पिछड़े हुए लोग


लगभग 18 बरस पहले, चन्दूलालजी गर्ग ने माँगीलालजी यादव से, काटजू नगर में एक मकान खरीदा था । सौदा पक्का होते ही भुगतान भी कर दिया गया था और चन्दूलालजी अपने परिवार सहित उस मकान में रहने लगे थे । सारी बातें मुँह-जबानी रहीं । लिखा पढ़ी कुछ भी नहीं हुई । अभी-अभी, कोई सप्ताह भर पहले मकान की रजिस्ट्री कराने की बात आई। यादवजी तत्काल ही तैयार हो गए । इन अठारह बरसों में मकान की कीमत बीस-बाईस गुना हो चुकी थी । रजिस्ट्री के मध्यस्थ को जब पूरी बात मालूम पड़ी तो उसने यादवजी को ‘समझाइश' दी । जमाना देख चुके यादवजी को यह समझाइश पहली ही बार में समझ में आ गई ।

तयशुदा तारीख को, नियत समय पर यादवजी अपनी श्रीमतीजी सहित रजिस्ट्रार कार्यालय पहुँचे - मकान श्रीमती यादव के नाम पर था सो दस्तखत तो उनके ही होने थे । लिखा-पढ़ी और सील-ठप्पे लगने की प्रक्रिया शुरु हुई । बाबू ने दस्तखत लेने और अंगूठा-अंगुलियों के निशान लगवाना शुरु किया । मध्यस्थ हसरत भरी नजरों से लेवाल और बेचवाल को देख रहा था । उसकी हसरत पूरी नहीं हुई । रजिस्ट्रार ने पूछताछ की औपचारिकता पूरी की, दस्तखत किए, रसीद काटी, कार्रवाई पूरी हुई और दोनों पक्ष, निर्विकार भाव से, चुपचाप बाहर निकल आए ।

मध्यस्थ से नहीं रहा जा रहा था । वह कुछ पूछता उससे पहले मानो चमत्कार हो गया । चन्दूलालजी ने यह कहते हुए कि सौदा तो अठरही बरस पहले बहुत ही कम कीमत में हुआ था और रजिस्ट्री आज के भाव पर हुई है सो उन्हें (यादवजी को) ‘दीर्घावधि पूँजीगत प्राप्ति’ (लांग टर्म केपिटल गेन) का टैक्स लगेगा, दस हजार रुपये यादवजी के हाथों मे रख दिए । चन्दूलाजी इतने पर ही नहीं रुके । उन्होंने यादवजी से कहा कि यदि टैक्स की रकम ज्यादा हो तो निस्संकोच सूचित करें, अन्तर की रकम का भुगतान वे ही करेंगे ।

मध्यस्थ के लिए बोलने को अब कोई गुंजाइश बची ही नहीं थी । अब तक वह यादवजी को नादान समझ रहा था, अब चन्दूलालजी भी नादान साबित हो रहे थे । उसे समझ आ गई कि दोनों ही लोग ‘पिछड़े हुए’ हैं जो अपने हाथों अपना नुकसान किए जा रहे हैं ।

इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में रहते हुए, रातों-रात करोड़पति बनने को उतवाले, अगली ही छलांग में बाईसवीं सदी में पहुँचने को छटपटा रहे जिन लोगों को इस किस्से पर यकीन नहीं आ रहा हो, वे फौरन मुझसे सम्पर्क करें । इस घटना के सारे पात्र रतलाम में ही सशरीर जीवित हैं । मैं उनसे मिलवा दूँगा । लेकिन आने से पहले वे लोग अपने आप को, अपनी नजरों में शर्मिन्दा होने से बचाने की हिम्मत जुटा कर आएँ । ऐसे ‘पिछड़े लोग’ उनके मुकाबले, जिन्दगी के हर पहलू में समृध्दि और सम्पन्नता के मामले में चरम पर मिलेंगे ।

(मेरी यह पोस्‍ट, रतलाम से प्रकाशित हो रहे, साप्‍‍ताहिक 'उपग्रह' के, 26 जून 2008 के अंक में, 'बिना विचारे' शीर्षक स्‍तम्‍भ में प्रकाशित हुई है ।)

‘विस्फोट‘ बना अखबारों का नायक

हिन्दी चिट्ठाकारों को ‘लख-लख बधाइयां’ ।

हिन्दी ब्लाग अब तक तो समग्र रूप से अखबारों के स्तम्भ का विषय होते रहे हैं लेकिन कोई एक ब्लाग पहली बार पूरे स्तम्भ की विषय वस्तु बना है ।

हिन्दी का अग्रणी ब्लाग, ‘विस्फोट‘ आज ‘दैनिक भास्कर’ के मालवांचल के संस्करणों में और रतलाम से प्रकाशित ‘साप्ताहिक उपग्रह’ में अत्यधिक प्रमुखता से, नायक की तरह प्रस्तुत हुआ है । ‘भास्कर’ ने अपने साप्ताहिक साहित्यिक परिशिष्ट ‘दस्तक’ का ‘ब्लाग यायावरी’ स्तम्भ पूरी तरह ‘विस्फोट’ को समर्पित किया है । इसका शीर्षक है - ‘खबरों को उजागर करने की आम सहमति’ और एण्ट्रो है - ‘विस्फोट’ एक वेब साइट है और यहीं पर ब्लाग ‘बारूद’ (विस्फोट) मौजूद है । यहां वे खबरं भी मिलेंगी जो आम जिन्दगी से जुड़ी हैं लेकिन जो मुखर नहीं हो पातीं ।

स्तम्भकार सन्दीप राय की टिप्पणी ‘विस्फोट’ के लिए अत्यधिक सम्मानजनक और महत्वपूर्ण है । उन्होंने लिखा है - तमाम न्यूज पोर्टलों की बनिस्बत ‘विस्फोट’ डाट काम को देखने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुचना बहुत मुि‍श्कल नहीं लगता कि वहां बाजार हावी है यहां विचार । वहां बाजार का अनुशासन हावी है यहां सरोकार और नैतिकता का अनुशासन है । वहां जिन खबरों पर सेंसर है यहां उन पर बहस का माहौल है । ‘विस्फोट’ के फोरम पर ऐसे अनछुए मुद्दों पर भी बहस मौजूद है जो समाज के एक तबके को खासा प्रभावित कर रहे हैं ।

कुल मिलाकर यह कहना मुनासिब होगा कि हिन्दी ब्लागिंग में नैतिक अनुशासन को जो मुद्दा कभी आलोचक-कवि मंगलेश डबराल ने उठाया था, ‘विस्फोट’ पर संकलित सामग्री उसका जवाब है ।

इसी प्रकार रतलाम से प्रकाशित हो रहे ‘साप्ताहिक उपग्रह’ ने भी विस्फोट’ और इसके कर्ता-धर्ता श्री संजय तिवारी को प्रमुखता से प्रस्तुत किया है ।’

‘उपग्रह’ का समाचार शब्दश: इस प्रकार है -

यह श्रेय ‘विस्फोट’ और संजय तिवारी को जाता है (मुख्य शीर्षक)

मामला बाल फिल्मी कलाकारों को बाल श्रमिक मानने और ‘वेब पत्रकारिता’ शुरु होने का (उप शीर्षक)

फिल्मी बाल कलाकारों को बाल श्रमिक क्यों नहीं माना जाए - यह सवाल पूछ कर भले ही केन्द्रीय महिला और बाल विकास मन्त्री रेणुका चैधरी सुर्खियों में आ गई हो लेकिन इसका श्रेय, संजय तिवारी के हिन्दी ब्लाग ‘विस्फोट’ को जाता है । ‘विस्फोट’ ने अपने 3 मार्च 2008 वाले अंक में सबसे पहले यह सवाल उठाया था । उल्लेखनीय बात यह है कि इस मामले में रेणुका चैधरी का, मीडिया को दिए गए वक्तव्य की शब्दावली लगभग वही की वही थी जो ‘विस्फोट’ की थी ।‘विस्फोट’ की इस सफलता के साथ ही हिन्दी पत्रकारिता की नई विधा ‘वेब पत्रकारिता’ का भी शुभारम्भ हुआ है जिसका समूचा श्रेय संजय तिवारी के खाते में जाता है । वे दिल्ली में मुक्त पत्रकार हैं और सम सामयिक मुद्दों पर उनकी सीधी और सधी हुई टिप्पणियाँ सदैव विचारोत्तेजक बहस शुरु करती हैं । ‘विस्फोट’ पर की गई संजय तिवारी की टिप्पणियाँ ‘उपग्रह’ के पाठक प्रायः ही पढ़ते रहते हैं ।

इतिहास में दर्ज की जाने वाली इन उपलब्धियों के लिए, अपने तमाम पाठकों सहित ‘उपग्रह’ की ओर से श्री तिवारी और उनके हिन्दी ब्लाग ‘विस्फोट’ को हार्दिक बधाइयाँ ।

आज शाम मैं अपने ब्‍लाग गुरू श्री रवि रतलामी के निवास पर जाकर जश्‍न मनाउंगा ।


ओल्ड होम का पता दीजिए


अन्ततः वह हो ही गया जिसके लिए मैं सवेरे से ही आशंकित था और जिसके न होने के लिए मैं ईश्वर से प्रार्थना कर रहा था ।

आज ‘फादर्स डे’ है और मैं अब तक अपने आप को ऐसे किसी भी ‘डे’ के लिए ढाल नहीं पाया हूँ । ऐसे उपक्रमों को मैं बहुरा’ट्रीय कम्पनियों का षड़यन्त्र मानता हूँ । ऐसे ‘डे’ को और कुछ भी नहीं होता, सिर्फ बड़ी कम्पनियों के ग्रीटिंग कार्डों की बिक्री खूब हो जाती है । मेरे पिताजी की मृत्य 1992 में हुई और माँ की मृत्य उनसे लगभग तीन साल पहले 1989 में । लेकिन माँ आज भी मेरी नसों में बह रही है और पिता आज भी मेरे साथ बने हुए हैं ।

लेकिन मेरे दोनों बेटे ‘आज के जमाने’ के हैं । यह मेरी ही असफलता है कि मैं उन्हें वह सब नहीं समझा पाया जो उन्हें समझाया जाना था ।

सो, सबसे पहले बहू ने फोन पर मुझे ‘फादर्स डे’ पर ‘ग्रीट’ किया और फोन अपने पति, याने मेरे बेटे को थमा दिया । मेरे बेटे ने भी पूर्व निर्धारित, शुष्क शब्दावली में मुझे ‘ग्रीट’ किया । मैं ने भी धन्यवाद कहने की रस्म अदायगी की । इस सबमें, एक मिनिट भी नहीं लगा और ‘फादर्स डे’ मन गया ।

थोड़ी देर बाद छोटे बेटे का फोन भी आ गया । पहले तो उसने देर से फोन करने के लिए ‘सारी’ कहा और फिर ‘ग्रीट’ किया - फादर्स डे पर आपको बधाई । मैं ने उसे भी धन्यवाद दिया । इसमें भी एक मिनिट के भीतर ही काम पूरा हो गया ।

मुझे लग रहा है कि मैं अभी भी अपने ही समय में ठहरा हुआ हूँ । ‘आज‘ में अब तक नहीं पहुँच पाया हूँ । कहूँ कि मैं अभी तक ‘भारत’ में ही पड़ा हुआ हूँ और मेरे बेटे ‘इण्डिया’ में पहुँच गए हैं ।

इस पूरे घटनाक्रम की पहली प्रतिक्रिया मुझ पर जो हुई कि मुझे एक ठीक-ठीक ‘ओल्ड होम’ की तलाश अभी से कर लेनी चाहिए ।

अपना आखिरी समय मुझे शायद वहीं गुजारना पड़ेगा ।

मुम्बई में जावरा का ओटला

मुम्बई में आवास समस्या की विकरालता जताने-बताने के लिए बरसों से कहावत सुनता आ रहा हूँ - मुम्बई में खाने को रोटला मिल जाता है पर सोने को ओटला नहीं मिलता । देश के बाकी हिस्सों का तो पता नहीं लेकिन मालवा के गाँव-गाँव में यह कहावत सुनने को मिलती है ।

लेकिन यहाँ बात मुम्बई के ओटले की नहीं, जावरा के ओटले की है । ‘पाँखी की छुट्टियाँ’ शीर्षक वाली मेरी पोस्ट (12 जून 2008) में मालवी का एक शब्द ‘खेंच’ पढ़कर, मुम्बई में रह रहे नितिन भाई ने 12 जून की रात को ही मुझे एक कविता ई-मेल की ।

नितिन भाई याने श्री नितिन वैद्य । मुम्बई में दादा भाई नौरोजी मार्ग स्थित भारतीय जीवन बीमा निगम की शाखा के शाखा प्रबन्धक । उम्र 42 वर्ष । याने मेरे छोटे भतीजे गोर्की से भी छोटे । उन्हींने मुझे सन् 1991 में भाजीबीनि की एजेंसी दी । तब नितिन भाई विकास अधिकारी हुआ करते थे और नए बीमा एजेण्ट बनाना उनकी नौकरी का एक मात्र काम हुआ करता था । वे मेरी विपन्नता के चरम दिन थे । मैं एक बार फिर भिक्षा वृत्ति की कगार पर खड़ा था । ऐसे में इस एजेंसी ने वह सब कुछ और इतना कुछ दिया कि मैं अशिष्टता बरतने का मूर्खतापूर्ण दुस्साहस करने की स्थिति में आ गया । जब भी कोई अवसर आता है, मै बार-बार कहता हूँ (और मेरे इस बार-बार कहने पर नितिन भाई हर बार संकुचित और असहज हो जाते हैं) - नितिन भाई के पैरों चल कर रोटी मेरे घर आई ।

वही नितिन भाई, पदोन्नति लेकर सहायक शाखा प्रबन्धक (विक्रय) बने । यह पदोन्नति लेने वाले विकास अधिकारी को, एल आई सी हलकों में असफल, नासमझ, अमहत्वाकांक्षी और मुश्किलों से जल्दी घबरा जाने वाला आदमी माना जाता है । विकास अधिकारी की आय, उसके नियन्त्रक ब्रांच मैनेजर के वेतन से कहीं अधिक (बहुत ही अधिक) होती है । वह ऐसा अधीनस्थ होता है जिसकी आय से उसका नियन्त्रक ईर्ष्या करता है और इस ईर्ष्या को सामान्यतः प्रत्येक ब्रांच मैनेजर कम से कम एक बार तो अत्यन्त शालीनता से प्रकट कर ही देता है । इस सबके बावजूद नितिन भाई ने पदोन्नति ली और सहा. शाखा प्रबन्धक से शाखा प्रबन्धक बनने के लिए न्यूनतम अनिवार्य अवधि पूरी होते ही शाखा प्रबन्धक बन गए । इस हैसियत में उनकी पहली ही पदस्थापना मुम्बई (शिवरी) में हुई । बाद में वे दादर स्थित शाखा के प्रबन्धक बने और अभी-अभी दादा भाई नौरोजी मार्ग वाली शाखा के प्रबन्धक तैनात किए गए है । विकास अधिकारियों की अपनी बैच में वे प्रथम और अब तक के एकमात्र ऐसे विकास अधिकारी हैं जो इस पायदान तक पहुँचा है । उनकी पहली पदोन्‍नति के समय उन पर हंसने वाले आज मुंह छिपाने के लिए कोने तलाशते हैं । उनकी शाखा में 19 विकास अधिकारी और लगभग 650 एजेण्ट हैं । चालू माली साल के लिए उनकी शाखा का व्यावसायिक लक्ष्य 40 करोड़ रूपयों की प्रथम प्रीमीयम (नए बीमा प्रस्ताव के साथ जमा की जाने वाली प्रीमीयम को प्रथम प्रीमीयम कहा जाता है) और 23,000 पालिसियाँ है । सवेरे 8 बजकर 20 मिनिट तक उन्हें हर हाल में घर से निकल जाना होता है और वापसी कभी भी रात पौने दस बजे से पहले नहीं होती । घर से ब्रांच आफिस तक की यात्रा वे कार से करते हैं लेकिन बकौल नितिन भाई इस पूरी यात्रा में उनका गाँव प्रतिदिन उनके साथ चलता है । मुम्बई में उन्हें चौथा साल है लेकिन बाँध पाना तो कोसों दूर रहा, मुम्बई अब तक उन्हें न तो आकर्षित कर पाया न ही प्रभावित । मुम्बई में रहने का ठसका अब तक उनके व्यक्तित्व का हिस्सा नहीं बन पाया । गोया, मुम्बई में रहकर भी वे अपने गांव में ही रह रहे हैं ।

यह सब इसलिए कि नितिन भाई मूलतः जावरा के रहने वाले हैं । पुराने लोग जावरा को डाक्टर कैलाशनाथ काटजू के गृह नगर के रूप में और आज के लोग हुसैन टेकरी के कारण जानते है । यह रतलाम जिले का प्रमुख बड़ा कस्बा है और यहाँ के लोगों को मोगरे (मोतीया) का शौक ‘व्यसन’ की सीमा तक है । नितिन भाई के पिताजी श्रीयुत डाक्टर सुधाकर वैद्य जावरा के सर्वाधिक लोकप्रिय डाक्टर हुआ करते थे । अल्पायु में हुई उनकी अकस्मात, असामयिक मृत्यु ‘वैद्य परिवार’ के लिए जितनी मारक और अपूरणीय क्षति बनी, जावरा के लोगों के लिए उससे अधिक पीडादायक और अपूरणीय क्षति रही । डाक्टर सुधाकर वैद्य जावरा के किंवदन्ती पुरूष हुआ करते थे । वे उन बिरले लोगों में थे जो डाक्टर भी अच्छे थे और इन्सान भी अच्छे थे ।
नितिन भाई अपने परिवार के बड़े बेटे हैं । उनका लालन-पालन, पढ़ाई-लिखाई जावरा में ही हुई । जावरा से उनका सम्बन्ध आज व्यवहारतः शून्यप्रायः है लेकिन जो मिट्टी खून बन कर नसों में बह रही हो उसे तो कोई चाह कर भी नहीं भुला सकता । नितिन भाई के साथ या तो यह सब शायद सामान्य से कुछ अधिक हो रहा है या फिर उनका राडार अतिरिक्त संवेदनशील है ।

सो, एक मालवी शब्द ‘खेंच’ ने नितिन भाई के, जावरा के समूचे काल खण्ड को मानो पुकार लिया । उन्होंने जो कविता मुझे भेजी उसे वे (और आप भी) भले ही कविता कहें, मानें लेकिन मुझे तो उस सबमें कविता कहीं नजर नहीं आई । नितिन भाई कवि हैं भी नहीं और यदि हैं भी तो उतने ही जितना कि प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में कभी न कभी कवि होता ही है । इस मायने में जरूर नितिन भाई कवि माने जा सकते हैं । बीस पंक्तियों वाली इस कविता में साहित्यिक अनुशासन पूरी तरह से लापता है । इसमें यदि है तो नितिन भाई की आत्मा की पुकार है - अपनी मिट्टी को सम्बोधित । कविता इस प्रकार है -

बसे हुए हो मेरे मन में तुम, ओ ! मेरे गाँव

मन को ठण्डक देने वाली, वो पीपल की छाँव

वो अपनों से मिलना, बेबात मुस्कुराना

नहीं चाहिए होता था खुश होने का बहाना

लड़कपन के वो दिन और वे कच्ची यादें

अब तक परेशान करते हैं, तब किए गए वादे

वो ओटलों पर बैठना और गप्पें लगाना

सरे शाम हुए झगड़ों को सुबह होते भूल जाना

धड़-धड़ दौड़ती और धूल उड़ाती वो बैलगाड़ी

जीवन की दौड़ में कभी अगाड़ी, कभी पिछाड़ी

ढोलक की थाप पर बहते, सरसराते वो झरने

कौन था वहाँ पराया ? सब तो थे अपने

याद तो तब आए जब भूलूँ वो जमाना

ढूँढता रहता हूँ, तुम तक आने का कोई बहाना

‘दो जून की जुगाड़’ में कट जाएगा यहाँ जीवन

बेशक हूँ शहर में, तुम्हारी गलियों में है मेरा मन

नितिन भाई को एलआईसी ने मुम्बई में अच्छा भला ‘ओटला’ (फलेट) दे रखा है और ‘रोटला’ तो उन्हें हर महीने मिल ही जाता है । लेकिन मन जहाँ उन्मुक्त और निर्बन्ध भाव से उजागर किया जा सके, उस 'ओटले' की तलाश की अतृप्त प्यास से उपजी अकुलाहट नितिन भाई को आज भी जावरा में ही बनाए हुए है ।

नितिन भाई की यह कविता उनके मन में बसे गाँव की तरह ही अनगढ़ है और यही इसकी सुन्दरता है । साहित्यिक पैमानों पर इसे आसानी से खारिज किया जा सकता है लेकिन इसमें भीगी-भीगी ठण्डक देने वाला खड़ा पीपल, ओटलों पर चल रही गप्पों का कोलाहल, दौड़ती बैलगाड़ी की धूल में अटे बच्चे, गूँजती ढोलक की थापें याने कि निर्दोष-अबोध बचपन का पूरा का पूरा गाँव जो बसा है उसे खारिज कर पाना बड़े से बड़े समीक्षक-आलोचक के लिए दुःसाध्य ही नहीं, खुद के प्राण हर लेने वाला असम्भव उपक्रम होगा ।

मन की बस्तियाँ उजाड़ने का हथियार भगवान ने किसी को नहीं दिया । ईश्वर की यही नेमत अपनी पूरी ताकत से इस कविता में और ऐसी प्रत्येक अनगढ़ कविता में हमें मिलती रहेगी ।

सास-बहू की पहली होली की पहेली


परिवार में आए विवाह प्रसंग पर हम लोगों ने कई परम्पराओं के अर्थ जानने के प्रयत्न किए । खूब देर तक विमर्श और विचार किया, तर्क-कुतर्क जुटाए, औचित्य तक पहुँचने के लिए गहन और विस्तृत छिद्रान्वेषण किया । हम सब यह जानकर विस्मित हुए कि तत्कालीन परिस्थितियों की अनिवार्यताओं के चलते शुरू किए गए अधिसंख्य उपक्रमों को हम आज अनावश्यक होने पर भी ढोए जा रहे हैं । `लोग क्‍या कहेंगे' और `ऐसा थोड़े ही होता है' जैसे निराकार `लोक-दैत्य-भय' के आगे अच्छे-अच्छे प्रगतिशीलों को घुटने टेकने पड़ जाते हैं । मैं इस मामले में सचमुच भाग्यशाली हूँ कि मेरे परिजनों ने वास्तविकता को अनुभव किया और हम कई परम्पराओं से मुक्‍त रह सके ।


लेकिन एक मामला अभी भी जिज्ञासा बना हुआ है । बहू आई वैशाख शुक्‍ल द्वितीया को । उसके पीछे-पीछे, तेरहवें दिन होली चली आ रही थी । आस-पड़ौस में खुसुर-पुसर शुरू हो गई थी । बहू का मायका बड़वानी में है । हर कोई जानने को उत्सुक था कि बहू बड़वानी जाएगी या रतलाम में ही मामा के घर ? अचरज मुझे इस बात पर हो रहा था कि बहू की विदाई को लेकर कोई भी मुझे न तो कुछ बता रहा था और न ही कोई मुझसे कुछ पूछ रहा था । मुझे ऐसा लगने लगा मानो मेरे आस-पास कोई रहस्य-कथानक बुना जा रहा हो । कुछ दिनों तक तो मैं प्रतीक्षा करता रहा कि मेरे घर का मामला है, मुझसे भला क्‍यों छुपाया जाएगा । लेकिन प्रतीक्षा की भी हद होती है । खासकर तब, जबकि आपके आस-पास फुसफुसाहटें शोर कर रही हों और आपको कुछ सूझ नहीं पड़ रहा हो । सो, मेरे धैर्य ने अन्तत: साथ छोड़ दिया । मैंने तनिक आवेश में पूछा कि आखिर मुझसे क्‍या छुपाया जा रहा है । मेरी मुख-मुद्रा, हाव-भाव और आवाज की तुर्शी से परिजन सकते में आ गए । कुछ ही पलों के बाद मुझे बताया गया कि पहली होली पर सास-बहू साथ नहीं रहतीं । सो, बहू की यह होली कहाँ होगी, यह तय किया जा रहा है ।

मेरे लिए यह अनूठी सूचना थी । मैंने पूछा- `साथ-साथ क्‍यों नहीं रहती ?' उत्तर मिला- `पता नहीं । लेकिन साथ -साथ नहीं रहती ।' मैंने फिर पूछा- `क्‍यों ?' इस क्‍यों का जवाब किसी के पास नहीं था । हम लोग जिज्ञासावश आपस में पूछताछ करने बैठ गए । यह बात तो हर कोई कह रहा था कि मालवा की परम्‍परानुसार, सास-बहू पहली होली पर साथ-साथ नहीं रहती लेकिन इसके पीछे का तर्क , कारण किसी को सूझ नहीं पड़ा । सोचा- बुजुर्गों से पूछा जाए । सो, परम्पराओं, लोकोक्तियाँ, मुहावरों के विशद् ज्ञाता भगवानलालजी पुरोहित से पूछा । उन्होंने हैरान भी किया और निराश भी । बोले- 'हाँ, सास-बहू पहली होली पर साथ-साथ नहीं रहती । लेकिन मुझे नहीं मालूम कि क्‍यों नहीं रहती ।' मैंने कहा- `जब कोई कारण नहीं है तो हम दोनों को साथ-साथ रहने दें तो कोई हर्ज है ?' चिन्तातुर और अमंगल की कल्पना से भयातुर परिजन की भूमिका निभाते हुए उन्होंने कातर स्वरों में आग्रह किया- `भले ही कारण मालूम न हो लेकिन साथ-साथ मत रहने दीजिए । पुराने लोगों ने कुछ सोचकर ही यह प्रथा शुरू की होगी।' मेरे लिए यह निराशाजनक स्थिति थी ।

औचित्य-अन्वेषण और तार्किकता के घोड़े पर अमंगल के भय ने सवारी कर ली और आशंकाओं के चाबुक सटाक्-सटाक् बरसने लगे । अन्तत: वही हुआ जो ऐसी दशा में हो सकता था । मेरी सारी प्रगतिशीलता धरी रह गई और सास-बहू ने अपना पहला होलीका दहन साथ-साथ नहीं देखा।


लेकिन जिज्ञासा, विचार-विमर्श और छिन्द्रान्वेषण बराबर चल रहा था । हम सब लस्त-पस्त और परास्त होकर परम्परा के सामने घुटने टेके बैठे थे । सबकी `शाणपत' बिलों में घुस चुकी थी । बिना किसी घोषणा के अध्याय समाप्त् हो चुका था ।

अचानक मेरे छोटे बेटे तथागत के चेहरे पर शरारत और दुष्टताभरी मुस्कुराहट तैर आई । वह अपनी हँसी नहीं रोक पाया । हो-हो कर हँसने लगा । अब उसकी हँसी हमारी जिज्ञासा बन गई थी । हम सबने लगभग एक स्वर में पूछा कि वह क्‍यों हँस रहा है । उसने कहा- `इस परम्परा का मूल कारण मुझे पता है।' अब वह सयाने की तरह हमें और हम सब मूढ़मति की तरह उसे देख रहे थे । अन्तत: उसने कहा- `सीधी सी बात है । पहली-पहली होली और सास-बहू साथ-साथ हो तो पता नहीं कौन किसे पहले होली में धक्‍का दे दे ।' कहकर वह फिर हँसने लगा । हम सब भी खुलकर हँसने लगे । आखिरकार हमें परम्परा का एक काम चलाऊ औचित्‍य या उद्गम मालूम हो चुका था ।


थोड़ी देर बाद हम सब अपने-अपने काम में लग गए । अपना काम करते-करते अचानक ही मैं सिहर उठा । क्‍या सचमुच में यही कारण रहा होगा ? यदि ऐसा ही है तो इस परम्परा से मुक्‍त हो पाना मुझे अभी भी सम्भव नहीं लगता । दहेज और अन्यान्‍य कारणों से अभी भी हमारी बेटियाँ अपनी ससुराल में जला दी जाती हैं । यदि इस परम्परा का वास्तविक उद्गम सचमुच में यही है तो हमारी नवोढ़ा बहू-बेटियाँ तो प्रतिदिन, प्रतिपल अपनी - अपनी सास के साथ पहली होली ही मना रही हैं ।


तब से शुरू हुई मेरी घबराहट अब तक बनी हुई है। तथागत का परिहास मुझे आतंकित किए हुए है ।

आपमें से कोई बताएगा कि इस परम्परा का वास्तविक उद्गम क्‍या है ?

पाँखी की छुट्टियाँ


गर्मी की छुट्टियाँ आधी से ज्यादा बीत गई हैं लेकिन पाँखी मुझे अब तक घर में ही नजर आ रही है । हर बार की तरह इस बार वह मामा-बुआ के यहाँ नहीं गई है । इस साल जाएगी भी नहीं । इस साल वह सीबीएसई पाठ्यक्रम की दसवीं कक्षा में है जिसकी परीक्षा बोर्ड से होनी है । इस परीक्षा का अंक प्रतिशत उसके भविष्य का आधार होगा । इसलिए यह परीक्षा अधिकतम अंकों के साथ उत्तीर्ण करना उसके लिए फिलहाल जिन्दगी का इकलौता मकसद होना चाहिए - यह बात अध्यापकों और माता-पिता ने उसे भली प्रकार समझा दी है ।


पाँखी मेरे पड़ौस में ही रहती है । अप्रेल मे ही उसने पंकज सर से पूरे साल भर का ट्यूशन पेकेज ले लिया है । पेकेज की अवधि (अप्रेल से) शुरू होने के बाद से जब तक स्कूल चालू थे, पाँखी सवेरे साढ़े छः बजे घर से निकल जाती थी और लगभग साढ़े आठ बजे लौटती थी । नौ बजे उसके स्कूल का आटो रिक्‍शा आ जाता था । अपराह्न लगभग साढ़े तीन बजे वह स्कूल से लौटती थी । आते ही वह पंकज सर और स्कूल के दिए होम वर्क में जुट जाती थी । शाम पांच बजे उसे दूसरी ट्यूशन पर जाना होता है । वहाँ से भी वह होम वर्क लेकर लौटती है । सवेरे चूँकि फिर जल्दी जाना है, सो शाम वाली ट्यूशन का होम वर्क उसे रात में ही, सोने से पहले ही कर लेना होता है । शाम को जब मुहल्ले के बच्चे उसके घर के आगे, क्रिकेट खेलते हुए ‘हाऊज देट’ की अपीलों से मुहल्ले को गुँजा रहे होते हैं तब वह होम वर्क कर रही होती है ।


गर्मी की छुट्टियाँ शुरू होने के बाद से पंकज सर की ट्यूशन अब तीन घण्टे प्रतिदिन हो गई है । सो, वह सवेरे साढ़े छः बजे जाती है और लगभग साढ़े दस बजे लौटती है । गर्मी की छुट्टियों की वजह से वह दिन में थोड़ा ‘रेस्ट’ कर पा रही है लेकिन उसकी शाम की ट्यूशन तो अभी भी जारी है सो शाम को तो अब भी वह खेल नहीं पाती । खेलते बच्चों की आवाजें ही उसके हिस्से में आ पाती हैं ।
पंकज सर गर्मी की छुट्टियों में एक पखवाड़े के लिए बाहर गए हैं, सो पाँखी पूरे पन्द्रह दिन फुर्सत में है । लेकिन फिर भी वह मामा-बुआ के यहाँ नहीं जा पाएगी क्यों कि उनके बच्चों ने अपने-अपने शहर में कम से कम दो-दो समर कोर्स ज्वाइन कर रखे हैं । फिर, पंकज सर ने यह छुट्टी इतनी अचानक दी कि बाहर जाने के लिए रेल रिजर्वेशन मिल ही नहीं रहा ।


लेकिन अकेली पाँखी ही क्यों ? यह किस्सा तो शिल्पी, चंचला, जैकी, विशाल, हैप्पी, महक, विरति, आयुष, कल्पक, प्राची, साक्षी जैसे उसके तमाम सहपाठियों का भी है । ये सबके सब पंकज सर के ट्यूशन पेकेजधारी हैं । प्रत्येक के माता-पिता ने सात हजार हजार रूपयों का भुगतान पंकज सर को किया है । पंकज सर के कोचिंग केन्द्र पर पाँखी की कक्षा के पन्द्रह बच्चों का एक बैच है जबकि शहर के दूसरे, अंग्रेजी माध्यम वाले, एक प्रतिि‍ष्ठत स्कूल के पचास बच्चों का दूसरा तथा एक और अन्य स्कूल के चालीस बच्चों का तीसरा बैच चल रहा है । पंकज सर को खाने की फुर्सत नहीं मिल पा रही है । वे बच्चों को अपना सर्वाधिक देकर उनका भविष्य और केरीयर बनाने की कोशिशों में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रहे हैं ।


निस्सन्देह ये बच्चे अच्छे अंक-प्रतिशत से पास होंगे और भविष्य के हमारे उत्कृष्ट प्रशासक, वैज्ञानिक होंगे । लेकिन जब ये भारत के आम आदमी के बारे में जनहितकारी निर्णय ले रहे होंगे तब इन्हें आम आदमी के बारे में कितना कुछ पता होगा ? हमारे देहातों की दरिद्रता और अभावों से भरी जिन्दगी, गाँवों के बाहर बनी अछूतों की बस्तियाँ, सवर्णों द्वारा घोड़ी से उतारे जा रहे पिछड़े वर्ग के दूल्हों, निर्वस्त्र की जा रही, पिछड़े वर्ग की पंच-सरपंच, जात-समाज की पंगतों की फेंकी गई पत्तलों में जूठन एकत्रित करती अछूत महिलाएँ, गाँव-गाँव में मौजूद, प्रेमचन्द के ‘ठाकुर के कुए’, मन्दिर के गर्भ गृह की देहलीज पर मत्था टेकने के लिए तरसते पिछड़े वर्ग के लोग और ऐसी तमाम बातें इन बच्चों की तो कल्पना में भी नहीं आ पाएगी क्यों कि इन सबके बारे में न तो पंकज सर के कोचिंग केन्द्र में बताया जाता है, न अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में और न ही दूसरी ट्यूशन वाले सर के यहाँ ।


ये सब तो भारी-भरकम बाते हैं । इन बच्चों को तो यह भी नहीं पता कि महुआ कहाँ और कैसे टपकता है, उसकी गन्ध की मादकता से तो ये सपने में भी परिचित नहीं हो सकेंगे, इमली के अधपके टिकोरे के लिए पत्थर कैसे फेंका जाता है, झरबेरी में से बेर तोड़ते समय हाथ कैसे लहू-लुहान होते हैं, अमराई में से, रखवाले को धता बता कर आम कैसे चुराए जाते हैं, कलाम डारा और सतौलिया कौन से खेल हैं ।
पाला पड़ने से फसलों का जलना, फसलों में इल्ली लगना, अति वृि‍ष्ट से फसलों का गलना और पहली बोवाई के बाद बरसात में खेंच पड़ने से बीज का नष्ट हो जाना जैसी बातें (जो आज भी देश के कम से कम सत्तर प्रतिशत लोगों को सीधे-सीधे प्रभावित करती है) ये बच्चे अखबारों से जानेंगे और इनका मतलब जानने के लिए लोगों को तलाश करेंगे । ऐसे तमाम बच्चों के लिए लोक जीवन, लोक संस्कृति, लोक रंग, जन-जीवन अजूबा रहेंगे जिन्हें ये किसी ‘इवेण्ट’ के रूप में देख पाएँगे ।

ये और ऐसे तमाम बच्चे वातानुकूलित कक्षों में बैठकर, काले सूट पहन कर, गुलाबी अखबार पढ़कर, आम भारतवासी के लिए योजनाएँ बनाएँगे और उनके प्रभावी क्रियान्वयन के लिए ‘ब्ल्यू प्रिण्ट’ भी । जब हम इनमें भारतीयता और भारतीय संस्कार तलाश करेंगे तब ये ‘ओ’ ! शिट्’ कहकर हम पर हँसते हुए अपने आफिस के लिए निकल जाएँगे ।


हम इन्हें ‘हेवी पेकेज और ब्राइट एण्ड साउण्ड यूचर वाले इण्डिया’ में धकेल रहे हैं और ‘भारत’ के पिछड़ने का रोना रो रहे हैं ।

पाँखी का क्या दोष ?

(मेरी यह पोस्ट, रतलाम से प्रकाशित हो रहे ‘साप्ताहिक उपग्रह’ के, 12 जून 2008 के अंक में, ‘बिना विचारे’ शीर्षक स्तम्भ में भी प्रकाशित हुई है ।)

जलजजी का नम्बर

टेलीफोन का चोंगा थामे, मैं यद्यपि शून्य में देख रहा था लेकिन सच तो यह था कि मैं खुद से नजरें चुरा रहा था । उधर, टेलीफोन पर दूसरी ओर, जुझारसिंहजी भाटी भी निश्चय ही उस स्थिति में रहे होंगे क्‍योंकि हम दोनों चुप थे और फोन पर बीहड़ का सन्नाटा सीटियाँ बजा रहा था । बात ही ऐसी हो गई थी । कहते समय खुद भाटीजी ने नहीं सोचा होगा कि वे ऐसी बात कह जाएँगे । लेकिन बात ऐसी ही हो गई ।

भाटीजी को जलजजी का फोन नम्बर चाहिए था । उन्होंने पूरे विश्वास से मुझे फोन किया था । मेरे पास जलजजी का नम्बर था तो लेकिन मुझे भली प्रकार मालूम था कि वह बदल गया है । वास्तविकता बताते हुए मैंने भाटीजी को जलजजी का पुराना नम्बर दिया और कहा कि नया नम्बर तलाश कर बताता हूँ । भाटीजी के फोन बन्द करते ही मैंने भैया साहब (श्री सुरेन्द्रकुमारजी छाजेड़) को फोन लगाया । उन्होंने बताया- जलजजी का वर्तमान नम्बर २६०९११ है । मैंने फौरन भाटीजी को यह नम्बर दिया । लेकिन डेढ़ मिनिट में ही उनका फोन आ गया । कह रहे थे कि यह नम्बर भी जलजजी का नहीं है । अब मैं निरूपाय था । क्षमा माँगी और कहा कि जलजजी का नम्बर वे तलाशें और मुझे भी बताएँ । लेकिन बात यहीं समाप्त् नहीं हुई । भाटीजी ने कहा- ''क्‍या हालत हो गई है ! अपने पास अवांछित ऐसे-ऐसे लोगों के नम्बर मिल जाएँगे जो पुलिस के लिए वांछित हैं । लेकिन जलजजी जैसे लोगों के नम्बर नहीं मिलेंगे ।'' वे सपाटे से कह तो गए लेकिन कहते ही वे चुप हो गए और सुनते ही मैं । मुझे लगा- अपने स्नानागार में मैं निर्वस्त्र स्नान कर रहा हूँ और किसी ने अचानक ही किवाड़ की बारीक झिर्री से मुझे देख लिया है और मुझे लगा कि सारी दुनिया ने मेरी नंगई देख ली । भाटीजी को मैं देख तो नहीं पा रहा था लेकिन उनकी भारी साँसें उनकी हकीकत बयाँ कर रही थी ।

हम एक भद्र, साफ-सुथरा, सज्जनों से सजा हुआ ऐसा समाज चाहते हैं जिसमें एक भी दुष्ट व्यक्ति नहीं हो । लेकिन सज्जनों के प्रति हमारा दृष्टिकोण और व्यवहार सर्वथा प्रतिकूल रहता है- उदासीन अथवा उपेक्षा भरा । हम खुद से अधिक भद्र और सज्जन अन्य किसी को मानते ही नहीं । इसीलिए समाज की शुचिता का पोषण कर रहे सज्जनों, साधु-पुरूषों, प्रबुद्धों की हम लेश मात्र भी परवाह नहीं करते । शायद इसलिए कि वे सज्जन हैं । वे सज्जन हैं इसलिए उनसे कोई खतरा नहीं । जब उनसे कोई खतरा नहीं तो उनसे डरने की क्‍या जरूरत ? और जब उनसे कोई डर है ही नहीं तो उनकी पूछ-परख क्‍या करना और क्‍यों करना ? इसीलिए हम पूछ-परख उनकी करते हैं जो हमें नुकसान पहुँचा सकते हैं और जिनसे हम भयभीत रहते हैं। बकौल तुलसीदासजी - भय बिन होत न प्रीति । सज्‍जनों की याद (और उनकी अहमियत भी) हमें इन्हीं खरतनाक लोगों के कारण आती है । इन खतरनाक लोगों से अपने को बचाने की कोशिशों के दौरान हम `हनुमान चालीसा' का पाठ करते हुए तय करते हैं कि हम सज्जनों की पूछ परख करेंगे । लेकिन जैसे ही ये खतरनाक लोग और इनसे उपजा खतरा टला कि सज्जनों की पूछ परख करने का हमारा फैसला काफूर हो जाता है। अब सज्जनों से क्‍या मिलना और उनकी पूछ-परख क्‍या करना ?

मन में घुमड़ रही इन बातों के बीच ही मैंने भाटीजी से कहा - ''आप भी याद करें और मैं भी याद करूँ कि बिना किसी काम के, केवल मिलने के लिए और मिलकर अपना आदर-भाव प्रकट करने के लिए अपन जलजजी या जलजजी जैसे किसी व्यक्ति से अन्तिम बार कब मिले थे ? '' हम दोनों के पास कोई जवाब नहीं था । एक बार फिर हम दोनों खुद से नजरें बचा रहे थे ।

हम सब यह कहते नहीं अघाते कि जो समाज सज्जनों का सम्मान और दुर्जनों का धिक्‍कार नहीं करता वह कभी आगे नहीं बढ़ सकता। लेकिन यह कहते समय हम, यह नेक काम करने का जिम्मा, खुद को छोड़कर बाकी सब पर डाल देते हैं । इसीलिए न तो कोई सज्जन दैनन्दिन लोक आचरण में सम्मानित हो रहा है और न ही किसी दुर्जन को धिक्‍कारा जा रहा है। नतीजतन, हम सबकी डायरियों में बाकी सबके फोन नम्बर मिल जाएँगे। नहीं मिलेंगे तो बस, `जलजों' के नम्बर नहीं मिलेंगे। लिखकर करना भी क्‍या ? जब भी हमें अपनी इज्जत बढ़ाने के लिए इनकी आवश्यकता होगी, थोड़े हाथ-पाँव मार कर उन्हें तलाश कर लेंगे, अपने आयोजन में इन्हें `शोभा की वस्तु' की तरह बुला लेंगे और इनका उपयोग हो जाने पर इन्हें एक बार फिर भूल जाएँगे । ये बेचारे तनिक भी बुरा नहीं मानेंगे। बुरा मान भी लेंगे तो हमारा क्‍या बिगाड़ लेंगे ? भला किसी सज्जन ने आज तक किसी का कुछ बिगाड़ा है? बिगाड़ भी नहीं सकता । बेचारा अपनी सज्जनता का शिकार है ।

भाटीजी ने और मैंने भारी मन से, ग्लानि भाव और अपराध बोध की शिला से लदी आत्मा से अपने-अपने फोन के चौगे रखे । मैं लगभग आत्मबलविहीन हो चला था । लम्बी साँसें लेकर ठण्डा पानी पीया । खुद को तनिक सामान्य बनाया और टेलीफोन डायरी में जलजी का नम्बर लिखा- २६०९११ (उनका नम्बर यही है) ।

आप भी अपनी-अपनी टेलीफोन डायरी के पन्ने पलटिएगा । प्रत्येक शहर में एक-दो नहीं, कई `जलजजी' होंगे और ताज्जुब नहीं कि सबके सब लोक-उपेक्षा के शिकार होंगे, उनके नम्बर अपनी डायरी में लिखिएगा । उनसे मिलने का जतन कीजिएगा । ऐसे लोग हमारे खालीपन को भरते हैं, हमें हौसला देते हैं । उन्हें सम्मानित करने के लिए नहीं, अपना आत्म बल बढ़ाने के लिए उनसे मिलिएगा । ऐसे लोग हमारी शोभा, हमारी ताकत तो हैं ही, हमारी जिम्मेदारी भी हैं।

(श्रीजयकुमार 'जलज', रतलाम के शासकीय कला - विज्ञान के सेवा निव़त्‍त प्राचार्य हैं । वे भाषाविद और बहुत अच्‍छे कवि हैं ।)

पत्रकार, पत्रकारिता और संकट

टाइम्‍स आफ इण्डिया (अहमदाबाद) के सम्वाददाताओं पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा दायर किए जाने के खिलाफ, देश के अन्य भागों की तरह ही मेरे नगर (जो वस्तुतः बड़ा कस्बा है) के पत्रकारों ने भी रोष‍-विरोध प्रकट किया और राष्ट्रपति के नाम ज्ञापन दिया । मैं नामधारी पत्रकार भी नहीं हूँ और न ही किसी पत्रकार-संगठन का सदस्य । मैं इस प्रदर्शन में स्वैच्छिक रूप से शामिल हुआ क्यों कि मैं अभिव्यक्ति पर किसी भी प्रकार के अंकुश को अनुचित मानता हूँ ।

इस प्रदर्शन में शरीक होने का मेरा अनुभव विचित्र न भी हो तो असमंजस भरा तो रहा ही । मेरे शहर में, पत्रकारों के छोटे-मोटे, चार-पाँच सगंठन हैं । सबकी सदस्य संख्या मिलाकर आँकड़ा डेड़ सौ के आसपास पहुँचता है । इन संगठनों में सदैव ही विवाद बना रहता है और प्रत्येक के सर्वेसर्वा अपने संगठन को ही पत्रकारों का एकमात्र और वास्तविक संगठन बताते हैं । इसी कारण आरोप-प्रत्यारोप ही नहीं लगते, सरकार को शिकायतें भी होती रहती हैं । कोई किसी को हाकरों का संगठन तो किसी को चाय-चटोरों का संगठन कहता है । विद्वान् कभी एकमत नहीं होते, इस उक्ति को सच मानते हुए मैं इन विवादों और आरोपों-प्रत्यारोपों पर ध्यान नहीं देता । वह मेरा विष‍य भी नहीं है । मेरा भला भी इसी में है मैं सबकी बातों को एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल दूँ । क्यों कि यदि इन सबकी बातों को सच मान लूँ तो पत्रकार तो एक भी साबित नहीं होगा ।

पत्रकारों को मिलने वाली प्राथमिकता और अतिरिक्त सम्मान (फिर भले ही वह भयाधारित क्यों न हो) के कारण हर कोई अपने आप को पत्रकार बताने-जताने का छोटा से छोटा मौका भी नहीं छोड़ता । इसीलिए, वार्ड स्तर के नेता की पत्रकार वार्ता भी भीड़ भरी हो जाती है । यदि किसी पत्रकार वार्ता में ‘भेंट’ की व्यवस्था भी हो तो भीड़ और बढ़ जाती है । ऐसी कुछ पत्रकार वार्ताओं में मैं भी दर्शक की हैसियत से शामिल हुआ हूँ और प्रत्येक बार मुझे यह देख कर हताशा हुई कि, पत्रकार वार्ता की समाप्ति के बाद, कुछ पत्रकार, आयोजकों से, अलग से भेंट माँग रहे हैं । पत्रकारों के लिए यदि कभी भोज के आयोजन हों या पत्रकार वार्ता के बाद ‘लंच’ अथवा ‘डिनर’ भी हो तो उस पत्रकार वार्ता में शत-प्रतिशत से भी अधिक की उपस्थिति रहती है ।

लेकिन, गुजरात के पत्रकारों के समर्थन में सड़कों पर आने वाले पत्रकारों की संख्या देख मुझे धक्का भी लगा और गहरी उदासी भी आई । सवेरे ग्यारह बजे का समय दिया गया था । लोग आए साढ़े ग्यारह बजे तक । हम लोग जब कलेक्टोरेट के लिए चले तो बमुि‍श्कल बीस लोग थे । नारे लगाने की स्थिति/मनःस्थिति में शायद ही कोई रहा । फिर भी ‘पत्रकारों पर अत्याचार - नहीं सहेंगे, नहीं सहेंगे’, पत्रकारों पर झूठे मुकदमे - वापस लो, वापस लो’ और ‘पत्रकार एकता - जिन्दाबाद’ जैसे नारे, मरी-मरी आवाज में लगाए गए । एक उत्साही पत्रकार ने ‘गुजरात सरकार मुर्दाबाद’ का नारा लगाया तो कुछ पत्रकारों ने घबराहट भरी नजरों से उसे देखा । मैं सबसे पीछे चल रहा था । मुझसे आगे चल रहे एक पत्रकार ने दूसरे से पूछा - ‘इसमें गुजरात सरकार बीच में कहाँ से आ गई ?’ दूसरे को कुछ पता नहीं था । दोनों ने पीछे मुड़कर मेरी ओर देखा । मुझे कहना पड़ा कि राष्ट्रद्रोह का मुकदमा दायर करने के लिय राज्य सरकार की पूर्वानुमति आवश्यक होती है । मेरी सूचना से, सवाल करने वाले पत्रकार को अच्छा नहीं लगा । लेकिन यह नारा दूसरी बार नहीं सुनाई दिया ।

कलेक्टोरेट पहुँचते- पहुँचते हम लोग करीब पैंतीस हो गए थे । मुकाम पर पहुँच कर फिर, दो-तीन बार नारे लगाने की रस्म अदायगी की गई । यह तो मुझे बाद में समझ आया कि स्थानीय चैनलों की रेकार्डिंग के लिए नारे लगाने जरूरी थे, वर्ना नारेबाजी शायद ही होती ।

कलेक्टर साहब रतलाम से बाहर थे, यह खबर सबको थी । एक डिप्टी कलेक्टर को पहले ही सूचित कर दिया गया था । फिर भी हम लोगों को कुछ मिनिटों तक उनकी प्रतीक्षा करनी पड़ी । वे आए । जुलूस के नेता ने ज्ञापन पढ़ा, डिप्टी कलेक्टर को सौंपा और सब लौटने लगे - ऐसे, मानो लोक दिखावे के लिए, किसी शवयात्रा में जबरन शामिल होकर लौट रहे हों । किसी के भी मन में न तो कोई आक्रोश था न ही कोई उत्तेजना । सब, निर्जीव चाबी वाले खिलौनों की तरह लौट रहे थे । हममें से किसी को भी उस पत्रकार का नाम मालूम नहीं था जिस पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा लगाया गया है । उससे सम्बन्धित अखबार का नाम जरूर दो-तीन पत्रकारों को मालूम था । शेष सब केवल इसलिए आए थे क्यों कि आना शायद उनकी मजबूरी रही होगी ।

तमाम स्तर के पत्रकार जानते हैं कि बड़े शहरों के, खास कर राजधानियों के पत्रकार जोखिम बहुत कम उठाते हैं और सर्वाधिक लाभ (वे सम्मान के हों या सुविधाओं के) प्राप्त करते हैं जबकि कस्बाई और आँचलिक पत्रकार सर्वाधिक जोखिम उठाते हैं । स्थानीय होने के खामियाजे इन्हें सबसे ज्यादा भुगतने पड़ते हैं । सबको अपने-अपने स्तर पर, व्यक्तिगत रूप से सम्पर्क और सम्बन्ध बनाए रखने पड़ते हैं, लिहाज पालने पड़ते हैं । इन्हें ही एकता की सर्वाधिक आवश्यकता है लेकिन सर्वाधिक विभाजित ये ही लोग हैं ।

यह कैसा संकट है ? पत्रकारों का या पत्रकारिता का ?

गाँधी को कूड़ेदान में हम फेंकेंगे


खबर यह नहीं है कि लन्दन स्थित, मैडम तुसाद के विश्व विख्यात संग्रहालय में, महात्मा गाँधी की मोम-मूर्ति को, विश्व प्रसिध्द नेताओं की मूर्तियों के पास से हटा कर, संग्रहालय के आइस्क्रीम पार्लर के बाहर रखे कूड़ेदान के पास रख दिया गया है । खबर तो यह है कि गाँधी के साथ, अंग्रेजों द्वारा किए गए इस सम्वेदनहीन और अपमानजनक व्यवहार से कुछ भारतीय आहत हुए और उन्होंने ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री गार्डन ब्राउन को पत्र लिखकर इस स्थिति पर आपत्ति जताई और गाँधी की मोम-मूर्ति को पुनः सम्मानजनक स्थान पर लगवाने की माँग की ।
अंग्रेजों ने क्या नया, अनुचित, अनपेक्षित और अनूठा किया ? उन्होंने तो वही किया जो उनकी चिरपरिचित और स्थापित, जगजाहिर मानसिकता है । वे तो कालों से शुरू से ही नफरत करते रहे हैं । नस्लवाद और रंग भेद तो उनके रक्त में बसा हुआ है । उन्होंने तो गाँधी को रेल के डिब्बे में से ही फेंक दिया था । अंग्रेजों ने तो वही किया जो वे करते चले आ रहे हैं । उनकी इस करनी पर हमें बुरा क्यों लग रहा है ? हमें बुरा तो तब लगना चाहिए जब गाँधी को लेकर हमारा आचरण साफ-सुथरा और ऐसा हो कि दुनिया गाँधी के साथ अपमानजनक और असम्वेदन व्यवहार करने की सोच भी न सके । लेकिन हम गाँधी के साथ क्या कर रहे हैं ? हम ‘गाँधी को’ तो मान रहे हैं लेकिन ‘गाँधी की’ बिलकुल ही नहीं मान रहे हैं । (क्‍यों कि गाँधी को मानने में कुछ भी नहीं लगता जबकि गाँधी की मानने में प्राण निकल जाएंगे ।)
गाँधी के ‘सत्य, अहिंसा, प्रेम, असंग्रह’ को हमने ताक पर रख दिया है । उनका ‘मद्य निषेध’ हमारी अनेक राज्य सरकारों को सबसे बड़ा अवरोध अनुभव हो रहा है । गुजरात में कहने भर को मद्य निषेध लागू है लेकिन वास्तविकता यह है कि दुनिया की मँहगी से मँहगी दारू वहाँ, घर बैठे, चुटकियों में हासिल की जा सकती है ।
गाँधी की चिन्ता के केन्द्र में समाज का अन्तिम आदमी था । उनके वारिसों की चिन्ता यह है कि समाज का अन्तिम आदमी कब तक उनकी जिम्मेदारी बना रहेगा ? गाँधी की खादी बहुत मोटी, अपने ही हाथों से धुली और बिना कलफ वाली थी । गाँधी के वारिसों की खादी आज, ‘कड़क-कलफदार वर्दी’ हो गई है । जिस खादी के लिए गाँधी ने कहा था कि इसे (खादी को) ऐसे प्यार करो जैसे कोई माँ अपनी बदसूरत सन्तान को प्यार करती है । गाँधी के वारिसों ने उसी खादी के दम पर कितनों को बदसूरत बना दिया ?
गाँधी आचरण का तत्व है जिसे उनके वारिसों ने प्रदर्शन के तत्व में बदल दिया है । गाँधी ने कोई वाद नहीं चलाया लेकिन हम ‘गाँधीवादी’ बन कर अपने ही लोगों में सबसे अलग और सबसे ऊपर दिखना चाहते हैं । जो गाँधी इस देश की प्राण - वायु है उसे हमने ‘ब्राण्ड’ और ‘सेलीब्रिटी’ में बदल कर रख दिया है । हमें गाँधी की अवमानना की नहीं, हमारे ब्राण्ड के बदशकल होने की चिन्ता ज्यादा है । यदि हमारा ब्राण्ड ही ‘डीफेस’ हो गया तो उसे मानेगा कौन और अपनाएगा कौन ? गाँधी की मोम-मूर्ति कूड़ेदान के पास रखने पर भारतीयों को आपत्ति के केन्‍द्र में शायद यही चिन्‍ता है और शायद इसीलिए आपत्ति ‍ भी हो रही है ।
गाँधी आज होते तो वे इस बात का बुरा बिलकुल ही नहीं मानते । उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्यों कि वे अपने अन्दर देखते थे और आत्म परिष्कार हेतु सतत् प्रयत्नशील रहते थे । वे ‘आचरण’ पर जोर देते थे और ‘लोग क्या कहेंगे’ वाला जुमला उनके जीवन में कहीं स्थान नहीं पा सका था ।
गाँधी की मोम-मूर्ति के साथ आज जो कुछ भी हुआ है, उसके जिम्मेदार तो हम ही हैं । जब हमने ही गाँधी को अपने जीवन से खारिज कर दिया तो बाकी दुनिया क्या करती ? हमारी स्थिति बिलकुल उस सास जैसी है जिसकी बहू ने एक भिखारी को भीख देने से मना कर दिया तो सास फट पड़ी । उसने बहू को डाँटा कि घर की मालकिन अभी तो सास है सो बहू कोई फैसला कैसे ले सकती है ? सास ने भिखारी को दरवाजे पर बुलाया और कहा - भाग जाओ, तुम्हारे लिए यहाँ कुछ भी नहीं है ।
सो, गाँधी के प्रति असम्वेदन होने का, गाँधी की अवमानना करने का, गाँधी को खारिज करने का अधिकार तो हमारा है । गाँधी को कूड़ेदान पर फेंकना होगा तो हम खुद फेंकेंगे । कोई और यह दुस्साहस करे, यह हम सहन नहीं करेंगे ।

सुगन्ध के दुर्व्‍यसनी

सुख-दुःख की बातें तो हम, सावधानी और सजगता बरतते हुए एक-दूसरे को पहुँचाते हैं लेकिन अच्छी बातें और अच्छेपन की बातें अपने आप तक रख लेते हैं। ऐसा हम किसी स्वार्थ या लालच के वशीभूत नहीं, सहज होकर करते हैं । इसका सम्भवत: एक मात्र कारण यही हो सकता है कि हम सब यह मानकर चलते हैं कि तमाम अच्छी बातें सबको मालूम होंगी ही । जाहिर है कि हम सब चेतन-अचेतन से, मूलत: अच्छे हैं, और अच्छे बने रहना चाहते हैं । लेकिन मजेदार बात यह है कि इस `विराट-व्यापक अच्छे पन' के मुकाबले चर्चा हमेशा ही खराब बातों की होती है । हो भी क्यों नहीं ? खीर की कड़ाही में पड़ा कचरा ही तो आँखों में चुभता है और इसीलिए खीर का जिक्र कम और कचरे का ज्यादा होता है । इतना ज्यादा कि कचरा न केवल प्रमुख हो जाता है बल्कि लगने लगता है कि कचरा ही सर्वव्यापी, सर्वप्रभावी हो गया है । तब, कचरे का भय इतना और इस कदर जकड़ लेता है कि अच्छाइयों पर और अच्छाइयों के होने पर से ही भरोसा उठने लगता है । इसलिए और इसीलिए, अच्छाइयों का और अच्छेपन का जिक्र करना, निरन्तर करते रहना न केवल जरूरी बल्कि हम सबकी जिम्मेदारी भी हो जाता है ।

इन तमाम बातों का अहसास मुझे श्री विजय नागर ने कराया । कोई बाईस बरस पहले वे रतलाम आए थे और चार साल रहकर चले गए । स्टेट बैंक ऑफ इन्दौर में सेवारत थे । अपने काम के प्रति जितने सजग-सतर्क, समर्पित, निष्ठावान उतने ही निष्णात् भी । अत्यधिक अन्तर्मुखी प्रकृति के । शायद इसीलिए वे नहीं बोलते थे, उनका काम बोलता था । उनके अन्तरंग में प्रवेश न हो तब तक तो `छुई-मुई' अनुभव होते रहे लेकिन उनकी दुनिया में प्रवेश होने पर मालूम पड़ा कि वहाँ तो यारी-दोस्ती का, शरबती चश्मा मौजूद है । चाहो तो किनारे बैठकर भर-चुल्लू पीते रहो और चाहो तो उतर कर डुबकियाँ लगा लो । उनकी ओर से कोई रोक-टोक नहीं । कंजूसी होगी तो अपनी ओर से ही । ऐसे `प्रेम सागर' नागर साहब इन दिनों मुझे `अच्छी चीजों' से मालामाल कर रहे हैं । शेर-ओ-शायरी के शौकीन नागर साहब खूब पढ़ते हैं और अपने पढ़े हुए में से चुने हुए शेर अपने मित्रों को लिख भेजते हैं । मेरा सौभाग्य कि उन्होंने मुझे भी ऐसे लोगों में शरीक कर रखा है । उनके भेजे कुछ शेर पढ़िए-

दहशत का माहौल है सारी बस्ती में

क्या कोई अखबार निकलने वाला है

धूप के डर से कब तक घर में बैठोगे

सूरज तो हर रोज निकलने वाला है

जिससे दब जाए कराहें घर की

कुछ न कुछ शोर मचाए रखिए

जाग जाएगा तो हक माँगेगा

सोये इन्साँ को सुलाये रखिए

अना बेची, वफा की लौ बुझा दी

उसे धुन कामयाबी की लगी है

सब्र का घूँट पी लिया तो क्या

`कम है' कहना हमें भी आता है

हैं मरासिम जो रोक लेते हैं

साफ कहना हमें भी आता है

मैं एक दिन बेखयाली में कहीं सच बोल बैठा था

मैं कोशिश कर चुका हूँ, मुँह की कड़वाहट नहीं जाती

मियाँ मैं शेर हूँ, शेरों की गुर्राहट नहीं जाती

मैं लहजा नर्म भी कर लूँ तो झुंझलाहट नहीं जाती

लोग बनवा रहे हैं शीश महल

पत्थरों की जरा कमी है

अभी मारो-मारो का शोर उठता है

भीड़ में कोई आदमी है अभी

उम्मीद नहीं, गले - गले तक यकीन है कि ये शेर पढ़ते-पढ़ते आप बार-बार उछल पड़े होंगे और अपने न चाहने पर भी आप `वाह! वाह!' कर उठे होंगे । मुनव्वर राना, राहत इन्दौरी, दीक्षित दनकौरी तथा अन्य अनाम शायरों के इन शेरों में क्या नहीं है ? वर्तमान की विसंगतियाँ, आदमी की अन्धी महत्वाकांक्षा, प्रतिरोध का प्रेरक आग्रह, अपने होने का अहसास, आदमी की खुद्दारी याने कि वह हर बात जो हमें हमारे आसपास जरूरी लगती है, इन शेरों में मौजूद है ।

लेकिन बातें शेरों की नहीं, अपने पढ़े हुए शेर दूसरों को लिख भेजने की मानसिकता की है । बुरी बात की चर्चा करने का कोई मौका हम नहीं छोड़ते और अच्छी बातों का जिक्र करना जरूरी नहीं समझते । ऐसे मन:स्थिति और माहौल में नागर साहब मुझे `सुगन्ध के दुर्व्यसनी' लगते हैं जो अपनी जमात में बढ़ोतरी करने की कोशिशें निहायत ही निजी तौर पर करने में लगे हुए हैं ।

अच्छी बातें फैलाने का सीधा मतलब और सीधा असर होता है- बुरी या खराब बातों का दबना या खारिज होना । यह बात समझ में आते ही मुझे नागर साहब की इस वृत्ति का महत्व अनुभव हुआ । इसमें मुझे हमारे वर्तमान के संकट का हल नजर आता है ।

दुष्ट-दुर्जन निरन्तर सम्पर्कित और सक्रिय रहते हैं जबकि सज्जन अपनी-अपनी सज्जनता के हिमालयी शिखर पर अकेले बैठे रहते हैं- न तो किसी से सम्पर्क करते हैं न ही किसी से कोई बात ही करते हैं । जिसे गरज होगी, खुद चलकर हमारे पास आएगा । ऐसे में `सुगन्ध के दुर्व्यसनी' नागर साहब अनायास ही एक रास्ता दिखाते हैं, उम्मीद बँधाते हैं ।

ईश्वर करे हम सब `सुगन्ध के दुर्व्यसनी' बन जाएँ।

निर्झरजी का `मृत्यु-वरण'

साहित्यकारों से जुड़ी, सार्वजनिक उपयोग की निजी सूचनाएँ देने वाली, भोपाल से प्रकाशित हो रही मासिक पत्रिका `आसपास' ने रोचक खबर दी है। खबर के अनुसार बिलासपुर (हिमाचल) के ख्यात रचनाकार श्री रत्नचन्द्र निर्झर ने अपना मोबाइल बेच दिया है। हिन्दी कलमकारों की विपन्नता के अनगिनत किस्सों के बीच निर्झरजी के मोबाइल बेचने का कारण न केवल अनूठा बल्कि आज के एक बड़े संकट से मुक्ति पाने का अचूक उपाय भी है।

सूचना प्रौद्योगिकी के चरम विस्फोट वाले इस समय में हर कोई `मोबाइलमय' हो रहा है । आने वाले दो-तीन वर्षों में देश की आधी आबादी मोबाइलधारी हो जाएगी । बात को परिहास तक ले जाऊँ तो कहने दीजिए कि अब पैदा होने वाले बच्चों की गरदनें तिरछी और हाथों के अंगूठों पर पटि्टयाँ बँधी होंगी । पैदा होते ही बच्चे, नर्स अथवा दाई से, विभिन्न मोबाइल कम्पनियों के `करण्ट टेरिफ प्लान' पूछेंगे । एक जमाना था जब चर्चाओं के विषय समाप्त् होने पर बात मौसम पर आ जाती थी। आज तो, बात मोबाइल से शुरू होती है और मोबाइल पर ठहरी रह जाती है- समाप्त् भी नहीं होती । एक परिवार में बीमा करने गया था। पाया कि एक किशोर, गर्दन टेड़ी किए मुझे देख रहा है । मुझे अटपटा लगा। पूछा तो पिता ने कहा- ` चलती बाइक पर मोबाइल से बातें करते रहने के कारण इसका फर्मा टेड़ा हो गया है ।' याने, जीवन में अब, और कुछ हो न हो, मोबाइल तो होगा ही ।

मुट्ठी में बन्द मोबाइल लिए घूमते आदमी को लगता है कि उसकी मुट्ठी में मोबाइल नहीं, पूरी दुनिया बन्द है । किसी जमाने में मुम्बइया फिल्मों को फैशन की जननी माना जाता था । आज, मोबाइल सबसे बड़ा वह फैशन है जो घर-घर में घुसे बुद्धू बक्‍से के पर्दे पर उभरता है और जिसने न केवल हमारी साँस-साँस पर कब्जा कर लिया है बल्कि जिसने हमारे सार्वजनिक व्यवहार और लोकाचार को पूरी तरह बदल दिया है।

पत्राचार की विधा पर इसका सर्वाधिक मारक प्रभाव हुआ है । कई लिक्‍खाड़ों को इस मोबाइल ने अकर्मण्य कर बातूनी बना दिया है । नियमित पत्राचार करने वाले मेरे कई मित्र अब मोबाइल पर ही बतियाते हैं। इनमें से अधिकांश मुझसे विचित्र आग्रह करते हैं। वे चाहते हैं कि वे भले ही पत्र न लिखें लेकिन मैं उन्हें नियमित रूप से पत्र लिखता रहूँ । मैं पूछता हूँ- `क्यों लिखूँ ?' वे कहते हैं- `तुम्हारी तो आदत है। अपनी आदत मत बिगाड़ो और पत्र लिखते रहो ।' मैं उनसे पूछता हूँ कि वे जब तमाम बातें फोन पर कर लेते हैं तो लिखने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं बचता । वे कहते हैं कि मैं कुछ भी लिखूँ लेकिन उन्हें पत्र लिखता रहा हूँ।

जाहिर है कि देर तक, ढेरों बातें करने पर भी वह सन्तोष नहीं मिल पाता जो पचीस पैसे के पोस्टकार्ड से मिलता है । पोस्टकार्ड को सहेज कर रखा जा सकता है, मित्रों-परिजनों को पढ़वाया जा सकता है और जब चाहे तब निकाल कर बार-बार पढ़ा जा सकता हैं । मोबाइल पर की गई बातों और भेजे गए एसएमएस में यह सब कहाँ ? अखबारों में, सम्पादक के नाम पत्र स्तम्भ में भी दो-तीन माह के अन्तराल से किसी न किसी का पत्र छपता रहता है जिसमें पत्राचार समाप्त् होने की स्थिति पर चिन्ता और शोक प्रकट किया जाता है तथा इस विधा को जीवित बनाए रखने की आवश्यकता जताई जाती है । ऐसी आवश्यकता प्राय: प्रत्येक व्यक्ति जताता है लेकिन कोई भी खुद कुछ नहीं करता । हर कोई `परभारे' आश्रित है। यह सब देख-देख कर मुझे अचरज भी होता है, दुःख भी होता है और हँसी भी आती है । नासमझों को समझाने की चेष्ठा की जा सकती है लेकिन समझदारों को कौन समझाए ? इनमें से प्रत्येक जानता, समझता है कि मरे बिना स्वर्ग नहीं देखा जा सकता। निर्झरजी ने यही किया। पत्राचार के सुख का स्वर्ग देखने के लिए उन्होंने `मोबाइल त्याग' का `मृत्यु-वरण' किया । अपना मोबाइल बेचने की सूचना देने वाला उनका पत्र हम सबको चिन्तन-मनन के लिए आवाज लगाता है । उन्होंने लिखा- `चिट्ठी लिखने की परम्परा वर्तमान में समाप्त् हो चली है । पुराने रचनाकारों, साहित्यकारों की चिट्ठी, पत्र उनकी धरोहर हुआ करती थी । चिट्ठी लिखने की पुरानी परम्परा को बनाए रखने के लिए मैंने अपना मोबाइल बेच दिया है । अब मुझसे खतो-किताबत करने के लिए मेरे पते पर स्नेहमयी चिटि्ठयाँ लिखा करिए । पता है- मकान नं. २१०, मिश्रा भवन रोड़, सेक्टर-२, बिलासपुर - १७४००१ (हिमाचल प्रदेश) ।'

कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। हम ऐसे `अतिरिक्त समझदार' लोग हैं जो कुछ भी खोए बिना सब कुछ पा लेना चाहते हैं । बदले में हमें कुछ भी नहीं मिल पा रहा है और इसीलिए हम प्रलाप करते रहते हैं । निर्झरजी ने मोबाइल छोड़ा है तो पत्राचार का सुख पाएँगे । वे तमाम लोग, जो पत्राचार विधा की शोकान्तिकाएँ पढ़ रहे हैं, निर्झरजी से सबक ले सकते हैं । ऐसे लोग बेशक अपना-अपना मोबाइल न बेचें, किन्तु पत्र लिखना तो शुरू कर ही सकते हैं ।

नया काम शुरू करना आसान है किन्तु स्थगित/बाधित काम शुरू करना कठिन होता है - यह बात मैं अपने अनुभव से कह पा रहा हूं । ऐसे में, निर्झरजी को बधाई देने वाले पत्र से ही इस स्थगित क्रम को गतिशील किया जा सकता है।

नामली में लोकतन्त्र



नामली और उसके आसपास के देहातों के शूरवीर लोगों को सलाम । मैं उन पर न्यौछावर । लोकतन्त्र की परिभाषा ‘जनता का शासन, जनता के लिए, जनता द्वारा’ इन सबको पता है या नहीं लेकिन इसे शब्दश: साकार कर दिया है इन सबने ।


महू-नीमच प्रान्तीय राजपथ पर, मन्दसौर-नीमच की ओर, रतलाम से कोई 12-13 किलोमीटर की दूरी पर है नामली । कस्बे से छोटा और गाँव से बड़ा । कोई 15-20 गाँव इससे जुड़े हुए हैं । रतलाम इसका न केवल जिला मुख्यालय बल्कि मुख्य बाजार भी । अपना सामान बेचने और खरीदने के लिए इन गाँवों के लोग-लुगाइयों को रतलाम आना ही पड़ता है । आते समय तो सारी बसें भरी रहती हैं सो बैठने की जगह मिलने का सवाल ही नहीं उठता । लेकिन इन लोगों को रतलाम से नामली लौटते समय भी बसों में बैठने की जगह नहीं मिलती । पूरी बस खाली हो तो भी । लम्बी यात्रा करने वाले (याने ज्यादा किराया देने वाले) यात्रियों को जगह देने के लिए नामली के लिए बैठे हुए लोगों को उठा दिया जाता है । इस तरह उठाते समय, उठाए जाने वाले की दशा पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता - वृध्द हो, बीमार हो, महिला गर्भवती हो या गोद में दुधमुँहा बच्चा लिए । किसी के लिए जगह नहीं । पूरा-पूरा किराया दो और ओव्हरलोड बस में बमुश्‍िकल खड़े रहते हुए यात्रा करो । यदि कोई प्रतिवाद करे तो बस मालिक, ड्रायवर, कण्डक्टर, खलासी (जो भी उस समय बस में मौजूद हो) की झिड़कियाँ, प्रताड़ना झेलो । औरतों को तो गालियाँ भी सुननी पड़ती हैं ।


जब बात हद से बाहर जाने लगी तो नामली जाने वाले लोगों ने प्रतिवाद से आगे बढ़कर प्रतिरोध करना शुरू किया । जवाब में सुनने को मिला कि नामलीवाले तो बदमाश हैं । इसके बाद नामलीवालों के सब्र ने साथ छोड़ दिया । उन्होंने नियमों और कानून से सहायता माँगी । उनकी सुनवाई नहीं हुई । बस मालिकों (याने धन्धेबाजों) को नेताओं और अफसरों का पूरा-पूरा भरोसा। इस तिकड़ी की ‘दुरभि सन्धि’ से सारा देश परिचित और त्रस्त है । आखिरकार नामलीवालों ने सड़क पर बसें रोकी, महिलाओं के साथ गाली-गलौच करने और नामलीवालों को बदमाश कहने के लिए बसवालों से क्षमा-याचना करने की, भविष्‍य में अपना व्यवहार सुधारने और बस में सीट की माँग की । बस वालों ने कोई तवज्जो नहीं दी । सड़क पर खड़ी छोटी सी भीड़ को ‘भाड़’ बनने में देर नहीं लगी । बसों में तोड़फोड़ हो गई । जो सरकारी तन्त्र अब तक अन्धा-बहरा बना हुआ था, फौरन हरकत में आ गया । दोनों पक्षों ने अपनी बात रखी । पुलिस ने अपना स्थापित चरित्र दिखाया । बसवालों के खिलाफ नागरिकों की रिपोर्ट तो दर्ज नहीं कि अलबत्ता बसवालों की शिकायत पर चार-पाँच लोगों के खिलाफ नामजद एफआईआर दर्ज कर ली । बसवाले इतने पर ही नहीं रूके । अगले दिन उन्होंने बसें बन्द कर दीं ।


बसवालों की मनमानी के खिलाफ लोग लामबन्द हो गए । सबने अपनी असहमतियाँ, मतभेद, झण्डे-डण्डे मलैनी नदी में फेंक दिए और ‘एक सौ पाँच’ बन कर खड़े हो गए । 30 मई को नामली और आसपास के गाँवों के हजारों लोग-लुगाई नामली बस स्टैण्ड पर आ खड़े हुए - सड़क के बीचों-बीच । यातायात ठप्प । नामली के दोनों छोरों पर वाहनों की मीलों लम्बी कतार लग गई । मोबाइल घनघनाए तो एसडीएम, एसडीओपी, आरटीओ जैसे तमाम अफसर ऐसे दौड़े आए मानो सबकी दुम में आग लग गई हो । इस बार लोग उत्तेजित, आवेशित लेकिन संयत और नियन्त्रित थे, विवेकवान और ‘भाड़’ बनने की न्यूनतम आशंका से कोसों दूर । अफसरों ने चाहा कि गिनती के लोगों से बन्द कमरे में बात कर ली जाए । लोगों ने कहा - बात यहीं सड़क पर होगी और सबके सामने होगी । सो, लोगों ने अपनी बात कही, खुलकर कही और ऐसे कही कि अफसरों की घिघ्घी बँध गई । आरटीओ साहब के पास लोगों के इस सवाल का कोई जवाब नहीं था कि बस वालों ने परमिट की शर्तों का उल्लंघन कर, बिना सूचना दिए बसें बन्द कर दीं तो उन पर कार्रवाई क्यों नहीं की गई । जिन देहातियों को सारे अफसर बड़े हलके से ले रहे थे वे बहुत भारी साबित हो रहे थे । अफसरों की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई । एसडीएम को स्वीकार करना पड़ा कि जब इतनी सारी महिलाएँ, इतने सारे लोग, लू की लपटों के बीच इकट्ठे हुए हैं तो कोई न कोई बात तो होगी ही ।

बहरहाल, नामली और आसपास के देहातों के लोगों ने प्रशासन के ‘उचित कार्रवाई’ करने के आश्वासन पर अपने कदम पीछे खींच लिए हैं क्योंकि वे भी जानते थे कि सड़क पर कोई अन्तिम फैसला नहीं दिया जा सकता ।

लेकिन वे चुप नहीं बैठे हैं । कई लोगों से मेरी बात हुई है । उन्होंने कुछ बातें तय कर ली हैं । जैसे कि, बस वाले ‘चोर’ हैं और आरटीओ साहब ‘चोर की माँ’ हैं, सो उन्होंने अब आरटीओ को निशाने पर ले लिया है । वे यह मान कर ही चल रहे हैं कि आरटीओ आँखें मूँद कर, बसवालों के हितों की रक्षा करेंगे । चूँकि हमारी व्यवस्था ‘कागज’ से चलती है सो वे आरटीओ की लापरवाही (याने एकतरफा पक्षपात) के दस्तावेजी प्रमाण जुटाएँगे । वे साबित करेंगे कि आरटीओ और बस मालिक की मिली भगत से ही सारी मुसीबतें खड़ी हो रही हैं । उन्होंने यह भी तय कर लिया है कि अब वे यथासम्भव सरकार के दरबार में नहीं जाएँगे बल्कि सरकार को ही नामली की सड़क पर बुलाएँगे । अब वे अपनी पीठ पर ‘तन्त्र’ को सवारी नहीं करने देंगे और ‘तन्त्र’ को नकेल डाल कर ‘नागरिक अस्मिता’ की रक्षा करेंगे । लोगों ने काम बाँट लिए हैं क्यों कि वे समझ गए हैं कि एक आदमी के जिम्मे सब काम कर दिए तो एक भी काम नहीं हो सकेगा । चूँकि यह सबकी समस्या है सो सब एकजुट होकर इससे निपटेंगे ।

नामली का मेरा प्रिय मुकेश जैन (भंसाली) इस जन अभियान में शुरू से ही पहली पंक्ति में खड़ा होकर जन-भावनाओं को वाणी दे रहा है । मैं ने उससे कहा है कि अगली बार जब भी ‘नागरिक अस्मिता की रक्षा के लिए, ऐसा कोई जमावड़ा हो तो मुझे एक दिन पहले खबर करे । लोकतन्त्र’ की मूल भावना को व्यवहारतः साकार करने के लिए जोखिम उठाने वाले ऐसे शूरवीरों के नेतृत्व में चलने में मुझे अत्यधिक सुख और आत्म सन्तोष मिलेगा ।

मैं मुकेश के समाचारों की प्रतीक्षा कर रहा हूँ - नामली और उसके आसपास के देहातों के जुझारू, ‘लोकतन्त्र’ के रक्षक लोग-लुगाइयों को एक बार फिर सलाम करते हुए ।

(मेरी यह पोस्ट, रतलाम से प्रकाशित हो रहे ‘साप्ताहिक उपग्रह’ के, 04 जून 2008 के अंक में, ‘बिना विचारे’ शीर्षक स्तम्भ के अन्तर्गत 'शाबास ! नामलीवालों’ शीर्षक से प्रकाशित हुई है ।)

असली बैरागी


मैं बैरागी हूँ जरूर लेकिन कहने भर को । कोई बाल-बच्चेदार आदमी बैरागी कैसे हो सकता है ? अपने ‘ऐसे बैरागीपन’ के मजे मैं खुद लेता रहता हूँ । लेकिन मणी भाई ने मेरा यह ‘मजा’ मुझसे छीन लिया है । उन्होंने साबित कर दिया है कि कोई बाल-बच्चेदार आदमी भी बैरागी हो सकता है । उन्होंने ‘बैरागी’ की शाब्दिकता को भेदकर (या कहिए कि छिन्न-भिन्न कर) उसकी निराकार आत्मा को अपने आचरण से साकार कर दिया ।

मणी भाई का पूरा नाम मणीलाल जैन है । अभी एक महीना भी नहीं हुआ, इसी 14 मई को उन्होंने अपने जीवन के 60 वर्ष पूरे किए और उसी दिन अपने व्यवसाय से स्वैच्छिक निवृत्ति ले ली । मैं ने ऐसा पहली ही बार देखा । अब तक तो मैं ने यही देखा है कि रिटायर होने से पहले ही लोग दूसरी नौकरी या काम धन्धे की सुनिि‍श्‍चतता कर लेते हैं । आज शाम को कार्यालय से बिदाई समारोह में शाल-श्रीफल के साथ सामूहिक चन्दे की गिट लेकर घर आए और अगली सुबह से नई नौकरी या नया काम शुरू । लेकिन मणी भाई ने ऐसा नहीं किया ।


वे नौकरी में नहीं थे । उनका अपना पैतृक व्यवसाय था । व्यवसाय भी लगभग ‘एक छत्र साम्राज्य’ जैसा । मालवा की जनभाषा में उनके व्यवसाय को ‘स्टेशन दलाल’ कहते हैं जिसे अंग्रेजी ने ‘हेण्डलिंग काण्ट्रेक्टर’ का अभिजात्य प्रदान कर दिया । मणी भाई के पिताजी (दिवंगत) श्री झब्बालालजी ने जीविकोपार्जन के लिए इस व्यवसाय को अपनाया था । उनका काम इतना साफ-सुथरा और विश्‍वसनीय था कि हेरा-फेरी करने वाले आतंकित होकर उनसे खुद ही दूरी बनाए रखते थे । उन्होंने अपनी फर्म का नाम रखा - मेसर्स मणीलाल झब्बालाल । यह नाम व्यावसायिक ईमानदारी, शुचिता, पारद‍‍िर्शता और विश्‍वसनीयता का प्रामाणिक पर्याय बन गया । इस व्यवसाय में रेल अधिकारियों और कर्मचारियों से चैबीसों घण्टे सम्पर्क बनाए रखना पड़ता है और ‘विविध तथा विचित्र मिजाज’ वाले लोगों से काम निकलवाना पड़ता है । लेकिन झब्बालालजी को कभी कोई असुविधा नहीं हुई और कोई परेशानी नहीं झेलनी पड़ी । उन्होंने अपनी शर्तों पर धन्धा किया । ‘सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं’ वाली कहावत झब्बालालजी के कार्यकाल में, पूरी होने के लिए तरसती रह गई । उनके कार्यकाल में यह कहावत ‘सत्य न तो परेशान होता है और न ही पराजित’ के स्वरूप में ही अनुभव की जाती रही । रतलाम में रेल्वे का मण्डल कार्यालय है जो झब्बालालजी के कामकाज को नियन्त्रित करता रहा । इस कार्यालय के पुराने कर्मचारी आज भी झब्बालालजी के काम की दुहाइयाँ देते मिलते हैं ।


मणी भाई ने अपने पिताजी की परम्परा को न केवल जस का तस चलाया बल्कि उसे अधिक प्रांजल और विस्तारित भी किया । ‘हेण्डलिंग काण्ट्रेक्टर’ को रेल्वे के बड़े ग्राहक संस्थानों (यथा भारतीय खाद्य निगम, भारतीय खाद निगम, कृभको, विभिन्न सीमेण्ट कम्पनियाँ, प्रदेश नागरिक आपूर्ति निगम आदि) और रेल्वे के बीच सेतु का काम करना पड़ता है । व्यापार के व्यवहार, सरकार के कानूनों और प्रक्रियाओं के बीच सदैव ही असंख्य कामकाजी विसंगतियाँ होती हैं । (ज्ञानदत्तजी पाण्डेय इसे अधिक अच्छी तरह समझा सकेंगे । वे तो मणी भाई को व्यक्तिश: जानते भी हैं ।) मणी भाई ने अपने पिताजी की ‘पारदर्शिता, समन्वय, सहयोग’ की परम्परा को पुष्ट ही किया ।


अठारह वर्ष की आयु में मणी भाई ने अपने पिताजी के साथ काम करना शुरू किया । वे अपने पिताजी के ‘वास्तविक मानस पुत्र’ भी साबित हुए । उनके पिताजी ने निर्णय ले रखा था कि जिस दिन उनका व्यापार दस हजार रूपयों का आँकडा को पार कर लेगा, वे सन्यास ले लेंगे । तब दीवाली से दीवाली तक की अवधि का वर्ष हुआ करता था और दस हजार रूपयों का व्यापार बहुत बड़ा हुआ करता था। एक शाम हिसाब करते-करते उन्होंने पाया कि उनका व्यापार दस हजार रूप्ये पार कर चुका है । बस, अगले दिन से उन्होंने न केवल पेढ़ी पर आना बन्द कर दिया अपितु गृहस्थी त्याग की भी इच्छा प्रकट कर दी । उन्हें बड़ी कठिनाई से मनाया गया । वे माने तो जरूर लेकिन उन्होंने मणी भाई को कलम और चाबियाँ सौंप दी और जल्दी ही, परिवार की अनुमति ले कर, घर-बार छोड़ कर सन्यासी बन गए । वे मालवा अंचल में, उनके गुरूजी के सम्प्रदाय में ‘झब्बा मुनि’ के रूप में पहचाने गए । जब तक शरीर ने साथ दिया तब तक वे जैन मुनि के लिए निर्धारित निर्देशों के अनुसार सतत् भ्रमण करते रहे । जब शरीर अशक्त हो गया तो गुरू-आदेश से उन्होंने मध्य प्रदेश के शाजापुर जिले के आगर (मालवा) के जैन स्थानक में मुकाम बनाया और वहीं, गत वर्ष, सन्थारा लेकर आत्म कल्याण प्राप्त किया ।


इस लिहाज से मणी भाई ‘आज्ञाकारी सुपुत्र’ साबित हुए । कोई चार वर्ष पूर्व उन्होंने स्वैच्छिक निर्णय लिया कि वे अपनी आयु के 60 वर्ष पूर्ण होने के बाद व्यापार से निवृत्ति ले लेंगे । जैसा कि होता है, शुरू में उनकी बात को सबने हलके से ही लिया । जिसने गम्भीरता से लिया, उसने समझाइश दी । लेकिन मणी भाई ने ऐसे तमाम परामर्श एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल दिए । जैसे-जैसे 14 मई 2008 पास आने लगी वैसे-वैसे मणी भाई की दृढ़ता देख-अनुभव कर उनके परिजन आकुल-व्याकुल होने लगे । पहले खुद ने समझाया, परिवार के बड़ों-सयानों से कहलवाया, कुछ ने तो इस तरह व्यापार छोड़ने को परिजनों के साथ धोखाधड़ी निरूपित कह कर उकसाने की कोशिश की । लेकिन मणी भाई तो ‘नासहा मुझ को न समझा जी मेरा घबराए है / मैं उसे समझूँ हूँ दुश्मन जो मुझे समझाए है’ वाली मुद्रा में बने रहे ।


14 मई 2008 को सवेरे, तमाम अखबारों में मणी भाई का विस्तृत वक्तव्य, विज्ञापन रूपमें हम सबके सामने था । उन्होंने सबके प्रति आभार व्यक्त करते हुए अपनी व्यावसायिक स्वैच्छिक निवृत्ति की एकतरफा सार्वजनिक घोषणा कर दी थी । उन्होंने अविश्वसनीय को सच साबित कर दिखाया ।

वे अपने तमाम गार्हस्थिक उत्तरदायित्व पूरे कर चुके हैं । दोनों बेटियों और इकलौते बेटे का विवाह कर, नाना-दादा बन, नाती-पोतों से खेल रहे हैं । सेवा निवृत्ति के बाद, एक पल के लिए भी अपने कार्य स्थल पर नहीं गए । यह अपने आप में अजूबा ही है । हमारे आस-पास ऐसे अनेक लोग मिल जाएँगे जो वानप्रस्थ की योग्यता अर्जित कर चुके हैं लेकिन तिजोरी की चाबी अपनी अण्टी में कसे हुए हैं, सबसे पहले पेढ़ी पर पहुँचते हैं और सबसे बाद में घर लौटते हैं, अपनी ही अगली पीढ़ी की प्रतिभा, योग्यता, व्यापारिक सूझ-बूझ और क्षमता पर भरोसा नहीं करते, दिन भर नसीहतें झाड़ते रहते हैं और निर्देश देते रहते हैं । लेकिन मणी भाई ने ऐसे तमाम लोगों को बौना और नासमझ साबित कर दिया । उन्हें अपने अनुज सुभाष और बेटे संजय पर न केवल विश्वास है बल्कि गुमान भी है । उनका कहना है कि दोनों काका-भतीजा उनसे (मणी भाई से) अधिक समझदार, अधिक क्षमतावान, अधिक प्रतिभावान और बेहतर व्यवसायी हैं । इन दोनों को कोई परामर्श और निर्देश देने का विचार भी मणी भाई के मन में नहीं आया । अब तक वे व्यापार का आनन्द ले रहे थे, अब अपनी मन-मर्जी का जीवन जीने का आनन्द ले रहे हैं ।


भला बताइए ! असली बैरागी कौन ? मणी भाई का आचरण मुझे अपने आप को बैरागी कहने से रोक रहा है ।मेरी बातों पर विश्वास न हो तो मोबाइल नम्बर 94251 64444 पर खुद मणी भाई से पूछ लीजिए । मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ से बाहर के जिज्ञासु इस नम्बर के आगे ‘0’ जरूर लगा लें ।

भिखारी की जूठन


शुक्रवार, 30 मई की शाम से मैं विकल, व्यथित और क्षुब्ध हूँ । खुद को साक्षी भाव से देखने का मेरा प्रत्येक प्रयास मुझे मेरी ही नजरों में लज्जित कर रहा है और मुझे धिक्कार रहा है ।

इन दिनों घर में अकेला हूँ । गर्मी की छुट्टियों के कारण पत्नी मायके गई हुई है । बड़ा बेटा नौकरी के प्रयोजन से मुम्बई, बहू अपने मायके और छोटा बेटा पढ़ाई के निमित्त इन्दौर है । भोजन बनाना सीखा नहीं सो नगर की विभिन्न होटलों में पगफेरा बना हुआ है ।

शुक्रवार, 30 मई की शाम एक मित्र से मिलने रेल्वे स्टेशन गया था । वे उज्जैन से सूरत जा रहे थे । उन्हें विदा कर लौटने लगा तब तक रात के आठ बजने ही वाले थे । भूख भी लग आई थी । सो, रेल्वे स्टेशन पर ही, आईआरसीटीसी के नाम पर चलने वाली, ठेकेदार की केण्टीन में भोजन करने का विचार आया ।

ठेके की ऐसी व्यवस्थाओं को अंजाम देने वाले लोग, यन्त्रवत व्यवहार करते हैं । मनुष्यता की सहज ऊष्मा वहाँ गैरहाजिर ही रहती है । सो, भोजन का मूल्य चुका कर पहले टोकन लिया । कर्मचारी ने निर्विकार भाव से, ‘मुद्राविहीन मुद्रा’ में थाली लगाई । थाली में रखी रोटियाँ देख कर मन असहज हो गया । एक भी रोटी बिना जली हुई नहीं थी । कौर तोड़ने के लिए रोटी थामी तो असहजता, झुंझलाहट में बदलने लगी । रोटियाँ नाम मात्र को भी गर्म नहीं थी । निस्सन्देह वे ‘फ्रीज्ड’ नहीं थी लेकिन ‘रूम टेम्परेचर’ से भी कम तापमान पर थीं । मैं ने तनिक गरम रोटियों का आग्रह किया तो तैनात ‘रोबोट’ ने मेरी ओर देखे बिना कहा - ‘रोटियाँ तो यही हैं ।’ मैं ‘बे-चारा’ दशा में था । मैं ने कौर तोड़ कर दाल के साथ पहला निवाला लिया तो दाल खट्टी लगी । या तो बास गई थी या फिर बासने ही वाली थी । लेकिन कहा कुछ भी नहीं । कहने का कोई मतलब ही नजर नहीं आ रहा था । थाली में रखी सब्जी की दो कटोरियाँ तसल्ली और भरोसा दे रही थीं ।

निवाले को चम्मच की शकल देकर पहली कटोरी की सब्जी ली । लेकिन मुँह में रखते ही मानो आग लग गई । देखने में जो सब्जी आलू की लग रही थी वह वास्तव में मिर्ची की थी । इतनी तेज कि दूसरा निवाला लेने की हिम्मत ही नहीं हुई । दूसरी कटोरी में भजिया कढ़ी थी । अब उसी का आसरा रह गया था । लेकिन उसने भी साथ नहीं दिया । उसमें नमक इतना ज्यादा था मानो, सब्जी के पूरे घान का नमक मेरी कटोरी में मिला दिया गया था ।

कोई बीस-बाईस लोगों की बैठक क्षमता वाली उस केण्टीन में उस समय कुल दो लोग थे - मैं और ठेकेदार का एक कर्मचारी । थाली सामने आए कोई चार-पाँच मिनिट हो चुके थे, भूख जोर से लगी हुई थी लेकिन मैं दूसरा निवाला नहीं ले पा रहा था । केण्टीन में फुटकर रूप से दूसरी ऐसी कोई सामग्री भी नहीं थी जिसके साथ रोटी खाई जा सके ।

मुझे गुस्सा आने लगा था लेकिन उससे पहले और उससे कहीं अधिक भूख जोर मार रही थी । पेट माँग रहा था और जबान कबूल नहीं कर पा रही थी । सोचा, किसी दूसरी होटल में भोजन कर लिया जाए ।

लेकिन यह विचार अकेला नहीं आया । इसके साथ विचारों का झंझावात और मेरे अतीत की पूरी चित्र श्रृंखला भी चली आई ।

हमारा परिवार, भीख की रोटियों पर पला परिवार है । मेरे पिताजी दोनों पैरों और दाहीने हाथ से पूर्णतः और बाँये हाथ से अंशतः जन्मना विकलांग थे । मेरी माँ, चुनिन्दा घरों से रोटियाँ माँग कर लाती थी । ये घर माहेश्वरियों और (दिगम्बर तथा श्वेताम्बर) जैनों के थे । तब मैं बहुत छोटा था लेकिन यह भली प्रकार याद है कि कभी-कभी मैं भी माँ के साथ जाया करता था । तयशुदा घर के दरवाजे पर पहुँच कर माँ आवाज लगाती - ‘रामजी की जय ।’ प्रत्युत्तर में गृहस्वामिनी रोटी लेकर आती । मेरी माँ अपने हाथ का बर्तन सामने करती और रोटी उसमें, हलकी सी ‘झप्प’ की आवाज करती हुई गिरती । रोटी गरम-गरम होती और महत्वपूर्ण बात यह होती कि गृहस्वामिनी की आँखों में न तो कोई दया भाव होता और ही दान करने का । अलग-अलग घर की अलग-अलग रोटी । कभी-कभी कोई गृहस्वामिनी रोटी के साथ सब्जी या कोई मिठाई या मौसम का पकवान रख देती थी ।

सारे घरों का चक्कर लगा कर माँ लौटती तो घर को भोजन मिलता । कभी सब्जी होती तो प्रायः ही नहीं होती । मेरा स्मृति कोष बहुत अधिक सम्पन्न नहीं लेकिन माँ, बड़ी बहन (जीजी) और दादा के मुँह से, माँ की इस भिक्षावृत्ति के असंख्य प्रसंग सुने और असंख्य बार सुने । जीजी भी रोटियाँ माँगने जाती - कभी माँ के साथ तो कभी अकेली । दादा ने भी खूब रोटियाँ माँगीं ।

भिक्षावृत्ति का यह क्रम हमारे परिवार में बरसों तक चला । छठवीं-सातवीं कक्षा तक मैं ने भी घर-घर जाकर, ‘रामजी की जय’ की आवाज लगा कर, मुट्ठी-मुट्ठी आटा माँगा । दादा को यह वृत्ति कभी पसन्द नहीं आई । लेकिन अपाहिज पिता और विवश माँ की कोई सहायता कर पाना उनके लिए तब सम्भव नहीं हो पा रहा था । वे जैसे ही इस स्थिति में आए, उन्होंने लगभग विद्राह कर, माँ के हाथ से भीख का बर्तन और मेरे हाथ से लोटा छुड़वाया । मेरे पिताजी ने इस निर्णय को कभी स्वीकार नहीं किया । उनकी राय में यह तो हम बैरागी साधुओं का पवित्र कर्तव्‍य था जिसका त्याग कर हम ईश्वर के अपराधी बन रहे थे । लेकिन दादा के तर्कों के आगे पिताजी की एक न चली ।

जिस पहले दिन मेरी माँ रोटी माँगने नहीं गई उस दिन मेरी माँ खूब रोई । लेकिन यह रोना खुशी का था । दादा ने माँ को भिखारी से गृहस्थन का सम्मान और दर्जा जो दिला दिया था । यह दादा ही थे जिन्होंने हमारे पूरे परिवार की दशा सुधारी और सँवारी ।

रेल्वे केण्टीन में, मेरे सामने रखी थाली की रोटियाँ और दाल-सब्जियों की कटोरियाँ मुझे नजर नहीं आ रही थीं । मुझे रोटियाँ माँगती मेरी माँ नजर आ रही थी, मुट्ठी भर आटे के लिए अपने हाथ में थामा, पीतल का बड़ा लोटा आगे करता हुआ मैं अपने आप को देख रहा था । ‘रामजी की जय’ वाली, मेरी माँ की और मेरी आवाजें कानों में इस जोर से गूंज रही थीं मानो मेरे कान फट जाएँगे और उनसे लहू रिसना शुरू हो जाएगा । इस सबके साथ ही साथ, दादा के दिए संस्कार हिमालय बन कर सामने खड़े हो गए थे । दादा ने दो बातें हमें सिखाईं । पहली - थाली में जो भी सामने आए, उसे बिना किसी शिकायत के, पूरे सम्मान और प्रेम सहित स्वीकार करो । दूसरी - थाली में कभी भी जूठन मत छोड़ो ।

सुनसान रेल्वे केण्टीन में मैं जड़वत बैठा था । न बैठते बन रहा था और न ही रूका जा रहा था । मुझे बार-बार लग रहा था मेरी स्वर्गवासी माँ, दादा और राजस्थान के दूर-दराज छोटे से गाँव में रह रही मेरी जीजी, सबके सब मुझे घेर कर खड़े हैं और जिज्ञासा भाव से मेरे निर्णय की प्रतीक्षा कर रहे हैं ।

मेरी भूख मर गई थी, तेज मिर्ची और खूब सारे नमक का स्वाद जबान से उड़ चुका था, रोटियों का ठण्डापन अपने मायने खो चुका था । सब कुछ गड्डमड्ड हो गया था । अचानक ही मुँह फिर खारा हो गया - मैं रो रहा था और आँसू बहे जा रहे थे ।

अन्ततः मैं भोजन किए बिना उठ आया । मैं देख पा रहा था कि मेरी माँ, दादा और बड़ी बहन मुझे अविश्वास भाव से घूरे जा रहे हैं । वे मुझसे न तो कुछ पूछ रहे हैं और न ही कुछ कह रहे हैं । बस, मुझे घूरे जा रहे हैं । भिक्षावृत्ति पर पला-बढ़ा और अन्न को सदैव सम्मान देने के लिए संस्कारित कोई उनका अपना, थाली में जूठन छोड़ कर जा रहा है - केवल इसलिए कि रोटियाँ ठण्डी/जली हुई हैं, दाल बासी है, एक सब्जी में मिर्ची बहुत तेज है और दूसरी में नमक बहुत ज्यादा । मैं केण्टीन से बाहर निकलूँ उससे पहले ही वे मेरी ओर पीठ फेर कर धीरे-धीरे चले गए ।

मैं सीधा घर आया । भोजन कर पाना मेरे लिए मुमकिन ही नहीं रह गया था । भूख मर चुकी थी और शायद उससे पहले मेरी आत्मा । मैं संस्कारच्युत हो चुका था । मैं ने भिखारी की अस्मिता को लांछित और अपमानित कर दिया था । कोई भिखारी भला जूठन कैसे छोड् सकता है १

तब से मैं विकल, व्यथित और क्षुब्ध हूँ । खुद को साक्षी भाव से देखने का मेरा प्रत्येक प्रयास मुझे मेरी ही नजरों में लज्जित कर रहा है और मुझे धिक्कार रहा है ।

जिस देश के 80 प्रतिशत लोग 20 रूपये रोज पर जीवन यापन कर रहे हैं, जिस समाज में, सामूहिक भोज की झूठी पत्तलों के ढेर पर बच्चे टूट पड़ रहे हों, उस देश और समाज में कोई ‘भिखारी’ जूठन छोड़ने का विलासिता भला कैसे कर सकता है ?

मैं खुद से नजरें नहीं मिला पा रहा हूँ ।