चीजें अचानक नहीं बदलतीं। धीरे-धीरे ही बदलती हैं। इतनी धीरे-धीरे कि उनके बदलने का आभास भी नहीं होता। यह धीमापन, बदलाव को स्वाभाविकता प्रदान करता लगता है। किन्तु वह परिवर्तन ही क्या जो अपने होने की प्रतीति न कराए! सो, यह प्रतीति होती तो है किन्तु अचानक ही। ऐसे ‘अचानक-क्षण’ में ही अनुभव होता है कि चीजें बदल गई हैं। यह ‘अचानक क्षण’ ही इस प्रतीति को आश्चर्य में बदल देता है। तब ही चीजों के बदलाव पर भी अचरज होता है।
देख रहा हूँ कि बोलचाल में आदरसूचक शब्दावली गुम होती जा रही है। गुम यदि नहीं भी हो रही है तो कम तो हो ही रही है। बहुत पुरानी बात नहीं है, आठ-दस बरस पहले तक ‘सुनिएगा’, ‘आइएगा’, ‘लीजिएगा’, ‘दीजिएगा’ जैसे आदरसूचक शब्द प्रयुक्त होते थे। अचानक ही मेरा ध्यान गया कि इनके स्थान पर ‘सुनना’, ‘लेना’, ‘आना’, ‘देना’ जैसे रूखे और अक्खड़ शब्दों ने ले लिया है। ये सब शब्द यूँ तो पहले से ही मौजूद थे किन्तु अन्तरंग और अनौपचारिक सम्वादों में ही जगह पाते थे। किन्तु अब तो इन्हीं का बोलबाला है-वहाँ भी, जहाँ इनका होना रुचिकर नहीं होता।
मेरी बीमा एजेन्सी को अभी-अभी उन्नीस वर्ष पूरे हुए हैं। मेरा धन्धा ही ऐसा है कि ग्राहक की तलाश में मुझे घर-घर जाना पड़ता है-कभी समय लेकर तो कभी समय लिए बिना। कोई एक दशक पहले तक ‘आइए बैरागीजी’ या फिर ‘आइए अंकल’ से अगवानी होती थी। गृह स्वामी के आने में देर होती तो बच्चे कहते - ‘आप बैठिए अंकल। पापा अभी आते हैं।’ अब बदलाव आ गया है। अब ‘आओ बैरागीजी’ या फिर ‘आओ अंकल’ और ‘अंकल आप बैठो। पापा अभी आते हैं।’ सुनने को मिलता है। सुनने में तनिक अटपटा लगता है किन्तु यह देख कर तसल्ली होती है कि आदरभाव में कहीं भी कमी नहीं-न मन में, न आँखों में।
अठारह जनवरी की शाम भोपाल पहुँचा था। भाई विजय वाते ने गाड़ी स्टेशन पर भिजवा दी थी। सीधा उनके दफ्तर पहुँचा था। घर लौटते हुए उन्हें रास्ते में, उद्घाटन के एक छोटे से आयोजन में शरीक होना था। हम दोनों आयोजन स्थल पर पहुँचे तो सन्नाटा था। समय पर जो पहुँच गए थे! वहाँ बैठ कर वक्त काटना भी सम्भव नहीं लग रहा था। विजय को हल्की सी भूख लग आई थी। सो, हमीदिया रोड़ स्थित मनहर डेयरी पहुँच गए। टेबल पर बैठने के कुछ ही पलों में वेटर आ गया। बोला - ‘बोलो साहब! क्या लाऊँ?’ मुझे हैरत हुई। एक तो भोपाल जैसा तहजीबदार शहर उस पर मनहर डेयरी जैसा प्रतिष्ठित संस्थान्! वेटर की भाषा मुझे हजम नहीं हुई। स्वल्पाहार करने के बाद निकलते समय मैंने मैनेजर को अपनी भावनाएँ जताईं। उसने माफी माँगी और बोला -‘आप अगली बार आओगे तो शिकायत का मौका नहीं पाओगे।’ मैनेजर ने मेरा भ्रम दूर कर दिया। वेटर पर आए गुस्से का स्थान हँसी ने ले लिया। ‘आओगे, पाओगे’ के लिए मैंने हँसते-हँसते, मैनेजर का शुक्रिया अदा किया।
भाषा का यह बदलाव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में समान रूप से आया अनुभव हो रहा है। शोक सन्दर्भों में केवल सूचनाएँ देने का लोक प्रचलन है। जैसे कि फलाँ की माताजी का देहावसान हो गया है। अन्तिम यात्रा इतने बजे निकलेगी और दाह संस्कार फलाँ श्मशान में होगा। यही स्थिति उठावने (या कि तीसरे) की सूचना देने में भी होती है। लेकिन यहाँ भी बदलाव आ गया है। एक पखवाड़े पहले, फोन पर एक किशोर ने टेलीफोन किया -‘अंकल! आपके फ्रेण्ड वीरेन्द्रजी की सासूजी और मेरी दादीजी का उठावना कल सवेरे साढ़े दस बजे सूरज हॉल पर रखा है। आपको आना है। आईएगा जरूर। हम सब आपकी राह देखेंगे।’
इसी तरह, शोक पत्रिकाओं में मृत्यु की और उत्तर क्रियाओं की केवल सूचना देने की परम्परा रही है। जैसे ‘हमारी माताजी का स्वर्गवास फलाँ दिनांक को हो गया है जिनका उत्तरकार्य निम्नानुसार रखा गया है।’ इसके बाद विस्तृत कार्यक्रम दिया रहता है। बदलाव ने इसे भी प्रभावित किया है। गए दिनों मुझे दो शोक पत्रिकाएँ ऐसी मिलीं जिनमें ‘अवश्य पधारिएगा’ का आग्रह भी किया गया था।
ये शोक पत्रिकाएँ देख/पढ़कर किस्सा याद आ गया। किस्सा कितना सच है, नहीं जानता किन्तु एक बार कहीं पढ़ा भी है और दो-तीन बार, समझदारों के मुँह सुना भी है। किस्से के अनुसार महावीर और बुद्ध समकालीन थे। महावीर कनिष्ठ और बुद्ध वरिष्ठ थे। एक बार दोनों की भेंट हो गई। महावीर ने जिज्ञासा प्रकट की - ‘जन्म यदि उत्सव है तो मृत्यु क्या है?’ बुद्ध ने उत्तर दिया - ‘मृत्यु महोत्सव है।’ शोक सन्दर्भों में आ रहा यह बदलाव मृत्यु को शोक के बजाय महोत्सव का स्थान दिलाता अनुभव हुआ।
जानता हूँ कि मुझे अच्छा लगे या नहीं, बदलाव तो शाश्वत और अनवरत प्रक्रिया है। बदलाव का सुख लेने के लिए खुद को ही बदलना पड़ेगा। नहीं बदलूँगा तो मेरे सिवाय और किसी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
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