नामुमकिन है खुद से आँखें चुराना

मुझे, चाँदनी चौक में, एक व्यापारी मित्र को भुगतान करना थ। मेरे कस्बे का प्रख्यात सराफा बाजार, चाँदनी चौक में ही है। दोपहर एक बजे का समय था। ग्राहक एक भी नहीं था। आसपास के चार-पाँच, सराफा व्यापारी, अपनी-अपनी दुकान छोड़कर बैठे हुए थे। छोटी-मोटी गोष्ठी जमी हुई थी। भरपूर आत्मीयता और ऊष्मा से मेरी अगवानी हुई। मुझे बैठाया बाद में, चाय मँगवाने के निर्देश पहले दिए गए। मैंने भुगतान की बात की। व्यापारी ने हाथ पकड़ लिया - ‘आप अच्छे आए। सुबह से बोहनी नहीं हुई है। लेकिन आप तो बैठो। भुगतान होता रहेगा। आपके पैसे कहीं नहीं जाते।’ मैं बिना कुछ कहे, समझदार बच्चे की तरह बैठ गया। 

जैसी कि मुझे उम्मीद थी, ‘मोदी और मोदी की नोटबन्दी’ के आसपास ही सारी बातें हो रही थीं। मेरा कस्बा, प्रादेशिक स्तर पर, बरसों से भाजपा की जागीर बना हुआ है। याद करने में तनिक मेहनत करनी पड़ती है कि गैर भाजपाई निर्वाचित जनप्रतिनिधि कब और कौन था। इसलिए, समवेत स्वरों में ‘राग भाजपा’ में ‘मोदी गान’ चल रहा था। फर्क यही था कि इस ‘मोदी गान’ में हर्षोल्लास या जीत की किलकारियों की जगह ‘आत्म प्रताड़ना’ और ‘किससे करें शिकायत, किससे फरियाद करें’ के ‘वेदना के स्वर’ प्रमुख थे। कुछ इस तरह मानो सबके सब अपनी फजीहत के मजे ले रहे हों।

शरारतन इरादे से किए गए मेरे ‘और सुनाइये सेठ! क्या हाल हैं?’ के जवाब में सब ‘हो! हो!!’ कर हँस पड़े। कुछ इस तरह कि मैं झेंप गया। एक ने मानो मुझे रंगे हाथों पकड़ने की घोषणा की - ‘क्यों अनजान बनने का नाटक कर रहे हो बैरागीजी? हमसे क्या पूछते हो? आप हमारी हालत राई-रत्ती जानते हो। हमारे जितने मजे लेने हो! सीधे-सीधे ले लो यार! आप कितना भी, कुछ भी कर लो, भोलेपन की नोटंकी करने में हमारे मोदीजी की बराबरी नहीं कर पाओगे। इसलिए घुमा-फिरा कर बात मत करो।’ मैंने खिसियाये स्वरों में सफाई दी - ‘नहीं! नहीं! ऐसा मत कहिए। मैं आपके मजे क्यों लूँगा? मुझे सच्ची में कुछ पता नहीं।’ दूसरे ने तड़ाक् से कहा - ‘चलो! आपके झूठ को सच मान लेते हैं। हमारे मुँह से ही सुनना है तो सुनो! बुरे हाल हैं। बहुत बुरे। न रोते बन रहा है न हँसते। न मर पा रहे हैं न जी पा रहे हैं। अब तो आप खुश?’ कह कर जोर से हँस पड़े। निश्चय ही मैं रूँआसा हो आया होऊँगा। मेरी शकल देख कर बोले - ‘अरे! रे! रे! आप तो दिल पर ले बैठे! सीरीयस हो गए! मैं आपकी मजाक नहीं उड़ा रहा। इन दिनों हम सब यही कर रहे हैं। काम-धाम तो सब बन्द पड़ा है! मोदीजी ने सबको फुरसतिया बना रखा है। इसलिए इकट्ठे हो कर एक-दूसरे के बहाने अपनी ही मजाक उड़ाते रहते हैं।’

तीसरे ने तनिक संजीदा हो कहा - ‘आप बुरा मत मानो। आपने तो हमसे पूछ भी लिया। हम किससे पूछें? क्या पूछें? हम पर तो ठप्पा लगा हुआ है। हमें भी अपने भाजपाईपन पर खूब भरोसा रहा है। भरोसा क्या, घमण्ड रहा है कि भाजपा हम व्यापारियों की पार्टी है। हम जो कहेंगे, जो चाहेंगे, मनवा लेंगे। पार्टी चाहे जो कर ले, व्यापारी का नुकसान कभी नहीं करेगी। लेकिन हमारा यह घमण्ड तो मार्च में ही टूट गया। आपने तो सब कुछ अपनी आँखों देखा। सरकार ने जेवरों पर टैक्स लगा दिया। हमने विरोध किया। भरोसा था कि हमारी बात पहले ही झटके में मान ली जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हमें लगा, हमारी माँग फौरन ही मानने में सरकार को शरम आ रही होगी। कुछ दिनों के विरोध की नूरा-कुश्ती के बाद मान लेगी। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। हमने दबाव बनाया। कोई दो सौ परिवारों ने भाजपा से सपरिवार त्याग-पत्र देने की चेतावनी दी। किसी ने ध्यान नहीं दिया। हम त्याग-पत्र लेकर, जुलूस बनाकर भाजपा पदाधिकारियों के दरवाजे खटखटाते रहे। कोई हमारे त्याग-पत्र हाथ में लेने को तैयार नहीं हुआ। हमने डाक से भेज दिए। लेकिन पूछताछ करना तो दूर, किसी ने पावती भी नहीं भेजी। पार्टी ने हमारी औकात बता दी। हमारा घमण्ड धरा का धरा रह गया। यह सब हम किससे कहें? कहें तो भी किस मुँह से? हम कहीं और जा भी नहीं सकते। कोई हमारा विश्वास नहीं करेगा। हम व्यापारी हैं। इतनी समझ तो हममें हैं कि अब सब-कुछ चुपचाप सहन करते रहें। आपने ही एक बार अंग्रेजी की वो भद्दी कहावत सुनाई थी कि जब बलात्कार टाला न जा सके तो उसका आनन्द लेना चाहिए! तो समझ लो! हम वही आनन्द ले रहे हैं।’ वातावरण अत्यधिक गम्भीर हो गया। गुस्सा इस तरह भी जाहिर किया जा सकता है? समूचा परिहास और उपहास, मानो करुणा की नदी बन कर बहने लगा। 

वह व्यापारी मित्र निश्चय ही अत्यधिक भावाकुल हो गया था। ग्राहकों की मौजूगी तलाश रहे बाजार की वह दोपहर मानो सन्नाटेभरे  जंगल  में बदल गई। पता नहीं वह अपराध-बोध था या अपनों के अत्याचार से उपजी पीड़ा का प्रभाव कि मानो सबके सब गूँगे हो गए। मुझे अपनी धड़कन और साँसों की आवाज सुनाई पड़ रही थी। मुझे घबराहट होने लगी। लगा, घुटी-घुटी साँसों के कारण मेरी छाती फट जाएगी और मेरा प्राणान्त हो जाएगा। मैंने उबरने की कोशिश करते हुए कहा - ‘अब तो आप दिल पर ले बैठे। मैं माफी माँगता हूँ। आप तो व्यापारी हैं। इसे भी व्यापार का हिस्सा ही समझिए। ऐसी ऊँच-नीच तो चलती रहती है।’ लम्बी साँस लेकर वह व्यापारी मित्र बोला - ‘आप ठीक कह रहे हैं। हम सब भी यही कह-कह कर एक-दूसरे को समझा रहे हैं। लेकिन सच तो यह है कि हम सब अपने आप से झूठ बोल रहे हैं। संगठन के प्रति निष्ठा बरतने के नाम पर हम उन सारी बातों पर चुप हैं जिनके विरोध में हम लोग झण्डे-डण्डे उठा कर सड़कों पर उतर कर आसमान-फाड़ नारेबाजी करते रहे हैं। हम काले धन और भ्रष्टाचार के विरोध में सबसे ज्यादा बोलते हैं लेकिन हमारा एक प्रभाग प्रमुख (उन्होंने बैरागढ़ के किसी व्यक्ति का नाम लिया)  करोड़ों के काले धन के साथ पकड़ा गया तो चुप हैं। चुप ही नहीं हैं, उसे निर्दोष और ईमानदार भी कह रहे हैं। यह सब हम किससे कहें? यही हमारी तकलीफ है बैरागीजी! हमारी दशा तो उस लड़के जैसी हो गई है जिसकी माँ ने अपने पति की हत्या कर दी। लड़के का संकट यह कि बोले तो माँ को फाँसी हो जाए और चुप रहे तो बाप की लाश सड़ जाए। यह सब किससे कहें बैरागीजी? कौन अपनी माँ को डायन कहे? कौन अपनी ही जाँघ उघाड़कर अपनी हँसी उड़वाए?’

मेरी बोलती बन्द हो चुकी थी। मैं मानो ‘संज्ञा शून्य’, जड़वत् हो गया। क्या कहूँ? क्या करूँ? मुझे कुछ भी सूझ नहीं  रहा था। मेरी दशा देख, वह व्यापारी मित्र ‘हो! हो!’ कर हँस पड़ा। बोला - ‘सब लोग कहते हैं कि अपनी बातों से आप सबकी बोलती बन्द कर देते हो। लेकिन यहाँ तो उल्टा हो गया। आपकी बोलती बन्द हो गई! होता है बैरागीजी! ऐसा भी होता है। कहते हैं कि हर सेर को सवा सेर मिलता है। हर ऊँट पहाड़ के नीचे आता है। लेकिन यह शायद ही कोई जानता होगा कि यह सवा सेर और यह पहाड़ ईमानदारी और सच की शकल में होता है। हो न हो, इसीलिए हमारे मोदीजी ने नोट बन्दी के मामले में संसद में मतदान कराने की बात नहीं मानी कि कहीं हमारे लोगों की आत्माओं को झकझोर रहा यही सवा सेर और पहाड़ उनकी बोलती बन्द न कर दे।’
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एके साधे सब सधे

(भारतीय जीवन बीमा निगम के अधिकारियों, कर्मचारियों और अभिकर्ताओं को समृद्ध करने के लिए ‘निगम’ अपनी मासिक गृह-पत्रिका ‘योगक्षेम’  प्रकाशित करता है। उसी में प्रकाशनार्थ मैंने दिनांक 13 दिसम्बर 2013 को यह आलेख भेजा था। उसके बाद एक बार याद भी दिलाया था किन्तु अब तक कोई जवाब नहीं मिला। निश्चय ही इसे प्रकाशन योग्य नहीं समझा गया होगा। मेरे मतानुसार यह आलेख मुझ जैसे छोटे, कस्बाई अभिकर्ताओं के लिए तनिक सहयोगी और उपयोगी हो सकता है। इसी भावना से इसे अब अपने ब्लॉग पर दे रहा हूँ। इसके अतिरिक्त इसका न तो कोई सन्दर्भ है, न उपयोगिता और न ही प्रसंग।)




एक लोकोक्ति है कि लोग अपनी गलतियों से सीखते हैं। किन्तु समझदार वे होते हैं जो दूसरों की गलतियों से सीखते हैं। मैं, भारतीय जीवन बीमा निगम के मुझ जैसे तमाम अभिकर्ताओं को न्यौता दे रहा हूँ - मेरी गलतियों से सीखकर समझदार होने के लिए। 

महानगरों की स्थिति तो मुझे नहीं पता किन्तु कस्बाई स्तर पर हमारे अभिकर्ता साथी एकाधिक संस्थाओं की एजेन्सियाँ लिए होते हैं। ‘निगम’ का अभिकर्ता बनने के शुरुआती कुछ बरसों तक मैं भी यही करता था। किन्तु मैंने, एक के बाद एक बाकी सारे काम छोड़ दिए और केवल ‘एलआईसी एजेण्ट’ ही बन कर रह गया। 

मैंने पाया कि ऐसा करने के बाद न केवल मेरी आय बढ़ी बल्कि मेरी सार्वजनिक पहचान और प्रतिष्ठा (वह जैसी भी है) में मेरी अपेक्षा से अधिक बढ़ोतरी हुई। 
मेरे पास भारतीय यूनिट ट्रस्ट, डाक घर और साधारण बीमा (जनरल इंश्योंरेंस) कम्पनी की भी एजेन्सी थी। मेरी बात को किसी संस्था की आलोचना न समझी जाए किन्तु मेरा अनुभव रहा है कि ग्राहक सेवाओं के मामले में ‘निगम’ से बेहतर कोई संस्था नहीं। हर कोई जानना चाहेगा कि मैंने शेष तीनों एजेन्सियाँ क्यों छोड़ीं। मैं भी बताने को उतावला बैठा हुआ हूँ।

मैंने काम शुरु किया उस समय मेरे कस्बे में भारतीय यूनिट ट्रस्ट का कार्यालय नहीं था। तब यह इन्दौर में था - मेरे कस्बे से सवा सौ किलोमीटर दूर। एक निवेशक के नाम की वर्तनी (स्पेलिंग) दुरुस्त कराने में मुझे सात महीनों से अधिक का समय लग गया और इस दौरान मैंने  प्रति माह कम से कम चार-चार पत्र लिखे। याने प्रति सप्ताह एक पत्र। ग्राहक का नाम तो आखिरकार दुरुस्त हो गया किन्तु ग्राहक की नजरों में मेरे लिए विश्वास भाव में बड़ी कमी आई। वह जब भी मिलता, कहता - ‘क्या! बैरागी सा’ब! मेरा नाम दुरुस्त कराने में यह हालत है तो अपना भुगतान लेने में तो मुझे पुनर्जन्म लेना पड़ जाएगा! ऐसे में आपसे बीमा कैसे लें?’ ऐसे प्रत्येक मौके पर मुझे  चुप रह जाना पड़ता था। अन्ततः नाम ही दुरुस्त नहीं हुआ, मैं भी दुरुस्त हो गया।  मैंने वह एजेन्सी छोड़ दी।

डाक घर के साथ मेरा अनुभव तनिक विचित्र रहा। डाक घर के बचत बैंक पोस्ट मास्टर मेरे पड़ौसी थे। हम दोनों रोज सुबह, अपना-अपना अखबार बदल कर पढ़ते थे। कभी मेरे यहाँ नल में पानी नहीं आता तो मैं उनके नल का उपयोग करता और कभी उनके नल में पानी नहीं आता तो वे मेरे नल से पानी लेते। किन्तु मेरे अचरज का ठिकाना नहीं रहा जब मेरे सगे भतीजे के एक निवेश की परिपक्वता राशि का भुगतान मुझे करने से उन्होंने इंकार कर दिया - वह भी तब जबकि मेरे पास मेरे भतीजे द्वारा मेरे पक्ष में दिया गया आवश्यक, औपचारिक अधिकार-पत्र था। कुछ देर तो मुझे लगा कि वे मुझसे परिहास कर रहे हैं। किन्तु वे तो गम्भीर थे! स्थिति यह हो गई कि मुझे लिहाज छोड़ कर, शिकायत करने की धमकी देनी पड़ी। मुझे भुगतान तो मिल गया किन्तु इस घटना के बाद से हम दोनों के बीच की अनौपचारिकता, सहजता समाप्त हो गई और हम अपने-अपने अखबार से ही काम चलाने को मजबूर हो गए। मेरे मन में विचार आया कि जो साहब मुझे और मेरे बारे में व्यक्तिगत रूप से भली प्रकार जानते हैं, जब वे भी मुझे, मेरे भतीजे का भुगतान करने में कठिनाई अनुभव कर रहे हैं तो किसी सामान्य ग्राहक का भुगतान कराने में, एक अभिकर्ता के रूप में मेरी दशा क्या होगी? ऐसी घटनाओं का प्रभाव मेरे दूसरे कामकाज पर अच्छा नहीं पड़ेगा। मुझे ग्राहकों से हाथ धोना पड़ जाएगा। मेरा मोह भंग हो गया और मैंने उस एजेन्सी को नमस्कार कर लिया।

साधारण बीमा (जनरल इंश्योरेंस) कम्पनी से मेरा ऐसा कोई अप्रिय अनुभव तो नहीं रहा किन्तु दावा भुगतान को लेकर वहाँ की कार्यप्रणाली ने मुझे निरुत्साहित कर दिया। मैंने देखा कि अपने दावों का भुगतान प्राप्त करने के लिए ग्राहकों को बार-बार चक्कर काटने पड़ते हैं। कुछ मामलों में मैंने पाया कि ग्राहक जब भी अपना भुगतान लेने आता तब उसे कोई न कोई कागज लाने के लिए कह दिया जाता। इसके सर्वथा विपरीत, ‘निगम’ ने मेरी आदत खराब कर रखी थी। मेरी इस बात से तमाम अभिकर्ता और अन्य लोग भी सहमत होंगे कि दावा भुगतान को ‘निगम; सर्वाेच्च प्राथमिकता देता है और स्थिति यह है कि हम ग्राहकों को ढूँढ-ढूँढ कर भुगतान करते हैं। कई बार तो ग्राहक को पता ही नहीं होता कि उसे कोई बड़ी रकम मिलनेवाली है। ऐसे पचासों भुगतान का माध्यम तो मैं खुद बना हूँ जो पालिसियाँ मैंने नहीं बेचीं और जिनका अता-पता मेरे शाखा कार्यालय ने मुझे दिया, मैंने सारी औपचारिकताएँ पूरी करवाईं और ग्राहक को भुगतान कराया। ऐसे प्रत्येक मामले में ग्राहक ने मुझे बार-बार धन्यवाद दिया तो दिया ही, दुआएँ भी दीं। मुझे लगा कि एक ओर कहाँ तो हम भुगतान करने के लिए उतावले रहते हैं और कहाँ दूसरी ओर ग्राहक चक्कर लगाता रहता है! मुझे लगा कि कभी मेरा कोई ग्राहक नाराज हो गया तो उसका प्रतिकूल प्रभाव मेरी, जीवन बीमा एजेन्सी पर पड़ सकता है और मुझे व्यावसायिक नुकसान हो सकता है। यह ऐसा नुकसान होगा जिसकी भरपाई कभी नहीं हो सकेगी। यह विचार आते ही मैंने चुपचाप वह एजेन्सी भी छोड़ दी।

अब मैं केवल एलआईसी का काम कर रहा हूँ। शुरु में तो मुझे लगा था कि मुझे नुकसान हुआ है किन्तु मेरी आय के आँकड़े मेरी इस धारणा पर मेरा मुँह चिढ़ाते हैं। मेरी आय प्रति वर्ष बढ़ी। लेकिन इससे अधिक महत्वपूर्ण बात यह कि ग्राहक सेवाओं को लेकर मेरे ग्राहक मुझसे असन्तुष्ट नहीं हैं।

सारे काम छोड़कर एक ही काम करने के दो प्रभाव मैंने सीधे-सीधे अनुभव किए। पहला तो यह कि मैं अपने काम में अधिक दक्ष हुआ और दूसरा यह कि मेरे परिचय क्षेत्र में मुझे अतिरिक्त सम्मान से देखा जाने लगा। ग्राहकों से मेरा जीवन्त सम्पर्क बढ़ा और आज स्थिति यह है कि प्रति वर्ष मेरे ग्राहक बुला कर मुझे बीमा देते हैं। अपना परिचय देते हुए जब मैं कहता हूँ ‘‘मैं एलआईसी एजेण्ट हूँ और यही काम करता हूँ। इसके सिवाय और कोई काम नहीं करता।’ तो सामनेवाले पर इसका जो अनुकूल प्रभाव होता है उसे शब्दों में बयान कर पाना मेरे लिए सम्भव नहीं हो रहा।

यह सब देखकर और अनुभव कर मुझे अनायास ही कवि रहीम का दोहा याद आ गया -

         एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाय।
         जो तू सींचौ मूल को, फूले, फले, अघाय।।

अर्थात् थोड़े-थोड़े पाँच-सात काम करने की कोशिश में एक भी काम पूरा नहीं हो पाता। इसके विपरीत यदि कोई एक ही काम हाथ में लिया जाए तो वह पूरा होता है उसके समस्त लाभ भी मिलते हैं और इस सीमा तक मिलते हैं कि हमारी सारी आवश्यकताएँ पूरी हो जाती हैं। 

इसी क्रम में मुझे कवि गिरधर की एक कुण्डली याद आ रही है जो हमारी मातृसंस्था ‘एलआईसी’ पर पूरी तरह लागू होती है। कुण्डली इस प्रकार है -

         रहिये लटपट काटि दिन, अरु घामे मा सोय।
         छाँह न वाकी बैठिये, जो तरु पतरो होय।।
         जो तरु पतरो होय, एक दिन धोखा दैहे।
         जा दिन बहे बयारी, टूटी तब जर से जैहे।
         कह गिरधर कविराय, छाँह मोटे की गहिये।
         पाता सब झरि जाय, तऊ छाया में रहिये।।

अर्थात्, ‘चाहे तकलीफ में दिन काट लीजिए, चाहे धूप में सोना पड़े लेकिन किसी कमजोर-पतले वृक्ष की छाया में मत बैठिए। पता नहीं कब धोखा दे दे! किसी दिन आँधी में जड़ से उखड़ जाएगा। इसलिए किसी विशाल, मोटे, घनी वृक्ष की छाया में बैठिए। ऐसे वृक्ष के सारे पत्ते भी झड़ जाएँगे तो भी सर पर छाया बनी रहेगी।’ मुझे लगता है कि ‘आर्थिक सुरक्षा और संरक्षा’ के सन्दर्भों में कवि गिरधर एलआईसी की ओर ही इशारा कर रहे हैं।

पूर्णकालिक (फुल टाइमर) अभिकर्ता के रूप में काम करने का सुख और सन्तोष अवर्णनीय है। इससे क्षमता और दक्षता में वृद्धि होती है जिसका अन्तिम परिणाम होता है - आय में वृद्धि। लेकिन इससे आगे बढ़कर एक और महत्वपूर्ण काम होता है - अधिकाधिक लोगों तक पहुँचकर उन्हें बीमा सुरक्षा उपलब्ध कराने का। 

यही तो ‘निगम’ का लक्ष्य है!
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(सर्वाधिकार लेखकाधीन।)


नोटबन्‍दी के खलनायक : सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक

तय कर पाना कठिन हो रहा है कि इस सब को क्या मानूँ - आश्चर्यजनक, निराशाजनक या हताशाजनक? क्या यह मात्र संयोग है कि अलग-अलग जगहों पर, अलग-अलग घरों में बैठे लोग किसी विषय पर अलग-अलग समय पर बात करते हुए लगभग एक ही निष्कर्ष पर पहुँचते अनुभव हों? क्या सबको पूर्वाग्रही या सन्देही मान लिया जाए? क्या परस्‍पर विरोधी राजनीतिक विचारधाराओं के लोग एक ही मुद्दे पर, समान-पूर्वाग्रही या समान-संशयी हो सकते हैं?

एक पारिवारिक प्रसंग में इस बार पूरे सात दिन ससुराल में रहना पड़ा। बहुत बड़ा कस्बा नहीं है। ऐसा कि घर पर नियमित रूप से आ रहे अखबार के अतिरिक्त कोई और अखबार नहीं मिल सकता। सब अखबारों की गिनती की ग्राहक-प्रतियाँ ही आती हैं। अतिरिक्त प्रति उपलब्ध नहीं। सो पूरे सात दिन एक ही अखबार पर आश्रित रहना पड़ा। काम-धाम कुछ नहीं। पूरी फुरसत। ऐसा कोई व्यक्तिगत सम्पर्क भी नहीं जहाँ जाकर दस-बीस मिनिट बैठ सकूँ। मैं आराम कर-कर थक गया। अखबार में, नए नोटों की थोक में बरामदगी की खबरों ने विचार दिया-अपने परिचय क्षेत्र के अधिकाधिक बैंककर्मियों से बात की जाए। मेरे सम्पर्क क्षेत्र में यूँ तो सभी विचारधारााओं के लोग हैं किन्तु संघी-भाजपाई अधिसंख्य हैं जबकि बैंक कर्मचारी संगठनों में वामपंथी अधिसंख्य हैं। किन्तु अनेक बैंककर्मी ऐसे हैं जो सुबह शाखा में जाते हैं और दिन में, प्रबन्धन के विरुद्ध प्रदर्शनों में ‘लाल सलाम! लाल सलाम!’ और ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ के नारे लगाते हैं। सुबह वैचारिक निष्ठा और दिन में रोटी बचाने की जुगत। कुछ कर्मचारी ऐसे हैं जो लिपिक के रूप में नियुक्त हुए थे और पदोन्नत होते-होते शाखा प्रबन्धक बन गए हैं। मैंने  यथासम्भव अधिकाधिक परिचितों से बात की। अपनी फुरसत और पिपासा शान्ति की भरपूर कीमत चुकानी पड़ मुझे। कुल मिलाकर कम से कम पाँच घण्टे तो बात की ही होगी मैंने। 

दो बातें समान अनुभव हुईं - लिपिक वर्ग के कर्मचारियों ने सामान्यतः आक्रामक हो कर बात की तो अधिकारी बन चुके कर्मचाािरयों ने मुद्दों पर, गम्भीरता से, लगभग तटस्थ भाव से बात की। किन्तु निष्कर्ष सबका एक ही था - ‘यह सब सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के विरुद्ध, इन्हें बदनाम कर ध्वस्त करने का, कार्पोरेट घरानों और सरकार में बैठे पूँजीवादियों का सुनियोजित, गम्भीर षड़यन्त्र है जिसमें पूरा मीडिया तीव्र उत्प्रेरक की भूमिका निभा रहा है।’ मैंने अधिकारी बन चुके मित्रों की बातों को तनिक अधिक महत्व दिया।

अधिकारी बन चुके मित्रों का कहना रहा कि सरकारी बैंकों के कर्मचारियों में न तो सबके सब ‘पवित्र गायें’ हैं न ही सबके सब ‘काली भेड़ें’ हैं। सब तरह के लोग सब जगह हैं। भले, ईमानदार, कर्तव्य निष्ठ लोग अधिक हैं और बेईमान, कामचोर बहुत कम। किन्तु जैसा कि होता है, जिक्र बेईमानों का ही होता है, ईमानदारों का नहीं। ऐसे लोग निजी बैंकों में भी हैं। किन्तु सरकारी और निजी बैंकों में बहुत बड़ा अन्तर यह है कि सरकारी बैंकों में यह बेईमानी व्यक्तिगत स्तर पर है जबकि निजी बैंकों में संस्थागत रूप से है। इसका मतलब यह भी नहीं कि सारे के सारे निजी बैंक संस्थागत रूप से बेईमान हैं। इन मित्रों ने कहा - ‘किन्तु तनिक ध्यान से देखिए! थोक में नए नोट सामान्यतः निजी बैंकों से ही बरामद हो रहे हैं। किसी बैंक से इतनी बड़ी मात्रा में नए नोट कोई अकेला कर्मचारी, ‘प्रबन्धन’ की सहायता और सुरक्षा के बिना, व्यक्तिगत स्तर पर उपलब्ध नहीं करा सकता।’ इन्होंने याद दिलाया कि कम से कम दो निजी बैंक अतीत में एण्टी मनी लाण्डरिंग अधिनियम के गम्भीर उल्लंघनकर्ता के रूप में चिह्नित और चर्चित हो चुके हैं। एक साथी ने याद दिलाया तो मुझे याद आया कि गत वर्ष ही भोपाल में एक बीमा एजेण्ट ने एक निजी बैंक की सहायता से, एण्टी मनी लाण्डरिंग एक्ट का उल्लंघन करते हुए, बिना पान कार्ड और बिना ग्राहक-पहचान-पत्रों के, अपने ग्राहकों के लाखों रुपये एक निजी बैंक में जमा करवा दिए थे। चूँकि देश में सरकारी बैंकों की उपस्थिति सर्वाधिक है इसलिए जनसामान्य का साबका इन्हीं से पड़ता है। यही इनका दोष है। जबकि सरकारी बैंकों के कर्मचारी अधिक मानवीय, अधिक सम्वेदनशील होकर काम करते हैं। 

इन इधिकारी मित्रों ने बड़ी पीड़ा से कहा - ‘हमारी कठिनाई यह है कि हमारी स्थिति कोई समझने को तैयार नहीं। समझे तो तब जब सुने!  सरकार ने 85 प्रतिशत मुद्रा वापस ले ली। इसके एवज में दस प्रतिशत मुद्रा ही बैंकों को उपलब्ध कराई है। यह सामान्य बात कोई सुनने-समझने को तैयार नहीं कि 85 प्रतिशत की पूर्ति दस प्रतिशत से होगी तो हल्ला तो मचेगा ही! यह तो सब कहते हैं कि सरकार ने 24 हजार रुपये निकालने का अधिकार दिया है। लेकिन लाइन में लगे प्रत्येक व्यक्ति को इतनी रकम देने जितनी रकम कितने बैंकों को उपलब्ध कराई जा रही है? ऐसे में, बैंकों की कोशिश यह है कि अधिकाधिक लोगों को रकम दी जाए। इसके लिए बैंक मेनेजर लोग अपनी सोच-समझ के अनुसार कहीं दस हजार तो कहीं पाँच हजार प्रति व्यक्ति दे रहे हैं। लेकिन इसके बाद भी कतार में खड़े तमाम लोगों को रकम दे पाना सम्भव नहीं है। आखिकार बैंक उतनी ही रकम तो देगा जितनी उसे मिली है! ऐसे में सरकारी बैंक अपना उत्कृष्ट देने के बाद भी लोगों की घृणा झेलने को अभिशप्त हैं। कुछ निजी बैंकों के किए की सजा तमाम सरकारी बैंकों को केवल इसलिए मिल रही है वे देश में सर्वाधिक नजर आ रहे हैं। सरकारी बैंकों की सम्पत्तियों को नुकसान पहुँचाया जा रहा है, कर्मचारियों के साथ मारपीट हो रही है। 

अधिकांश कर्मचारियों ने कहा-‘कोई रिजर्व बैंक से पूछताछ क्यों नहीं करता? उनके पास तो पूरी सूची है कि उन्होंने किस जगह, किस बैंक को, कितनी रकम उपलब्ध कराई है! यह सूची जगजाहिर हो जाए तो दूध का दूध, पानी का पानी हो जाएगा। थोक में नए नोट उपलब्ध कराने के मामले में अब तो रिजर्व बैंक के कर्मचारी भी पकड़े जा रहे हैं।’ इन लोगों ने बहुत बारीक बात कही-‘आप ध्यान से देखिए। तमाम चैनलों पर बहस के लिए, वर्तमान/भूतपूर्व अधिकारी हों या कर्मचारी संगठनों के लोग, केवल सरकारी बैंकों से जुड़े लोगों को ही बुलाकर सवाल पूछे जा रहे हैं। सवाल भी ऐसी भाषा और अन्दाज में मानो किसी अपराधी से सफाई माँगी जा रही हो। रिजर्व बैंक या निजी बैंक के एक भी अधिकारी, कर्मचारी को कभी, किसी चेनल ने बुलाकर अब  तक पूछताछ नहीं की। पूरी दुनिया जानती है कि अधिकांश चेनलें कार्पोरेट घरानों की मिल्कियत हैं। ये सब सरकारी बैंकों को बदनाम कर अपने मालिकों की स्वार्थ-पूर्ति कर रही हैं।’

अपने राजनीतिक रुझान छुपाने में असमर्थ मित्रों ने खुल कर कहा कि नोटबन्दी के समस्त चार लक्ष्य (नकली नोटों से मुक्ति, काला धन उजागर करना, भ्रष्टाचार दूर करना और आतंकियों की फण्डिंग) विफल हो चुके हैं। सरकार अपनी विफलता सरकारी बैंकों पर थोप कर गंगा स्नान करना चाह रही हैं। दो कर्मचारियों ने आकर्षक शब्दावली प्रयुक्त की - ‘खलनायक बन चुका विफल नायक, एक निर्दोष को खलनायक साबित करने हेतु प्रयत्नरत है।’ और ‘मलिन हो चुकी अपनी सूरत को उजली साबित करने के लिए बैंकों की सूरत पर कालिख पोती जा रही है।’

मैं इन सारी बातों पर आँख मूँदकर भरोसा नहीं कर रहा। सब कुछ एक पक्षी है। किन्तु इनमें वे लोग भी शरीक हैं जो ‘अपनी सरकार’ का लिहाज पाल पाने में असुविधा महसूस कर रहे हैं। ऐसे में इन सारी बातों को खारिज भी नहीं कर पा रहा। न सबकी सब सच और न ही सबकी सब झूठ। इन दोनों के बीच में आपको क्या नजर आता है?
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घटती ब्याज दरों की दहशत

आदमी खुद से अधिक किसी को प्यार नहीं करता। निश्चय ही इसीलिए, नोट बन्दी के तुमुल कोलाहल के बीच अपने कल की चिन्ता मेरी धड़कन बढ़ा रही है। तसल्ली है तो केवल यही कि मेरा भय, मुझ अकेले का नहीं, अधिसंख्य बूढ़ों का है।

सरकार का सारा ध्यान और सारी कोशिशें विकास दर बढ़ाने की हैं। उद्योगों को बढ़ावा देने और व्यापार को अधिकाधिक आसान बनाकर ही यह किया जा सकता है। इसके लिए अधिकाधिक पूँजी, कम से कम कठिनाई से इन क्षेत्रों को उपलब्ध कराना पहली शर्त है। सो, सरकार यही कर रही है। उर्जित पटेल के, भारतीय रिजर्व बैंक का गवर्नर बनने के बाद सबसे पहला काम इसी दिशा में हुआ। फलस्वरूप बैंकों ने अपनी ब्याज दरें घटा दीं। तमाम अखबार और चैनलों पर मकान और कारों की ईएमआई कम होने की शहनाइयाँ बजीं। अब सुन रहे हैं कि नोट बन्दी के के कारण तमाम बैंकों के पास अतिरिक्त पूँजी आ जाएगी और वे एक बार फिर अपनी ब्याज दरें घटा देंगे। 

लेकिन ये घटती ब्याज दरें मुझ जैसे बूढ़ों के दिल बैठा रही है। हम बूढ़े विचित्र से नैतिक संकट में हैं। अपने बच्चों को कम दर पर पूँजी मिलने की खुशी मनाएँ या बुढ़ापे में कम होती अपनी आमदनी पर दुःखी हों? आँकड़े और तथ्य तो ऐसा ही कहते लग रहे हैं।
केन्द्रीय सांख्यिकी कार्यालय की महानिदेशक सुश्री अमरजीत कौर ने 22 अप्रेल 2016 को रिपोर्ट जारी करते हुए बताया कि 2001 से 2011 के बीच देश में 60 वर्ष से अधिक आयुवाले नागरिकों की  वृद्धि दर अभूतपूर्व रही है। वर्ष 2001 में देश की सकल जनसंख्या में वृद्धों की संख्या 7.6 प्रतिशत थी जो 2011 में बढ़कर 8.6 प्रतिशत (कुल 10.39 करोड़) हो गई। यह वृद्धि दर 35.5 प्रतिशत है जो न केवल अब तक की सर्वाधिक है बल्कि राष्ट्रीय जनसंख्या वृध्दि दर से दुगुनी भी है। तब से अब तक के पाँच वर्षों में इस संख्या में निश्चय ही वृद्धि हुई ही होगी। 

छोटे होते परिवार, बच्चों का घर से दूर रहकर नौकरी करना और छिन्न-भिन्न हो रहा हमारा सामाजिक ताना-बाना। इस सबके चलते बूढ़े लोग अकेले होते जा रहे हैं। पूँजीवाद हमें लालची बना रहा है। हमारी सम्वेदनाएँ भोथरी होती जा रही हैं। बच्चों द्वारा अपने माता-पिता की जिम्मेदारी से पल्ला झटकने के समाचार अब आम होने लगे हैं। अपने भरण-पोषण के लिए और अपने ही बनाए मकान में जगह पाने के लिए बूढ़े लोग अदालतों के दरवाजे खटखटाते मिल रहे हैं। वृद्धाश्रमों की और उनमें रहनेवालों की संख्या दिन-प्रति-दिन बढ़ती जा रही है। पूर्णतः निराश्रितों के बारे में सोेचने की हिम्मत नहीं होती। लेकिन सेवानिवृत्त बूढ़े भी अब अपनी आय में होती कमी से भयभीत हैं।

बैंकों द्वारा ब्याज में कमी करने का सीधा असर इन बूढ़ों पर पड़ने लगा है। अगस्त 2016 के आँकड़ों के मुताबिक रेल, रक्षा, अर्द्ध सैनिक बलों, सार्वजनिक उपक्रमों, परिवार पेंशनधारियों और केन्द्र सरकार के पेंशनरों की कुल संख्या एक करोड़ से ज्यादा थी। राज्य सरकारों के और निजी क्षेत्र के पेंशनर इनमें शामिल नहीं हैं। ये तमाम लोग बैंक एफडी और डाक घर की विभिन्न लघु बचत योजनाओं से मिलनेवाले ब्याज की रकम पर आश्रित हैं। कम हुई (और निरन्तर कम हो रही) ब्याज दरों का सीधा प्रभाव इन सब पर पड़ेगा ही। आय में कमी और मँहगाई में वृद्धि इन बूढ़ों की रातों की नींद और दिन का चैन छीन लेगी। म्युचअल फण्डों में बेहतर आय मिल सकती है किन्तु वहाँ, बैंकों और डाकघर जैसी पूँजी की सुरक्षा और निश्चिन्तता नहीं। उम्र भी ऐसी नहीं कि अपनी रकम खुले बाजार में ब्याज पर लगाने की जोखिम ले सकें। ऐसे में ये बूढ़े अपने चौथे काल में राम-नाम भूल कर जीने के अधिक ठोस आधार की तलाश में लग जाएँगे। लेकिन सुरक्षित निवेश की विकल्पहीनता इन्हें निराश ही करेगी। मैं भी इन्हीं में से एक हूँ। अपने बेटों की संस्कारशीलता पर भरोसा होते हुए भी मुझे भी घबराहट हो रही है। लेकिन करूँ क्या? इस यक्ष प्रश्न का सामना करने में पसीने छूट रहे हैं।

किन्तु कम होती ब्याज दरों का यह असर केवल बूढ़ों पर ही नहीं होगा। मुझे एक खतरा और नजर आ रहा है। जैसा कि मैं बार-बार कहता हूँ, मैं अर्थ शास्त्र का विद्यार्थी नहीं हूँ किन्तु बीमा व्यवसाय के कारण फौरी तौर पर कुछ बातें समझ में आने लगी हैं। मुझे लग रहा है कि कम होती ब्याज दरों का सीधा असर हमारी अल्प बचत पर पड़े बिना नहीं रहेगा। हमारी लघु बचतों में सबसे बड़ा हिस्सा घरेलू बचत का है। जो लोग जोखिम लेने की उम्र और दशा में हैं वे तमाम लोग बैंक एफडी और डाकघर की लघु बचत योजनाओं से पीठ फेर कर म्युचअल फण्डों की ओर मुड़ जाएँगे। हम सब जानते हैं कि बैंकों और डाक घर में जमा रकम का सीधा लाभ सरकार को मिलता है। लोक कल्याणकारी योजनाओं में यह रकम बड़ी सहायता करती हैं। किन्तु म्युचअल फण्डों की रकम पर सरकार का कोई नियन्त्रण नहीं होता। वर्ष 2008 में हमारा बचत का राष्ट्रीय औसत 38.1 प्रतिशत था जो 2014 में घटकर 31.1 रह गया। आज यह और भी घटकर 30.1 प्रतिशत रह गया है।  गए तीस वर्षों में यह सबसे कम प्रतिशत है। हम भारतीय भूलने में विशेषज्ञ हैं इसलिए शायद ही किसी को याद होगा कि 2007 और 2008 के वर्षों में जब दुनिया मन्दी के चपेट में आ गई थी, दुनिया की सबसे ताकतवर अमरीकी अर्थ व्यवस्था अस्त-व्यस्त-ध्वस्त हो गई थी, लोगों की नौकरियाँ चली गई थीं तब भी हमारी अर्थ व्यवस्था जस की तस बनी रही। तनिक भी नहीं लड़खड़ाई। यह हमारी, अल्प बचतों में जमा पूँजी के दम पर ही सम्भव हुआ था। आज वे ही लघु बचतें मौत की ओर धकेली जा रही हैं। मैं डर रहा हूँ। लेकिन यह डर क्या मुझ अकेले का है?

मैं भारतीय जीवन बीमा निगम का अभिकर्ता हूँ। इसी कारण देश की प्रगति और विकास में इसके योगदान की और इसके महत्व की जानकारी हो पाई है। अपनी शाखाओं के जरिए यह ‘निगम’ प्रतिदिन तीन सौ करोड़ रुपये संग्रहित करता है। 1956 में इसकी स्थापना के समय भारत सरकार ने इसे पाँच करोड़ रुपये दिए थे। यह ‘निगम’ प्रति वर्ष अपने मुनाफे की पाँच प्रतिशत रकम भारत सरकार को देता है। अपनी स्थापना से लेकर अब तक यह संस्थान इस तरह अब तक भारत सरकार को एक पंचवर्षीय योजना के आकार की रकम भुगतान कर चुका है। अपने कोष का 75 प्रशित भाग इसे भारत सरकार की लोक कल्याणकारी योजनाओं के लिए अनिवार्यतः देना पड़ता है। यह वस्तुतः भारत सरकार का कुबेर है। घटती ब्याज दर का असर इसकी पालिसियों के बोनस पर भी पर पड़ेगा। 1991 में बीस वर्षीय मनी बेक पालिसी की बोनस दर 67 रुपये प्रति हजार, प्रति वर्ष और बन्दोबस्ती पालिसी की बोनस दर 72 रुपये प्रति हजार, प्रति वर्ष थी। 1997 के आसपास ब्याज दरों में कमी शुरु हुई। आज यह बोनस दर 42 रुपये प्रति हजार, प्रति वर्ष रह गई है। जाहिर है यह दर और कम होगी। केवल निवेश के लिए बीमा पालिसियाँ लेनेवाले तमाम लोग इससे दूर जाएँगे। जाहिर है, सरकार का कुबेर दुबला होगा ही। बढ़ते पूँजीवाद के समय में, इसकी इस भावी दशा को सरकार की ‘निजीकरण प्रियता’ से भी जोड़ा जा सकता है।

बात बूढ़ों से शुरु हुई थी और दूर तलक, अगली पीढ़ियों तलक चली गई। मेरा डर आपको वाजिब लगता है? और क्या यह डर मुझ अकेले का है?
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इन्दिरा काल की ऋण मुक्ति की वापसी

नोट बन्दी लागू होने के बाद मची अफरा-तफरी के बार से, अपनी योजना को लेकर सरकार द्वारा लगभग रोज ही कोई न कोई बदलाव करने या स्पष्टीकरण देने के बावजूद मैं मानकर चल रहा था कि सरकार ने सब कुछ सुविचारित-सुनियोजित किया है। किन्तु शनिवार तीन दिसम्बर को मुरादाबाद में हुई भाजपा रैली में प्रधान मन्त्री मोदी के भाषण में जन-धन खातों में जमा धन को लेकर खताधारकों को दी गई लोक-लुभावन सलाह और उसके बाद कही बात ने मुझे अपनी धारणा पर सन्देह होने लगा है। जन-धन खाताधारकों को जमा रकम (उसके वास्तविक स्वामियों को) वापस न करने की सलाह देने के बाद मोदी ने कहा कि वे अपना दिमाग खपा रहे हैं कि जन-धन खातों में जमा धन कैसे गरीबों का हो जाए। यह बात पढ़ कर मैं चौंक गया। अपने पढ़े पर विश्वास नहीं हुआ। विश्वास नहीं हुआ कि देश में उथल-पुथल मचा देनेवाले निर्णय को लेकर कोई प्रधान मन्त्री ऐसा कह सकता है।

मुझे सयानों की वह बात याद आ गई जिसके अनुसार दुनिया में तीन तरह के लोग होते हैं। श्रेष्ठ श्रेणी के लोग सोच कर बोलते हैं। मध्यम श्रेणी के लोग बोल कर सोचते हैं और निकृष्ट श्रेणी के लोग न तो सोच कर बोलते हैं न ही बोलने के बाद सोचते हैं। इसके समानान्तर ही मुझे एक श्लोक याद आने लगा जो मैंने भानपुरा पीठ के शंकराचार्यजी से सुना था जिसमेें कहा गया था कि राजा के चित्त का अनुमान देवता भी नहीं कर पाते।  किन्तु श्लोक मुझे याद नहीं रहा। मैंने जलजजी, भगवानलालजी पुरोहित और मन्दसौर में रह रहे मेरे कक्षा पाठी रामप्रसाद शर्मा को टटोला। रामप्रसाद पुरोहिती-पण्डिताई करता है। पहली बार में सबने हाथ खड़े कर दिए। लेकिन कोई दो घण्टों बाद जलजजी ने और अगली सुबह रामप्रसाद ने मेरा मनोरथ पूरा कर दिया। मनुस्मृति का यह श्लोक इस प्रकार है -

नृपस्य चित्तम्, कृपणस्य वित्तम्, मनोरथ दुर्जन मानुषानाम्।
त्रिया चरित्रम्, पुरुषस्य भाग्यम्, दैवो न जानाती, कुतो मनुष्यः।।

अर्थात् राजा के मन की बात, कंजूस व्यक्ति के धन, दुर्जन व्यक्ति की मनोकामना, स्त्री के स्वभाव-व्यवहार और पुरुष के भाग्य के बारे में देवता भी नहीं जान पाते तो साधारण मनुष्य की क्या बिसात कि यह सब जान ले। मोदी देश के प्रधान मन्त्री, देश के राजा हैं। वे वैसे भी इस गुण के कारण अलग से पहचाने जाते हैं कि उनके मन की बात का अनुमान कोई नहीं कर पाता। यहाँ तक कि उनके सहयोगी मन्त्री भी चौबीसों घण्टे ‘मोदी सरप्राइज’ के लिए तैयार रहते हैं। किन्तु मुरादाबाद में कही बात से तो साफ लगता है कि खुद उन्हें ही पता नहीं कि वे क्या चाहते हैं। परोक्षतः उन्होंने देश को सूचित किया है कि वे निर्णय पहले लेते हैं और योजना (और उसके क्रियान्वयन) पर बाद में सोचते हैं। उनकी यह बात, नोटबन्दी लागू होने के बाद आए, योजना में रोज-रोज किए गए बदलावों और दिए गए स्पष्टीकरणों से अपने आप जुड़ जाती है और लोगों को इस निष्कर्ष पर पहुँचने की छूट देती है कि यह योजना सुविचारित-सुनियोजित नहीं है। योजना लागू होने के बाद से आज तक एक दिन भी सामान्य नहीं बीता है। योजना के प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रभावों से प्राण गँवानेवालों की संख्या सौ के आँकड़े की ओर सरकती नजर आ रही है। अब तो लगता है मानो ‘तब की तब देखी जाएगी’ वाली मनःस्थित में योजना लागू कर दी गई हो। निश्चय ही यह सब न तो सरकार के लिए अच्छा है न ही ‘टाइम’ पत्रिका द्वारा ‘वर्ष का नायक’ (मेन ऑफ द ईयर) जैसे अन्तरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्रतीक से नवाजे जानेवाले मोदी के लिए। 

जन-धन खातों में जमा रकम उसके मूल स्वामियों को न लौटाने की सलाह देते समय मोदी यदि इन्दिरा गाँधी की ’ऋण-मुक्ति’ योजना और उसके परिणामों को याद कर लेते तो सबके लिए अच्छा होता। इन्दिरा गाँधी की इस महत्वाकांक्षी योजना के अन्तर्गत गाँवों के लोगों को साहूकारों के कर्ज से तो मुक्ति मिल गई थी किन्तु उसके बाद ऋण-मुक्त लोगों की सुध किसी ने नहीं ली और वे अनाथों से भी बदतर दुर्दशा में आ गए थे। हमारी ग्रामीण अर्थ व्यवस्था आज भी कर्ज पर ही आश्रित है। इन्दिरा गाँधी के काल में किसानों को बैंकों से इतनी आसानी से और इतना सुविधाजनक कर्ज नहीं मिलता था। किसान मँहगी दर पर ब्याज देनेवाले साहूकारों पर ही निर्भर थे। इन्दिरा गाँधी की योजना से साहूकारों ने ब्याज ही नहीं अपना मूल धन भी खो दिया था। इससे नाराज हो  साहूकारों ने किसानों को कर्ज देना ही बन्द कर दिया। दूसरी ओर बैंकों से कर्ज मिलना शुरु नहीं हुआ। हालत यह हो गई थी कि किसान अपने खेत तैयार कर खाद-बीज से खाली हाथों अपना माथा टेके खेत की मेड़ पर बैठे मिलते थे। बैंक और सरकार मदद को सामने आए नहीं और दूध के जले साहूकारों ने पीठ फेर ली। परिणामस्वरूप, ‘गरीबी हटाओ’ का लोक-लुभावन नारा देने वाली इन्दिरा के राज में गरीब पूरी तरह भगवान भरोसे हो गए थे। जन-धन खातों में जमा रकम वापस न करने की सलाह देकर मोदी उसी इतिहास को नहीं दोहरा रहे?

काला धन सारे जन-धन खातों में जमा नहीं हुआ है। सामने आए आँकड़ों के मुताबिक ऐसे खाते एक प्रतिशत ही हैं। याने, मोदी यदि इसे गरीबों को नोटबन्दी से होनेवाला लाभ मानते हैं तो लगभग निन्यानबे प्रतिशत गरीब तो इस लाभ से वंचित रह गए। दूसरी बात, जिनके खातों में रकम जमा हुई है, वे सब के सब अपनी रोजी-रोटी के लिए उन्हीं पर निर्भर हैं जिनकी रकम है। अपवादस्वरूप ही किसी खाते में इतनी रकम जमा हुई होगी कि जो जिन्दगी बना दे। आज की तारीख में कोई भी अपनी रकम एक साथ पूरी की पूरी नहीं निकाल सकता। अपना काम-धन्धा शुरु करने के लिए एक मुश्त रकम चाहिए। रकम न लौटानेवाले को रकम का मूल स्वामी हमेशा के लिए नमस्कार कर लेगा। रकम ने यदि जिन्दगी भर साथ न दिया तो रोजगार के लिए कोई नया मालिक तलाश करना पड़ेगा। नए मालिक तक यदि विश्वासघात की कहानी पहुँच गई तो? इन सारी बातों से बढ़कर और सबसे पहले, अन्तरात्मा का भय। लोक अनुभव है कि गरीब आदमी लालची नहीं होता। गरीब की ईमानदारी के अनगिनत किस्से हमारे आसपास ही बिखरे हुए हैं। रोटी के लिए वह भीख माँग लेगा लेकिन चोरी नहीं करेगा। हम देख रहे हैं कि (चोरी करने का) यह काम भरे पेटवाले बड़े लोग ही करते हैं। ऐसे में, रकम का मूल स्वामी न भी कहेगा तो भी लोग यह रकम लौटा देंगे। तब हो सकता है कि कार्पोरेट घरानों की मदद से सिंहासन तक पहुँचने की सफलता हासिल करनेवाले मोदी के इस मनोरथ को देश के गरीब विफल कर दें। मोदी के आह्वान पर यदि लोगों ने अमल करने की हिम्मत कर भी ली तो ‘मालिक-मजदूर’ का रिश्ता संदिग्ध हो जाएगा। यह सर्वथा नया, अकल्पनीय सामाजिक-आर्थिक संकट होगा। गिनती के कुछ गरीब जरूर सम्पन्न हो जाएँगे।  किन्तु गरीब की ईमानदारी संदिग्ध हो जाएगी और लोगों को मजदूरी हासिल करने में मुश्किल होने लगेगी। यह विचित्र स्थिति होगी।

पता नहीं ‘राजा’ के मन में क्या है। कोई कल्पना करे भी तो कैसे? अभी तो राजा खुद ही अपने मन की बात नहीं जानता! यह स्थिति किसी के लिए सुखद नहीं है। यह ठीक समय है जब नोटबन्दी की विस्तृत योजना देश के सामने सुस्पष्ट तरीके से रख दी जाए। योजना संदिग्ध हो, चलेगा। किन्तु अपने अनिश्चय, अस्पष्टता के कारण ‘राजा’ पर सन्देह करने की स्थिति बने, यह किसी के लिए हितकारी नहीं है। न देश के लिए, न ही खुद ‘राजा’ के लिए।
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सुखद भविष्य की प्रतीक्षा में दुःखद वर्तमान

कल एक डॉक्टर मित्र के पास बैठा था। एक रोगी हर सवाल का जवाब बड़े ही अटपटे ढंग से दे रहा था। वह शायद शरीरिक नहीं, मनोरोगी था। तनिक विचार कर डॉक्टर मित्र ने अपनी दराज से एक शीशी निकाली और मरीज को कहा कि वह बाहर जाए और शीशी की बाम माथे पर लगा कर दस मिनिट बाद आए। मरीज ने निर्देश पालन तो किया किन्तु दस मिनिट के बजाय दो मिनिट में ही लौट आया। बोला कि उसे ललाट पर असहनीय जलन हो रही है। डॉक्टर ने बड़े ही प्यार से फटकारते हुए कहा कि वह बाहर ही बैठे और दस मिनिट बाद ही आए। मरीज ने कहा कि जलन बर्दाश्त से बाहर है, दस मिनिट तो क्या वह एक पल भी प्रतीक्षा नहीं कर सकता। डॉक्टर ने अचानक ही पूछा कि वह जो समस्या लेकर आया था, उसका क्या हाल है। मरीज झुंझलाकर बोला कि वह समस्या तो गई भाड़ में, डॉक्टर पहले उसे बाम की जलन की इस नई झंझट से मुक्त कराए। डॉक्टर ने दूसरा लेप देकर उसे कष्ट मुक्त किया। वह सन्तुष्ट और प्रसन्न हो चला गया। मुझे बात समझ नहीं आई। डॉक्टर ने कहा कि उसने रोगी की मौजूदा परेशानी से बड़ी परेशानी पैदा कर दी। रोगी अपनी सारी परेशानियाँ भूल गया और इस नई परेशानी से मुक्ति की कामना करने लगा। अपनी बात स्पष्ट करते हुए डॉक्टर मित्र ने कहा-‘‘मोदीजी बहुत समझदार डॉक्टर हैं। लोग नोटबन्दी में ऐसे व्यस्त हो गए हैं कि अपनी और देश की बाकी सारी समस्याएँ भूल गए हैं। देश के चर्चित सारे मुद्दे भूलकर अब उनकी एक ही चिन्ता है कि सुबह जल्दी से जल्दी बैंक की लाइन में लगें, उनका नम्बर जल्दी आए और वे दो-चार हजार रुपये प्राप्त कर सकें। रुपये मिलने की खुशी के साथ ही साथ वे अगले सप्ताह फिर लाइन में लगने की योजना और चिन्ता में व्यस्त हो जाते हैं। मैंने यही ‘मोदीपैथी’ अपनाई। किया कुछ नहीं और मरीज खुश। मेरी फीस भी वसूल।‘‘

और यह आज सुबह की बात है। एक वामपंथी मित्र मिल गए। भुनभुनाते हुए मोदी माला जप रहे थे। बोले-‘पूरा देश परेशान है। समूचा सर्वहारा वर्ग दाने-दाने को तरस गया है। काम पर जाने के लिए रोटी चाहिए और रोटी के लिए काम। लेकिन रोटी और काम-धाम छोड़ कर, भूखा-प्यासा बैंकों के सामने लाइन में खड़ा है। मध्यम वर्ग अपना ही पैसा पाने के लिए भिखारी बन गया है। ताज्जुब यह कि फिर भी नाराज नहीं है। छù देशभक्ति के नशे में मद-मस्त हैं। मार्क्स आज होते तो खुद की बात को अधूरा अनुभव करते और कहते कि धर्म के साथ-साथ देशभक्ति भी अफीम के नशे की तरह होती है।’

लोगों को बाम लगा दी गई है या देशभक्ति की अफीम पिला दी गई है? पता नहीं सच क्या है। लेकिन मैं ‘जेबी’ की बातों से दहशतमन्द हूँ और ईश्वर से प्रार्थना कर रहा हूँ कि ‘जेबी’ की कोई बात सच न हो। छप्पन वर्षीय, इजीनीयरिंग स्नातक ‘जेबी’ मुझ पर अति कृपालु रहा है। उद्यमी भी है और व्यापारी भी। व्यापार ऐसा कि न चाहे तो भी सौ-दो सौ लोगों से रोज मिलना ही पड़ता है।  अर्थशास्त्र और मौद्रिक नीति भले ही न जानता हो लेकिन बाजार की और लोगों के व्यवहार की समझ उसके खून में है। सिद्धान्त और व्यवहार में समन्वय बैठाने में माहिर। कुछ लोग नोटबन्दी से उपजी परेशानियों का रोना रोने लगे तो बोला-‘अब तक जो भोगा-भुगता उसे भूलो और अगले सप्ताह की तैयारी करो। अगला सप्ताह और अधिक भयावह होगा।’ मित्रों की कृपा के कारण नोटबन्दी के कष्ट मुझे शून्यवत ही भुगतने पड़े। दो बार बैंकों की कतार में खड़ा हुआ जरूर लेकिन अनुभव प्राप्त करने के लिए। अनुभव सुखद नहीं रहे। सो, ‘जेबी’ की बात सुनते ही मेरे कान खड़े हो गए और दिल अधिक तेजी से धड़कने लगा। ‘जेबी’ के मुताबिक अगले सप्ताह लोगों के हाथों में पैसा होने के बावजूद चिल्ला-चोट मचेगी। पहली तारीख को लोगों को वेतन मिलेगा। वेतन खाते में जमा हो या नगद मिले, मिलेंगे दो-दो हजार के नोट ही। खुद सरकार के मुताबिक, चलन में हजार-पाँच सौ के नोट 86 प्रतिशत थे। याने, सौ, पचास, बीस, दस पाँच और दो रुपये के सारे नोट मिला कर कुल 14 प्रतिशत बाजार में उपलब्ध हैं। बन्द किए गए बड़े नोटों के बराबर नोट बाजार में आए नहीं। छोटे नोटों की उपलब्धता 14 प्रतिशत ही है। यहाँ अर्थशास्त्र का जगजाहिर, ‘माँग और पूर्ति’ का सिद्धान्त लागू होगा। रिजर्व बैंक खुद कह रहा है कि नए नोट समुचित मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं। सरकार संसद में कुछ भी कहे लेकिन बाहर सरकार के मन्त्री सार्वजनिक रूप से कबूल कर रहे हैं कि नोटों की कमी है। ऐसे में छोटे नोटों की माँग एकदम बढ़ेगी। लोग अपनी पत्नी के हाथ में वेतन देते हैं और पिछले महीने की छोटी-छोटी उधारियाँ चुकाते हैं। घर-गृहस्थी का रोज का खर्च छोटी-छोटी रकमों में होता है। लेकिन बाजार में 100 के नोट के बाद सीधे 2000 का नोट है। पाँच सौ के नए नोट सरकार ने बाजार में उतारे जरूर हैं लेकिन वे न तो पूरे देश में एक साथ उपलब्ध हैं न ही उनकी संख्या पर्याप्त है। ऐसे में सौ के नोट की माँग एकदम बढ़ेगी और उसकी काला बाजारी शुरु हो जाएगी। नोटबन्दी के पहले दौर में लोग रुपये न मिलने के कारण रोटी हासिल नहीं कर पा रहे थे। लेकिन इस दूसरेे दौर में हो सकता है कि हम, हाथ में रुपये होते हुए लोगों को रोटी के लिए तरसते हुए देखें। 

‘जेबी’ के मुताबिक, निजी क्षेत्र के कर्मचारियों, मजदूरों में से अधिकांश के बैंक खाते नहीं हैं। उन्हें नगद भुगतान होता है। यदि बैंक खातों की बाध्यता हुई तो ऐसे तमाम लोग ‘सम्पन्न भिखारी’ की दशा में आ जाएँगे। ऐसे लोगों के खाते तत्काल ही खोलना आसान नहीं है। बैंक कर्मचारी पहले ही काम के बोझ से दबे हुए हैं। छोटे नोटों की कमी से उपजी इस नई स्थिति में उनकी और अधिक दुर्दशा होना तय है। ऐसे में नए खाते खोलने का काम उनके लिए ‘कोढ़ में खाज’ जैसा होगा। इन नए खातों के लिए छोटे नोट उपलब्ध कराना याने एक और मुश्किल। ‘जेबी’ ताज्जुब करता है कि एक छोटे व्यापारी को नंगी आँखों नजर आ रही इन सारी बातों का पूर्वानुमान सरकार क्यों नहीं कर पाई? ‘जेबी’ इस बात पर भी चकित है कि सरकार को दो हजार के बजाय दो सौ रुपयों का नोट निकालने का विचार क्यों नहीं आया। सरकार यदि दो सौ रुपयों का नोट निकाल देती तो इस अनुमानित संकट की भयावहता दस प्रतिशत ही रह जाती। 
‘जेबी’ की बातें सुन-सुन कर मेरा दिल बैठा जा रहा है। मैं अर्थशास्त्र का विद्यार्थी कभी नहीं रहा। रुपये-पैसों की समझ अब तक भी नहीं हो पाई है। उत्तमार्द्ध का कुशल प्रबन्धन और मित्रों के अतिशय-कृपापूर्ण और चिन्तापूर्ण सहयोग के कारण मुझे आटे-दाल का भाव कभी-कभीर ही मालूम हो पाता है। लेकिन बैंकों के सामने कतारों में खड़े आकुल-व्याकुल लोग नजर आते हैं, उनके पीड़ाभरे अनुभव व्यथित करते हैं। बाजार की स्थिति यह कि मेरे व्यापारी बीमा ग्राहक भी पुराने बीमों की किश्तें जमा नहीं कर पा रहे हैं। सत्तर से अधिक मौतें चित्त से ओझल नहीं होती। ये और ऐसी तमाम बातें उदास और निराश करती हैं।

उलझन में हूँ। यही सोचकर सन्तुष्ट होने की कोशिश कर रहा हूँ कि पूरे देश की प्रबल अपेक्षा-आकांक्षा बनी हुई नोटबन्दी को हम ‘सुखद भविष्य की प्रतीक्षा में दुःखद वर्तमान’ समझ कर सहयोग करें। 
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