी वास्तविकता का अनुभव या कि इनका परीक्षण एक ही दशा में सम्भव हो पाता है और वह दशा होती है - ‘आचरण।’ आचरण के बिना कोई भी विचार या वैचारिकता खोखले नारे से अधिक नहीं होती।
 
यह अनुभूति मुझे आज सुबह-सुबह, चम्पारण आन्दोलन में गाँधी के व्यवहार को पढ़कर हुई। इसी के समानान्तर मुझे अण्णा जैसे उन तमाम लोगों की विफलताएँ समझ में आई जो गाँधी के नाम की दुहाई देकर और गाँधी प्रतीकों को धरण कर, ताल ठोक कर मैदान में उतरते हैं लेकिन देर तक ठहर नहीं पाते। वे फैशन के एक दौर की तरह, कुछ देर परिदृष्य पर दिखाई देते हैं - केवल अगले दौर के आने तक।
 
चम्पारण में गाँधी का लक्ष्य था - ‘रोगी को नहीं, रोग को मारना।’ रोगी थे - अंग्रेज नीलगर और रोग था - नील की खेती की अनिवार्यतावाला कानून। एक बीघा जमीन में कम से कम तीन कट्ठा जमीन में नील की खेती करने
की अनिवार्यता का कानून अंग्रेजों ने चम्पारण के किसानों पर लाद रखा था। इसका पालन कराने में अंग्रेज लोग मनुष्यता भूल कर पाशविक क्रूरता/नृशंसता बरतते थे। अंग्रेज नीलगरों के बंगलों के बाहर मजबूत बाड़े बने हुए थे जिनमें चम्पारण के किसानों को, पशुओं की तरह कैद रखा जाता था - नील की खेती करने से बचने के लिए वे, कहीं भाग न जाएँ। चम्पारण के त्रस्त किसानों ने गाँधी से  गुहार लगाई। गाँधी ने रोग पहचाना और इसी के निर्मूलन को लक्ष्य बनाया।
 
इस हेतु वे निमत्ति मात्र बने। मुख्य भूमिका चम्पारण के शिक्षित लोगों और किसानों ने ही निभाई। पीड़ित किसानों की संख्या थी लगभग चार हजार। गाँधी ने तय किया - ‘प्रत्येक किसान का आवेदन प्रस्तुत किया जाएगा।’ गाँधी के नेतृत्व में ये सब लोग दिन-रात लिखा-पढ़ी में लगे रहते। संख्या की अधिकता के चलते, लिखा-पढ़ी में चौबीस घण्टे भी कम अनुभव होते थे। लेकिन गाँधी ने यह असम्भवप्रायः काम करवा ही लिया।
अंग्रेज सरकार को अन्ततः बात सुननी पड़ी। नील-कानून की समीक्षा हेतु सात लोगों की समिति बनाई गई। इस समिति में किसानों का एक ही प्रतिनिधि था - गाँधी। शेष 6 प्रतिनिधि या तो अंग्रेज सरकार के थे या अंग्रेज नील व्यापारियों (नीलगरों) के। अंग्रेज-बहुल इस समिति ने नील की खेती करने की अनिवार्यता समाप्त करने की सिफारिश की। चौंकानेवाली और उल्लेखनीय बात थी - यह सिफारिश बहुमत से नहीं, ‘सर्वानुमति’ से की गई थी।
 
हवाओं में एक ही सवाल था - यह कैसे हुआ? जवाब गाँधी ने दिया - ‘मेरा मकसद रोग को मारना था, रोगी को नहीं। रोग था - नील की खेती करने की अनिवार्यता। यदि मैं अंग्रेज नीलगरों के अत्याचारों पर कार्रवाई करने और उन्हें सजा देने की बात करता तो न तो उन्हें सजा मिलती और न ही यह अनिवार्यता खत्म होती।’
 
यही वह बिन्दु है जहाँ से, गाँधी की दुहाइयाँ देनेवाले और गाँधी प्रतीकों को सजावट की तरह इस्तेमाल करनेवाले, अण्णा और उन जैसे तमाम लोगों की विफलताओं की त्रासदियों के कारण साफ नजर आने लगते हैं।
 
इन सबने ‘व्यक्तियों’ को निशाने पर लिया, ‘वृत्ति’ को नहीं। रोग को नहीं, रोगियों को मिटाना चाहा। अण्णा जब गर्वपूर्वक सूचित करते हैं कि उन्होंने इतने-इतने मन्त्रियों की कुर्सियाँ छीन लीं तो लगता है, वे अपनी उपलब्धियाँ नहीं, अपनी हीन महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति की मसालेदार, मनोरंजक कथाएँ सुना रहे हैं। ऐसा करते हुए वे भूल जाना चाह रहे होते हैं कि इने-गिन भ्रष्टों को हटा देने के बाद भी भ्रष्टाचार तो जस का तस बना हुआ है। ऐसे में, वे यह भी भूल जाते हैं कि एक व्यक्ति की विफलता, उद्वेलित-आन्दोलित जन-मेदिनी की विफलता में बदल गई है। करोड़ों लोगों की आशाएँ/अपेक्षाएँ, अपने पहले ही चरण में काल-कवलित हो गई हैं।
 
‘विचार’ जब ‘नारा’ और ‘वैचारिकता’ ‘जुगली का चारा’ बना ली जाए, आचरण जब प्रदर्शन के प्रतीकों बदल लिया जाए और ‘रोग’ को मारने का अभियान ‘रोगी’ को मारने के अभियान में बदल जाए तो वही सब होता है जिसे आज हम सब भुगत रहे हैं।
 
गाँधी, इसलिए प्रासंगिक नहीं, अनिवार्य और अपरिहार्य हैं।

बच्चे सुनते भी हैं और मानते भी हैं

 
 
 
जो यह शिकायत करते हैं कि बच्चे न तो सुनते हैं, न कहना मानते हैं और न ही साथ देते हैं, मेरा यह नवीनतम संस्मरण उन्हें ढाढस भी बँधाएगा और हौसला भी देगा।
 
कल, मोनी और संकुल आए थे। अपने विवाह का न्यौता देने। बहुत खुश थे। आग्रह की शकल में धमकी दे गए हैं कि उनके विवाह समारोह में मुझे आन ही आना है। गैरहाजिरी का कोई बहाना नहीं चलेगा। मुझसे बात औार व्यवहार करते समय, मोनी तनिक अधिक छूट ले लेती है। मेरी देहाती मानसिकता को भाँप कर (निश्चय ही मेरी प्रसन्नता की चिन्ता करते हुए), मुझे ‘बा’ सम्बोधित करती है। दादा और पिता के बड़े भाई को मालवा में, गाँवों में ‘बा’ से ही सम्बोधित किया जाता है। अपने विवाह का निमन्त्रण थमाते हुए बोली - ‘बा! आपको हर हाल में आना है। आपकी खुद की शादी हो तो उसे भी छोड़ कर आना है। याद रखना! आप नहीं आओगे तो मैं संकुल के गले में वरमाला भी नहीं डालूँगी।’ संकुल कम बोलता है। उसने चुप रह कर मोनी की धमकी में अपनी धमकी मिलाई।
 
मोनी और संकुल दोनों ही मेरे कस्बे के हैं। दोनों के परिवार मेरे तो पूर्व परिचित हैं पर परस्पर परिचित नहीं थे। कोई चार बरस पहले दोनों परिवारों में परिचय हुआ था जब मोनी और संकुल भोपाल गए थे - इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने। दोनों परिवारों को यह सूचना मैंने ही दी थी और दोनों के परिचय का निमित्त मैं ही बना था। दोनों बच्चे रतलाम के हैं सो, परदेस में भरोसा रहेगा। मोनी के माता-पिता तनिक अधिक चिन्तित थे। लड़की मा मामाल है। सो, संकुल को मानो विशेष जिम्मेदारी दे रहे हों, इस तरह कहा था - ‘मोनी का ध्यान रखना बेटा! वह पहली बार घर से बाहर निकल रही है।’ संकुल ने भी आज्ञाकारी भाव से भरोसा दिलाया था - ‘हाँ! हाँ! अंकल! आप फिकर नहीं करें।’
 
पढ़ने के नाम पर, घर से पहली बार बाहर निकले बच्चे, शुरु के साल-डेड़ साल, घर आना-जाना खूब करते हैं। इसी क्रम में मोनी और संकुल की भोपाल-रतलाम-भोपाल यात्राएँ प्रायः ही साथ-साथ होती रहीं। सब कुछ इतना सहज-सामान्य रहा कि दोनों ही को पता नहीं लगा कि कब दोनों के बीच प्रेम अंकुरित हो गया। मोनी की माँ ने सबसे पहले सूँघा। उसने एकान्त में मोनी से बात की। बात तो क्या, अच्छी-खासी ‘पुलिसिया पूछताछ’ कर ली। मोनी बहुत जल्दी टूट गई। माँ घबरा गई। फौरन ही पतिदेव से बात की। पिताजी और अधिक घबरा गए। मोनी को डाँटने-फटकारने का विचार मन में आया तो सही किन्तु डर के मारे रुक गए - ‘लड़की जवान है और नादान भी। कहीं, कुछ कर बैठी तो?’
 
घबरा कर दोनों मेरे पास आए। मानो मेरा अपराध गिनवा रहे हों, इस तरह बोले - ‘आप ही ने मुलाकात करवाई थी। अब आप ही कुछ करो।’ इस स्थिति का अनुमान तो मुझे नहीं था किन्तु सारी बात सुन कर चौंका भी नहीं। दोनों परिवार अलग-अलग जाति के। मैं अन्तरजातीय विवाहों का समर्थक। सीधे-सीधे पूछा - ‘मोनी अड़ गई तो?’ माँ ने हिम्मत दिखाई। बोली - ‘बच्ची की खुशी में हमारी खुशी। और वैसे भी अब जात-पात पर कौन ध्यान देता है?’ मैंने कहा - ‘मैं उनसे (संकुल के माता-पिता से) बात करके देखता हूँ।’
 
संकुल के माता-पिता से मिला तो काम कम कठिन लगा। उन्हें भी इस प्रेम प्रसंग की भनक लग चुकी थी और संकुल से प्रारम्भिक बात हो चुकी थी। यहाँ लड़के की माँ तैयार नहीं थी। उसके हिसाब से, मोनी की जात, हलकी जात थी। लेकिन जो डर मोनी के माँ-बाप के मन में था, वह यहाँ भी था - ‘जवान लड़का है। क्या पता? कब-क्या कर बैठे?’ दोनों पालकों के मन का यह भय इस प्रेम प्रसंग की मानो ‘रक्षा बाड़’ बन गया। काम आसान होता लगने लगा। दोनों पक्षों की संयुक्त बैठक कराई। थोड़ी बहुत ना-नुकर और ‘ऐसा होगा, वैसा होगा’ ‘जमाना खराब है। लोग क्या कहेंगे’ जैसी बातों की खानापूर्ति के बाद दोनों पक्ष सहमत हो गए। किन्तु दोनों ने दो शर्तें रखीं और दोनों ही शर्तों के निभाव की जिम्‍मेदारी मुझे दी। पहली शर्त - ‘दोनों की पढ़ाई पूरी होने से पहले विवाह नहीं होगा।’ दूसरी शर्त - ‘रतलाम में लोगों को भनक नहीं लगनी चाहिए। वरना, विवाह कर पाना मुश्किल हो जाएगा।’ यह जानते हुए भी दूसरी शर्त का निभाव आसान नहीं है, मैंने दोनों शर्तों की जिम्मेदारी ले ली।
 
अगली शाम मैंने मोनी और सुकंल को बुलाया। उन्हें बधाइयाँ दी कि दोनों के माता-पिता उनके विवाह पर सहमत हो गए हैं। सारी बात विस्तार से बताई और फिर कहा - ‘लेकिन अब यह तुम दोनों पर ही निर्भर है कि तुम दोनों का विवाह हो या न हो। यदि नहीं हो पाया तो इसके लिए तुम दोनों ही जिम्मेदार रहोगे।’ दोनों को बात समझ में नहीं आई। मैंने दोनों शर्तें बताईं और साफ-साफ कहा - ‘रतलाम में रहते हुए तुम दोनों ही एक दूसरे की शकल नहीं देखोगे और एक दूसरे की गली में कभी नजर नहीं आओगे। यह तपस्या तुम दोनों को सफलतापूर्वक पूरी करनी होगी। इसमें जरा सी भी चूक हुई कि तुम दोनों की शादी नहीं हो पाएगी।’ संकुल को विशेष रूप् से कहा कि इस शर्त के पालन में उसकी जिम्मेदारी अधिक बनती है क्योंकि लड़की होने के कारण मोनी का घर से निकलना तो वैसे भी कम ही होगा लेकिन संकुल तो छुट्टा घूम सकता है। यदि वह बार-बार मोनी की गली में नजर आया तो मोनी का परिवार मुश्किल में आ जाएगा और हमारे समाज में लड़के के चरित्र पर लगा आरोप पानी की लकीर होता है जबकि लड़की पर लगा आरोप पत्थर की लकीर। ऐसे में, भले ही दोनों परिवार इस विवाह पर सहमत हैं किन्तु बदनामी की आशंका बराबर बनी रहेगी। और खुदा न खास्ता, दुर्योग से, यह प्रेम प्रसंग कभी मुकाम तक नहीं पहुँच पाया तो मोनी का वैवाहिक जीवन दूभर हो जाएगा। बात संकुल की समझ में आ गई। उसने अपने आराध्य की शपथ उठाकर कहा कि वह रतलाम मे रहते हुए मोनी से आमना-सामना होने के अनायास प्रसंग को भी टालेगा।
 
पूरे दो वर्षों तक दोनों बच्चों ने दूसरी शर्त का पालन सचमुच में शब्दशः किया। वे रतलाम में कभी नहीं मिले। कभी आमने-सामने नहीं आए। दोनों की पढ़ाई पूरी हो गई तो दोनों ने ही अपनी-अपनी नौकरी मिलने तक की प्रतीक्षा की। मोनी को नौकरी पहले मिली और संकुल को बाद में।
 
अब दोनों का विवाह हो रहा है। दोनों परिवारों ने इस प्रेम विवाह को ‘आयोजित, पारम्परिक विवाह’ में बदल दिया है। गाँव की गाँव में शादी है। दोनों ही के 'जाति-समाज' में हलकी-हलकी सुगबुगाहट हो रही है किन्तु दोनों ही परिवार चिन्ता नहीं कर रहे हैं। परिवारों का यह रुख देखकर दोनों के ‘जाति समाज’ ने चुप रहकर विवाह में शामिल होकर ‘स्नेह भोज का आनन्द’ लेने की व्यावहारिक समझ अपना ली है।
 
हर कोई खुश है। मोनी और संकुल सर्वाधिक खुश हैं। वे अपने परिवारों को और मुझे इस खुशी का श्रेय दे रहे हैं। इस दशा में मुझे वे दोनों ‘कस्तूरी मृग’ लग रहे हैं। नहीं जान रहे कि उन्होंने ही तपस्या करने की तरह दूसरी शर्त निभाई और इस मुकाम पर पहुँच पाए। दोनों परिवार खुश हैं कि बच्चों ने उनका कहा माना। दोनों परिवार भी नहीं जान रहे कि उन्होंने अपने बच्चों पर भरोसा किया तो ही बच्चे उनके भरोसे पर खरे उतर पाए।
 
और मैं? मत पूछिए! मैं तो निहाल हुआ जा रहा हूँ। एक तो यह अन्तरजातीय विवाह और दूसरा यह कि मेरा यह भरोसा खरा उतरा कि बच्चों पर भरोसा किया जाए तो वे कभी निराश नहीं करते।
 
मुझे तो इस विवाह में हाजिर रहना ही है। उस दिन भले ही मुझे अपने ही विवाह में गैर हाजिर रहना पड़े। वरना, संकुल का गला, मोनी की वरमाला की प्रतीक्षा करता रह जाएगा।

घातक शस्त्र को कवच में बदल दिया

 
 
 
यह प्रसंग भाषा के चमत्कार का तो नहीं, भाषा के सुन्दर उपयोग का अवश्य है। सूझ-समझ हो तो, जो भाषा, धारादार और घातक औजार के रूप में आपके विरुद्ध प्रयुक्त की जा रही है, उसे ही आप अपना कवच कैसे बना सकते हैं, यह भी इस प्रसंग से समझा जा सकता है। भाषा तो वही होती है, बस! आवश्यकता होती है, उसे प्रयुक्त करने के कौशल की। यही कौशल, सामनेवाले द्वारा प्रयुक्त किए गए घातक-शस्त्र को बूमरेंग बनाकर, आक्रामक को लौटा सकता है, जिस पर वार किया गया है, वही इसे अपना कवच बना लेता है। कुछ इस अन्दाज में कि ‘कैसे तीरन्दाज हो? सीधा तो कर लो तीर को!’
 
बात 1980 की है। दादा मध्य प्रदेश सरकार में, स्वतन्त्र प्रभारवाले खाद्य राज्य मन्त्री थे। विधान सभा का सत्र चल रहा था। उस दिन के प्रश्न-काल में, खाद्य मन्त्रालय से जुड़े प्रश्न शामिल थे। संयोग से उस दिन मैं भोपाल में ही था। दादा, एक शाम पहले से ही ‘होम वर्क’ कर रहे थे। वे तनाव में तो नहीं थे किन्तु तनिक अतिरिक्त सतर्क अवश्य थे। मैंने पूछा तो बोले - ‘प्रश्न-काल, मन्त्री की केवल राजनीतिक परीक्षा ही नहीं होता। वह मन्त्री की प्रतिभा की तथा चीजों को कैसे सम्हाला जाए, इस क्षमता की भी परीक्षा होता है। मूल प्रश्न का उत्तर तो अधिकारी तैयार कर देते हैं किन्तु पूरक प्रश्न तो मन्त्री को अपने दम पर ही झेलने और निपटाने पड़ते हैं। ये पूरक प्रश्न ही किसी भी मन्त्री की वास्तविक परीक्षा होते हैं। जब पूरे सदन की नजरें और ध्यान आप पर हो तो असावधान रहने की जोखिम उठा ही नहीं सकते। पूरी सरकार की फजीहत हो जाती है। मन्त्री को इतना दक्ष, सक्षम और कुशल होना चाहिए कि पूरक प्रश्नों के उत्तर न होने की दशा में, इस वास्तविकता को कबूल न करे,  जवाब भी नहीं दे और जवाब देना साबित कर दे।’
 
बात मेरी समझ से ऊपर थी। बिना समझे ही मैंने समझदार बनने का अभिनय करते हुए सहमति में मुण्डी हिला दी। लेकिन दादा समझ गए कि मैं नहीं समझा हूँ। हँस कर बोले - ‘आज देखना। आज शीतलाजी के सवाल हैं। उन्हें जवाब देना अपने आप में एक परीक्षा होता है।’
 
शीतलाजी से दादा का मतलब था श्री शीतला सहाय से। वे ग्वालियर से विधायक थे। राजनेता से अलग और ऊपर उठकर वे अपनी प्रबुद्धता, प्रखरता, तात्कालिकता जैसे दुर्लभ गुणों के लिए अलग से पहचाने जाते थे। दूर की कौड़ी भाँपना उनकी विशेषज्ञता थी। उन्हें ‘टरकाना’ किसी के भी लिए ‘आसान’ होना तो दूर रहा, कल्पनातीत ही था। इसीलिए दादा अतिरिक्त रूप से सतर्क थे।
 
दादा दो बार विधायक रहे, दोनों ही बार मन्त्री बने किन्तु मैं केवल एक बार विधान सभा सत्र देखने गया। यही वह दिन था जिस दिन मैंने शीतला सहायजी को प्रश्न पूछते देखा था।
 
प्रश्न काल शुरु हुआ। मेरी याददाश्त के मुताबिक सम्भवतः श्रीयुत यज्ञदत्तजी शर्मा विधान सभा अध्यक्ष थे। शीतलाजी का नम्बर आया। वे, ग्वालियर-चम्बल सम्भाग स्थित, सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दुकानों पर खाद्यान्न पहुँचाने हेतु प्रयुक्त की जा रही परिवहन व्यवस्था के बारे में ‘जानने’ के नाम पर सरकार से कुछ स्वीकारोक्तियाँ करवाना चाहते थे। उनके प्रश्न से लग रहा था कि वे किसी परिवहन-ठेकेदार और सरकार की मिली भगत उजागर करना चाहते थे किन्तु खुद उस परिवहन-ठेकेदार का नाम नहीं लेना चाहते थे। उनका प्रश्न कुछ इस प्रकार था - ‘माननीय अध्यक्ष महोदय! क्या खाद्य मन्त्रीजी बताने की कृपा करेंगे कि चम्बल-ग्वालियर सम्भाग की, सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दुकानों तक, खाद्यान्न तथा अन्य उपभोक्ता वस्तुएँ पहुँचाने के लिए किस परिवहन-प्रणाली का उपयोग किया जा रहा है?’
 
प्रश्न पूछकर शीतलाजी बैठे। अध्यक्षजी ने दादा की ओर देखा - ‘मन्त्रीजी! जवाब दीजिए।’  दादा खड़े हुए और कुछ इस तरह जवाब दिया - ‘माननीय अध्यक्षजी! ग्वालियर और चम्बल सम्भाग के अतिरिक्त प्रदेश में, जिस परिवहन-प्रणाली से, सार्वजनिक वितरण व्यवस्था की दुकानों पर खाद्यान्न तथा अन्य उपभोक्ता वस्तुएँ पहुँचाई जा रही हैं, उसी परिवहन-प्रणाली से ही यह सब, ग्वालियर-चम्बल सम्भाग स्थित, सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दुकानों पर पहुँचाया जा रहा है।’ कह कर मन्त्रीजी बैठते, उससे पहले ही शीतलाजी खड़े हो गए। भड़क कर बोले - ‘यह जवाब कोई जवाब हुआ?’ मन्त्रीजी फौरन उठे और बोले - ‘माननीय अध्यक्षजी! माननीय सदस्य के मूल प्रश्न से स्वतः स्पष्ट है कि उन्हें ग्वालियर-चम्बल सम्भाग की व्यवस्थाओं के अतिरिक्त, पूरे प्रदेश की परिवहन-प्रणाली की जानकारी है। मैं वह जानकारी दोहरा कर सदन का और माननीय सदस्य का अमूल्य समय नष्ट नहीं करना चाहता।’ शीतलाजी तार्किक रूप से निरुत्तर हो चुके थे। अपने नाम में ‘सहाय’ जोड़े हुए शीतलाजी ने तनिक असहाय मुद्रा में, सहायता के लिए अध्यक्षजी की ओर देखा। अध्यक्षजी हँस दिए। बोले - “शीतलाजी! आपने शब्दों पर बिलकुल ही ध्यान नहीं दिया और मन्त्रीजी ने शब्दों पर ही ध्यान दिया। आपने ‘परिवहन-प्रणाली’ के बारे में पूछा और मन्त्रीजी ने आपके सवाल से ही साबित कर दिया कि प्रणाली की जानकारी आपको तो पहले से ही है। इसलिए, जहाँ तक प्रश्न के उत्तर की बात है तो सरकार ने स्पष्ट और अन्तिम उत्तर दे दिया है। मैं आपकी कोई सहायता नहीं कर सकता।” समूचे घटनाक्रम से सर्वथा असन्तुष्ट शीतलाजी को मन मारकर बैठ जाना पड़ा।
 
बाद में, भोजनावकाश में दादा मिले तो बहुत खुश थे। बोले - ‘अभी शीतलाजी के चरण स्पर्श करके आ रहा हूँ। आज उन्होंने दस लोगों के बीच मुझे प्रमाण-पत्र दिया है। कह रहे थे कि उन्हें यह तो याद रहा कि वे राजनीति के कुशल खिलाड़ी हैं किन्तु भूल गए थे कि उनके सामने शब्दों का कुशल खिलाड़ी है। उन्होंने मेरी पीठ ठोकी।’
 
शीतलाजी, दादा से बहुत ही वरिष्ठ राजनेता थे और अपने किसी वरिष्ठ से, वह भी प्रतिपक्ष के वरिष्ठ से ऐसी सराहना प्राप्त कर पाना किसी के भी लिए सचमुच ही आत्म सन्तोष और गर्व की बात होती है।
इसका समानान्तर सच यह भी है कि अपने प्रतिपक्षी की ऐसी सराहना करने के लिए भी बहुत बड़ा मन, निर्मल आत्मा, यथेष्ठ आत्म-बल और निरपेक्ष राजनीतिक साहस की आवश्यकता होती है। यह घटना बताती है कि यह सब केवल शीतलाजी में ही नहीं, उनकी पीढ़ी के समस्त राजनेताओं में रहा होगा।
 
अब तो ऐसी बातें ‘किस्सों-कहानियों की बातें’ ही रह गई हैं। 
 
 

अनायास मिली खुशी




यदि केलेण्डर बदलने के पहले दिन को नव वर्ष की शुरुआत मानी जाए तो मुझे वर्ष 2013 के पहले ही दिन अत्यधिक आह्लादकारी, सारस्वत भेंट मिली है। इस क्षण, दुनिया में मुझसे अधिक प्रसन्न और आनन्दित शायद ही कोई हो।


मेरे आत्मीय आशीष दशोत्तर के गजल संग्रह ‘लकीरें’ का उल्लेख, ‘जनसत्ता’ की, कविता संग्रहों की वार्षिक समीक्षा (‘ठहराव के बावजूद’, समीक्षा श्री राजेन्द्र उपाध्याय) में प्रशंसा सहित किया गया है। साहित्यिक हलकों में आशीष की मौजूदा स्थिति के मद्-ए-नजर, आशीष और ‘लकीरें’ को लेकर छपी, दस शब्दों की एक पंक्ति मुझे आशीष के अभिनन्दन-पत्र से कम नहीं लग रही।
आशीष के चार काव्य संग्रह और चार गद्य पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। वह नव साक्षर लेखन से भी जुड़ा है। इस अभियान के अन्तर्गत लिखी उसकी एक पुस्तक का अनुवाद तमिल में भी हुआ है।
आशीष आनेवाले कल के श्रेष्ठ गजलकारों में जगह बनाएगा। उसका एक लेख मेरी इसी ब्लॉग पर, 18 दिसम्बर को प्रकाशित हो चुका है जिसमें उसकी शुरुआती गजलों की लिंक भी दी गई है।
मेरे यहाँ ‘जनसत्ता’ एक दिन देर से आता है। गए कुछ दिनों से यह दो दिन देर से आ रहा है। (अपनी यह वेदना मैं फेस बुक पर प्रकट कर चुका हूँ।) इसी कारण, ‘जनसत्ता’ का, तीस दिसम्बरवाला अंक दो दिन देर से आज, नए केलेण्डर वर्ष के पहले दिन आया और प्रसन्नता की यह स्थिति बन गई।
पहले मैंने आशीष को बधाई दी। फिर खुद को। आशीष यदि आपके आसपासवालों में शरीक है तो आप भी उसे बधाई और आशीर्वाद अवश्य दें। उसका मोबाइल नम्बर 98270 84966 है।
आशीष हमारा आनेवाला कल है - उजला, आश्वस्तिदायक और यशदायक कल।
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‘लकीरें’ की एक गजल
आदमी हैरान है
लाचार परेशान है।
भीड़ है चारों तरफ
जाने कहाँ इंसान है।
काशी-काबा हो आए
देखा नहीं भगवान है।
जिंदगी के इस सफर में
वक्त का तूफान है।
सब सयाने हो गए
‘आशीष’ अभी नादान है।
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पता नहीं आज क्‍या हुआ कि ब्‍लॉग पर पोस्‍ट करना दिन भर सम्‍भव नहीं हुआ।
तकनीक से अनजान  मुझ जैसे आदमी के लिए आज का यह त्रास अवर्णनीय रहा।