मिजाज खोने से कैसे चलेगा?’

- काका कालेलकर

‘सुधारक हमेशा अल्पमत में होता है। रूढ़िवादी बहुमत में और अधिकार सम्पन्न होते हैं। इसलिए अपने मिजाज पर काबू रखना ही अल्पमत सुधारक की ताकत होती है।’

जब मैं पहले-पहल गाँधीजी से मिला और उन्होंने आश्रम में दाखिल होने के लिए आमन्त्रित किया तो मैंने कहा, ‘आपकी अहिंसा पर मेरा अभी तक पूरा विश्वास नहीं जमा है। अहिंसामय जीवन परमानुकूल है, उन्नतिकारक है, इतना तो मैं देख सका हूँ। उसके प्रति मेरा आकर्षण भी है। लेकिन मैं यह नहीं मानता कि अहिंसा हमें स्वराज्य दिलाएगी। स्वराज्य मुझे सबसे प्यारा है; उसके लिए मैं हिंसा करने को भी तैयार हो जाऊँगा और बाद में चाणक्य की भाँति प्रायश्चित कर लूँगा। ऐसी हालत में आप मुझे अपने आश्रम में कैसे ले सकते हैं?’

गाँधीजी मुस्कराते हुए बोले, ‘जो तुम्हारे विचार हैं, वही सारी दुनिया के हैं। तुमको आश्रम में न लूँ तो किसको लूँ? मैं जानता हूँ कि बहुमत तुम्हारा है। लेकिन में सुधारक हूँ। आज अल्पमत में हूँ। अतः मुझे धैर्य के साथ राह देखनी चाहिए। सुधारक अगर बहुमत की बात बर्दाश्त न करे, तो दुनिया में उसी को बहिष्कृत होकर रहना पड़ेगा।’

एक जवाब से गाँधीजी ने अच्छी तरह समझाया है कि सुधारक का धर्म क्या है।

कभी किसी ने गाँधीजी से पूछा, ‘आपकी राय में विनोद का जीवन में कितना स्थान है?’ वे बोले, ‘आज तो मैं महात्मा बन बैठा हूँ, लेकिन जिन्दगी में मुझे हमेशा कठिनाइयों से लड़ना पड़ा है। कदम-कदम पर निराश होना पड़ा है। उस वक्त अगर मुझमें विनोद न होता, तो मैंने कब की आत्महत्या कर ली होती। मेरी विनोद-शक्ति ने ही मुझे निराशा से बचाया है।’

इस जबाब में गाँधीजी ने जिस विनोद-शक्ति का विचार किया है, वह केवल शाब्दिक चमत्कार द्वारा लोगों को हँसाने की बात नहीं है, बल्कि लाख-लाख निराशाओं में अमर आशा को जिन्दा रखने वाली आस्तिकता की बात है। छोटे बच्चे जब गलतियाँ करते हैं, शरारतें करते हैं, तब हम उन पर गुस्सा नहीं करते। मन में सोच लेते हैं कि बच्चे ऐसे ही होते हैं। इसमें मिजाज खोने की क्या बात है? जब ये होश सम्भालेंगे, अपनी गलतियाँ अपने आप ही समझ लेंगे। सुधारक के हृदय में यह अटूट विश्वास होना चाहिए कि दुनिया धीरे-धीरे जरूर सुधर जाएगी। दुनिया भी बच्चा ही तो है!

मुझे एक प्रसंग याद आता है। ‘परिगणित जाति-आयोग’ के काम से हम मुसाफिरी कर रहे थे। रास्ते में एक साथी की पेटी गायब हो गई। वे बहुत बिगड़े, सब पर नाराज हुए। आखिरकार मेरे पास आए और ऊँची आवाज में उन्होंने सारा किस्सा कह सुनाया। मैंने उन्हें शान्ति से कहा, ‘बड़े अफसोस की बात है कि आपने अपनी पेटी खोई। लेकिन मैं समझ नहीं पा रहा कि अपनी पेटी के साथ-साथ आप अपना मिजाज भी क्यों खो बैठे हैं?’ वे हँस पड़े। उन्हें खोया हुआ मिजाज तुरन्त मिल गया। और काफी कोशिश के बाद उनकी पेटी भी मिल गई।

मैंने देखा कि जिन्दगी में मनुष्य के नसीब में हार-जीत आती रहती है। कई बार मनुष्य अपनी पूँजी खो बैठता है, वसीला खो बैठता है। लेकिन उसकी आखिरी पूँजी तो उसका मिजाज ही होता है। जब तक मनुष्य ने मिजाज नहीं खोया है, उसे निराश होने की आवश्यकता नहीं है।

सुधारक तो हमेशा अल्पमत में होता है। रूढ़िवादी ही बहुमत में होते हैं, अधिकार-सम्पन्न होते हैं। ऐसी हालत में दुनिया के साथ दोस्ती रखना, नाराज न होना और मिजाज न  खोते हुए अपना हाथ ऊपर रखना उसी के लिए साध्य है, जो हमेशा मुस्कराता रहता है और प्रसन्न रहकर लोगों के साथ पेश आता है। 

सम्राट चन्द्रगुप्त के प्रधान अमात्य चाणक्य से किसी ने आकर घबराते हुए कहा, ‘स्वामिन्! आपके साथियों ने आपको दगा दिया है। वे शत्रुओं से जाकर मिले हैं। आपकी फौज भी बिगड़ गई है और आपको छोड़कर शत्रु के पास जाने की तैयारी कर रही है।’ चाणक्य ने शान्ति से जवाब दिया, ‘और भी जिनको जाना हो, शौक से चले जाएँ। मेरी बुद्धि मुझे न छोड़ जाए, तो बस है - बुद्धिस्तु मा गान्मम।’ संकट-काल में परिस्थिति को सम्भालने वाली ऐसी अघटित-घटना-पटीयसी बुद्धि को ही मिजाज कहते हैं।

पूना के एक भाई बड़े मसखरे थे। लम्बे प्रवास के बाद घर आए तो देखते हैं कि घर का ताला नहीं खुलता। क्या किया जाए? नाराज होने से ताला थोड़े ही समझने वाला था! वे नाटकीय स्वर में बोले, ‘अरे कमबख्त ताले! मैंने तुझे पूरे दाम देकर खरीदा था। मैं तेरा मालिक हूँ। तू मेरा क्रीत दास है। मैं दो महीने बाहर क्या गया, तू मुझे भुला ही बैठा! ठहर, अब मैं तुझ पर स्नेह-प्रयोग करता हूँ। खोल तो जरा अपना मुँह!’ और उन्होंने तेल की दो तीन बूँदें ताले में डालकर फिर चाबी घुमाई। ताला तुरन्त खुल गया। घर के सब लोग, जो बाहर प्रतीक्षा में खड़े-खड़े तंग आ गए थे, प्रसन्न हो गए, और उसी शुभ प्रसन्नता के साथ उन्होंने गृह-प्रवेश किया। हमारे सामाजिक जीवन में रूढ़ि के ताले ऐसे ही खुल सकते हैं।

सुकरात यूनान के प्रथम पंक्ति के तत्वज्ञानी सन्त थे, और थे अपने जमाने के कड़े टीकाकार। लेकिन मिजाज के पक्के थे। कभी होश-हवास नहीं खोते थे। एक दिन उनकी पत्नी गुस्से में आकर जोर-जोर से चिल्लाने लगी; लेकिन सुकरात बर्फ की तरह ठण्डे ही रहे। यह देखकर पत्नी का मिजाज और भी बिगड़ गया। उसने गन्दे पानी की एक बाल्टी सुकरात के सिर पर उँडेल दी। सुकारात हँस कर बोले, ‘इतनी गर्जना के बाद तो बारिश होनी ही थी!’ ऐसे ठण्डे मिजाज के कारण ही सुकरात अपने जमाने को सुधार सके।

महाराष्ट्र के सन्त-कवि और समाज-सुधारक तुकाराम भी अपनी पत्नी के साथ शान्ति से काम लेते थे। वे अपने अनुभव से कहते हैं, ‘मना करा रे प्रसन्न, सर्व सिद्धीचें कारण’, अर्थात् अपने मन को प्रसन्न रखो, वही सब सिद्धियों का मूल है।

मैंने यह लेख गाँधीजी की विनोद-शक्ति के नमूने से प्रारम्भ किया है। इसका अन्त भी मैं इस वाक्य से करूँगा, जो गाँधीजी ने सेवाग्राम की अपनी कुटी में लिख रखा था, ‘जब आप ठीक हैं, तब तो मिजाज सम्भालना आपके लिए आसान भी है। और जब आपकी बात ठीक नहीं है तब मिजाज खोने से कैसे चलेगा?’

इसलिए, सबसे बड़ी हानि मिजाज खोने में ही है। जो मिजाज खोता है, कमजोर पड़ता है, अन्धा बनता है और खुद अपना ही शत्रु बनता है। जो मिजाज नहीं खोता, उसका भविष्य उज्ज्वल है।

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(‘गांधी-मार्ग’, जनवरी-फरवरी 2022 अंक से साभार।)

 


 


कभी मैं भी वहीं खड़ा था जहाँ आज आप खड़े हैं

- न्यायमूर्ति एन. वी. रमना

(देश के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एन. वी. रमना द्वारा 9 दिसम्बर 2021 को दिल्ली के ‘नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी’ में दिया 8वाँ दीक्षान्त भाषण।  अनुवादः प्रेरणा)

यह इस या उस साल के लिए नहीं, हर साल के लिए शाश्वत संकल्प है: ‘मैं चाहता हूँ कि आप अपने सिद्धान्तों से कभी समझौता न करें!’

इस 68वें दीक्षान्त समारोह में मैं आपको एक बेहद चुनौतीपूर्ण, बौद्धिक उत्तेजना से भरपूर और अविश्वसनीय हद तक सन्तोषजनक पेशे का हिस्सा बनने पर बधाई देता हूँ। जस्टिस चागला के शब्दों में कहूँ कि ‘कानून का पेशा आजीविका का बड़ा ही उम्दा द्वार खोलता है। यह विद्वता भरा महान पेशा है पर आप हमेशा याद रखें कि यह एक पेशा है, व्यापार या व्यवसाय नहीं। दोनों के बीच गहरा और मौलिक भेद है। व्यापार में आपका एकमात्र उद्देश्य पैसा बनाना होता है जबकि कानून के पेशे में पैसा महज प्रासंगिक महत्व रखता है।’

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने एक बार कहा था कि युवा परिवर्तन के वाहक हैं। मुझे भी लगता है कि आधुनिक भारत का इतिहास इस देश के छात्रों और युवाओं की भूमिका को स्वीकार किए बिना अधूरा ही रह जाएगा। हमारे जागरूक और जिम्मेदार छात्रों ने कई सामाजिक परिवर्तनों और क्रान्तियों का सूत्रपात किया है और असमानताओं के खिलाफ आवाज बुलन्द की  है। वे युवक ही थे जो भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन  का चेहरा बने। सच तो यह है कि अक्सर हुआ   ऐसा ही है कि युवा आन्दोलनों द्वारा उठाए गए  सवालों को ही बाद में राजनीतिक दलों ने अपना सवाल बनाकर अपनाया है। 

शिक्षा का एक सामाजिक हेतु होता है जिसे  मैं समाज की जरूरतों को पूरा करने के मानवीय संसाधनों का विकास कहता हूँ। एक शिक्षित नागरिक किसी भी लोकतान्त्रिक समाज की सबसे बड़ी पूँजी होता है। युवाओं की सोच शुद्ध और ईमानदार होती है इसलिए वे सही मुद्दों पर लड़ने के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं, अन्याय के विरोध की लड़ाई में हमेशा अगली कतार में होते हैं। 

यह कहने के बाद मैं यह भी कहना चाहूँगा कि पिछले कुछ दशकों में भारतीय छात्र समुदाय से कोई बड़ा नेता उभरा नहीं है। मैं ऐसा महसूस करता हूँ कि उदारीकरण के बाद से ही सामाजिक सरोकारों में छात्रों की भागीदारी कम-से-कम होती गई है। ऐसा क्यों है? क्या आधुनिक लोकतन्त्र में छात्रों की भागीदारी का खास महत्व नहीं है? मैं ऐसा मानने को तैयार नहीं हूँ। यह बहुत जरूरी है कि आप वर्तमान में हो रहे विमर्श से गहराई से जुड़ें। यह तभी सम्भव है जब आप वर्तमान के सभी प्रवाहों पर एक स्पष्ट नजरिया रखते हों। समझदार, प्रगतिशील और ईमानदार छात्रों का सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करना जरूरी है। आपको सामाजिक नेता के रूप में उभरना चाहिए। आखिरकार, एक जागरूक, राजनीतिक सोच-समझ से युक्त युवा-संवाद ही इस राष्ट्र को गौरवशाली भविष्य की ओर ले जा सकता है। हमारे संविधान की भी यही दिशा है। छात्र समाज के अभिन्न अंग हैं। वे समाज से कट कर नहीं रह सकते। छात्र स्वतन्त्रता, न्याय, समानता, नैतिकता और सामाजिक सन्तुलन के संरक्षक हैं। उनके लिए अपनी यह गहन भूमिका निभाना तभी सम्भव है जब उनकी ऊर्जा को उचित दिशा मिले। पढ़े-लिखे युवा सामाजिक यथार्थ से अलग कैसे रह सकते हैं? जब वे सामाजिक-राजनीतिक रूप से जागरूक होंगे तो शिक्षा, भोजन, वस्त्र, स्वास्थ्य-सेवा, आवास आदि के बुनियादी मुद्दे राष्ट्रीय विमर्श के केन्द्र में आने लगेंगे।

मैं चाहता हूँ कि आप इन सच्चाइयों पर विचार करें: हमारी आबादी का लगभग एक चौथाई हिस्सा आज भी बुनियादी शिक्षा से वंचित है। विश्वविद्यालय के छात्रों के आयु-वर्ग के लोगों में से केवल 27 प्रतिशत विश्वविद्यालय शिक्षा के लिए नामांकन कर पा रहे हैं। डिग्री और खिताबों के साथ आप जब भी इन संस्थानों से निकलें, अपने देश-दुनिया की इन सच्चाइयों को न भूलें। आप आत्मकेन्द्रित नहीं रह सकते हैं। संकीर्णता और पक्षपात को अपनी राष्ट्रीय सोच पर हावी न होने दें। इससे अन्ततः हमारे लोकतन्त्र और हमारे राष्ट्र की प्रगति को ही ठेस पहुँचेगी।

आज का युवा आदर्श और महत्वाकांक्षा से प्रेरित है। महत्वाकांक्षा के बिना आदर्श फलविहीन होता है; आदर्श के बिना महत्वाकांक्षा खतरनाक होती है।  आपके सामने चुनौती यह है कि कैसे इन दोनों को सही अनुपात में मिलाएँ और अपने देश को एक शक्तिशाली और सौहार्दपूर्ण राष्ट्र के रूप में उभारें। मेरी पीढ़ी के सामने चुनौतियाँ कुछ अलग थीं। स्कूल-कॉलेज में औपचारिक शिक्षा पाने की जद्दोजहद के अलावा तब की कठिन परिस्थितियों ने हमें कई मूल्यवान सबक सिखाए। इसलिए जब हमने आजीविका की तलाश में कॉलेज छोड़ा तो यह अचानक हुआ कोई हादसा नहीं था। समाज में प्रयोग करने, काम करने, खेलने और सीखने की आजादी हमारे पास थी। आज मैं जो देख रहा हूँ और जिसे मैं दुर्भाग्य मानता हूँ, वह यह है कि आप लोग पेशेवर पाठ्यक्रमों पर ज्यादा ध्यान देते हैं जबकि मानविकी और प्राकृतिक विज्ञान जैसे विषयों की खतरनाक उपेक्षा हो रही है। अधिक कमाई और लाभदायक रोजगारों की तरफ जाने की चिन्ता में बच्चों को निजी आवासीय स्कूलों और कोचिंग केन्द्रों में निर्वासित-सा कर दिया जाता है। उन्हें जेल सरीखा दुर्भाग्यपूर्ण माहौल मिलता है। घुटन से भरे ऐसे वातावरण में बच्चों का समग्र विकास सम्भव ही नहीं है। दूसरी कठोर वास्तविकता यह है कि पेशेवर विश्वविद्यालयों में प्रवेश के बाद भी उन्हें बन्द कमरों में ही ज्ञान मिलता है। मुझे नहीं मालूम कि इसके लिए कौन जिम्मेदार है लेकिन कमरे के बाहर की दुनिया से वे अन्त तक अनजान ही रह जाते हैं।

सत्ता और जिम्मेवारी पर मेरी ये सामान्य टिप्पणियां आज अधिक प्रासंगिक हैं क्योंकि अब आप सब स्नातक बन रहे हैं। आप सबकी अब समाज के प्रति विशेष जिम्मेदारी है। राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालयों की बात आती है तो मैं कुछ उन बातों की ओर आपका ध्यान खींचना चाहूँगा जो मुझे थोड़ी परेशान करने वाली लगती हैं। देश में राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालयों की स्थापना के पीछे कल्पना तो यह थी कि कानूनी  शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार हो ताकि हम बेहतर  प्रशिक्षित कानूनी पेशेवरों को तैयार कर सकें।  हालाँकि मुझे यह भी मानना होगा कि ऐसी कल्पना थी या नहीं, इसका कोई आधिकारिक  दस्तावेज नहीं है। अब आप देखिए कि विधि विश्वविद्यालयों के अधिकांश छात्र कॉर्पाेरेट लॉ फर्मों में पहुँच जाते हैं। मैं जानता हूँ कि ऐसी विधि कम्पनियां देश के कानूनी परिदृश्य का अभिन्न अंग हैं लेकिन कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसी कम्पनियों की तुलना में न्यायालयों में अभ्यास करने वाले वकीलों की संख्या बढ़ती नहीं है। शायद यही वजह है कि राष्ट्रीय कानून विश्वविद्यालयों को खास वर्ग का, ‘एलीट’, देश की सामाजिक वास्तविकताओं से कटा हुआ, संभ्रान्त वर्ग का माना जाता है। मैं आपसे कहूँगा कि आप याद रखें कि प्रारम्भिक अवस्था में एक वकील के रूप में समाज के हर वर्ग से आपका ऐसा सरोकार बनता है जो किसी कॉर्पाेरेट लॉ फर्म में कार्म करने से कभी नहीं बन सकता है।

समाज से सरोकार इसलिए जरूरी है कि तभी, और केवल तभी, आप उन बातों के लिए समयनिकालेंगे और विशेष प्रयास जिनके बारे में आप तीव्रता से महसूस करते हैं। तभी आपसामाजिक मुद्दों की लड़ाई अदालतों में लड़ पाएँगे। अदालत में न्याय व समाधान खोजनेवाले वकीलों की संख्या बढ़े, यह समय की माँग है और इस बारे में सामूहिक चिन्तन जरूरी हो गया है। मैं इस पेशे व सवाल से जुड़ सभी तबकों से आग्रह करता हूँ कि वे इस समस्या पर विचार करें और इसका समाधान खोजें। वकील सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक वास्तविकताओं से मुँह नहीं मोड़ सकते। हर वकील संसाधनों से घिरा, दुनिया भर की जानकारियों से लैस एक विशिष्ट व्यक्ति है जिसे अनुकूल परिस्थितियाँ मिली हुई हैं। सुविधा का जीवन चुनना गलत नहीं है लेकिन क्या उस राष्ट्र का कोई भविष्य है जिसके युवा राष्ट्रसेवा का जीवन नहीं चुनते हैं? आपको सोचना होगा।

सामाजिक संवर्धन और परिवर्तन की दिशा में आपकी क्या भूमिका हो सकती है, ऐसे चिन्तन से ही चरित्र मजबूत और दृढ़ होता है। सामाजिक असमानताओं को हम पहचानें और फिर खुद से सवाल करें: ‘क्या मैं इसके समाधान का हिस्सा बन सकता हूँ?’ वैसे तो सभी जगह, लेकिन मैं कहूँगा कि खासतौर पर भारत जैसे देश में आपको सामाजिक आर्टिटेक्ट होने की जरूरत है। कानूनी पेशे को अधिकतम लाभ की नजर से नहीं, सेवा की नजर से देखिए। कोर्ट और कानून के प्रति अपने कर्तव्य को याद रखें। इस पवित्र कार्य को अत्यन्त ईमानदारी और सम्मान के साथ करें।

कानून की शिक्षा की तीन मुख्य भूमिकाएँ है: एक है, कानून के छात्र के रूप में, दूसरी है कानून के पेशेवर के रूप में और तीसरी है वास्तविक जीवन में। मैं नहीं चाहता के कि इस खूबसूरत कैंपस को छोड़ने के बाद, बाहर के हालात देख कर हक चौंक जाएँ। इसलिए बताना चाहता हूँ कि फिल्मों में जैसे कोर्ट दिखाए जाते हैं, कोर्टों में जैसे झगड़े दिखाए जाते हैं, वह असलियत नहीं है। तंग कमरे, टूटी कुर्सियों पर बैठे न्यायाधीश, स्टेनो, क्लर्क आदि तथा असुविधाओं से भरे उनके कार्यालय, नदारद टॉयलेट अदि हमारी व्यवस्था की आम तस्वीर है। इस पेशें में ग्राहक आपकी तलाश करते नहीं आएँगे। सफलता आसानी से आपके दरवाजे पर दस्तक नहीं देगी। आपको धैर्य के साथ आगे बढ़ना होगा। पेशेवर जीवन की आपकी शुरुआत के मौके पर मैं आपको आतंकित नहीं करना चाहता लेकिन सावधान भी न करूँ, यह ठीक नहीं होगा। मैं चाहता हूँ कि आनेवाले दिनों से आप परिचित रहें, उसमें छिपी चुनौतियों के लिए आप तैयार रहें। मुझे विश्वास है कि आप इन शुरुआती कठिनाइयों से पार पा लेंगे। लेकिन मैं यह भी चाहता हूँ कि आप इस परिसर के बाहर की वास्तविकता का सामना करते समय यह भी ध्यान रखें कि आपने यहाँ जो सिद्धान्त सीखे, जिन विचारों का बीजारोपण यहाँ हुआ, उन सबको साथ ले कर ही चलना है और बाहरी वास्तविकताओं का मुकाबला करना है। मौजूदा हालात का कोई अधिक अच्छा व रचनात्मक हल खोजना है आपको। मैं जरूर चाहता हूँ कि आप दुनिया की कठोर वास्तविकताओं से रू-ब-रू हों और लाखों लोगों के दुख के प्रति संवेदनशील बनें। मैं चाहता हूँ कि आप अपने सिद्धान्तों से कभी समझौता न करें।

इस पेशे में प्रवेश करते ही आप संविधान की शपथ लेंगे। संविधान को बनाए रखने का गम्भीर कर्तव्य आपके कन्धों पर आ जाएगा। आप सभी जानते हैं कि कानून का शासन सुनिश्चित करने के लिए न्यायपालिका की स्वतन्त्रता अनिवार्य है। तो कैसे भी मुश्किल समय में यह नहीं भूलना कि आप कानून के पहरेदार हैं और इस नाते मुश्किल-से-मुश्किल समय में भी इस संस्था की रखवाली आपको करनी है। आपको हमेशा न्याय व न्यायपालिका पर हर सम्भावित हमलों के बारे में सतर्क रहना चाहिए। संविधान के प्रति यह हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है। इस पेशे में आते ही देश के लोकतान्त्रिक भविष्य से आप जुड़ जाते हैं।  वह आपके हाथों में आ जाता है। आप अपनी जो भी राय लिखेंगे, नीतियाँ गढ़ेंगे, कोर्ट में सिफारिशें  करेंगे और मुकदमा पेश करेंगे, तब जैसी नैतिकता निभाएँगे, उन सबका दूरगामी परिणाम होगा। पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति जॉन एफ। केनेडी की वह प्रसिद्ध उक्ति आप याद रखें: ‘यह न पूछें कि आपका देश आपके लिए क्या कर सकता है। बताएँ कि आप अपने देश के लिए क्या कर सकते हैं?

मैं आप सबको बताना चाहता हूँ कि न्याय के इस पेशे और भारत के व्यापक समाज के लिए आपका महत्वपूर्ण योगदान होने जा रहा है। कभी मैं भी वहीं खड़ा था जहाँ आज आप खड़ा हैं। मैं आपमें से प्रत्येक को बधाई देता हूँ और मैं आपके भविष्य के सभी प्रयासों में आपकी सफलता की कामना करता हूँ। भगवान आपका भला करे। आपका जीवन सुखी और सार्थक बने।

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   (‘गांधी-मार्ग’ के, जनवरी-फरवरी 2022 अंक से साभार।)



अन्धेर नगरी!


- प्रताप भानु मेहता

कभी किसी ने कानून की परिभाषा की थीः ‘वह सीधी, सरल रेखा की तरह हो जिसमें अपराध-जगत व अपराधी मानस जैसी जटिल गलियों व चालबाजियों की जगह न हो।’ हम हमेशा याद रखें कि जब न्यायालय कानून की इस परिभाषा से बाहर जाकर, कानूनों को जटिल जाल की तरह और फैसलों को शतरंजी चाल की तरह पेश करता है तब वह दूसरा कुछ नहीं, अपनी असमर्थता व न्याय से अपने विचलन की मूक घोषणा करता है।

हमें इस बात के लिए सर्वाेच्च न्यायालय का आभारी होना चाहिए कि उसने विजय मदनलाल चौधरी तथा ओआरएस बनाम भारतीय महासंघ के मामले में, जिसमें पीएमएलए ( प्रिवेंशन ऑफ मनीलाण्ड्रिंग एक्ट ) के कई प्रावधानों की वैधानिकता को चुनौती दी गई थी, अपना फैसला इस तरह सुनाया कि भारतीय राज्य का असली चरित्र उजागर हो उठा। जस्टिस ए. एम. खानविलकर, दिनेश माहेश्वरी व सी. टी. रविकुमार की बेंच ने एक बार फिर से यह साबित कर दिया कि सर्वाेच्च न्यायालय की नजरों में पका-पकाया खाना ही सबसे लज्जतदार होता है और न्यायालय का नजरिया प्रशासन से भी अधिक प्रशासकीय होता है। न्यायपालिका आज नागरिक अधिकारों के संरक्षक से अधिक, नागरिक अधिकारों के लिए खतरा बन गई है। अदालत ने भारतीय न्याय-व्यवस्था को ऐसी पतनावस्था में पहुँचा दिया है, जिसे देखना भी विषादजनक है।

पीएमएलए को 2002 में वित्तीय हेराफेरी (मनीलाण्ड्रिंग) की रोकथाम के लिए बनाया गया था। फिर उसमें कई संशोधन हुए। वित्तीय हेराफेरी फिर एक अन्तरराष्ट्रीय समस्या बनती गई और भारत इसके खिलाफ कई प्रतिबद्धताओं से जुड़ता चला गया। अब अदालत ने फैसला यह दिया कि पीएमएलए की जिन धाराओं को अदालत में चुनौती दी गई है, वे सभी धाराएँ संविधानसम्मत हैं। इस मामले में दाँव पर क्या लगा हुआ है, इसे न देखते हुए, अदालत का सिर्फ यह देखना कि इस एक्ट के प्रावधान क्या हैं, पूरी तस्वीर की परिपूर्णता की अनदेखी करना है।

एक ऐसे कानून की कल्पना कीजिए जिसकी दानवी पहुँच है। आपके खिलाफ एक जाँच शुरु होती है। आरोप की कुछ मोटी, धुँधली बातें आपको बताई जाती हैं लेकिन पूरे मामले के बारे में आपको एकदम अँधेरे में रखा जाता है। आपकी पेशी तो होती है लेकिन आपको यह पता ही नहीं है कि आपकी पेशी अभियुक्त के नाते हो रही है कि गवाह के नाते। गिरफ्तारी का सम्पूर्ण आधार आपके साथ साझा ही नहीं किया जाता है। अब मान लीजिए कि आप जमानत की अर्जी देने की सोचते हैं तो आपको पता चलता है कि राज्य के लिए आपको इतना बड़ा खतरा मान लिया गया है कि आरोप लगाने वालों को सुने बिना आपको जमानत मिल ही नहीं सकती है। अब दोष को पूरी तरह जाने बिना ही आपको, खुद को निर्दाेष साबित करना है। अब आप यह समझिए कि आप एक ऐसे कानून के तहत पकड़े गए हैं जो सुरसा की तरह अपना मुँह बढ़ाता जाता है - पीएमएलए के तहत वह सारा कुछ आ जाता है जो हमारे घर की रसोई में पकता है और पड़ोसी के साथ साझा किया जाता है। इस कानून के कारण सत्ता के पास ऐसी अपरिमित शक्ति आ गई है कि वह जिसे चाहे अपराधी घोषित कर दे। यह ऐसा नायाब कानून है जो निपराध होने की परिभाषा ही बदल देता है।

आप यूँ समझिए कि यह कानून खुद ही खुद को परिपूर्ण घोषित कर देता है: कानून की दूसरी धाराओं में जो अपराध माने जाते हैं, यह कानून उन्हें भी खारिज करता है। यह कानून अपने ही तौर-तरीकों से इस तरह चलता है कि अपराध-शास्त्र की दूसरी सारी प्रक्रियाएँ ध्वस्त हो जाती हैं। अब यह भी देखिए कि इस कानून के तहत आपको जो सजा दी जाती है वह अपराध की तुलना में कहीं ज्यादा होती है। यह भी देखिए कि आपको ही ख़ुद को निरपराध भी साबित करना है। यह भी देखिए कि इसकी जाँच-प्रक्रिया ही आपकी सजा है: आपकी सम्पत्ति कुर्क की जा सकती है, जब तक जाँच पूरी नहीं हो जाती है आपकी जिन्दगी शीर्षासन करती नजर आ सकती है, सिद्धान्ततः यह कानून आपको सम्पत्ति से कुर्की के खिलाफ संरक्षण देता है लेकिन ये सारे प्रावधान इतने कमजोर हैं कि ये न आपकी प्रतिष्ठा का संरक्षण करते हैं, न व्यापार या आजीविका चलाते रह सकने का अवकाश ही देते हैं। यदि आपके पास किसी अपराध से सम्बन्धित कागजात हैं तो वे ही काफी हैं आपको अपराधी बनाने के लिए बगैर इस बात की फिक्र किए कि ये कागजात मेरे पास क्यों हैं, कैसे हैं और ये कागजात इस अपराध में मेरी संलग्नता कैसे साबित करते हैं। और यह भी कि जो अधिकारी मेरी जाँच कर रहे हैं, वे कहीं दूर-दूर तक भी पुलिस से सम्बन्धित नहीं हैं लेकिन कई मामलों में वे पुलिस से भी ज्यादा अधिकार रखते हैं। तो आप यह भी नहीं कह सकते कि आप पुलिसिया राज में रहते हैं क्योंकि आपको जिससे परेशानी है वह पुलिस तो है ही नहीं।

अब इससे आगे आप यह देखिए कि यह कानून बनाया भी बड़े बेढब तरीके से है। जिस संसदीय प्रक्रिया से यह कानून बना है उसे ही हम समुचित नहीं कह सकते हैं। एक मनी बिल के आवरण में इसे लाया गया था। गैर-कानूनी तरीके से यह कानून बनाया गया लेकिन हमने इसकी कभी पड़ताल नहीं की और इसे लागू भी कर दिया। वित्तीय अनियमितता के बारे में संविधान क्या कहता है? हम कह सकते हैं कि यह कानून दो तरह की मानसिकताओं का परिणाम है। वित्तीय अनियमितता अत्यन्त खतरनाक किस्म का अपराध है। आतंकवाद की तरह ही यह भी एक आत्यन्तिक  परिस्थिति की मानसिकता में से पैदा हुआ है लेकिन आज आत्यन्तिक को ही नयी सामान्य परिस्थिति मान कर चला जा रहा है। अब इस पर कोई विचार नहीं  करता है कि वित्तीय अनियमितता से कैसे परिणामकारी ढंग से निबटा जाए। इसलिए इस कानून के तहत अब तक बहुत ही कम सजाएँ हुई हैं। हम इस कानून के तहत हजारों मामले दर्ज करते हैं लेकिन 5 प्रतिशत से भी कम को सजा दिला पाते हैं। लेकिन लोगों की गिरफ्तारियाँ होती हैं, जिन्दगियाँ तबाह हो जाती हैं, सजाओं की अल्प दर के मामले में यह तर्क दिया जाता है कि हमें जमानत की शर्तों को ज्यादा कड़ा करना चाहिए। यह तर्क दरअसल कहता यह है कि सजा की प्रक्रिया ही सजा होनी चाहिए। मैं आपको इतनी सारी कल्पनाएँ करने को कह रहा हूँ लेकिन सच यह है कि यही पीएमएलए कानून की हकीकत है।

अब अदालत क्या कर रही है: तोते की तरह बनी-बनाई अवधारणा को रट रही है, दोहरा रही है। इस कानून का पहला करुण पक्ष यह है कि जब यह बना था तब सारे दल इस बारे में एक राय थे। अब कोई भी सत्ताधारी दल नहीं चाहता है कि मनमाना करने की आजादी देने वाला ऐसा कानून हटाया जाए। ईडी का इस्तेमाल, खास कर राजनीतिक विपक्ष के खिलाफ इस सरकार ने जितना किया है, कर रही है वैसा किसी ने नहीं किया लेकिन यह भी सच है कि इस कानून को या कि इसकी बुनियाद को, पिछली किसी भी सरकार ने चुनौती नहीं दी। आज लोग इस कानून को लेकर इतने उद्विग्न इसलिए हैं कि चोटी के वकील, जो नागरिक स्वतन्त्रता आदि पर बड़े चुटीले व बुलन्द व्याख्यान देते हैं, वही जब उनकी सरकार सत्ता में होती है तो नागरिक स्वतन्त्रताओं की बुनियाद ही खिसका देने वाले इस कानून पर मुहर लगा देते हैं।

इसका दूसरा सन्दर्भ अन्तरराष्ट्रीय है। 9/11 के बाद आतंकी गतिविधियों को मिलने वाली आर्थिक मदद के बारे में चिन्ता काफी बढ़ गई और इसी आधार पर, कई ऐसी अन्तरराष्ट्रीय सन्धियाँ हुईं जिन्होंने नागरिक स्वतन्त्रता के संरक्षण की अवधारणा को मजबूत बनाने के बजाय उन्हें कमजोर किया। उन्हीं अन्तरराष्ट्रीय सन्धियों का हवाला देकर, अब राष्ट्र के भीतर की नागरिक स्वतन्त्रताओं को असुरक्षित किया जा रहा है। अब सरकार भारतीय संविधान के सन्दर्भ में नहीं, उन्हीं अन्तरराष्ट्रीय सन्धियों के सन्दर्भ में बात करती है। इस कानून के सन्दर्भ में सबसे बुरा तो यह हो रहा है कि खोखले शब्दों के इस युद्ध में जजों व वकीलों का रवैया ऐसा हो जाता है जैसे वे राष्ट्र की सुरक्षा की पताका थामे हुए हैं। किसी भी तरह का विवेकवान चिन्तन इस मामले में दिखाई नहीं देता है।

हमारे चीफ जस्टिस साहब लगातार ही असहमति के अधिकार की बात करते हैं, मीडिया को नसीहतें देते हैं। वे शिकायत करते हैं कि सोशल मीडिया पर न्यायपालिका की गरिमा कम की जा रही है। वे ठीक ही कह रहे हैं। सर्वाेच्च न्यायालय की यह अदभुत अपेक्षा है कि उसकी नहीं, सिर्फ असामाजिक तत्वों की गरिमा गिराई जानी चाहिए। साहित्य जगत में काफ्का का लिखा ‘द ट्रायल’ अपूर्व कृति मानी जाती है। मुझे विजय मदनलाल चौधरी के मामले में सुनाया गया फैसला उसी कोटि का फैसला लगता है। यह आँखों में उंगली डाल कर हमें दिखाता है कि एक असामान्य समय में, हम किस तरह एकतरफा बातों के आधार पर, अस्पष्ट समझ रखने वाले कानूनविदों की कृपा पर जी रहे हैं।

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(लेखक ‘गांधी-मार्ग’ के पाठकों के सुपरिचित राजनीति विश्लेषक व गांधी-अध्येता हैं)




 

 

 


आज कठघरे में अपराधी नहीं, अदालत ही खड़ी है

गांधी-विचार के संगठनों का बयान

आजादी के अमृत महोत्सव का सबसे काला व ग्लानि भरा दिन, 15 अगस्त को लालकिला पर प्रधानमन्त्री के तिरंगा फहराने के अगले ही दिन, 16 अगस्त को सामने आया। गुजरात के गोधरा जेल से बलात्कार व हत्या के अपराधियों की रिहाई के स्वागत समारोह का फोटो देश के सभी अखबारों में प्रकाशित हुआ। यह खबर तब और भी वीभत्स व पीड़ादायक हो गई जब हमने देखा कि इस पूरे प्रसंग पर न प्रधानमन्त्री कुछ बोले, न शासक पार्टी। लगता है, उनके पास जो कुछ भी अर्थहीन बोलने को था, वह सब 15 अगस्त की सुबह लालकिला पहले ही सुन चुका था।

घटना 2002 के गुजरात दंगों से जुड़ी है। साम्प्रदायिकता की उस गुजरात-व्यापी आग में जब सब कुछ लूटा-जलाया, मारा-काटा जा रहा था तब हिन्दुओं की एक उन्मादी भीड़ ने मुस्लिम किशोरी बिलकिस बानों तथा उसके परिवार को घेर लिया। 12 लोगों ने गर्भवती बिलकिस का सामूहिक बलात्कार किया, उसकी 3 साल की बेटी की जमीन पर पटक कर, उसकी नृशंस हत्या कर दी तथा परिवार के 14 लोगों को भी मार डाला। गोधरा के रिलीफ कैम्प में बिलकिस का बयान दर्ज हुआ। पुलिस-प्रशासन की पूरी कोशिश थी कि किसी तरह मामला दबा दिया जाए लेकिन बिलकिस व परिवार की दृढ़ता व अदालत के सख्त रवैये के कारण यह न हो सका। पुलिस ने तो पड़ताल बन्द करने की रिपोर्ट भी दे दी थी और मजिस्ट्रेट ने उसे स्वीकार भी लिया था लेकिन अदालत ने मामला बन्द न करने का निर्देश दिया और फिर सर्वाेच्च न्यायालय ने मामला सीबीआई को सौंपने का निर्देश दे दिया।

2004 में अदालत का निर्देश आया कि इस मामले की जा गुजरात के बाहर होगी। यह सम्भवतः पहला ही ऐसा सार्वजनिक मामला है जिसमें सर्वाेच्च न्यायालय ने राज्य की अपनी अदालती व्यवस्था पर भरोसा न रखकर, यह निर्देश दिया कि पूरी कानूनी प्रक्रिया गुजरात के बाहर चलाई जाए। 21 जनवरी 2008 को सीबीआई के विशेष जज यू. डी. साल्वी ने 13 अपराधियों में से 11 को आजीवन कैद की सजा सुनाई। अपराधियों ने इसके खिलाफ मुम्बई हाईकोर्ट में अपील की जो तत्काल ही खारिज कर दी गई, फिर वे हाई कोर्ट पहुँचे जिसने भी 2017 में उनकी अपील खारिज कर दी। 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार को निर्देश दिया कि वह बिलकिस बानो को 50 लाख रुपयों का मुआवजा, रहने का घर व सरकारी नौकरी दे।

इस तरह सारे कानूनी प्रावधानों का दरवाजा खटखटाने और वहाँ विफल हो जाने के बाद से ये अपराधी गोधरा जेल में आजीवन कैद की सजा काट रहे थे। फिर अचानक 15 अगस्त को उन सबकी एक साथ रिहाई कैसे हुई और इसकी प्रक्रिया कैसे चली? सुप्रीम कोर्ट, मुम्बई हाईकोर्ट तथा गुजरात हाईकोर्ट को इसका जवाब देश को देना चाहिए। अदालती प्रक्रियाएँ संविधान से बंधी होती हैं, होनी चाहिए। यह किसी जज या किसी अदालत का निजी मामला नहीं है। जो मुकदमा ऐसा नाजुक था कि गुजरात की न्याय-व्यवस्था की तटस्थता पर सुप्रीम कोर्ट ने भरोसा नहीं किया और मुम्बई हाईकोर्ट को वह मामला हाथ में लेना पड़ा था, वह मामला 4 सालों में इतना सामान्य कैसे हो गया कि सुप्रीम कोर्ट ने उसे गुजरात हाईकोर्ट को ही सौंप दिया? क्या सुप्रीम कोर्ट ने बिलकिस बानों व उनके वकील को सूचना दी कि वह मामले को गुजरात हाईकोर्ट को सौंप रही है? उसने गुजरात हाईकोर्ट को निर्देश दिया कि रिहाई का जो आवेदन कैदियों ने किया है, उसकी सुनवाई में बिलकिस बानो व उनके वकील को भी शरीक किया जाए व पूरा मुकदमा सुना जाए? यदि ‘हाँ’ तो वह सारा तथ्य देश के सामने रखा जाए। यदि ‘नहीं’ तो उसका विधानसम्मत कारण बताया जाए।

अब कठघरे में अपराधी नहीं, अदालत ही खड़ी है।

हम महात्मा गाँधी के इस कथन में पूरा विश्वास रखते हैं कि अपराध से घृणा करना चाहिए, अपराधी से नहीं। लेकिन महात्मा गाँधी ही यह भी बताते हैं कि अपराधी का हृदय परिवर्तन ही उसके अपराध की माफी का आधार बन सकता है। क्या सुप्रीम कोर्ट विधानपूर्वक व विश्वासपूर्वक देश से यह कह सकता है कि आज देश में 2002 की तुलना में साम्प्रदायिक सद्भाव बढ़ा है और बिलकिस के अपराधी प्रायश्चित भरे मन से क्षमा चाह रहे हैं? इसलिए हमने कहा कि अपराधी नहीं, आज अदालत स्वयं कठघरे में खड़ी है।

हम कहना चाहते हैं कि इस रिहाई से न्याय का मजाक उड़ाया गया, न्यायपालिका की नीयत पर सन्देह घिर आया है, बिलकिस के बलात्कार को हादसा बनाने की कोशिश हुई है। प्रधानमन्त्री ने नारी के सम्मान आदि की जो बात 15 अगस्त को लालकिले से कही थी, सम्भव है वह उनके अखण्ड जुमला कोष का हिस्सा हो लेकिन क्या अदालत भी अब वैसे ही कोष के सहारे न्याय-व्यवस्था चलाना चाहती है? जिन लोगों ने, महिलाओं ने, रिहा बलात्कारियों को चन्दन-ठीका किया, मिठाई खिलाई वे सब बलात्कारियों का घृण्य अपराध नहीं, उसकी जाति व धर्म देख रहे थे। क्या हम भी वही देखेंगे? अगर आप गर्व से ‘हाँ’ कहते हैं तो आप जान लीजिए कि वह बलात्कारी हमारे-आपके घर में ही रहता है; और हमारी माँ-बहनें भी उसी घर में, उसके साथ ही रहती हैं। बलात्कार मानसिक बीमारी है और बीमार की जगह अस्पताल या जेल में होती है, घर में नहीं।

स्वतन्त्रता दिवस पर अदालत की तरफ से मिला यह उपहार हमारे लोकतन्त्र की जड़ पर किया गया एक गहरा प्रहार है।

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गांधी शान्ति प्रतिष्ठान और राष्ट्रीय युवा संगठन द्वारा जारी




कठिन नहीं है डगर गांधी की (रोज-रोज के गांधी -2)


- डॉ. वीरेन्द्र सिंह

लोग कहते हैं: बहुत कठिन है गांधी की राह पर चलना! डॉ। वीरेन्द्र सिंह कहते हैं: बहुत आसान है यदि आप रोज-रोज उनकी तरफ चलते हैं! अपने ऐसे ही प्रयोगों की सरल डायरी लिखी है उन्होंने ‘गांधी-मार्ग’, जिसके कुछ पन्ने ‘गांधी-मार्ग’ के पाठकों के लिए धारावाहिक:

एक बार एक व्यक्ति ने मुझे बताया कि उसे बीपीएल के दस्तावेज लाने के लिए दो बार गाँव जाना पड़ा। बीपीएल सेक्शन के लोग एक बार में सारे दस्तावेज माँगने के बजाय, हर बार उसे एक नया दस्तावेज लाने के लिए कह देते थे। आज उन्होंने फिर एक नये दस्तावेज की माँग कर दी है। मैंने बीपीएल सेक्शन के इंचार्ज डंगायचजी को बुलाया-‘आपने पहली बार में ही सारे दस्तावेज क्यों नहीं माँगे?’ कठोरता व खीझे से अन्दाज में वे बोले-‘सर बता दिए थे, यह रोगी भूल गया होगा। आजकल काम बहुत बढ़ गया है। इसलिए सबको बता नहीं पाते।’ उनके लहजे से स्पष्ट था कि लापरवाही हुई है। मैंने कहा, ‘यदि आप इनको दस्तावेजों की सूची लिखित में दे देते तो यह व्यक्ति 200 कि. मी. दूर गाँव दो बार जाने की तकलीफ से बच सकता था।’

‘गलती हो गई सर!’

मैंने कहा: ‘जरूरी कागजों का विवरण टाइप करवाकर रख लीजिए। भविष्य में हर व्यक्ति को वह लिखित कागज दें। इस गलती का प्रायश्चित क्या करेंगे?’

‘जो भी आप कहें।’

उन दिनों हमने लावारिस रोगियों की मदद के लिए ‘सेवा’ कार्यक्रम की शुरुआत की थी। मैंने कहा, “दो घण्टे ‘सेवा’ में लावारिस रोगी का परिजन बनसेवा कर सकेंगे आप?’ 

‘अवश्य।’ डंगायचजी ने कहा। जब वे सेवा करने पहुँचे तो पाया कि रोगी प्यासा है। उन्होंने उसे पानी पिलाया, बिस्किट भी खिलाए। डंगायचजी का चेहरा आत्मीयता के भाव से भरा था।  

रोगी ने डंगायचजी को बताया कि वह बहुत दुखी इंसान हैं। शराब की लत के कारण पत्नी उसे छोड़ गई। माँ-बाप की मृत्यु के बाद वह नितान्त अकेला है। डंगायचजी ने उसे ढाढस बँधाया और आगे भी आकर मदद करने का भरोसा दिलाया-‘एक नयी-सी खुशी मिली सर!’

‘ऐसी ख़ुशी आपको रोजाना मिल सकती है।’

‘कैसे सर?’

“यदि हर गरीब बीपीएल रोगी की आप उसी भावना से मदद करें, जिस भावना से आपने ‘सेवा’ में ड्यूटी करते समय उस लावारिस रोगी की मदद की थी।”

‘समझ गया सर।’ हँसते हुए वे बोले।

जब भी कोई जरूरतमन्द अपने काम के लिए हम जैसे किसी सरकारी या गैर-सरकारी व्यक्ति के पास आता है तो उसके चेहरे पर अपेक्षा, मुस्कराहट और आशंकापूर्ण विश्वास के भाव होते हैं, और हम जैसे काम करने वाले व्यक्ति का चेहरा कठोरता, शक और अहंकार से भरा होता है। कुछ पाने की लालसा या बड़प्पन का अहंकार फन उठाकर खड़ा होता है। जरूरतमन्द की तकलीफ को हम अपने अहंकार के मद में भुला देते हैं। अहंकार की तुष्टि का आनन्द भी लेते हैंः ‘अरे! देखो, आया था तो बड़े अकड़ में था। तीन चक्कर लगवाए तो सारी अकड़ निकल गई।’ लावारिस रोगी की प्रायश्चित ड्यूटी डंगायचजी के लिए प्रेरणादायक बनी। भविष्य में छोटी बातों के लिए लाचार रोगियों से चक्कर लगवाने की उनकी आदत छूट गई।

जीवन में कभी-कभी मिलने वाली बड़ी खुशी से दिनचर्या में मिलने वाली छोटी-छोटी खुशियाँ ज्यादा महत्वपूर्ण होती हैं। काम के बोझ के कारण दस्तावेजों के बारे में पूरा नहीं बताने की समस्या का समाधान निकला एक लिखित कागज, जिसमें आवश्यक दस्तावेजों का पूरा उल्लेख रहता था। सहृदयता नये रास्ते खोज लेती है।

ए/बी वार्ड में भर्ती एक रोगी का परिजन मेरे पास आया - ‘11 बज गए हैं लेकिन रोगी को इंजेक्शन नहीं लगे।’ मैंने रेजिडेण्ट डॉक्टर एवं कम्पाउण्डर को बुला भेजा। रेजिडेण्ट डॉक्टर ने कहा, ‘सर! रात को भर्ती का दिन था। पूरी रात यह काम चला। रजिस्टर में ऑर्डर लिखने का समय नहीं मिला। लेकिन मैंने कम्पाउण्डर को जबानी कह दिया था।’ कम्पाउण्डर बोला-‘सर! मैं भी पूरी रात जागकर इंजेक्शन लगा रहा था। सुबह 7 बजे धर से फोन आया कि मेरे बच्चे की तबीयत खराब है, तो घबराहट में रोगी को बिना इजेक्शन लगाए ही घर चला गया।’

‘गलती किसकी है?’

पूरी रात जागकर रोगियों को संभालने वाले रेजिडेण्ट डॉक्टर पर दया आती है। पूरी रात जागकर गम्भीर रोगियों को इंजेक्शन लगाने वाले कम्पाउण्डर व उसके बच्चे के बीमार होने पर दया आती है। तीनों एक स्वर में बोले-‘सर! हम गलत थोड़े ही कह रहे हैं।’ लेकिन दया से काम तो नहीं होता। ड्यूटी तो ड्यूटी है! आखिर मैंन इस चित्र में दिया गया 6 का

 अंक लिखा और तीनों से पूछा-‘क्या लिखा है?’ ‘छह है सर।’ तीनों बोले। मैंने कहा-’नहीं यह सच नहीं है। 6 बजे की स्थिति पर बैठे मुझ जैसे व्यक्ति के लिए 6 है लेकिन 12 की स्थिति पर खड़े रेजिडेण्ट डॉक्टर के लिए 9 है, 3 बजे की जगह खड़े कम्पाउण्डर के लिए बड़ी ‘ऊ’ की मात्रा है। आप सभी सच ही बोल हैं। सभी दया के पात्र भी हैं लेकिन ड्यूटी, ड्यूटी है। अपनी लापरवाही को दया से ढकने की कोशिश न करें।’ रेजिडेण्ट और कम्पाउण्डर ने परिजन को सॉरी कहा तथा आगे अच्छे से ड्यूटी करने का भरोसा दिलाया। बतौर प्रायश्चित उन्हें कहा गया कि इस रोगी की इतनी सेवा करें कि यहाँ से जाने के बाद भी वह उन दोनों को हमेशा याद रखे।

न्यूरोलॉजी के डॉक्टर जितेन्द्र सिह एक बार इमरजेंसी में ड्यूटी पर नहीं मिले। कारण? ‘वार्ड में सीरियस रोगी का कॉल आया था।’ ‘लेकिन निश्चित जगह की ड्यूटी छोड़ना क्या उचित है?’ उन्होंने अपनी गलती स्वीकार की। प्रायश्चित? न्यूरोसर्जरी में ऑनलाइन रेफरेंस को पुख्ता लागू करने की जिम्मेदारी उन्हें दी गई।  

भरसक कोशिश के बावजूद हम लोग न्यूरोसर्जरी में ऑनलाइन रेफरेंस व्यवस्था को लागू नहीं कर पा रहे थे। डॉ। जितेन्द्र सिंह की कोशिश से एक सप्ताह में यह व्यवस्था सुचारु रूप से चलने लग गई। 

प्रायश्चित यदि कार्यस्थल की किसी कठिन योजना के क्रियान्वयन का हो तो उससे जुड़ा व्यक्ति वह काम ज्यादा अच्छी तरह से कर सकता है। यदि वह व्यक्ति क्रियान्वयन की जिम्मेदारी दिल से स्वीकार करता है तो वह व्यवस्था निश्चित रूप से सफल होती है। 

०० एक बार एक वरिष्ठ रेजिडेण्ट डॉक्टर ड्यूटी पर अस्पताल पहुच तो कार पार्किंग को लेकर गार्ड से कहा-सुनी हो गई। परिचय देने के बाद भी गार्ड का तेज आवाज में बोलना शोभनीय नहीं था। बात मुझ तक पहुँची। पूछा तो गार्ड ने अपनी गलती स्वीकार कर ली। प्रायश्चित के तौर पर उसने बीड़ी छोड़ने का वादा किया। मुझे पता लगा कि इस घटना के बाद गार्ड ने बीड़ी नहीं पी।

००० जयपुर के सवाई मानसिंह अस्पताल में हर महीने 80-90 लावारिस रोगी गम्भीर अवस्था में भर्ती होते हैं। इनके साथ कोई भी परिजन नहीं होता है। कई बार ऐसे लोग बहुत गन्दी स्थिति में, मल-मूत्र से सने बिस्तर पर पड़े रहते हैं। 

गाँधीजी के समय लेप्रसी यानी कोढ़ की बीमारी से ग्रसित लोगों को परिवारजन लावारिस अवस्था में छोड़ जाते थे। गाँधीजी ऐसे बहुत से लोगों को अपने आश्रम में लाकर उनके घावों की मरहम-पट्टी कर सेवा करते थे। अस्पताल में लावारिस रोगियों की स्थिति देखकर मन बड़ा व्याकुल रहता था। कई बार विचार आया कि जब गाँधीजी लेप्रसी के रोगियों की सेवा कर सकते थे, तो क्यों न मैं ही अपने वार्ड के लावारिस रोगियों को स्नान कराके और उनका मल-मूत्र साफ करके इसकी शुरुआत करूँ? लेकिन मुझमें इतना साहस नहीं था और इसी कारण मैं संकोच रूपी दीवार को नहीं तोड़ सका।

एक रोज 3 डी/ई वार्ड के दौरे के समय हमारी यूनिट के डॉ. ओम नारायण मीणा ने कहा - ‘सर! क्या हम ऐसे लावारिस रोगियों के लिए कुछ नहीं कर सकते?’ मन बड़ा दुखी हुआ। सोचते-सोचते मैं अपने ऑफिस की ओर आ रहा था तभी मेरी नजर सामने से आ रहे नर्सिंग के कुछ छात्रों पर पड़ी। विचार आया कि लावारिस रोगी सेवा मानवीय संवेदना से जुड़ी है और नर्सिंग कर्मचारी सेवा की प्रतिमूर्ति माने जाते हैं। यदि लावारिस रोगियों की सेवा के साथ नर्सिंग छात्रों को जोड़ दिया जाए तो उनमें संवेदना जागृत होगी जो कि उनके पेशे की आत्मा है।

ऑफिस पहुँचते ही मैंने नर्सिंग स्कूल की प्राचार्य श्रीमती मधुरानी से बात की और 6 सितम्बर 2013 को छात्रों से बातचीत की। उन्हें बताया गया कि लावारिस रोगियों का परिजन बनकर सेवा करने के जो भी इच्छुक हों वे अपना नाम वॉलण्टियर लिस्ट में लिखवाएँ। लावारिस रोगियों हेतु शुरु किए गए इस कार्य का नाम रखा गया- सेवा ! उनका उत्साह देखते ही बनता था। आश्चर्य हुआ जब करीब 100 छात्र-छात्राओं ने अपने नाम लिखवा दिए। अब समस्या आई, इस सेवा को कोऑर्डिनट करने हेतु एक सेवाभावी चिक़ित्सक दूँढने की। उन्हीं दिनों फिजिकल रिहेबिलीटेशन के डॉ. नरेंद्र सिंह को पोस्ट करना था। पहले उनको आर.आर.सी. में पोस्ट करना चाहा तो वहाँ के सीनीयर डॉक्टरों ने कहा - ‘साहब! नरेन्द्रजी हमें सूट नहीं करेंगे, हमारे यहाँ उन्हें पोस्ट नहीं करें। उनकी कार्यशैली इस सेवा के अनुरूप नहीं है।’ जब डॉ. नरेन्द्र की इच्छानुसार नेफ्रौलॉजी में उन्हें पोस्ट करने लगा तो वहाँ के चिकित्सकों ने भी मना कर दिया। तभी यह विचार कौंधा - डॉ. नरेंद्र ‘सेवा’ के कठिन कार्य के लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति हो सकते हैं। डॉ. नरेन्द्र ने कुछ देर विचार करने के बाद कहा, ‘सर, मैं यह काम कर लूँगा।’ उन्होंने नर्सिंग कर्मचारी बलदेव के साथ मिलकर यह काम शुरु कर दिया।

अभियान शुरु करने के तीन दिन बाद डॉ. नरेन्द्र सिंह मेरे पास आए और बोले - “सर! ये नर्सिंग छात्र तो काम के नहीं हैं। रात को डूयूटी वाली छात्रा ने कहा कि गन्दी स्थिति में पड़े ऐसे लावारिस की सेवा तो मेरे बस की बात नहीं है। मैंने झिड़क दिया, ‘वॉलण्टियर बनने की सहमति क्यों दी थी?’ सर! इसके बाद तो लगभग सभी छात्र-छात्राओं ने अपने नाम, ‘सेवा’ से वापस ले लिये।”

मैंने डॉ. नरेंद्र सिह को समझाया, ‘इन छात्रों में कम-से-कम भावना तो है सेवा की, जबकि हममें से अधिकांश संवेदनहीन हो चुके हैं। आप इन छात्र-छात्राओं का उत्साह बढ़ाओ। जो भी परेशानियाँ आएँ, उनका समाधान निकालो। अपने आप को ऑफिसर या डॉक्टर न समझ, एक मिशनरी मानो।’ बातचीत का असर हुआ और अगले कुछ दिनों में डॉ. नरेन्द्र का मिशनरी का रूप दिखाई दिया। नर्सिंग के सभी छात्र-छात्राएँ एक बार फिर इस अभियान से जुड़ गए। शहर के कुछ समाजसेवी भी श्रीमती सुमन चौधरी के नेतृत्व में इस अभियान से जुड़े।

नर्सिंग की द्वितीय वर्ष की छात्रा की ड्यूटी 3 डी/ई वार्ड में भर्ती लावारिस महिला रोगी के पास लगी। छात्रा जब उसके पास पहुँची तो तेज बदबू आ रही थी। उसने देखा कि अर्द्धचेतन रोगी के वस्त्र मल-मूत्र में सने थे। पहले उसके मन में आया कि भाग चलूँ। वह धीरे-धीरे निकलकर वार्ड के बाहर आकर 3 डी/ई कॉरिडोर में आ भी गई तभी आत्मा से एक आवाज आई-‘क्या मेरी माँ इस रोगी की जगह होती तो उसे भी मैं छोड़ कर चली जाती?’ दिल से आवाज आई-‘नही।’ और पूजा वापस उस रोगी के बिस्तर पर आई। उसने नीचे से स्वीपर को बुलाया और उसकी मदद से रोगी के कपड़े बदले। पूरी रात सेवा करने के बाद सुबह रोगी को होश आया। सुबह हॉस्टल जाते समय पूजा को एक सुखद अनुभूति हो रही थी। सेवा या मदद करने की तीन सीढ़ियाँ होती हैं रू झिझक, सेवा करने में तकलीफ और सेवा के बाद की खुशी!

००० शाम 7 बजे फोन आया कि एक रोगी के परिजन ने एक रेजिडेण्ट को चाँटा मामर दिया। पुलिस आई और परिजन को गिरफ्तार कर ले गई। रेजिडेण्ट डॉक्टर फिर भी बहुत उत्तेजित थे। सोचने लगा- ‘कैसे टालूँ इस समस्या को?’

नया-नया अधीक्षक बना था। सोचा, ऑनकॉल डॉक्टर भेज देता हूँ। उस दिन उप-अधीक्षक डॉ. सुनित राणावत ऑनकॉल ड्यूटी पर थे। मैंने उन्हें समस्या का समाधान निकालने को कहा। आधे घण्टे में डॉ. राणावत अस्पताल पहुँच गए। करीब 9 बजे उनका फोन आया कि काफी संख्या में रेजिडेण्ट इकट्ठे हो गए हैं तथा स्थिति काबू में नहीं है। मैंने कहा, ‘मैं पहुँच रहा हूँ।’ मन में अनष्टि की आशंका व थोड़ी घबराहट के साथ मैं करीब 9ः50 बजे वहाँ पहुँचा। 50-60 रेजिडेण्ट डॉक्टर उपस्थित थे। सबको साथ लेकर मैं ऑफिस आ गया। पुलिस के एस.एच.ओ. श्री हरिराम कुमावत भी साथ ही थे।

रेजिडेण्ट चिकित्सकों ने विस्तार से घटना बतलाई। मैंने पूछा, ‘अब क्या करें?’ लिखित माफी, पुलिस केस, रेजिडेण्ट्स की माकूल सुरक्षा आदि कई सुझाव आए। अचानक मैंने कहा-‘एक तरीका यह भी हो सकता है कि मारपीट करने वाले इस परिजन की पिटाई कर इससे बदला ले लें।’ किसी रेजिडेण्ट ने मेरा समर्थन नहीं किया। तब मैंने कहा-‘कार्यवाही मुझ पर छोड़ दो।’ ‘ठीक है सर, लेकिन कार्यवाही अभी होनी चाहिए।’ रेजिडेण्ट बोले। ‘हाँ, अभी होगी कार्यवाही।’ मैंने कहा।

मैंने एस.एच.ओ. कुमावतजी से गिरफ्तार परिजन को लाने को कहा। थोड़ी देर में वह आ गया। मैंने उससे पूछा तो उसने अपनी गलती स्वीकार कर माफी माँगी। मैंने पूछा, ‘प्रायश्चित क्या करोगे?’

‘सर! गरीब रोगियों के लिए 5-10 हजार रुपये दे दूँगा।’ ‘क्या काम करते हो?’ मैंने पूछा। ‘नोएडा, दिल्ली में एक कम्पनी में मैनेजर हूँ।’ सभी रेजिडेण्ट्स ने रुपये की मदद का उसका प्रस्ताव ठुकरा दिया। तब मैंने पूछा-‘दोनों पक्ष मेरी बात मानोगे?’

‘यस सर।’ सभी बोले।

मैंने परिजन से कहा - ‘तुम सात दिन वार्ड में आकर दुखी रोगियों की सेवा करो या जरूरतमन्द रोगी को खून दो।’ उसने जवाब दिया, ‘सात दिन ड्यूटी छोड़ना प्राइवेट नौकरी में मुश्किल है। लेकिन मैं खून भी नहीं दूँगा।’ ‘क्यों नहीं दोगे खून?’ ‘डर लगता है सर। आज तक कभी खून नहीं दिया।’

‘क्या तुम्हें कभी खून मिला?’ “हाँ। जब पाँच साल का था तब पिताजी ने मुझे खून दिया था। ‘यदि तुम्हारे बच्चे को खून की आवश्यकता हो तो क्या तुम दोगे?’ 

‘हाँ, जरूर दूँगा।’

‘तब तो तुम अभी खून दे दो।’ वह मान गया और एक कैंसर पीड़ित को उसने खून दिया। इसके बाद परिजन और रेजिडेण्ट गिला-शिकवा भुलाकर गले मिले। 

गलती स्वीकार करवाने में “6” का उपयोग काफी प्रभावी होता था। किसी भी विवाद का हल है-आपसी बातचीत। इसके चरण हैं: ग्लानि के साथ गलती स्वीकार करना, दोबारा नहीं करने का वादा, और प्रायश्चित। प्रायश्चित पीड़ादायक न होकर प्रेरणादायक या लाभदायक होता है तो गलती करने वाले व्यक्ति के स्वभाव में परिवर्तन आता है। मुकाबला करने से समस्या का समाधान तो होता ही है, समाधान की खुशी भी मिलती है।

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(अगले अंक में कुछ और पन्ने)