अलग-अलग समय पर सच लग रही दो बातें एक साथ सामने आने पर या तो सच नहीं लगतीं या फिर आधा सच लगती हैं। मेरे अभिकर्ता मित्रों ने कल यही प्रतीति कराई मुझे। उन्होंने मेरी ही बातें उदद्धृत कर मेरी बोलती बन्द कर दी।
आधा दिसम्बर बीतते ही हम अभिकर्ता ‘सुपरिचित वार्षिक संकट’ से जूझना शुरु कर देते हैं। यह संकट है - नये वर्ष के केलेण्डर-डायरी का। कुछ ग्राहकों को तो देना ही होते हैं किन्तु अनेक ग्राहकों के मामले में ‘किसे दें, किसे न दें’ के निर्धारण की समस्या बराबर बनी रहती है। वर्ष में पाँच लाख रुपयों की प्रीमीयम देनेवाले और तीन हजार की प्रीमीयम देनेवाले ग्राहक की तुलना करते समय ‘सब ग्राहक समान’ की आदर्श धारणा से आँखें चुराई जाने लगती हैं। किन्तु बीमे का धन्धा बड़ा विचित्र! पाँच लाख सालाना देनेवाले के यहाँ से अगला बीमा शायद नहीं मिलने की आशंका और तीन हजार सालाना दे रहे ग्राहक के यहाँ से अगला बीमा मिल सकने की सम्भावना के बीच कोई निर्णय ले पाना असम्भव नही तो दुःसाध्य अवश्य ही हो जाता है। लालच सचमुच में आदमी को उलझा देता है!
एलआईसी का बहुरंगी सचित्र केलेण्डर निश्चय ही आकर्षक होता है। प्रति वर्ष किसी एक विषय पर केन्द्रित यह केलेण्डर प्राप्त करना अनेक लोगों के लिए ‘अभियान’ यूँ ही नहीं बनता। वर्ष 2013 को ‘नदी वर्ष’ घोषित किया गया है। इस वर्ष का केलेण्डर इसी विषय पर केन्द्रित है और कहना न होगा कि सचमुच में बहुत ही सुन्दर, आकर्षक, नयनाभिराम और चित्ताकर्षक है। किन्तु यह केवल ‘सुन्दर’ ही है। इसकी उपयोगिता मुझे न केवल खुद को कम लगी किन्तु ग्राहकों के घरों में जाकर देखने पर मेरी यह धारणा पुष्ट ही हुई। इसमें तारीखों के अंक बहुत छोटे होते हैं - मुश्किल से दिखाई देते हैं। इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि नब्बे प्रतिशत से अधिक घरों में मैंने पाया कि मार्च महीने के बाद इसके पन्ने भी नहीं पलटे जाते।
केलेण्डर के मुकाबले एलआईसी की डायरी बहुत कम आकर्षक होती है। उपयोगी तो और भी कम। वैसे भी, पल-पल नवोन्नत होती जा रही सूचना प्रौद्योगिकी के इस समय में डायरी चलन से बाहर ही हो गई है। फिर भी, अपने ग्राहकों के अनुभव के आधार पर कह पा रहा हूँ कि लोग अभी भी डायरी की माँग करते हैं। मुझे आश्चर्य भी होता है और उलझन भी। इसी के चलते मैंने ऐसे अनेक ग्राहकों के घर जाकर ‘छानबीन’ की जो प्रतिवर्ष आग्रहपूर्वक डायरी ‘वसूलते’ हैं - ‘पठानी वसूली’ की तरह। लगभग प्रत्येक घर में मैंने पाया कि डायरी का उपयोग किया ही नहीं गया। एक सज्जन ने तो मुझे सात वर्षों की डायरियाँ निकाल कर गर्वपूर्वक दिखाईं। सब की सब ‘नई-नक्कोर’, एकदम अछूती। नाम भी नहीं लिखा था उन्होंने। मैंने पूछा कि जब वे उपयोग ही नहीं करते तो माँग कर क्यों लेते हैं? उन्होंने जवाब दिया - ‘क्यों नहीं लें? आपको तो एलआईसी से मेरे नाम का केलेण्डर और डायरी हर साल मिलती है!’ मेरे पास कोई जवाब नहीं था। इसी धारणा के चलते, रतलाम से लगभग सवा सौ किलोमीटर दूर बैठी मेरी एक पॉलिसीधारक, गए बारह वर्षों से प्रतिवर्ष अपने भाई को मेरे घर भेज कर अपनी डायरी-केलेण्डर ‘वसूल’ कर रही है। जबकि गणित के लिहाज से उसकी वार्षिक किश्त पर मुझे मिलनेवाला कमीशन, डायरी-केलेण्डर के रियायती मूल्य के आधे से भी कम है।
बहुत कम लोग जानते होंगे कि हम अभिकर्ताओं को डायरी-केलेण्डर मुफ्त नहीं मिलते। एलआईसी से खरीदने पड़ते हैं। कहने को हमें ‘रियायती दाम’ पर दिए जाते हैं किन्तु मुझे फिर भी मँहगे लगते हैं। मैं जब-जब भी यह तथ्य केवल ‘बताने के लिए’ बताया तो प्रायः हर बार ही, हँसते हुए या फिर खिल्ली उड़ाते हुए मुझे एक ही जवाब मिला - ‘आप सारे के सारे एजेण्ट एक जैसा झूठ बोलते हैं।’ जेब से रोकड़ा खर्च करो और झूठा होने का लेबल भी खुद पर चस्पा कराओ। अजीब दशा हो जाती है। कहा भी न जाए, चुप रहा भी न जाए और ग्राहक है कि जबरा मारे, रोने न दे।
सो, एलआईसी के हम अभिकर्ता इन दिनों इसी ‘सुपरिचित वार्षिक संकट’ से गुजर रहे हैं। यह दौर आधी फरवरी तक चलता है। कल दोपहर में यही संकट मुद्दा बन गया। भाई लोगों ने मुझे घेर लिया - ‘दादा! कोई रास्ता बताओ।’ मेरे पास कोई रास्ता नहीं था। मैंने हाथ ऊँचे किए तो एक-दो नहीं, आठ-दस अभिकर्ता एक साथ चढ़ बैठे - ‘ऐसे कैसे? आप तो हमें भाषण देते हो। कहते हो कि ऐसी कोई समस्या नहीं है जिसका निदान नहीं।’ मेरी बोलती बन्द हो गई। हाँ। मैं ऐसा कहता हूँ।
ऐसे में कवि गिरधर अचानक ही मेरे मुक्ति-दाता बन कर मेरे अचेतन में उभर आए। उनकी एक कुण्डली की एक पंक्ति ‘जैसी बहे बयार, पीठ तब तैसी कीजै।’ याद हो आई। मैंने सयानापन बघारते हुए और विद्वत्ता झाड़ते हुए कहा - “कुछ समस्याएँ ऐसी होती हैं जिनके एक से अधिक निदान होते हैं। ये निदान ‘रेडीमेड’ नहीं होते। अपनी अकल से तलाशने पड़ते हैं। जब समस्या सामने आए तब स्थिति के अनुसार, उन्हीं निदानों में उसका कोई एक निदान निकाल लो और मुक्ति पाओ।”
किसी को सन्तोष नहीं हुआ। सब पिल पड़े मुझ पर - ‘वाह! यह तो कोई बात नहीं हुई।’ अपनी आयु-वरिष्ठता और भाषा-सम्पदा का दुरुपयोग करते हुए मैंने निर्णायक घोषणा की - ‘कैसे नहीं हुई? तुम लोगों ने जो समस्या बताई थी, उसका निदान मैंने भी अभी-अभी ऐसे ही निकाला कि नहीं?’ और मैं तत्काल ही चला आया - चल रही बयार के मुताबिक पीठ करते हुए।
लिखना तो और चाह रहा हूँ किन्तु रुकना पड़ रहा है। दरवाजे पर खटखटाहट हो रही है। लगता है, कोई ग्र्राहक आया है - डायरी/केलेण्डर की पठानी वसूली करने।
नदी वर्ष के प्रथम तीन माह पहाड़ी नदी की तरह होने वाले है...अभी से सबको शुभकामनायें..
ReplyDeleteइस वर्ष का मेरा भी डायरी कैलेण्डर संभाल कर रखिएगा. वर्षांत में रतलाम आकर आपसे वसूल लूंगा. :)
ReplyDeleteफरवरी मार्च में कर बचत योजना में निवेश करने वालों (हालांकि अब तो ऊंट के मुंह में जीरा के समान लाभ है, फिर भी) के सामने भी समस्या होती है. कुछ अच्छी योजनाएं, न्यूनतम तालाबंद समय और अधिकतम संभावित लाभ युक्त कोई हो तो अपने पाठकों को जरूर बताएं.
ये सही है कि भा.जीवन बीमा निगम का केलेण्डर आकर्षक होता है। निगम का वकील होने के नाते साल के पहले दूसरे दिन हमें एक निशुल्क मिल भी जाता है, एक डायरी भी मिलती है। डायरी किसी न किसी काम आ ही जाती है। उस में बहुत सी सूचनाएँ होती हैं जो मेरे काम आती हैं। इन दोनों वस्तुएं जीवन बीमा में निशुल्क नहीं मिलती ये भी सही है।
ReplyDeleteउपयोगिता के हिसाब से एलआईसी का कार्यालय कलेंडर अच्छा होता है। लेकिन वह केवल इतनी संख्या में छपता है कि एलआईसी के कार्यालयों में भी उसे प्राप्त करने की प्रतियोगिता बनी रहती है। मैं ने उस के लिए लालच किया था किन्तु मुझे वह नहीं मिला।
ये सूत्र अचछा है ...
“कुछ समस्याएँ ऐसी होती हैं जिनके एक से अधिक निदान होते हैं। ये निदान ‘रेडीमेड’ नहीं होते। अपनी अकल से तलाशने पड़ते हैं। जब समस्या सामने आए तब स्थिति के अनुसार, उन्हीं निदानों में उसका कोई एक निदान निकाल लो और मुक्ति पाओ।”
इस से आदमी कर्मठ बना रहता है काहिली पास नहीं फटकती।
humare liye bhi sir ji
ReplyDeleteHum Pathan na huye to kya , Diary ki lalak to hai , hume bhi yaad rakhiyegaa !
ReplyDeleteफेस बुक पर श्री शरद श्रीवास्तव, मुम्बई की टिप्पणी -
ReplyDeleteदादा! सहमत हूँ।
वर्तमान कम्प्युटर युग मे डाइरी की उपयोगिता लगभग समाप्त हो गई है । कलेंडर तो घरो मे नज़र ही नही आते,हाँ तिथियों को देखने,दूध का हिसाब करने और छुट्टी,त्यौहार देखने के लिए किच्चन मे लाला राम का कलेंडर अवश्य नज़र आता है, इसलिए आप 25 रुपये का लाला राम का कलेंडर बांटना शुरू करना 2014 से । एलआईसी की डाइरी-कलेंडर पर खर्च करना बंद कर दो ।
ReplyDeleteआहा मेरा कैलेंडर और डायरी दोनों ही संभल के रखियेगा :)
ReplyDelete