मालवा का जग विख्यात सुस्वादु व्यंजन 'बाफला' एक कलेक्टर की बर्खास्तगी का सबब बन ही गया था । लेकिन ऐसा नहीं हुआ । किसका भाग्य अच्छा था - बाफले का या कलेक्टर का, यह आप ही तय कीजिएगा ।
वाकया 1970 का ही है । पण्डित श्यामाचरण शुक्ल के नेतृत्व वाले, मध्य प्रदेश के कांग्रेसी मन्त्रि मण्डल में श्री वसन्तराव उइके शिक्षा मन्त्री और श्री बालकवि बैरागी, सूचना प्रकाशन राज्य मन्त्री थे । उइके साहब सिवनी जिले से तथा बैरागीजी मन्दसौर जिले से थे । उन दिनों मन्त्रियों को जन सम्पर्क दौरे करने पडते थे । (इन्हीं जन सम्पर्क दौरों को मीडीया ने इन दिनों 'रोड शो' का नाम दे रखा है ।) इसी चलन के चलते, उइके साहब, मन्दसौर जिले के जन सम्पर्क दौरे पर थे ।
मन्दसौर जिले में एक गांव है - भाऊगढ । मन्दसौर से महू की ओर जाते समय, कोई बीस-बाईस किलोमीटर के बाद, दलौदा के पास से, सडक से लगभग 34-35 किलोमीटर अन्दर स्थित यह गांव आज तो आधुनिक सुविधाओं से लैस है लेकिन तब वहां जाने के लिए गिट्टी वाली सडक भी नहीं थी । बैलगाडी से जाना पडता था । बरसात के मौसम में यह गांव दुनिया से मानो कट ही जाता था । जिसे भी भाऊगढ से शहर आना हो या शहर से भाऊगढ जाना हो तो 34-35 किलोमीटर की यह दूरी, घुटनों-घुटनों कीचड पार करनी पडती थी । उन दिनों भाऊगढ को 'काला पानी' कहा जाता था और जिस सरकारी कमर्चारी से राजनीकि बदला लेना होता, उसका तबादला भाऊगढ करा दिया जाता था । भाऊगढ तबादला होने की कल्पना मात्र से सरकारी कर्मचारियों की रीढ की हड्डी में भी कंपकंपी छूट जाती थी ।
तब भाऊगढ में आठवीं कक्षा तक का, मिडिल स्कूल था । गांव वाले अपने यहां हायर सेकेण्डरी स्कूल चाहते थे । चूंकि बैरागीजी मन्दसौर जिले से थे सो, भाऊगढ के कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने बैरागीजी से सम्पर्क साधा । बैरागीजी ने कहा कि वे शिक्षा मन्त्रीजी को भाऊगढ में ला कर खडा कर देंगे, हायर सेकेण्डरी स्कूल की मांग को अपनी मांग भी कह देंगे लेकिन उइके साहब को मनाने का काम तो भाऊगढवालों को ही करना होगा । भाऊगढवालों ने कहा - 'आप तो उइके साहब को ले आओ, बाकी हम देख लेंगे ।'
इसी सम्वाद के तारतम्य में, उइके साहब के जनसम्पर्क दौरे में भाऊगढ भी शरीक किया गया और इस तरह किया गया कि उइके साहब का, उस दिन का दोपहर का भोजन भाऊगढ में ही हो ।
तयशुदा कार्यक्रमानुसार, जीपों के काफिले और सरकारी लाव-लश्कर के साथ उइके साहब और बैरागीजी भाऊगढ पहुंचे । लोगों ने सचमुच में पलक पांवडे बिछा दिए । गांव की कोई गली ऐसी नहीं बची जिसमें स्वागत द्वार न बना हो और जिसमें से दोनों मन्त्रियों को न घुमाया गया हो । भाऊगढ जितनी जन संख्या वाले और किसी भी गांव में उइके साहब ने इतनी मालाएं अपने जीवन में न तो तब पहनी थीं और न बाद में कभी पहनी होंगी । ढोल ढमाकों के अलावा आसपास से बैण्ड भी बुलवाया गया था । गोटा-किनारी और इसी के फूलों से जगर-मगर करते, चमचमाते, रंगीन लुगडे ओढे, औरतें बधावे और मंगल गीत गा रही थीं, नाच रही थीं । लगता था मानो समूचे मालवा के सारे उत्सवों की रंगीनी और मस्ती-मादकता भाऊगढ की गलियों में सिमट आई थी । भाऊगढवालों ने इतनी गुलाल उडाई कि दोनों मन्त्रियों की दशा 'जित देखो तित लाल' हो गई थी । उइके साहब 'गदगद' और 'पुलकित' के पर्याय हो गए थे । उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि ऐसा स्वागत भी हो सकता है ।
अन्तत:, दोनों मन्त्रियों का जुलूस मंच-मुकाम पर पहुंचा । यहां एक बार फिर उइके साहब को फूलों से लाद दिया गया । गांव वालों की ओर से ज्यादा भाषणबाजी नहीं हुई । एक ही बात कही गई - 'हमें सडक, पानी, बिजली कुछ भी नहीं चाहिए । हमें तो बस, हायर सेकेण्डरी स्कूल दे दीजिए ।' स्थानीय मन्त्री की हैसियत से बोलते हुए बैरागीजी ने गांववालों की मांग को अपनी मांग कहा और बैठ गए । अब बारी उइके साहब की थी । वे अनुभवी, परिपक्व और मंजे हुए नेता थे । लोगों की नब्ज पहचानने में महारत थी उन्हें । उन्होंने बिना वक्त जाया किए, भाऊगढ में हायर सेकेण्डरी स्कूल खोलने की घोषणा कर दी । घोषणा क्या हुई मानो चमत्कार हो गया । 'उइके साहब - जिन्दाबाद' के नारे लगने लगे, गांव के बूढे मारे खुशी के रोने लगे, लोगों के कण्ठ रुंध गए, हिचकियां बंध गईं । औरतें बलैयां ले-ले कर उइके साहब को असीसने लगीं । मंजर इतना जजबाती हो गया कि खुद उइके साहब की आंखें भर आईं । ऐसी घोषणाएं उन्होंने पहले भी कई जगहों पर की थीं लेकिन ऐसा प्रतिसाद तो उन्हें कहीं नहीं मिला था जो उनके लिए आजीवन अविस्मरणीय और अनुपम परिसम्पत्ति बन गया । वे भी भाव विह्वल और विगलित हो गए ।
जैसे-तैसे समारोह समाप्त हुआ । अब भोजन की बारी आई । मालवा में विशेष प्रसंग पर भोजन में छिलके वाली उडद की दालदाल, बाफले और चूरमा के लड्डू के सिवाय और बन ही क्या सकता था ? यही सब बना था । बाफला कितना स्वादिष्ट और कितना 'भारी' होता है यह आप 'हथियार भी है मालवी बाफला' वाली पोस्ट से जान ही चुके हैं । इसमें एक बात और जोड लीजिए । बाफले में घी जितना अधिक मिलाया (या डाला) जाता है, उसका स्वाद और 'भारीपन' उतना ही बढता जाता है । ठीक उसी तरह जिस तरह कि आयुर्वेदिक दवाइयों को घोटने पर उनकी 'पोटेंसी' बढती है । भाऊगढ में तो उस दिन होली- दीवाली सहित सारे त्यौहार आ गए थे और भाऊगढवाले उइके साहब पर न्यौछावर होने का कोई भी क्षण नहीं छोडना चाहते थे । सो, बाफलों को 'स्पेशल ट्रीटमेण्ट' यह दिया गया कि बाफलों में घी डालने के बजाय बाफलों को घी में डाल दिया गया - बिलकुल गुलाब जामुन की तरह । बाफलों को गुलाब जामुन की तरह, घी से लबालब भरी गहरी कढाई में तैरते हुए मैं ने न उससे पहले कभी देखा था और न ही उसके बाद से अब तक देखा है । परोसने के लिए बाफले को जब कढाई में से निकाला जा रहा था तो घी, धार बन कर चू रहा था । बाफला परोसने काबिल हो, इसके लिए उसे कढाई में से निकालने के बाद कोई आधा मिनिट तक प्रतीक्षा करनी पड रही थी ।
पंगत लगी । दाल, आधा-आधा बाफला और चूरमा लड्डू परोसे गए और लोगों ने दोनों हाथ जोड कर उइके साहब से निवेदन किया - 'करो लक्ष्मीनारायण ।' भोजन शुरू करने के लिए मालवा में यही कह कर निवेदन किया जाता है । उइके साहब ने पहला कौर तोडा । कौर क्या था मानों रूई का फाहा हाथ में आ गया हो - मक्खन से भी ज्यादा मुलायम । कौर को दाल में डुबो कर मुंह में रखा तो उइके साहब उछल ही पडे । ऐसी रसानुभूति उन्हें पहली ही बार हुई थी । 'पांचों पकवान और पचीसों व्यंजन' दाल-बाफले के सामने 'धूल धुसरित' हो चुके थे । अपेक्षा से कहीं कम समय में ही उइके साहब ने आधा बाफला समाप्त कर, और बाफले की इच्छा प्रकट कर दी । पूरा भाऊगढ उइके साहब की सेवा में था । उइके साहब ने कहने में जितनी देर लगाई उसके हजारवें हिस्से में बाफला उनकी पत्तल पर था । मेहमान और मेजबान की इस 'फुर्ती प्रतियोगिता' में बैरागीजी ने व्यवधान डाला । उइके साहब से बोले - 'भाई साहब ! और मत लीजिए, आधा ही बहुत है ।' उइके साहब को यह 'रस-भंग' अच्छा नहीं लगा । उन्होंने बैरागीजी की तरफ सरोष देखा और लगभग झिडकते हुए कहा कि उन्हें बैरागीजी से इस अशिष्टता की उम्मीद नहीं थी । कहां तो बैरागीजी मालवा की मुनहार-परम्परा का बखान करते रहे हैं और आज जब स्वादिष्ट व्यंजन का आनन्द लेने का अवसर मिला है तो मनुहार करना तो दूर रहा, मांगने पर भी रोक लगा रहे हैं ? बैरागीजी सकपकाए जरूर लेकिन वे 'आगत की आहट' खूब अच्छी तरह सुन रहे थे । सो, उन्होंने अपनी सीमाओं में रहते हुए एक बार फिर समझाने की नाकाम कोशिश की और बदले में और अधिक जोरदार झिडकी खाई । बैरागीजी ने चुप रहने में ही भलाई समझी क्यों कि उइके साहब के साथ-साथ भाऊगढवाले भी बैरागीजी से नाराजी जताने लगे थे । इसी माहौल में उइके साहब ने लगभग सवा दो बाफले 'जीम' लिए ।
भोजन करते ही अगले पडाव के लिए चल पडना था । लेकिन यह भी तो नहीं होता कि हाथ धोये और चल दिए । सो, पंगत से उठ कर, हाथ धो कर, पानी पी कर, हाथ-मुंह पोंछते-पोंछते जीप तक आएं तब तक पन्द्रह-सत्रह मिनिट तो हो ही गए । बातें करते-करते उइके साहब ने अनुभव किया कि उनका गला तेजी से सूख रहा है और बोलने में कठिनाई हो रही है । उन्होंने पानी मांगा । लोगों को पता था । सो, फौरन ही ठण्डा पानी पेश कर दिया गया । उइके साहब ने भरपूर मात्रा पानी पिया तो सही लेकिन उन्हें लगा कि उनका पेट अतिरिक्त रूप से तन रहा है । लेकिन उन्होंने इसे 'परदेस के खाने में ऐसा हो जाता होगा' जैसा तर्क देकर खुद को समझाया । वे जीप में बैठने लगे तो बैरागीजी ने कहा - 'भाई साहब ! आप बीच में, ड्रायवर के पास बैठिये और मुझे बाहर की ओर बैठने दीजिए ।' उइके साहब सचमुच में नाराज हो गए । बोले - ' एक तो मैं केबिनेट मिनिस्टर हूं और तुम स्टेट मिनिस्टर । फिर, यह जनसम्पर्क दौरा मेरा है । तुम बाहर की ओर कैसे बैठ सकते हो ? तुम्हें हो क्या गया है ? ऐसा कहने से पहले तुमने जरा भी नहीं सोचा कि यह प्रोटोकाल के खिलाफ है ?' बैरागीजी काफी कुछ कहना चाहते थे लेकिन उन्होंने चुप रहने में ही अपनी खैर समझी । जीप के खुले वाले एक ओर के हिस्से में ड्रायवर, दूसरी ओर वाले खुले हिस्से में उइके साहब और दोनों के बीच में बैरागीजी बैठे ।
यात्रा शुरू हुई तो थोडी ही देर में बैरागीजी को अपना दाहिना हाथ, उइके साहब की पीठ के पीछे से ले जाकर, उइके साहब के दाहिने कन्धे पर रखकर, उइके साहब को पकड कर बैठना पडा क्यों कि उइके साहब, तेज चलती जीप में भी खूब गहरी नींद में सो गए थे । उनकी गर्दन, जीप के सामने वाले काच तक झुक आई थी और उबड-खाबड रास्तों की वजह से, जीप के हिचकोलों से भी उनकी नींद में कोई व्यवधान नहीं आ रहा था । बरसातों के ठीक बाद का मौसम था, गांवों के कच्चे रास्तों में खूब गहरे गड्ढे थे, उन्हें पार करने में जीप उचक-उचक जा रही थी और साथ-साथ उइके साहब भी । लेकिन नींद थी कि बराबर बनी हुई थी । उइके साहब गिर न जाएं, इसलिए बैरागीजी उन्हें अपनी पूरी ताकत से थामे हुए थे । हिचकोले खाती जीप में, हिचकोले खाते, निन्द्रामग्न उइके साहब के भारी भरकम शरीर को सम्हालने में बैरागीजी को अपनी ताकत से ज्यादा मशक्कत करनी पड रही थी ।
अगला पडाव आया । जीप रूकी । रास्ते किनारे, प्रतीक्षारत गांववाले, हाथों में मालाएं लिए, जिन्दाबाद के नारे लगा रहे थे लेकिन उइके साहब तो मानो 'फूलों की सेज' पर सोए हुए थे । बैरागीजी उन्हें जोर-जोर से झकझोर कर जगाने की कोशिश करने लगे । उन्हें झिंझोडते, झकझोरते हुए 'भाई साहब ! भाई साहब !! उठिए । गांव आ गया है । लोग आपको मालाएं पहनाना चाहते हैं । उठिए ।' कहे जा रहे थे । उइके साहब कुनमुनाए, 'ऊं, आं' करते हुए आंखें खोलने की कोशिश की लेकिन आंखें खुल नहीं पाईं । उन्होंने जोर-जोर से अपनी आंखें मसलीं, आस-पास देखा, बमुश्किल जीप से उतरे और बोले - 'माला बाद में पहनाना, पहले पानी पिलाओ ।' पानी जीप में था ही । प्रस्तुत किया गया । उन्होंने फिर भरपूर पानी पीया और पानी पीते-पीते उन्हें एक बार फिर वही अनुभूति हुई - उनका पेट तनने लगा है । उन्होंने पूछा - 'मुझे यह क्या हो रहा है ?' बैरागीजी बोले - 'मैं ने आपसे कहा था न कि आधा बाफला ही काफी होगा । लेकिन आप मुझ पर नाराज हो गए । यह सब बाफले का ही असर है ।' उइके साहब ने अविश्वास से बैरागीजी की ओर देखा और फिर, जीप में पीछे की ओर बैठे, कांग्रेस कार्यकर्ताओं की ओर सवालिया निगाहों से देखा । सबने बैरागीजी की बात की पुष्टि की । तसल्ली होते ही उन्होंने जोर से आवाज लगाई - 'मुदलियार !' मुदलियार याने मन्दसौर जिले के (तत्कालीन) कलेक्टर श्री पी जी वाय मुदलियार - बडे सुलझे हुए, अनुभवी और प्रत्युत्पन्नमति वाले, भारतीय प्रशासकीय सेवाओं के वरिष्ठ सदस्य । भाऊगढ में उन्होंने, दोनों मन्त्रियों के साथ ही भोजन किया था और बाफलों की 'घातक-मारक शक्ति' से भली प्रकार वाकिफ थे । इस स्थिति का पूर्वानुमान वे, उइके साहब को 'प्रेमपूर्वक बाफला सेवन' करते हुए देख कर लगा चुके थे । उइके साहब की जीप के ठीक पीछे उनकी जीप थी । उइके साहब की जीप रूकते ही उनकी जीप भी रूक ही गई थी और उइके साहब उन्हें पुकारते, उससे पहले ही वे उइके साहब के ठीक पीछे आकर खडे हो गए थे । सो, उइके साहब की 'हांक' सुनते ही, सामने प्रकट होकर, आज्ञाकारिता की चाशनी घोलते हुए बोले - 'यस सर !' उइके साहब ने कहा - 'ये जो आज मैं ने भोजन में खाए हैं........' वे अपनी बात पूरी करते, उससे पहले ही मुदलियार साहब बोले - 'बाफले सर !' उइके साहब बोले - 'हां वही ।' मुदलियार साहब ने पूछा - 'सो व्हाट अबाउट बाफला सर ?' उइके साहब बोले - 'व्हाट अबाउट क्या, इस मिनिट के बाद से मेरे भोजन में, मेरे सामने ये एटम बम आ गए तो मैं तुम्हें बर्खास्त कर दूंगा ।' मुदलियार साहब ने कहा - 'डोण्ट वरी सर ! नाउ ड्यूरिंग योर दिस टूर, यू विल नॉट सी बाफला इन योर मील्स सर ।' उइके साहब ने पूछा - 'श्योर ?' खातरी दिलाते हुए मुदलियार साहब बोले - 'डेड श्योर सर । ऑफ्टर ऑल दिस इज क्वेश्चन ऑफ माई सर्विस सर ।' और कह कर, पीठ फेर कर, बमुश्किल अपनी हंसी रोकते हुए, अपनी जीप में जा बैठे ।
उसके बाद कैसे, क्या हुआ - ये सारी बातें बरसों तक मन्दसौर जिले में लोक कथाओं की तरह कही-सुनी जाती रहीं । उइके साहब के शेष जनसम्पर्क में उनके भोजन के लिए चांवल और केरी का पना स्थायी व्यंजन बने रहे । लेकिन बाफले तो मालवा का अविभाज्य, अपरिहार्य बल्कि मालवा को पूर्णता प्रदान करने वाला व्यंजन है, सो जनसम्पर्क के दौरान, कई गांवों में उइके साहब को बाफलों की मनुहार का सामना करना पडा । जैसे ही उनके सामने बाफला परोसने वाला आता, वे लगभग दुत्कारते हुए कहते - 'अरे ! हिश्ट । हटाओ इन बम के गोलों को मेरे सामने से ।' इसी बीच मुदलियार साहब तेजी से वहां पहुंचते, बाफला परोसने वाले को भगाते और हंसते हुए 'सॉरी सर ! सॉरी सर !!' कहते-कहते उइके साहब के सामने ही खडे हो जाते ताकि बाफला परोसने वाला कोई दूसरा आदमी वहां न आ जाए । उइके साहब भी मन्द-मन्द मुस्कुराते और कहते -'जाओ मुदलियार ! तुम भी खाना खा लो ।' मुदलियार साहब गम्भीरता ओढ कर कहते - 'नो सर ! ऑफ्टर ऑल इट इज क्वेश्चन ऑफ माई सर्विस । आई डोण्ट वाण्ट टू बी टर्मिनेटेड एण्ड देट इज टू जस्ट बिकाज ऑफ बाफलाज !'
और इस तरह, उइके साहब का शेष जनसम्पर्क दौरा बिना बाफला के, शान्तिपूर्वक सम्पन्न हो गया । अब आप ही तय कीजिए कि किसका भाग्य अच्छा था - बाफले का या कलेक्टर का ?