नहीं। मुझे मिली इस अनूठी प्रताड़ना को आप तक पहुँचाने के लिए मैं शब्दों की कोई सजावट नहीं करूँगा। सब कुछ, वैसा का वैसा ही रख दूँगा जो मेरे साथ हुआ। सजावट, आकर्षक या नयनाभिराम भले ही लगे किन्तु वास्तविकता को ढँक सकती है। विरुदावलियों की सुन्दरता, तथ्यों को नेपथ्य में धकेल सकती हैं।
‘आपको यह सवाल पूछने की जरूरत क्यों पड़ी? आपने मेरे या हमारी फेमिली के किसी भी मेम्बर के व्यवहार में ऐसा क्या देख लिया या किसी ने आपसे ऐसा क्या कह दिया कि आपने यह सवाल पूछ लिया?’ यह सवाल नहीं था। यह सीधी डाँट-फटकार, प्रताड़ना थी। मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी कि मैं विजय से आँखें मिलाऊँ। लेकिन इससे भी पहली बात यह थी कि विजय खुद ही मुझसे आँखें मिलाने से बचते हुए मुझे डाँट रहा था। विजय के संस्कार कहिए या कि मेरे प्रति उसके मन में बैठा आदर भाव िकि वह चाहकर भी गुस्सा नहीं कर पा रहा था। मेरे अब तक के जीवन में यह पहली ही बार था कि डाँटनेवाला खुद ही नजरें बचा रहा हो।
विजय याने विजय कान्त माण्डोत। चन्दू भैया का इकलौता छोटा भाई। चन्दू भैया याने चन्द्रकान्त माण्डोत जिनके बारे में मैंने, कोई चार बरस पहले, यहाँ लिखा था। सामने आ रही 25 मई को चन्दू भैया सत्तावनवें साल में प्रवेश कर जाएँगे। विजय उनसे चार साल छोटा है। 19 अप्रेल को तरेपन साल पूरे कर लेगा। (चित्र में बाँयी ओर विजय तथा दाहिनी ओर चन्दू भैया।)
दोनों भाई पितृ-विहीन। मुझ जैसे ही। गृहस्थियाँ अलग-अलग हैं किन्तु परिवार एक ही है। गैस एजेन्सी और विज्ञापन एजेन्सी का काम है। कौन सा काम कौन करता है - यह या तो आय-कर विभागवाले जानते होंगे या इनके कर सलाहकार या फिर इनका हिसाब-किताब देखनेवाला। हम सबकी तरह ये दोनों भी सामान्य और अपूर्ण मनुष्य हैं - कमियों-खामियों, अच्छाइयों-बुराइयों, विशेषताओं-विसंगतियों से भरे। किन्तु दोनों को जमाने की हवा नहीं लग पाई है। चन्दू भैया दादा-नाना बन गए और विजय अभी-अभी ‘ससुरा’। किन्तु दोनों के दोनों अभी तक ‘पिछड़े हुए’ ही हैं-एक दूसरे की चिन्ता करते हैं और लिहाज पालते हैं। विजय के लिए ‘बड़ा भाई, बाप बराबर और भाभी, माँ समान’ तो चन्दू भैया के लिए विजय, अपने बेटे पीयूष के बराबर। बात परिवार की हो या व्यापार की, सारे फैसले चन्दू भैया के जिम्मे ही होते हैं किन्तु जिम्मेदारी के इस भाव ने चन्दू भैया को कभी मनमानी नहीं करने दी। अन्तिम फैसला जरूर चन्दू भैया का किन्तु भावनाएँ सबकी।
मुझसे परिचय होने के बाद इनके परिवार के प्रायः सारे बीमे मुझे ही मिले। किसका, कितना बीमा करना है, यह फैसला जरूर चन्दू भैया ने ही किया लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि मुझसे पहली बार बात करने के बाद चन्दू भैया ने मुझे सेवा का मौका दिया। कोई भी बीमा देने से पहले उन्होंने मुझे कम से कम दो-दो बार तो बुलाया ही। जाहिर है कि पहली बार मुझसे जानकारी ली और अन्तिम निर्णय पर पहुँचने से पहले ‘आपस’ में बात की। एक भी बीमे के बारे में मुझे कभी भी विजय से बात नहीं करनी पड़ी।
अभी, 2 दिसम्बर 2012 को विजय के बड़े बेटे अंकुर का विवाह हुआ। अंकुर पहले से ही मेरा पॉलिसीधारक है किन्तु विवाहोपरान्त हम बीमा एजेण्टों के लिए सम्भावनाएँ बन भी जाती है और बढ़ भी जाती हैं। इसी ‘स्वार्थी और लालची’ मनःस्थिति में मैं चूक कर बैठा। विजय से पूछ बैठा - ‘अंकुर और नई बहू के बीमे के बारे में मुझे किससे बात करनी है - चन्दू भैया से, तुमसे या अंकुर से?’ बिना सोचे-विचारे बोलने की मूर्खता मैं कर चुका हूँ - यह बात तत्क्षण समझ में तो आ गई थी किन्तु बात जबान से निकल चुकी थी। अब मरम्मत का न तो अवसर था और न ही कोई गुंजाइश। जवाब वह आया जो आप पहले पढ़ चुके हैं।
विजय की शकल बता रही थी कि मेरी बात उसे जहर भरे तीर की तरह चुभी है। उसकी ‘पारिवारिकता’ पर मैंने अविश्वास जता दिया था। बड़े भाई के प्रति उसकी श्रद्धा और निष्ठा पर सन्देह कर लिया था। संस्कारशीलता से उपजी विवशता के कारण वह मुझ पर गुस्सा नहीं कर पा रहा था। लेकिन उसकी खिन्नता, अप्रसन्नता, असहजता, छुपाए नहीं छुप पा रही थी। खुद को संयत बनाए रखने में उसे कितनी कठिनाई हो रही है-यह मैं उसके चेहरे पर पढ़ रहा था। मुझे अपने पर झेंप आ रही थी - ‘मैं यह क्या कर बैठा?’
मैंने अपनी मूर्खताभरी चूक दुरुस्त करने की कोशिश की जरूर किन्तु मैं कामयाब नहीं हो पाया। मैं अपनी ही नजरों में हास्यास्पद हो चुका था। झेंप के बारे मेरा बुरा हाल था। मैंने सीधे-सीधे माफी माँगी। मेरे मन में उपजे वे कारण बताए जिनके अधीन मैंने यह मूर्खता की थी। लेकिन जब, मेरी बातें मुझे ही खोखली लग रही थीं तो भला, विजय उन पर कैसे विश्वास करता?
हम दोनों एक दूसरे के सामने चुप खड़े थे। धान मण्डी की भीड़ की आवाज पर हमारे बीच पसरा मौन भारी पड़ रहा था। मैंने एक बार फिर माफी माँगी। मैंने देखा, विजय की आँखें पनीली हो आई थीं। भीगी-भीगी, धीमी आवाज में बोला - ‘आप पहले भी चन्दू भैया से ही पूछते रहे हैं। अभी भी उनसे ही पूछिएगा। वे ही सब कुछ तय करते आए हैं। आगे भी वे ही तय करेंगे।’ और विजय बाहर निकल गया - निःशब्द।
अब इस बात का कोई मतलब नहीं रह जाता कि चन्दू भैया से मेरी क्या बात हुई या कि मुझे नये जोड़े का बीमा मिला या नहीं। मतलब रह जाता है तो बस यही कि विजय की प्रताड़ना ने मुझे विगलित कर दिया। निहाल हो गया मैं।
सम्बन्धों की ऊष्मा कम होने, आत्मीयता और परस्पर चिन्ता के क्षय होने, ‘कुटुम्ब’ तो दूर रहा, परिवार भी ‘एकल’ से नीचे उतर कर ‘सूक्ष्म’ होने के इस दौर में, जबकि बेटा अपने माँ-बाप की सुपारी दे रहा हो, मुझे विजय की यह प्रताड़ना, भारतीयता की जड़ों में विश्वास दिला गई।
हे! ईश्वर! ऐसी प्रताड़ना मुझे (और मुझे ही क्यों? हर किसी को) रोज-रोज मिले। इस प्रताड़ना को किसी की नजर न लगे।