कुत्ते की जगह जज साहब

यह पोस्ट 23 अगस्त 2020 को फेस बुक पर प्रकाशित हुई थी। इन्दौरवाले मेरे आत्मन प्रिय धर्मेद्र रावल को इसकी जानकारी, कुछ दिनों के बाद मिली - अपने एक सजातीय से। धर्मेन्द्र और सुमित्रा भाभी इन दिनों अपने बेटे-बहू समन्वय-आभा के पास बेंगलुरु में है। पढ़ने के बाद धर्मेन्द्र ने मुझे बेंगलुरु से फोन पर हड़काया - ‘तुमने यह कैसे मान लिया कि सबके सब फेस बुक पर हैं? अभी भी अनगिनत लोग ऐसे हैं जो फेस बुक का फेस देखना पसन्द नहीं करते। वे अभी भी ब्लॉग से यारी निभा रहे हैं। इसलिए हे सज्जन! अपनी पोस्टें फेस बुक पर भले ही दो लेकिन उन्हें ब्लॉग पर देना मत भूलो। बल्कि मेरा तो कहना है कि पहले ब्लॉग पर दो और फिर फेस बुक पर दो।’

सो, धर्मेन्द्र की डाँट के परिपालन में यह पोस्ट ब्लॉग पर प्रस्तुत है।


यदि कोई दैवीय चमत्कार नहीं हुआ तो, ख्यात वकील प्रशान्त भूषण, सोमवार 24 अगस्त 2020 को सर्वाेच्च न्यायालय की अवमानना करने के अपराध में सजायाफ्ता हो कर इतिहास में दर्ज हो जाएँगे। 

यही सब सोचतत सोचते-सोचते मुझे एक और जज साहब याद आ गए। ये जज साहब भी मेरे पैतृक नगर मनासा में ही पदस्थ थे। जज साहब के मिजाज से जुड़ा यह किस्सा-ए-हकीकत भी मेरे स्कूली दिनों का, याने वर्ष 1964 के आसपास का है। ‘राव लोणकर’ नामधारी ये जज साहब, पारम्परिक जजों से एकदम हटकर थे। जज लोग सामान्यतः सामाजिक सम्पर्कों से परहेज करते हैं। लेकिन राव लोणकर साहब अति सामाजिक थे। वे मेरे कस्बे की सड़कों पर पैदल चलते भी मिल जाया करते थे। लोगों से बतियाना उन्हें अच्छा लगता था। ‘हँसमुख’ से कहीं आगे बढ़कर हँसोड़ और भरपूर परिहास प्रेमी। बिना लाग-लपेट, निश्छल, निष्कपट भाव से बतियाते। मुझे नहीं पता कि वे मालवा अंचल से थे या नहीं किन्तु मालवी सहजता से समझ लेते थे। वे खुद पर हँसने के दुर्लभ साहस के धनी थे। खूब मस्त-मौला।  किन्तु कस्बे से इस आत्मीयता का रंचमात्र प्रभाव भी उनके फैसलों पर कभी, किसी को अनुभव नहीं हुआ। वे इस मामले में ‘विदेह’ जैसे बने रहे। 

मालवा के ग्रामीण अचंलों में ‘बकरियाँ बैठाना’ भी एक धन्धा है। जब हम पशु-पालन की बात करते हैं तो हमें सामान्यतः केवल गायें-भैंसें और इनके तबेले ही याद आते हैं। लेकिन कुछ लोग बकरियाँ भी पालते हैं। ये भी दूध का ही धन्धा करते हैं। गायों-भैंसों को तबेलों में रखा जाता है तो बकरियों को बाड़े में। धोबी मोहल्ले में, हमारे घर के ठीक सामने जीवा काका पुरबिया का, बकरियों का बाड़ा था। बाड़े के सामने, सुबह-सुबह, लोटे-भगोनियाँ लिए दूध लेनेवाले प्रतीक्षारत लोगों को मैंने बरसों देखा है। जिन दुधमुँहे शिशुओं के मुँह में छाले हो जाते थे (जिसे मालवा में ‘मुँह आना’ कहा जाता है) उन शिशुओं के मुँह में बकरी के ‘थन’ (स्तन) से सीधे दूध की धार डलवाना देसी ईलाज होता है। ऐसे शिशु लिए कोई न कोई माँ-बाप भी रोज ही नजर आते थे। उन शिशुओं के मुँह में धार डालते-डालते जीवा काका कभी-कभी मुझे भी आवाज लगा देते और सीधे बकरी के थन से मुझे भरपेट दूध पिला देते। इस तरह से दूध पीने के बाद पूरा मुँह सफेद, मीठे और गरम-गरम झाग से भर जाता था। दूध का वह स्वाद, वह ऊष्मा और उस तरह दूध पीने का आनन्द अवर्णनीय है। उसे तो केवल अनुभव की किया जा सकता है। मैं जब यह बात लिख रहा हूँ तो मुझे वह गरम-गरम दूध का झाग और उसकी मिठास अपने होठों पर अनुभव हो रही है।

ऐसे कई बकरीपालक, किसानों के खेतों में रातों को अपनी बकरियाँ बैठाने का धन्धा करते थे। बकरियों की मिंगनियों का खाद खेतों की उर्वरा शक्ति बढ़ाता है। गर्मियों के मौसम में खेतों में कोई काम नहीं होता। सो, गर्मियों में बकरियाँ बैठाने का धन्धा भरपूर चलता था। अपने खेत में बकरियाँ बैठाने के लिए किसान, बकरीवाले को तयशुदा रकम चुकाता है। अपनी बकरियाँ खेत में बैठानेवाले बकरीपालक भी, बकरियों की चौकीदारी के लिए, बकरियों के साथ रात खेत में गुजारते हैं।

एक बार ऐसा हुआ कि एक बकरीवाले की कुछ बकरियाँ चोरी हो गईं। इस प्रकार का यह पहला मामला था। सबको जिज्ञासा हुई। चोर यदि मनासा से बाहर का है तब तो कोई बात नहीं। लेकिन यदि मनासा का ही हुआ तो बकरियों को कब तक छिपा सकेगा? उन्हें बन्द भी कर दिया जाए लेकिन मिमियाने से तो रोका नहीं जा सकेगा! बकरीवाले ने थाने में रिपोर्ट लिखवाई। 

पुलिस हरकत में आई। एक संदिग्ध हिरासत में लिया गया। मुकदमा राव लोणकर साहब की अदालत में पेश हुआ।

शुरु की दो-तीन तारीखें तो कागजी-खानापूर्ति के नाम पर निकल गईं। लेकिन जल्दी ही वह दिन आ गया जब बकरीवाले के बयान होने थे।

इससे पहले कि किस्सा आगे बढ़े, एक शब्द युग्म ‘म्हारो बेटो’ से आपका परिचय जरूरी है। इसका शाब्दिक अर्थ है - मेरा बेटा। लेकिन ये ‘म्हारो बेटो’ लोक प्रचलन में तकिया कलाम भी है तो किसी को इज्जत देने के लिए तो कभी किसी को हड़काने के लिए, किसी की खिल्ली उड़ाने के लिए भी प्रयुक्त किया जाता है। 

आज की स्थिति तो मालूम नहीं किन्तु तब मनासा कोर्ट का कमरा बहुत बड़ा नहीं था। मुश्किल से आठ-दस लोग आ सकते थे। बहुत हुआ तो पन्द्रह-बीस। इससे अधिक नहीं। मुकदमा शुरु हुआ। फरियादी बकरीवाला कटघरे में आया। उसे गीता की सौगन्ध दिलाने की औपचारिकता पूरी की गई। सरकारी वकील ने उसका नाम-पता पूछ कर कहा - ‘हाँ तो हंसराज! खुल कर बताओ कि क्या हुआ।’ (‘हंसराज’ काल्पनिक नाम है।) दोनों हाथ जोड़कर हंसराज वकील साहब से बोला - ‘माराज.....’ (‘माराज’ याने ‘महाराजा’) वह आगे कुछ बोलता उससे पहले ही सरकारी वकील ने टोका - ‘मुझे नहीं, जज साहब को बताओ।’ 

करबद्ध मुद्रा और भीत स्वरों में हंसराज ने मालवी बोली में कहना शुरु किया - ‘माराज! म्हारी बकरियाँ चोरी वेईगी।’ (साहब! मेरी बकरियाँ चोरी हो गईं।) सरकारी वकील ने फिर टोका - ‘यह तो सबको मालूम है कि तुम्हारी बकरियाँ चोरी हो गई हैं। लेकिन तुम भी तो वहाँ थे! फिर कैसे चोरी हो गईं? खुल कर बताओ।’ 

हंसराज ने पहले वकील साहब को देखा, फिर जज साहब को। उसके बाद पूरे कमरे में नजर दौड़ाई और बोला - ‘माराज! म्हने नी मालम चोरी कसरूँ वी। म्हारे तो अबार भी हमज में नी अई री के चोरी कसरूँ वेई गी? अबे आप ई विचार करो माराज! के जशो मूँ याँ हूँ वशो को वशो वटे खेत में बेठो तको। (फिर, कमरे में बैठे लोगों की ओर इशारा करते हुए) जशा ई लोग बेठा वशी म्हारी बकरियाँ बेठी तकी। ने आप बेठा वशो म्हारो पारतू टेगड़ो बेठो! फेर भी म्हारो बेटो बकरियाँ चोरी लेई ग्यो।’ (साहब! मुझे नहीं मालूम कि चोरी कैसे हुई। मुझे तो अभी समझ नहीं आ रहा कि चोरी कैसे हो गई? अब आप ही विचार कीजिए साहब! कि जैसे मैं यहाँ हूँ उसी तरह मैं वहाँ खेत में बैठा था। जैसे (कमरे में) ये लोग बैठे हैं उसी तरह मेरी बकरियाँ बैठी हुई थीं। और साहब! जैसे आप बैठे हैं उसी तरह मेरा पालतू कुत्ता बैठा हुआ था। फिर भी ‘मेरा बेटा’ बकरियाँ चुरा ले गया।)

हंसराज की बात पूरी हुई नहीं कि राव लोणकर साहब ठहाका मारकर हँसने लगे। हंसराज की बात सुनकर और जज साहब की दशा देखकर सरकारी वकील साहब हक्के-बक्के हो गए, घबरा गए। एक पल तो उन्हें सूझ ही नहीं पड़ी कि हंसराज ने क्या कह दिया, क्या कर दिया। उन्हें लगा कि मामले का फैसला उनके खिलाफ हो गया। उन्होंने हकलाते हुए, मामले को सुधारने की कोशिश की - ‘अरे! अरे!! क्या कह रहे हो? तुम्हें पता भी है कि तुम किसके सामने बात कर रहे हो? जरा ढंग से बात......।’ 

लेकिन सरकारी वकील की, टूट-फूट की मरम्मत करने की कोशिश पर राव लोणकर साहब ने लगाम लगा दी। बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी रोकते हुए, बोले - ‘नहीं! नहीं वकील साहब! फरियादी और कोर्ट के बीच में आप मत आइए। फरियादी को अपनी बात कहने दीजिए।’ फिर हंसराज से बोले - ‘तुम्हारी बात पूरी तरह से समझ में नहीं आई। एक बार फिर से पूरी बात समझाओ।’ 

जज साहब की बात सुनकर सरकारी वकील साहब को पसीना छूट गया। लगा कि वे रो देंगे। जज साहब को जैसे ही लगा कि सरकारी वकील साहब हंसराज को समझाना चाहते हैं, उन्होंने फौरन वकील साहब को फन्दे में लिया - ‘नहीं वकील साहब। आपसे कह दिया ना कि फरियादी और कोर्ट के बीच में आप मत आओ। फरियादी को बेहिचक अपनी बात कहने दो।’ फिर हंसराज से बोले - ‘हाँ। बोलो। डरो मत। फिर से पूरी बात बताओ।’

 बेचारे हंसराज ने निरीह भाव से अपनी बात लगभग शब्दशः दुहरा दी। जैसे ही हंसराज की बात पूरी हुई, राव लोणकर साहब फिर ठठाकर हँसने लगे। वे चाहकर भी अपनी हँसी रोक नहीं पा रहे थे। उनकी दशा देख कर सरकारी वकील परेशान और हंसराज हैरान। 

जज साहब अब घुटी-घुटी हँसी हँस रहे थे। उसी दशा में बोले - ‘आज तो कोर्ट का पुनर्जन्म हो गया। अब अभी और कुछ काम नहीं हो पाएगा। अब लंच तक कोर्ट की छुट्टी।’ फिर सरकारी वकील साहब से बोले - ‘आप अगली तारीख ले लो। हंसराज का बाकी बयान तभी सुनेंगे।’

उसके बाद क्या हुआ और क्या नहीं, यह जानने की मैंने कोशिश ही नहीं की। हाँ, इतना मालूम है कि हंसराज पर कोई दण्डनीय कार्रवाई नहीं हुई। इतना और मालूम है कि बाद में यह किस्सा खुद राव लोणकर साहब ही, अपनी मित्र-मण्डली में सुनाते रहे।

-----


3 comments:

  1. बेहद सुंदर अनुभव

    ReplyDelete
  2. this is nice blog i really like it keep it up thanks for this nice blog

    ReplyDelete
  3. Thanks for sharing, nice post! Post really provice useful information!

    Hương Lâm chuyên dịch vụ cho thuê máy photocopy màu hoặc bán máy photocopy màu uy tín, giá rẻ tại TP.HCM và giải đáp máy photocopy nào tốt nhất cũng như link download driver toshiba 456 chính xác.

    ReplyDelete

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.