वह दशहरे की शाम थी। जबलपुर से भाई गिरीश बिल्लोरे बोल रहे थे। दशहरे के अभिनन्दन और बधाइयाँ ऐसे दे रहे थे मानो शोकान्तिका पढ़ रहे हों। मुझे अचरज हुआ। बोले-‘सचमुच में शोक समाचार है। ब्लॉगवाणी बन्द हो गई है।’ मुझे कुछ सूझ नहीं पड़ी। गिरीश भाई मुझ नासमझ को जितना समझा सकते थे, समझाया।
ब्लॉगवाणी के बारे में मैं सचमुच में कुछ भी नहीं जानता। इतना भर जानता हूँ कि यह ऐसी तकनीकी व्यवस्था है जिसके जरिए, किसी भी ब्लॉगर का लिखा, कछ ही मिनिटों में समूचे ब्रह्माण्ड में सार्वजनिक हो जाता है। एक ब्लॉग की ‘सीमीतता’ को ब्लॉगवाणी, निस्सीम कर देती है। कुछ दिनों बाद मालूम हुआ कि कोई मैथिलीजी हैं जो ब्लॉगवाणी चला रहे हैं-अपनी गाँठ का रोकड़ा और कमर का जोर लगा कर। मैथिलीजी की, प्रोत्साहित करने वाली दो-एक टिप्पणियाँ मेरे ब्लॉग पर भी आईं। बीच में, मेरा ब्लॉग जब अचानक ही ब्लॉगवाणी से गायब हो गया तो मैथिलीजी से सम्पर्क किया। उन्होंने तकनीकी शब्दावली में न जाने क्या-क्या पूछा। मेरे पास एक ही उत्तर था-‘मैं कुछ नहीं जानता।’ उनकी जगह मैं होता तो पलटकर नहीं देखता। भाड़ में जाए ऐसे आदमी का ब्लॉग। किन्तु मुझे अचरज हुआ। जल्दी ही मेरा ब्लॉग, ब्लॉगवाणी पर नजर आने लगा।
ब्लॉगवाणी का मतलब मेरे लिए यही है - अनजान लोगों की भीड़ वाले मेले में गुम हुए नासमझ बच्चे को ठिकाने पर पहुँचा देना।
ब्लॉगवाणी बन्द होने के पीछे क्या कारण रहे और क्या सोच कर मैथिलीजी ने इसे फिर शुरु किया-यह सब मैं चाहूँ तो भी नहीं जान सकूँगा। ब्लॉग जगत में मेरी उम्र ही क्या है? मुझे तो अब तक दूध के दाँत भी नहीं आए हैं। किन्तु इतनी समझ है कि विद्वान् कभी एक मत नहीं होते। यह भी कि कुछ लोगों को फजीहत में ही मजा आता है। यह भी कि चलते बैल को आर लगाने में कई लोगों को अवर्णनीय सुख मिलता है। और भी न जाने क्या-क्या।
मेरी हैसियत इतनी और ऐसी नहीं कि मैथिलीजी को कोई सलाह दे सकूँ। मुझे अपनी औकात मालूम है। वे वही करें जो वे चाहते हैं और जैसा चाहते हैं। किन्तु यह अवश्य याद रखें कि कोई भी व्यवस्था पूर्णतः निर्दोष नहीं होती। और यह भी कि सबको खुश रखने की कोशिश में किसी को भी खुश नहीं रखा जा सकता। सो, आपकी दशा तो वही होनी है जो बैल लेकर बस्ती में निकले बाप-बेटे की हुई थी। बाप बैठे और बेटा पैदल चले तो भी और बेटा बैठे और बाप पैदल चले तो भी। दोनों बैठें तो भी और दोनों ही बैल के साथ पैदल चलें तो भी। लोग तो कहेंगे ही। उन्हें तो कहना है। स्वर्गीय श्री लक्ष्मीकान्त वैष्णव की लघुकथा ‘लोग‘ ढूँढ कर पढ़ लीजिएगा, आपका क्षोभ कपूर हो जाएगा।
सो, सबसे पहले तो ब्लॉगवाणी फिर से शुरु करने के लिए धन्यवाद और आभार स्वीकार कर, इस नासमझ के थोड़े कहे को बहुत समझिएगा। और यह भी समझिएगा मेरा यह सब कहा, केवल मेरा नहीं है। मुझ जैसे और भी नासमझ इसमें शामिल हैं।
चलते-चलते, दादा की दो पंक्तियाँ आपको अर्पित कर रहा रहा हूँ -
किस-किस का हम मुँह पकड़ेंगे,
लाख जबानें चलती हैं।
जो जितना ज्यादा पुजता है,
उस पर दुनिया ज्यादा जलती है।
यह भी आपको अपर्याप्त लगे तो श्री राजबहादुर विकल जलालाबादी की ये दो पंक्तियाँ शायद आपको उकसा दें -
वीर वही है जिसने तम में, राह सत्य की शोधी।
उसकी प्रगति अर्थ क्या रखती, जिसके नहीं विरोधी?
और एक बात, लाख टके की। शुद्ध सोने के गहने नहीं बनते। सुन्दरियों की सुन्दरता बढ़ाने वाले गहने बनाने के लिए, सोने में मिलावाट करनी ही पड़ती है।
अच्छी लगे तो पीठ ठोक देना और बुरी लगे तो चाहे जो कर लेना किन्तु ब्लॉगवाणी पर मेरा ब्लॉग देना बन्द मत करना।
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