मुझे ही लड़नी होगी, अपनी यह लड़ाई

वे उम्र में मुझसे दो बरस बड़े, रेल्वे के सेवा निवृत्त कर्मचारी हैं। ‘तू-तड़ाक’ से ही बतियातेे हैं। मैं ‘आप’ से नीचे नहीं उतर पाया। बरसों का हमारा परिचय अनौपचारिकता में बदल गया किन्तु हम दोनों एक-दूसरे के घर नहीं गए। मैं अपने धन्धे के कारण दिन भर बाहर ही रहता हूँ। सो उनसे बाहर ही मिलना हो जाता है। वे सुबह कोई दस-साढ़े दस बजे तक भोजन कर घर से निकल जाते हैं। मिलनेवालों के घर, छापामार शैली में पहुँच कर चौंकाने में उन्हें मजा आता है। मैं पूछता हूँ-ऐसा क्यों करते हैं? जवाब मिलता है-अचानक पहुँचने से सामनेवाले को सम्हलने का मौका नहीं मिलता। उसकी असलियत मालूम हो जाती है। उनकी यह आदत मुझे अच्छी नहीं लगती। मेरा अच्छा न लगना और उनका अपनी आदत न बदलना, दोनों अपनी-अपनी जगह कायम हैं।

आज वे अकस्मात मेरे घर आ गए। मैं अपने घर में बने देवस्थान पर, ‘पाठ-मुद्रा’ में सुन्दरकाण्ड पढ़ कर उठ ही रहा था। मुझे इस तरह और देवस्थान देखकर वे चौंके। अत्यधिक असहजता से, तनिक मुश्किल से बोले-यह क्या? तुमने तो चारों धाम स्थापित कर रखे हैं! कोई जवाब दिए बिना मैं अगले कमरे में आ गया। मेरे पीछे-पीछे वे भी।
उनकी असहजता और चौंकना मुझे बहुत स्वाभाविक लगा। मैंने कहा-अब कहिए। तनिक कठिनाई से बोले-तुम तो पक्के धार्मिक हो! मैंने कहा-अब तक क्या मानते थे? बोले-बातें तो तुम हमेशा हिन्दू धर्म के विरोध की करते, लिखते हो। मैं बोला-अपने जानते तो मैंने ऐसा कभी नहीं किया। आपने ऐसा कैसे मान लिया? वे बोले-मैंने जब भी हिन्दू धर्म-रक्षा की और मुसलमानों, इसाइयों को मार भगाने की बात की तब तुमने हर बार विरोध किया! मैंने कहा-वो तो मैं अब भी करता हूँ और आगे भी करता रहूँगा। 

उन्हें हैरत हुई और चिढ़ भी। मैंने पूछा-आपकी उलझन, क्या है? तनिक झुंझलाकर बोले-तुम मेरी बात या तो समझ नहीं रहे या जानबूझकर समझना नहीं चाहते हो। मैंने कहा-तो आप खुल कर समझाते क्यों नहीं? वे बोले-तुम हिन्दू हो? मैंने कहा-हाँ। फिर पूछा-हिन्दू धर्म मानते हो। मैंने कहा-हाँ। वे उकता कर बोले-तो फिर हिन्दू धर्म का विरोध क्यों करते हो? दूसरेे धर्मों में जो कट्टरता, खराबियाँ हैं, उनका विरोध क्यों नहीं करते? मैंने कहा-मुझे तो अपने धर्म की ही इतनी चिन्ता बनी रहती है कि दूसरों के धर्म की ओर ध्यान देने की फुरसत ही नहीं मिलती। वे हैरत से बोले-क्या मतलब? मैंने कहा-सीधी बात है, मुझे दूसरों के धर्म से कोई लेना-देना नहीं। मेरा धर्म कहता है कि मैं अपने ही अन्दर झाँकूँ और अपनी आत्मा को निर्मल, निष्‍कलुष बनाऊँ। मैंने जितना भी देखा, पढ़ा, सुना और समझा उसका एक ही मतलब निकला कि मैं अपने धर्म से मतलब रखूँ, अपने धर्म का पालन करूँ, दूसरों के नहीं, अपने दोष देखूँ और आत्म परिष्कार करूँ। मैं शायद उनके मनमाफिक उत्तर नहीं दे रहा था। तनिक आवेश में बोले-तुम कैसे हिन्दू हो? घर में तो भजन-पूजन, सुन्दरकाण्ड पाठ करते हो और बाहर मुसलमानों का समर्थन! मैंने कहा-मैंने कब मुसलमानों का समर्थन किया? मैं तो धर्मोपदेश पर अमल करने की कोशिश करता हूँ। मेरा धर्म आत्म-प्रशंसा और पर-निन्दा का निषेध करता है। मैं तो सीधी बात कहने और सीधे रास्ते चलने की कोशिश करता हूँ। 

अब उनका धीरज छूटता लगा। बोले-तुम जैसे लोगों के कारण तो हिन्दू धर्म नष्ट हो जाएगा। हिन्दुओं के देश में हम हिन्दू ही अल्पसंख्यक हो जाएँगे। मुसलमान हम पर राज करेंगे। हमें गुलाम बना लेंगे। मेरी हँसी चल गई। बोला-कमाल करते हैं आप! ऐसे-कैसे नष्ट हो जाएगा? अपने धर्म की शक्ति पर आपको विश्वास हो-न-हो, मुझे तो है। आप ही तो कहते हैं कि अपना धर्म सनातन है! प्रलय तक रहेगा। और रही मुसलमानों की हम पर राज करने की बात तो हम मुगलों की गुलामी झेल चुके हैं लेकिन आज भी वैसे के वैसे ही बने हुए हैं। आप बेकार ही परेशान हो रहे हैं। अरे! जब मुगलों के राज में भी भारत को मुसलमान राष्ट्र नहीं बनाया जा सका तो अब क्या बनेगा? उनकी अधीरता बढ़ गई। तनिक तैश में बोले-और वो जो मुसलमानों के छोरे हमारी लड़कियों को भगा-भगा कर ले जाते हैं? उनसे शादी करने के नाम पर उन्हें मुसलमान बना देते हैं। वो? मेरी हँसी फिर चल गई। वे चिढ़ गए। उनकी चिढ़ की परवाह किए बिना मैंने कहा-ये तो राजी-बाजी के सौदे हैं भाई साहब! इन्हें धर्म से मत जोड़िए। अपनी सल्तनतें बचाने के लिए हमने तो अपनी बेटियाँ तश्तरी में रख कर मुगलों को परोसी हैं। देश के अनेक बड़े लोग अन्तरधर्मी विवाह किए बैठे हैं। धर्म का ठेका लेनेवालों की बहन-बेटियाँ मुसलमानों के घर की जीनत बनी हुई हैं तो अनेक मुसलमान महिलाएँ हिन्दुओं की वंश-बेल बढ़ा रही हैं। आपके ही एक पट्ठे की मुसलमान बीबी के बनाए पकौड़े मैंने आपके साथ खाए हैं। एक अन्तरधर्मी विवाह में मैं खुद ही एक मुसलमान लड़की का धर्म-पिता बना बैठा हूँ और बरसों से बेटी-दामाद को नेग चुकाए जा रहा हूँ। 

वे ‘निरुत्तर’ से आगे, ‘अवाक्’ की स्थिति में आ गए। थोड़ा सोच कर बोले-और वो जो धर्मान्तरण करवा रहे हैं! उसका क्या? क्या वो ऐसे ही चलने दें? मैंने कहा-किसीका जबरिया धर्मान्तरण केवल अपराध ही नहीं, आपने आप में अधार्मिक दुष्कृत्य है। धर्म प्रचार सब करें। किन्तु जबरिया धर्मान्तरण की अनुमति तो मैं नहीं देता। मैं ऐसा पाप कर्म न तो कभी करूँगा और नहीं उसमें कभी शरीक होऊँगा। वे प्रसन्न हो गए। बोले-वो तुमने रायगढ़वाले दिलीपसिंह जू देवजी का नाम तो सुना ही होगा। उन्होंने हिन्दू धर्म की बड़ी सेवा की। इसाइयों ने हजारों हिन्दुओं का धर्म बदल दिया। जूदेवजी ने ऐसे अनेक लोगों की हिन्दू धर्म में वापसी कराई। उसे तुम क्या कहोगे? मैंने कहा-यदि उन सबने दोनों ही बार अपनी इच्छा से धर्मान्तरण किया है तो किसी को भला कोई आपत्ति क्यों और कैसे हो सकती है? उनकी प्रसन्नता बढ़ गई। बोले-याने कि यह तो मानते हो कि धर्मान्तरण करवाया जा रहा है। मैंने कहा-हाँ। ऐसे छुटपुट समाचार, कभी सच्चे तो कभी झूठे आते रहते हैं। वे बोले-तो क्या चुप बैठे रहना चाहिए? मैंने कहा-बिलकुल नहीं। हमें चौबीसों घण्टे चौकन्ने और सक्रिय रहकर यह जानने की कोशिश करते रहना चाहिए कि आखिर वे क्या कारण हैं कि हमारे हिन्दू भाई दूसरे धर्म की शरण लेते हैं। जब वे कारण ही नहीं रहेंगे तो धर्मान्तरण अपने आप ही रुक जाएगा। 

वे फिर अवाक् मुद्रा में बैठ गए। मैंने कहा-भाई साहब! मैं आपको समझाऊँ तो छोटे मुँह बड़ी बात होगी। लेकिन अपने धर्म की रक्षा हम दूसरों के धर्म का विरोध कर, उसे घृणित बताकर, उसके खिलाफ नफरत फैलाकर कभी नहीं कर सकते। प्रत्येक व्यक्ति के लिए उसका धर्म उसकी जिम्मेदारी है। मैं अपनी इसी जिम्मेदारी को निभाने की कोशिश करता हूँ जिसे आप मेरा हिन्दू धर्म विरोध कहते हैं। मेरे धर्म को विकृतियों से बचाना मेरी जिम्मेदारी है। मेरे लिए मेरा धर्म दुनिया का सबसे सुन्दर धर्म है। इसका अर्थ यह नहीं कि मैं दूसरों के धर्म को असुन्दर या घिनौना साबित करूँ। मुझे हिन्दू और हिन्दू धर्म विरोधी माननेवाले आप जैसे लोग प्रचण्ड बहुमत में हैं और मैं अल्पसंख्यकों में अल्पसंख्यक। यह मेरी अपनी लड़ाई है जो मुझे ही लड़नी है। बोलना और लिखना ही मेरे हथियार हैं। मैं इन्हीं का उपयोग कर सकता हूँ। सो कर रहा हूँ और आगे भी करता रहूँगा।

उन्होंने दोनों हाथों से अपना माथा थाम लिया। विचारमग्न हो गए। मैंने चाय की मनुहार की। बोले-अब तो पीनी ही पड़ेगी। तुमने कुनैन जो दे दी है। 
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(शीर्षक, कुमार अम्बुज की एक कविता पंक्ति है।)

नहीं किया लेकिन कर दिया

अपनी ‘व्यवस्था’ (याने कि सरकारी तन्त्र) की माया सचमुच में अपरम्परापार है। कभी कहो तो भी काम न हो और कभी न करने की कह कर भी काम कर दे।

कोई तीस बरस हो गए होंगे इस बात को। श्री गोपाल कृष्ण सारस्वत हमारे रतलाम जिले के अतिरिक्त जिला दण्डाधिकारी (एडीएम) थे। वे मेरे पैतृक गाँव मनासा से बारह-तेरह किलो मीटर दूर स्थित ग्राम कुकड़ेश्वर के दामाद थे। मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्य मन्त्री सुन्दरलालजी पटवा का पैतृक गाँव कुकड़ेश्वर ही है। सारस्वतजी के ससुर सूरजमलजी जोशीजी मनासा में भारतीय जीवन बीमा निगम के विकास अधिकारी के पद पर पदस्थ थे। प्रायः रोज का मिलना-जुलना। यह वह जमाना था जब एक का जमाई, पूरे गाँव का जमाई। सो, मैं भी सारस्वतजी को जमाईजी या कुँवर सा’ कह कर ही सम्बोधित करता था। वे भी मुझे उतना ही मान देते थे।

इस यादगार घटना के समय विधान सभा के चुनावों की प्रक्रिया शुरु हो चुकी थी। सारस्वतजी पूरे जिले के प्रभारी थे। अचानक एक सुबह जावरा रेल्वे स्टेशन के सहायक स्टेशन मास्टर खान सा‘ब आए। उनकी बिटिया अध्यापक थी और चुनावों में उसकी ड्यूटी लग चुकी थी। खान साहब मेरे ‘ज्यामितीय मित्र’ थे - मेरे मित्रों के मित्र। उन्होंने अत्यन्त विनीत भाव से कहा कि मैं उनकी बेटी की यह ड्यूटी निरस्त करवा दूँ। चुनावों को मैं ‘राष्ट्रीय त्यौहार’ और उसकी ड्यूटी को ‘राष्ट्रीय कर्तव्य’ मानता हूँ। सो, मैंने हाथ जोड़ते हुए, तनिक अधिक विनीत भाव से खान सा’ब से क्षमा याचना कर ली। मैंने कहा कि उसे ड्यूटी करनी चाहिए। आखिर हर्ज ही क्या है? खान सा’ब ने कहा-’मैं भी आपकी बात से इत्तफाक रखता हूँ लेकिन ऐन मतदान के दिन बिटिया का निकाह तय हो गया है।’ मैंने अपना आग्रह तत्क्षण त्याग दिया और वादा कर दिया - ‘तब तो ड्यूटी निरस्त करवानी ही पड़ेगी। आप बेफिक्र होकर जाएँ। निकाह की तैयारियाँ करे। बिटिया की ड्यूटी निरस्त हो ही गई समझिए।’ 

खान साहब को भेज कर मैं फौरन ही ‘जमाईजी’ के पास पहुँचा। खान सा’ब की बिटिया की ड्यूटी वाला आदेश उनके सामने रखा और कहा - ‘यह ड्यूटी निरस्त कर दीजिए।’ सारस्वतजी ने कागज देखे बिना ही, विनम्रता से कहा - ‘नहीं करूँगा।’ मैं आसमान से जमीन पर गिरा - धड़ाम। मैं बार-बार सारस्वतजी को कहूँ, समझाऊँ और वे हैं कि मानने, सुनने, समझने को तैयार ही नहीं। थोड़ी देर तो मैं परिहास ही मानता रहा लेकिन खुशफहमी टूटी तो मुझे गुस्सा आ गया। मैंने तमक कर कहा-‘मैं तो आपको एडीएम सा'ब, एडीएम सा'ब, जमाईजी, जमाईजी किए जा रहा हूँ और आप हैं कि भाव ही नहीं दे रहे। मत करो ड्यूटी केंसिल। बच्ची ड्यूटी पर नहीं जाएगी। क्या कर लोगे आप?’ सारस्वतजी ने पूरे शान्त भाव से मुस्कुराते हुए जवाब दिया - ‘कुछ नहीं करेंगे। मत भेजिए अपनी बच्ची को।’ 

मैं एक बार फिर आसमान से जमीन पर गिरा। इस बार चारों कोने चित। मैं अचकचा गया। बोल नहीं फूटे मेरे मुँह से। बौड़म की तरह उनको देखते हुए तनिक मुश्किल से बोला - ‘क्या मतलब आपका?’ इस बार मुस्कुराहट से आगे बढ़ कर सारस्वतजी तनिक हँस कर बोले - ‘मेरे कहने का मतलब यह कि रखिए अपनी बच्ची को अपने पास। मत भेजिए चुनावी ड्यूटी पर।’ सारस्वतजी ने बात तो मेरे मन की कही किन्तु मुझे विश्वास नहीं हुआ। भला ड्यूटी केंसिल हुए बिना बच्ची गैर हाजिर रही तो उसकी  नौकरी पर नहीं बन आएगी? मेरी शकल यकीनन, देखने लायक हो गई होगी। 

मेरी दशा देख सारस्वतजी इस बार खुल कर हँसे। बोले - ‘आप क्या समझते हैं कि एक मास्टरनी के दम पर चुनाव हो रहे हैं। अरे! हमने स्पेशल पोलिंग पार्टियाँ बना रखी हैं। कोई ड्यूटी पर नहीं आएगा तो क्या चुनाव का काम रुक जाएगा? अरे! भाई सा’ब। किसी न किसी को भेज दिया जाएगा।’ मैंने घुटी-घुटी आवाज में कहा - ‘लेकिन उसकी नौकरी?’ सारस्वतजी इस बार ठहाका मार कर हँसे। बोले - ‘कुछ नहीं होगा उसकी नौकरी को। आपने पूछा था न कि हम क्या कर लेंगे? तो सुनिए! हम उसे एक कारण शो-काज नोटिस जारी कर स्पष्टीकरण माँग लेंगे। वो जवाब दे देगी कि उस दिन उसका निकाह था इसलिए ड्यूटी पर नहीं आ पाई। कागज फाइल में लग जाएगा। बस। बात खतम।’ 

सब कुछ मेरे मन का हो रहा था किन्तु जिस अन्दाज में हो रहा उससे मेरी धुकधुकी बन्द नहीं हो रही थी। सारस्वतजी ने दिलासा देते हुए कहा - ‘भाई सा’ब! आप तो जेन्युइन केस लेकर आए हो। लेकिन यदि मैंने यह एक ड्यूटी केंसिल कर दी तो मेरे दफ्तर के बाहर लाइन लग जाएगी और अपात्रों की लॉटरी लग जाएगी। इसलिए आप तो  बेटी के बाप से कहिए कि ड्यूटी-व्यूटी को भूल जाए और बेटी के हाथ पीले करे।’

सारस्वतजी के कमरे से बाहर आते हुए मैं तय नहीं कर पा रहा था कि सारस्वतजी को धन्यवाद दूँ या उन पर गुस्सा करूँ? उन्होंने मेरा कहा तो माना नहीं लेकिन मेरा काम कर दिया था।
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नफा एक पैसे का, हानि एक रुपये की




इन्दौर से प्रकाशित सान्ध्य दैनिक ‘प्रभात किरण’ के 14 मई के अंक में प्रकाशित इस समाचार को फेस बुक पर साझा करते हुए मैंने लिखा था कि यदि इस समाचार का हजारवाँ हिस्सा भी सच हो तो यह बड़ी निश्चिन्तता की बात है। राजनीति के ऐसे उपयोग ने मुझ ठेठ भीतर तक असहज और व्याकुल कर दिया था। इसे पढ़ते-पढ़ते मुझे कुछ बातें याद आ गईं।


पहली बात राजीव गाँधी के प्रधान मन्त्री काल की है। अटलजी की तबीयत खराब थी। बीमारी ऐसी थी कि उनका उपचार अमेरीका में ही हो सकता था और बीमार अटलजी की स्थिति ऐसी नहीं थी कि वे इसके लिए आवश्यक संसाधन जुटा सकें। राजीव गाँधी को यह बात मालूम हुई तो उन्होंने अटलजी को बुला कर सूचित किया कि वे (राजीव गाँधी) सरकारी स्तर पर अटलजी की अमरीका यात्रा की व्यवस्था कर रहे हैं। उन्होंने अटलजी से आग्रह किया कि वे (अटलजी) अमरीका जाएँ, निश्चिन्तिता से अपना इलाज करवाएँ और पूर्ण स्वस्थ होने के बाद ही लौटें क्योंकि अटलजी का स्वस्थ बने रहना देश के लिए जरूरी है। राजीवजी के अवचेतन में निश्चय ही यह बात रही होगी कि अटलजी इसे कहीं उन्हें बदनाम करने के लिए, उनके विरुद्ध कोई राजनीतिक षड़यन्त्र न समझें। अटलजी ने अत्यन्त भावुक होकर अपनी स्वीकृती दी। यह बात राजीव गाँधी ने कभी सार्वजनिक नहीं की। दुनिया को बताया तो खुद अटलजी ने ही बताया। 

दूसरी बात सम्भवतः पी. वी. नरसिंहराव के प्रधान मन्त्री काल की है। संयुक्त राष्ट्र संघ में कश्मीर मामले में भारत का पक्ष प्रस्तुत किया जाना था। नरसिंह राव, लगभग सात भाषाओं के ज्ञाता विद्वान व्यक्ति थे। किन्तु इस अत्यन्त महत्वपूर्ण और गम्भीर मामले में उन्होंने पहले ही क्षण अटल बिहारी वाजपेयी को चुना। अटलजी ने तनिक हिचकिचाहट जताई किन्तु नरसिंह राव अपने आग्रह पर बने रहे। सारी दुनिया ने देखा कि अटलजी ने नरसिंह राव को निराश नहीं किया। उन्होंने अपना काम खूब किया और बखूबी किया। किन्तु अटलजी ने इस बात का राजनीतिक लाभ कभी नहीं लिया। और तो और चुनावी अभियान में भी उन्होंने इसका जिक्र नहीं किया जबकि इस बात से अटलजी को और भाजपा को पर्याप्त ‘वोट-लाभ’ मिल सकता था। इस बात का जिक्र या तो किसी के पूछने पर किया या फिर तब, जब ऐसा करना अपरिहार्य हुआ।

इन दोनों मामलों में सम्बन्धित लोगों ने श्रेष्ठ आचरण करते हुए, ‘राजनीति’ (और विशेषतः ‘वोट की राजनीति’) को परे धकेलकर ‘देश’ की चिन्ता की थी।

किन्तु लगता है, नदियों में बहते पानी की गहराई भी कम होती जा रही है। ‘देश’ और ‘श्रेष्ठ आचरण’ या तो ओझल हो गए हैं या फिर उनकी अनदेखी की जाने लगी है। ‘लोकलाज’ का भय समाप्त हो गया लगता है। यह स्थिति किसी के भी लिए अच्छी नहीं है-न व्यक्ति के लिए, न समाज के लिए, न देश के लिए और राजनीतिक दलों के लिए तो बिलकुल ही नहीं। क्योंकि ऐसा आचरण सदैव ‘बुमरेंग’ की तरह होता है। दुष्कर्म के फल आज नहीं तो कल, भुगतने पड़ते ही हैं।

मेरी सुनिश्चित धारणा है कि वर्ण/जाति व्यवस्था हमारी प्रगति में सबसे बड़ी बाधा और समस्या है। यह हमारी असफलता ही है कि आजादी के लगभग सत्तर वर्ष बाद भी इससे मुक्ति नहीं पा सके हैं। मुक्ति पाना तो दूर, इसे कम भी नहीं कर पा रहे हैं। दुर्भाग्यपूण यह कि इसे दूर करने के बजाय हम इसे दिन-प्रति-दिन बढ़ाते ही जा रहे हैं। जाति आधारित आरक्षण के विरोध में पूरे देश में चल रहा अघोषित अभियान इस बात का परिचायक है। इस आरक्षण को इस तरह प्रचारित और प्रस्तुत किया जा रहा है मानो देश ने, दलितों, शोषितों को उपकार भाव से यह दिया है। जबकि हम सब (इसका विरोध करनेवाले भी) भली प्रकार जानते हैं कि यह और कुछ नहीं, हजारों बरस से की जा रही हमारी क्रिया की सम्वैधानिक प्रतिक्रिया ही है। यह सचमुच में आश्चर्यजनक है कि हजारों बरसों तक, पीढ़ियों-पीढ़ियों को अधिकार से वंचित करनेवाले हम, अब अपने इन्हीं लोगों को मिल रहे अधिकार के कारण खुद को वंचित अनुभव कर क्रन्दन कर रहे हैं। हजारों बरस की क्षतिपूर्ति गिनती के कुछ बरसों में ही कर दी गई मानने लगे हैं। यदि हमें अपनी इस ‘स्वअर्जित/स्वघोषित दुर्दशा’ से मुक्ति पानी है तो उपचार हमें ही करने होंगे। यह उपचार करने से जब ‘लोक’ आँखें चुराने लगता है तो ‘राज्य’ को यह जिम्मेदारी निभानी पड़ती है। हम भाग्यशाली हैं कि हमारे सम्विधान ने यह जिम्मेदारी राज्य को सौंपी। मेरी दृढ़ धारणा है कि ‘समरसता स्नान’ (जिसे अब ‘कथित समरसता स्नान’ कहना पड़ेगा) की अवधारण के सार्वजनिक प्रकटीकरण और क्रियान्‍वयन ने दलितों, वंचितों, शोषितों को सामाजिक स्तर पर अलग होने का अहसास कराया और ‘अतिरिक्त, अघोषित फलित’ के रूप में, नफरत भरे अभियान को बढ़ावा ही दिया।   

‘राज्य’ अशरीर है। संसदीय लोकतन्त्र में वह निर्वाचित जनप्रतिनिधियों द्वारा चयनित व्यक्ति (या व्यक्तियों) के जरिए ही बोलता है। यही व्यक्ति हमारा मुखिया होता है। निश्चय ही वह किसी एक राजनीतिक दल से चुनकर आता है किन्तु वह केवल अपने दल (और अपने दल के समर्थकों) का ही मुखिया नहीं होता। समूचे राज्य का होता है। उन लोगों का भी, जो उसे पसन्द नहीं करते और जो उसमें विश्वास नहीं करते। और मुखिया का आचरण कैसा होना चाहिए - यह किसी को बताने की जरूरत नहीं। तुलसीदासजी दो पंक्तियों में मुखिया का व्यक्तित्व, चरित्र और कर्तव्याधारित आचरण बता गए हैं -

मुखिया मुख सो चाहिए, खान-पान में एक।
पाले, पोसे सकल जग, तुलसी सहित विवेक।।

ऐसे में जब कोई मुखिया या उसके प्रभावी संगी-साथी, सत्ता या वोट की खातिर इस ‘मुखियापन’ के सर्वथा प्रतिकूल आचरण करें तो किसी का कल्याण नहीं हो सकता। तब यह ‘एक पैसे के लाभ के लिए बरती गई ऐसी बुद्धिमानी होती है जो अन्ततः एक रुपये का नुकसान करने की मूर्खता’ ही होती है।

मुझे ‘समरसता स्नान’ ऐसा ही, ‘एक रुपये का नुकसान’ अनुभव हुआ। जाति आधारित आरक्षण के कारण परस्पर प्रेम और सौहार्द्र भाव पल-पल कम होता जा रहा है। नफरत खुल कर खेल रही है। खेदजनक यह है कि जिन पर इसे नियन्त्रित करने की जिम्मेदारी है, वे ही, अपने आचरण से इसे बढ़ावा देते नजर आ रहे हैं। वे कहते कुछ और हैं और कर रहे कुछ और। निश्चय ही ‘सत्ता’ महत्वपूर्ण है। किन्तु किस कीमत पर? नफरत के साथ कोई कैसे और कब तक जी सकता है? 

इसमें सुखद बात यह रही कि कुछ साधु-सन्तों-महन्तों ने इस समरसता स्नान पर असहमति और आपत्ति जताई जिससे विवश होकर इसका नया नाकरण करना पड़ा। किन्तु तब तक, जो नुकसान होना था, वह हो चुका था। उधर ‘सीकरी’ के मोह से बच पाना ‘सन्तन’ के लिए भी असम्भव नहीं तो दुसाध्य तो होता ही है। ऐसा ही हुआ भी। नए नामकरण के बहाने वे इसमें शामिल हुए। लेकिन ‘सीकरी’ अपना चरित्र नहीं बदलती। समूचा उपक्रम पूरा होने पर इन साधुओं-सन्तों-महन्तों ने खुद को ठगा हुआ और अपमानित अनुभव किया। अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद् के अध्यक्ष नरेन्द्र गिरिजी तो इतने व्यथित हुए कि उन्होंने अपने आचरण के लिए उन तमाम साधुओं-सन्तों से माफी माँगी जो उनके (नरेन्द्र गिरिजी के) कहने पर इस उपक्रम में शरीक हुए थे। आश्चर्य इस बात का है कि वे, सन्त कुम्भनदास के ‘सन्तन को कहाँ, सीकरी से काम/आवत-जात पन्हैयाँ टूटीं, बिसर गयो हरि नाम’ वाली बात कैसे भूल गए!

सामाजिक विभेद दूर करना, सबकी समान रूप से देख-भाल और रक्षा करना ‘राज्य’ की जिम्मेदारी है। इसमें मुखिया की विफलता, पूरे देश की विफलता होती है। ‘सब सम्पन्न रहें’ के प्रयत्नों में आर्थिक संसाधनों की आवश्यकता हो सकती है। किन्तु ‘सब प्रेमपूर्वक, परस्पर निर्भय होकर रहें’ इसमें केवल सदाशयता भरे सदाचरण की ही आवश्यकता होती है। हमें याद रखना चाहिए कि अब हम ‘बाँटो और राज करो’ की नीति अपनानेवाले अंग्रेजों के दास नहीं हैं।

मैं अत्यधिक व्यथित भाव से कह रहा हूँ कि ‘समरसता स्नान’ की अवधारणा के सार्वजनिक प्रकटीकरण और क्रियान्‍वयन ने जाति/वर्ण व्यवस्था को प्रोत्साहित ही किया। इससे बचा जाना चाहिए था। ‘वोट’ यदि ‘देश’ से बड़ा हो जाएगा तो हम कहीं के नहीं रहेंगे।

हमें यदि जातिगत आरक्षण से मुक्ति पाना है तो उसकी एक ही शर्त होगी कि हम जाति/वर्णविहीन समाज बनाएँ। जातियों/वर्णों के आधार पर विभाजन करनेवाला कोई भी कदम हममें से किसी के भी लिए, कभी भी कल्याणकारी नहीं होगा।
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जल्दी याने जल्दी नहीं

यह आपबीती मुझे आज, 12 मई को मन्दसौर के एक ठेकेदार ने सुनाई।

मध्य प्रदेश सरकार ने अपना एक काम अपने एक उपक्रम से कराने का फैसला किया। याने कि सरकारी भाषा में उस उपक्रम को, ‘नोडल एजेन्सी’ बनाया।

काम कराने के लिए इस नोडल एजेन्सी ने दिसम्बर 2014 में निविदा निकाली। इस काम के अनुभवी, प्रदेश के कुछ ठेकेदारों ने अपने-अपने भाव प्रस्तुत किए। सबसे कम भाव होने के कारण मन्दसौर के इस ठेकेदार को ठेका मिला। शर्तों के मुताबिक इस ठेकेदार ने, निविदा की शर्तें पूरी करते हुए, जनवरी 2015 में 8,00,000/- रुपये अमानत राशि के रूप में जमा कराए। लेकिन उसके नाम पर कार्यादेश (वर्क आर्डर) जारी होता उसके पहले अचानक ही सरकार ने नोडल एजेन्सी बदल दी।

नई निविदा में किसी और ठेकेदार को काम मिल गया। मन्दसौर के इस ठेकेदार ने मार्च 2015 में, विधिवत आवेदन प्रस्तुत कर अपनी, अमानत की रकम माँगी।

ठेकेदार जानता था कि सरकार आसानी से रकम वापस नहीं करती। सो, आवेदन देकर प्रतीक्षा करने लगा। ‘सामान्य प्रतीक्षा अवधि’ निकल जाने पर ठेकेदार ने सम्बन्धित कार्यालय से फोन पर सम्पर्क किया। जवाब मिला-‘रकम जल्दी ही वापस कर रहे हैं।’ लेकिन इस ‘जल्दी’ को ‘बहुत जल्दी’ (शायद फोन पर जवाब देने के अगले ही क्षण) भुला दिया गया। ठेकेदार यह जानता था। सो, हर महीना-पन्द्रह दिन में फोन करता रहा। लेकिन पूरा एक साल बीत जाने के बाद भी वह ‘जल्दी’ किसी को याद नहीं आई। 

हारकर ठेकेदार ने मार्च 2016 में पंजीकृत पत्र भेज कर अपनी रकम माँगी। जवाब आया तो जरूर लेकिन कागज पर नहीं। फोन पर कहा गया कि (प्रक्रिया के अधीन) स्टाम्प पेपर पर रकम की अग्रिम पावती (एडवांस रसीद) भेजें। ठेकेदार ने अगले ही दिन अग्रिम पावती भेज दी। लेकिन भरपूर समय निकल जाने के बाद भी कोई खबर नहीं मिली। ठेकेदार ने फोन किया। जवाब मिला - ‘पावती तो मिल गई किन्तु वह एक सौ रुपयों के स्टाम्प पेपर पर होनी थी।’ ठेकेदार ने याद दिलाया कि निविदा के समय पचास रुपयों के स्टाम्प पेपर पर ही पावती दी जाती थी। जवाब मिला - ‘तब की बात तब गई। आज की बात करो।’ अप्रेल 2016 में ठेकेदार ने एक सौ रुपयों के स्टाम्प पेपर पर पावती भेज दी।

लेकिन कोई महीना भर बाद भी न तो रकम मिली और न ही कोई खबर तो ठेकेदार ने आज फोन किया। जवाब मिला - ‘बहुत जल्दी पड़ी है आपको! चलो! खुश हो जाओ। आपको रकम लौटाने के आदेश पर आज साहब के दस्तखत हो गए हैं। जल्दी ही आपको आपकी रकम मिल जाएगी।’

जवाब में यह ‘जल्दी’ सुनकर खुश होने के बजाय ठेकेदार चिन्तित हो गया है। इस कार्यालय का, उसका अनुभव कह रहा है - ‘जल्दी’ का मतलब है, कम से कम एक साल बाद।
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लोकतन्त्र और शैक्षणिक योग्यता

एक हुआ करते थे तामोटजी। पूरा नाम गुलाब चन्द तामोट। खाँटी समाजवादी थे। सरकार में रहकर समाजवादी व्यवस्था लाने के लक्ष्य से, जब देश के समाजवादियों के एक बड़े धड़े ने काँग्रेस प्रवेश किया, उसी दौर में तामोटजी काँग्रेस में शामिल हुए थे। काँग्रेस में आए जरूर थे लेकिन उनका ‘चाल-चरित्र-चेहरा’ बराबर समाजवादी ही बना रहा। द्वारिकाप्रसादजी मिश्र ने उन्हें केबिनेट मन्त्री का दर्जा देकर अपनेे मन्त्रि मण्डल में शामिल किया था। वे चौथी कक्षा तक ही पढ़े थे। अपनी यह ‘शैक्षणिक योग्यता’ वे भरी सभा में खुलकर बताते थे और परिहास करते हुए, लोगों से कहते थे - ‘अपने बच्चे को अफसर-बाबू बनाना हो तो खूब पढ़ाओ और मन्त्री बनाना हो तो चौथी से आगे मत पढ़ाओ।’ किन्तु अपने अल्प शिक्षित होने को लेकर क्षणांश को भी हीनता-बोध से प्रभावित नहीं रहे। प्रशासकीय कौशल, चीजों को समझने और अपनी जिम्मेदारियों को क्षमतापूर्वक तथा सफलतापूर्वक निभाने में तामोटजी की यह ‘अल्प शिक्षा’ कभी बाधक नहीं हुई। वे आजीवन एक लोकप्रिय और कामयाब जन नेता के रूप में ही पहचाने गए।

मेरे पैतृक कस्बे मनासा में, हमारे मोहल्ले में एक थे - मोड़ीराम पुरबिया। वे हम सब के ‘मोड़ू काका’ थे। मेरे पिताजी के परम मित्र थे। दिन में कम से कम दो बार मेरे पिताजी से मिलना उनकी दिनचर्या का हिस्सा था। यदि वे नहीं आते तो दो में से कोई एक ही कारण होता - या तो मनासा से बाहर हैं या फिर बीमार। हमारे ये ‘मोड़ू काका’ निरक्षर थे। अंगूठा छाप। कभी स्कूल की ओर मुँह नहीं किया। किन्तु बुद्धि, ज्ञान, प्रतिभा, दूरदर्शिता और ‘नीर-क्षीर विवेक’ के मानवाकार थे। अनुभवी और इतने परिपक्व कि सतह से नीचे की चीजों को पहली ही नजर में भाँप लेते। अपनी जाति की पंचायत में तो सदैव अग्रणी रहे ही, अपनी इसी ‘नीर-क्षीर विवेक’ छवि के कारण गैर जाति की पंचायतों में भी आदर पाते थे। उन्होंने अपनी निरक्षरता को कभी नहीं छुपाया और न ही इस कारण कभी खुद को कमतर माना।

भारतीय जीवन बीमा निगम में एक अधिकारी हैं - राकेश कुमारजी। दो-एक बरस पहले तक भोपाल (क्षेत्रीय प्रबन्धक) कार्यालय में) क्षेत्रीय विपणन प्रबन्धक (रीजनल मार्केटिंग मैनेजर) थे। अब तक क्षेत्रीय प्रबन्धक (झोनल मैनेजर) या तो बन चुके होंगे या बनने के रास्ते में होंगे। भोपाल से दिल्ली स्थानान्तरित हुए तो उन्होंने अपने अधूरे कामों को पूरा करने के क्रम में सबसे पहले एमबीए किया। यह उपाधि प्राप्त करते समय वे अपनी आयु के 52वें वर्ष में थे। इस उपाधि के न होने से उनकी नौकरी में कोई बाधा नहीं थी और यह उपाधि प्राप्त करने के बाद न ही उनकी पदोन्नति में कोई सहायता मिलेगी। उनकी नौकरी जैसी चलनी है, चलती रहेगी। ये ही तर्क देकर मैंने उनसे (नौकरी के सन्दर्भ में) पूछा कि इस उम्र में अब इसकी क्या जरूरत थी? उन्होंने कहा कि नौकरी के लिए नहीं, खुद को समृद्ध करने के लिए उन्होंने यह किया।

मैं द्वितीय श्रेणी में कला स्नातक हूँ और मेरी उत्तमार्द्ध प्रथम श्रेणी में स्नातकोत्तर उपाधिधारी हैं। किन्तु शैक्षणिक योग्यताओं के इस अन्तर ने हमारे जीवन में क्षणांश को भी (जी। सचमुच में क्षणांश को भी) हस्तक्षेप नहीं किया। मुझसे अधिक शिक्षित मेरी उत्तमार्द्ध, हमारे विवाह के पहले दिन से लेकर इस क्षण तक मुझे दुनिया का सबसे शानदार, सबसे सुन्दर, सबसे अधिक स्मार्ट आदमी मानती हैं और आदर्श भारतीय गृहिणी की ‘पहले आप’ की परम्परा का निर्वाह किए जा रही हैं। हाँ! इसी परम्परा निर्वहन के अधीन वे मुझे दुनिया का सबसे नासमझ और गैर जिम्मेदार आदमी भी मानती हैं और ‘ये तो मैं हूँ जो निभा रही हूँ। कोई और होती अब तक, कभी का छोड़ कर चली जाती।’ वाला, समस्त भारतीय गृहिणियों का स्थायी सम्वाद, अपनी सुविधानुसार मुझे सुनाती रहती हैं। समझदारी और जिम्मेदारी वाले मामलों में मेरी बोलती बन्द हो जाती है किन्तु अपेक्षया कम शिक्षित होने के कारण हीनता बोध से कभी ग्रस्त नहीं हुआ और खुद को यथेष्ठ प्रगतिशील और पुरुष-नारी समता का नारा बुलन्द करते हुए अपने ‘पतिपन’ का उपयोग किए जा रहा हूँ। 

मेरे कस्बे रतलाम में एक डॉक्टर दम्पति हैं - डॉ. जयन्त सुभेदार और डॉ. पूर्णिमा सुभेदार। उम्र में मुझसे छोटे हैं किन्तु मुझ पर अत्यन्त कृपालु औ उदार। 21 नवम्बर 1987 को उन्होंने अपना दवाखाना शुरु किया। उद्घाटन हेतु प्रख्यात डॉक्टर (अब स्वर्गीय) डी. आर. सोनार (पूरा नाम दीनानाथ रामचन्द्र सोनार) आमन्त्रित थे। कार्यक्रम का संचालन मेरे जिम्मे था। मुझे बताया गया कि वे, बिड़लाजी (घनश्याम दासजी बिड़ला) के निजी चिकित्सक हैं। यह वह समय था जब देश में औद्योगिक घरानों की गिनती ‘टाटा-बिड़ला-डालमिया’ से शुरु होती और इन्हीं पर समाप्त हो जाती थी। कार्यक्रम समाप्ति के बाद भोजन के दौरान मैंने उनसे बिड़लाजी के निजी जीवन के बारे में जानना चाहा। उन्होंने कई बातें बताईं किन्तु एक बात ने मुझे रोमांचित किया। बिड़लाजी को अन्तरंग हलकों में ‘बाबू’ सम्बोधित किया जाता था। सोनारजी ने वह बात कुछ इस तरह सुनाई - गर्मी, सर्दी, बरसात, कोई भी मौसम हो, बाबू सोते समय अपने कमरे की खिड़कियाँ खोलकर रखते थे। यह उनकी सेहत के लिए नुकसानदायक हो सकता था। मैंने उन्हें, ऐसा न करने के लिए बार-बार कहा लेकिन उन्होंने हर बार मेरी बात अनसुनी कर दी। एक दिन मैं अपनी बात पर लगभग अड़ ही गया। बाबू बोले - ‘डॉक्टर तुम्हारी बात पहली ही बार मेरी समझ में आ गई थी। मैंने तुम्हारी बात पर कभी भी न तो हाँ किया न ना। लेकिन आज तुम जिद कर रहे हो तो सुनो। सारी दुनिया जानती है कि घनश्यामदास की पत्नी अब दुनिया में नहीं है। रात दो बजे मैं पेशाब करने उठूँ, बत्ती जलाऊँ तो सारी दुनिया देखती है कि रात दो बजे घनश्यामदास के कमरे की बत्ती जली। पचास सवाल खड़े हो जाएँगे। खिड़कियाँ खुली रखने से ऐसे सवाल पैदा ही नहीं हो सकते। 

प्रधान मन्त्री मोदी की शैक्षणिक योग्यता को लेकर देश-दुनिया के चाय के प्याले में आया तूफान चौंकाता है। इस देश ने एक ओर अनेक पढ़े-लिखे अज्ञानियों को स्वीकार कर, पदासीन किया और अपनी चूक समझ पड़ने पर प्रतीक्षा की और समय आने पर अपनी चूक का परिष्कार कर उनसे मुक्ति पाई तो दूसरी ओर अशिक्षित/अल्प शिक्षित गुणियों को माथे का मौर बनाया। उन्हें सराहा और अपने चयन को दुहराया। हम जिस लोकतन्त्र में जी रहे हैं उसमें सबका समावेश है। किसी को योग्यता के आधार पर पदांकन मिलता है तो कोई पदासीन होने के बाद अपनी योग्यता/अयोग्यता प्रमाणित करता है। पदासीन व्यक्ति की शैक्षणिक योग्यता  पर उसकी, लोकतन्त्र-संचालन की क्षमता, योग्यता और आचरण सदैव भारी पड़ता है। पद पर पद के योग्य आदमी है या अयोग्य को बैठा दिया है? बड़ी कुर्सी पर बड़ा आदमी बैठा है या बड़ी कुर्सी पर छोटा आदमी बैठ गया है? बड़े आदमी ने बड़ी कुर्सी पर बैठकर कुर्सी को छोटा तो नहीं कर दिया? बड़ी कुर्सी पर छोटा आदमी तो नहीं बैठ गया? बैठ गया तो कोई बात नहीं, कुर्सी को छोटा नहीं कर दिया?

हम सबकी इच्छा होती है कि सारी दुनिया हमें देखे और सम्भव हो तो केवल हमें ही देखे। किन्तु व्यक्ति जब शिखर पर होता है तो सारी दुनिया को नजर तो आता है, तब उसका एकान्त भी बढ़ता जाता है। शिखर पर जाना जितना मुश्किल होता है, वहाँ बने रहना उससे कम मुश्किल नहीं होता। प्राण दाँव पर लग जाते हैं क्योंकि प्राण-वायु (ऑक्सीजन) भी कम होने लगती है। शिखरस्थ होने पर आप चूँकि सारी दुनिया की नजरों में आते हैं तो इसकी कीमत भी चुकानी ही पड़ती है। तब आपका निजत्व समाप्त हो जाता है और आपकी हर बात, हर साँस, हर हरकत सार्वजनिक हो जाती है और यह तो हम सब जानते हैं कि सार्वजनिकता और पारदर्शिता एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। 

सिक्का बाजार में चलता रहे, इसके लिए दोनों पहलुओं का चमकदार बने रहना अनिवार्य शर्त होता है। मुझे लगता है, मोदी की शैक्षणिक योग्यता को लेकर मचा घमासान इन दोनों पहलुओं के चमकदार होने की सत्यता जानने की जिज्ञासा के सिवाय और कुछ नहीं है।
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(भोपाल से प्रकाशित दैनिक ‘सुबह सवेरे’ ने यह आलेख आज, 11 मई 2016 को अपने पाँचवें पृष्ठ पर छापा है।)