भक्त भूखे: भगवान को अजीर्ण


धर्म के नाम पर हमारे देश में कुछ भी हो सकता है और कुछ भी किया/कराया जा सकता है। हमारी राष्ट्रीय भावनाएँ अपवादस्वरूप भी आहत हो जाएँ तो बड़ी बात किन्तु धार्मिक भावनाएँ कभी भी, किसी भी बात पर आहत हो जाती हैं। धार्मिक परम्पराओं के साथ छोटी सी छेड़-छाड़ भी हमे बर्दाश्त नहीं होती। यह अलग बात है कि जब हमें धार्मिक परम्पराओं से छेड़-छाड़ करनी होती है तो हम ‘परम्परा का विस्तार’ जैसे तर्क देकर अपने अधर्म को छुपा लेते हैं।


दीपावली के अगले दिन अन्नकूट महोत्सव मनाया जाता है। इसे, दीपावली के दूसरे दिन ही मनाए जाने का प्रावधान है। किन्तु मेरे कस्बे में यह महोत्सव, देव प्रबोधनी एकादशी तक, याने पूरे दस दिनों तक मनाया जाता है-किसी दिन किसी मन्दिर पर तो किसी दिन दूसरे मन्दिर पर। दिन तो गिनती के दस ही होते हैं और मन्दिरों की संख्या अधिक! सो, किसी-किसी दिन दो-दो या तीन-तीन मन्दिरों पर एक साथ अन्नकूट महोत्सव मनाया जाता है।


इसकी शुरुआत कोई मन्दिर नहीं करना चाहता। प्रत्येक मन्दिर के अनुयायी चाहते हैं कि किसी न किसी मन्दिर पर शुरुआत हो जाए। इसके पीछे केवल प्रतियोगिता और प्रदर्शन की भावना होती है - धर्म का अता-पता शायद ही रहता हो। प्रत्येक मन्दिर के अनुयायी चाहते हैं कि उनके मन्दिर का अन्नकूट कस्बे का ‘सर्वाधिक सम्पन्न और समृद्ध अन्नकूट’ हो। किन्तु किसी न किसी मन्दिर को तो शुरु करना ही होता है। सो, शुरुआत करने वाले मन्दिर का अन्नकूट, लाख कोशिशों के बावजूद, कस्बे के अन्य मन्दिरों के अन्नकूट के मुकाबले में ‘गरीब और सादा अन्नकूट’ साबित होता है क्योंकि उस मन्दिर का अन्नकूट देखने के बाद अन्य मन्दिरों के अनुयायी अपने-अपने मन्दिर के अन्नकूट को उससे बेहतर तथा संख्या और मात्रा में अधिक व्यंजनों वाला बनाने की कोशिश करते हैं।


यहाँ दिया गया, प्रेस फोटोग्राफर शाहीद मीर का यह चित्र दैनिक भास्कर (रतलाम संस्करण) से उठाया गया है। मेरे कस्बे के सर्वाधिक सघन, वाणिज्यिक स्थल माणक चौक स्थित महालक्ष्मी मन्दिर के अन्नकूट के ढेर सारी थालियों में रखे व्‍यंजन तो नजर आ रहे हैं किन्‍तु ऐसा काफी कुछ है जो दिखाई नहीं दे रहा।


इस मन्दिर के अन्नकूट के लिए बनाए गए व्यंजनों में लगने वाले कच्चे माल के आँकड़े, अलग-अलग अखबारों में अलग-अलग छपे थे। उनमें से सबसे कम वाले आँकड़े इस प्रकार हैं - 25 क्विण्टल आटा, 40 डिब्बे देसी घी और 5 ड्रम (प्रत्येक ड्रम 200 लीटर का) मूंगफली तेल। मावा, बेसन और प्रयुक्त मसालों का आँकड़ा किसी ने नहीं दिया किन्तु 15 क्विण्टल नमकीन और मिठाई के लिए 50 किलो काजू/बादाम प्रयुक्त किए जाने की सूचना अवश्य दी। इस महोत्सव के लिए प्रयुक्त सब्जियों का वजन किसी ने नहीं बताया किन्तु यह अवश्य बताया कि सब्जियों को काटने/छीलने के लिए सैंकड़ों महिलाएँ और बच्चे (याने बच्चियाँ) दो दिन तक जुटे रहे। व्यंजन बनाने के लिए 30 कारीगर (हलवाई) तीन दिन-रात लगे रहे। ढाई सौ थालियों में ये पकवान (अर्थात् पकवानो के नमूने) प्रदर्शित किए गए। यह स्थिति मेरे कस्बे में पूरे दस दिनों तक चलती है। अपना अन्नकूट सर्वाधिक समृद्ध और सम्पन्न बनाने की जोड़-तोड़-होड़ लगी रहती है। इन दस दिनों में अन्नकूट का खर्च करोड़ का आँकड़ा तो पार कर ही लेता है।


कस्बे के तमाम मन्दिरों पर होने वाले, अन्नकूट महोत्सव के इन पकवानों की सामग्री पर और इनके बनाने पर कितना खर्च आया होगा और कितने हजार लोगों ने, कितनी देर पंक्तिबद्ध-प्रतीक्षारत रहकर प्रसादी ग्रहण की होगी, यह अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। किन्तु इसके समानान्तर कुछ बातों के लिए अनुमान लगाने की आवश्यकता नहीं क्योंकि ये ‘बातें’ नहीं ‘तथ्य’ हैं। इनमें प्रमुख हैं -मेरे कस्बे के अधिकांश सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में बिजली कनेक्शन नहीं है। इस कारण गर्मियों के दिनों में बच्चों और अध्यापकों/अध्यापिकाओं को पढ़ने/पढ़ाने में अत्यधिक असुविधा होती है तथा सर्दी और बरसात के मौसम में कमरों में अँधेरा छाया रहता है। अधिकांश स्कूलों में चपरासी की व्यवस्था नहीं होने से बच्चों को अपनी कक्षाओं में झाड़ू लगाना पड़ता है। कुछ स्कूलों में मूत्रालयों की समुचित व्यवस्था नहीं है। फलस्वरूप लड़के स्कूल परिसर में पेशाब करते हैं, लड़कियों को अत्यधिक असुविधा झेलनी पड़ती है और अध्यापिकाओं को (स्कूल के) पड़ौसियों के मूत्रालयों का सहारा लेना पड़ता है।


अनुमान लगाया जा सकता है कि किसी भी एक मन्दिर के अन्नकूट पर खर्च होने वाली एक वर्ष की सकल रकम से बहुत कम रकम में ही मेरे कस्बे के तमाम स्कूलों में ये सारी सुविधाएँ जुटाई जा सकती हैं। किन्तु यह सब करना ‘धार्मिक’ नहीं होता।
कहाँ तो जुलूस का मार्ग बदलने की बात पर मार-काट मच जाती है और यहाँ धार्मिक प्रावधान की धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं! धर्म तो आचरण का विषय होता है किन्तु उसे किस फूहड़ता से प्रदर्शन में बदल दिया जाता है? वह भी गर्वपूर्वक?


सरकारी आँकड़ों के अनुसार देश की 35 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रही है। एक अन्य चर्चित रिपोर्ट के मुताबिक देश के 65 प्रतिशत से भी अधिक लोग, 20 रुपये प्रतिदिन से भी कम पर गुजारा करने को अभिशप्त हैं। ऐसे में, ये अन्नकूट क्या साबित करते हैं?


यह कैसी धार्मिकता है कि भक्त भूखों मरें और भगवान अजीर्ण से परेशान रहें?


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गार्ड के डिब्बे में


नहीं जानता कि यह अनुभव जीवन में कितना काम आएगा या कितना महत्वपूर्ण होगा या कि अविस्मरणीय संस्मरण बन पाएगा भी कि नहीं। किन्तु लोगों के कहे बिना और लोगों को जताए बिना जन सामान्य के लिए काम करने वाले लोगों के प्रति मेरे मन में जो भावना उपजी वह निस्सन्देह अनूठी है।


मुझे दाहोद-भोपाल यात्री गाड़ी से उज्जैन जाना था। प्लेटफार्म पर पहुँचा तब भीड़ बिलकुल ही नहीं थी। किन्तु रेल के आते-आते दृश्य बदल गया। लगा कि एक रेल भर जाए, इतने यात्री तो रतलाम प्लेटफार्म पर ही खड़े हैं। रेल आई तो खचाखच भरी हुई। बैठने की जगह पाने की बात तो कल्पनातीत हो गई, डिब्बे में घुस पाना भी असम्भव लगने लगा। लगा कि मुझे अपनी यात्रा स्थगित करनी पड़ेगी। अचानक ही एक रेलकर्मी मित्र मिल गए। उन्हें खाचरौद जाना था। मेरी मुख-मुद्रा देख कर ही मेरी समस्या ताड़ गए। हँसकर न्यौता दिया -‘घबराइए मत। आपको जगह मिल जाएगी।’ मेरी आँखों में उभरे प्रश्न को पढ़कर बोले -‘अपन गार्ड के डिब्बे में चलेंगे।’ मैं निश्चिन्त तो हुआ किन्तु संकोच और जिज्ञासा से नहीं उबर पाया। रेलकर्मी मित्र मुझे इस दशा में देखकर, ठठाकर हँस पड़े। बोले-‘सोचना बन्द कीजिए और चलिए।’ हम दोनों गार्ड के डिब्बे के सामने पहुँचे। न उन्होंने कुछ कहा और न ही गार्ड ने कुछ पूछा। मित्र डिब्बे में चढ़ गए और मुझे आवाज लगाई। मैं ने आदेश का पालन किया। खुद को भला, समझदार और जिम्मेदार साबित करने के लिए मैंन गार्ड को अपना परिचय दिया। किन्तु यह क्या? मैं अपनी बात पूरी करता उससे पहले ही मुझे चकित करते हुए गार्ड हँसकर बोला -‘इसकी जरूरत नहीं। मैं आपको जानता हूँ। आपके घर आकर चाय पी चुका हूँ।’ मैंने मन ही मन भगवान को धन्यवाद दिया।

रेलकर्मी मित्र ने, डिब्बे के सामने वाले दरवाजे के पास वाली सीट पर मुझे बैठाया और खुद, डिब्बे के चैड़ाई वाले पिछले हिस्से में लगे, सनमायका के पटिये पर टिक गए। यह पटिया सामान रखने के लिए था।


गार्ड ने हम दोनों की ओर देखने की भी आवश्यकता अनुभव नहीं की। वह अपने काम में लगा हुआ था। दो रेलकर्मी प्लेटफार्म पर खड़े थे। एक के हाथ में एक रजिस्टर था और दूसरे के हाथ में कुछ कागज। गार्ड ने रजिस्टर में हस्ताक्षर किए। दूसरे से कागज लेकर उनकी पावती दी। इसी बीच एक और कर्मी आकर ढेर सारे खाकी लिफाफे और चमड़े के बेग (जैसे कि डाक घर में ‘पोस्ट बेग’ होते हैं) रख गया। एक आदमी आकर, बिना बोले, बिना कुछ पूछे- कहे, अखबार का एक बण्डल रख गया। गार्ड ने मेरे मित्र से कहा -‘एक डिब्बे की सील में कुछ गड़बड़ है। देख कर आता हूँ।’ मित्र ने कहा - ‘देख लो। मैं भी इसकी सूचना नागदा वाले को दे देता हूँ।’ गार्ड चला गया। कुछ ही क्षणों में मैंने गार्ड की सीटी की आवाज सुनी। गाड़ी चल दी। उधर, मित्र मोबाइल में व्यस्त हो गए। गाड़ी कोई तीस-पैंतीस मीटर सरक चुकी तब गार्ड चलती गाड़ी में चढ़ा। आते ही उसने अपना रजिस्टर खोला और उसमें कुछ लिखने लगा। नागदावाले से बात करते ही मित्र ने खाकी लिफाफों का बण्डल खोला। लिफाफे छाँट कर अलग-अलग ढेरियों में रखने लगे। मैंने पूछा-‘आप क्या करने लगे?’ बोले-‘रास्ते के स्टेशनों के लिए ऑफिस की डाक है। उसे स्टेशनवार जमा रहा हूँ। काम तो गार्ड सा’ब का है। उन्हें थोड़ी मदद हो जाएगी।’ लिफाफों के बाद उन्होंने चमड़े के बैग जमाए। इस बीच, प्लेटफार्म पार करते-करते गार्ड सा’ब लगातार हरी झण्डी दिखाते रहे। मुझे अजीब लग रहा था। दोनों में से कोई भी मेरा नोटिस नहीं ले रहा था। गार्ड का तो मैंने मान लिया कि वह व्यस्त था। किन्तु मित्र? वे भी व्यस्त हो गए?


मैं फुर्सत में था। डिब्बे को देखने लगा। मुश्किल से पॉंच गुणा आठ फीट लम्‍बा-चौडा। डिब्बे के बीच में गार्ड का, पुराने जमाने का, लोहे का बड़ा बक्सा। (बाद में गार्ड ने बताया कि यह बक्सा गार्ड की पूरी गृहस्थी होती है।) दोनों दरवाजों के पास बैठने के लिए पटिया ठुकी एक-एक सीट। पटिए पर फोम जरूर लगा हुआ किन्तु बैठने के लिहाज से अत्यधिक असुविधाजनक। एक कोने में, कम से कम जगह घेर कर बनाया गया ‘सुविधा गृह’। चैड़ाई का शेष भाग दो हिस्सों में बँटा हुआ। एक भाग, डिब्बे की पूरी ऊँचाई तक आलमारी की शकल में जिस पर ताला लगा हुआ और ताले पर चपड़ी की मोटी सील। मालूम हुआ, इसमें आपात स्थिति वाला साज-ओ-सामान है। दूसरा हिस्सा, डिब्बे की लगभग आधी उँचाई में जिस पर जालीदार दरवाजा लगा हुआ-डॉग बॉक्स। यह यात्रियों के कुत्ते, बकरी जैसे पालतू जानवरों के लिए। अधिकतम दो जानवर रखे जा सकते हैं। छत पर एक पंखा और एक बत्ती। बस।


‘डूँगर दूर ती रण्यावरा नजराँ आवे’ (अर्थात्, पहाड़ दूर से ही सुन्दर दिखाई देते हैं।) वाली मालवी कहावत मेरे सामने सच साबित होती जा रही थी। मैं सोचता था कि सजी-धजी वर्दी वाले गार्ड को खूब आराम मिलता होगा, उसे कुछ नहीं करना पड़ता होगा, प्रत्येक स्टेशन पर उसकी खातिरदारी होती होगी आदि-आदि। किन्तु यहाँ वैसा कुछ भी नहीं था। कब खाचरौद आ गया और कब मेरे मित्र उतर गए, पता ही नहीं चला। इसी तरह गाड़ी नागदा पहुँच गई। मुझे आशा थी कि यहाँ चाय मिलेगी। किन्तु गाड़ी रुकते ही गार्ड अन्तर्ध्‍यान हो गया। मेरा डिब्बा गाड़ी के अन्तिम छोर पर। वहाँ तक कोई चायवाला आया ही नहीं। इस बीच रेल्वे सुरक्षा बल का एक वर्दीधारी जवान हाथ में रजिस्टर लिए डिब्बे में घुसा और गार्ड के बक्से पर लिखा गार्ड का नाम अपने रजिस्टर में लिख कर, जैसे आया था वैसे ही चला गया। उसने भी मेरा नोटिस नहीं लिया।


अचानक ही गार्ड की सीटी की आवाज आई और गाड़ी सरकने लगी। गार्ड, हरी झण्डी हिलाते-हिलाते, चलती गाड़ी में चढ़ा। प्लेटफार्म गुजरने तक इसी क्रिया में लगा रहा और फौरन ही अपने रजिस्टर में झुक गया। मुझे उबासियाँ और थकान आने लगी थी। मैंने बातों का सिलसिला शुरु किया। मुझे आश्चर्य हुआ कि अपना काम करते हुए गार्ड मेरी ओर देखे बिना ही मेरी प्रत्येक बात का उत्तर दे रहा है। उन्हेल स्टेशन पर जो कर्मचारी गार्ड के हस्ताक्षर लेने आया उससे गार्ड ने कहा -‘पलसोड़ावाले को चार चाय के लिए बोल देना।’ गाड़ी चली। गार्ड ने हरी झण्डी हाथ में ले ली। गाड़ी के प्लेटफार्म पार करते-करते, प्लेटफार्म पर मौजूद तीन अलग-अलग लोगों ने गार्ड से पूछा-‘पलसोड़ा में चाय भिजवाऊँ?’ गार्ड ने सबको एक ही उत्तर दिया -‘बोल दिया है।’
पलसोड़ा में चाय आई। कप का आकार देखकर समझ पड़ा कि गार्ड ने दो व्यक्तियों के लिए चार चाय क्यों बोली थी। गार्ड के बक्से पर चाय रखकर चायवाला चला गया। गाड़ी चल दी। ‘ऑल राइट’ (याने प्लेटफार्म पार करने तक हरी झण्डी दिखाना) सम्प्रेषित कर गार्ड ने, डॉग बॉक्स के ऊपर रखे अपने बेग से बिस्किट का पेकेट निकाला। बक्से पर रखे पुराने अखबार पर बिस्किट फैला कर निमन्त्रण दिया -‘लीजिए! चाय पीजिए।’ पहले ही घूँट ने समझा दिया कि गार्ड ने नागदा में चाय क्यों नहीं पी/पिलाई थी और यह कि रेल्वे की चाय कितनी बेकार बनती है। गार्ड ने बताया कि पलसोड़ा में रेल्वे का टी स्टाल नहीं है। स्टेशन के बाहरवाली चाय की दुकान से आई है। मेरी चाय समाप्त होने के चार गुना अधिक समय के बाद गार्ड की चाय समाप्त हो पाई। वह लगातार व्यस्त था।


ढाई घण्टों में 97 किलोमीटर की यात्रा पूरी कर गाड़ी उज्जैन पहुँची। गार्ड को भी उज्जैन ही उतरना था। उज्जैन आउटर पार करते ही गार्ड ने तेजी से लिखा पढ़ी पूरी की, रजिस्टर तथा अन्य सामान फटाफट बक्से में रखा। ताला लगाया। तब तक रेल प्लेटफार्म पर लग चुकी थी। गार्ड ने कहा-‘शाम को इसी गाड़ी से रतलाम लौटूँगा। आप भी इसी से लौटने की कोशिश कीजिएगा। तब बातें करेंगे। मैंने न्यौता स्वीकार किया। यात्रा के लिए धन्यवाद दिया।


गाड़ी से उतरा तो अनुभव हुआ कि पीठ बुरी तरह से अकड़ी हुई है। उतरने के बाद कुछ क्षणों तक शरीर को ऊँचा-नीचा करता रहा। किन्तु ढाई घण्टों की अकड़न कुछ पलों में कैसे दूर होती?


उज्जैन स्टेशन से बाहर निकला तो ढेर सारी जानकारियाँ मुझे समृद्ध कर चुकी थीं। सबसे पहली तो यह कि गार्ड की नौकरी वैसी और उतनी आरामदायक बिलकुल ही नहीं है जैसी कि मैं सोचे बैठा था। उसे तो सर उठाने की भी फुर्सत नहीं मिलती। वह या तो लिखता रहता है या फिर हरी झण्डी हिलाता रहता है। गार्ड को प्रत्येक स्टेशन पर गाड़ी के पहुँचने का समय अपने रजिस्टर में और प्रत्येक स्टेशन के रजिस्टर में लिखना होता है। रास्ते के स्टेशनों की डाक सौंपनी पड़ती है। सामने से आ रही प्रत्येक रेल को और रास्ते के रेल्वे केबिनों को हरी झण्डी बता कर ‘आल राइट’ संकेत देना पड़ता है। गाड़ी यदि सामान्य से अधिक समय तक किसी स्टेशन के आउटर पर खड़ी हो जाती लगे तो ‘वाकी टाकी’ या फिर मोबाइल के जरिए स्टेशन पर बात कर सिग्नल माँगना पड़ता है। जिन स्टेशनों पर गाड़ी प्लेटफार्म पर रूकने के बजाय बीच वाली पटरियों पर रुके, वहाँ, दोनों ओर देख कर यह सुनिश्चित करना होता है कि कोई यात्री (विशेषतः स्त्रियाँ, बच्चे और वृद्ध) रह तो नहीं गया है। रास्ते के स्टेशनों पर पदस्थ रेल कर्मियों के टिफिन पहुँचाने की सौजन्य सेवा करनी पड़ती है। किसी स्टेशन पर किसी का भुगतान करने की जिम्मेदारी निभानी पड़ती है। रास्ते के एक स्टेशन पर एक बच्चे के पिता ने गार्ड को कुछ रुपये और अपने बच्चे का फोटो थमाया और कहा-‘उज्जैन में यह बच्चा आएगा। उसे रुपये दे देना।’ गार्ड ने इस सहजता से यह काम करना कबूल किया मानो यह उसका रोज का काम हो। ऐसे ही कुछ काम प्रत्येक गार्ड प्रतिदिन करता है।


उज्जैन में मैं अपने मुकाम पर पहुँचा तो बड़ी देर तक वहाँ हो कर भी वहाँ नहीं हो सका। मेरी यात्रा निरापद, सुरक्षित और सुनिश्चत पूरी हो, इसके लिए इस गार्ड जैसे कितने लोग, चुपचाप लगे रहते हैं? न मैं उनसे कुछ कहता हूँ और न ही वे मुझसे कुछ पूछते हैं। वे सब न हों तो मेरी यात्राओं की नियती क्या हो? ये तमाम लोग कितनी असुविधाएँ झेल कर मेरी यात्रा सुविधाजनक बनाते हैं-इस पर मैंने कभी नहीं सोचा। यदि गार्ड के साथ यह यात्रा नहीं की होती तो शायद कभी नहीं सोचता।


मेरे गार्ड दोस्त! शुक्रिया। मुझे अपने साथ यात्रा करने की अनुमति देकर तुमने मुझे, खुद से आगे बढ़कर किसी और के बारे में सोचने की बुद्धि दी। मैं वादा करता हूँ कि मेरा सोचना अब केवल मुझ तक सीमित नहीं होगा और न ही यह सोचना रुकेगा। तुम्हारे कारण मैं अब शायद तनिक कम स्वार्थी हो सकूँ।


फिर से शुक्रिया दोस्त!

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मैं और मेरी घबराहट


बारहवीं कक्षा में पढ़ रहे एक बच्चे ने कल मुझे व्याकुल कर दिया। परिचित परिवार की बच्ची कोई पाँच दिन पहले डेंगू का शिकार हो गई। मैं कुशल क्षेम पूछने गया। बच्ची का बड़ा भाई हमारी सेवा में उपस्थित था। वह मेरे कस्बे के सबसे मँहगे प्रथम पाँच स्कूलों में से एक का विद्यार्थी है। बच्ची लगभग पूर्ण स्वस्थ हो गई थी। इतनी कि मेरे प्रश्न - ‘कैसी तबीयत है?’ के उत्तर में उसने प्रति प्रश्न किया-‘मेरी तबीयत खराब हुई ही कब थी?’ हमारे लिए दीपावली की मिठाई लेकर भी वही आई थी। जाहिर है कि उसकी तबीयत को लेकर पूछताछ की सम्भावनाएँ शून्य हो चुकी थीं। मैं उसके भाई से बातें करने लगा।
हमारी बातें कुछ इस तरह हुईं-
‘कौन सी कक्षा में पढ़ रहे हो?’
‘ट्वेल्थ में।’
‘कौन से स्कूल में?’
उसने अपने स्कूल का नाम बताया।
मैंने कहा-‘यह तो रतलाम के सबसे मँहगे स्कूलों में से एक है!’
‘हाँ। है तो।’
‘स्कूल एक पाली में लगता है या दो पालियों में?’
‘पाली बोले तो?’
‘पाली याने शिट।’
‘सिंगल शिट में।’
‘तुम्हारी कक्षा में कितने बच्चे हैं?’
‘फॉर्टी फाइव।’
‘प्रयोगशालाएँ कैसी हैं?’
‘यू मीन लेब्स?’
‘हाँ।’
‘फण्टास्टिक। वेल इक्यूप्ड।’
‘स्कूल में लायब्रेरी है?’
‘हाँ।’
‘तुम दिन में कितनी देर वहाँ बैठते हो?’
‘एक सेकण्ड भी नहीं।’
‘लायब्रेरी का पीरीयड नहीं है क्या?’
‘नहीं।’
‘तुम अपनी ओर से लायब्रेरी नहीं जाते?’
‘नहीं जाता।’
‘टीचर कुछ कहते नहीं?’
‘टीचर क्या कहेंगे? लायब्रेरी कभी खुलती ही नहीं।’
‘टीचर भी लायब्रेरी नहीं जाते?’
‘नहीं जाते। कैसे जाएँ? मैंने बताया ना, लायब्रेरी खुलती ही नहीं।’
‘तुम और तुम्हारे साथी, अपनी कोर्स की किताबों के अलावा कौन-कौन सी किताबें पढ़ते हो?’
‘कोई नहीं।’
‘तुम भी नहीं पढ़ते?’
‘नहीं।’
‘क्यों?’
‘मुझे शौक नहीं?’
‘अखबार पढ़ते हो?’
‘नहीं।’
‘याने तुम्हें पता नहीं होता कि दुनिया में क्या हो रहा है।’
‘असेम्बली में डेली न्यूज और था थॉट बताया जाता है।’
‘टीवी पर खबरें देखते हो?’
‘नहीं। इट्स बोरिंग एण्ड यूजलेस। वेस्टेज ऑफ टाइम।’
सवाल-दर-सवाल मेरी जबान लड़खड़ाने लगी थी, आवाज धीमी और साँसें भारी होने लगी थी। मेरी हिम्मत जवाब दे गई। और कुछ पूछना या आगे बात कर पाना मेरे लिए सम्भव नहीं हुआ।
मुझे याद आने लगा कि हमारे लिए प्रतिदिन लायब्रेरी जाना अनिवार्य होता था। जो इसमें चूक जाता, उसे सजा मिलती। हमारी बातों का सत्यापन करने के लिए ‘सर’ कभी-कभी हमारे बस्ते खँगाल कर लायब्रेरी से इश्यू कराई गई पुस्तक का भौतिक सत्यापन करते थे। हमारे लायब्रेरियन पाँचाल सर कभी स्कूल से बाहर मिल जाते तो लोगों को बताते कि कौन लड़का नियमित रूप से लायब्रेरी आता है और कौन लड़का सबसे ज्यादा पुस्तकें इश्यू कराता है।
बच्चे की बातों ने मेरी यादों में मानो ‘सम्पुट’ लगा दिया।
मैं तय नहीं कर पा रहा हूँ कि मुझे किस बात से अधिक घबराहट हो रही है-बच्चे के जवाबों से या अपनी यादों से?
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लो! बन गया नक्सली

ऐसी घटना पूरे देश में कहीं न कहीं घटती ही रहती होगी। चौबीसों घण्टे। किन्तु बोलो! नक्सलवादी बन जाऊँ? वाली मेरी पोस्ट, चौबीस घण्टों से भी कम समय में, मेरे ही आसपास सच साबित हो जाएगी, यह तो मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। इन्दौर प्रकाशित हो रहे, सान्ध्यकालीन दैनिक प्रभातकिरण के आज (21 अक्टूबर 2009, बुधवार) के अंक में, मुख पृष्ठ पर प्रकाशित समाचार की कतरन यहाँ प्रस्तुत है।







मात्र सोलह पंक्तियों का यह समाचार अविकल रूप से भी प्रस्तुत है-




बीमार बहन के लिए बना नक्सली


मंत्री को धमकाया



दमोह-मध्यप्रदेश के जल संसाधन, आवास और पर्यावरण मंत्री जयंत मलैया को टेलिफोन पर जान से मारने की धमकी देने वाला अपनी बीमार बहन की जान बचाने की नीयत से नक्सली बना।




दमोह (ग्रामीण) थाने के नरसिंहगढ़ गांव के शैलेष (16) ने अपनी बहन स्वाति की बीमारी से परेशान होकर मंत्री को धमकाया था। मलैया ने भी उसकी कहानी जानने के बाद उन्हें धमकाने की पुलिस कार्रवाई वापस लेकर उसे माफ कर दिया है। दरअसल शैलेष की बहन पिछले एक साल से बे्रन हेमरेज की शिकार है। शैलेष ने मलैया से मदद मांगी तो आश्वासन मिला, लेकिन सरकारी काम ‘सौ दिन चले, अढ़ाई कोस’ की चाल से चलता है, जिसके कारण कुछ परिणाम नहीं निकला। इन हालात से निराश और परेशान शैलेष ने मन्त्री को धमकाने का दुस्साहस जुटाया और पुलिस की गिरत में पहुंच गया।




हमारे नेता और हमारी व्यवस्था किस प्रकार लोगों की अनदेखी करती है और किस प्रकार लोगों को नक्सलवादी बनाती है, यह उसका बहुत ही छोटा नमूना है।




राहुल गाँधी! कहाँ हो युवराज? सुन रहे हो?



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बोलो! नक्सलवादी बन जाऊँ?


कोई बाँसठ/पैंसठ घण्टे पहले, 18 अक्टूबर की सवेरे कोई साढ़े नौ/दस बजे के आसपास ‘यह सब’ हुआ था। किन्तु मैं अब तक ‘इससे’ उबर नहीं पा रहा हूँ। लगता है, जो कुछ हो चुका है वह अभी भी मेरी आँखों के सामने हुआ जा रहा है, लगातार, बार-बार।


अनूठा दीपावली मिलन शीर्षक वाली पोस्ट लिखते समय भी यह सब मेरी आँखों के सामने हो रहा था। तब लगा था, यह ताजा-ताजा बात है जो श्मशान वैराग्य की तरह थोड़ी ही देर में अन्तर्ध्‍यान हो जाएगी। लेकिन अब तक तो यह मेरा वहम ही साबित हो रहा है।


दीपावली मिलन के लिए जब राजस्व कॉलोनी और पत्रकार कॉलोनी के लगभग तमाम पुरुष मेरी गली में प्रवेश कर रहे थे, उसी समय, उनके साथ ही साथ एक महिला, एक पुरुष और दो बच्चों का भिखारी परिवार भी आ पहुँचा था। पोस्ट की आठवीं क्लिप की शुरुआत में ही आपको, अपने बाँये कन्धे पर थैला टाँगे, नीले ब्लाउज और गहरे लाल रंग के छापों वाली साड़ी पहने एक महिला नजर आई होगी। पूरी बाँहों वाली, नीली शर्ट पहने एक व्यक्ति उसके पास खड़ा नजर आता है। उसके हाथ में प्लास्टिक की सफेद थैली है। दोनों कुछ देर खड़े रहते हैं। फिर वह औरत चल देती है और एक मकान के सामने कुछ देर रुक कर किसी से बात करती है, आगे बढ़ती है। नीली शर्ट वाला व्यक्ति उससे थोड़ा पीछे रह जाता है। उसी समय एक बच्चा पीछे से दौड़ता हुआ आकर अपने हाथ का कटोरा उसे थमा देता है। उसके पीछे, लाल रंग की फ्राक पहने एक बच्ची दिखाई देती है जिसके हाथ में प्लास्टिक की थैली में कुछ सामान दिखाई देता है। यही पह परिवार है।


दीपावली मिलन के लिए आए लोगों में से आधे लोग भी नहीं निकले थे कि ये चारों सदस्य अलग-अलग टेबलों के सामने आ कर खड़े हो गए और मिठाई माँगने लगे। उन्होंने इस बात की तनिक भी चिन्ता नहीं की कि अभी आधे लोगों का आना बाकी है। लोगों का रेला अपने अन्तिम छोर पर आकर जब ‘विरल’ हो गया तो इन चारों की आवाजें उभर कर मुहल्ले में सुनाई देने लगीं। जिस बच्चे ने अपने हाथ का कटोरा महिला को दिया था, वह बच्चा मेरी पत्नी के सामने खड़ा था। मैं नहीं जानता कि मेरी पत्नी उसकी अनदेखी करने की कोशिश कर रही थी या सब लोगों के निकल जाने की प्रतीक्षा। किन्तु वह उस लड़के के होने को निरस्त कर रही थी। लड़के ने इस बात को ताड़ा या नहीं किन्तु वह अपने होने को बराबर जता रहा था। मैं कभी उस लड़के को देख रहा था, कभी अपनी पत्नी को। लड़का माँग जरूर रहा था किन्तु उसके स्वरों में याचना बिलकुल नहीं थी। और उसकी आँखें? बाप रे! उसकी आँखों में अधिकार भाव नजर आ रहा था। मानो कहना चाह रहा हो कि टेबल पर रखी मिठाई वास्तव में है तो उसकी किन्तु उस पर अधिकार मेरी पत्नी ने जमा रखा है। वह मिठाई की माँग कुछ इस तरह दोहरा रहा था मानो अपने संस्कारवश ही वह माँग रहा है और यदि उसकी और अनदेखी/अनसुनी की गई तो वह अधिकारपूर्वक सारी मिठाई अपने कटोरे में डाल लेगा। उसकी माँग कुछ ऐसी थी कि तुम दे दो तो अच्छा है वर्ना मैं खुद ले लूँगा। उसकी आँखों में ऐसी विचित्र ‘ताब’ थी जिस शब्दों में उकेर पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं हो रहा है और न ही उसे भूल पाना।


अचानक ही मुझे योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोण्टेक सिंह अहलूवालिया के श्रीमुख से टपकी, सात प्रतिशत विकास दर की घोषणा याद आने लगी। याद आने लगा कि देश की आबादी के अन्तिम तीस करोड़ लोगों की सम्पत्ति के बराबर की सम्पत्ति पर देश के पाँच औद्योगिक घरानों का कब्जा है। राज्य सरकारों को दी गई, राहुल गाँधी की सलाह याद अपने लगी कि नक्सलवाद से निपटने के लिए सरकारों को लोगों से बात करनी चाहिए। अचानक ही मुझे लगा कि राहुल बात तो ठीक कह रहे हैं किन्तु इसका पूर्वार्ध्‍द जानबूझ, योजनाबद्ध रूप से छुपा रहे हैं। लोगों से बात करने से क्या होगा युवराज? मुद्दा तो यह है कि जब लोग कुछ कहें तो पहली ही बार में उनकी बात सुनी भी जाए और उस पर कार्रवाई भी की जाए। किन्तु लोग बोलते रहते हैं और सरकारें तथा सरकारी अमला अनसुनी करता रहता है। तब ‘मरता क्या न करता’ वाली कहावत हकीकत में बदलती है और लोग खुद अपना न्याय करना शुरु कर देते हैं। संत्रस्त, क्षुब्ध लोगों की इस प्रतिक्रिया पर नक्सलवाद का लेबल चस्पा कर दिया जाता है और प्रतिक्रिया को मूल क्रिया की तरह पेश किया जाने लगता है।


मेरी पत्नी से मिठाई माँगता वह लड़का मुझे यही सब याद दिला रहा था। पता नहीं क्यों मुझे लगने लगा कि वह मिठाई नहीं माँग रहा। वह मेरी पत्नी के सामने विकल्प चयन प्रस्तुत कर रहा है - तुम ही तय कर लो कि तुम मिठाई दोगी या मैं ले लूँ? या फिर नक्सलवादी बन जाऊँ?


इस समय इक्कीस अक्टूबर की सुबह के साढे तीन बजने वाले हैं जब मैं यह पोस्ट लिख रहा हूँ। किन्तु अपने कम्प्यूटर के पर्दे पर मुझे मेरी इस पोस्ट के अक्षर नहीं, हाथ में कटोरा लिए उस लड़के की चीरती आँखें नजर आ रही हैं और की-बोर्ड की खटखट नहीं, उसकी आवाज सुनाई दे रही है - ‘बोलो! नक्सलवादी बन जाऊँ?’
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

अनूठा दीपावली मिलन

दीपावली का दूसरा दिन मालव में ‘सुहाग पड़वा’ के रुप में मनाया जाता है। इस दिन, सुहागिनें, अपने रिश्ते और व्यवहार की वरिष्ठ महिलाओं का अभिवादन करने उनके घर जाती हैं, उनके चरण स्पर्श कर, उनके आशीर्वाद प्राप्त करती हैं।


रतलाम एक व्यावसायिक कस्बा है। लगभग पौने तीन लाख की जनसंख्या वाले इस कस्बे में दीपावली के अगले दिन ‘दीपावली मिलन’ की सुदीर्घ परम्परा है। इस दिन मानो पूरा रतलाम सड़कों पर आ जाता है। हर कोई अपने नाते-रिश्तेदारों और मिलने वालों से ‘दीपावली मिलन’ हेतु उनके घर जाता है और वह भी सम्भव हो तो सपरिवार। ऐसा करने में ऐसा प्रायः ही होता है कि मैं जिसके यहाँ मिलने गया, वह मेरे घर मिलने चला आया। परिणामस्वरूप हम दोनों ही हाजरी एक दूसरे के घर तो लग गई किन्तु मुलाकात नहीं हो पाई।


किन्तु इस शहर की राजस्व कॉलोनी और पत्रकार कॉलोनी के निवासियों ने इस परम्परा को सामूहिकता का सुखद-विस्तार देकर इसे अनूठा बनाया हुआ है। लगभग पौने दो सौ मकानों वाली इन कॉलोनियों के लोग अपने-अपने घर से निकल कर सामूहिक रुप से ‘दीपावली-मिलन’ करते हैं। पहले मकान से निकला व्यक्ति, कॉलोनी के अन्तिम मकान तक पहुँचते-पहुँचते विशाल जन समुदाय में (आप इसे जुलूस भी कह सकते हैं) बदल जाता है। गलियों में इस जुलूस की प्रतीक्षा होती है। जिस गली में यह जन समूह आता है, उस गली के लोग इसका हिस्सा बन कर साथ हो लेते हैं। यह सब दर्शनीय होता है।


दोनों कॉलोनियों के लोग ‘होली मिलन’ भी इसी अनूठी सामूहिकता से मनाते हैं।
इस बार के इस दीपावली मिलन को यहाँ प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ। प्रारम्भिक दृश्य मैंने और अन्तिम महत्वपूर्ण दृश्य मेरे छोटे बेटे तथागत ने शूट किए हैं। वीडियो को ब्लॉग पर लाने के लिए तकनीकी परामर्श श्री रवि रतलामी ने दिया जिसका पालन करते हुए मेरे बड़े बेटे वल्कल ने समूची शूटिंग को यू ट्यूब पर अपलोड कर, ब्लॉग पर लगाने के काबिल किया।


मेरी पहली ‘वीडियो पोस्ट’ को आशीर्वाद दीजिएगा। सम्भव हुआ तो होली मिलन भी प्रस्तुत करने की कोशिश करूँगा।




























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अभिनन्दन

बेशक नई सुबह का,

गुण गान हम करें।

उगते हुए सूरज का भी,

मान हम करें।

जो लड़ रहा था रात से,

प्रभात के लिए,

उस दीप का भी दोस्तों,

सम्मान हम करें।

दीप पर्व पर हार्दिक अभिनन्दन एवम् शुभ-कामनाएँ
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(प्रस्तुत पंक्तियाँ, मालवा के लोकप्रिय और सुपरिचित कवि-गीतकार श्री सुरेश श्रोत्रिय ‘प्रवासी’ की हैं।)

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बच्चों की शिक्षा/ विवाह के लिए बीमा पॉलिसी


शिक्षा आज के सर्वाधिक मँहगी आवश्यकताओं में से एक है। परिवार में सन्तान के आते ही उसकी उच्च शिक्षा अथवा (कन्या जन्म के मामले में उसके) विवाह की चिन्ता सताने लगती है। ऐसे में, भारतीय जीवन बीमा निगम की ‘शिक्षा/विवाह बन्दोबस्ती पॉलिसी’ (तालिका 90) पिता/माता को इस चिन्ता से मुक्त करने में सहायक होती है। भारतीय जीवन बीमा निगम की यह पॉलिसी उन लोगों के लिये ‘आदर्श पॉलिसी’ है जो अपनी सन्तान की शिक्षा अथवा विवाह के लिये एक सुनिश्चित समय पर सुनिश्चित आर्थिक व्यवस्था करना चाहते हैं।

पॉलिसी अवधि के दौरान पॉलिसीधारक के जीवन पर बीमा धन के बराबर रिस्क कवरेज उपलब्ध रहता है और दुर्घटना-मृत्यु की स्थिति में यह कवरेज बीमा धन से दुगुना होता है । पॉलिसी अवधि पूरी होने पर पॉलिसीधारक को मूल बीमा धन की राशि तथा पॉलिसी अवधि की बोनस राशि (तथा अन्तिम-अतिरिक्त बोनस राशि, यदि कोई देय हो तो) का भुगतान किया जाता है ।

पॉलिसी अवधि के दौरान यदि दुर्भाग्यवश पॉलिसीधारक की मृत्यु हो जाए तो -


1. सामान्य मृत्यु की दशा में नामित व्यक्ति को तत्काल तो कोई भुगतान नहीं मिलेगा किन्तु पॉलिसी की अवधि पूरी होने के दिनांक को उपरोक्त वर्णित समस्त धन राशि (अर्थात् मूल बीमा धन की रकम तथा सम्पूर्ण पॉलिसी अवधि की बोनस राशि तथा अन्तिम-अतिरिक्त बोनस राशि (यदि कोई देय हो तो) का भुगतान नामित व्यक्ति को मिलेगा ।

2. दुर्घटना मृत्यु की दशा में मूल बीमा धन के बराबर राशि का भुगतान नामित व्यक्ति को तत्काल किया जाएगा तथा पॉलिसी अवधि पूरी होने पर उपरोक्त वर्णित समस्त रकम नामित व्यक्ति को पुनः भुगतान की जाएगी ।


अर्थात्, पॉलिसी अवधि पूरी होने से पहले, पॉलिसीधारक की अकस्मात मृत्यु के बाद उसकी सन्तान की शिक्षा/विवाह के लिये पॉलिसीधारक द्वारा निर्धारित की गई अवधि पर एक सुनिश्चित रकम उपलब्ध कराने की सुनिश्चित व्यवस्था यह पॉलिसी उपलब्ध कराती है ।

उदाहरण - 27 वर्षीय ‘श्रीमान् क’ आज एक बिटिया के बाप बने हैं। उनका अनुमान है कि उसके 23वें वर्ष में वे उसका विवाह कर देंगे। इस हेतु वे 23 वर्ष की अवधि के लिए 5 लाख रुपये बीमाधन की यह पॉलिसी लेते हैं। इसकी वार्षिक प्रीमीयम होगी रुपये 20,088/- अर्थात् वे 23 वर्षों तक, 20,088/- रुपये प्रति वर्ष चुकाएँगे। पॉलिसी अवधि पूरी होने पर उन्हें परिपक्वता राशि रुपये 13,37,000 (अनुमानित) का भुगतान मिलेगा। इस राशि में मूल बीमाधन की रकम रुपये 5 लाख, 23 वर्षों के बोनस की अनुमानित रकम रुपये 5,52,000 तथा अन्तिम-अतिरिक्त बोनस की अनुमानित रकम रुपये 2,85,000 शामिल है। (बोनस की गणना, भारतीय जीवन बीमा निगम द्वारा वर्ष 2007-08 के लिए घोषित बोनस दरों के आधार पर की गई है।)


‘श्रीमान् क’ को, किश्तों की रकम पर आय कर अधिनियम की धारा 80 सी के अन्तर्गत आय कर छूट मिलेगी तथा परिपक्वता पर मिलने वाली सम्पूर्ण राशि, आय कर अधिनियिम की धारा 10 (10) (डी) के अन्तर्गत आय कर से मुक्त होगी।


इस 23 वर्षों की अवधि के दौरान ‘श्रीमान् क’ के जीवन पर सामान्य मृत्यु की दशा में 5 लाख रुपयों का तथा दुर्घटना मृत्यु की दशा में 10 लाख रुपयों का रिस्क कवरेज उपलब्ध रहेगा। अर्थात् 23 वर्ष की अवधि पूरी होने से पहले यदि, परिवार के दुर्भाग्य से ‘श्रीमान् क’ की मृत्यु हो गई तो -


(1) सामान्य मृत्यु होने पर, ‘श्रीमान् क’ के नामित व्यक्ति को तत्काल कोई भुगतान नहीं मिलेगा। चूँकि बीमित व्यक्ति (अर्थात् ‘श्रीमान् क’) की मृत्यु हो चुकी है सो प्रीमीयम जमा कराने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। किन्तु शेष अवधि के लिए पॉलिसी पूरी तरह प्रभावी मानी जाएगी (अर्थात्, उसे बोनस की पात्रता मिलती रहेगी) और निर्धारित परिपक्वता दिनांक को, ‘श्रीमान् क’ के नामित व्यक्ति को उपरोल्लेखित राशि (अनुमानित 13 लाख 37 हजार रुपये) का भुगतान किया जाएगा।


(2) यदि ‘श्रीमान् क’ की मृत्यु किसी दुर्घटना के कारण हुई है तो मूल बीमा धन (रुपये 5 लाख) के बराबर की रकम का भुगतान, ‘श्रीमान् क’ के नामित व्यक्ति को तुरन्त कर दिया जाएगा और पॉलिसी की निर्धारित परिपक्वता दिनांक को, ‘श्रीमान् क’ के नामित व्यक्ति को उपरोल्लेखित राशि (अनुमानित 13 लाख 37 हजार रुपये) का भुगतान फिर से किया जाएगा।


विशेषता -


इस पॉलिसी का भुगतान या तो (परिपक्वता पर) स्वयम् पॉलिसीधारक को मिलेगा या फिर (पॉलिसीधारक की मृत्यु हो जाने की दशा में) उसके नामित व्यक्ति को मिलेगा।


सामान्य मृत्यु के बाद तत्काल भुगतान न मिलने से, बीमा से मिलने वाली रकम के अनुचति उपयोग (यथा मृत्यु-भोज जैसी उत्तर क्रियाओं में) होने की आशंका नहीं रह पाती है।


भुगतान सन्तान को न मिलने से भी, उसके अनुचित उपयोग की आशंक स्वतः नष्ट हो जाती है।


सन्तान के विवाह के लिए अवधि का अनुमान ही लगाया जा सकता है। यदि बीमा पुत्री का हो और पॉलिसी परिपक्वता से पहले ही उसका विवाह हो जाए तो, विवाहोपरान्त, पॉलिसी की परिपक्वता रकम पर पुत्री का ससुराल पक्ष अधिकार जता सकता है। किन्तु इस पॉलिसी में बीमा चूँकि पिता अथवा माता का होता है, सन्तान का नहीं, इसलिए, इस पॉलिसी की परिपक्वता राशि पर, पुत्री के ससुराल पक्ष द्वारा अधिकार जताने की आशंकाएँ भी स्वतः ही नष्ट हो जाती हैं।


उच्च शिक्षा में सहायक -
बच्चों की उच्च शिक्षा हेतु सुनिश्चित आर्थिक व्यवस्थाएँ इस पॉलिसी के माध्यम से की जा सकती हैं।


आयु के 17वें वर्ष में बच्चा, उच्च शिक्षा के दरवाजे पर खड़ा होता है। आज के चलन के अनुसार उसे अगले 6 वर्ष तो पढ़ना ही है - बी।ई. (अथवा ऐसे ही किसी स्नातक पाठ्यक्रम के लिए) 4 वर्ष और एम. बी. ए. के लिए 2 वर्ष। ऐसे मामलों में व्यक्ति को एक-एक लाख रुपये बीमा धन की 6 पॉलिसियाँ लेनी चाहिए (क्षमता तथा आवश्यकतानुसार अधिक बीमा धन की पॉलिसियाँ भी ली जा सकती हैं) जिनकी अवधि क्रमशः 17 वर्ष, 18 वर्ष, 19 वर्ष, 20 वर्ष, 21 वर्ष और 22 वर्ष होंगी।


17 वर्ष पूरे होने पर लगभग 1 लाख 71 हजार रुपये, 18 वर्ष पूरे होने पर लगभग 1 लाख 73 हजार रुपये, 19 वर्ष पूरे होने पर लगभग 1 लाख 78 हजार रुपये 20 वर्ष पूरे होने पर लगभग 1 लाख 78 हजार 500 रुपये, 21 वर्ष पूरे होने पर लगभग 1 लाख 83 हजार रुपये और 22 वर्ष पूरे होने पर लगभग 1 लाख 85 हजार 500 रुपये मिलेंगे। (अधिक बीमा धन की पॉलिसियाँ लेने पर यह रकम उसी अनुपात में अधिक मिलेगी।) अर्थात् बच्चे की शिक्षा के लिए न केवल प्रति वर्ष रकम उपलब्ध रहेगी अपितु प्रति वर्ष यह बढ़ती ही जाएगी।


जैसा कि पहले बताया जा चुका है, पॉलिसीधारक रहे या न रहे, रकम की यह उपलब्धता सुनिश्चित है।


उपरोक्तानुसार पॉलिसियाँ लेने पर पॉलिसीधारक को पहले 17 वर्षों तक 6 पॉलिसियों की प्रीमीयम चुकानी पड़ेगी। उसके बाद प्रति वर्ष, जैसे-जैसे एक-एक पॉलिसी पूरी होती जाएगी, प्रीमीयम की रकम कम होती जाएगी। अर्थात् 17 वर्षों के बाद मिलने वाली रकम में जहाँ प्रति वर्ष वृद्धि होगी वहीं प्रीमीयम भुगतान का वजन प्रति वर्ष कम होता जाएगा।


इसी के समानान्तर, 17वें वर्ष से, जैसे-जैसे पॉलिसी पूरी होती जाएगी, पॉलिसीधारक का रिस्क कवरेज भी प्रति वर्ष कम होता जाएगा।


पॉलिसी से सम्बन्धित कुछ महत्वपूर्ण बातें -


(1) 18 वर्ष से 60 वर्ष तक की आयु के व्यक्ति यह पॉलिसी ले सकते हैं।


(2) पॉलिसी की न्यूनतम अवधि 5 वर्ष तथा अधिकतम अवधि 25 वर्ष है। किन्तु परिपक्वता के समय पॉलिसीधारक की अधिकतम आयु 70 वर्ष तक होनी चाहिए। अर्थात् 60 वर्ष के व्यक्ति को यह पॉलिसी अधिकतम 10 वर्ष की अवधि के लिए मिल सकेगी।


(3) न्यूनतम बीमा धन रुपये 50,000। उसके बाद रुपये 5000 के गुणांक में। अधिकतम बीमाधन का निर्धारण व्यक्ति की आयु तथा आय के आधार पर होगा।


(4) दुर्घटना हित लाभ -‘निगम’ की समस्त पॉलिसियों सहित, अधिकतम 50 लाख रुपये।


(5) किश्त भुगतान विधि - वार्षिक, अर्द्ध वार्षिक, तिमाही, मासिक तथा वेतन बचत योजना।


(6) पॉलिसी पर ‘पॉलिसी ऋण’ लिया जा सकता है।


(7) पॉलिसी समनुदेशित की जा सकती है।


जिन परिवारों में बच्चे अभी एक वर्ष के नहीं हुए हैं उन्हें यह पॉलिसी लेने पर अवश्य ही विचार करना चाहिए।

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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

अवतार की प्रतीक्षा में

नागरिकता बोध से अनजान बने रहने और नागरिक उत्तरदायित्व से कुशलतापूर्वक बच निकलने का यह बड़ा ही रोचक किन्तु क्षोभजनक अनुभव था। मैं इसे भूल जाना चाहूँगा, यह जानते हुए भी बात कवल मेरे कस्बे की नहीं, लगभग पूरे देश और समूचे समाज की है।

राजस्थान पत्रिका समूह के अखबार ‘दैनिक पत्रिका’ को एक बार फिर रतलाम के लोगों तक पहुँचाने के अभियान के अन्तर्गत इसके स्वत्वाधिकारी श्री गुलाब कोठारी यहाँ के कुछ लोगों से रू-ब-रू हुए। इस प्रसंग को ‘सम्वाद सेतु’ नाम दिया गया था। उनका लक्ष्य तो सुनिश्चित ही था - ‘पत्रिका’ की मार्केटिंग करना। किन्तु इसकी भूमिकास्वरूप उन्होंने मौजूदा सामाजिक संकट को अत्यन्त प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया। उन्होंने स्वीकार किया कि वे ‘पत्रिका’ के लिए बाजार बनाने आए हैं किन्तु रतलाम के लोगों को साथ लिए बिना और रतलाम की बेहतरी के लिए प्रयत्न किए बिना यह सम्भव ही नहीं है। उन्होंने कहा - ‘रतलाम बेहतर बनेगा तो इमारा व्यवसाय तो अपने आप बेहतर होगा।’ उनके कुछ वाक्य तो मुझे ‘सूत्र’ की तरह लगे। जैसे - ‘बिना संकल्प जीवन नहीं चल सकता। उसके बिना तो यात्रा की शुरुआत ही नहीं हो सकती’.....‘परिवर्तन तो सुनिश्चित है। हम उसे रोक तो नहीं सकते किन्तु उसकी दिशा अवश्य बदल सकते हैं।’.... ‘मौजूदा स्थितियों के लिए हमारी भूमिका (हमारी चुप्पी) ही जिम्मेदार है, सरकार या व्यवस्था नहीं।’......‘इण्टरनेट पर बैठा बच्चा भला समाज की चिन्ता क्यों करेगा? इसीके चलते, दो-तीन पीढ़ियों के बाद समाज ही नहीं रहेगा।’.....‘जो जितना बुद्धिमान होगा वह उतनी ही आलोचना करेगा, उतना ही समाज को तोड़ने का काम करेगा।’.....‘लोककन्त्र में लोक की भागीदारी (‘लोगों के द्वारा’) अनिवार्य है किन्तु हम किसी भी अनुचित के विरुद्ध बोलते ही नहीं।’’ आदि आदि। मैंने अनुभव किया कि गुलाबजी ने अपनी बात में सर्वाधिक जोर ‘संकल्प और उत्तरदायित्व’ पर दिया, अधिकारों की बात बिलकुल ही नहीं की।
इसके बाद गुलाबजी ने उपस्थितों से, एक-एक कर, संक्षेप में अपनी बात कहने का आग्रह किया।

सभागार में हम कोई 55/60 लोग बैठे थे। मुझे लगा था कि हममें से प्रत्येक व्यक्ति गुलाबजी के वक्तव्य को ही आधार बना कर अपनी बात कहेगा। किन्तु पहले ही वक्ता की बात से मेरी अपेक्षाओं का क्षरण शुरु हो गया। लोगों ने बोलना शुरु किया तो शुरु-शुरु में तो उपस्थिति पूरी थी। किन्तु धीरे-धीरे लोग कम होने लगे। कुल 25 लोग बोले। मेरा नम्बर 23वाँ था। किन्तु मैं हतप्रभ रह गया यह देख कर कि हममें से (मुझ सहित) कुल दो को छोड़कर शेष समस्त 23 लोगों ने या तो उपदेश दिया या परामर्श या फिर अपेक्षाएँ गिनवाईं। इन बोलने वालों में वर्तमान तथा भूतपूर्व निर्वाचित जन प्रतिनिधि, कांग्रेस और भाजपा के जिला पदाधिकारी, प्रशासकीय अधिकारी, विभिन्न सामाजिक संस्थाओं/संगठनों से जुड़े लोग शामिल थे। किन्तु सबके सबने अपने आप को गुलाबजी की ‘संकल्प और उत्तरदायित्व’ वाली भावना से सतर्कतापूर्वक अलग ही बनाए रखा। सबकी बातें सुनकर मुझे लगातार लगता रहा कि मुख्य आसन पर गुलाब कोठारी नहीं या तो प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह बैठे हैं या फिर सोनिया गाँधी या फिर कोई अवतार-पुरुष बैठा है जो हम रतलाम वालों की सारी समस्याएँ चुटकी में हल कर देगा और सारी अपेक्षाएँ अविलम्ब पूरी कर देगा। वह भी तब, जबकि हममें से एक भी अपना कोई योगदान देने को तैयार नहीं है, गुलाबजी के ‘भागीदारी के आह्वान’ को सुनने को तैयार नहीं हैं।

मुझे बड़ी निराशा हुई। एक तो गुलाबजी हैं जो रतलामवालों से मिलकर रतलाम को बेहतर बनाने की बात कर रहे हैं और हम रतलाम वाले हैं कि सब कुछ उन पर न केवल छोड़ रहे हैं बल्कि इस तरह बात कर रहे हैं कि हमारी अपेक्षाएँ पूरी करना, हमारी सलाह मानना गुलाबजी की नैतिक, सामाजिक और कानूनी जिम्मेदारी है जिसे यदि उन्होंने नहीं निभाया तो वे रतलामवालों के अपराधी हो जाएँगे।

मेरी बारी आने पर मैं अपना क्षोभ नहीं छुपा सका। मैंने गुलाबजी से कुछ यूँ कहा-‘‘मैं, रतलाम का नागरिक, ‘साक्षर’ हूँ (1981 की जनगणना में रतलाम को प्रदेश का सर्वाधिक साक्षर कस्बा घोषित किया गया था और इसी को रतलामवाले गर्वपूर्वक बार-बार उल्लेखित करते रहते हैं), कृपया मुझे ‘शिक्षित’ समझने की भूल कदापि न करें। किन्तु मुझमें इतनी समझ है कि नासमझ बन कर जीने में ही समझदारी है। मैं चाहता हूँ कि रतलाम में कानून का राज हो किन्तु मुझे छोड़कर सब पर हो। मैं चाहता हूँ कि नगर में व्याप्त अतिक्रमण हटे किन्तु मैंने जो अतिक्रमण कर रखा है, उस पर नजर न डाली जाए। मैं चाहता हूँ कि रतलाम का यातायात व्यवस्थित और सुचारु हो किन्तु मुझे यातायात नियमों का उल्लंघन करने की छूट मिलती रहे।’ मेरे, गिनती के इन वाक्यों ने गुलाबजी को सतर्क कर दिया। काफी देर से कुर्सी में लगभग पसरे हुए बैठे थे। मेरी बातें सुनकर, तनिक तन कर बैठ गए। मैंने कहा -‘ मैंने बड़े जतन से अपने कस्बे को श्रेष्ठ नर्क बनाया है। मैं अपने इस नर्क में परम सुखी हूँ। अब आप आए हैं और इसे स्वर्ग बनाना चाह रहे हैं। जरूर बनाइए किन्तु मेरे भरोसे बिलकुल मत रहिएगा। आप इसे स्वर्ग बना देंगे तो उसमें भी मैं जैसे-तैसे रह लूँगा और यदि आप असफल हुए तो अपने बनाए इस श्रेष्ठ नर्क से मुझे कोई शिकायत नहीं होगी।’ मुझे दिए गए तयशुदा समय में मैंने जब अपनी बात समाप्त की तो मैंने देखा कि गुलाबजी तालियाँ बजा रहे हैं। ऐसा उन्होंने केवल मेरे वक्तव्य पर ही किया। मुझे खुश होना चाहिए था किन्तु मैं खुश नहीं हो सका। मैं प्रतीक्षा कर रहा था कि सभागार में मौजूद, रतलाम के तमाम लोग मेरी बातों का बुरा मानेंगे किन्तु मैं हतप्रभ रह गया जब लगभग प्रत्येक ने आकर मुझे बधाई दी।

किन्तु यह दशा केवल मेरे कस्बे की नहीं है। शायद पूरा देश इसी दशा और मनस्थिति में जी रहा है। कोई खुद कुछ नहीं करना चाहता और चाहता है कि सब कुछ हो जाए। हममें से कोई भी, कुछ भी खोना नहीं चाहता इसीलिए हममें से किसी को कुछ भी हासिल नहीं हो रहा है। हम भूल जाना चाहते हैं कि पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है।

यह पोस्ट शुरु करते समय मैंने इसका शीर्षक रखा था - ‘अवतार की कोशिश करते लोग।’ किन्तु जल्दी ही समझ में आ गया कि ‘कोशिश’ तो अपने आप में ‘कर्म’ है और इसीसे तो हम सब बचना चाह रहे हैं! ‘कर्म’ के कारण तो हमें किसी से बुरा बनना पड़ता है, स्टैण्ड लेना पड़ता है, लोगों की नाराजी झेलनी पड़ती है, कीमत चुकानी पड़ती है और इसमें से किसी के लिए हम बिलकुल तैयार नहीं है। मेरे मित्र विजय वाते का शेर मुझे बार-बार याद आता है -

चाहते हैं सब कि बदले ये अँधेरों का निजाम
पर हमारे घर किसी बागी की पैदाइश न हो

कुछ भी न खोने की सवाधानी बरत कर जी रहे हम लोग वास्तव में अवतार की प्रतीक्षा कर रहे अकर्मण्य लोगों की भीड़ बने हुए है। हमें ईश्वर पर भरोसा है, ईश्वरीय अवतार पर भरोसा है। किन्तु ईश्वर भी तो उसी की मदद करता है जो खुद अपनी मदद करे! ईश्वर अवतार भी तभी लेता है जब पापों का घड़ा भर जाता है, संकट अपने चरम पर पहुँच जाता है।

गुलाबजी से कहिएगा कि उन्हें जो करना हो, निश्चिन्तता से करें। हम यही कर रहे हैं।
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यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

काली स्पेस को घेरे हुए पेपर कार्नर्स

यह महज एक कविता के न मिलने का मामला नहीं है। यह उस ‘कुछ’ के न होने की खबर से उपजी उदासी है जिसके लिए पक्का भरोसा था कि ‘वह’ मेरे पुराने बक्से में पड़ी किसी पोटली में बँधी होगी। भरोसा था कि जब जरुरत होगी तो बक्से का ढक्कन उठा कर उसे ऐसे बाहर निकाल लूँगा जैसे आँखें मुँदी होने पर भी कौर मुँह में रख लेता हूँ। लेकिन जरुरत के मौके पर, ‘वह’ नहीं मिली तो भरोसा ऐसे टूटा जैसे लम्बी-ऊँची घास के, सीटियाँ बजाते सुनसान जंगल के बीच, रास्ते से भटका कोई पथिक, दूर से आ रही बंसी की धुन की पगडण्डी पर मंजिल की ओर बढ़ रहा हो और अचानक ही बंसी की आवाज बन्द हो जाए।


साठ के दशक वाले फोटो अलबम इस वक्त बेसाख्ता याद आने लगे हैं। ‘पेपर कार्नर्स’ की सहायता से, काली, ड्राइंग शीट के पन्नों पर फोटो लगाए जाते थे। फोटो रंगीन नहीं होते थे और एलबम का पन्ना तो काला ही होता था। सो, अलग-अलग ढंग से फोटो लगाकर एलबम को आकर्षक बनाया जाता था। किसी पन्ने पर दो तो किसी पर तीन फोटो लगाकर। कभी पास-पास तो कभी तीर्यक रेखा की तरह। फोटो खिंचवाना तब बड़ी और मँहगी घटना होती थी। एलबम सजाने में की गई मेहनत, एलबम को और अधिक कीमती बनाती थी। किसी को देखने के लिए एलबम देते समय खतरे की आशंका से उपजा अविश्वास बना रहता था-कहीं ऐसा न हो कि देखते-देखते एक-दो फोटो ही निकाल ले। और ऐसा प्रायः ही हो जाता। नजर चूकी कि माल यार के कब्जे में हो गया। उसके जाने के बाद, एलबम के किसी पन्ने पर चिपके पेपर कार्नर्स नजर आते, फोटो गायब। तब, पेपर कार्नर्स से घिरी वह ब्लेक स्पेस मानो पूरे एलबम पर छा जाती। उस एक फोटो के चुरा लिए जाने से उपजी खीझ, एलबम में लगे सारे फोटो से उपजे सुख को मात दे देती। वही पराजय भाव इस समय हावी है।


नौंवी कक्षा में होम वर्क मिला था - विभिन्न पेड़/पौधों की पत्तियों का चार्ट बनाने का। पत्तियाँ तोड़ कर, कुछ दिनों के लिए किसी किताब के पन्नों के बीच दबा कर रखनी थीं ताकि वे सूख भी जाएँ और उनका रंग भी जस का तस बना रहे। खेत की मेड़ से पत्तियाँ तोड़ कर घर आने पर देखा तो पत्तियों के बीच एक तितली लिपटी मिली। मर गई थी। चौदह बरस का किशोर मन पाप-बोध से काँप गया था। भगवान माफ नहीं करेंगे। जरूर सजा देंगे। तब पहली बार किसी तितली को छुआ था। वह अहसास-ए-नजाकत अभी भी अंगुलियों के पोरों पर लिपटा हुआ है। पता नहीं क्यों और कैसे, पत्तियों के साथ-साथ उस मरी तितली को भी किताब के पन्नों के बीच दबा दिया था। पत्तियों के सूखने पर, उन्हें ड्राइंग शीट पर चिपका कर, यथासम्भव अधिकाधिक सुन्दर और आकर्षक चार्ट बना कर कक्षा में प्रस्तुत कर दिया था। किन्तु तितली मेरे पास ही रह गई थी-पत्तियों की ही तरह सूखी और पंखों की शोख रंगत के साथ। किताब के पन्ने पलटकर उसे जब-तब, देख-देख कर खुश हो लिया करता था। दोस्तों को भी अपनी तितली बताता, गुरुर से और कुछ इस तरह कि उनमें से कोई उसे छू न ले। लेकिन पता नहीं क्या हुआ कि एक दिन तितली किताब में नहीं मिली। पन्ने पलटे, बार-बार पलटे, किताब को खूब झटका-फटका। किन्तु तितली वहाँ नहीं थी। मानो, उसमें प्राण आ गए हों और उड़ गई। तब कंगाल और बेरंग होने के अहसास ने महीनों तक घेरे रखा। बिलकुल वही अहसास इस समय हो रहा है।


‘उसके’ होने के अहसास भर से न तो बेफिक्री में बढ़ोतरी हो रही थी और न ही समृद्धि में। अब तो वह किसी काम भी नहीं आ रही थी। किन्तु उसके न होने के अहसास ने मानो सब कुछ वीरान कर दिया। जब वह थी तो उसका कोई मोल नहीं था, पूछ-परख नहीं थी। अब वह नहीं है तो लग रहा है मानो कुबेर का खजाना लुट गया है। जगजीतसिंह की गायी गजल का शेर मानो इन्सानी शकल में सामने आ खड़ा हुआ है -


दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है।

मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है।


दिन और तारीख तो याद नहीं, बस यह याद है कि युनूस भाई (अपने रेडियोवाणी वाले युनूस भाई) का सन्देश मिला था - ‘नाग पंचमी’ शीर्षकवाली एक कविता की तलाश है।’ यह कविता मेरे कोर्स में थी। कुछ पंक्तियाँ अभी भी याद हैं-


यह ढोल ढमाका ढम्मक ढम

यह नाग पंचमी छम्मक छम

उतरेंगे आज अखाड़े में

चन्दन चाचा के बाड़े में

यह पहलवान पटियाले का

वह पहलवान अम्बाले का


युनूस भाई के सन्देश ने मन बौरा दिया। मानो ढोल की ‘ढम्मक ढम’ के साथ कविता के बोल कानों में गूँजने लगे। मैंने फौरन ही अपने कई मित्रों को फोन खटखटाया। कुछ सहपाठी थे तो दो मुझसे आगे वाले। अपने दो ‘गुरुजी’ से भी अनुरोध किया। अपने से पीछे वाले दो मित्र इसी शहर में रहते हैं। उन्हें भी कहा। एक स्कूल के प्राचार्य मेरे मित्र हैं। उन्होंने भी भरोसा दिलाया। कुल मिला कर सत्रह लोगों से अनुरोध किया। कोई नौ-दस दिनों के बाद, एक-एक कर सन्देश आने लगे। किसी को भी सफलता नहीं मिली। सोलह लोगों की क्षमा-याचना मिलने पर मैंने भी युनूस भाई से क्षमा माँग ली। उन्होंने बड़प्पन बरतते हुए धन्यवाद दिया और कहा - ‘आपने कोशिश की। यही बहुत है।’


किन्तु एक मित्र की ओर से अब तक कोई खबर नहीं आई थी। मेरे अन्दर का बीमा एजेण्ट मुझे निराश होने से बचाए हुए था। किन्तु कल रात लगभग सवा नौ बजे उसने भी क्षमा माँग ली। नीमच जिले की मनासा तहसील के छोटे से गाँव ‘आँतरी माताजी’ निवासी मेरा यह मित्र राम प्रसाद शर्मा, मेरा सहपाठी है और अभी-अभी ही प्राचार्य के रूप में सेवा निवृत्त हुआ है। किसी अपराधी की तरह उसने कहा - ‘प्रिय मित्र! (हम तमाम मित्रों को वह नाम न लेकर, इसी तरह सम्बोधित करता है) मुझे सफलता नहीं मिली। ‘नागपंचमी’ के लिए मैंने अपने गाँव के और आसपास के तीन गाँवों के स्कूलों में सन्देश दिया कि जो भी यह पूरी कविता ला देगा उसे इक्यावन रुपयों का नगद पुरुस्कार दिया जाएगा। किन्तु मित्र! मेरा दुर्भाग्य है कि यह पुरुस्कार मेरी जेब में ही पड़ा रह गया। किसी को कविता याद नहीं है।’


राम प्रसाद के इसी सन्देश ने मुझे मानो झटका दे दिया। किसी कविता का याद रहना या न रहना, मिलना या न मिलना ऐसा तो नहीं कि जिन्दगी बेकार लगने लगे। किन्तु पता नहीं क्यों मुझे अकुलाहट हो रही है। मुझे अभी भी उस कविता की जरूरत नहीं है और न ही उसके बिना मेरा कोई काम रुका हुआ है। फिर भी मुझे, काली स्पेस को घेरे हुए, एलबम के पन्ने पर चिपके पेपर कार्नर्स बार-बार नजर आ रहे हैं। अपने सोने का खो जाना या/और चलते-रास्ते, किसी अनजान-पराये के सोने का मिलना, दोनों ही मालवा में अपशकुन माने जाते हैं। मेरा सोना खो गया है और मैं अपशकुन से दहशतजदा हूँ।


मुझे क्यों लग रहा है कि मरी हुई तितली अचानक ही उड़ गई है-मेरी जिन्दगी के सारे रंग अपने साथ लेकर?

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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

कौन सी मेडीकल पॉलिसी लूँ?


अपना नाम न देने के अनुरोध सहित, जयपुर के एक ब्लॉगर मित्र ने सन्देश दिया है - ‘आपके ब्लॉग पर बीमा सम्बन्धी सलाह मुफ्त मिलने का सन्देश अच्छा लगा। मैं चालीस साल का युवक हूँ। पत्नी के अलावा एक पुत्र है। आजकल की जीवन शैली और बीमारियों के मद्देनजर एक मेडिकल पॉलिसी लेना चाहता हूँ। कृपया समुचित सलाह दें।’


1991 से, जब हमारे वर्तमान प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंहजी पहली बार देश के वित्त मन्त्री बने थे, देश वैश्वीकरण, उदारीकरण, निजीकरण के रास्ते पर चल पड़ा है। इससे किसका कितना भला हुआ यह जानने में तो भरपूर समय लगता है किन्तु हममें से प्रत्येक को यह बात बिना कोशिशों के ही मालूम होने लगी है (और हम इस ‘मालूम होने’ से बच नहीं पा रहे हैं कि) स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण कारक इतने मँहगे हो गए हैं कि बीमार होना और बच्चों को अच्छी शिक्षा उपलब्ध कराना, विलासिता-सूची में शामिल हो गया है।


प्रस्तुत प्रश्न को मैं इसी सन्दर्भ में देख रहा हूँ।


मेरा उत्तर पढ़ने के बाद आपको कोई पूछताछ न करनी पड़े और यदि करनी पड़े तो कम से कम करनी पड़े, इसलिए विस्तार से उत्तर दे रहा हूँ।


साधारण बीमा क्षेत्र में चार सरकारी कम्पनियाँ कार्यरत हैं - युनाइटेड इण्डिया इंश्योरेंस कं. लि., न्यू इण्डिया इंश्योरेंस कं. लि., नेशनल इंश्योरेंस कं. लि. और ओरीयण्टल इंश्योरेंस कं. लि.। आप इनमें से किसी भी कम्पनी से ‘मेडीक्लेम बीमा पॉलिसी’ ले लें।


मेरी सलाह यह है कि आप अपने पूरे परिवार के लिए पॉलिसी लें। इससे दो लाभ सीधे-सीधे होंगे। पहला - आपको प्रीमीयम पर, 10 प्रतिशत की ‘परिवार रियायत‘ मिलेगी। दूसरा - मेडीक्लेम बीमा पॉलिसी की पहली शर्त होती है कि जो बीमारियाँ आपको अभी हैं, उनके लिए आपका दावा या तो स्वीकार नहीं किया जाएगा और यदि किया जाएगा तो एक सुनिश्चित समय सीमा के पश्चात्। आप इस समय जिस आयु वर्ग में हैं, उससे अनुमान लगा रहा हूँ कि आप और आपका समूचा परिवार इस समय पूर्णतः निरोग है। ‘निरोग’ स्थिति में पॉलिसी लेने के बाद यदि ग्राहक को कोई रोग हो जाता है तो उस पर दावा देय होता है। सो, दूसरा लाभ यह है कि ईश्वर की अकृपा से यदि आपको अथवा आपके बीमित परिजन को भविष्य में कोई रोग हुआ तो उस पर दावा देय होगा।


यदि आपके पिता-माता आपके साथ हैं और आप पर आश्रित हैं तो मेरी सलाह है कि आप उन्हें भी अपनी पॉलिसी में शरीक करें। 45 वर्ष से अधिक की आयु वाले व्यक्तियों को मेडीक्लेम पॉलिसी लेते समय अपनी ईसीजी रिपोर्ट तथा शुगर टेस्ट (खाली पेट और भोजनोपरान्त) रिपोर्ट लगानी पड़ती है तथा अपने नियमित चिकित्सक से एक फार्म भरवाना पड़ता है। इनका शुल्क ग्राहक को ही चुकाना पड़ता है। आपके पिताजी-माताजी को यदि कोई रोग है तो उसका स्पष्ट और विस्तृत उल्लेख अवश्य करें। मेरा अनुभव रहा है कि कई बार एजेण्ट तथा कम्पनी के लोग भी ऐसे तथ्यों को छुपाने की सलाह दे देते हैं जो अन्ततः ग्राहक को दोहरा नुकसान कराती है - दावा भी नहीं मिलता और व्यर्थ ही उत्तेजना/असन्तोष झेलना पड़ता है।


आप अपने परिवार के प्रत्येक सदस्य के लिए अलग-अलग बीमाधन का बीमा ले सकते हैं। उदाहरणार्थ जब मैंने पहली बार यह बीमा लिया था तब मेरे और मेरी पत्नी के लिए एक-एक लाख रुपयों का तथा मेरे दोनों बेटों के लिए 15-15 हजार का बीमा लिया था। आज मेरा और मेरी पत्नी का 5-5 लाख का बीमा है और बेटों का 50-50 हजार का।


प्रीमीयम का निर्धारण प्रत्येक व्यक्ति के लिए आयु और बीमा धन के अनुसार किया जाएगा। आप यदि करदाता हैं तो मेरी सलाह है कि इस प्रीमीमय का भुगतान चेक से करें ताकि आपको आय कर छूट का लाभ मिल सके।


प्रत्येक कम्पनी यह पॉलिसी दो स्वरुपों में बेचती है।


पहला - टीपीए (थर्ड पार्टी असेसर) सहित, जिसे लोक प्रचलन में ‘केश लेस पॉलिसी’ कहा जाता है। इसमें (मेरी जानकारी के अनुसार) 6 प्रतिशत प्रीमीयम अतिरिक्त ली जाती है और दावा प्रस्तुति तथा भुगतान की प्रक्रिया ‘टीपीए’ करता है। आप चूँकि प्रदेश की राजधानी जयपुर में हैं सो सम्भव है कि ‘टीपीए’ का कार्यलय जयपुर में ही हो क्योंकि टीपीए के कार्यालय सामान्यतः प्रदेश की राजधानी-नगरों में ही खोले जा रहे हैं। अन्यथा छोटे गाँवों, कस्बों, नगरों में टीपीए के कार्यालय नहीं होते। रतलाम की जनसंख्या लगभग पौने तीन लाख है और यहाँ चारों सरकारी और कुछ निजी बीमा कम्पनियों सहित 6 कम्पनियों के कार्यालय हैं किन्तु टीपीए का कार्यालय यहाँ नहीं है। हम लोगों को भोपाल पर निर्भर रहना पड़ रहा है। टीपीए पॉलिसी पर आए दावों से बीमा कम्पनी का सम्बन्ध शून्यवत रहता है। न तो आपका एजेण्ट आपकी सहायता कर पाता है न ही बीमा कम्पनी का स्थानीय कार्यालय। सब कुछ आपके और टीपीए के बीच ही रहता है।


दूसरा स्वरुप है - बिना टीपीए। इसमें आपको प्रीमीयम कम लगेगी और आपके दावे, बीमा कम्पनी के उसी कार्यालय में प्रस्तुत किए जाएँगे जहाँ से आपने पॉलिसी ली है। इसमें आपका एजेण्ट और बीमा कम्पनी का कार्यालय आपसे सीधे सम्पर्क में रहता है। किन्तु याद रखिए बीमा करते समय एजेण्ट और बीमा कम्पनी जो उत्साह और गर्मजोशी दिखाते हैं, दावा भुगतान करते समय वह आपको कहीं नजर नहीं आएगी। आपके धैर्य की परीक्षा होगी।


इस मामले में बीमा एजेण्ट का चयन सर्वाधिक महत्वपूर्ण होगा। आप किसी ऐसे एजेण्ट की सेवाएँ लें जो इसके सिवाय और कोई काम नहीं करता हो।


प्रत्येक व्यक्ति के व्यवसाय की प्रकृति और आयु के हिसाब से बीमा धन का निर्धारण उचित होगा। आप चूँकि परिवार के मुख्य कर्ता हैं, इसलिए आप अपना बीमा अधिक राशि का करवाएँ। आपकी श्रीमतीजी भी यदि कामकाजी हैं तो उनका बीमा भी आपके बीमे के बराबर करवाएँ। इन दिनों अधिकांश बीमा कम्पनियों ने नियम बना लिया है कि पति-पत्नी का बीमा बराबर होना चाहिए। हाँ, ऐसा शायद ही सम्भव होगा कि पति का बीमा कम और पत्नी का अधिक हो।


यह पॉलिसी लेते समय कुछ बातों का ध्यान सदैव रखिएगा -


(1) यह पॉलिसी 365 दिनों के लिए होती है। सो, इसका नवीकरण (रिन्यूअल) अनिवार्यतः 365 दिनों से पहले ही कराएँ। अधिक अच्छा होगा कि 350 दिनों में ही करा लें। यदि आप 365 दिनों की अवधि चूक गए तो आपको बीमा पॉलिसी तो फिर मिल जाएगी किन्तु वह नई पॉलिसी होगी और उस पर वे सभी प्रतिबन्ध लागू होंगे जो नई पॉलिसी पर होते हैं।


(2) समयावधि में नवीकरण इसलिए भी आवश्यक है कि यदि एक वर्ष की अवधि में आपने कोई दावा प्रस्तुत नहीं किया है तो आपको, आपके बीमा धन पर 5 प्रतिशत बीमा धन का अतिरिक्त लाभ बोनस के रूप में मिलेगा। अर्थात्, आप प्रीमीयम तो चुकाएँगे एक लाख रुपये बीमाधन की किन्तु आपका बीमा धन होगा एक लाख पाँच हजार रुपये।


(3) मेडीक्लेम पॉलिसी उसी दशा में प्रभावी होगी जब आप अस्पताल में कम से कम 24 घण्टे भर्ती रहें। यह नियम काफी पुराना है जबकि चिकित्सा क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन आ गए हैं। कई ऑपरेशन ऐसे हो गए हैं जिनके लिए पहले एक सप्ताह लगता था लेकिन आज, सवेरे अस्पताल जाकर, वही ऑपरेशन करवाकर कर आदमी शाम को घर लौट आता है। इसलिए इस मामले में पूरी स्थिति पहले ही से ही समझ लीजिएगा।


(4) यदि आप चिकित्सा कराने के लिए अस्पताल में भर्ती होते हैं और भर्ती होने से पहले आपको समय मिल जाता है तो इसकी सूचना बीमा कम्पनी को अनिवार्यतः दे दें। यदि ऐसा सम्भव न हो तो भर्ती होने के तत्काल बाद दे दें और विस्तार से सूचित कर दें कि आप किस अस्पताल में, किस कमरा नम्बर में या किस वार्ड में, किस बिस्तर पर भर्ती किए गए हैं। मुमकिन है, बीमा कम्पनी का कोई प्रतिनिधि अस्पताल पहुँच कर आपकी सूचना का सत्यापन करे।


पहली सूचना तो आप फोन पर ही देंगे। किन्तु उसके बाद पहली ही सुविधा में, सर्वोच्च प्राथमिकता पर आप यह सूचना लिखित में अवश्य दें और इसकी पावती अवश्य लें।


(5) अस्पताल से घर आने के बाद एक सप्ताह में आपको अपना दावा प्रस्तुत कर देना चाहिए। घर आने के बाद भी यदि आपका इलाज चल रहा है तो आप यह सूचना बीमा कम्पनी को दें और सूचित कर दें कि इलाज समाप्त होने के बाद, सप्ताह भर में आप अपना दावा प्रस्तुत कर देंगे।


(6) ऐसा प्रायः ही हुआ है कि बीमार होते ही आदमी अपनी मर्जी से (बेहतर चिकित्सा परामर्श/सुविधा प्राप्त करने के लिए) किसी बड़े शहर चला जाता है। अपनी मर्जी से बाहर जाने वाले ऐसे प्रकरणों में बीमा कम्पनियाँ सामान्यतः दावा स्वीकार नहीं करतीं। यदि आपको अपने शहर से अन्यत्र कहीं और इलाज करवाना है तो पहले स्थानीय डॉक्टर से परामर्श कीजिए, उनसे लिखवाइए कि आपका इलाज बाहर करवाना जरूरी है। यह आपका अभिलेखीय प्रमाण होगा कि आप अपनी मर्जी से बाहर नहीं गए, चिकित्सक के परामर्श पर गए थे।


(7) इलाज शुरु होने वाले पहले ही क्षण से आप सारे कागज सुरक्षित रखिएगा। प्रत्येक प्रिस्क्रिप्शन और उसके आधार पर खरीदी गई दवाइयों के सारे बिल, इलाज हेतु कराए गए सारे परीक्षणों की रिपोर्टें, फिल्में आपको मूलतः बीमा कम्पनी को प्रस्तुत करनी पड़ेंगी और प्रत्येक पर्ची, बिल, रिपोर्ट के पीछे सम्बन्धित डॉक्टर अथवा अस्पताल का प्रमाणीकरण कराना पड़ेगा। अपने रेकार्ड के लिए आप इनकी फोटो प्रतियाँ अपने पास रख लें।


यदि आपको लगता है कि परीक्षणों की फिल्मों/प्लेटों की आवश्यकता आपको भविष्य में हो सकती है तो आप इस हेतु लिखित अनुरोध बीमा कम्पनी को प्रस्तुत करें। आपको सारी फिल्में/प्लेटें वापस दे दी जाएँगी।


(8) कुछ बीमारियाँ ऐसी होती हैं जिनके इलाज के लिए आपको अस्पताल में तो भर्ती होना पड़ सकता है किन्तु जिनका दावा भुगतान नहीं किया जाता! ऐसी बीमारियों की सूची पॉलिसी के साथ ही आपको दे दी जाती है। इन्हें ‘एक्सक्लूजन क्लाज’ के नाम से जाना जाता है! अपने अनुभव के आधार पर बीमा कम्पनियाँ इस सूची में कमी-बेशी कर सकती हैं। इसके अतिरिक्त, बीमा लेने वाले की स्वास्थ्य स्थिति के आधार पर भी कभी-कभी कुछ बीमारियों को स्थायी अथवा अस्थायी रूप् से ‘एक्सक्लूजन क्लाज’ में शामिल कर दिया जाता है। इस बारे में, शरु में ही सब कुछ स्पष्ट रूप से समझ लें।


यदि आपकी पॉलिसी ‘टीपीए सहित’ (या कि ‘केश लेस’) है तो मुमकिन है कि अस्पतालवाले आपसे आपका बीमा पालिसी नम्बर ले लें। उस दशा में आपको, बीमा धन की रकम के बराबर तक की रकम का बिल होने पर न तो अस्पताल को भुगतान करना पड़ेगा और न ही वह सब कागजी कार्रवाई करनी पड़ेगी जो मैंने ऊपर लिखी है। यदि अस्पताल के बिल की रकम, आपके बीमा धन की रकम से अधिक हुई तो अस्पतालवाले आपसे अन्तर की रकम जमा करवा लेंगे।


विशेष - मेरी सलाह है कि आप निजी बीमा कम्पनियों से बचें। इन कम्पनियों की पॉलिसी शर्तों में ‘गुप्त शुल्क’ (हिडन चार्जेस) काफी होते हैं जो बाद में ग्राहक को कष्टदायी होते हैं। किन्तु यदि कोई एजेण्ट आपका अत्यधिक विश्वसनीय है तो आप यह दाँव खेल सकते हैं। निजी बीमा कम्पनियाँ अपने एजेण्टों को, दावा भुगतान से दूर रखती हैं जबकि सरकारी बीमा कम्पनियों के एजेण्ट, दावा भुगतान प्रक्रिया में ग्राहक को भरपूर सहायता पहुँचाते हैं।


आपको लग रहा होगा कि आपको सारी जानकारियाँ हो गई हैं। ठहरिए। ऐसा नहीं है। पॉलिसी लेते समय आपको कई सारी छोटी-छोटी जानकारियों से सामना करना पड सकता है।


बिना माँगी सलाह - मेरी, बिना माँगी सलाह है कि आप मेडीक्लेम बीमा पॉलिसी के साथ ‘व्यक्तिगत दुर्घटना बीमा पॉलिसी’ (पर्सनल एक्सीडेण्ट इंश्योरेंस पॉलिसी) अवश्य लें। यह पॉलिसी, दुर्घटना होने पर (यह दुर्घटना पूरे भारत में कहीं भी हो सकती है) प्रभावी होती है। इसे आप तालिका तीन में लाभ क्रमांक 1 से लेकर लाभ क्रमांक 6 तक लें। इस पॉलिसी के तहत मात्र 199 रुपयों में एक लाख रुपयों का बीमा हो जाता है। इसमें, 52 सप्ताह तक के लिए साप्ताहिक मुआवजे का प्रावधान है। याने, यदि कोई व्यक्ति दुर्घटनाग्रस्त होने के कारण, 52 सप्ताह तक काम पर नहीं जा सका तो उसे, उसकी आय के अनुसार 52 सप्ताहों तक के लिए साप्ताहिक मुआवजे की रकम भुगतान की जाएगी। इसमें स्थायी/अस्थायी, आंशिक/पूर्ण अपंगता पर भी भुगतान का प्रावधान है।


यदि आप मेडीक्लेम पॉलिसी नहीं ले रहे हैं तो भी कोई बात नहीं। यह पॉलिसी तो आप उसके बिना भी न केवल ले सकते हैं बल्कि मेरी सलाह है कि तत्काल ले ही लें।


ईश्वर से प्रार्थना है कि आप और तमाम ब्लॉगर बन्धु सपरिवार, सकुटुम्ब पूर्ण स्वस्थ रहें और आपमें से किसी को कभी भी, ऐसे दावे प्रस्तुत न करने पड़ें।


शुभ-कामनाएँ।

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भय और स्वार्थ के कारण जुड़े लोग


वह क्या चीज या भावना है जो हमें परस्पर जोड़े हुए है? यह सवाल पहली बार मेरे मन में नहीं उठा है और न ही मैं ऐसा पहला व्यक्ति हूँ जिसके मन में यह बात आई हो। अनगिनत लोगों के मन में यह सवाल उठा होगा और हर बार कोई न कोई उत्तर भी सामने आया ही होगा। मुझे विश्वास है कि ऐसा प्रत्येक उत्तर, पहले वाले उत्तर से अलग ही रहा होगा।


मेरे कस्बे से कोई 35 किलामीटर दूर स्थित एक कस्बे में दो अज्ञात व्यक्ति एक व्यापारी को गोली मार कर भाग गए। व्यापारी को गले में गोली लगी। उसे गम्भीर दशा में अस्पताल लाया गया। वहाँ से उसे पहले रतलाम और बाद में रतलाम से इन्दौर भेजा गया जहाँ उसके गले से गोली निकाली गई। ईश्वर की कृपा है कि वह खतरे से बाहर है। यह व्यापारी सिन्धी समुदाय का था और स्थानीय सिन्धी पंचायत का महत्वपूर्ण पदाधिकारी भी था। घटना गम्भीर थी किन्तु उसकी प्रतिक्रिया जिस व्यापकता से होनी चाहिए थी वैसी न होकर सिन्धी समुदाय तक सीमित होकर हुई। सिन्धी समुदाय ने सड़कों पर उतर कर आक्रोश प्रकट किया और फौरन ही अपराधियों को पकड़ने की माँग करते हुए, अधिकारियों को ज्ञापन दिए।


इससे पहले, कोई दो-तीन साल पहले, उसी कस्बे में सिन्धी समुदाय के ही एक व्यक्ति की हत्या कर दी गई थी। तब भी इसकी प्रतिक्रिया सिन्धी समुदाय में ही हुई थी। तब सिन्धी समुदाय ने नगर बन्द करवा कर अपना रोष प्रकट किया था। मेरे कस्बे में भी कुछ बरसों पहले बोहरा समुदाय ने अपनी दुकानें बन्द रख कर, मौन प्रदर्शन निकाला था और प्रशासकीय अधिकारियों को ज्ञापन दिया था। जहाँ तक मेरी याददाश्त काम करती है, तब मामला बोहरा समुदाय की महिलाओं के साथ दुव्र्यहार का था। मुमकिन है, कारण कुछ और भी रहा हो। किन्तु यह मुझे अच्छी तरह याद है कि वाद-विवाद से दूर रहने वाला, शान्ति से रहने के लिए प्रख्यात और पहचाने जाने वाला बोहरा समुदाय आक्रोशित होकर सड़कों पर उतरा था।


ऐसे प्रसंग प्रत्येक नगर, कस्बे, गाँव में आते ही रहते हैं। कोई समुदाय अपने किसी सदस्य पर हुए अत्याचार के विरोध में, अपराधियों को पकड़कर दण्डित करने की माँग करते हुए अपना काम-काज बन्द रखता है और सड़कों पर उतरता है। ऐसे समाचार मैं जब-जब भी पढ़ता हूँ तब-तब मुझे अपने आप पर शर्म आती है। यदि किसी पर आक्रमण हुआ है, किसी पर अत्याचार हुआ है, यदि किसी की हत्या हुई है तो उसे ‘किसी भारतीय के साथ हुई घटना’ के रूप में क्यों नहीं लिया जाता? क्या किसी पर आक्रमण इसलिए हुआ क्योंकि वह किसी समुदाय विशेष का सदस्य या उस समुदाय के संगठन का पदाधिकारी था? किसी महिला के साथ दुव्यर्वहार क्या केवल इसलिए हुआ क्यों कि वह किसी विशेष जाति-समुदाय की थी? निश्चय ही ऐसा कुछ भी नहीं हुआ होता है। ऐसी प्रत्येक घटना, अन्य घटनाओं की ही तरह सामान्य घटना होती है। फिर वह क्या कारण है कि ऐसी घटना, किसी समुदाय विशेष को ही उत्तेजित/आक्रोशित/आन्दोलित करती है? अन्य समुदायों/समाजों/जातियों के लोग उस घटना से खुद को क्यों नहीं जोड़ते? कोई अपराध, किसी जाति/समुदाय विशेष के व्यक्ति के साथ हुआ क्यों मान लिया जाता है? जब एक समुदाय के लोग सड़कों पर उतरते हैं तो बाकी लोग उस प्रदर्शन को निस्पृह भाव से क्यों टुकुर-टुकुर देखते रहते हैं? क्यों हमें सूझ नहीं पड़ता कि आज जो कुछ किसी एक के साथ हुआ है, कल वही सब कुछ हमारे साथ भी हो सकता है? ‘भारतीयता’ तो बहुत बड़ी बात हो जाएगी, क्यों नहीं हमें याद आता है कि प्रभावित व्यक्ति हमारे ही कस्बे का, हमारे ही मुहल्ले का है? उसके साथ हुई दुर्घटना हमें भयभीत क्यों नहीं करती?


मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं है। मुझे यह भ्रम बिलकुल ही नहीं है कि ‘भारतीयता’ हमें परस्पर जोड़े रखती है। वह तो विदेशों में भी शायद ही हमें जोड़ती होगी। विदेशों में भारतीय चूँकि ‘अल्पसंख्यक’ की दशा में होते हैं सो वहाँ तो ‘सुरक्षा भाव’ के अधीन ही आपसी जुड़ाव होता होगा। अल्पसंख्यक जहाँ भी होते हैं, खुद को असुरक्षित अनुभव करते हैं और इसीलिए संगठित भी रहते हैं। असुरक्षा से उपजे इसी भाव के कारण, जो पाकिस्तानी और भारतीय परस्पर शत्रु की तरह व्यवहार करते हैं, वे विदेशों में ‘एशियाई’ बन कर संगठित रहते हैं।


मुझे लगता है कि हम सब किसी न किसी स्वार्थ-भाव या अज्ञात हानि से बचने की चिन्ता या लोकाचार के अधीन ही परस्पर जुड़े हुए हैं। अपने-अपने जाति-समुदाय में भी हममें से अधिकांश केवल लोकाचार जनित विवशता के अधीन ही उपस्थित होते हैं। नागरिकता बोध तो हमें आज तक जोड़ नहीं पाया।


पल-पल रूखे होते जा रहे इस समय में हम सबको अपनी-अपनी पड़ी है। ’कल मुझ पर संकट आ जाए तो मैं अकेला न पड़ जाऊँ’ से उपजी दहशत भी परस्पर जुड़ाव का बड़ा कारण अनुभव होती है।


ऐसे में, यह कल्पना करना कि भारतीयता हमें परस्पर जोड़े हुए है, सुन्दर आत्म-भ्रम के सिवाय और कुछ नहीं लगता। यह भी बुरा नहीं है। सुखद जीवन जीने के लिए भ्रमों का होना बहुत जरूरी है। बिलकुल उसी तरह जैसे कि भूल जाने का ईश्वर प्रदत्त अनुपम उपहार।


इसके बाद भी यह कामना करने में कोई बुराई नहीं है कि जब भी कभी किसी के साथ दुर्घटना हो तो उसके विरोध में लोग सड़कों पर उतरें तो यही सोच कर उतरें कि यह सब किसी भारतीय के साथ हुआ है, न कि किसी सिन्धी के साथ या कि किसी बोहरे के साथ या कि किसी जाति विशेष के सदस्य के साथ।


जिन्दगी को बेहतर बनाने के लिए आशावादी होना पहली शर्त है। मैं इसी आशावाद को जीने की कोशिश में हूँ।

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