प्रो. प्रेमशंकर रघुवंशी
(प्रेमशंकरजी के बारे में मैं कुछ नहीं जानता। हरदा में भी मेरे कोई सम्पर्क नहीं। उनका चित्र चाहिए था - सम्भव हो तो दादा के साथ। लेकिन उनसे सम्पर्क कैसे करूँ? अचानक याद आया, मेरा प्रिय राजीव रत्न जैन, हरदा में नौकरी कर चुका है। उसे सन्देश दिया। उसने ज्ञानेशजी चौबे का नम्बर दिया और इस तरह मुझे प्रेमशंकरजी और ज्ञानेशजी का चित्र मिल पाया। ज्ञानेशजी ने बताया - ‘प्रेमशंकरजी नहीं रहे। होते तो वांछित चित्र की तलाश करते।’ राजीव, हरदा में केनरा बैंक का शाखा प्रबन्धक रहा था। इन दिनों भोपाल में, सीनीयर मैनेजर के पद पर पदस्थ है। चित्र में बॉंयी आरे ज्ञानेशजी हैं और प्रेम शंकरजी दाहिनी ओर।)
मेरा दृढ़ मत है कि किसी भी रचनाकार पर कुछ कहना या लिखना हो तो, उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व के साथ उसके उन पत्रों में उसकी साक्षात उपस्थिति मौजूद रहती है, जिन्हें वह अपने अन्तरंगों, दोस्तों, सम्बन्धियों को लिखता रहता है। वहाँ वह बिल्कुल अनौपचारिक और निर्बन्ध होता है। क्या नहीं होता ऐसे पत्रों में? सब कुछ खुला और खिला होता है। कलावन्त के बारे में तो यह बात और भी सही है, जहाँ उसकी चेतना साकार रूप में उसके पत्रों में दिखाई देती है। शमशेर की एक कविता है -‘बात बोलेगी हम नहीं, भेद खोलेगी बात ही।’ ‘बात’ की जगह ‘पत्र’ लिखकर और इसे यूँ कह दो ‘पत्र बोलेंगे, हम नहीं, भेद खोलेंगे पत्र ही’ तो यह उक्ति श्री बालकवि बैरागी के बारे में शत-प्रतिशत सही होगी।
पत्रवीर हैं बैरागीजी। हिन्दी के आचार्य कुलपति ने अपने ‘रस रहस्य’ ग्रंथ में वीर रस का वर्णन इस प्रकार किया है-
‘युद्ध दान अरु दया, पुनि धर्म सु चारि प्रकार
अरिबल समय विभाव यह, युद्धवीर विस्तार।
कचन अरुणता वदन की, अरु फूलें सब अंग
यह अनुभाव बखानिये, सब वीरन के संग।।
आचार्य कुलपति ने वीर रस के चार प्रकार निरूपित किए हैं - युद्धवीर, दानवीर, दयावीर और धर्मवीर। यदि ये आचार्य आज होते और बालकवि बैरागी के अन्तरंग होते तो निश्चय ही वीर रस के पाँच प्रकार गिनाते और यह पाँचवाँ रस होता-पत्रवीर। वे नहीं हैं तो क्या हुआ, हम तो हैं और हम इस पाँचवें प्रकार में बैरागीजी जैसे पत्रवीर को प्रतिष्ठित-प्रवर्तित करने में संकोच नहीं करेंगे। उनके पत्रों में ‘पत्रवीर’ के सभी तत्व मौजूद रहते हैं। वीर रस का स्थायी भाव उत्साह है। आप उन्हें पत्र दीजिए और देखिए कि कैसे उत्साह से वे उत्तर देते हैं। उस पत्र में आपका पत्र उनका आलम्बन तो होगा ही, जिसके कारणवे उत्तर देंगे, लेकिन उनका पत्र मात्र उत्तर नहीं होगा। पत्रोत्तर में प्रेषक की जिज्ञासाओं का शमन करता उद्दीपन, तदनुकूल विचार सम्प्रेषण का अनुभावन और हर्ष, उत्साह, तर्क आदि विभावन के रूप में उपस्थित होंगे। वीर रस के पात्र एक दूसरे के विरोधी होते हैं, किन्तु ‘पत्रवीर’ तो एकदम स्वतन्त्र साहचर्य तथा सामंजस्य भाव से ओतप्रोत होता है।
बैरागीजी अकेले ही पत्रवीर हों, ऐसा नहीं। उनकी अन्तरंगता अपने समय के अनेक पत्रवीरों से रही है। उनमें एक नाम अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। वह है पं. भवानी प्रसाद मिश्र उर्फ मन्ना उर्फ ‘भवानी दा’। बैरागीजी उन्हें ‘भवानी दा’ के नाम से सम्बोधित करते रहे। अपनी छोटी से छोटी उलझन-सुलझन-खुशी-गम उन्हें लिखते रहे और वे उनका तुरन्त उत्तर देते रहे। बानगी बतौर भवानी भाई का एक पत्र प्रस्तुत है, जिसे बैरागीजी ने इन पंक्तियों के लेखक द्वारा सम्पादित ‘भवानी भाई’ ग्रंथ में ‘व्यक्ति व्यक्ति के बीच अपरिचय के विंध्याचल’ (पुष्ठ-169) आलेख में अपनी इस टिप्पणी के साथ दिया है - ‘नए आदमी को भवानी दा कभी टूटने नहीं देते। मुझे बीच में निराशा का दौरा पड़ा। काफी साल पुरानी बात है। मैंने ‘दा’ को चिट्ठी लिखी कि मेरे लेखन पर फलाँ ऐसा कहता है और अमुक ऐसा बोलता है।’ दा ने फौरन पोस्टकार्ड उठाया और उस पर लिखा -
प्रिय बैरागी,
तुम्हारा पत्र मिला। प्रसन्न रहो। तुम जैसा लिखते हो, वैसा लिखते रहो और जैसा पढ़ते हो, वैसा ही पढ़ते रहो। नदी जब निकलती है तो यह तय करके नहीं निकलती कि वह इतनी लम्बी और इतनी चौड़ी बहेगी। उसका काम है निकल जाना और सागर की ओर सतत् बढ़ते जाना। रहा सवाल अमुक ऐसा कहता है, अमुक ऐसा बोलता है, तो एक बात सुन लो! इन आलोचकों की परवाह मत करो। धरती पर आज तक एक भी आलोचक का स्मारक नहीं बना है।
सबको अच्छा भला।
तुम्हारा
भवानी प्रसाद मिश्र
इसी तरह की बात भवानी भाई के बेटे अनुपम मिश्र ने भवानी भाई पर लिखे अपने संस्मरणात्मक आलेख ‘मन्ना: वे गीतफरोश भी थे’ में लिखा है - ‘एक बार मैं चाय देने मन्ना के कमरे में गया तो सुना, वे किसी से कह रहे थे - ‘मूर्ति तो समाज में साहित्यकार की ही खड़ी होती है, आलोचक की नहीं।’ ये सम्भवतः बैरागीजी ही रहे होंगे। मुझे बैरागीजी की इस मनोदशा की हल्की-सी जानकारी भवानी भाई ने तब दी थी।
इस सन्दर्भ में एक वाकया तो मेरे सामने का ही है। तब मैं विदिशा में शिक्षक था। (वहाँ 62 से 77 तक रहा) वहाँ तिलक चौक पर एक विराट कवि सम्मेलन गिरीश वर्मा (तब के नगरपालिका अध्यक्ष) ने करवाया था। उस कवि-सम्मेलन के संचालन का भार मुझे सौंपा था। उन्हीं दिनों डॉ. विजयबहादुर सिंह वहाँ के एस. एस. एल. जैन महाविद्यालय के हिन्दी विभाग में नियुक्त होकर आए थे। मैंने और मेरे साथी रघुनाथ सिंह ने यह तय किया कि अपार भीड़ देखते हुए हम व्यवस्था का काम देखें। तो हम लोग इस काम में लग गए और संचालन का भार विजयबहादुर सिंह को सौंप दिया। कवि-सम्मेलन शुरु हुआ। पहला दौर समाप्त हो चुका, तब तक बैरागीजी नहीं आ पाए थे। सारा समूह बैरागीजी को सुनने उमड़ा था। उनकी ट्रेन काफी विलम्ब से आई। वे दूसरे दौर के प्रारम्भ होते वक्त अवतरित हुए तो विजयबहादुर सिंह ने एक आलोचक के रूप में टिप्पणी करते हुए उन्हें मंच पर आमन्त्रित किया। जनता गद्गद। बीच-बीच में बैरागीजी की टिप्पणियाँ भी होतीं और कविता पाठ भी। उनकी टिप्पणियों पर विजयबहादुर भी टिप्पणी करने लगे और नौबत यहाँ तक आ गई कि हिन्दी साहित्य के इतिहास को पढ़ाने वाले शिक्षक विजयबहादुर सिंह ने उन्हें वीरगाथाकाल, जिसे चारणकाल भी कहते हैं, से जोड़कर टिप्पणी देना शुरु कर दिया तो कवि-सम्मेलन का मजा ही बिगड़ गया और कवि सम्मेलन समाप्ति की घोषणा भी संचालक ने कर दी तो जनता बिफर पड़ी। जनता बैरागी जी को सुनना चाहती थी। इसके बाद मंच से घोषणा की गई कि शीघ्र ही बैरागीजी अमुक जगह कविता सुनाएँगे। आप लोग वहाँ आइए। लोग गए और उन्हें सुबह तक सुना। इस सारी घटना के दौरान मजाल है कि बैरागीजी को तनिक भी तैश आया हो।
यहाँ आते-आते मुझे बैरागीजी की कुछ प्रेरक एवं प्रकाशन योग्य बातें याद आ रही हैं, किन्तु मुझे उनके ‘पत्रवीर’ पक्ष पर ही आरूढ़ रहना चाहिए ताकि उनके व्यक्तित्व के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पक्ष की बानगी दी जा सके। अब मैं अपनी तरफ से बहुत कम बोलते हुए उनके कुछ पत्र देना ज्यादा मुनासिब समझता हूँ ताकि - ‘बैरागी के पत्र बोलें, हम नहीं। भेद खोलें पत्र ही।’
बात उन दिनों की है जब भवानी प्रसाद मिश्र के सम्मान समारोह के संयोजन में सिवनी मालवा (होशंगाबाद, म.प्र.) के लोग एकजुट होकर व्यस्त थे। मुझे इसका संयोजन सौंपा था समिति ने। तो सारे पत्राचार और ‘भवानी भाई’ ग्रंथ से लेकर स्मारिका तक के काम में लगा था। इसी प्रसंग पर बैरागीजी से डटकर पत्राचार प्रारम्भ हुआ और बनते-बनते ऐसे सम्बन्ध बन गए कि वे मेरे अग्रज और मैं उनका अनुज हो गया। उस काल के पत्राचार में से उनके ये कुछ पत्र यहाँ दे रहा हूँ।
बैरागीजी को भवानी भाई के सम्मान पर्व पर आना ही था, लेकिन लगातार तय हो होकर समारोह की तिथियाँ बदलती रहने के कारण वे अन्यत्र व्यस्त होते रहे। इस कारण समारोह में नहीं आ सके, जिसका उन्हें कितना मलाल हुआ होगा, इसका अन्दाज उनके इस पत्र से लगाया जा सकता है। उन्होंने यह पत्र अपनी कवि-सम्मेलन की यात्रा के दौरान 13-11-73 को नागपुर से उस वक्त लिखा जब उन्हें वहाँ सिवनी मालवा के समारोह के बारे में विस्तार से जानकारी मिली। लिखा -
प्रिय भाई रघुवंशीजी
सादर नमस्कार
3/11 का आपका पत्र कल यहाँ मिल पाया है। इस बीच खामगाँव में विनोद निगम मिल गए थे। समारोह के समाचार सब दूर से प्रेरक हैं। बार-बार बधाई। मैं यदि आने की स्थिति में होता तो बराबर आ ही जाता। शायद आप विश्वास नहीं करेंगे, पर इस समय फरवरी’ 74 का एडवांस मैं ले रहा हूँ। हाँ, मैं सीधा सपाट आदमी हूँ, इसलिए सफाई देना ठीक नहीं समझता। क्या आप ऐसा समझते हैं कि सिवनी मालवा मैं जानबूझकर नहीं आया? ऐसा कहने और समझने वाले लोग अपने संस्कारों का परिचय मात्र देते हैं। मैं विश्वास करता हूँ कि आपने ऐसा नहीं समझा होगा। भवानी दादा के प्रति मेरा रोम-रोम कृतज्ञ है। आप इस आयोजन के द्वारा मेरे लिए वन्दनीय हो गए हैं। जब मिलेंगे तो आपको मेरी मनःस्थिति का अनुमान लग सकेगा। आपकी प्रचण्ड संकल्प शक्ति की दिव्यता मैं सह नहीं सकूँगा। खैर।
ग्रंथ मुझे नहीं मिला है। उसका बेरंग पार्सल कर दो या डाकखर्च सहित वीपीपी कर दो। मैं ‘भवानी भाई’ ग्रंथ के प्रति आतुर हूँ।
समारोह को लेकर कई पत्र आए, लेकिन बैरागीजी का यह पत्र मेरे मन पर छाया रहा। ढेर सारे पत्रों के उत्तर देने और समारोह की थकान मिटाने के बाद जब मैं अपनी शिक्षक की नौकरी पर बलड़ी (बड़केश्वर, हरसूद, म.प्र. जो अब पुनासा बाँध के कारण जल समाधि ले चुका है) गया तो वहाँ खुद को काफी उखड़ा-उखड़ा-सा महसूस किया। वजहें और भी रही होंगी। मुझे लगा कि नौकरी छोड़ दी जाए। इसके लिए मन में त्यागपत्र देने का तीव्र विचार आया। सोचा इसके पूर्व बैरागी जी से सलाह ले ली जाए। उन्हें उनके पत्र का उत्तर भी देना था। दोनों काम एक साथ कर लिए जाएँ। सो मैंने उन्हें एक लम्बा पत्र लिखा, जिसके उत्तर में बैरागीजी ने जो पत्र दिया, वह प्रस्तुत है। यदि यह पत्र यथासमय नहीं आता तो मैं त्यागपत्र दे ही चुका होता। बैरागीजी ने लिखा -
मनासा (म.प्र.)
जिला मन्दसौर
10 दिसम्बर, 1973
प्यारे भाई
नमस्कार
आपका लम्बा पत्र आज ही मिला। आभारी हूँ। इस स्नेह का कोई प्रतिदान या प्रत्युत्तर मेरे पास नहीं है। बहुत-बहुत धन्यवाद। इस बीच मैं दिल्ली हो आया, पर दादा वहाँ नहीं थे। तब मध्य प्रदेश में थे। उनसे मिलने का मन बहुत था, फिर कोशिश करूँगा।
हाँ, मुझे ‘भवानी भाई’ ग्रंथ नहीं मिला है। उसको प्राप्त करने के लिए क्या किया जा सकता है। शायद उसमें मेरा लेख होगा। मुझे रास्ता सुझाएँ ताकि मेरी लायब्रेरी में मैं उसे पा सकूँ। सोनी सा’ब को पत्र दूँगा। मुझे अच्छा लगा कि आप उनके प्रति इतने कृतज्ञ हैं। शायद यही विनम्रता किसी सर्जक का सम्बल होती है।
समय का इन्तजार करें। नौकरी अभी कदापि नहीं छोड़ें। मैं मानता हूँ और जानता हूँ कि नौकरी छोड़ने के बाद आप और बड़ा काम करने का साहस जुटा सकेंगे, पर छोटे काम को यूँ छोड़ देना भी अच्छा नहीं है। त्रिभुज के एक कोण बने रहो, किसी दिन एक कोण टूटा कि तीनों भुजाएँ सीधी रेखा में खिंच जाएँगी अपने आप।
इस बीच मेरे द्वारा सम्पादित ग्रंथ ‘भवानी भाई’ की प्रति उन्हें मिल चुकी तो उस पर प्रतिक्रियास्वरूप लिखा उनका यह पत्र पेश है -
मनासा (म. प्र.)
4 जनवरी, 1974
भाई श्री रघुवंशीजी
सादर नमस्कार
नव वर्ष का अभिवादन लो। हार्दिक शुभ कामना और बधाइयाँ।
एक सप्ताह की यात्रा से कल ही लौटा ‘भवानी भाई’ (ग्रंथ) की मेरी प्रति तैयार मिली। यार! मजा आ गया। एक बढ़िया काम हो गया। सब कुछ श्रेष्ठ है। सम्पादन से लेकर सम्पादित तक सब मनोहर है। आपका अतिरिक्त अभिनन्दन।
आपका सम्पादकीय आलेख तो भवानी भाई पर पूरा ‘पेपर’ है। दस्तावेज हो गया। मिलने पर मुँह मीठा करवा दूँगा।
कोई भी व्यक्ति हिन्दी की ‘नई कविता’ या ‘नई कविता आन्दोलन’ के नीरस रेगिस्तान में साँस लेने को आश्वस्त होकर इस ‘ओसिस’ में सहारा ले सकता है। अनास्था और विक्षिप्त कलमों के बीहड़ इस में भवानी भाई समूची काव्य मेधा का उद्धार करनेवाले अवतार निकले। वाकई वे कहीं-कहीं अलौकिक हैं।
इधर ग्रंथ की खपाई का वातावरण बना कर समाचार दूँगा। सबको यथायोग्य ।
लगे हाथ 22-2-85 को भवानी भाई की मृत्यु के बाद उनसे अपना शोक बाँटने के लिए लिखे मेरे पत्र का जो उत्तर उनने दिया, वह भी प्रस्तुत कर दूँ -
बालकवि बैरागी
सदस्य लोकसभा
(मन्दसौर जावारा संसदीय क्षेत्र )
आदरणीय श्री प्रेमशंकरजी
सादर प्रणाम
पत्र मिला। आभारी हूँ।
आपके पत्र ने मुझे एक लम्बी उदासी दी है। पूज्य मन्ना (भवानी दादा) के साथ जीना बहुत आसान था, पर अब उनको जीना बहुत मुश्किल है। रह-रहकर एक अनमनापन ज्वार की तरह आता है और मुझे लपेटकर चला जाता है। बड़ा कठिन हो गया है इस महानगर में सिर टिकाने को सतपुड़ा का सीना ढूँढना। कहीं कोई नहीं। आप तो मुझे अग्रज मानकर कुछ आश्वस्त होने का बहाना भी कर रहे हैं, लेकिन मैं किससे, क्या कहूँ? कुछ समझ नहीं पड़ता। प्रभु न जाने किस निमित्त हमें बनाए बैठा है?
और सब यथावत है। सभी को मेरा आदर।
बैरागीजी का व्यक्तित्व ही ऐसा है कि वे आपको अपने अन्दर आपकी क्षमता से कहीं ज्यादा धँसने की छूट देते हैं। यदि आप किसी मुद्दे, किसी बात या किसी विचार से असहमत हैं तो भी वे बिना आग्रह, दुराग्रह, पूर्वाग्रह और अनुग्रह के आपके आत्मीय रहेंगे ही। ऐसे मौकों पर वे आपकी उलझनों को सुलझाने काभरसक प्रयास भी करेंगे और चाहेंगे कि आप उनके सामने खुलकर अपनी बात रख सकें। 1980 में वे मध्य प्रदेश सरकार के खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति राज्य मन्त्री थे। तब मैंने उनके बारे में छपी अनर्गल खबरों को अखबार में पढ़कर लिखा तो इतनी व्यस्तता के बावजूद उनका यह पत्र आया -
बालकवि बैरागी
राज्य मन्त्री
खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति
आदरणीय प्रो. प्रेम भाई
सादर अभिवादन।
आपका पत्र मिला। धन्यवाद।
समाचारपत्रों से जब आप घटनाओं का पारदर्शन करेंगे तो कई धब्बे रह जाएँगे। मेरे प्रति आपकी आत्मीयता कहीं आपको दूसरों के प्रति अनात्मीय नहीं बना दे, यह डर बना रहता है। अस्तु, जब आप पद को बड़ा मानेंगे तो बहुत घाटे में रहेंगे। छोड़िए भी। जब भी भोपाल पधारें, अवश्य मिलें। मुझे खुशी होगी।
सबको मेरा नमस्कार।
भाई
बालकवि बैरागी
ये कुछेक पत्र हैं, जिन्हें बिना काट-छाँट और सम्पादन के यथावत देकर उनके पत्र-व्यक्तित्व के परिचय की बानगी दी है। जिन लोगों ने बैरागीजी को काव्य पाठ करते हुआ सुना हो या बातचीत करते हुए अथवा उनकी रचनाएँ पढ़ते हुए उन्हें आत्मसात किया हो या विधानसभा और लोकसभा में बोलते हुए देखा हो, वे मेरी इस बात से अवश्य सहमत होंगे कि इन सब रूपों में वे एक प्रेरक की भूमिका अदा करने की नैसर्गिक कला में माहिर हैं और इस कला का सर्वाधिक समर्थ रूप किसी भी व्यक्ति का उसके द्वारा लिखा हुआ पत्र ही होता है। उनका खाना, पीना, उठना, बैठना, देखना, सुनना, चलना, फिरना, कहना, कहलाना सब मानो पत्रमय होता है। अद्भुत प्रेषणशैली उनकी जुबान और कलम दोनों से झरती है। बैरागीजी के साहित्य का सर्वाधिक विचार एवं भाव सम्पन्न रूप उनके पत्रों में व्याप्त है।
उन्होंने असंख्य पत्र लिखे हैं, इतने कि एक जगह एकत्र कर लिए जाएँ तो उनसे कई मर्तबा उनका तुलादान हो सकता है। मेरा आग्रह है कि कोई न कोई उनके पत्रों को एकत्र करने का संकल्प लेकर उनपर काम करे। ऐसा करने वाले जिज्ञासु को उनके व्यक्तित्व की अनेक परतों को उद्घटित करने का मौका तो मिलेगा ही, इसके अलावा उनके पत्रों के माध्यम से आजादी के जवान होते जा रहे उस काल से आज तक के भारतीय समाज में घटित होते रहे प्रत्येक साहित्यिक, राजनीतिक, सामाजिक स्पन्दन का भी प्रामाणिक दस्तावेज पेश करने का मौका मिल सकेगा।
बैरागीजी के पत्र मात्र खैरियत के आदान-प्रदान की इच्छा से लिखे पत्र ही नहीं होते, उनमें एक सजग नागरिक, एक जाग्रत सर्जक, एक समाज सुधारक, एक गाँधीवादी विचारक और अवाम के सुख-दुःख में शरीक एक फिक्रमन्द आदमी की वे तमाम चिन्ताएँ होती हैं, जिनमें वे आपको भी शामिल कर लेते हैं। उनके पत्रों से प्रेरणा की ऐसी खुशबू झरती है, जो आपको शानदार आदमी के सौरभ से भर देती है-जरा पत्राचार करके तो देखिए उनसे!
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प्रताप कालोनी (बाफना चाल के पीछे)
हरदा (म. प्र.) 461331
31.07.2008
नंदा बाबा: फकीर से वजीर
ISBN 978.93.80458.14.4
सम्पादक - राजेन्द्र जोशी
प्रकाशक - सामयिक बुक्स,
3320-21, जटवाड़ा,
दरियागंज, एन. एस. मार्ग,
नई दिल्ली - 110002
मोबाइल - 98689 34715, 98116 07086
प्रथम संस्करण - 2010
मूल्य - 300.00
सर्वाधिकार - सम्पादक
आवरण - निर्दोष त्यागी
यह किताब मेरे पास नहीं थी। भोपाल से मेरे छोटे भतीजे गोर्की और बहू अ. सौ. नीरजा ने उपलब्ध कराई।