बच्चे सुनते भी हैं और मानते भी हैं

 
 
 
जो यह शिकायत करते हैं कि बच्चे न तो सुनते हैं, न कहना मानते हैं और न ही साथ देते हैं, मेरा यह नवीनतम संस्मरण उन्हें ढाढस भी बँधाएगा और हौसला भी देगा।
 
कल, मोनी और संकुल आए थे। अपने विवाह का न्यौता देने। बहुत खुश थे। आग्रह की शकल में धमकी दे गए हैं कि उनके विवाह समारोह में मुझे आन ही आना है। गैरहाजिरी का कोई बहाना नहीं चलेगा। मुझसे बात औार व्यवहार करते समय, मोनी तनिक अधिक छूट ले लेती है। मेरी देहाती मानसिकता को भाँप कर (निश्चय ही मेरी प्रसन्नता की चिन्ता करते हुए), मुझे ‘बा’ सम्बोधित करती है। दादा और पिता के बड़े भाई को मालवा में, गाँवों में ‘बा’ से ही सम्बोधित किया जाता है। अपने विवाह का निमन्त्रण थमाते हुए बोली - ‘बा! आपको हर हाल में आना है। आपकी खुद की शादी हो तो उसे भी छोड़ कर आना है। याद रखना! आप नहीं आओगे तो मैं संकुल के गले में वरमाला भी नहीं डालूँगी।’ संकुल कम बोलता है। उसने चुप रह कर मोनी की धमकी में अपनी धमकी मिलाई।
 
मोनी और संकुल दोनों ही मेरे कस्बे के हैं। दोनों के परिवार मेरे तो पूर्व परिचित हैं पर परस्पर परिचित नहीं थे। कोई चार बरस पहले दोनों परिवारों में परिचय हुआ था जब मोनी और संकुल भोपाल गए थे - इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने। दोनों परिवारों को यह सूचना मैंने ही दी थी और दोनों के परिचय का निमित्त मैं ही बना था। दोनों बच्चे रतलाम के हैं सो, परदेस में भरोसा रहेगा। मोनी के माता-पिता तनिक अधिक चिन्तित थे। लड़की मा मामाल है। सो, संकुल को मानो विशेष जिम्मेदारी दे रहे हों, इस तरह कहा था - ‘मोनी का ध्यान रखना बेटा! वह पहली बार घर से बाहर निकल रही है।’ संकुल ने भी आज्ञाकारी भाव से भरोसा दिलाया था - ‘हाँ! हाँ! अंकल! आप फिकर नहीं करें।’
 
पढ़ने के नाम पर, घर से पहली बार बाहर निकले बच्चे, शुरु के साल-डेड़ साल, घर आना-जाना खूब करते हैं। इसी क्रम में मोनी और संकुल की भोपाल-रतलाम-भोपाल यात्राएँ प्रायः ही साथ-साथ होती रहीं। सब कुछ इतना सहज-सामान्य रहा कि दोनों ही को पता नहीं लगा कि कब दोनों के बीच प्रेम अंकुरित हो गया। मोनी की माँ ने सबसे पहले सूँघा। उसने एकान्त में मोनी से बात की। बात तो क्या, अच्छी-खासी ‘पुलिसिया पूछताछ’ कर ली। मोनी बहुत जल्दी टूट गई। माँ घबरा गई। फौरन ही पतिदेव से बात की। पिताजी और अधिक घबरा गए। मोनी को डाँटने-फटकारने का विचार मन में आया तो सही किन्तु डर के मारे रुक गए - ‘लड़की जवान है और नादान भी। कहीं, कुछ कर बैठी तो?’
 
घबरा कर दोनों मेरे पास आए। मानो मेरा अपराध गिनवा रहे हों, इस तरह बोले - ‘आप ही ने मुलाकात करवाई थी। अब आप ही कुछ करो।’ इस स्थिति का अनुमान तो मुझे नहीं था किन्तु सारी बात सुन कर चौंका भी नहीं। दोनों परिवार अलग-अलग जाति के। मैं अन्तरजातीय विवाहों का समर्थक। सीधे-सीधे पूछा - ‘मोनी अड़ गई तो?’ माँ ने हिम्मत दिखाई। बोली - ‘बच्ची की खुशी में हमारी खुशी। और वैसे भी अब जात-पात पर कौन ध्यान देता है?’ मैंने कहा - ‘मैं उनसे (संकुल के माता-पिता से) बात करके देखता हूँ।’
 
संकुल के माता-पिता से मिला तो काम कम कठिन लगा। उन्हें भी इस प्रेम प्रसंग की भनक लग चुकी थी और संकुल से प्रारम्भिक बात हो चुकी थी। यहाँ लड़के की माँ तैयार नहीं थी। उसके हिसाब से, मोनी की जात, हलकी जात थी। लेकिन जो डर मोनी के माँ-बाप के मन में था, वह यहाँ भी था - ‘जवान लड़का है। क्या पता? कब-क्या कर बैठे?’ दोनों पालकों के मन का यह भय इस प्रेम प्रसंग की मानो ‘रक्षा बाड़’ बन गया। काम आसान होता लगने लगा। दोनों पक्षों की संयुक्त बैठक कराई। थोड़ी बहुत ना-नुकर और ‘ऐसा होगा, वैसा होगा’ ‘जमाना खराब है। लोग क्या कहेंगे’ जैसी बातों की खानापूर्ति के बाद दोनों पक्ष सहमत हो गए। किन्तु दोनों ने दो शर्तें रखीं और दोनों ही शर्तों के निभाव की जिम्‍मेदारी मुझे दी। पहली शर्त - ‘दोनों की पढ़ाई पूरी होने से पहले विवाह नहीं होगा।’ दूसरी शर्त - ‘रतलाम में लोगों को भनक नहीं लगनी चाहिए। वरना, विवाह कर पाना मुश्किल हो जाएगा।’ यह जानते हुए भी दूसरी शर्त का निभाव आसान नहीं है, मैंने दोनों शर्तों की जिम्मेदारी ले ली।
 
अगली शाम मैंने मोनी और सुकंल को बुलाया। उन्हें बधाइयाँ दी कि दोनों के माता-पिता उनके विवाह पर सहमत हो गए हैं। सारी बात विस्तार से बताई और फिर कहा - ‘लेकिन अब यह तुम दोनों पर ही निर्भर है कि तुम दोनों का विवाह हो या न हो। यदि नहीं हो पाया तो इसके लिए तुम दोनों ही जिम्मेदार रहोगे।’ दोनों को बात समझ में नहीं आई। मैंने दोनों शर्तें बताईं और साफ-साफ कहा - ‘रतलाम में रहते हुए तुम दोनों ही एक दूसरे की शकल नहीं देखोगे और एक दूसरे की गली में कभी नजर नहीं आओगे। यह तपस्या तुम दोनों को सफलतापूर्वक पूरी करनी होगी। इसमें जरा सी भी चूक हुई कि तुम दोनों की शादी नहीं हो पाएगी।’ संकुल को विशेष रूप् से कहा कि इस शर्त के पालन में उसकी जिम्मेदारी अधिक बनती है क्योंकि लड़की होने के कारण मोनी का घर से निकलना तो वैसे भी कम ही होगा लेकिन संकुल तो छुट्टा घूम सकता है। यदि वह बार-बार मोनी की गली में नजर आया तो मोनी का परिवार मुश्किल में आ जाएगा और हमारे समाज में लड़के के चरित्र पर लगा आरोप पानी की लकीर होता है जबकि लड़की पर लगा आरोप पत्थर की लकीर। ऐसे में, भले ही दोनों परिवार इस विवाह पर सहमत हैं किन्तु बदनामी की आशंका बराबर बनी रहेगी। और खुदा न खास्ता, दुर्योग से, यह प्रेम प्रसंग कभी मुकाम तक नहीं पहुँच पाया तो मोनी का वैवाहिक जीवन दूभर हो जाएगा। बात संकुल की समझ में आ गई। उसने अपने आराध्य की शपथ उठाकर कहा कि वह रतलाम मे रहते हुए मोनी से आमना-सामना होने के अनायास प्रसंग को भी टालेगा।
 
पूरे दो वर्षों तक दोनों बच्चों ने दूसरी शर्त का पालन सचमुच में शब्दशः किया। वे रतलाम में कभी नहीं मिले। कभी आमने-सामने नहीं आए। दोनों की पढ़ाई पूरी हो गई तो दोनों ने ही अपनी-अपनी नौकरी मिलने तक की प्रतीक्षा की। मोनी को नौकरी पहले मिली और संकुल को बाद में।
 
अब दोनों का विवाह हो रहा है। दोनों परिवारों ने इस प्रेम विवाह को ‘आयोजित, पारम्परिक विवाह’ में बदल दिया है। गाँव की गाँव में शादी है। दोनों ही के 'जाति-समाज' में हलकी-हलकी सुगबुगाहट हो रही है किन्तु दोनों ही परिवार चिन्ता नहीं कर रहे हैं। परिवारों का यह रुख देखकर दोनों के ‘जाति समाज’ ने चुप रहकर विवाह में शामिल होकर ‘स्नेह भोज का आनन्द’ लेने की व्यावहारिक समझ अपना ली है।
 
हर कोई खुश है। मोनी और संकुल सर्वाधिक खुश हैं। वे अपने परिवारों को और मुझे इस खुशी का श्रेय दे रहे हैं। इस दशा में मुझे वे दोनों ‘कस्तूरी मृग’ लग रहे हैं। नहीं जान रहे कि उन्होंने ही तपस्या करने की तरह दूसरी शर्त निभाई और इस मुकाम पर पहुँच पाए। दोनों परिवार खुश हैं कि बच्चों ने उनका कहा माना। दोनों परिवार भी नहीं जान रहे कि उन्होंने अपने बच्चों पर भरोसा किया तो ही बच्चे उनके भरोसे पर खरे उतर पाए।
 
और मैं? मत पूछिए! मैं तो निहाल हुआ जा रहा हूँ। एक तो यह अन्तरजातीय विवाह और दूसरा यह कि मेरा यह भरोसा खरा उतरा कि बच्चों पर भरोसा किया जाए तो वे कभी निराश नहीं करते।
 
मुझे तो इस विवाह में हाजिर रहना ही है। उस दिन भले ही मुझे अपने ही विवाह में गैर हाजिर रहना पड़े। वरना, संकुल का गला, मोनी की वरमाला की प्रतीक्षा करता रह जाएगा।

16 comments:

  1. सुंदर प्रसंग, आप को दोनों बालकों और उन के परिवारों को बधाई!

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  2. सुन्दर प्रसंग,आपकी सुलझी हुई सोच को सलाम. एसी सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए आप जैसे ठोस 'व्यक्तित्व' आज के समाज की आवश्यकता है.
    [इत्तेफ़ाक से टिप्पणी में 'तेरह' 'स' समाहित हो गए है !]

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    1. 'मन्‍सूर' का एक 'स' ऐसे कितने ही 'तेरह' 'स' पर भरी पडता रहा है, पड रहा है, पडता रहेगा - कयामत तक।

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  3. भरोसा किया जाए तो वे कभी निराश नहीं करते ... sadhuvaad

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  4. फेस बुक पर श्री दिलीप काला, उज्‍जैन की टिप्‍पणी -

    आपके प्रयास और विश्‍वास को सादर नमन और संकुलजी तथा मोनीजी को ढेरों बधाइयॉं और शुभ-कामनाऍं।

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  5. यह प्रसंग जानकार तो आपके सभी पाठक निहाल होने वाले हैं,मैं कैसे पीछे रहूँ? आप ही ने मुलाकात करवाई थी, अब आप ही हमारी शुभकामनायें नव दंपति तक पहुंचाइए। बधाई हो!

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  6. suprabhati 'aanand' dene liye badhai.....cha.....subhkamnayen........


    pranam.

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  7. आपके प्रयास सफल रहे भाई जी ...
    दोनों बच्चों को भविष्य की मंगल कामनाएं !

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  8. फेस बुक पर, श्री रमेश चोपडा,बदनावर की टिप्‍पणी -

    हमें यह जानकर ख़ुशी और आनन्‍द हुआ कि आजकल आप प्रेम-विवाह के विशेषज्ञ हो गए हो ..।

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    1. इस तरह से कभी सोचा तो नहीं किन्‍तु आपकी टिप्‍पणी पढ कर सोच रहा हूँ - इस दिशा में परामर्श सेवाऍं शुरु कर ही दूँ।

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  9. मोनी और संकुल के साथ आपको अग्रिम हार्दिक बधाई । हरी को भजे सो हरी को होई,जात पात पूंछे नही कोई ।

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  10. दोनों के इतने सुशील व्यवहार पर बधाईयाँ, नवयुगल सदा ही प्रसन्न रहे।

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  11. प्रवीन जी के टिपण्णी से पुर्णतः सहमत

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  12. फेस बुक पर, श्री ओम वर्मा, 100 राम नगर एक्‍सेटेंशन, देवास की टिप्‍पणी -

    मन्दिर/मस्जिद तोड़ने से भी बड़ा पाप दो सच्चे प्यार करने वालों के दिल तोड़ना है। आज एक ओर देश में प्यार करने वालों पर खाप पचायतें कहर ढा रही हैं वहीं आपने संकुल- मोनी का मेल करवा कर वन्‍दनीय कार्य किया है। उन्हें मेरी बधाई और सामाजिक उत्थान के इस पवित्र कार्य के लिए आपका हार्दिक अभिनन्दन!

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  13. फेस बुक पर, श्री सुरेशचन्‍द्रजी करमरकर, रतलाम की टिप्‍पणी -

    अच्‍छा काम किया है। आपको और नव विवाहित दम्‍पति को बधाई।

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आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.