कुत्ते की जगह जज साहब

यह पोस्ट 23 अगस्त 2020 को फेस बुक पर प्रकाशित हुई थी। इन्दौरवाले मेरे आत्मन प्रिय धर्मेद्र रावल को इसकी जानकारी, कुछ दिनों के बाद मिली - अपने एक सजातीय से। धर्मेन्द्र और सुमित्रा भाभी इन दिनों अपने बेटे-बहू समन्वय-आभा के पास बेंगलुरु में है। पढ़ने के बाद धर्मेन्द्र ने मुझे बेंगलुरु से फोन पर हड़काया - ‘तुमने यह कैसे मान लिया कि सबके सब फेस बुक पर हैं? अभी भी अनगिनत लोग ऐसे हैं जो फेस बुक का फेस देखना पसन्द नहीं करते। वे अभी भी ब्लॉग से यारी निभा रहे हैं। इसलिए हे सज्जन! अपनी पोस्टें फेस बुक पर भले ही दो लेकिन उन्हें ब्लॉग पर देना मत भूलो। बल्कि मेरा तो कहना है कि पहले ब्लॉग पर दो और फिर फेस बुक पर दो।’

सो, धर्मेन्द्र की डाँट के परिपालन में यह पोस्ट ब्लॉग पर प्रस्तुत है।


यदि कोई दैवीय चमत्कार नहीं हुआ तो, ख्यात वकील प्रशान्त भूषण, सोमवार 24 अगस्त 2020 को सर्वाेच्च न्यायालय की अवमानना करने के अपराध में सजायाफ्ता हो कर इतिहास में दर्ज हो जाएँगे। 

यही सब सोचतत सोचते-सोचते मुझे एक और जज साहब याद आ गए। ये जज साहब भी मेरे पैतृक नगर मनासा में ही पदस्थ थे। जज साहब के मिजाज से जुड़ा यह किस्सा-ए-हकीकत भी मेरे स्कूली दिनों का, याने वर्ष 1964 के आसपास का है। ‘राव लोणकर’ नामधारी ये जज साहब, पारम्परिक जजों से एकदम हटकर थे। जज लोग सामान्यतः सामाजिक सम्पर्कों से परहेज करते हैं। लेकिन राव लोणकर साहब अति सामाजिक थे। वे मेरे कस्बे की सड़कों पर पैदल चलते भी मिल जाया करते थे। लोगों से बतियाना उन्हें अच्छा लगता था। ‘हँसमुख’ से कहीं आगे बढ़कर हँसोड़ और भरपूर परिहास प्रेमी। बिना लाग-लपेट, निश्छल, निष्कपट भाव से बतियाते। मुझे नहीं पता कि वे मालवा अंचल से थे या नहीं किन्तु मालवी सहजता से समझ लेते थे। वे खुद पर हँसने के दुर्लभ साहस के धनी थे। खूब मस्त-मौला।  किन्तु कस्बे से इस आत्मीयता का रंचमात्र प्रभाव भी उनके फैसलों पर कभी, किसी को अनुभव नहीं हुआ। वे इस मामले में ‘विदेह’ जैसे बने रहे। 

मालवा के ग्रामीण अचंलों में ‘बकरियाँ बैठाना’ भी एक धन्धा है। जब हम पशु-पालन की बात करते हैं तो हमें सामान्यतः केवल गायें-भैंसें और इनके तबेले ही याद आते हैं। लेकिन कुछ लोग बकरियाँ भी पालते हैं। ये भी दूध का ही धन्धा करते हैं। गायों-भैंसों को तबेलों में रखा जाता है तो बकरियों को बाड़े में। धोबी मोहल्ले में, हमारे घर के ठीक सामने जीवा काका पुरबिया का, बकरियों का बाड़ा था। बाड़े के सामने, सुबह-सुबह, लोटे-भगोनियाँ लिए दूध लेनेवाले प्रतीक्षारत लोगों को मैंने बरसों देखा है। जिन दुधमुँहे शिशुओं के मुँह में छाले हो जाते थे (जिसे मालवा में ‘मुँह आना’ कहा जाता है) उन शिशुओं के मुँह में बकरी के ‘थन’ (स्तन) से सीधे दूध की धार डलवाना देसी ईलाज होता है। ऐसे शिशु लिए कोई न कोई माँ-बाप भी रोज ही नजर आते थे। उन शिशुओं के मुँह में धार डालते-डालते जीवा काका कभी-कभी मुझे भी आवाज लगा देते और सीधे बकरी के थन से मुझे भरपेट दूध पिला देते। इस तरह से दूध पीने के बाद पूरा मुँह सफेद, मीठे और गरम-गरम झाग से भर जाता था। दूध का वह स्वाद, वह ऊष्मा और उस तरह दूध पीने का आनन्द अवर्णनीय है। उसे तो केवल अनुभव की किया जा सकता है। मैं जब यह बात लिख रहा हूँ तो मुझे वह गरम-गरम दूध का झाग और उसकी मिठास अपने होठों पर अनुभव हो रही है।

ऐसे कई बकरीपालक, किसानों के खेतों में रातों को अपनी बकरियाँ बैठाने का धन्धा करते थे। बकरियों की मिंगनियों का खाद खेतों की उर्वरा शक्ति बढ़ाता है। गर्मियों के मौसम में खेतों में कोई काम नहीं होता। सो, गर्मियों में बकरियाँ बैठाने का धन्धा भरपूर चलता था। अपने खेत में बकरियाँ बैठाने के लिए किसान, बकरीवाले को तयशुदा रकम चुकाता है। अपनी बकरियाँ खेत में बैठानेवाले बकरीपालक भी, बकरियों की चौकीदारी के लिए, बकरियों के साथ रात खेत में गुजारते हैं।

एक बार ऐसा हुआ कि एक बकरीवाले की कुछ बकरियाँ चोरी हो गईं। इस प्रकार का यह पहला मामला था। सबको जिज्ञासा हुई। चोर यदि मनासा से बाहर का है तब तो कोई बात नहीं। लेकिन यदि मनासा का ही हुआ तो बकरियों को कब तक छिपा सकेगा? उन्हें बन्द भी कर दिया जाए लेकिन मिमियाने से तो रोका नहीं जा सकेगा! बकरीवाले ने थाने में रिपोर्ट लिखवाई। 

पुलिस हरकत में आई। एक संदिग्ध हिरासत में लिया गया। मुकदमा राव लोणकर साहब की अदालत में पेश हुआ।

शुरु की दो-तीन तारीखें तो कागजी-खानापूर्ति के नाम पर निकल गईं। लेकिन जल्दी ही वह दिन आ गया जब बकरीवाले के बयान होने थे।

इससे पहले कि किस्सा आगे बढ़े, एक शब्द युग्म ‘म्हारो बेटो’ से आपका परिचय जरूरी है। इसका शाब्दिक अर्थ है - मेरा बेटा। लेकिन ये ‘म्हारो बेटो’ लोक प्रचलन में तकिया कलाम भी है तो किसी को इज्जत देने के लिए तो कभी किसी को हड़काने के लिए, किसी की खिल्ली उड़ाने के लिए भी प्रयुक्त किया जाता है। 

आज की स्थिति तो मालूम नहीं किन्तु तब मनासा कोर्ट का कमरा बहुत बड़ा नहीं था। मुश्किल से आठ-दस लोग आ सकते थे। बहुत हुआ तो पन्द्रह-बीस। इससे अधिक नहीं। मुकदमा शुरु हुआ। फरियादी बकरीवाला कटघरे में आया। उसे गीता की सौगन्ध दिलाने की औपचारिकता पूरी की गई। सरकारी वकील ने उसका नाम-पता पूछ कर कहा - ‘हाँ तो हंसराज! खुल कर बताओ कि क्या हुआ।’ (‘हंसराज’ काल्पनिक नाम है।) दोनों हाथ जोड़कर हंसराज वकील साहब से बोला - ‘माराज.....’ (‘माराज’ याने ‘महाराजा’) वह आगे कुछ बोलता उससे पहले ही सरकारी वकील ने टोका - ‘मुझे नहीं, जज साहब को बताओ।’ 

करबद्ध मुद्रा और भीत स्वरों में हंसराज ने मालवी बोली में कहना शुरु किया - ‘माराज! म्हारी बकरियाँ चोरी वेईगी।’ (साहब! मेरी बकरियाँ चोरी हो गईं।) सरकारी वकील ने फिर टोका - ‘यह तो सबको मालूम है कि तुम्हारी बकरियाँ चोरी हो गई हैं। लेकिन तुम भी तो वहाँ थे! फिर कैसे चोरी हो गईं? खुल कर बताओ।’ 

हंसराज ने पहले वकील साहब को देखा, फिर जज साहब को। उसके बाद पूरे कमरे में नजर दौड़ाई और बोला - ‘माराज! म्हने नी मालम चोरी कसरूँ वी। म्हारे तो अबार भी हमज में नी अई री के चोरी कसरूँ वेई गी? अबे आप ई विचार करो माराज! के जशो मूँ याँ हूँ वशो को वशो वटे खेत में बेठो तको। (फिर, कमरे में बैठे लोगों की ओर इशारा करते हुए) जशा ई लोग बेठा वशी म्हारी बकरियाँ बेठी तकी। ने आप बेठा वशो म्हारो पारतू टेगड़ो बेठो! फेर भी म्हारो बेटो बकरियाँ चोरी लेई ग्यो।’ (साहब! मुझे नहीं मालूम कि चोरी कैसे हुई। मुझे तो अभी समझ नहीं आ रहा कि चोरी कैसे हो गई? अब आप ही विचार कीजिए साहब! कि जैसे मैं यहाँ हूँ उसी तरह मैं वहाँ खेत में बैठा था। जैसे (कमरे में) ये लोग बैठे हैं उसी तरह मेरी बकरियाँ बैठी हुई थीं। और साहब! जैसे आप बैठे हैं उसी तरह मेरा पालतू कुत्ता बैठा हुआ था। फिर भी ‘मेरा बेटा’ बकरियाँ चुरा ले गया।)

हंसराज की बात पूरी हुई नहीं कि राव लोणकर साहब ठहाका मारकर हँसने लगे। हंसराज की बात सुनकर और जज साहब की दशा देखकर सरकारी वकील साहब हक्के-बक्के हो गए, घबरा गए। एक पल तो उन्हें सूझ ही नहीं पड़ी कि हंसराज ने क्या कह दिया, क्या कर दिया। उन्हें लगा कि मामले का फैसला उनके खिलाफ हो गया। उन्होंने हकलाते हुए, मामले को सुधारने की कोशिश की - ‘अरे! अरे!! क्या कह रहे हो? तुम्हें पता भी है कि तुम किसके सामने बात कर रहे हो? जरा ढंग से बात......।’ 

लेकिन सरकारी वकील की, टूट-फूट की मरम्मत करने की कोशिश पर राव लोणकर साहब ने लगाम लगा दी। बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी रोकते हुए, बोले - ‘नहीं! नहीं वकील साहब! फरियादी और कोर्ट के बीच में आप मत आइए। फरियादी को अपनी बात कहने दीजिए।’ फिर हंसराज से बोले - ‘तुम्हारी बात पूरी तरह से समझ में नहीं आई। एक बार फिर से पूरी बात समझाओ।’ 

जज साहब की बात सुनकर सरकारी वकील साहब को पसीना छूट गया। लगा कि वे रो देंगे। जज साहब को जैसे ही लगा कि सरकारी वकील साहब हंसराज को समझाना चाहते हैं, उन्होंने फौरन वकील साहब को फन्दे में लिया - ‘नहीं वकील साहब। आपसे कह दिया ना कि फरियादी और कोर्ट के बीच में आप मत आओ। फरियादी को बेहिचक अपनी बात कहने दो।’ फिर हंसराज से बोले - ‘हाँ। बोलो। डरो मत। फिर से पूरी बात बताओ।’

 बेचारे हंसराज ने निरीह भाव से अपनी बात लगभग शब्दशः दुहरा दी। जैसे ही हंसराज की बात पूरी हुई, राव लोणकर साहब फिर ठठाकर हँसने लगे। वे चाहकर भी अपनी हँसी रोक नहीं पा रहे थे। उनकी दशा देख कर सरकारी वकील परेशान और हंसराज हैरान। 

जज साहब अब घुटी-घुटी हँसी हँस रहे थे। उसी दशा में बोले - ‘आज तो कोर्ट का पुनर्जन्म हो गया। अब अभी और कुछ काम नहीं हो पाएगा। अब लंच तक कोर्ट की छुट्टी।’ फिर सरकारी वकील साहब से बोले - ‘आप अगली तारीख ले लो। हंसराज का बाकी बयान तभी सुनेंगे।’

उसके बाद क्या हुआ और क्या नहीं, यह जानने की मैंने कोशिश ही नहीं की। हाँ, इतना मालूम है कि हंसराज पर कोई दण्डनीय कार्रवाई नहीं हुई। इतना और मालूम है कि बाद में यह किस्सा खुद राव लोणकर साहब ही, अपनी मित्र-मण्डली में सुनाते रहे।

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ईमानदार जज साहब

यह पोस्ट 19 अगस्त 2020 को फेस बुक पर प्रकाशित हुई थी। इन्दौरवाले मेरे आत्मन प्रिय धर्मेद्र रावल को इसकी जानकारी, कुछ दिनों के बाद मिली - अपने एक सजातीय से। धर्मेन्द्र और सुमित्रा भाभी इन दिनों अपने बेटे-बहू समन्वय-आभा के पास बेंगलुरु में है। पढ़ने के बाद धर्मेन्द्र ने मुझे बेंगलुरु से फोन पर हड़काया - ‘तुमने यह कैसे मान लिया कि सबके सब फेस बुक पर हैं? अभी भी अनगिनत लोग ऐसे हैं जो फेस बुक का फेस देखना पसन्द नहीं करते। वे अभी भी ब्लॉग से यारी निभा रहे हैं। इसलिए हे सज्जन! अपनी पोस्टें फेस बुक पर भले ही दो लेकिन उन्हें ब्लॉग पर देना मत भूलो। बल्कि मेरा तो कहना है कि पहले ब्लॉग पर दो और फिर फेस बुक पर दो।’

सो, धर्मेन्द्र की डाँट के परिपालन में यह पोस्ट ब्लॉग पर प्रस्तुत है।


ख्यात वकील प्रशान्त भूषण के बरसों पुराने ट्वीट को लेकर सर्वाेच्च न्यायालय के न्यायाधीश जो सख्ती दिखा रहे हैं उसे देख-देख कर मुझे मेरे पैतृक नगर मनासा में पदस्थ रहे एक जज साहब बहुत याद आ रहे हैं। 

बात मेरे स्कूली दिनों की है। मैंने 1964 में हायर सेकेण्डरी पास की थी। उसके बाद से मैंने मनासा छोड़ दिया। इसलिए, बात 1964 या उससे पहले की ही है। 

तब मनासा की आबादी दस-बारह हजार रही होगी। थानेदार, तहसीलदार, जज और सरकारी अस्पताल के डॉक्टर ‘बड़े अफसर’ हुआ करते थे। जज साहब याने प्रथम श्रेणी न्यायाधीश जिन्हें रौबदार अंग्रेजी में एमएफसी (मजिस्ट्रेट फर्स्ट क्लास) पुकारा जाता था। तबादले पर एक जज साहब मनासा आए। जहाँ तक मुझे याद आ रहा है, उनका नाम एल. के. सिंह था। कुछ वकील उन्हें सिंह साहब तो कुछ लाल साहब कहते थे।

जज साहब अकेले नहीं आए थे। अपने साथ भूचाल लाए थे। उनकी कार्यशैली ने पूरी मनासा तहसील की जमीन थर्रा दी। वकीलों में हड़कम्प मच गया। उनकी आलमारियों में बन्द, लाल-काली जिल्ददार किताबों के दिन फिर गए। वकीलों के मुंशियों का अलालपना झड़ गया। जज साहब ने वह सक्रियता और तेजी बरती कि बार रूम में कोहराम मच गया। ज्ञान और अनुभव के दम पर काम करनेवाले ‘व्यवसायियों’ (जिन्हें आप-हम ‘प्रोफेशनल’ कहते हैं) को तो उन्नीस-बीस का ही फरक पड़ा किन्तु तारीखें बढ़वाने और जमानत करवानेवाले ‘व्यापारियों’ (कमर्शियल) पर आफत आ गई। नए जज साहब का असर यह रहा कि ऐसे लोगों को अपने काले कोट का मान रखने के लिए मजबूरन वकील बनना ही पड़ा। और रहे कर्मचारी! तो उनकी तो मानो शामत ही आ गई। एक महीना बीतते-बीतते उन्हें अपना पारिवारिक बजट पुनर्नियोजित करने की नौबत आ गई। 

नये आए ये जज साहब वक्त के बड़े पाबन्द थे। कोर्ट की घड़ी उनसे अपने काँटे मिलानेे लगी थी। ये जज साहब मामले निपटाने में विश्वास करते थे। कोई मामला सामने आया नहीं कि अगली सुनवाई के लिए दो दिन बाद की तारीख दे दी। वकीलों ने रियायत माँगी तो जवाब मिला - ‘आपका-हमारा यही तो काम है! काम अपने को ही निपटाना है। और फिर, तैयारी केवल आपको थोड़े ही करनी है! मुझे भी तो तैयारी करनी पड़ेगी। आपको तो अपने-अपने मुवक्किल की ही तैयारी करनी है। लेकिन मुझे तो आप दोनों के कागज देखने हैं। मुझे तो आपसे दुगुना काम करना पड़ेगा! जब मैं कर सकता हूँ तो आप तो ज्यादा आसानी से कर सकते हैं। तारीख नहीं बढ़ेगी। परसों मिलते हैं।’ वकीलों के पास कोई जवाब नहीं होता। 

कोर्ट-कचहरी के जगजाहिर दलाल भी परेशान हो गए। उन्हें ‘सेट’ करने की हलकी सी गुंजाइश भी नहीं मिल रही थी। जज साहब की सामाजिकता अपनी कोर्ट और बंगले पर तैनात कर्मचारियों तक सीमित थी। वे कस्बे में किसी से मिलने नहीं जाते न ही किसी से अपने बंगले पर मिलते। कहीं से किसी आयोजन-समारोह का न्यौता आता तो विनम्रतापूर्वक, हाथ जोड़कर क्षमा माँग लेते। ईश्वर और पूजा-पाठ में भरपूर आस्था थी लेकिन सब कुछ अपने घर पर ही। कस्बे के किसी मन्दिर में जाते कभी नजर नहीं आए न ही घर पर कभी कोई कथा-कीर्तन, भजन-पूजन करवाया। कोर्ट और घर ही उनकी दुनिया थे। ईमानदारी का आलम यह कि यदि ईश्वर साँसों का कोटा निर्धारित करता तो जज साहब अपने कोटे से अधिक एक साँस भी न लें।

जज साहब के इस रवैये का असर भरपूर पड़ा। डेड़ बरस बीतते-बीतते हाल यह हो गया कि कोर्ट के रेकार्ड रूम की जिन फाइलों पर धूल की परतें जम गई थीं, जिनका रंग ही धूल जैसा हो गया था, जिन्हें झाड़ने पर भी धूल झड़ती नहीं थी, जिनके पन्ने पूरे कमरे में पसरे हुए थे, वे लगभग सारी फाइलें निपट कर लाल बस्तों में बँध गईं। रेकार्ड रूम में छाई सीलन की गन्ध को मानो देश निकाला दे दिया गया। पूरा कमरा नए-नकोर लाल बस्तों से सज गया। तीन-तीन पीढ़ियों के मुकदमे निपट गए। अब जज साहब के इजलास में सबसे पुराना मामला छह महीने पहले का था।

जज साहब पूरे तहसील इलाके पर छा गए थे। लोग भरे मन और खुले दिल से जज साहब को दुआएँ दे रहे थे - बरसों-बरस से कोर्ट के चक्कर जो काट रहे थे! कोर्ट और तहसील एक ही परिसर में लगती थी। तहसील दफ्तर की एक बगल में कोर्ट और दूसरी बगल में बार रूम। बार रूम के पास बनी, चाय की जिस दुकान पर कुर्सियाँ कम और बेन्चें संँकरी पड़ती थीं, वहाँ अब गिनती के ग्राहक नजर आते थे। ‘चाय-पानी’ अब खुद चाय-पानी को तरसते लगने लगे थे। 

जज साहब की वजह से लोगों में जय-जयकार और धन्धेबाजों में हा-हाकार छाया हुआ था। लोग दुआएँ कर रहे थे कि जज साहब मनासा से ही रिटायर हों जबकि परेशान प्राणियों के जत्थे रोज सामूहिक अरदास करते थे कि जज साहब से फौरन मुक्ति मिले।

किसी को पता नहीं कि इन दुआओं और प्रार्थना का असर हुआ या नहीं। तयशुदा प्रक्रिया के अधीन, निर्धारित समयावधि के बाद जज साहब का तबादला होना ही था। हो गया। पूरे तहसील इलाके में ‘कहीं खुशी, कहीं गम’ से तनिक हटकर ‘गम ज्यादा, खुशी कम’ का माहौल था। देहातों में तो मानो जवान मौत की खबर पहुँची हो।

जज साहब जिस तरह चुपचाप आये थे, उसी तरह चुपचाप चले गए। उन्होंने औपचारिक विदाई समारोह भी कबूल नहीं किया। न उनके आने पर पटाखे फूटे न जाने पर ढोल बजे। लेकिन जाने के बाद भी वे बरसों तक मनासा में बने रहे। ईमानदारी, समयबद्धता, हाथों-हाथ काम निपटाने, सबको एक नजर से देखने, एक जैसा व्यवहार करने की बात जब-जब भी होती, तब-तब जज साहब का जिक्र आता ही आता। इस सबके अलावा, चूँकि उनका तबादला ‘काले-कोस’ नहीं हुआ था, इसलिए गाहे-बगाहे उनके समाचार मिलते ही रहते थे। ‘मनासा से जाने के बाद उनका रवैया क्या है?’ इस जिज्ञासा के अधीन भी लोग उनके हालचाल तलाशते रहते थे। लेकिन कभी, कोई नया या चौकानेवाला समाचार नहीं मिला।

समय बीतने के साथ ही उनके बारे में बातें भी कम होने लगीं। उनके समाचार अब छठे-चौमासे आते थे। ‘आँख ओट - पहाड़ ओट’ की लोकोक्ति यूँ ही नहीं बनी। जज साहब अब किसी खास प्रसंग पर ही याद किए जाते थे।

सब कुछ ऐसा ही चल रहा था। एक खबर मिली कि अब वे अपने सेवाकाल की अन्तिम पदस्थापना पर हैं। संयोग ऐसा रहा कि मनासा का ही एक आदमी, किसी दूसरे सरकारी विभाग में उसी कस्बे में पदस्थ था। उसने जज साहब के बारे में खूब सुना था। सो, वह जिज्ञासा भाव से उनके बारे में जानता-सुनता रहता था। उसी ने एक दिन मनासा में वह जलजला पैदा कर दिया जैसा वे जज साहब अपने साथ लेकर मनासा में आए थे।

उसने खबर दी कि रिटायरमेण्ट से डेड़ महीना पहले वे जज साहब बर्खास्त कर दिए गए हैं। उन पर, पैसे लेकर फैसला लिखने का आरोप था जो प्रारम्भिक छानबीन में ही साबित हो गया वह भी दस्तावेजी सबूतों के दम पर।

उन जज साहब की अदालत में चल रहा एक मुकदमा अपने अन्तिम चरण में था। दोनों पक्षों की बहसें और परीक्षण-प्रति परीक्षण हो चुका था। फैसला सुनाया जाना था। लेकिन फैसला सुनाने से पहले ही जज साहब के घर छापा पड़ गया। शिकायत थी कि वे मोटी रकम लेकर अनुकूल फैसला सुनानेवाले हैं। 

छापामार दल को बहुत ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी। मामले की फाइल घर में, जज साहब की टेबल पर ही रखी हुई थी। फाइल खोली तो उसमें मामले के दो फैसले लिखे हुए मिले - एक पक्ष में, दूसरा विपक्ष में। दोनों ही फैसले जज साहब की लिखावट में थे। जज साहब से मौके पर पूछताछ की गई तो पहली ही बार में उन्होंने अपना अपराध कबूल कर लिया। मामला इतना साफ, दो-टूक था कि जाँच के नाम पर खानापूर्ति ही बची थी। वह पूरी हुई और जज साहब, रिटायरमेण्ट से बालिश्त भर की दूरी पर बर्खास्त कर दिए गए।

जिस दिन खबर आई, उस दिन पूरे मनासा में और कोई बात सड़कों पर आई ही नहीं। उस दिन मैं संयोगवश मनासा में ही था। दादा जिन वकील साहब के यहाँ मुंशी थे, मैं उन्हीं, मनासा के सबसे पुराने वकीलों में अग्रणी, दीर्घानुभवीे वकील, जमनालालजी जैन वकील साहब के यहाँ बैठा था। खबर सुन कर भी वे निर्विकार ही बने रहे। पूछने पर बोले - ‘ताज्जुब मत करो। बुढ़ापे में आदमी लालची और डरपोक, दोनों हो जाता है। असुरक्षा भाव ने उन्हें लालची बना दिया। ऐसा किसी के भी साथ, कभी भी हो सकता है। वे अनोखे नहीं, अन्ततः एक सामान्य मनुष्य ही थे।’

प्रशान्त भूषणजी अपराधी करार दिए जा चुके हैं। कल, बीस अगस्त को उन्हें सजा सुनाई जानी है। मुझे रह-रह कर ‘वे जज साहब’ याद आ रहे हैं। पता नहीं क्यों।

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उन्होंने बिड़ला होने से इंकार कर दिया



चित्र 10 दिसम्बर 2017 का है। नन्दनी और हमारे छोटे बेटे तथागत के विवाह समारोह का।  

आज  दादा  की  तीसरी  पुण्य तिथि और दूसरी बरसी है - 13 मई 2018 को उनका देहावसान हुआ था। इस प्रसंग के बहाने उनसे जुड़े दो अनूठे संस्मरण।

काँग्रेस के 16 विधायकों ने, ज्योतिरादित्य सिन्धिया के कहने से दलबदल कर मध्य प्रदेश की, कमलनाथ के नेतृत्ववाली अपनी ही सरकार गिरा दी। सरकार के गिरने-गिराने के इस दौर में दादा का जिक्र कई बार आया। लेकिन सन्दर्भ एक ही था - दादा की दलीय निष्ठा।

श्री द्वारकाप्रसाद मिश्र दादा को संसदीय राजनीति में लाए थे। 1967 के विधान सभा चुनावों में उन्हीं ने दादा को मनासा विधान सभा क्षेत्र से श्री सुन्दरलाल पटवा के मुकाबले उम्मीदवार बनाया था। पटवाजी ‘दिग्गज’ उम्मीदवार थे। मतगणना के दौरान मिश्रजी पल-पल जानकारी ले रहे थे। नतीजा आया। पटवाजी हारे। दादा जीते। मिश्रजी ने दादा को फोन पर बधाई दी- ‘शाबास! तुमने वह कर दिखाया जो मैं चाहता था।’ 

मिश्रजी ने दादा को सामान्य प्रशासन विभाग (जीएडी) का संसदीय सचिव बनाया था। उन दिनों मन्त्रि मण्डल चार स्तरीय होता था - केबिनेट मन्त्री, राज्य मन्त्री, उप मन्त्री तथा संसदीय सचिव। राजनीतिक सम्भावनाओं वालों को उप मन्त्री और संसदीय सचिव बनाया जाता था।

मिश्राजी की सरकार की शुरुआत तो अच्छी हुई थी लेकिन निहित कारणों और मन्तव्यों से श्रीमती विजयाराजे सिन्धिया ने काँग्रेस के लगभग पैंतीस विधायकों से दलबदल करवाकर वह सरकार गिरवा दी। 

काँग्रेसी विधायकों से दलबदल करवाने के लिए श्रीमती सिन्धिया के दूत दिन-रात लगे हुए थे। पहली बार विधायक बनने वाले लोग सबसे आसान ‘शिकार’ माने गए। सो, ऐसे विधायकों को सबसे पहले ‘घेरने’ का अभियान चला। इसी क्रम में दादा से भी सम्पर्क साधा गया। दादा ने पहली ही बार में दो-टूक इंकार कर दिया। दादा कहते थे - ‘वे दिन बड़े तनावभरे थे। अफवाहों ने हवाओं पर कब्जा कर लिया था। शंका और अविश्वास साँसों में घुल गए थे। सबकी निष्ठा दाँव पर लगी हुई थी। अचानक एक नाम हवा में उछलता और कइयों की साँसें अटक जातीं।’

उन दिनों सब कुछ चौड़े-धाले हो रहा था। विधायक अपने-अपने कमरों में ही थे। खरीददार, विधायक विश्राम गृह के गलियारों और मैदानों में सहजता से अपना काम करते नजर आते थे। 

दादा का दो-टूक इंकार जब श्रीमती सिन्धिया तक पहुँचा तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ। दादा को वे सबसे आसान शिकारों में सबसे पहला माने हुए थीं। दादा का इंकार उनके लिए झटका तो था ही, किसी चुनौती से कम भी नहीं था। दूतों का उनका निर्देश था - ‘कोशिशें जारी रखो। कोई कंजूसी मत करना।’

गहमागहमी और भगदड़वाले उस माहौल की वह एक सामान्य सुबह थी। नित्यकर्मों से निपट कर दादा ने दाढ़ी बनाई। स्नान से पहले नाखून काटने लगे। कटे नाखूनों को कागज में समेट ही रहे थे कि श्रीमती सिन्धिया का दूत आ पहुँचा। बातें होने लगीं। प्रस्ताव ही नहीं दोहराया गया, इंकार भी दोहराया गया। दूत मनाए, दादा न माने। अन्ततः दूत ने अपना, तुरुप का इक्का फेंका - ‘राजमाताजी ने कहा है, हमारे साथ आ जाइए। आप अपना सरनेम बैरागी से बदल कर बिड़ला कर लेंगे।’ दादा को इसका अनुमान था। कटे हुए नाखूनों को दूत के सामने सरकाते हुए, अपने चिरपरिचित परिहास भाव से बोले - ‘मैंने अभी-अभी अपने नाखून काटे हैं। आपके सामने रखे हैं। इन्हें ले जाइए और अपनी राजमाताजी से कहिएगा कि मुझे खरीदने से पहले मेरे ये कटे हुए नाखून खरीद कर दिखा दें। वे नहीं खरीद पाएँगी।’  दादा का यह जवाब सुनकर दूत हक्का-बक्का रह गया था। कलदारों की थैलियों की व्यर्थता के इस भाष्य की उसने तो कल्पना भी नहीं की थी!

दादा को काँग्रेस में ही रहना था। उन्होंने अपनी निष्ठा बदलना तो दूर, रंच मात्र हिलने भी नहीं दी। मिश्राजी की सरकार गिर गई। सरकार गिरने के बाद मिश्राजी को ‘बैरागी-बिड़ला’ वाली बात मालूम हुई तो पहले तो चौंके, फिर बहुत खुश हुए। यह बात उन्होंने एकाधिक बार उल्लेखित की।

लेकिन दलीय निष्ठा की परीक्षा दादा अन्तिम बार नहीं दी थी। अविभाजित मन्दसौर जिले की काँग्रेसी गुटबाजी के चलते एक बार दादा को काँग्रेस से निष्कासित करने का अभियान सा शुरु हो गया। वास्तविकता कोई नहीं जानता था लेकिन हवाओं में निर्णायक सूचना तैर रही थी - ‘काँग्रेस से बैरागी का पत्ता कट्।’ दादा के समर्थक बेचैन। बार-बार दादा को टटोलें। लेकिन दादा इस सबसे बेखबर, बेअसर।

एक दिन वे रोज की तरह अपनी लिखत-पढ़त कर रहे थे कि मन्दसौर से एक दिग्गज काँग्रेसी नेता आए। जिला काँग्रेस कमेटी के दफ्तर में उनकी रोज की उठक-बैठक। उनकी शकल पर चिन्ता ने तम्बू तान रखा था। मौके पर मौजूद लोगों को लगा, ये नेताजी दादा का निष्कासन-पत्र लेकर आए हैं। दोनों के बीच राम-राम, शाम-शाम के बाद बात शुरु हुई तो मालूम हुआ, वे तो खुद अपनी परेशानी से मुक्त होने के लिए आए हैं। बौखलाए स्वरों में उन्होंने पूछा - ‘यार! बैरागी, इन्होंने सच्ची में तुझे काँग्रेस से निकलवा दिया तो?’ सुनकर दादा का ठहाका कमरे की छत फाड़ कर निकल गया। बोले - ‘निकाल दें तो निकाल दें। इसके अलावा ये और कर ही क्या सकते हैं? बन्दे को कई फर्क नहीं पड़ता।’ नेताजी हतप्रभ हो गए। बोले - ‘क्या बात करता है यार? फर्क कैसे नहीं पड़ता?’ अब दादा तसल्ली से बोले - ‘ये मुझे काँग्रेस से निकाल सकते हैं। लेकिन मेरे अन्दर की काँग्रेस को ये कैसे निकालेंगे? मैं तो तब भी गली-गली काँग्रेस का अलख जगाऊँगा, काँग्रेस के गीत गाऊँगा। रोक सकेंगे ये मुझे? रोकेंगे तो किस हैसियत से रोकेंगे?’ फिर बेहद भावुकता और संजीदगी से बोले - ‘इनके लिए काँग्रेस एक पार्टी है। लेकिन मेरे लिए तो माँ है। ये अपनी पार्टी चलाएँ। मैं अपनी माँ की देखभाल करूँगा।’ 

नेताजी अभी अचकचाए हुए थे। उनकी शकल देख कर दादा ने कहा - ‘आप फिकर छोड़ो। ठहाके लगाओ। कुछ नहीं होगा। कैफ भोपाली का शेर सुनो -

गुल से लिपटी हुई तितली को गिरा कर देखो
आँधियों तुमने दरख्तों को गिराया होगा

...तो भैया! बन्दा तो फूल से लिपटी हुई तितली है। कह देना उनसे।’ नेताजी हौसलाबन्द हो लौट गए। दादा के निष्कासन के अभियान का गर्भपात हो गया। 

आज दादा की दूसरी बरसी है। दादा आज होते तो क्या करते? कुछ नहीं! तब दादी को नाखून भिजवाए थे। अब पोते को भिजवा देते और कहते - ‘मुझे नहीं बनना बिड़ला।’
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