मुझे, चाँदनी चौक में, एक व्यापारी मित्र को भुगतान करना थ। मेरे कस्बे का प्रख्यात सराफा बाजार, चाँदनी चौक में ही है। दोपहर एक बजे का समय था। ग्राहक एक भी नहीं था। आसपास के चार-पाँच, सराफा व्यापारी, अपनी-अपनी दुकान छोड़कर बैठे हुए थे। छोटी-मोटी गोष्ठी जमी हुई थी। भरपूर आत्मीयता और ऊष्मा से मेरी अगवानी हुई। मुझे बैठाया बाद में, चाय मँगवाने के निर्देश पहले दिए गए। मैंने भुगतान की बात की। व्यापारी ने हाथ पकड़ लिया - ‘आप अच्छे आए। सुबह से बोहनी नहीं हुई है। लेकिन आप तो बैठो। भुगतान होता रहेगा। आपके पैसे कहीं नहीं जाते।’ मैं बिना कुछ कहे, समझदार बच्चे की तरह बैठ गया।
जैसी कि मुझे उम्मीद थी, ‘मोदी और मोदी की नोटबन्दी’ के आसपास ही सारी बातें हो रही थीं। मेरा कस्बा, प्रादेशिक स्तर पर, बरसों से भाजपा की जागीर बना हुआ है। याद करने में तनिक मेहनत करनी पड़ती है कि गैर भाजपाई निर्वाचित जनप्रतिनिधि कब और कौन था। इसलिए, समवेत स्वरों में ‘राग भाजपा’ में ‘मोदी गान’ चल रहा था। फर्क यही था कि इस ‘मोदी गान’ में हर्षोल्लास या जीत की किलकारियों की जगह ‘आत्म प्रताड़ना’ और ‘किससे करें शिकायत, किससे फरियाद करें’ के ‘वेदना के स्वर’ प्रमुख थे। कुछ इस तरह मानो सबके सब अपनी फजीहत के मजे ले रहे हों।
शरारतन इरादे से किए गए मेरे ‘और सुनाइये सेठ! क्या हाल हैं?’ के जवाब में सब ‘हो! हो!!’ कर हँस पड़े। कुछ इस तरह कि मैं झेंप गया। एक ने मानो मुझे रंगे हाथों पकड़ने की घोषणा की - ‘क्यों अनजान बनने का नाटक कर रहे हो बैरागीजी? हमसे क्या पूछते हो? आप हमारी हालत राई-रत्ती जानते हो। हमारे जितने मजे लेने हो! सीधे-सीधे ले लो यार! आप कितना भी, कुछ भी कर लो, भोलेपन की नोटंकी करने में हमारे मोदीजी की बराबरी नहीं कर पाओगे। इसलिए घुमा-फिरा कर बात मत करो।’ मैंने खिसियाये स्वरों में सफाई दी - ‘नहीं! नहीं! ऐसा मत कहिए। मैं आपके मजे क्यों लूँगा? मुझे सच्ची में कुछ पता नहीं।’ दूसरे ने तड़ाक् से कहा - ‘चलो! आपके झूठ को सच मान लेते हैं। हमारे मुँह से ही सुनना है तो सुनो! बुरे हाल हैं। बहुत बुरे। न रोते बन रहा है न हँसते। न मर पा रहे हैं न जी पा रहे हैं। अब तो आप खुश?’ कह कर जोर से हँस पड़े। निश्चय ही मैं रूँआसा हो आया होऊँगा। मेरी शकल देख कर बोले - ‘अरे! रे! रे! आप तो दिल पर ले बैठे! सीरीयस हो गए! मैं आपकी मजाक नहीं उड़ा रहा। इन दिनों हम सब यही कर रहे हैं। काम-धाम तो सब बन्द पड़ा है! मोदीजी ने सबको फुरसतिया बना रखा है। इसलिए इकट्ठे हो कर एक-दूसरे के बहाने अपनी ही मजाक उड़ाते रहते हैं।’
तीसरे ने तनिक संजीदा हो कहा - ‘आप बुरा मत मानो। आपने तो हमसे पूछ भी लिया। हम किससे पूछें? क्या पूछें? हम पर तो ठप्पा लगा हुआ है। हमें भी अपने भाजपाईपन पर खूब भरोसा रहा है। भरोसा क्या, घमण्ड रहा है कि भाजपा हम व्यापारियों की पार्टी है। हम जो कहेंगे, जो चाहेंगे, मनवा लेंगे। पार्टी चाहे जो कर ले, व्यापारी का नुकसान कभी नहीं करेगी। लेकिन हमारा यह घमण्ड तो मार्च में ही टूट गया। आपने तो सब कुछ अपनी आँखों देखा। सरकार ने जेवरों पर टैक्स लगा दिया। हमने विरोध किया। भरोसा था कि हमारी बात पहले ही झटके में मान ली जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हमें लगा, हमारी माँग फौरन ही मानने में सरकार को शरम आ रही होगी। कुछ दिनों के विरोध की नूरा-कुश्ती के बाद मान लेगी। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। हमने दबाव बनाया। कोई दो सौ परिवारों ने भाजपा से सपरिवार त्याग-पत्र देने की चेतावनी दी। किसी ने ध्यान नहीं दिया। हम त्याग-पत्र लेकर, जुलूस बनाकर भाजपा पदाधिकारियों के दरवाजे खटखटाते रहे। कोई हमारे त्याग-पत्र हाथ में लेने को तैयार नहीं हुआ। हमने डाक से भेज दिए। लेकिन पूछताछ करना तो दूर, किसी ने पावती भी नहीं भेजी। पार्टी ने हमारी औकात बता दी। हमारा घमण्ड धरा का धरा रह गया। यह सब हम किससे कहें? कहें तो भी किस मुँह से? हम कहीं और जा भी नहीं सकते। कोई हमारा विश्वास नहीं करेगा। हम व्यापारी हैं। इतनी समझ तो हममें हैं कि अब सब-कुछ चुपचाप सहन करते रहें। आपने ही एक बार अंग्रेजी की वो भद्दी कहावत सुनाई थी कि जब बलात्कार टाला न जा सके तो उसका आनन्द लेना चाहिए! तो समझ लो! हम वही आनन्द ले रहे हैं।’ वातावरण अत्यधिक गम्भीर हो गया। गुस्सा इस तरह भी जाहिर किया जा सकता है? समूचा परिहास और उपहास, मानो करुणा की नदी बन कर बहने लगा।
वह व्यापारी मित्र निश्चय ही अत्यधिक भावाकुल हो गया था। ग्राहकों की मौजूगी तलाश रहे बाजार की वह दोपहर मानो सन्नाटेभरे जंगल में बदल गई। पता नहीं वह अपराध-बोध था या अपनों के अत्याचार से उपजी पीड़ा का प्रभाव कि मानो सबके सब गूँगे हो गए। मुझे अपनी धड़कन और साँसों की आवाज सुनाई पड़ रही थी। मुझे घबराहट होने लगी। लगा, घुटी-घुटी साँसों के कारण मेरी छाती फट जाएगी और मेरा प्राणान्त हो जाएगा। मैंने उबरने की कोशिश करते हुए कहा - ‘अब तो आप दिल पर ले बैठे। मैं माफी माँगता हूँ। आप तो व्यापारी हैं। इसे भी व्यापार का हिस्सा ही समझिए। ऐसी ऊँच-नीच तो चलती रहती है।’ लम्बी साँस लेकर वह व्यापारी मित्र बोला - ‘आप ठीक कह रहे हैं। हम सब भी यही कह-कह कर एक-दूसरे को समझा रहे हैं। लेकिन सच तो यह है कि हम सब अपने आप से झूठ बोल रहे हैं। संगठन के प्रति निष्ठा बरतने के नाम पर हम उन सारी बातों पर चुप हैं जिनके विरोध में हम लोग झण्डे-डण्डे उठा कर सड़कों पर उतर कर आसमान-फाड़ नारेबाजी करते रहे हैं। हम काले धन और भ्रष्टाचार के विरोध में सबसे ज्यादा बोलते हैं लेकिन हमारा एक प्रभाग प्रमुख (उन्होंने बैरागढ़ के किसी व्यक्ति का नाम लिया) करोड़ों के काले धन के साथ पकड़ा गया तो चुप हैं। चुप ही नहीं हैं, उसे निर्दोष और ईमानदार भी कह रहे हैं। यह सब हम किससे कहें? यही हमारी तकलीफ है बैरागीजी! हमारी दशा तो उस लड़के जैसी हो गई है जिसकी माँ ने अपने पति की हत्या कर दी। लड़के का संकट यह कि बोले तो माँ को फाँसी हो जाए और चुप रहे तो बाप की लाश सड़ जाए। यह सब किससे कहें बैरागीजी? कौन अपनी माँ को डायन कहे? कौन अपनी ही जाँघ उघाड़कर अपनी हँसी उड़वाए?’
मेरी बोलती बन्द हो चुकी थी। मैं मानो ‘संज्ञा शून्य’, जड़वत् हो गया। क्या कहूँ? क्या करूँ? मुझे कुछ भी सूझ नहीं रहा था। मेरी दशा देख, वह व्यापारी मित्र ‘हो! हो!’ कर हँस पड़ा। बोला - ‘सब लोग कहते हैं कि अपनी बातों से आप सबकी बोलती बन्द कर देते हो। लेकिन यहाँ तो उल्टा हो गया। आपकी बोलती बन्द हो गई! होता है बैरागीजी! ऐसा भी होता है। कहते हैं कि हर सेर को सवा सेर मिलता है। हर ऊँट पहाड़ के नीचे आता है। लेकिन यह शायद ही कोई जानता होगा कि यह सवा सेर और यह पहाड़ ईमानदारी और सच की शकल में होता है। हो न हो, इसीलिए हमारे मोदीजी ने नोट बन्दी के मामले में संसद में मतदान कराने की बात नहीं मानी कि कहीं हमारे लोगों की आत्माओं को झकझोर रहा यही सवा सेर और पहाड़ उनकी बोलती बन्द न कर दे।’
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